गच्छता मातुलकुलं भरतेन तदानघः।
शत्रुघ्नो नित्यशत्रुघ्नो नीतः प्रीतिपुरस्कृतः॥१॥
(पहले यह बताया जा चुका है कि) भरत अपने मामा के यहाँ जाते समय काम आदि शत्रुओं को सदा के लिये नष्ट कर देने वाले निष्पाप शत्रुघ्न को भी प्रेमवश अपने साथ लेते गये थे॥१॥
स तत्र न्यवसद् भ्रात्रा सह सत्कारसत्कृतः।
मातुलेनाश्वपतिना पुत्रस्नेहेन लालितः॥२॥
वहाँ भाई सहित उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनके मामा युधाजित् , जो अश्वयूथ के अधिपति थे, उन दोनों पर पुत्र से भी अधिक स्नेह रखते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे॥२॥
तत्रापि निवसन्तौ तौ तर्प्यमाणौ च कामतः।
भ्रातरौ स्मरतां वीरौ वृद्धं दशरथं नृपम्॥३॥
यद्यपि मामा के यहाँ उन दोनों वीर भाइयों की सभी इच्छाएँ पूर्ण करके उन्हें पूर्णतः तृप्त किया जाता था,तथापि वहाँ रहते हुए भी उन्हें अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथ की याद कभी नहीं भूलती थी॥३॥
राजापि तौ महातेजाः सस्मार प्रोषितौ सुतौ।
उभौ भरतशत्रुघ्नौ महेन्द्रवरुणोपमौ॥४॥
महातेजस्वी राजा दशरथ भी परदेश में गये हुए महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी अपने उन दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्न का सदा स्मरण किया करते थे॥ ४॥
सर्व एव तु तस्येष्टाश्चत्वारः पुरुषर्षभाः।
स्वशरीराद् विनिर्वृत्ताश्चत्वार इव बाहवः॥५॥
अपने शरीर से प्रकट हुई चारों भुजाओं के समान वे सब चारों ही पुरुषशिरोमणि पुत्र महाराज को बहुत ही प्रिय थे॥५॥
तेषामपि महातेजा रामो रतिकरः पितुः।
स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः॥६॥
परंतु उनमें भी महातेजस्वी श्रीराम सबकी अपेक्षा अधिक गुणवान् होने के कारण समस्त प्राणियों के लिये ब्रह्माजी की भाँति पिता के लिये विशेष प्रीतिवर्धक थे॥६॥
स हि देवैरुदीर्णस्य रावणस्य वधार्थिभिः।
अर्थितो मानुषे लोके जज्ञे विष्णुः सनातनः॥७॥
इसका एक कारण और भी था—वे साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचण्ड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए थे॥७॥
कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा।
यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना॥८॥
उन अमित तेजस्वी पुत्र श्रीरामचन्द्रजी से महारानी कौसल्या की वैसी ही शोभा होती थी, जैसे वज्रधारी देवराज इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित होती हैं। ८॥
स हि रूपोपपन्नश्च वीर्यवाननसूयकः।
भूमावनुपमः सूनुर्गुणैर्दशरथोपमः॥९॥
श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे। वे किसी के दोष नहीं देखते थे। भूमण्डल में उनकी समता करने वाला कोई नहीं था। वे अपने गुणों से पिता दशरथ के समान एवं योग्य पुत्र थे॥९॥
स च नित्यं प्रशान्तात्मा मृदुपूर्वं च भाषते।
उच्यमानोऽपि परुषं नोत्तरं प्रतिपद्यते॥१०॥
वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वनापूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोई कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे॥१०॥
कदाचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति।
न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया॥११॥
कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकार से सदा संतुष्ट रहते थे और मन को वशमें रखने के कारण किसी के सैकड़ों अपराध करने पर भी उसके अपराधों को याद नहीं रखते थे।
शीलवृद्धैर्ज्ञानवृद्धैर्वयोवृद्धैश्च सज्जनैः।
कथयन्नास्त वै नित्यमस्त्रयोग्यान्तरेष्वपि॥१२॥
अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास के लिये उपयुक्त समय में भी बीच-बीच में अवसर निकालकर वे उत्तम चरित्र में, ज्ञान में तथा अवस्था में बढ़े-चढ़े सत्पुरुषों के साथ ही सदा बातचीत करते (और उनसे शिक्षा लेते थे) ॥ १२॥
बुद्धिमान् मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवदः।
वीर्यवान्न च वीर्येण महता स्वेन विस्मितः॥ १३॥
वे बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये हुए मनुष्यों से पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुँह से निकालते जो उन्हें प्रिय लगें; बल और पराक्रम से सम्पन्न होने पर भी अपने महान् पराक्रम के कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था॥१३॥
न चानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः।
अनुरक्तः प्रजाभिश्च प्रजाश्चाप्यनुरज्यते॥१४॥
झूठी बात तो उनके मुखसे कभी निकलती ही नहीं । थी। वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषोंका सम्मान किया करते थे। प्रजाका श्रीरामके प्रति और श्रीरामका प्रजाके प्रति बड़ा अनुराग था॥ १४ ॥
सानुक्रोशो जितक्रोधो ब्राह्मणप्रतिपूजकः।
दीनानुकम्पी धर्मज्ञो नित्यं प्रग्रहवान् शुचिः॥१५॥
वे परम दयालु क्रोध को जीतने वाले और ब्राह्मणों के पुजारी थे। उनके मन में दीन-दुःखियों के प्रति बड़ी दया थी। वे धर्म के रहस्य को जानने वाले, इन्द्रियों को सदा वश में रखनेवाले और बाहर-भीतर से परम पवित्र थे॥
कुलोचितमतिः क्षात्रं स्वधर्मं बहु मन्यते।
मन्यते परया प्रीत्या महत् स्वर्गफलं ततः॥१६॥
अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागत रक्षा आदि में ही उनका मन लगता था। वे अपने क्षत्रिय धर्म को अधिक महत्त्व देते और मानते थे। वे उस क्षत्रिय धर्म के पालन से महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अतः बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें संलग्न रहते थे॥ १६ ॥
नाश्रेयसि रतो यश्च न विरुद्धकथारुचिः।
उत्तरोत्तरयुक्तीनां वक्ता वाचस्पतिर्यथा॥१७॥
अमङ्गलकारी निषिद्ध कर्म में उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्रविरुद्ध बातों को सुनने में उनकी रुचि नहीं थी; वे अपने न्याययुक्त पक्ष के समर्थन में बृहस्पति के समान एक-से-एक बढ़कर युक्तियाँ देते थे ॥ १७॥
अरोगस्तरुणो वाग्मी वपुष्मान् देशकालवित्।
लोके पुरुषसारज्ञः साधुरेको विनिर्मितः॥१८॥
उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीर से सुशोभित तथा देशकाल के तत्त्व को समझने वाले थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि विधाता ने संसार में समस्त पुरुषों के सारतत्त्व को समझने वाले साधु पुरुष के रूप में एकमात्र श्रीराम को ही प्रकट किया है॥ १८ ॥
स तु श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः।
बहिश्चर इव प्राणो बभूव गुणतः प्रियः॥१९॥
राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणों से युक्त थे वे अपने सद्गुणों के कारण प्रजाजनों को बाहर विचरने वाले प्राण की भाँति प्रिय थे॥ १९॥
सर्वविद्याव्रतस्नातो यथावत् साङ्गवेदवित्।
इष्वस्त्रे च पितुः श्रेष्ठो बभूव भरताग्रजः॥ २०॥
भरत के बड़े भाई श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओं के व्रतमें निष्णात और छहों अङ्गों सहित सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ ज्ञाता थे। बाणविद्या में तो वे अपने पिता से भी बढ़कर थे॥२०॥
कल्याणाभिजनः साधुरदीनः सत्यवागृजुः।
वृद्धैरभिविनीतश्च द्विजैर्धर्मार्थदर्शिभिः॥२१॥
वे कल्याण की जन्मभूमि, साधु, दैन्यरहित, सत्यवादी और सरल थे; धर्म और अर्थके ज्ञाता वृद्ध ब्राह्मणों के द्वारा उन्हें उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई थी॥ २१॥
धर्मकामार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान्।
लौकिके समयाचारे कृतकल्पो विशारदः॥ २२॥
उन्हें धर्म, काम और अर्थ के तत्त्व का सम्यक् ज्ञान था। वे स्मरण शक्ति से सम्पन्न और प्रतिभाशाली थे। वे लोकव्यवहार के सम्पादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में कुशल थे॥ २२ ॥
निभृतः संवृताकारो गुप्तमन्त्रः सहायवान्।
अमोघक्रोधहर्षश्च त्यागसंयमकालवित्॥२३॥
वे विनयशील, अपने आकार (अभिप्राय)-को छिपाने वाले, मन्त्र को गुप्त रखनेवाले और उत्तम सहायकों से सम्पन्न थे। उनका क्रोध अथवा हर्षधन की आय के उपायों को वे अच्छी तरह जानते थे (अर्थात् फूलों को नष्ट न करके) उनसे रस लेने वाले भ्रमरोंकी भाँति वे प्रजाओं को कष्ट दिये बिना ही उनसे न्यायोचित धन का उपार्जन करने में कुशल थे) तथा शास्त्रवर्णित व्यय कर्म का भी उन्हें ठीक-ठीक ज्ञान था ॥२६॥
दृढभक्तिः स्थिरप्रज्ञो नासद्ग्राही न दुर्वचः।
निस्तन्द्रीरप्रमत्तश्च स्वदोषपरदोषवित्॥ २४॥
गुरुजनों के प्रति उनकी दृढ भक्ति थी। वे स्थितप्रज्ञ थे और असदवस्तुओं को कभी ग्रहण नहीं करते थे। उनके मुख से कभी दुर्वचन नहीं निकलता था। वे आलस्यरहित, प्रमादशून्य तथा अपने और पराये मनुष्यों के दोषों को अच्छी प्रकार जानने वाले थे ॥ २४॥
शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषान्तरकोविदः।
यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः॥ २५॥
यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः॥ २५॥
वे शास्त्रों के ज्ञाता, उपकारियों के प्रति कृतज्ञ तथा पुरुषों के तारतम्य को अथवा दूसरे पुरुषों के मनोभाव को जानने में कुशल थे। यथायोग्य निग्रह और अनुग्रह करने में वे पूर्ण चतुर थे॥ २५॥
सत्संग्रहानुग्रहणे स्थानविन्निग्रहस्य च।
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित्॥ २६॥
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित्॥ २६॥
उन्हें सत्पुरुषों के संग्रह और पालन तथा दुष्ट पुरुषों के निग्रह के अवसरों का ठीक-ठाक ज्ञान था। उनकी आय के उपायों को वे अच्छी तरह जानते थे (अर्थात फूलों को नष्ट ना करके उनसे रस लेने वाले भ्रमरों की भांति वे प्रजाओं को कष्ट दिए बिना ही उनसे न्यायोचित धन का उपार्जन करने में कुशल थे) तथा शास्त्रवर्णित व्यय कर्म का भी उन्हें ठीक-ठाक ज्ञान था॥ २६॥
श्रेष्ठ्यं चास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च।
अर्थधर्मी च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः॥२७॥
उन्होंने सब प्रकार के अस्त्रसमूहों तथा संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं से मिश्रित नाटक आदि के ज्ञान में निपुणता प्राप्त की थी। वे अर्थ और धर्म का संग्रह (पालन) करते हुए तदनुकूल काम का सेवन करते थे और कभी आलस्य को पास नहीं फटकने देते थे। २७॥
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्।
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम्॥२८॥
विहार (क्रीडा या मनोरञ्जन)-के उपयोग में आने वाले संगीत, वाद्य और चित्रकारी आदि शिल्पों के भी वे विशेषज्ञ थे। अर्थों के विभाजन का भी उन्हें सम्यक् ज्ञान था। वे हाथियों और घोड़ों पर चढ़ने और उन्हें भाँति-भाँति की चालों की शिक्षा देने में भी निपुण थे॥ २८॥
धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः।
अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः॥ २९॥
श्रीरामचन्द्रजी इस लोकमें धनुर्वेद के सभी विद्वानों में श्रेष्ठ थे। अतिरथी वीर भी उनका विशेष सम्मान करते थे। शत्रुसेना पर आक्रमण और प्रहार करने में वे विशेष कुशल थे। सेना-संचालन की नीति में उन्होंने अधिक निपुणता प्राप्त की थी॥ २९ ॥
अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्वैरपि सुरासुरैः।
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी॥३०॥
संग्राम में कुपित होकर आये हुए समस्त देवता और असुर भी उनको परास्त नहीं कर सकते थे। उनमें दोषदृष्टि का सर्वथा अभाव था। वे क्रोध को जीत चुके थे। दर्प और ईर्ष्या का उनमें अत्यन्त अभाव था॥ ३०॥
नावज्ञेयश्च भूतानां न च कालवशानुगः ।
एवं श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः॥३१॥
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः।
बुद्धया बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्ये चापि शचीपतेः॥ ३२॥
किसी भी प्राणी के मन में उनके प्रति अवहेलना का भाव नहीं था। वे काल के वश में होकर उसके पीछे पीछे चलने वाले नहीं थे (काल ही उनके पीछे चलता । था)। इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण राजकुमार श्रीराम समस्त प्रजाओं तथा तीनों लोकों के प्राणियों के लिये आदरणीय थे। वे अपने क्षमासम्बन्धी गुणों के द्वारा पृथ्वीकी समानता करते थे। बुद्धि में बृहस्पति और बल-पराक्रम में शचीपति इन्द्रके तुल्य थे॥ ३१-३२॥
तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसंजननैः पितुः।
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः ॥ ३३॥
जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से प्रकाशित होते हैं। उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी समस्त प्रजाओं को प्रिय लगने वाले तथा पिता की प्रीति बढ़ाने वाले सद्गुणों से सुशोभित होते थे॥३३॥
तमेवंवृत्तसम्पन्नमप्रधृष्यपराक्रमम्।
लोकनाथोपमं नाथमकामयत मेदिनी॥३४॥
ऐसे सदाचारसम्पन्न, अजेय पराक्रमी और लोकपालों के समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी को पृथ्वी (भूदेवी और भूमण्डल की प्रजा) ने अपना स्वामी बनाने की कामना की॥ ३४॥
एतैस्तु बहुभिर्युक्तं गुणैरनुपमैः सुतम्।
दृष्ट्वा दशरथो राजा चक्रे चिन्तां परंतपः॥ ३५॥
अपने पुत्र श्रीराम को अनेक अनुपम गुणों से युक्त देखकर शत्रुओं को संताप देने वाले राजा दशरथ ने मन-ही-मन कुछ विचार करना आरम्भ किया॥ ३५ ॥
अथ राज्ञो बभूवैव वृद्धस्य चिरजीविनः।
प्रीतिरेषा कथं रामो राजा स्यान्मयि जीवति॥ ३६॥
उन चिरञ्जीवी बूढ़े महाराज दशरथ के हृदय में यह चिन्ता हुई कि किस प्रकार मेरे जीते-जी श्रीरामचन्द्र राजा हो जायँ और उनके राज्याभिषेक से प्राप्त होने वाली यह प्रसन्नता मुझे कैसे सुलभ हो॥३६ ॥
एषा ह्यस्य परा प्रीतिर्हृदि सम्परिवर्तते।
कदा नाम सुतं द्रक्ष्याम्यभिषिक्तमहं प्रियम्॥ ३७॥
उनके हृदय में यह उत्तम अभिलाषा बारम्बार चक्कर लगाने लगी कि कब मैं अपने प्रिय पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक देखेंगा॥ ३७॥
वृद्धिकामो हि लोकस्य सर्वभूतानुकम्पकः।
मत्तः प्रियतरो लोके पर्जन्य इव वृष्टिमान्॥३८॥
वे सोचने लगे कि ‘श्रीराम सब लोगों केअभ्युदय की कामना करते और सम्पूर्ण जीवों पर दया रखते हैं। वे लोक में वर्षा करने वाले मेघ की भाँति मुझसे भी बढ़कर प्रिय हो गये हैं॥ ३८॥
यमशक्रसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ।
महीधरसमो धृत्यां मत्तश्च गुणवत्तरः॥३९॥
‘श्रीराम बल-पराक्रम में यम और इन्द्र के समान, बुद्धि में बृहस्पति के समान और धैर् यमें पर्वत के समानहैं। गुणों में तो वे मुझसे सर्वथा बढ़े-चढ़े हैं॥ ३९॥
महीमहमिमां कृत्स्नामधितिष्ठन्तमात्मजम्।
अनेन वयसा दृष्ट्वा यथा स्वर्गमवाप्नुयाम्॥४०॥
‘मैं इसी उम्र में अपने बेटे श्रीराम को इस सारी पृथ्वी का राज्य करते देख यथासमय सुख से स्वर्ग प्राप्त करूँ, यही मेरे जीवन की साध है’ ॥ ४० ॥
इत्येवं विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः।
शिरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः॥४१॥
तं समीक्ष्य तदा राजा युक्तं समुदितैर्गुणैः।
निश्चित्य सचिवैः सार्धं यौवराज्यममन्यत॥ ४२॥
इस प्रकार विचारकर तथा अपने पुत्र श्रीराम को उन-उन नाना प्रकार के विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य तथा लोकोत्तर गुणों से, जो अन्य राजाओं में दुर्लभ हैं, विभूषित देख राजा दशरथ ने मन्त्रियों के साथ सलाह करके उन्हें युवराज बनाने का निश्चय कर लिया॥ ४१-४२॥
दिव्यन्तरिक्षे भूमौ च घोरमुत्पातजं भयम्।
संचचक्षेऽथ मेधावी शरीरे चात्मनो जराम्॥ ४३॥
बुद्धिमान् महाराज दशरथ ने मन्त्री को स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूतल में दृष्टिगोचर होने वाले उत्पातों का घोर भय सूचित किया और अपने शरीर में वृद्धावस्था के आगमन की भी बात बतायी॥४३॥
पूर्णचन्द्राननस्याथ शोकापनुदमात्मनः।
लोके रामस्य बुबुधे सम्प्रियत्वं महात्मनः॥४४॥
पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजा के प्रिय थे। लोक में उनका सर्वप्रिय होना राजा के अपने आन्तरिक शोक को दूर करनेवाला था, इस बात को राजा ने अच्छी तरह समझा॥४४॥
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च।
प्राप्ते काले स धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः॥ ४५॥
तदनन्तर उपयुक्त समय आने पर धर्मात्मा राजा दशरथ ने अपने और प्रजा के कल्याण के लिये मन्त्रियों को श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये शीघ्र तैयारी करने की आज्ञा दी। इस उतावली में उनके हृदय का प्रेम और प्रजा का अनुराग भी कारण था॥ ४५ ॥
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः॥ ४६॥
उन भूपालने भिन्न-भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य जनपदों के सामन्त राजाओं को भी मन्त्रियोंद् वारा अयोध्या में बुलवा लिया॥ ४६॥
तान् वेश्मनानाभरणैर्यथाहँ प्रतिपूजितान्।
ददर्शालंकृतो राजा प्रजापतिरिव प्रजाः॥४७॥
उन सबको ठहरने के लिये घर देकर नानाप्रकार के आभूषणों द्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया। तत्पश्चात् स्वयं भी अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे उसी प्रकार मिले, जैसे प्रजापति ब्रह्मा प्रजावर्ग से मिलते हैं।
न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम्॥ ४८॥
जल्दीबाजी के कारण राजा दशरथ ने केकयनरेश को तथा मिथिलापति जनक को भी नहीं बुलवाया। उन्होंने सोचा वे दोनों सम्बन्धी इस प्रिय समाचार को पीछे सुन लेंगे॥ ४८ ॥
अथोपविष्टे नृपतौ तस्मिन् परपुरार्दने।
ततः प्रविविशुः शेषा राजानो लोकसम्मताः॥ ४९॥
तदनन्तर शत्रुनगरी को पीड़ित करने वाले राजा दशरथ जब दरबार में आ बैठे, तब (केकयराज और जनक को छोड़कर) शेष सभी लोकप्रिय नरेशों ने राजसभा में प्रवेश किया॥४९॥
अथ राजवितीर्णेषु विविधेष्वासनेषु च।
राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः॥५०॥
वे सभी नरेश राजाद्वारा दिये गये नाना प्रकार के सिंहासनों पर उन्हीं की ओर मुँह करके विनीतभाव से बैठे थे॥५०॥
स लब्धमानैर्विनयान्वितैर्नृपैः पुरालयैर्जानपदैश्च मानवैः।
उपोपविष्टैर्नृपतिर्वृतो बभौ सहस्रचक्षुर्भगवानिवामरैः॥५१॥
राजा से सम्मानित होकर विनीतभाव से उन्हीं के आस-पास बैठे हुए सामन्त (RamCharit.in) नरेशों तथा नगर और जनपद के निवासी मनुष्यों से घिरे हुए महाराज दशरथ उस समय देवताओं के बीच में विराजमान सहस्रनेत्रधारी भगवान् इन्द्र के समान शोभा पा रहे थे। ५१॥
सर्ग २
ततः परिषदं सर्वामामन्त्र्य वसुधाधिपः।
हितमुद्धर्षणं चैवमुवाच प्रथितं वचः॥१॥
दुन्दुभिस्वरकल्पेन गम्भीरेणानुनादिना।
स्वरेण महता राजा जीमूत इव नादयन्॥२॥
उस समय राजसभा में बैठे हुए सब लोगों को सम्बोधित करके महाराज दशरथ ने मेघ के समान शब्द करते हुए दुन्दुभि की ध्वनि के सदृश अत्यन्त गम्भीर एवं गूंजते हुए उच्च स्वर से सबके आनन्द को बढ़ाने वाली यह हितकारक बात कही॥ १-२॥
राजलक्षणयुक्तेन कान्तेनानुपमेन च।
उवाच रसयुक्तेन स्वरेण नृपतिर्नुपान्॥३॥
राजा दशरथ का स्वर राजोचित स्निग्धता और गम्भीरता आदि गुणों से युक्त था, अत्यन्त कमनीय और अनुपम था। वे उस अद्भुत रसमय स्वर से समस्त नरेशों को सम्बोधित करके बोले- ॥३॥
विदितं भवतामेतद् यथा मे राज्यमुत्तमम्।
पूर्वकैर्मम राजेन्द्रैः सुतवत् परिपालितम्॥४॥
‘सज्जनो! आपलोगों को यह तो विदित ही है कि मेरे पूर्वज राजाधिराजों ने इस श्रेष्ठ राज्यका (यहाँ की प्रजा का) किस प्रकार पुत्र की भाँति पालन किया था।
सोऽहमिक्ष्वाकुभिः सर्वैर्नरेन्द्रैः प्रतिपालितम्।
श्रेयसा योक्तुमिच्छामि सुखार्हमखिलं जगत्॥
‘समस्त इक्ष्वाकुवंशी नरेशों ने जिसका प्रतिपालन किया है, उस सुख भोगने के योग्य सम्पूर्ण जगत् को अब मैं भी कल्याण का भागी बनाना चाहता हूँ॥५॥
मयाप्याचरितं पूर्वैः पन्थानमनुगच्छता।
प्रजा नित्यमनिद्रेण यथाशक्त्यभिरक्षिताः॥६॥
‘मेरे पूर्वज जिस मार्ग पर चलते आये हैं, उसी का अनुसरण करते हुए मैंने भी सदा जागरूक रहकर समस्त प्रजाजनों की यथाशक्ति रक्षा की है॥६॥
इदं शरीरं कृत्स्नस्य लोकस्य चरता हितम्।
पाण्डुरस्यातपत्रस्य च्छायायां जरितं मया॥७॥
‘समस्त संसार का हित-साधन करते हुए मैंने इस शरीर को श्वेत राजछत्र की छाया में बूढ़ा किया है। ७॥
प्राप्य वर्षसहस्राणि बहून्यायूंषि जीवतः।
जीर्णस्यास्य शरीरस्य विश्रान्तिमभिरोचये॥८॥
‘अनेक सहस्र (साठ हजार) वर्षों की आयु पाकर जीवित रहते हुए अपने इस जराजीर्ण शरीर को अब मैं विश्राम देना चाहता हूँ॥८॥
राजप्रभावजुष्टां च दुर्वहामजितेन्द्रियैः।
परिश्रान्तोऽस्मि लोकस्य गुर्वी धर्मधुरं वहन्॥
‘जगत् के धर्मपूर्वक संरक्षण का भारी भार राजाओं के शौर्य आदि प्रभावों से ही उठाना सम्भव है। अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इस बोझ को ढोना अत्यन्त कठिन है। मैं दीर्घकाल से इस भारी भार को वहन करते-करते थक गया हूँ॥९॥
सोऽहं विश्राममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते।
संनिकृष्टानिमान् सर्वाननुमान्य द्विजर्षभान्॥१०॥
‘इसलिये यहाँ पास बैठे हुए इन सम्पूर्ण श्रेष्ठ द्विजों की अनुमति लेकर प्रजाजनों के हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके अब मैं राजकार्य से विश्राम लेना चाहता हूँ॥ १० ॥
अनुजातो हि मां सर्वैर्गुणैः श्रेष्ठो ममात्मजः।
पुरन्दरसमो वीर्ये रामः परपुरंजयः॥११॥
‘मेरे पुत्र श्रीराम मेरी अपेक्षा सभी गुणों में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले श्रीरामचन्द्र बल पराक्रम में देवराज इन्द्र के समान हैं ॥ ११॥
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्।
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रातः पुरुषपुङ्गवम्॥१२॥
‘पुष्य नक्षत्र से युक्त चन्द्रमा की भाँति समस्त कार्यों के साधन में कुशल तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ उन पुरुष शिरोमणि श्रीरामचन्द्र को मैं कल प्रातःकाल पुष्यनक्षत्र में युवराज के पदपर नियुक्त करूँगा॥ १२ ॥
अनुरूपः स वो नाथो लक्ष्मीवॉल्लक्ष्मणाग्रजः।
त्रैलोक्यमपि नाथेन येन स्यान्नाथवत्तरम्॥१३॥
‘लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीमान् राम आप लोगों के लिये योग्य स्वामी सिद्ध होंगे; उनके-जैसे स्वामी से सम्पूर्ण त्रिलोकी भी परम सनाथ हो सकती है॥१३॥
अनेन श्रेयसा सद्यः संयोक्ष्येऽहमिमां महीम्।
गतक्लेशो भविष्यामि सुते तस्मिन् निवेश्य वै॥१४॥
‘ये श्रीराम कल्याणस्वरूप हैं; इनका शीघ्र ही अभिषेक करके मैं इस भूमण्डल को तत्काल कल्याण का भागी बनाऊँगा। अपने पुत्र श्रीराम पर राज्य का भार रखकर मैं सर्वथा क्लेशरहित निश्चिन्त हो जाऊँगा॥१४॥
यदिदं मेऽनुरूपार्थं मया साधु सुमन्त्रितम्।
भवन्तो मेऽनुमन्यन्तां कथं वा करवाण्यहम्॥
‘यदि मेरा यह प्रस्ताव आप लोगों को अनुकूल जान पड़े और यदि मैंने यह अच्छी बात सोची हो तो आप लोग इसके लिये मुझे सहर्ष अनुमति दें अथवा यह बतावें कि मैं किस प्रकार से कार्य करूँ ॥ १५ ॥
यद्यप्येषा मम प्रीतिर्हितमन्यद विचिन्त्यताम्।
अन्या मध्यस्थचिन्ता तु विमर्दाभ्यधिकोदया।१६॥
‘यद्यपि यह श्रीराम के राज्याभिषेक का विचार मेरे लिये अधिक प्रसन्नता का विषय है तथापि यदि इसके अतिरिक्त भी कोई सबके लिये हितकर बात हो तो आप लोग उसे सोचें; क्योंकि मध्यस्थ पुरुषों का विचार एकपक्षीय पुरुष की अपेक्षा विलक्षण होता है,कारण कि वह पूर्वपक्ष और अपरपक्ष को लक्ष्य करके किया गया होने के कारण अधिक अभ्युदय करने वाला होता है’ ॥ १६॥
इति ब्रुवन्तं मुदिताः प्रत्यनन्दन् नृपा नृपम्।
वृष्टिमन्तं महामेघं नर्दन्त इव बर्हिणः॥१७॥
राजा दशरथ जब ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उपस्थित नरेशों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन महाराज का उसी प्रकार अभिनन्दन किया, जैसे मोर मधुर के कारव फैलाते हुए वर्षा करने वाले महामेघ का अभिनन्दन करते हैं॥ १७॥
स्निग्धोऽनुनादः संजज्ञे ततो हर्षसमीरितः।
जनौघो ष्टसंनादो मेदिनी कम्पयन्निव॥१८॥
तत्पश्चात् समस्त जनसमुदाय की स्नेहमयी हर्षध्वनि सुनायी पड़ी वह इतनी प्रबल थी कि समस्त पृथ्वी को कँपाती हुई-सी जान पड़ी॥ १८॥
तस्य धर्मार्थविदुषो भावमाज्ञाय सर्वशः।
ब्राह्मणा बलमुख्याश्च पौरजानपदैः सह ॥१९॥
समेत्य ते मन्त्रयितुं समतागतबुद्धयः।
ऊचुश्च मनसा ज्ञात्वा वृद्धं दशरथं नृपम्॥२०॥
धर्म और अर्थ के ज्ञाता महाराज दशरथ के अभिप्राय को पूर्णरूप से जानकर सम्पूर्ण ब्राह्मण और सेनापति नगर और जनपद के प्रधान-प्रधान व्यक्तियों के साथ मिलकर परस्पर सलाह करने के लिये बैठे और मन से सब कुछ समझकर जब वे एक निश्चयपर पहुँच गये, तब बूढ़े राजा दशरथ से इस प्रकार बोले- ॥ १९-२०॥
अनेकवर्षसाहस्रो वृद्धस्त्वमसि पार्थिव।
स रामं युवराजानमभिषिञ्चस्व पार्थिवम्॥२१॥
‘पृथ्वीनाथ! आपकी अवस्था कई हजार वर्षों की हो गयी आप बूढ़े हो गये। अतः पृथ्वी के पालन में समर्थ अपने पुत्र श्रीराम का अवश्य ही युवराज के पदपर अभिषेक कीजिये॥ २१॥
इच्छामो हि महाबाहुं रघुवीरं महाबलम्।
गजेन महता यान्तं रामं छत्रावृताननम्॥ २२॥
‘रघुकुल के वीर महाबलवान् महाबाहु श्रीराम महान् गजराज पर बैठकर यात्रा करते हों और उनके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ हो—इस रूप में हम उनकी झाँकी करना चाहते हैं’ ॥ २२ ॥
इति तद्वचनं श्रुत्वा राजा तेषां मनःप्रियम्।
अजानन्निव जिज्ञासुरिदं वचनमब्रवीत्॥२३॥
उनकी यह बात राजा दशरथ के मन को प्रिय लगनेवाली थी; इसे सुनकर राजा दशरथ अनजान-से बनकर उन सबके मनोभाव को जानने की इच्छा से इस प्रकार बोले- ॥ २३॥
श्रुत्वैतद् वचनं यन्मे राघवं पतिमिच्छथ।
राजानः संशयोऽयं मे तदिदं ब्रूत तत्त्वतः॥२४॥
‘राजागण ! मेरी यह बात सुनकर जो आप लोगों ने श्रीराम को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की है, इसमें मुझे यह संशय हो रहा है जिसे आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। आप इसे सुनकर इसका यथार्थ उत्तर दें॥२४॥
कथं नु मयि धर्मेण पृथिवीमनुशासति।
भवन्तो द्रष्टुमिच्छन्ति युवराजं महाबलम्॥ २५॥
‘मैं धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का निरन्तर पालन कर रहा हूँ, फिर मेरे रहते हुए आप लोग महाबली श्रीराम को युवराज के रूप में क्यों देखना चाहते हैं?’ ॥ २५ ॥
ते तमूचुर्महात्मानः पौरजानपदैः सह।
बहवो नृप कल्याणगुणाः सन्ति सुतस्य ते॥ २६॥
यह सुनकर वे महात्मा नरेश नगर और जनपद के लोगों के साथ राजा दशरथ से इस प्रकार बोले —’महाराज! आपके पुत्र श्रीराम में बहुत-से कल्याणकारी सद्गुण हैं॥ २६॥
गुणान् गुणवतो देव देवकल्पस्य धीमतः।
प्रियानानन्दनान् कृत्स्नान् प्रवक्ष्यामोऽद्य तान्शृणु॥ २७॥
‘देव! देवताओं के तुल्य बुद्धिमान् और गुणवान् श्रीरामचन्द्रजी के सारे गुण सबको प्रिय लगने वाले और आनन्ददायक हैं, हम इस समय उनका यत्किंचित् वर्णन कर रहे हैं, आप उन्हें सुनिये॥ २७॥
दिव्यैर्गुणैः शक्रसमो रामः सत्यपराक्रमः।
इक्ष्वाकुभ्योऽपि सर्वेभ्यो ह्यतिरिक्तो विशाम्पते॥ २८॥
‘प्रजानाथ! सत्यपराक्रमी श्रीराम देवराज इन्द्रके समान दिव्य गुणों से सम्पन्न हैं, इक्ष्वाकुकुलमें भी ये सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ २८॥
रामः सत्पुरुषो लोके सत्यः सत्यपरायणः।
साक्षाद् रामाद् विनिर्वृत्तो धर्मश्चापि श्रिया सह॥ २९॥
‘श्रीराम संसार में सत्यवादी, सत्यपरायण और सत्पुरुष हैं। साक्षात् श्रीराम ने ही अर्थ के साथ धर्म को भी प्रतिष्ठित किया है॥ २९॥
प्रजासुखत्वे चन्द्रस्य वसुधायाः क्षमागुणैः।
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्ये साक्षाच्छचीपतेः॥ ३०॥
‘ये प्रजा को सुख देने में चन्द्रमा की और क्षमारूपी गुण में पृथ्वी की समानता करते हैं। बुद्धि में बृहस्पति और बल-पराक्रम में साक्षात् शचीपति इन्द्र के समान हैं।॥ ३०॥
धर्मज्ञः सत्यसंधश्च शीलवाननसूयकः।
क्षान्तः सान्त्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेन्द्रियः॥३१॥
मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः।
प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः॥ ३२॥
‘श्रीराम धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, शीलवान्, अदोषदर्शी,शान्त, दीन-दुःखियों को सान्त्वना प्रदान करनेवाले, मृदुभाषी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, कोमल स्वभाव वाले, स्थिरबुद्धि, सदा कल्याणकारी, असूयारहित, समस्त प्राणियों के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले और सत्यवादी हैं। ३१-३२॥
बहुश्रुतानां वृद्धानां ब्राह्मणानामुपासिता।
तेनास्येहातुला कीर्तिर्यशस्तेजश्च वर्धते॥३३॥
‘वे बहुश्रुत विद्वानों, बड़े-बूढ़ों तथा ब्राह्मणों के उपासक हैं-सदा ही उनका संग किया करते हैं, इसलिये इस जगत् में श्रीराम की अनुपम कीर्ति, यश और तेज का विस्तार हो रहा है। ३३ ॥
देवासुरमनुष्याणां सर्वास्त्रेषु विशारदः।
सम्यग् विद्याव्रतस्नातो यथावत् साङ्गवेदवित्॥ ३४॥
‘देवता, असुर और मनुष्यों के सम्पूर्ण अस्त्रों का उन्हें विशेष रूप से ज्ञान है। वे साङ्ग वेद के यथार्थ विद्वान् और सम्पूर्ण विद्याओं में भलीभाँति निष्णात हैं॥ ३४॥
गान्धर्वे च भुवि श्रेष्ठो बभूव भरताग्रजः।
कल्याणाभिजनः साधुरदीनात्मा महामतिः॥ ३५॥
‘भरत के बड़े भाई श्रीराम गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) में भी इस भूतलपर सबसे श्रेष्ठ हैं। कल्याण की तो वे जन्मभूमि हैं। उनका स्वभाव साधु पुरुषों के समान है, हृदय उदार और बुद्धि विशाल है॥ ३५॥
द्विजैरभिविनीतश्च श्रेष्ठधर्मार्थनैपुणैः।
यदा व्रजति संग्रामं ग्रामार्थे नगरस्य वा॥३६॥
गत्वा सौमित्रिसहितो नाविजित्य निवर्तते।
‘धर्म और अर्थ के प्रतिपादन में कुशल श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उन्हें उत्तम शिक्षा दी है। वे ग्राम अथवा नगर की रक्षा के लिये लक्ष्मण के साथ जब संग्राम भूमि में जाते हैं, उस समय वहाँ जाकर विजय प्राप्त किये बिना पीछे नहीं लौटते॥३६ १/२ ॥
संग्रामात् पुनरागत्य कुञ्जरेण रथेन वा॥३७॥
पौरान् स्वजनवन्नित्यं कुशलं परिपृच्छति।
पुत्रेष्वग्निषु दारेषु प्रेष्यशिष्यगणेषु च ॥ ३८॥
‘संग्रामभूमि से हाथी अथवा रथ के द्वारा पुनः अयोध्या लौटने पर वे पुरवासियों से स्वजनों की भाँति प्रतिदिन उनके पुत्रों, अग्निहोत्र की अग्नियों, स्त्रियों, सेवकों और शिष्यों का कुशल-समाचार पूछते रहते हैं।
निखिलेनानुपूर्व्या च पिता पुत्रानिवौरसान्।
शुश्रूषन्ते च वः शिष्याः कच्चिद् वर्मसु दंशिताः॥३९॥
इति वः पुरुषव्याघ्रः सदा रामोऽभिभाषते।
‘जैसे पिता अपने और स पुत्रों का कुशल-मङ्गल पूछता है, उसी प्रकार वे समस्त पुरवासियों से क्रमशःउनका सारा समाचार पूछा करते हैं। पुरुष सिंह श्रीराम ब्राह्मणों से सदा पूछते रहते हैं कि ‘आपके शिष्य आप लोगों की सेवा करते हैं न?’ क्षत्रियों से यह जिज्ञासा करते हैं कि ‘आपके सेवक कवच आदि से सुसज्जित हो आपकी सेवा में तत्पर रहते हैं न?’॥ ३९ १/२॥
व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखितः॥४०॥
उत्सवेषु च सर्वेषु पितेव परितुष्यति।
‘नगर के मनुष्यों पर संकट आने पर वे बहुत दुःखी हो जाते हैं और उन सबके घरों में सब प्रकार के उत्सव होने पर उन्हें पिता की भाँति प्रसन्नता होती है। ४० १/२॥
सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः॥४१॥
स्मितपूर्वाभिभाषी च धर्मं सर्वात्मनाश्रितः।
सम्यग्योक्ता श्रेयसां च न विगृह्यकथारुचिः॥ ४२॥
‘वे सत्यवादी, महान् धनुर्धर, वृद्ध पुरुषों के सेवक और जितेन्द्रिय हैं। श्रीराम पहले मुसकराकर वार्तालाप आरम्भ करते हैं, उन्होंने सम्पूर्ण हृदय से धर्म का आश्रय ले रखा है। वे कल्याण का सम्यक् आयोजन करने वाले हैं, निन्दनीय बातों की चर्चा में उनकी कभी रुचि नहीं होती है।
उत्तरोत्तरयुक्तौ च वक्ता वाचस्पतिर्यथा।
सुभ्रूरायतताम्राक्षः साक्षाद् विष्णुरिव स्वयम्॥४३॥
“उत्तरोत्तर उत्तम युक्ति देते हुए वार्तालाप करने में वे साक्षात् बृहस्पति के समान हैं। उनकी भौहें सुन्दर हैं,आँखें विशाल और कुछ लालिमा लिये हुए हैं। वे साक्षात् विष्णु की भाँति शोभा पाते हैं। ४३॥
रामो लोकाभिरामोऽयं शौर्यवीर्यपराक्रमैः।
प्रजापालनसंयुक्तो न रागोपहतेन्द्रियः॥४४॥
‘सम्पूर्ण लोकों को आनन्दित करने वाले ये श्रीराम शूरता, वीरता और पराक्रम आदि के द्वारा सदा प्रजा का पालन करने में लगे रहते हैं। उनकी इन्द्रियाँ राग आदि दोषों से दूषित नहीं होती हैं॥ ४४॥
शक्तस्त्रैलोक्यमप्येष भोक्तुं किं नु महीमिमाम्।
नास्य क्रोधः प्रसादश्च निरर्थोऽस्ति कदाचन। ४५॥
‘इस पृथ्वी की तो बात ही क्या है, वे सम्पूर्ण त्रिलोकी की भी रक्षा कर सकते हैं। उनका क्रोध और प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता है॥ ४५ ॥
हन्त्येष नियमाद् वध्यानवध्येषु न कुप्यति।
युनक्त्यर्थैः प्रहृष्टश्च तमसौ यत्र तुष्यति॥४६॥
‘जो शास्त्र के अनुसार प्राणदण्ड पाने के अधिकारी हैं, उनका ये नियमपूर्वक वध कर डालते हैं तथा जो शास्त्रदृष्टि से अवध्य हैं, उनपर ये कदापि कुपित नहीं होते हैं। जिस पर ये संतुष्ट होते हैं, उसे हर्ष में भरकर धन से परिपूर्ण कर देते हैं।॥ ४६॥
दान्तैः सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसंजननैर्नृणाम्।
गुणैर्विरोचते रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः॥४७॥
‘समस्त प्रजाओं के लिये कमनीय तथा मनुष्यों का आनन्द बढ़ाने वाले मन और इन्द्रियों के संयम आदि सद्गुणों द्वारा श्रीराम वैसे ही शोभा पाते हैं, जैसे तेजस्वी सूर्य अपनी किरणों से सुशोभित होते हैं। ४७॥
तमेवंगुणसम्पन्नं रामं सत्यपराक्रमम्।
लोकपालोपमं नाथमकामयत मेदिनी॥४८॥
‘ऐसे सर्वगुणसम्पन्न, लोकपालों के समान प्रभावशाली एवं सत्यपराक्रमी श्रीराम को इस पृथ्वी की जनता अपना स्वामी बनाना चाहती है। ४८॥
वत्सः श्रेयसि जातस्ते दिष्ट्यासौ तव राघवः।
दिष्टया पुत्रगुणैर्युक्तो मारीच इव कश्यपः॥४९॥
‘हमारे सौभाग्य से आपके वे पुत्र श्रीरघुनाथजी प्रजा का कल्याण करने में समर्थ हो गये हैं तथा आपके सौभाग्यसे वे मरीचिनन्दन कश्यप की भाँति पुत्रोचित गुणों से सम्पन्न हैं। ४९ ॥
बलमारोग्यमायुश्च रामस्य विदितात्मनः।
देवासुरमनुष्येषु सगन्धर्वोरगेषु च॥५०॥
आशंसते जनः सर्वो राष्ट्र पुरवरे तथा।
आभ्यन्तरश्च बाह्यश्च पौरजानपदो जनः॥५१॥
‘देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धर्वो और नागों में से प्रत्येक वर्ग के लोग तथा इस राज्य और राजधानी में भी बाहर-भीतर आने-जाने वाले नगर और जनपद के सभी लोग सुविख्यात शील स्वभाव वाले श्रीरामचन्द्रजी के लिये सदा ही बल, आरोग्य और आयु की शुभ कामना करते हैं।
स्त्रियो वृद्धास्तरुण्यश्च सायं प्रातः समाहिताः।
सर्वा देवान्नमस्यन्ति रामस्यार्थे मनस्विनः।
तेषां तद् याचितं देव त्वत्प्रसादात्समृद्ध्यताम्॥ ५२॥
‘इस नगर की बूढ़ी और युवती–सब तरहकी स्त्रियाँ सबेरे और सायंकाल में एकाग्रचित्त होकर परम उदार श्रीरामचन्द्रजी के युवराज होने के लिये देवताओं से नमस्कार पूर्वक प्रार्थना किया करती हैं। देव! उनकी वह प्रार्थना आपके कृपा-प्रसाद से अब पूर्ण होनी चाहिये॥५२॥
राममिन्दीवरश्याम सर्वशत्रुनिबर्हणम्।
पश्यामो यौवराज्यस्थं तव राजोत्तमात्मजम्॥ ५३॥
‘नृपश्रेष्ठ! जो नीलकमल के समान श्यामकान्ति से सुशोभित तथा समस्त शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हैं, आपके उन ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को हम युवराजपद पर विराजमान देखना चाहते हैं॥५३॥
तं देवदेवोपममात्मजं ते सर्वस्य लोकस्य हिते निविष्टम्।
हिताय नः क्षिप्रमुदारजुष्टं मुदाभिषेक्तुं वरद त्वमर्हसि ॥५४॥
‘अतः वरदायक महाराज! आप देवाधिदेव श्रीविष्णु के समान पराक्रमी, सम्पूर्ण लोकों के हित में संलग्न रहने वाले और महापुरुषों द्वारा सेवित अपने पुत्र श्रीरामचन्द्रजी का जितना शीघ्र हो सके प्रसन्नता पूर्वक राज्याभिषेक कीजिये, इसी में हमलोगों का हित है’ ॥ ५४॥
सर्ग ३
तेषामञ्जलिपद्मानि प्रगृहीतानि सर्वशः।
प्रतिगृह्याब्रवीद राजा तेभ्यः प्रियहितं वचः॥१॥
सभासदों ने कमलपुष्प की-सी आकृति वाली अपनी अञ्जलियों को सिर से लगाकर सब प्रकार से महाराज के प्रस्ताव का समर्थन किया; उनकी वह पद्माञ्जलि स्वीकार करके राजा दशरथ उन सबसे प्रिय और हितकारी वचन बोले- ॥१॥
अहोऽस्मि परमप्रीतः प्रभावश्चातुलो मम।
यन्मे ज्येष्ठं प्रियं पुत्रं यौवराज्यस्थमिच्छथ॥२॥
‘अहो! आप लोग जो मेरे परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को युवराज के पदपर प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है तथा मेरा प्रभाव अनुपम हो गया है’ ॥ २॥
इति प्रत्यर्चितान् राजा ब्राह्मणानिदमब्रवीत्।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम्॥३॥
इस प्रकार की बातों से पुरवासी तथा अन्यान्य सभासदों का सत्कार करके राजा ने उनके सुनते हुए ही वामदेव और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से इस प्रकार कहा— ॥३॥
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्॥४॥
‘यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर और पवित्र है, इसमें सारे वन-उपवन खिल उठे हैं; अतः इस समय श्रीराम का युवराजपद पर अभिषेक करने के लिये आपलोग सब सामग्री एकत्र कराइये ॥ ४॥
राज्ञस्तूपरते वाक्ये जनघोषो महानभूत्।
शनैस्तस्मिन् प्रशान्ते च जनघोषे जनाधिपः॥५॥
वसिष्ठं मुनिशार्दूलं राजा वचनमब्रवीत्।
राजा की यह बात समाप्त होने पर सब लोग हर्ष के कारण महान् कोलाहल करने लगे। धीरे-धीरे उस जनरव के शान्त होने पर प्रजापालक नरेश दशरथ ने मुनिप्रवर वसिष्ठ से यह बात कही— ॥ ५ १/२ ॥
अभिषेकाय रामस्य यत् कर्म सपरिच्छदम्॥६॥
तदद्य भगवन् सर्वमाज्ञापयितुमर्हसि।
‘भगवन्! श्रीराम के अभिषेक के लिये जो कर्म आवश्यक हो, उसे साङ्गोपाङ्ग बताइये और आज ही उस सबकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दीजिये’ ।। ६ १/२॥
तच्छ्रुत्वा भूमिपालस्य वसिष्ठो मुनिसत्तमः॥७॥
आदिदेशाग्रतो राज्ञः स्थितान् युक्तान् कृताञ्जलीन्।
महाराजका यह वचन सुनकर मुनिवर वसिष्ठने राजा के सामने ही हाथ जोड़कर खड़े हुए आज्ञापालन के लिये तैयार रहने वाले सेवकों से कहा – ॥ ७ १/२ ॥
सुवर्णादीनि रत्नानि बलीन् सर्वौषधीरपि॥८॥
शुक्लमाल्यानि लाजांश्च पृथक् च मधुसर्पिषी।
अहतानि च वासांसि रथं सर्वायुधान्यपि॥९॥
चतुरङ्गबलं चैव गजं च शुभलक्षणम्।
चामरव्यजने चोभे ध्वजं छत्रं च पाण्डुरम्॥ १०॥
शतं च शातकुम्भानां कुम्भानामग्निवर्चसाम्।
हिरण्यशृङमृषभं समग्रं व्याघ्रचर्म च॥११॥
यच्चान्यत् किंचिदेष्टव्यं तत् सर्वमुपकल्प्यताम्।
उपस्थापयत प्रातरग्न्यगारे महीपतेः॥१२॥
‘तुम लोग सुवर्ण आदि रत्न, देवपूजन की सामग्री, सब प्रकार की ओषधियाँ, श्वेत पुष्पों की मालाएँ,खील, अलग-अलग पात्रों में शहद और घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, चतुरङ्गिणी सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय की पूँछ के बालों से बने हुए दो व्यजन, ध्वज, श्वेत छत्र, अग्नि के समान देदीप्यमान सो नेके सौ कलश, सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाला एक साँड, समूचा व्याघ्रचर्म तथा और जो कुछ भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सबको एकत्र करो और प्रातःकाल महाराज की अग्निशाला में पहुँचा दो॥ ८–१२॥
अन्तःपुरस्य द्वाराणि सर्वस्य नगरस्य च।
चन्दनस्रग्भिरच॑न्तां धूपैश्च घ्राणहारिभिः॥ १३॥
‘अन्तःपुर तथा समस्त नगर के सभी दरवाजों को चन्दन और मालाओं से सजा दो तथा वहाँ ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुगन्ध से लोगों को आकर्षित कर लें॥ १३॥
प्रशस्तमन्नं गुणवद् दधिक्षीरोपसेचनम्।
द्विजानां शतसाहस्रं यत्प्रकाममलं भवेत्॥१४॥
‘दही, दूध और घी आदि से संयुक्त अत्यन्त उत्तम एवं गुणकारी अन्न तैयार कराओ, जो एक लाख ब्राह्मणों के भोजन के लिये पर्याप्त हो॥ १४ ॥
सत्कृत्य द्विजमुख्यानां श्वः प्रभाते प्रदीयताम्।
घृतं दधि च लाजाश्च दक्षिणाश्चापि पुष्कलाः॥ १५॥
‘कल प्रातःकाल श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें वह अन्न प्रदान करो; साथ ही घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणाएँ भी दो॥ १५ ॥
सूर्येऽभ्युदितमात्रे श्वो भविता स्वस्तिवाचनम्।
ब्राह्मणाश्च निमन्त्र्यन्तां कल्प्यन्तामासनानि च। १६॥
‘कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा, इसके लिये ब्राह्मणों को निमन्त्रित करो और उनके लिये आसनों का प्रबन्ध कर लो॥१६॥
आबध्यन्तां पताकाश्च राजमार्गश्च सिच्यताम्।
सर्वे च तालापचरा गणिकाश्च स्वलंकृताः॥ १७॥
कक्ष्यां द्वितीयामासाद्य तिष्ठन्तु नृपवेश्मनः।
‘नगरमें सब ओर पताकाएँ फहरायी जायँ तथा राजमार्गों पर छिड़काव कराया जाय। समस्त तालजीवी (संगीतनिपुण) पुरुष और सुन्दर वेषभूषा से विभूषित वाराङ्गनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहल की दूसरी कक्षा (ड्यौढ़ी) में पहुँचकर खड़ी रहें॥ १७ १/२॥
देवायतनचैत्येषु सान्नभक्ष्याः सदक्षिणाः॥१८॥
उपस्थापयितव्याः स्युर्माल्ययोग्याः पृथक्पृथक्।
‘देव-मन्दिरों में तथा चैत्यवृक्षों के नीचे या चौराहों पर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् भक्ष्य-भोज्य पदार्थ एवं दक्षिणा प्रस्तुत करनी चाहिये॥ १८ १/२ ॥
दीर्घासिबद्धगोधाश्च संनद्धा मृष्टवाससः॥१९॥
महाराजाङ्गनं शूराः प्रविशन्तु महोदयम्।
‘लंबी तलवार लिये और गोधाचर्म के बने दस्ताने पहने और कमर कसकर तैयार रहने वाले शूर-वीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण किये महाराज के महान् अभ्युदयशाली आँगनमें प्रवेश करें’॥ १९ १/२॥
एवं व्यादिश्य विप्रौ तु क्रियास्तत्र विनिष्ठितौ॥ २०॥
चक्रतश्चैव यच्छेषं पार्थिवाय निवेद्य च।
सेवकों को इस प्रकार कार्य करने का आदेश देकर दोनों ब्राह्मण वसिष्ठ और वामदेव ने पुरोहित द्वारा सम्पादित होने योग्य क्रियाओं को स्वयं पूर्ण किया। राजा के बताये हुए कार्यों के अतिरिक्त भी जो शेष आवश्यक कर्तव्य था उसे भी उन दोनों ने राजा से पूछकर स्वयं ही सम्पन्न किया॥ २० १/२॥
कृतमित्येव चाब्रूतामभिगम्य जगत्पतिम्॥२१॥
यथोक्तवचनं प्रीतौ हर्षयुक्तौ द्विजोत्तमौ।
तदनन्तर महाराज के पास जाकर प्रसन्नता और हर्ष से भरे हुए वे दोनों श्रेष्ठ द्विज बोले—’राजन् ! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब कार्य सम्पन्न हो गया’ ॥ २१ १/२॥
ततः सुमन्त्रं द्युतिमान् राजा वचनमब्रवीत्॥२२॥
रामः कृतात्मा भवता शीघ्रमानीयतामिति।
इसके बाद तेजस्वी राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा – ‘सखे! पवित्रात्मा श्रीराम को तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ’ ।। २२ १/२॥
स तथेति प्रतिज्ञाय सुमन्त्रो राजशासनात्॥२३॥
रामं तत्रानयांचक्रे रथेन रथिनां वरम्।
तब ‘जो आज्ञा’ कहकर सुमन्त्र गये तथा राजा के आदेशानुसार रथियों में श्रेष्ठ श्रीराम को रथपर बिठाकर ले आये॥ २३ १/२॥
अथ तत्र सहासीनास्तदा दशरथं नृपम्॥२४॥
प्राच्योदीच्या प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च भूमिपाः।
म्लेच्छाश्चार्याश्च ये चान्ये वनशैलान्तवासिनः॥
उपासांचक्रिरे सर्वे तं देवा वासवं यथा।
उस राजभवन में साथ बैठे हुए पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के भूपाल, म्लेच्छ, आर्य तथा वनों और पर्वतों में रहने वाले अन्यान्य मनुष्य सब-के-सब उस समय राजा दशरथ की उसी प्रकार उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इन्द्र की॥ २४-२५ १/२ ॥
तेषां मध्ये स राजर्षिर्मरुतामिव वासवः ॥२६॥
प्रासादस्थो दशरथो ददर्शायान्तमात्मजम्।
गन्धर्वराजप्रतिमं लोके विख्यातपौरुषम्॥२७॥
उनके बीच अट्टालिका के भीतर बैठे हुए राजा दशरथ मरुद्गणों के मध्य देवराज इन्द्र की भाँति शोभा पा रहे थे; उन्होंने वहीं से अपने पुत्र श्रीराम को अपने पास आते देखा, जो गन्धर्वराज के समान तेजस्वी थे, उनका पौरुष समस्त संसार में विख्यात था॥ २६-२७॥
दीर्घबाहुं महासत्त्वं मत्तमातङ्गगामिनम्।
चन्द्रकान्ताननं राममतीव प्रियदर्शनम्॥२८॥
रूपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणम्।
घर्माभितप्ताः पर्जन्यं ह्लादयन्तमिव प्रजाः॥२९॥
उनकी भुजाएँ बड़ी और बल महान् था। वे । मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती के साथ चल रहे थे। उनका मुख चन्द्रमा से भी अधिक कान्तिमान् था। श्रीराम का दर्शन सबको अत्यन्त प्रिय लगता था। वे अपने रूप और उदारता आदि गुणों से लोगों की दृष्टि और मन आकर्षित कर लेते थे। जैसे धूप में तपे हुए प्राणियों को मेघ आनन्द प्रदान करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजा को परम आह्लाद देते रहते थे। २८-२९॥
न ततर्प समायान्तं पश्यमानो नराधिपः।
अवतार्य सुमन्त्रस्तु राघवं स्यन्दनोत्तमात्॥३०॥
पितुः समीपं गच्छन्तं प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात्।
आते हुए श्रीरामचन्द्र की ओर एकटक देखते हुए राजा दशरथ को तृप्ति नहीं होती थी। सुमन्त्र ने उस श्रेष्ठ रथ से श्रीरामचन्द्रजी को उतारा और जब वे पिता के समीप जाने लगे, तब सुमन्त्र भी उनके पीछे पीछे हाथ जोड़े हुए गये॥ ३० १/२॥
स तं कैलासशृङ्गाभं प्रासादं रघुनन्दनः॥३१॥
आरुरोह नृपं द्रष्टुं सहसा तेन राघवः।
वह राजमहल कैलास शिखर के समान उज्ज्वल और ऊँचा था, रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम महाराज का दर्शन करने के लिये सुमन्त्र के साथ सहसा उस पर चढ़ गये॥ ३१ १/२ ॥
स प्राञ्जलिरभिप्रेत्य प्रणतः पितुरन्तिके॥३२॥
नाम स्वं श्रावयन् रामो ववन्दे चरणौ पितुः।
श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर विनीत भाव से पिता के पास गये और अपना नाम सुनाते हुए उन्होंने उनके दोनों चरणों में प्रणाम किया॥ ३२ १/२ ॥
तं दृष्ट्वा प्रणतं पार्वे कृताञ्जलिपुटं नृपः॥ ३३॥
गृह्याञ्जलौ समाकृष्य सस्वजे प्रियमात्मजम्।
श्रीरामको पास आकर हाथ जोड़ प्रणाम करते देख राजाने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्रको पास खींचकर छातीसे लगा लिया। ३३ १/२॥
तस्मै चाभ्युद्यतं सम्यमणिकाञ्चनभूषितम्॥ ३४॥
दिदेश राजा रुचिरं रामाय परमासनम्।
उस समय राजा ने उन श्रीरामचन्द्रजी को मणिजटित सुवर्ण से भूषित एक परम सुन्दर सिंहासन पर बैठने की आज्ञा दी, जो पहले से उन्हीं के लिये वहाँ उपस्थित किया गया था॥ ३४ १/२॥
तथाऽऽसनवरं प्राप्य व्यदीपयत राघवः॥ ३५॥
स्वयैव प्रभया मेरुमदये विमलो रविः।
जैसे निर्मल सूर्य उदयकाल में मेरुपर्वत को अपनी किरणों से उद्भासित कर देते हैं उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी उस श्रेष्ठ आसन को ग्रहण करके अपनी ही प्रभा से उसे प्रकाशित करने लगे। ३५ १/२ ॥
तेन विभ्राजिता तत्र सा सभापि व्यरोचत॥३६॥
विमलग्रहनक्षत्रा शारदी द्यौरिवेन्दुना।
उनसे प्रकाशित हुई वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी। ठीक उसी तरह जैसे निर्मल ग्रह और नक्षत्रों से भरा हुआ शरत्-काल का आकाश चन्द्रमा से उद्भासित हो उठता है॥ ३६ १/२ ॥
तं पश्यमानो नृपतिस्तुतोष प्रियमात्मजम्॥३७॥
अलंकृतमिवात्मानमादर्शतलसंस्थितम्।
जैसे सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत हुए अपने ही प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखकर मनुष्य को बड़ा संतोष प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपने शोभाशाली प्रिय पुत्र उन श्रीराम को देखकर राजा बड़े प्रसन्न हुए॥ ३७ १/२॥
स तं सुस्थितमाभाष्य पुत्रं पुत्रवतां वरः॥ ३८॥
उवाचेदं वचो राजा देवेन्द्रमिव कश्यपः।
जैसे कश्यप देवराज इन्द्र को पुकारते हैं, उसी प्रकार पुत्रवानों में श्रेष्ठ राजा दशरथ सिंहासन पर बैठे हुए अपने पुत्र श्रीराम को सम्बोधित करके उनसे इस प्रकार बोले
ज्येष्ठायामसि मे पत्न्यां सदृश्यां सदृशः सुतः॥ ३९॥
उत्पन्नस्त्वं गुणज्येष्ठो मम रामात्मजः प्रियः।
त्वया यतः प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः॥ ४०॥
तस्मात् त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि।
‘बेटा! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्या के गर्भसे हुआ है। तुम अपनी माता के अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो। श्रीराम! तुम गुणों में मुझसे भी बढ़कर हो, अतः मेरे परम प्रिय पुत्र हो; तुमने अपने गुणों से इन समस्त प्रजाओं को प्रसन्न कर लिया है, इसलिये कल पुष्यनक्षत्र के योग में युवराज का पद ग्रहण करो॥ ३९-४० १/२ ॥
कामतस्त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति॥४१॥
गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः॥ ४२॥
‘बेटा! यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में यही सबका निर्णय है तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होने पर भी तुम्हें कुछ हित की बातें बताता हूँ। तुम और भी अधिक विनय का आश्रय लेकर सदा जितेन्द्रिय बने रहो। ४१-४२॥
कामक्रोधसमुत्थानि त्यजस्व व्यसनानि च।
परोक्षया वर्तमानो वृत्त्या प्रत्यक्षया तथा॥४३॥
‘काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग कर दो, परोक्षवृत्ति से (अर्थात् गुप्तचरों द्वारा यथार्थ बातों का पता लगाकर) तथा प्रत्यक्षवृत्ति से (अर्थात् दरबार में सामने आकर कहने वाली जनता के मुख से उसके वृत्तान्तों को प्रत्यक्ष देख-सुनकर) ठीक-ठीक न्यायविचार में तत्पर रहो॥ ४३॥
अमात्यप्रभृतीः सर्वाः प्रजाश्चैवानुरञ्जय।
कोष्ठागारायुधागारैः कृत्वा संनिचयान् बहून्॥ ४४॥
इष्टानुरक्तप्रकृतिर्यः पालयति मेदिनीम्।
तस्य नन्दन्ति मित्राणि लब्ध्वामृतमिवामराः॥ ४५॥
‘मन्त्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों तथा प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। जो राजा कोष्ठागार(भण्डारगृह) तथा शस्त्रागार आदि के द्वारा उपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा संग्रह करके मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि समस्त प्रकृतियों को प्रिय मानकर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवं प्रसन्न रखते हुए पृथ्वी का पालन करता है, उसके मित्र उसी प्रकार आनन्दित होते हैं, जैसे अमृत को पाकर देवता प्रसन्न हुए थे॥ ४४-४५॥
तस्मात् पुत्र त्वमात्मानं नियम्यैवं समाचर।
तच्छ्रुत्वा सुहृदस्तस्य रामस्य प्रियकारिणः॥४६॥
त्वरिताः शीघ्रमागत्य कौसल्यायै न्यवेदयन्।
‘इसलिये बेटा ! तुम अपने चित्त को वश में रखकर इस प्रकार के उत्तम आचरणों का पालन करते रहो।’ राजा की ये बातें सुनकर श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने वाले सुहृदों ने तुरंत माता कौसल्या के पास जाकर उन्हें यह शुभ समाचार निवेदन कया॥ ४६ १/२॥
सा हिरण्यं च गाश्चैव रत्नानि विविधानि च॥ ४७॥
व्यादिदेश प्रियाख्येभ्यः कौसल्या प्रमदोत्तमा।
नारियों में श्रेष्ठ कौसल्या ने वह प्रिय संवाद सुनाने वाले उन सुहृदों को तरह-तरह के रत्न, सुवर्ण और गौएँ पुरस्कार रूप में दीं॥ ४७ १/२ ॥
अथाभिवाद्य राजानं रथमारुह्य राघवः।
ययौ स्वं द्युतिमद् वेश्म जनौघैः प्रतिपूजितः॥ ४८॥
इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी राजा को प्रणाम करके रथ पर बैठे और प्रजाजनों से सम्मानित होते हुए वे अपने शोभाशाली भवन में चले गये॥ ४८॥
ते चापि पौरा नृपतेर्वचस्तच्छ्रुत्वा तदा लाभमिवेष्टमाशु।
नरेन्द्रमामन्त्र्य गृहाणि गत्वा देवान् समान,रभिप्रहृष्टाः॥४९॥
नगरनिवासी मनुष्यों ने राजा की बातें सुनकर मन ही-मन यह अनुभव किया कि हमें शीघ्र ही अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी, फिर भी महाराज की आज्ञा लेकर अपने घरों को गये और अत्यन्त हर्ष से भर कर
अभीष्ट-सिद्धि के उपलक्ष्य में देवताओं की पूजा करने लगे॥ ४९॥
सर्ग ४
गतेष्वथ नृपो भूयः पौरेषु सह मन्त्रिभिः।
मन्त्रयित्वा ततश्चक्रे निश्चयज्ञः स निश्चयम्॥ १॥
श्व एव पुष्यो भविता श्वोऽभिषेच्यस्तु मे सुतः।
रामो राजीवपत्राक्षो युवराज इति प्रभुः॥२॥
राजसभा से पुरवासियों के चले जानेपर कार्य सिद्धि के योग्य देश-काल के नियम को जानने वाले प्रभावशाली नरेश ने पुनः मन्त्रियों के साथ सलाह करके यह निश्चय किया कि ‘कल ही पुष्य नक्षत्र होगा, अतःकल ही मुझे अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम का युवराज के पदपर अभिषेक कर देना चाहिये’ ॥ १-२॥
अथान्तर्गृहमाविश्य राजा दशरथस्तदा।
सूतमामन्त्रयामास रामं पुनरिहानय॥३॥
तदनन्तर अन्तःपुर में जाकर महाराज दशरथ ने सूत को बुलाया और आज्ञा दी—’जाओ, श्रीराम को एक बार फिर यहाँ बुला लाओ’ ॥३॥
प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं सूतः पुनरुपाययौ।
रामस्य भवनं शीघ्रं राममानयितुं पुनः॥४॥
उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके सुमन्त्र श्रीराम को शीघ्र बुला लाने के लिये पुनः उनके महल में गये॥ ४॥
द्वाःस्थैरावेदितं तस्य रामायागमनं पुनः।
श्रुत्वैव चापि रामस्तं प्राप्तं शङ्कान्वितोऽभवत्॥
द्वारपालों ने श्रीराम को सुमन्त्र के पुनः आगमन की सूचना दी। उनका आगमन सुनते ही श्रीराम के मन में संदेह हो गया॥५॥
प्रवेश्य चैनं त्वरितो रामो वचनमब्रवीत्।
यदागमनकृत्यं ते भूयस्तद्ब्रूह्यशेषतः॥६॥
उन्हें भीतर बुलाकर श्रीराम ने उनसे बड़ी उतावली के साथ पूछा-‘आपको पुनः यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी?’ यह पूर्णरूप से बताइये॥ ६॥
तमुवाच ततः सूतो राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।
श्रुत्वा प्रमाणं तत्र त्वं गमनायेतराय वा॥७॥
तब सूत ने उनसे कहा—’महाराज आपसे मिलना चाहते हैं। मेरी इस बात को सुनकर वहाँ जाने या न जाने का निर्णय आप स्वयं करें’॥७॥
इति सूतवचः श्रुत्वा रामोऽपि त्वरयान्वितः।
प्रययौ राजभवनं पुनर्द्रष्टुं नरेश्वरम्॥८॥
सूत का यह वचन सुनकर श्रीरामचन्द्र जी महाराज दशरथ का पुनः दर्शन करने के लिये तुरंत उनके महल की ओर चल दिये॥८॥
तं श्रुत्वा समनुप्राप्तं रामं दशरथो नृपः।
प्रवेशयामास गृहं विवक्षुः प्रियमुत्तमम्॥९॥
श्रीराम को आया हुआ सुनकर राजा दशरथ ने उनसे प्रिय तथा उत्तम बात कहने के लिये उन्हें महल के भीतर बुला लिया॥९॥
प्रविशन्नेव च श्रीमान् राघवो भवनं पितुः।
ददर्श पितरं दूरात् प्रणिपत्य कृताञ्जलिः॥१०॥
पिता के भवन में प्रवेश करते ही श्रीमान् रघुनाथजी ने उन्हें देखा और दूर से ही हाथ जोड़कर वे उनके चरणों में पड़ गये॥ १०॥
प्रणमन्तं तमुत्थाप्य सम्परिष्वज्य भूमिपः।
प्रदिश्य चासनं चास्मै रामं च पुनरब्रवीत्॥११॥
प्रणाम करते हुए श्रीराम को उठाकर महाराज ने छाती से लगा लिया और उन्हें बैठने के लिये आसन देकर पुनः उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया – ॥११॥
राम वृद्धोऽस्मि दीर्घायुर्भुक्ता भोगा यथेप्सिताः।
अन्नवद्भिः क्रतुशतैर्यथेष्टं भूरिदक्षिणैः॥१२॥
‘श्रीराम! अब मैं बूढ़ा हुआ। मेरी आयु बहुत अधिक हो गयी। मैंने बहुत-से मनोवाञ्छित भोग भोग लिये, अन्न और बहुत-सी दक्षिणाओं से युक्त सैकड़ों यज्ञ भी कर लिये॥ १२॥
जातमिष्टमपत्यं मे त्वमद्यानुपमं भुवि।
दत्तमिष्टमधीतं च मया पुरुषसत्तम॥१३॥
‘पुरुषोत्तम! तुम मेरे परम प्रिय अभीष्ट संतान के रूप में प्राप्त हुए जिसकी इस भूमण्डल में कहीं उपमा नहीं है, मैंने दान, यज्ञ और स्वाध्याय भी कर लिये॥ १३॥
अनुभूतानि चेष्टानि मया वीर सुखान्यपि।
देवर्षिपितृविप्राणामनृणोऽस्मि तथाऽऽत्मनः॥ १४॥
‘वीर! मैंने अभीष्ट सुखों का भी अनुभव कर लिया। मैं देवता, ऋषि, पितर और ब्राह्मणों के तथा अपने ऋण से भी उऋण हो गया।॥ १४॥
न किंचिन्मम कर्तव्यं तवान्यत्राभिषेचनात्।
अतो यत्त्वामहं ब्रूयां तन्मे त्वं कर्तुमर्हसि ॥१५॥
‘अब तुम्हें युवराज-पदपर अभिषिक्त करने के सिवा और कोई कर्तव्य मेरे लिये शेष नहीं रह गया है, अतः मैं तुमसे जो कुछ कहूँ, मेरी उस आज्ञा का तुम्हें पालन करना चाहिये॥ १५॥
अद्य प्रकृतयः सर्वास्त्वामिच्छन्ति नराधिपम्।
अतस्त्वां युवराजानमभिषेक्ष्यामि पुत्रक॥१६॥
‘बेटा! अब सारी प्रजा तुम्हें अपना राजा बनाना चाहती है, अतः मैं तुम्हें युवराज पद पर अभिषिक्त करूँगा॥१६॥
अपि चाद्याशुभान् राम स्वप्नान् पश्यामि राघव।
सनिर्घाता दिवोल्काश्च पतन्ति हि महास्वनाः॥ १७॥
‘रघुकुलनन्दन श्रीराम! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दिखायी देते हैं। दिन में वज्रपात के साथ-साथ बड़ा भयंकर शब्द करने वाली उल्काएँ भी गिर रही हैं।॥ १७॥
अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणग्रहैः।
आवेदयन्ति दैवज्ञाः सूर्याङ्गारकराहुभिः॥१८॥
‘श्रीराम! ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्मनक्षत्र को सूर्य, मङ्गल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है॥ १८॥
प्रायेण च निमित्तानामीदृशानां समुद्भवे।
राजा हि मृत्युमाप्नोति घोरां चापदमृच्छति॥ १९॥
‘ऐसे अशुभ लक्षणों का प्राकट्य होने पर प्रायः राजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा उसकी मृत्यु भी हो जाती है॥ १९॥
तद् यावदेव मे चेतो न विमुह्यति राघव।
तावदेवाभिषिञ्चस्व चला हि प्राणिनां मतिः॥ २०॥
‘अतः रघुनन्दन! जब तक मेरे चित्त में मोह नहीं छा जाता, तबत क ही तुम युवराज-पदपर अपना अभिषेक करा लो; क्योंकि प्राणियों की बुद्धि चञ्चल होती है।
अद्य चन्द्रोऽभ्युपगमत् पुष्यात् पूर्वं पुनर्वसुम्।
श्वः पुष्ययोगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः॥ २१॥
‘आज चन्द्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसु पर विराजमान हैं, अतः निश्चय ही कल वे पुष्य नक्षत्रपर रहेंगे—ऐसा ज्योतिषी कहते हैं ॥ २१॥
तत्र पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम्।
श्वस्त्वाहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परंतप॥२२॥
इसलिये उस पुष्यनक्षत्र में ही तुम अपना अभिषेक करा लो। शत्रुओं को संताप देनेवाले वीर! मेरा मन इस कार्य में बहत शीघ्रता करने को कहता है। इस कारण कल अवश्य ही मैं तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक कर दूंगा॥ २२॥
तस्मात् त्वयाद्यप्रभृति निशेयं नियतात्मना।
सह वध्वोपवस्तव्या दर्भप्रस्तरशायिना॥२३॥
‘अतः तुम इस समय से लेकर सारी रात इन्द्रिय संयम पूर्वक रहते हुए वधू सीता के साथ उपवास करो और कुश की शय्या पर सोओ॥ २३॥
सुहृदश्चाप्रमत्तास्त्वां रक्षन्त्वद्य समन्ततः।
भवन्ति बहुविघ्नानि कार्याण्येवंविधानि हि॥ २४॥
‘आज तुम्हारे सुहृद् सावधान रहकर सब ओरसे तुम्हारी रक्षा करें; क्योंकि इस प्रकारके शुभ कार्योंमें बहुत-से विघ्न आनेकी सम्भावना रहती है।॥ २४ ॥
विप्रोषितश्च भरतो यावदेव पुरादितः।
तावदेवाभिषेकस्ते प्राप्तकालो मतो मम॥२५॥
‘जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहाँ निवास करते हैं, तब तक ही तुम्हारा अभिषेक हो जाना मुझे उचित प्रतीत होता है॥ २५॥
कामं खलु सतां वृत्ते भ्राता ते भरतः स्थितः।
ज्येष्ठानुवर्ती धर्मात्मा सानक्रोशो जितेन्द्रियः॥ २६॥
किं नु चित्तं मनुष्याणामनित्यमिति मे मतम्।
सतां च धर्मनित्यानां कृतशोभि च राघव॥ २७॥
‘इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारे भाई भरत सत्पुरुषों के आचार-व्यवहार में स्थित हैं, अपने बड़े भाई का अनुसरण करने वाले, धर्मात्मा, दयालु और जितेन्द्रिय हैं तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता ऐसा मेरा मत है। रघुनन्दन! धर्मपरायण सत्पुरुषों का मन भी विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादि से संयुक्त हो जाता है’ ॥ २६-२७॥
इत्युक्तः सोऽभ्यनुज्ञातः श्वोभाविन्यभिषेचने।
व्रजेति रामः पितरमभिवाद्याभ्ययाद् गृहम्॥ २८॥
राजा के इस प्रकार कहने और कल होने वाले राज्याभिषेक के निमित्त व्रतपालन के लिये जाने की आज्ञा देनेपर श्रीरामचन्द्रजी पिता को प्रणाम करके अपने महल में गये॥ २८॥
प्रविश्य चात्मनो वेश्म राज्ञाऽऽदिष्टेऽभिषेचने।
तत्क्षणादेव निष्क्रम्य मातुरन्तःपुरं ययौ॥२९॥
राजा ने राज्याभिषेक के लिये व्रतपालन के निमित्त जो आज्ञा दी थी, उसे सीता को बताने के लिये अपने महल के भीतर प्रवेश करके जब श्रीराम ने वहाँ सीता को नहीं देखा, तब वे तत्काल ही वहाँ से निकलकर माता के अन्तःपुर में चले गये॥ २९॥
तत्र तां प्रवणामेव मातरं क्षौमवासिनीम्।
वाग्यतां देवतागारे ददर्शायाचतीं श्रियम्॥३०॥
वहाँ जाकर उन्होंने देखा माता कौसल्या रेशमी वस्त्र पहने मौन हो देवमन्दिर में बैठकर देवता की आराधना में लगी हैं और पुत्र के लिये राजलक्ष्मी की याचना कर रही हैं॥३०॥
प्रागेव चागता तत्र सुमित्रा लक्ष्मणस्तथा।
सीता चानयिता श्रुत्वा प्रियं रामाभिषेचनम्॥
श्रीराम के राज्याभिषेक का प्रिय समाचार सुनकर सुमित्रा और लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गये थे तथा बाद में सीता वहीं बुला ली गयी थीं॥ ३१ ॥
तस्मिन् कालेऽपि कौसल्या तस्थावामीलितेक्षणा।
सुमित्रयान्वास्यमाना सीतया लक्ष्मणेन च॥३२॥
श्रीरामचन्द्रजी जब वहाँ पहुँचे, उस समय भी कौसल्या नेत्र बंद किये ध्यान लगाये बैठी थीं और सुमित्रा, सीता तथा लक्ष्मण उनकी सेवा में खड़े थे। ३२॥
श्रुत्वा पुष्ये च पुत्रस्य यौवराज्येऽभिषेचनम्।
प्राणायामेन पुरुषं ध्यायमाना जनार्दनम्॥३३॥
पुष्यनक्षत्र के योग में पुत्र के युवराज पद पर अभिषिक्त होने की बात सुनकर वे उसकी मङ्गल कामना से प्राणायाम के द्वारा परमपुरुष नारायण का ध्यान कर रही थीं॥ ३३॥
तथा सनियमामेव सोऽभिगम्याभिवाद्य च।
उवाच वचनं रामो हर्षयंस्तामिदं वरम्॥३४॥
इस प्रकार नियम में लगी हुई माता के निकट उसी अवस्था में जाकर श्रीराम ने उनको प्रणाम किया और उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए यह श्रेष्ठ बात कही-॥ ३४॥
अम्ब पित्रा नियुक्तोऽस्मि प्रजापालनकर्मणि।
भविता श्वोऽभिषेको मे यथा मे शासनं पितुः॥ ३५॥
सीतयाप्युपवस्तव्या रजनीयं मया सह।
एवमुक्तमुपाध्यायैः स हि मामुक्तवान् पिता॥ ३६॥
‘माँ! पिताजी ने मुझे प्रजा पालन के कर्म में नियुक्त किया है। कल मेरा अभिषेक होगा। जैसा कि मे रेलिये पिताजी का आदेश है, उसके अनुसार सीता को भी मेरे साथ इस रात में उपवास करना होगा। उपाध्यायों ने ऐसी ही बात बतायी थी, जिसे पिताजीने मुझसे कहा है॥
यानि यान्यत्र योग्यानि श्वोभाविन्यभिषेचने।
तानि मे मङ्गलान्यद्य वैदेह्याश्चैव कारय॥३७॥
‘अतः कल होने वाले अभिषेक के निमित्त से आज मेरे और सीता के लिये जो-जो मङ्गलकार्य आवश्यक हों, वे सब कराओ’ ॥ ३७॥
एतच्छ्रुत्वा तु कौसल्या चिरकालाभिकांक्षितम्।
हर्षबाष्पाकुलं वाक्यमिदं राममभाषत॥३८॥
चिरकाल से माता के हृदय में जिस बात की अभिलाषा थी, उसकी पूर्ति को सूचित करने वाली यह बात सुनकर माता कौसल्या ने आनन्द के आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठ से इस प्रकार कहा— ॥ ३८॥
वत्स राम चिरं जीव हतास्ते परिपन्थिनः।
ज्ञातीन् मे त्वं श्रिया युक्तः सुमित्रायाश्च नन्दय॥ ३९॥
‘बेटा श्रीराम! चिरञ्जीवी होओ। तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु नष्ट हो जायँ। तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और सुमित्रा के बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करो॥
कल्याणे बत नक्षत्रे मया जातोऽसि पुत्रक।
येन त्वया दशरथो गुणैराराधितः पिता॥४०॥
‘बेटा! तुम मेरे द्वारा किसी मङ्गलमय नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, जिससे तुमने अपने गुणों द्वारा पिता दशरथ को प्रसन्न कर लिया॥ ४०॥
अमोघं बत मे क्षान्तं पुरुषे पुष्करेक्षणे।
येयमिक्ष्वाकुराजश्रीः पुत्र त्वां संश्रयिष्यति॥ ४१॥
‘बड़े हर्ष की बात है कि मैंने कमलनयन भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये जो व्रत-उपवास आदि किया था, वह आज सफल हो गया। बेटा ! उसी के फल से यह इक्ष्वाकुकुल की राजलक्ष्मी तुम्हें प्राप्त होने वाली है’॥ ४१॥
इत्येवमुक्तो मात्रा तु रामो भ्रातरमब्रवीत्।
प्राञ्जलिं प्रह्वमासीनमभिवीक्ष्य स्मयन्निव॥ ४२॥
माता के ऐसा कहने पर श्रीराम ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर खड़े हुए अपने भाई लक्ष्मण की ओर देखकर मुसकराते हुए-से कहा- ॥ ४२ ॥
लक्ष्मणेमां मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम्।
द्वितीयं मेऽन्तरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता॥ ४३॥
‘लक्ष्मण! तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य का शासन (पालन) करो। तुम मेरे द्वितीय अन्तरात्मा हो यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है॥४३॥
सौमित्रे भुक्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानिच।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये॥४४॥
‘सुमित्रानन्दन ! तुम अभीष्ट भोगों और राज्य के श्रेष्ठ फलों का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ’॥ ४४ ॥
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं रामो मातरावभिवाद्य च।
अभ्यनुज्ञाप्य सीतां च ययौ स्वं च निवेशनम्॥ ४५॥
लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीराम ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और सीता को भी साथ चलने की आज्ञा दिलाकर वे उनको लिये हुए अपने महल में चले गये॥४५॥
सर्ग ५
संदिश्य रामं नृपतिः श्वोभाविन्यभिषेचने।
पुरोहितं समाहूय वसिष्ठमिदमब्रवीत्॥१॥
उधर महाराज दशरथ जब श्रीरामचन्द्रजी को दूसरे दिन होने वाले अभिषेक के विषय में आवश्यक संदेश दे चुके, तब अपने पुरोहित वसिष्ठ जीको बुलाकर । बोले- ॥१॥
गच्छोपवासं काकुत्स्थं कारयाद्य तपोधन।
श्रेयसे राज्यलाभाय वध्वा सह यतव्रत॥२॥
‘नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले तपोधन ! आप जाइये और विघ्न निवारण रूप कल्याण की सिद्धि तथा राज्य की प्राप्ति के लिये बहू सहित श्रीराम से उपवास व्रत का पालन कराइये ॥२॥
तथेति च स राजानमुक्त्वा वेदविदां वरः।
स्वयं वसिष्ठो भगवान् ययौ रामनिवेशनम्॥३॥
उपवासयितुं वीरं मन्त्रविन्मन्त्रकोविदम्।
ब्राह्मं रथवरं युक्तमास्थाय सुधृतव्रतः॥४॥
तब राजा से ‘तथास्तु’ कहकर वेदवेत्ता विद्वानों में श्रेष्ठ तथा उत्तम व्रतधारी स्वयं भगवान् वसिष्ठ मन्त्रवेत्ता वीर श्रीराम को उपवास-व्रत की दीक्षा देने के लिये ब्राह्मण के चढ़ने योग्य जुते-जुताये श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो श्रीराम के महल की ओर चल दिये। ३-४॥
स रामभवनं प्राप्य पाण्डुराभ्रघनप्रभम्।
तिस्रः कक्ष्या रथेनैव विवेश मुनिसत्तमः॥५॥
श्रीराम का भवन श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल था, उसके पास पहुँचकर मुनिवर वसिष्ठ ने उसकी तीन ड्योढ़ियों में रथ के द्वारा ही प्रवेश किया॥ ५ ॥
तमागतमृषिं रामस्त्वरन्निव ससम्भ्रमम्।
मानयिष्यन् स मानाहँ निश्चक्राम निवेशनात्॥
वहाँ पधारे हुए उन सम्माननीय महर्षि का सम्मान करनेके लिये श्रीरामचन्द्रजी बड़ी उतावली के साथ वेगपूर्वक घर से बाहर निकले॥६॥
अभ्येत्य त्वरमाणोऽथ रथाभ्याशं मनीषिणः।
ततोऽवतारयामास परिगृह्य रथात् स्वयम्॥७॥
उन मनीषी महर्षि के रथ के समीप शीघ्रतापूर्वक जाकर श्रीराम ने स्वयं उनका हाथ पकड़कर उन्हें रथ से नीचे उतारा॥७॥
स चैनं प्रश्रितं दृष्ट्वा सम्भाष्याभिप्रसाद्य च।
प्रियाहँ हर्षयन् राममित्युवाच पुरोहितः॥८॥
श्रीराम प्रिय वचन सुनने के योग्य थे। उन्हें इतना विनीत देखकर पुरोहितजी ने ‘वत्स!’ कहकर पुकारा और उन्हें प्रसन्न करके उनका हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा- ॥८॥
प्रसन्नस्ते पिता राम यत्त्वं राज्यमवाप्स्यसि।
उपवासं भवानद्य करोतु सह सीतया॥९॥
‘श्रीराम! तुम्हारे पिता तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, क्योंकि तुम्हें उनसे राज्य प्राप्त होगा; अतः आज की रात में तुम वधू सीता के साथ उपवास करो॥९॥
प्रातस्त्वामभिषेक्ता हि यौवराज्ये नराधिपः।
पिता दशरथः प्रीत्या ययातिं नहुषो यथा॥१०॥
‘रघुनन्दन! जैसे नहुष ने ययाति का अभिषेक किया था, उसी प्रकार तुम्हारे पिता महाराज दशरथ कल प्रातःकाल बड़े प्रेम से तुम्हारा युवराज-पद पर अभिषेक करेंगे’ ॥ १०॥
इत्युक्त्वा स तदा राममुपवासं यतव्रतः।
मन्त्रवत् कारयामास वैदेह्या सहितं शुचिः॥ ११॥
ऐसा कहकर उन व्रतधारी एवं पवित्र महर्षि ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक सीता सहित श्रीराम को उस समय उपवास-व्रत की दीक्षा दी॥ ११॥
ततो यथावद् रामेण स राज्ञो गुरुरर्चितः।
अभ्यनुज्ञाप्य काकुत्स्थं ययौ रामनिवेशनात्॥ १२॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी ने महाराज के भी गुरु वसिष्ठ का यथावत् पूजन किया; फिर वे मुनि श्रीराम की अनुमति ले उनके महल से बाहर निकले।१२॥
सुहृद्भिस्तत्र रामोऽपि सहासीनः प्रियंवदैः।
सभाजितो विवेशाथ ताननुज्ञाप्य सर्वशः॥१३॥
श्रीराम भी वहाँ प्रियवचन बोलने वाले सुहृदों के साथ कुछ देर तक बैठे रहे; फिर उनसे सम्मानित हो उन सबकी अनुमति ले पुनः अपने महल के भीतर चले गये॥ १३॥
हृष्टनारीनरयुतं रामवेश्म तदा बभौ।
यथा मत्तद्विजगणं प्रफुल्लनलिनं सरः॥१४॥
उस समय श्रीराम का भवन हर्षोत्फुल्ल नर नारियों से भरा हुआ था और मतवाले पक्षियों के कलरवों से युक्त खिले हए कमल वाले तालाब के समान शोभा पा रहा था॥ १४ ॥
स राजभवनप्रख्यात् तस्माद् रामनिवेशनात्।
निर्गत्य ददृशे मार्ग वसिष्ठो जनसंवृतम्॥१५॥
राजभवनों में श्रेष्ठ श्रीराम के महल से बाहर आकर वसिष्ठजी ने सारे मार्ग मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए देखे॥ १५॥
वृन्दवृन्दैरयोध्यायां राजमार्गाः समन्ततः।
बभूवुरभिसम्बाधाः कुतूहलजनैर्वृताः॥१६॥
अयोध्या की सड़कों पर सब ओर झुंड-के-झुंड मनुष्य, जो श्रीराम का राज्याभिषेक देखने के लिये उत्सुक थे, खचाखच भरे हुए थे; सारे राजमार्ग उनसे घिरे हुए थे।
जनवृन्दोर्मिसंघर्षहर्षस्वनवृतस्तदा।
बभूव राजमार्गस्य सागरस्येव निःस्वनः॥१७॥
जनसमुदायरूपी लहरों के परस्पर टकराने से उस समय जो हर्षध्वनि प्रकट होती थी, उससे व्याप्त हुआ राजमार्ग का कोलाहल समुद्र की गर्जना की भाँति सुनायी देता था॥ १७॥
सिक्तसम्मृष्टरथ्या हि तथा च वनमालिनी।
आसीदयोध्या तदहः समुच्छ्रितगृहध्वजा॥१८॥
उस दिन वन और उपवनोंकी पंक्तियोंसे सुशोभित हुई अयोध्यापुरीके घर-घरमें ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं; वहाँकी सभी गलियों और सड़कोंको झाड़-बुहारकर वहाँ छिड़काव किया गया था॥ १८ ॥
तदा ह्ययोध्यानिलयः सस्त्रीबालाकुलो जनः।
रामाभिषेकमाकांक्षन्नाकांक्षन्नुदयं रवेः॥१९॥
स्त्रियों और बालकों सहित अयोध्यावासी जनसमुदाय श्रीराम के राज्याभिषेक को देखने की इच्छा से उस समय शीघ्र सूर्योदय होने की कामना कर रहा था॥ १९॥
प्रजालंकारभूतं च जनस्यानन्दवर्धनम्।
उत्सुकोऽभूज्जनो द्रष्टुं तमयोध्यामहोत्सवम्॥ २०॥
अयोध्या का वह महान् उत्सव प्रजाओं के लिये अलंकार रूप और सब लोगों के आनन्द को बढ़ाने वाला था; वहाँ के सभी मनुष्य उसे देखने के लिये उत्कण्ठित हो रहे थे॥२०॥
एवं तज्जनसम्बाधं राजमार्ग पुरोहितः।
व्यूहन्निव जनौघं तं शनै राजकुलं ययौ॥२१॥
इस प्रकार मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए राजमार्गपर पहुँचकर पुरोहित जी उस जनसमूह को एक ओर करते हए-से धीरे-धीरे राजमहल की ओर गये।। २१॥
सिताभ्रशिखरप्रख्यं प्रासादमधिरुह्य च।
समीयाय नरेन्द्रेण शक्रेणेव बृहस्पतिः॥२२॥
श्वेत जलद-खण्ड के समान सुशोभित होने वाले महल के ऊपर चढ़कर वसिष्ठजी राजा दशरथ से उसी प्रकार मिले, जैसे बृहस्पति देवराज इन्द्र से मिल रहे हों॥ २२॥
तमागतमभिप्रेक्ष्य हित्वा राजासनं नृपः।
पप्रच्छ स्वमतं तस्मै कृतमित्यभिवेदयत्॥२३॥
उन्हें आया देख राजा सिंहासन छोड़कर खड़े हो गये और पूछने लगे—’मुने! क्या आपने मेरा अभिप्राय सिद्ध किया।’ वसिष्ठजी ने उत्तर दिया-‘हाँ! कर दिया’॥ २३॥
तेन चैव तदा तुल्यं सहासीनाः सभासदः।
आसनेभ्यः समुत्तस्थुः पूजयन्तः पुरोहितम्॥ २४॥
उनके साथ ही उस समय वहाँ बैठे हुए अन्य सभासद् भी पुरोहित का समादर करते हुए अपने अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये॥२४॥
गुरुणा त्वभ्यनुज्ञातो मनुजौघं विसृज्य तम्।
विवेशान्तःपुरं राजा सिंहो गिरिगुहामिव ॥२५॥
तदनन्तर गुरुजी की आज्ञा ले राजा दशरथ ने उस जनसमुदाय को विदा करके पर्वत की कन्दरा में घुसने वाले सिंह के समान अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया॥ २५॥
तदग्र्यवेषप्रमदाजनाकुलं महेन्द्रवेश्मप्रतिमं निवेशनम्।
व्यदीपयंश्चारु विवेश पार्थिवःशशीव तारागणसंकुलं नभः॥२६॥
सुन्दर वेश-भूषा धारण करने वाली सुन्दरियों से भरे हुए इन्द्र सदन के समान उस मनोहर राजभवन को अपनी शोभा से प्रकाशित करते हुए राजा दशरथ ने उसके भीतर उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे चन्द्रमा ताराओं से भरे हुए आकाश में पदार्पण करते हैं ॥ २६ ॥
सर्ग ६
गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः।
सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत्॥१॥
पुरोहितजी के चले जाने पर मन को संयम में रखने वाले श्रीराम ने स्नान करके अपनी विशाललोचना पत्नी के साथ श्रीनारायण की उपासना आरम्भ की॥१॥
प्रगृह्य शिरसा पात्री हविषो विधिवत् ततः।
महते दैवतायाज्यं जुहाव ज्वलितानले ॥२॥
उन्होंने हविष्य-पात्रको सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्वलित अग्निमें महान् देवता (शेषशायी नारायण) की प्रसन्नताके लिये विधिपूर्वक उस हविष्यकी आहुति दी॥२॥
शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम्।
ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे॥३॥
वाग्यतः सह वैदेह्या भूत्वा नियतमानसः॥
श्रीमत्यायतने विष्णोः शिश्ये नरवरात्मजः॥४॥
तत्पश्चात् अपने प्रिय मनोरथ की सिद्धिका संकल्प लेकर उन्होंने उस यज्ञशेष हविष्य का भक्षण किया और मन को संयम में रखकर मौन हो वे राजकुमार श्रीराम विदेहनन्दिनी सीता के साथ भगवान् विष्णु के सुन्दर मन्दिर में श्रीनारायण देव का ध्यान करते हुए वहाँ अच्छी तरह बिछी हुई कुश की चटाईपर सोये॥ ३-४॥
एकयामावशिष्टायां रात्र्यां प्रतिविबुध्य सः।
अलंकारविधिं सम्यक् कारयामास वेश्मनः॥५॥
जब तीन पहर बीतकर एक ही पहर रात शेष रह गयी, तब वे शयन से उठ बैठे। उस समय उन्होंने सभामण्डप को सजाने के लिये सेवकों को आज्ञा दी॥
तत्र शृण्वन् सुखा वाचः सूतमागधवन्दिनाम्।
पूर्वां संध्यामुपासीनो जजाप सुसमाहितः॥६॥
वहाँ सूत, मागध और बंदियों की श्रवणसुखद वाणी सुनते हुए श्रीराम ने प्रातःकालिक संध्योपासना की; फिर एकाग्रचित्त होकर वे जप करने लगे॥६॥
तुष्टाव प्रणतश्चैव शिरसा मधुसूदनम्।
विमलक्षौमसंवीतो वाचयामास स द्विजान्॥७॥
तदनन्तर रेशमी वस्त्र धारण किये हुए श्रीराम ने मस्तक झुकाकर भगवान् मधुसूदन को प्रणाम और उनका स्तवन किया; इसके बाद ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया॥७॥
तेषां पुण्याहघोषोऽथ गम्भीरमधुरस्तथा।
अयोध्यां पूरयामास तूर्यघोषानुनादितः॥८॥
उन ब्राह्मणों का पुण्याहवाचन सम्बन्धी गम्भीर एवं मधुर घोष नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से व्याप्त होकर सारी अयोध्यापुरी में फैल गया॥८॥
कृतोपवासं तु तदा वैदेह्या सह राघवम्।
अयोध्यानिलयः श्रुत्वा सर्वः प्रमुदितो जनः॥९॥
उस समय अयोध्यावासी मनुष्यों ने जब यह सुना कि श्रीरामचन्द्रजी ने सीताके साथ उपवास-व्रत आरम्भ कर दिया है, तब उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई॥९॥
ततः पौरजनः सर्वः श्रुत्वा रामाभिषेचनम्।
प्रभातां रजनीं दृष्ट्वा चक्रे शोभयितुं पुरीम्॥ १०॥
सबेरा होने पर श्रीराम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर समस्त पुरवासी अयोध्यापुरी को सजाने में लग गये॥ १० ॥
सिताभ्रशिखराभेषु देवतायतनेषु च।
चतुष्पथेषु रथ्यासु चैत्येष्वट्टालकेषु च ॥११॥
नानापण्यसमृद्धेषु वणिजामापणेषु च।
कुटुम्बिनां समृद्धेषु श्रीमत्सु भवनेषु च ॥१२॥
सभासु चैव सर्वासु वृक्षेष्वालक्षितेषु च।
ध्वजाः समुच्छ्रिताः साधु पताकाश्चाभवंस्तथा॥ १३॥
जिनके शिखरों पर श्वेत बादल विश्राम करते हैं, उन पर्वतों के समान गगनचुम्बी देवमन्दिरों, चौराहों, गलियों, देववृक्षों, समस्त सभाओं, अट्टालिकाओं, नाना प्रकार की बेचने योग्य वस्तुओं से भरी हुई व्यापारियों की बड़ी-बड़ी दूकानों तथा कुटुम्बी गृहस्थों के सुन्दर समृद्धिशाली भवनों में और दर से दिखायी देने वाले वृक्षों पर भी ऊँची ध्वजाएँ लगायी गयीं और उनमें पताकाएँ फहरायी गयीं॥ ११–१३॥
नटनर्तकसङ्घानां गायकानां च गायताम्।
मनःकर्णसुखा वाचः शुश्राव जनता ततः॥१४॥
उस समय वहाँ की जनता सब ओर नटों और नर्तकों के समूहों तथा गाने वाले गायकों की मन और कानों को सुख देने वाली वाणी सुनती थी॥ १४ ॥
रामाभिषेकयुक्ताश्च कथाश्चक्रुर्मिथो जनाः।
रामाभिषेके सम्प्राप्ते चत्वरेषु गृहेषु च ॥१५॥
श्रीराम के राज्याभिषेक का शुभ अवसर प्राप्त होने पर प्रायः सब लोग चौराहों पर और घरों में भी आपस में श्रीराम के राज्याभिषेक की ही चर्चा करते थे॥ १५॥
बाला अपि क्रीडमाना गृहद्वारेषु सङ्घशः।
रामाभिषवसंयुक्ताश्चक्रुरेव कथा मिथः॥१६॥
घरों के दरवाजों पर खेलते हुए झुंड-के-झुंड बालक भी आपस में श्रीराम के राज्याभिषेक की ही बातें करते थे॥१६॥
कृतपुष्पोपहारश्च धूपगन्धाधिवासितः।
राजमार्गः कृतः श्रीमान् पौरै रामाभिषेचने॥ १७॥
पुरवासियों ने श्रीराम के राज्याभिषेक के समय राजमार्ग पर फूलों की भेंट चढ़ाकर वहाँ सब ओर धूप की सुगन्ध फैला दी; ऐसा करके उन्होंने राजमार्ग को बहुत सुन्दर बना दिया॥ १७ ॥
प्रकाशकरणार्थं च निशागमनशङ्कया।
दीपवृक्षांस्तथा चक्रुरनुरथ्यासु सर्वशः॥१८॥
राज्याभिषेक होते-होते रात हो जाने की आशङ्का से प्रकाश की व्यवस्था करने के लिये पुरवासियों ने सब ओर सड़कों के दोनों तरफ वृक्ष की भाँति अनेक शाखाओं से युक्त दीपस्तम्भ खड़े कर दिये॥ १८॥
अलंकारं पुरस्यैवं कृत्वा तत् पुरवासिनः।
आकांक्षमाणा रामस्य यौवराज्याभिषेचनम्॥ १९॥
समेत्य सङ्घशः सर्वे चत्वरेषु सभासु च।
कथयन्तो मिथस्तत्र प्रशशंसुर्जनाधिपम्॥२०॥
इस प्रकार नगर को सजाकर श्रीराम के युवराज पद पर अभिषेक की अभिलाषा रखने वाले समस्त पुरवासी चौराहों और सभाओं में झुंड-के-झुंड एकत्र हो वहाँ परस्पर बातें करते हुए महाराज दशरथ की प्रशंसा करने लगे—॥
अहो महात्मा राजायमिक्ष्वाकुकुलनन्दनः।
ज्ञात्वा वृद्धं स्वमात्मानं रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति॥ २१॥
‘अहो! इक्ष्वाकुकुल को आनन्दित करने वाले ये राजा दशरथ बड़े महात्मा हैं, जो कि अपने-आपको बूढ़ा हुआ जानकर श्रीराम का राज्याभिषेक करने जा रहे हैं।
सर्वे ह्यनुगृहीताः स्म यन्नो रामो महीपतिः।
चिराय भविता गोप्ता दृष्टलोकपरावरः॥२२॥
‘भगवान् का हम सब लोगों पर बड़ा अनुग्रह है कि श्रीरामचन्द्रजी हमारे राजा होंगे और चिरकाल तक हमारी रक्षा करते रहेंगे; क्योंकि वे समस्त लोकों के निवासियों में जो भलाई या बुराई है, उसे अच्छी तरह देख चुके हैं।
अनुद्धतमना विद्वान् धर्मात्मा भ्रातृवत्सलः।
यथा च भ्रातृषु स्निग्धस्तथास्मास्वपि राघवः॥ २३॥
‘श्रीराम का मन कभी उद्धत नहीं होता। वे विद्वान्, धर्मात्मा और अपने भाइयों पर स्नेह रखने वाले हैं। उनका अपने भाइयों पर जैसा स्नेह है, वैसा ही हम लोगों पर भी है।
चिरं जीवतु धर्मात्मा राजा दशरथोऽनघः।
यत्प्रसादेनाभिषिक्तं रामं द्रक्ष्यामहे वयम्॥२४॥
‘धर्मात्मा एवं निष्पाप राजा दशरथ चिरकालतक जीवित रहें, जिनके प्रसाद से हमें श्रीराम के राज्याभिषेक का दर्शन सुलभ होगा’ ॥ २४॥
एवंविधं कथयतां पौराणां शुश्रुवुः परे।
दिग्भ्यो विश्रुतवृत्तान्ताः प्राप्ता जानपदा जनाः॥ २५॥
अभिषेक का वृत्तान्त सुनकर नाना दिशाओं से उस जनपद के लोग भी वहाँ पहुँचे थे, उन्होंने उपर्युक्त बातें कहने वाले पुरवासियों की सभी बातें सुनीं ॥ २५ ॥
ते तु दिग्भ्यः पुरीं प्राप्ता द्रष्टुं रामाभिषेचनम्।
रामस्य पूरयामासुः पुरीं जानपदा जनाः॥२६॥
वे सब-के-सब श्रीराम का राज्याभिषेक देखने के लिये अनेक दिशाओं से अयोध्यापुरी में आये थे। उनजनपद निवासी मनुष्यों ने श्रीरामपुरी को अपनी उपस्थिति से भर दिया था॥ २६ ॥
जनौघैस्तैर्विसर्पद्भिः शुश्रुवे तत्र निःस्वनः।
पर्वसूदीर्णवेगस्य सागरस्येव निःस्वनः॥२७॥
वहाँ मनुष्यों की भीड़-भाड़ बढ़ने से जो जनरव सुनायी देता था, वह पर्वो के दिन बढ़े हुए वेग वाले महासागर की गर्जना के समान जान पड़ता था॥ २७॥
ततस्तदिन्द्रक्षयसंनिभं पुरं दिदृक्षुभिर्जानपदैरुपाहितैः।
समन्ततः सस्वनमाकुलं बभौ समुद्रयादोभिरिवार्णवोदकम्॥२८॥
उस समय श्रीराम के अभिषेक का उत्सव देखने के लिये पधारे हुए जनपदवासी मनुष्यों द्वारा सब ओर से भरा हुआ वह इन्द्रपुरी के समान नगर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण होने के कारण मकर, नक्र, तिमिङ्गल आदि विशाल जल-जन्तुओं से परिपूर्ण महासागर के समान प्रतीत होता था॥ २८॥
सर्ग ७
ज्ञातिदासी यतो जाता कैकेय्या तु सहोषिता।
प्रासादं चन्द्रसंकाशमारुरोह यदृच्छया॥१॥
रानी कैकेयी के पास एक दासी थी, जो उसके मायके से आयी हुई थी। वह सदा कैकेयी के ही साथ रहा करती थी। उसका जन्म कहाँ हुआ था? उसके देश और माता-पिता कौन थे? इसका पता किसी को नहीं था। अभिषेक से एक दिन पहले वह स्वेच्छा से ही कैकेयी के चन्द्रमा के समान कान्तिमान् महल की छत पर जा चढ़ी ॥१॥
सिक्तराजपथां कृत्स्ना प्रकीर्णकमलोत्पलाम्।
अयोध्यां मन्थरा तस्मात् प्रासादादन्ववैक्षत ॥२॥
उस दासी का नाम था-मन्थरा। उसने उस महल की छत से देखा-अयोध्या की सड़कों पर छिड़काव किया गया है और सारी पुरी में यत्र-तत्र खिले हुए कमल और उत्पल बिखेरे गये हैं॥२॥
पताकाभिर्वरारंभिर्ध्वजैश्च समलंकृताम्।
सिक्तां चन्दनतोयैश्च शिरःस्नातजनैर्युताम्॥३॥
सब ओर बहुमूल्य पताकाएँ फहरा रही हैं। ध्वजाओं से इस पुरी की अपूर्व शोभा हो रही है। राज मार्गों पर चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव किया गया है तथा अयोध्यापुरी के सब लोग उबटन लगाकर सिर के ऊपर से स्नान किये हुए हैं॥३॥
माल्यमोदकहस्तैश्च द्विजेन्द्रैरभिनादिताम्।
शुक्लदेवगृहद्वारां सर्ववादित्रनादिताम्॥४॥
सम्प्रहृष्टजनाकीर्णां ब्रह्मघोषनिनादिताम्।
प्रहृष्टवरहस्त्यश्वां सम्प्रणर्दितगोवृषाम्॥५॥
श्रीराम के दिये हुए माल्य और मोदक हाथ में लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण हर्षनाद कर रहे हैं, देवमन्दिरों के दरवाजे चूने और चन्दन आदि से लीपकर सफेद एवं सुन्दर बनाये गये हैं, सब प्रकार के बाजों की मनोहर ध्वनि हो रही है, अत्यन्त हर्ष में भरे हुए मनुष्यों से सारा नगरपरिपूर्ण है और चारों ओर वेदपाठकों की ध्वनि गँज रही है, श्रेष्ठ हाथी और घोड़े हर् षसे उत्फुल्ल दिखायी देते हैं तथा गाय-बैल प्रसन्न होकर रँभा रहे हैं। ४-५॥
हृष्टप्रमुदितैः पौरैरुच्छ्रितध्वजमालिनीम्।
अयोध्यां मन्थरा दृष्ट्वा परं विस्मयमागता॥६॥
सारे नगर निवासी हर्षजनित रोमाञ्च से युक्त और आनन्द मग्न हैं तथा नगर में सब ओर श्रेणी बद्ध ऊँचे ऊँचे ध्वज फहरा रहे हैं। अयोध्या की ऐसी शोभा को देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ॥६॥
सा हर्षोत्फुल्लनयनां पाण्डुरक्षौमवासिनीम्।
अविदूरे स्थितां दृष्ट्वा धात्री पप्रच्छ मन्थरा॥७॥
उसने पास के ही कोठे पर राम की धाय को खड़ी देखा, उसके नेत्र प्रसन्नता से खिले हुए थे और शरीर पर पीले रंग की रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी। उसे देखकर मन्थरा ने उससे पूछा- ॥७॥
उत्तमेनाभिसंयुक्ता हर्षेणार्थपरा सती।
राममाता धनं किं नु जनेभ्यः सम्प्रयच्छति॥८॥
अतिमात्रं प्रहर्षः किं जनस्यास्य च शंस मे।
कारयिष्यति किं वापि सम्प्रहृष्टो महीपतिः॥९॥
‘धाय! आज श्रीरामचन्द्रजी की माता अपने किसी अभीष्ट मनोरथ के साधन में तत्पर हो अत्यन्त हर्ष में भरकर लोगों को धन क्यों बाँट रही हैं? आज यहाँ के सभी मनुष्यों को इतनी अधिक प्रसन्नता क्यों है? इसका कारण मुझे बताओ! आज महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न होकर कौन-सा कर्म करायेंगे’। ८-९॥
विदीर्यमाणा हर्षेण धात्री तु परया मुदा।
आचचक्षेऽथ कुब्जायै भूयसीं राघवे श्रियम्॥ १०॥
श्वः पुष्येण जितक्रोधं यौवराज्येन चानघम्।
राजा दशरथो राममभिषेक्ता हि राघवम्॥११॥
श्रीराम की धाय तो हर्ष से फूली नहीं समाती थी, उसने कुब्जा के पूछने पर बड़े आनन्द के साथ उसे बताया—’कुब्जे! रघुनाथजी को बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त होने वाली है। कल महाराज दशरथ पुष्य नक्षत्र के योग में क्रोध को जीतने वाले, पापरहित, रघुकुलनन्दन श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त करेंगे’। १०-११॥
धात्र्यास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षितः।
कैलासशिखराकारात् प्रासादादवरोहत॥१२॥
धाय का यह वचन सुनकर कुब्जा मन-ही-मन कुढ़ गयी और उस कैलास-शिखर की भाँति उज्ज्वल एवं गगनचुम्बी प्रासाद से तुरंत ही नीचे उतर गयी।॥ १२ ॥
सा दह्यमाना क्रोधेन मन्थरा पापदर्शिनी।
शयानामेव कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत्॥१३॥
मन्थरा को इसमें कैकेयी का अनिष्ट दिखायी देता था, वह क्रोध से जल रही थी। उसने महल में लेटी हुई कैकेयी के पास जाकर इस प्रकार कहा- ॥ १३ ॥
उत्तिष्ठ मूढे किं शेषे भयं त्वामभिवर्तते।
उपप्लुतमघौघेन नात्मानमवबुध्यसे॥१४॥
‘मूर्खे! उठ। क्या सो रही है? तुझपर बड़ा भारी भय आ रहा है। अरी! तेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है, फिर भी तुझे अपनी इस दुरवस्था का बोध नहीं होता?’ ॥१४॥
अनिष्टे सुभगाकारे सौभाग्येन विकत्थसे।
चलं हि तव सौभाग्यं नद्याः स्रोत इवोष्णगे॥ १५॥
‘तेरे प्रियतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते हैं मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित कर देते हों, परंतु पीठ-पीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं। तू उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर सौभाग्य की डींग हाँका करती है, परंतु जैसे ग्रीष्म ऋतु में नदी का प्रवाह सूखता चला जाता है, उसी प्रकार तेरा वह सौभाग्य अब अस्थिर हो गया है तेरे हाथ से चला जाना चाहता है!’॥ १५॥
एवमुक्ता तु कैकेयी रुष्टया परुषं वचः।
कुब्जया पापदर्शिन्या विषादमगमत् परम्॥१६॥
इष्टमें भी अनिष्टका दर्शन करानेवाली रोषभरी कुब्जाके इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर कैकेयीके मनमें बड़ा दुःख हुआ॥ १६॥
कैकेयी त्वब्रवीत् कुब्जां कच्चित् क्षेमं न मन्थरे।
विषण्णवदनां हि त्वां लक्षये भृशदुःखिताम्॥ १७॥
उस समय केकयराजकुमारी ने कुब्जा से पूछा —’मन्थरे ! कोई अमङ्गल की बात तो नहीं हो गयी; क्योंकि तेरे मुख पर विषाद छा रहा है और तू मुझे बहुत दुःखी दिखायी देती है’ ॥ १७ ॥
मन्थरा तु वचः श्रुत्वा कैकेय्या मधुराक्षरम्।
उवाच क्रोधसंयुक्ता वाक्यं वाक्यविशारदा॥ १८॥
सा विषण्णतरा भूत्वा कुब्जा तस्यां हितैषिणी।
विषादयन्ती प्रोवाच भेदयन्ती च राघवम्॥१९॥
मन्थरा बातचीत करने में बड़ी कुशल थी, वह कैकेयी के मीठे वचन सुनकर और भी खिन्न हो गयी, उसके प्रति अपनी हितैषिता प्रकट करती हुई कुपित हो उठी और कैकेयी के मन में श्रीराम के प्रति भेदभाव और विषाद उत्पन्न करती हुई इस प्रकार बोली- ॥
अक्षयं सुमहद् देवि प्रवृत्तं त्वद्विनाशनम्।
रामं दशरथो राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति॥२०॥
‘देवि! तुम्हारे सौभाग्य के महान् विनाश का कार्य आरम्भ हो गया है, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है। कल महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त कर देंगे॥२०॥
सासम्यगाधे भये मग्ना दुःखशोकसमन्विता।
दह्यमानानलेनेव त्वद्धितार्थमिहागता॥२१॥
‘यह समाचार पाकर मैं दुःख और शोक से व्याकुल हो अगाध भय के समुद्र में डूब गयी हूँ, चिन्ता की आग से मानो जली जा रही हूँ और तुम्हारे हित की बात बताने के लिये यहाँ आयी हूँ’॥२१॥
तव दुःखेन कैकेयि मम दुःखं महद् भवेत्।
त्ववृद्धौ मम वृद्धिश्च भवेदिह न संशयः॥ २२॥
‘केकयनन्दिनि! यदि तुम पर कोई दुःख आया तो उससे मुझे भी बड़े भारी दुःख में पड़ना होगा। तुम्हारी उन्नति में ही मेरी भी उन्नति है, इसमें संशय नहीं है। २२॥
नराधिपकुले जाता महिषी त्वं महीपतेः।
उग्रत्वं राजधर्माणां कथं देवि न बुध्यसे॥२३॥
‘देवि! तुम राजाओं के कुल में उत्पन्न हुई हो और एक महाराज की महारानी हो, फिर भी राजधर्मो की उग्रता को कैसे नहीं समझ रही हो? ॥ २३॥
धर्मवादी शठो भर्ता श्लक्ष्णवादी च दारुणः।
शुद्धभावेन जानीषे तेनैवमतिसंधिता॥२४॥
‘तुम्हारे स्वामी धर्म की बातें तो बहुत करते हैं, परंतु हैं बड़े शठ मुँह से चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, परंतु हृदय के बड़े क्रूर हैं। तुम समझती हो कि वे सारी बातें शुद्ध भाव से ही कहते हैं, इसीलिये आज उनके द्वारा तुम बेतरह ठगी गयी॥ २४ ॥
उपस्थितः प्रयुञ्जानस्त्वयि सान्त्वमनर्थकम्।
अर्थेनैवाद्य ते भर्ता कौसल्यां योजयिष्यति॥ २५॥
‘तुम्हारे पति तुम्हें व्यर्थ सान्त्वना देने के लिये यहाँ उपस्थित होते हैं, वे ही अब रानी कौसल्या को अर्थ से सम्पन्न करने जा रहे हैं।॥ २५॥
अपवाह्य तु दुष्टात्मा भरतं तव बन्धुषु।
काल्ये स्थापयिता रामं राज्ये निहतकण्टके। २६॥
‘उनका हृदय इतना दूषित है कि भरत को तो उन्होंने तुम्हारे मायके भेज दिया और कल सबेरे ही अवध के निष्कण्टक राज्यपर वे श्रीराम का अभिषेक करेंगे॥२६॥
शत्रुः पतिप्रवादेन मात्रेव हितकाम्यया।
आशीविष इवाङ्गेन बाले परिधृतस्त्वया॥२७॥
‘बाले! जैसे माता हित की कामना से पुत्र का पोषण करती है, उसी प्रकार ‘पति’ कहलाने वाले जिस व्यक्ति का तुमने पोषण किया है, वह वास्तव में शत्रुनिकला जैसे कोई अज्ञानवश सर्प को अपनी गोद में लेकर उसका लालन करे, उसी प्रकार तुमने उन सर्पवत् बर्ताव करने वाले महाराज को अपने अङ्क में स्थान दिया है।॥ २७॥
यथा हि कुर्याच्छत्रुर्वा सो वा प्रत्युपेक्षितः।
राज्ञा दशरथेनाद्य सपुत्रा त्वं तथा कृता॥२८॥
‘उपेक्षित शत्रु अथवा सर्प जैसा बर्ताव कर सकता है, राजा दशरथ ने आज पुत्र सहित तुझ कैकेयी के प्रति वैसा ही बर्ताव किया है॥२८॥
पापेनानृतसान्त्वेन बाले नित्यं सुखोचिता।
रामं स्थापयता राज्ये सानुबन्धा हता ह्यसि॥ २९॥
‘बाले! तुम सदा सुख भोगने के योग्य हो, परंतु मन में पाप (दुर्भावना) रखकर ऊपर से झूठी सान्त्वना देने वाले महाराज ने अपने राज्य पर श्रीराम को स्थापित करने का विचार करके आज सगे-सम्बन्धियों सहित तुमको मानो मौत के मुखमें डाल दिया है।। २९ ॥
सा प्राप्तकालं कैकेयि क्षिप्रं कुरु हितं तव।
त्रायस्व पुत्रमात्मानं मां च विस्मयदर्शने॥३०॥
‘केकयराजकुमारी! तुम दुःख जनक बात सुनकर भी मेरी ओर इस तरह देख रही हो, मानो तुम्हें प्रसन्नता हुई हो और मेरी बातों से तुम्हें विस्मय हो रहा हो, परंतु यह विस्मय छोड़ो और जिसे करने का समय आ गया है, अपने उस हितकर कार्य को शीघ्र करो तथा ऐसा करके अपनी, अपने पुत्र की और मेरी भी रक्षा करो’ ॥ ३०॥
मन्थराया वचः श्रुत्वा शयनात् सा शुभानना।
उत्तस्थौ हर्षसम्पूर्णा चन्द्रलेखेव शारदी॥३१॥
मन्थरा की यह बात सुनकर सुन्दर मुखवाली कैकेयी सहसा शय्या से उठ बैठी। उसका हृदय हर्ष से भर गया। वह शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल की भाँति उद्दीप्त हो उठी॥ ३१॥
अतीव सा तु संतुष्टा कैकेयी विस्मयान्विता।
दिव्यमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम्॥ ३२॥
कैकेयी मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट हुई। विस्मयविमुग्ध हो मुसकराते हुए उसने कुब्जा को पुरस्कार के रूप में एक बहुत सुन्दर दिव्य आभूषण प्रदान किया॥ ३२॥
दत्त्वा त्वाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रमदोत्तमा।
कैकेयी मन्थरां हृष्टा पुनरेवाब्रवीदिदम्॥३३॥
इदं तु मन्थरे मामाख्यातं परमं प्रियम्।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूयः करोमि ते॥ ३४॥
कुब्जा को वह आभूषण देकर हर्ष से भरी हुई रमणीशिरोमणि कैकेयी ने पुनः मन्थरा से इस प्रकार कहा—’मन्थरे! यह तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया। तूने मेरे लिये जो यह प्रिय संवाद सुनाया, इसके लिये मैं तेरा और कौन-सा उपकार करूँ॥ ३३-३४॥
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये।
तस्मात् तुष्टास्मि यद् राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति॥ ३५॥
‘मैं भी राम और भरत में कोई भेद नहीं समझती। अतः यह जानकर कि राजा श्रीराम का अभिषेक करनेवाले हैं, मुझे बड़ी खुशी हुई है ॥ ३५ ॥
न मे परं किंचिदितो वरं पुनः प्रियं प्रिया सुवचं वचोऽमृतम्।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरंवरं परं ते प्रददामि तं वृणु॥३६॥
‘मन्थरे ! तू मुझसे प्रिय वस्तु पाने के योग्य है। मेरे लिये श्रीराम के अभिषेक सम्बन्धी इस समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय एवं अमृत के समान मधुर वचन नहीं कहा जा सकता। ऐसी परम प्रिय बात तुमने कही है; अतः अब यह प्रिय संवाद सुनाने के बाद तू कोई श्रेष्ठ वर माँग ले, मैं उसे अवश्य दूंगी’। ३६॥
सर्ग ८
मन्थरा त्वभ्यसूय्यैनामुत्सृज्याभरणं हि तत्।
उवाचेदं ततो वाक्यं कोपदुःखसमन्विता॥१॥
यह सुनकर मन्थरा ने कैकेयी की निन्दा करके उसके दिये हुए आभूषण को उठाकर फेंक दिया और कोप तथा दुःख से भरकर वह इस प्रकार बोली-॥ १॥
हर्षं किमर्थमस्थाने कृतवत्यसि बालिशे।
शोकसागरमध्यस्थं नात्मानमवबुध्यसे॥२॥
‘रानी! तुम बड़ी नादान हो। अहो! तुमने यह बेमौके हर्ष किसलिये प्रकट किया? तुम्हें शोक के स्थान पर प्रसन्नता कैसे हो रही है? अरी! तुम शोक के समुद्रमें डूबी हुई हो, तो भी तुम्हें अपनी इस विपन्नावस्था का बोध नहीं हो रहा है॥२॥
मनसा प्रसहामि त्वां देवि दुःखार्दिता सती।
यच्छोचितव्ये हृष्टासि प्राप्य त्वं व्यसनं महत्॥ ३॥
‘देवि! महान् संकट में पड़ने पर जहाँ तुम्हें शोक होना चाहिये, वहीं हर्ष हो रहा है। तुम्हारी यह अवस्था देखकर मुझे मन-ही-मन बड़ा क्लेश सहन करना पड़ता है, मैं दुःख से व्याकुल हुई जाती हूँ। ३॥
शोचामि दुर्मतित्वं ते का हि प्राज्ञा प्रहर्षयेत्।
अरेः सपत्नीपुत्रस्य वृद्धिं मृत्योरिवागताम्॥४॥
‘मुझे तुम्हारी दुर्बुद्धि के लिये ही अधिक शोक होता है। अरी! सौत का बेटा शत्रु होता है। वह सौतेली माँ के लिये साक्षात् मृत्यु के समान है। भला, उसके अभ्युदय का अवसर आया देख कौन बुद्धिमती स्त्री अपने मन में हर्ष मानेगी॥ ४॥
भरतादेव रामस्य राज्यसाधारणाद् भयम्।
तद् विचिन्त्य विषण्णास्मि भयं भीताद्धि जायते॥५॥
‘यह राज्य भरत और राम दोनों के लिये साधारण भोग्यवस्तु है, इसपर दोनों का समान अधिकार है, इसलिये श्रीराम को भरतसे ही भय है। यही सोचकर मैं विषाद में डूबी जाती हूँ; क्योंकि भयभीत से ही भय प्राप्त होता है अर्थात् आज जिसे भय है, वही राज्य प्राप्त कर लेने पर जब सबल हो जायगा, तब अपने भय के हेतु को उखाड़ फेंकेगा॥ ५॥
लक्ष्मणो हि महाबाहू रामं सर्वात्मना गतः।
शत्रुघ्नश्चापि भरतं काकुत्स्थं लक्ष्मणो यथा॥
‘महाबाहु लक्ष्मण सम्पूर्ण हृदय से श्रीरामचन्द्रजी के अनुगत हैं। जैसे लक्ष्मण श्रीराम के अनुगत हैं, उसी तरह शत्रुघ्न भी भरत का अनुसरण करने वाले हैं॥६॥
प्रत्यासन्नक्रमेणापि भरतस्यैव भामिनि।
राज्यक्रमो विसृष्टस्तु तयोस्तावद्यवीयसोः॥७॥
‘भामिनि! उत्पत्ति के क्रम से श्रीराम के बाद भरत का ही पहले राज्य पर अधिकार हो सकता है (अतः भरत से भय होना स्वाभाविक है)। लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे हैं; अतः उनके लिये राज्यप्राप्ति की सम्भावना दूर है॥
विदुषः क्षत्रचारित्रे प्राज्ञस्य प्राप्तकारिणः।
भयात् प्रवेपे रामस्य चिन्तयन्ती तवात्मजम्॥८॥
‘श्रीराम समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं, विशेषतः क्षत्रियचरित्र (राजनीति) के पण्डित हैं तथा समयोचित कर्तव्य का पालन करनेवाले हैं; अतः उनका तुम्हारे पुत्र के प्रति जो क्रूरतापूर्ण बर्ताव होगा, उसे सोचकर मैं भय से काँप उठती हूँ॥८॥
सुभगा किल कौसल्या यस्याः पुत्रोऽभिषेक्ष्यते।
यौवराज्येन महता श्वः पुष्येण द्विजोत्तमैः॥९॥
‘वास्तव में कौसल्या ही सौभाग्यवती हैं, जिनके पुत्र का कल पुष्यनक्षत्र के योग में श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा युवराज के महान् पदपर अभिषेक होने जा रहा है। ९॥
प्राप्तां वसुमती प्रीतिं प्रतीतां हतविद्विषम्।
उपस्थास्यसि कौसल्यां दासीवत् त्वं कृताञ्जलिः॥१०॥
‘वे भूमण्डल का निष्कण्टक राज्य पाकर प्रसन्न होंगी; क्योंकि वे राजा की विश्वासपात्र हैं और तुम दासी की भाँति हाथ जोड़कर उनकी सेवा में उपस्थित होओगी॥१०॥
एवं च त्वं सहास्माभिस्तस्याः प्रेष्या भविष्यसि।
पुत्रश्च तव रामस्य प्रेष्यत्वं हि गमिष्यति॥११॥
‘इस प्रकार हमलोगों के साथ तुम भी कौसल्या की दासी बनोगी और तुम्हारे पुत्र भरत को भी श्रीरामचन्द्रजी की गुलामी करनी पड़ेगी॥ ११॥
हृष्टाः खलु भविष्यन्ति रामस्य परमाः स्त्रियः।
अप्रहृष्टा भविष्यन्ति स्नुषास्ते भरतक्षये॥१२॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के अन्तःपुर की परम सुन्दरी स्त्रियाँ – सीतादेवी और उनकी सखियाँ निश्चय ही बहुत प्रसन्न होंगी और भरत के प्रभुत्व का नाश होने से तुम्हारी बहुएँ शोकमग्न हो जायँगी’ ॥ १२॥
तां दृष्ट्वा परमप्रीतां ब्रुवन्ती मन्थरां ततः।
रामस्यैव गुणान् देवी कैकेयी प्रशशंस ह॥१३॥
मन्थरा को अत्यन्त अप्रसन्नता के कारण इस प्रकार बहकी-बहकी बातें करती देख देवी कैकेयी ने श्रीराम के गुणों की ही प्रशंसा करते हुए कहा- ॥ १३॥
धमर्को गुणवान् दान्तः कृतज्ञः सत्यवान् शुचिः।
रामो राजसुतो ज्येष्ठो यौवराज्यमतोऽर्हति ॥१४॥
‘कुब्जे! श्रीराम धर्म के ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होने के साथ ही महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं; अतः युवराज होने के योग्य वे ही हैं।
भ्रातॄन् भृत्यांश्च दीर्घायुः पितृवत् पालयिष्यति।
संतप्यसे कथं कुब्जे श्रुत्वा रामाभिषेचनम्॥
‘वे दीर्घजीवी होकर अपने भाइयों और भृत्यों का पिता की भाँति पालन करेंगे। कुब्जे! उनके अभिषेक की बात सुनकर तू इतनी जल क्यों रही है? ॥ १५॥
भरतश्चापि रामस्य ध्रुवं वर्षशतात् परम।
पितृपैतामहं राज्यमवाप्स्यति नरर्षभः॥१६॥
‘श्रीराम की राज्यप्राप्ति के सौ वर्ष बाद नरश्रेष्ठ भरत को भी निश्चय ही अपने पिता-पितामहों का राज्य मिलेगा॥ १६॥
सा त्वमभ्युदये प्राप्ते दह्यमानेव मन्थरे।
भविष्यति च कल्याणे किमिदं परितप्यसे॥ १७॥
‘मन्थरे ! ऐसे अभ्युदय की प्राप्ति के समय, जब कि भविष्य में कल्याण-ही-कल्याण दिखायी दे रहा है, तू इस प्रकार जलती हुई-सी संतप्त क्यों हो रही है ? ॥ १७॥
यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघवः।
कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु॥१८॥
‘मेरे लिये जैसे भरत आदर के पात्र हैं, वैसे ही बल्कि उनसे भी बढ़कर श्रीराम हैं; क्योंकि वे कौसल्या से भी बढ़कर मेरी बहुत सेवा किया करते हैं।॥ १८॥
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत् तदा।
मन्यते हि यथाऽऽत्मानं यथा भ्रातृ॑स्तु राघवः॥ १९॥
‘यदि श्रीराम को राज्य मिल रहा है तो उसे भरत को मिला हुआ समझ; क्योंकि श्रीरामचन्द्र अपने भाइयों को भी अपने ही समान समझते हैं’ ॥ १९॥
कैकेय्या वचनं श्रुत्वा मन्थरा भृशदुःखिता।
दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य कैकेयीमिदमब्रवीत्॥ २०॥
कैकेयी की यह बात सुनकर मन्थरा को बड़ा दुःख हुआ। वह लंबी और गरम साँस खींचकर कैकेयी से बोली- ॥२०॥
अनर्थदर्शिनी मौान्नात्मानमवबुध्यसे।
शोकव्यसनविस्तीर्णे मज्जन्ती दुःखसागरे॥२१॥
‘रानी! तुम मूर्खतावश अनर्थ को ही अर्थ समझ रही हो। तुम्हें अपनी स्थिति का पता नहीं है। तुम दुःख के उस महासागर में डूब रही हो, जो शोक (इष्ट से वियोग की चिन्ता) और व्यसन (अनिष्ट की प्राप्ति के दुःख) से महान् विस्तार को प्राप्त हो रहा है॥२१॥
भविता राघवो राजा राघवस्य च यः सुतः।
राजवंशात्तु भरतः कैकेयि परिहास्यते॥२२॥
‘केकयराजकुमारी! जब श्रीरामचन्द्र राजा हो जायँगे, तब उनके बाद उनका जो पुत्र होगा, उसी को राज्य मिलेगा। भरत तो राजपरम्परा से अलग हो जायँगे॥२२॥
नहि राज्ञः सुताः सर्वे राज्ये तिष्ठन्ति भामिनि।
स्थाप्यमानेषु सर्वेषु सुमहाननयो भवेत्॥२३॥
‘भामिनि! राजा के सभी पुत्र राज्यसिंहासन पर नहीं बैठते हैं; यदि सबको बिठा दिया जाय तो बड़ा भारी अनर्थ हो जाय॥ २३॥
तस्माज्ज्येष्ठे हि कैकेयि राज्यतन्त्राणि पार्थिवाः।
स्थापयन्त्यनवद्याङ्गि गुणवत्स्वितरेष्वपि॥२४॥
‘परमसुन्दरी केकयनन्दिनि! इसीलिये राजा लोग राजकाज का भार ज्येष्ठ पुत्र पर ही रखते हैं। यदि ज्येष्ठ पुत्र गुणवान् न हो तो दूसरे गुणवान् पुत्रों को भी राज्य सौंप देते हैं॥२४॥
असावत्यन्तनिर्भग्नस्तव पुत्रो भविष्यति।
अनाथवत् सुखेभ्यश्च राजवंशाच्च वत्सले॥ २५॥
‘पुत्रवत्सले! तुम्हारा पुत्र राज्य के अधिकार से तो बहुत दूर हटा ही दिया जायगा, वह अनाथ की भाँति समस्त सुखों से भी वञ्चित हो जायगा॥ २५ ॥
साहं त्वदर्थे सम्प्राप्ता त्वं तु मां नावबुद्ध्यसे।
सपत्निवृद्धौ या मे त्वं प्रदेयं दातुमर्हसि ॥२६॥
‘इसलिये मैं तुम्हारे ही हित की बात सुझाने के लिये यहाँ आयी हूँ; परंतु तुम मेरा अभिप्राय तो समझती नहीं. उलटे सौत का अभ्युदय सुनकर मुझे पारितोषिक देने चली हो॥२६॥
ध्रुवं तु भरतं रामः प्राप्य राज्यमकण्टकम्।
देशान्तरं नाययिता लोकान्तरमथापि वा॥२७॥
‘याद रखो, यदि श्रीराम को निष्कण्टक राज्य मिल गया तो वे भरत को अवश्य ही इस देश से बाहर निकाल देंगे अथवा उन्हें परलोक में भी पहँचा सकते हैं।॥ २७॥
बाल एव तु मातुल्यं भरतो नायितस्त्वया।
संनिकर्षाच्च सौहार्द जायते स्थावरेष्विव॥२८॥
‘छोटी अवस्था में ही तुमने भरत को मामा के घर भेज दिया। निकट रहने से सौहार्द उत्पन्न होता है। यह बात स्थावर योनियों में भी देखी जाती है (लता और वृक्ष आदि एक-दूसरे के निकट होने पर परस्पर आलिङ्गन-पाश में बद्ध हो जाते हैं। यदि भरत यहाँ होते तो राजा का उनमें भी समान रूप से स्नेह बढ़ता; अतः वे उन्हें भी आधा राज्य दे देते) ॥ २८॥
भरतानुवशात् सोऽपि शत्रुघ्नस्तत्समं गतः।
लक्ष्मणो हि यथा रामं तथायं भरतं गतः॥२९॥
‘भरत के अनुरोध से शत्रुघ्न भी उनके साथ ही चले गये (यदि वे यहाँ होते तो भरत का काम बिगड़ने नहीं पाता। क्योंकि-) जैसे लक्ष्मण राम के अनुगामी हैं, उसी प्रकार शत्रुघ्न भरत का अनुसरण करनेवाले हैं।॥ २९॥
श्रूयते हि द्रुमः कश्चिच्छेत्तव्यो वनजीवनैः।
संनिकर्षादिषीकाभिर्मोचितः परमाद् भयात्॥ ३०॥
‘सुना जाता है, जंगल की लकड़ी बेचकर जीविका चलाने वाले कुछ लोगों ने किसी वृक्ष को काटने का निश्चय किया, परंतु वह वृक्ष कँटीली झाड़ियों से घिरा हुआ था; इसलिये वे उसे काट नहीं सके। इस प्रकार उन कँटीली झाड़ियों ने निकट रहने के कारण उस वृक्ष को महान् भय से बचा लिया॥३०॥
गोप्ता हि रामं सौमित्रिर्लक्ष्मणं चापि राघवः।
अश्विनोरिव सौभ्रात्रं तयोर्लोकेषु विश्रुतम्॥ ३१॥
‘सुमित्राकुमार लक्ष्मण श्रीराम की रक्षा करते हैं और श्रीराम उनकी उन दोनों का उत्तम भ्रातृ-प्रेम दोनों अश्विनीकुमारों की भाँति तीनों लोकों में प्रसिद्ध है।॥ ३१॥
तस्मान्न लक्ष्मणे रामः पापं किंचित् करिष्यति।
रामस्तु भरते पापं कुर्यादेव न संशयः॥३२॥
‘इसलिये श्रीराम लक्ष्मण का तो किञ्चित् भी अनिष्ट नहीं करेंगे, परंतु भरत का अनिष्ट किये बिना वे रह नहीं सकते; इसमें संशय नहीं है॥ ३२॥
तस्माद् राजगृहादेव वनं गच्छतु राघवः।
एतद्धि रोचते मह्यं भृशं चापि हितं तव॥३३॥
‘अतः श्रीरामचन्द्र महाराज के महल से ही सीधे वन को चले जायँ—मुझे तो यही अच्छा जान पड़ता है और इसी में तुम्हारा परम हित है॥ ३३॥
एवं ते ज्ञातिपक्षस्य श्रेयश्चैव भविष्यति।
यदि चेद् भरतो धर्मात् पित्र्यं राज्यमवाप्स्यति॥ ३४॥
‘यदि भरत धर्मानुसार अपने पिता का राज्य प्राप्त कर लेंगे तो तुम्हारा और तुम्हारे पक्ष के अन्य सब लोगों का भी कल्याण होगा॥ ३४॥
स ते सुखोचितो बालो रामस्य सहजो रिपुः।
समृद्धार्थस्य नष्टार्थो जीविष्यति कथं वशे ॥ ३५॥
‘सौतेला भाई होने के कारण जो श्रीराम का सहज शत्रु है, वह सुख भोगने के योग्य तुम्हारा बालक भरत राज्य और धन से वञ्चित हो राज्य पाकर समृद्धिशाली बने हुए श्रीराम के वश में पड़कर कैसे जीवित रहेगा॥ ३५ ॥
अभिद्रुतमिवारण्ये सिंहेन गजयूथपम्।
प्रच्छाद्यमानं रामेण भरतं त्रातुमर्हसि ॥ ३६॥
‘जैसे वन में सिंह हाथियों के यूथपति पर आक्रमण करता है और वह भागा फिरता है, उसी प्रकार राजा राम भरत का तिरस्कार करेंगे; अतः उस तिरस्कार से तुम भरत की रक्षा करो॥३६॥
दन्निराकृता पूर्वं त्वया सौभाग्यवत्तया।
राममाता सपत्नी ते कथं वैरं न यापयेत्॥ ३७॥
‘तुमने पहले पति का अत्यन्त प्रेम प्राप्त होने के कारण घमंड में आकर जिनका अनादर किया था, वे ही तुम्हारी सौत श्रीराम माता कौसल्या पुत्र की राज्य प्राप्ति से परम सौभाग्यशालिनी हो उठी हैं; अब वे तुमसे अपने वैर का बदला क्यों नहीं लेंगी॥ ३७॥
यदा च रामः पृथिवीमवाप्स्यते प्रभूतरत्नाकरशैलसंयुताम्।
तदा गमिष्यस्यशुभं पराभवंसहैव दीना भरतेन भामिनि॥३८॥
‘भामिनि! जब श्रीराम अनेक समुद्रों और पर्वतों से युक्त समस्त भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब तुम अपने पुत्र भरत के साथ ही दीन-हीन होकर अशुभ पराभव का पात्र बन जाओगी॥ ३८ ॥
यदा हि रामः पृथिवीमवाप्स्यते ध्रुवं प्रणष्टो भरतो भविष्यति।
अतो हि संचिन्तय राज्यमात्मजे परस्य चैवास्य विवासकारणम्॥३९॥
‘याद रखो, जब श्रीराम इस पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त कर लेंगे, तब निश्चय ही तुम्हारे पुत्र भरत नष्टप्राय हो जायँगे। अतः ऐसा कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे पुत्र को तो राज्य मिले और शत्रुभूत श्रीराम का वनवास हो जाय’॥
सर्ग ९
एवमुक्ता तु कैकेयी क्रोधेन ज्वलितानना।
दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य मन्थरामिदमब्रवीत्॥१॥
मन्थरा के ऐसा कहने पर कैकेयी का मुख क्रोध से तमतमा उठा। वह लंबी और गरम साँस खींचकर उससे इस प्रकार बोली- ॥१॥
अद्य राममितः क्षिप्रं वनं प्रस्थापयाम्यहम्।
यौवराज्येन भरतं क्षिप्रमद्याभिषेचये॥२॥
‘कुब्जे ! मैं श्रीराम को शीघ्र ही यहाँ से वन में भेजूंगी और तुरंत ही युवराज के पदपर भरत का अभिषेक कराऊँगी॥२॥
इदं त्विदानीं सम्पश्य केनोपायेन साधये।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथंचन॥३॥
‘परंतु इस समय यह तो सोचो कि किस उपाय से अपना अभीष्ट साधन करूँ? भरत को राज्य प्राप्त हो जाय और श्रीराम उसे किसी तरह भी न पा सकें यह काम कैसे बने?’॥३॥
एवमुक्ता तु सा देव्या मन्थरा पापदर्शिनी।
रामार्थमुपहिंसन्ती कैकेयीमिदमब्रवीत्॥४॥
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठाराघात करती हुई वहाँ कैकेयी से इस प्रकार बोली- ॥ ४॥
हन्तेदानीं प्रपश्य त्वं कैकेयि श्रूयतां वचः।
यथा ते भरतो राज्यं पुत्रः प्राप्स्यति केवलम्॥
‘केकयनन्दिनि! अच्छा, अब देखो कि मैं क्या करती हूँ ? तुम मेरी बात सुनो, जिससे केवल तुम्हारे पुत्र भरत ही राज्य प्राप्त करेंगे (श्रीराम नहीं)॥ ५ ॥
किं न स्मरसि कैकेयि स्मरन्ती वा निगृहसे।
यदुच्यमानमात्मार्थं मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि॥६॥
‘कैकेयि! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है? या स्मरण होने पर भी मुझसे छिपा रही हो? जिसकी तुम मुझसे अनेक बार चर्चा करती रहती हो, अपने उसी प्रयोजन को तुम मुझसे सुनना चाहती हो? इसका क्या कारण है? ॥
मयोच्यमानं यदि ते श्रोतुं छन्दो विलासिनि।
श्रूयतामभिधास्यामि श्रुत्वा चापि विमृश्यताम् ॥ ७ ॥
‘विलासिनि! यदि मेरे ही मुँह से सुनने के लिये तुम्हारा आग्रह है तो बताती हूँ, सुनो और सुनकर इसी के अनुसार कार्य करो’ ॥ ७॥
श्रुत्वैवं वचनं तस्या मन्थरायास्तु कैकयी।
किंचिदुत्थाय शयनात् स्वास्तीर्णादिदमब्रवीत्॥ ८ ॥
मन्थरा का यह वचन सुनकर कैकेयी अच्छी तरह से बिछे हुए उस पलंग से कुछ उठकर उससे यों बोली -॥८॥
कथयस्व ममोपायं केनोपायेन मन्थरे।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथंचन॥९॥
मन्थरे! मुझसे वह उपाय बताओ। किस उपायसे भरत को तो राज्य मिल जायगा, किंतु श्रीराम उसे किसी तरह नहीं पा सकेंगे’॥ ९॥
एवमुक्ता तदा देव्या मन्थरा पापदर्शिनी।
रामार्थमुपहिंसन्ती कैकेयीमिदमब्रवीत्॥१०॥
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठारा घात करती हुई उस समय कैकेयी से इस प्रकार बोली- ॥ १०॥
पुरा देवासुरे युद्धे सह राजर्षिभिः पतिः।
अगच्छत् त्वामुपादाय देवराजस्य साह्यकृत्॥ ११॥
‘देवि! पूर्वकालकी बात है कि देवासुर-संग्राम के अवसर पर राजर्षियों के साथ तुम्हारे पतिदेव तुम्हें साथ लेकर देवराज की सहायता करनेके लिये गये थे॥ ११॥
दिशमास्थाय कैकेयि दक्षिणां दण्डकान् प्रति।
वैजयन्तमिति ख्यातं पुरं यत्र तिमिध्वजः॥१२॥
स शम्बर इति ख्यातः शतमायो महासुरः।
ददौ शक्रस्य संग्रामं देवसङ्घरनिर्जितः॥१३॥
‘केकयराजकुमारी! दक्षिण दिशा में दण्डकारण्य के भीतर वैजयन्त नाम से विख्यात एक नगर है, जहाँ शम्बर नाम से प्रसिद्ध एक महान् असुर रहता था। वह अपनी ध्वजा में तिमि (वेल मछली) का चिह्न धारण करता था और सैकड़ों मायाओं का जानकार था। देवताओं के समूह भी उसे पराजित नहीं कर पाते थे। एक बार उसने इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया। १२-१३॥
तस्मिन् महति संग्रामे पुरुषान् क्षतविक्षतान्।
रात्रौ प्रसुप्तान् जन्ति स्म तरसापास्य राक्षसाः॥ १४॥
‘उस महान् संग्राम में क्षत-विक्षत हुए पुरुष जब रात में थककर सो जाते, उस समय राक्षस उन्हें उन के बिस्तर से खींच ले जाते और मार डालते थे॥ १४ ॥
तत्राकरोन्महायुद्धं राजा दशरथस्तदा।
असुरैश्च महाबाहुः शस्त्रैश्च शकलीकृतः॥ १५॥
‘उन दिनों महाबाहु राजा दशरथ ने भी वहाँ असुरों के साथ बड़ा भारी युद्ध किया। उस युद्ध में असुरों ने अपने अस्त्र-शस्त्रोंद् वारा उनके शरीर को जर्जर कर दिया॥ १५॥
अपवाह्य त्वया देवि संग्रामान्नष्टचेतनः।
तत्रापि विक्षतः शस्त्रैः पतिस्ते रक्षितस्त्वया॥ १६॥
‘देवि! जब राजा की चेतना लुप्त-सी हो गयी, उस समय सारथि का काम करती हुई तुमने अपने पतिकोरण भूमि से दूर हटाकर उनकी रक्षा की। जब वहाँ भी राक्षसों के शस्त्रों से वे घायल हो गये, तब तुमने पुनः वहाँ से अन्यत्र ले जाकर उनकी रक्षा की॥१६॥
तुष्टेन तेन दत्तौ ते द्वौ वरौ शुभदर्शने।
स त्वयोक्तः पतिर्देवि यदेच्छेयं तदा वरम्॥१७॥
गृह्णीयां तु तदा भर्तस्तथेत्युक्तं महात्मना।
अनभिज्ञा ह्यहं देवि त्वयैव कथितं पुरा॥१८॥
‘शुभदर्शने! इससे संतुष्ट होकर महाराज ने तुम्हें दो वरदान देने को कहा—देवि! उस समय तुमने अपने पति से कहा—’प्राणनाथ! जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं इन वरों को माँग लूंगी।’ उस समय उन महात्मा नरेश ने ‘तथास्तु’ कहकर तुम्हारी बात मान ली थी। देवि! मैं इस कथा को नहीं जानती थी। पूर्वकालमें तुम्हींने मुझसे यह वृत्तान्त कहा था॥ १७-१८॥
कथैषा तव तु स्नेहान्मनसा धार्यते मया।
रामाभिषेकसम्भारान्निगृह्य विनिवर्तय॥१९॥
‘तबसे तुम्हारे स्नेहवश मैं इस बात को मन-ही-मन । सदा याद रखती आयी हूँ। तुम इन वरों के प्रभाव से स्वामी को वश में करके श्रीराम के अभिषेक के आयोजन को पलट दो॥ १९ ॥
तौ च याचस्व भर्तारं भरतस्याभिषेचनम्।
प्रव्राजनं च रामस्य वर्षाणि च चतुर्दश॥२०॥
‘तुम उन दोनों वरों को अपने स्वामी से माँगो। एक वरके द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा श्रीराम का चौदह वर्ष तक का वनवास माँग लो॥ २० ॥
चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम्।
प्रजाभावगतस्नेहः स्थिरः पुत्रो भविष्यति॥२१॥
‘जब श्रीराम चौदह वर्षों के लिये वन में चले जायँगे।’ तब उतने समय में तुम्हारे पुत्र भरत समस्त प्रजा के हृदय में अपने लिये स्नेह पैदा कर लेंगे और इस राज्यपर स्थिर हो जायँगे॥ २१॥
क्रोधागारं प्रविश्याद्य क्रुद्धवाश्वपतेः सुते।
शेष्वानन्तर्हितायां त्वं भूमौ मलिनवासिनी॥२२॥
‘अश्वपतिकुमारी! तुम इस समय मैले वस्त्र पहन लो और कोपभवन में प्रवेश करके कुपित-सी होकर बिना बिस्तर के ही भूमिपर लेट जाओ॥ २२ ॥
मा स्मैनं प्रत्युदीक्षेथा मा चैनमभिभाषथाः।
रुदन्ती पार्थिवं दृष्ट्वा जगत्यां शोकलालसा॥ २३॥
‘राजा आवे तो उनकी ओर आँखें उठाकर न देखो और न उनसे कोई बात ही करो। महाराजको देखते ही रोती हुई शोकमग्न हो धरतीपर लोटने लगो॥ २३॥
दयिता त्वं सदा भर्तुरत्र मे नास्ति संशयः।
त्वत्कृते च महाराजो विशेदपि हुताशनम्॥२४॥
‘इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि तुम अपने पतिको सदा ही बड़ी प्यारी रही हो। तुम्हारे लिये महाराज आग में भी प्रवेश कर सकते हैं ॥ २४ ॥
न त्वां क्रोधयितुं शक्तो न क्रुद्धां प्रत्युदीक्षितुम्।
तव प्रियार्थं राजा तु प्राणानपि परित्यजेत्॥२५॥
वे न तो तुम्हें कुपित कर सकते हैं और न कुपित अवस्था में तुम्हें देख ही सकते हैं। राजा दशरथ तुम्हारा प्रिय करने के लिये अपने प्राणों का भी त्याग कर सकते हैं ॥ २५॥
न ह्यतिक्रमितुं शक्तस्तव वाक्यं महीपतिः।
मन्दस्वभावे बुध्यस्व सौभाग्यबलमात्मनः॥ २६॥
‘महाराज तुम्हारी बात किसी तरह टाल नहीं सकते। मुग्धे! तुम अपने सौभाग्य के बल का स्मरण करो॥ २६॥
मणिमुक्तासुवर्णानि रत्नानि विविधानि च।
दद्याद् दशरथो राजा मा स्म तेषु मनः कृथाः॥ २७॥
‘राजा दशरथ तुम्हें भुलावे में डालने के लिये मणि, मोती, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के रत्न देने की चेष्टा करेंगे; किंतु तुम उनकी ओर मन न चलाना ॥ २७॥
यौ तौ देवासुरे युद्धे वरौ दशरथो ददौ।
तौ स्मारय महाभागे सोऽर्थो न त्वा क्रमेदति॥ २८॥
‘महाभागे! देवासुर-संग्राम के अवसर पर राजा दशरथ ने वे जो दो वर दिये थे, उनका उन्हें स्मरण दिलाना। वरदान के रूप में माँगा गया वह तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हुए बिना नहीं रह सकता। २८॥
यदा तु ते वरं दद्यात् स्वयमुत्थाप्य राघवः।
व्यवस्थाप्य महाराजं त्वमिमं वृणुया वरम्॥२९॥
‘रघुकुलनन्दन राजा दशरथ जब स्वयं तुम्हें धरती से उठाकर वर देने को उद्यत हो जायँ, तब उन महाराज को सत्य की शपथ दिलाकर खूब पक्का करके उनसे वर माँगना॥ २९॥
रामप्रव्रजनं दूरं नव वर्षाणि पञ्च च।
भरतः क्रियतां राजा पृथिव्यां पार्थिवर्षभ॥३०॥
‘वर माँगते समय कहना कि नृपश्रेष्ठ! आप श्रीराम को चौदह वर्षों के लिये बहुत दूर वन में भेज दीजिये और भरत को भूमण्डल का राजा बनाइये॥ ३०॥
चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम्।
रूढश्च कृतमूलश्च शेषं स्थास्यति ते सुतः॥३१॥
‘श्रीराम के चौदह वर्षों के लिये वनमें चले जाने पर तुम्हारे पुत्र भरत का राज्य सुदृढ़ हो जायगा और प्रजा आदि को वश में कर लेने से यहाँ उनकी जड़ जम जायगी। फिर चौदह वर्षों के बाद भी वे आजीवन स्थिर बने रहेंगे॥३१॥
रामप्रव्राजनं चैव देवि याचस्व तं वरम्।
एवं सेत्स्यन्ति पुत्रस्य सर्वार्थास्तव कामिनि॥ ३२॥
‘देवि! तुम राजा से श्रीराम के वनवास का वर अवश्य माँगो। पुत्र के लिये राज्य की कामना करने वाली कैकेयि! ऐसा करने से तुम्हारे पुत्र के सभी मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे॥ ३२ ॥
एवं प्रव्राजितश्चैव रामोऽरामो भविष्यति।
भरतश्च गतामित्रस्तव राजा भविष्यति॥३३॥
‘इस प्रकार वनवास मिल जानेपर ये राम राम नहीं रह जायँगे (इनका आज जो प्रभाव है वह भविष्य में नहीं रह सकेगा) और तुम्हारे भरत भी शत्रुहीन राजा होंगे॥
येन कालेन रामश्च वनात् प्रत्यागमिष्यति।
अन्तर्बहिश्च पुत्रस्ते कृतमूलो भविष्यति॥३४॥
‘जिस समय श्रीराम वनसे लौटेंगे, उस समयतक तुम्हारे पुत्र भरत भीतर और बाहरसे भी दृढमूल हो जायँगे॥
संगृहीतमनुष्यश्च सुहृद्भिः साकमात्मवान्।
प्राप्तकालं नु मन्येऽहं राजानं वीतसाध्वसा॥ ३५॥
रामाभिषेकसंकल्पान्निगृह्य विनिवर्तय।
‘उनके पास सैनिक-बल का भी संग्रह हो जायगा; जितेन्द्रिय तो वे हैं ही; अपने सुहृदों के साथ रहकर दृढमूल हो जायँगे। इस समय मेरी मान्यता के अनुसार राजा को श्रीराम के राज्याभिषेक के संकल्प से हटा देने का समय आ गया है; अतः तुम निर्भय होकर राजा को अपने वचनों में बाँध लो और उन्हें श्रीराम के अभिषेक के संकल्प से हटा दो’ ॥ ३५ १/२॥
अनर्थमर्थरूपेण ग्राहिता सा ततस्तया॥३६॥
हृष्टा प्रतीता कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत्।।
सा हि वाक्येन कुब्जायाः किशोरीवोत्पथं गता॥ ३७॥
कैकेयी विस्मयं प्राप्य परं परमदर्शना।
ऐसी बातें कहकर मन्थरा ने कैकेयी की बुद्धि में अनर्थ को ही अर्थ रूप में ऊँचा दिया। कैकेयी को उसकी बातपर विश्वास हो गया और वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि वह बहुत समझदार थी, तो भी कुबरी के कहने से नादान बालिका की तरह कुमार्ग पर चली गयी-अनुचित काम करने को तैयार हो गयी। उसे मन्थरा की बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उससे इस प्रकार बोली- ॥ ३६-३७ १/२॥
प्रज्ञां ते नावजानामि श्रेष्ठे श्रेष्ठाभिधायिनि॥३८॥
पृथिव्यामसि कुब्जानामुत्तमा बुद्धिनिश्चये।
त्वमेव तु ममार्थेषु नित्ययुक्ता हितैषिणी॥ ३९॥
‘हित की बात बताने में कुशल कुब्जे! तू एक श्रेष्ठ स्त्री है; मैं तेरी बुद्धि की अवहेलना नहीं करूँगी।बुद्धि के द्वारा किसी कार्य का निश्चय करने में तू इस पृथ्वी पर सभी कुब्जाओं में उत्तम है। केवल तू ही मेरी हितैषिणी है और सदा सावधान रहकर मेरा कार्य सिद्ध करने में लगी रहती है॥ ३८-३९ ॥
नाहं समवबुद्ध्येयं कुब्जे राज्ञश्चिकीर्षितम्।
सन्ति दुःसंस्थिताः कुब्जाः वक्राः परमपापिकाः॥ ४०॥
‘कुब्जे! यदि तू न होती तो राजा जो षडयन्त्र रचना चाहते हैं, वह कदापि मेरी समझमें नहीं आता। तेरे सिवा जितनी कुब्जाएँ हैं, वे बेडौल शरीर वाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पापिनी होती हैं॥ ४० ॥
त्वं पद्ममिव वातेन संनता प्रियदर्शना।
उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत् स्कन्धात् समुन्नतम्॥४१॥
‘तू तो वायु के द्वारा झुकायी हुई कमलिनी की भाँति कुछ झुकी हुई होने पर भी देखने में प्रिय (सुन्दर) है। तेरा वक्षःस्थल कुब्जता के दोष से व्याप्त है, अत एव कंधों तक ऊँचा दिखायी देता है॥४१॥
अधस्ताच्चोदरं शान्तं सुनाभमिव लज्जितम्।
प्रतिपूर्णं च जघनं सुपीनौ च पयोधरौ॥४२॥
‘वक्षःस्थल से नीचे सुन्दर नाभि से युक्त जो उदर है, वह मानो वक्षःस्थल की ऊँचाई देखकर लज्जित-सा हो गया है, इसीलिये शान्त—कृश प्रतीत होता है। तेरा जघन विस्तृत है और दोनों स्तन सुन्दर एवं स्थूल हैं।
विमलेन्दुसमं वक्त्रमहो राजसि मन्थरे।
जघनं तव निर्मष्टं रशनादामभूषितम्॥४३॥
‘मन्थरे! तेरा मुख निर्मल चन्द्रमा के समान अद्भुत शोभा पा रहा है। करधनी की लड़ियों से विभूषित तेरी कटि का अग्रभाग बहुत ही स्वच्छ—रोमादि से रहित है॥४३॥
जङ्के भृशमुपन्यस्ते पादौ च व्यायतावुभौ।
त्वमायताभ्यां सक्थिभ्यां मन्थरे क्षौमवासिनी॥ ४४॥
अग्रतो मम गच्छन्ती राजसेऽतीव शोभने।
‘मन्थरे ! तेरी पिण्डलियाँ परस्पर अधिक सटी हुई हैं और दोनों पैर बड़े-बड़े हैं। तू विशाल ऊरुओं (जाँघों) से सुशोभित होती है। शोभने! जब तू रेशमी साड़ी पहनकर मेरे आगे-आगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है॥ ४४ १/२ ॥
आसन् याः शम्बरे मायाः सहस्रमसुराधिपे॥ ४५॥
हृदये ते निविष्टास्ता भूयश्चान्याः सहस्रशः।
तदेव स्थगु यद दीर्घ रथघोणमिवायतम्॥४६॥
मतयः क्षत्रविद्याश्च मायाश्चात्र वसन्ति ते।
‘असुरराज शम्बर को जिन सहस्रों मायाओं का ज्ञान है, वे सब तेरे हृदय में स्थित हैं; इनके अलावे भी तू हजारों प्रकार की मायाएँ जानती है। इन मायाओं का समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा कुब्बड़ है, जो रथ के नकुए (अग्रभाग) के समान बड़ा है। इसी में तेरी मति, स्मृति और बुद्धि, क्षत्रविद्या (राजनीति) तथा नाना प्रकारकी मायाएँ निवास करती हैं। ४५-४६१/२॥
अत्र तेऽहं प्रमोक्ष्यामि मालां कुब्जे हिरण्मयीम्॥ ४७॥
अभिषिक्ते च भरते राघवे च वनं गते।
जात्येन च सुवर्णेन सुनिष्टप्तेन सुन्दरि॥४८॥
लब्धार्था च प्रतीता च लेपयिष्यामि ते स्थगु।
‘सुन्दरी कुब्जे! यदि भरत का राज्याभिषेक हुआ और श्रीराम वन को चले गये तो मैं सफल मनोरथ एवं संतुष्ट होकर अच्छी जाति के खूब तपाये हुए सोने की बनी हुई सुन्दर स्वर्णमाला तेरे इस कुब्बड़ को पहनाऊँगी और इसपर चन्दनका लेप लगवाऊँगी॥ ४७-४८ १/२॥
मुखे च तिलकं चित्रं जातरूपमयं शुभम्॥४९॥
कारयिष्यामि ते कुब्जे शुभान्याभरणानि च।
परिधाय शुभे वस्त्रे देवतेव चरिष्यसि ॥५०॥
‘कुब्जे! तेरे मुख (ललाट) पर सुन्दर और विचित्र सोने का टीका लगवा दूंगी और तू बहुत-से सुन्दर आभूषण एवं दो उत्तम वस्त्र (लहँगा और दुपट्टा) धारण करके देवाङ्गना के समान विचरण करेगी॥ ४९-५०॥
चन्द्रमाह्वयमानेन मुखेनाप्रतिमानना।
गमिष्यसि गतिं मुख्यां गर्वयन्ती द्विषज्जने॥५१॥
‘चन्द्रमासे होड़ लगानेवाले अपने मनोहर मुखद्वारा तू ऐसी सुन्दर लगेगी कि तेरे मुखकी कहीं समता । नहीं रह जायगी तथा शत्रुओंके बीचमें अपनेसौभाग्यपर गर्व प्रकट करती हुई तू सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेगी॥५१॥
तवापि कुब्जाः कुब्जायाः सर्वाभरणभूषिताः।
पादौ परिचरिष्यन्ति यथैव त्वं सदा मम॥५२॥
‘जैसे तू सदा मेरे चरणों की सेवा किया करती है, उसी प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित बहुत-सी कुब्जाएँ तुझ कुब्जा के भी चरणों की सदा परिचर्या किया करेंगी’॥
इति प्रशस्यमाना सा कैकेयीमिदमब्रवीत्।
शयानां शयने शुभ्रे वेद्यामग्निशिखामिव॥५३॥
जब इस प्रकार कुब्जा की प्रशंसा की गयी, तब उसने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान शुभ्रशय्या पर शयन करने वाली कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥५३॥
गतोदके सेतुबन्धो न कल्याणि विधीयते।
उत्तिष्ठ कुरु कल्याणं राजानमनुदर्शय॥५४॥
‘कल्याणि! नदी का पानी निकल जाने पर उसके लिये बाँध नहीं बाँधा जाता, (यदि राम का अभिषेक हो गया तो तुम्हारा वर माँगना व्यर्थ होगा; अतः बातों में समय न बिताओ) जल्दी उठो और अपना कल्याण करो। कोप भवन में जाकर राजा को अपनी अवस्था का परिचय दो’ ॥ ५४॥
तथा प्रोत्साहिता देवी गत्वा मन्थरया सह।
क्रोधागारं विशालाक्षी सौभाग्यमदगर्विता ॥५५॥
अनेकशतसाहस्रं मुक्ताहारं वराङ्गना॥
अवमुच्य वराहा॑णि शुभान्याभरणानि च ॥५६॥
मन्थरा के इस प्रकार प्रोत्साहन देने पर सौभाग्य के मद से गर्व करने वाली विशाल लोचना सुन्दरी कैकेयी देवी उसके साथ ही कोप भवन में जाकर लाखों की लागत के मोतियों के हार तथा दूसरे-दूसरे सुन्दर बहुमूल्य आभूषणों को अपने शरीर से उतार उतारकर फेंकने लगी।। ५५-५६॥
तदा हेमोपमा तत्र कुब्जावाक्यवशंगता।
संविश्य भूमौ कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत्॥५७॥
सोने के समान सुन्दर कान्तिवाली कैकेयी कुब्जा की बातों के वशीभूत हो गयी थी, अतः वह धरती पर लेटकर मन्थरा से इस प्रकार बोली- ॥ ५७॥
इह वा मां मृतां कुब्जे नृपायावेदयिष्यसि।
वनं तु राघवे प्राप्ते भरतः प्राप्स्यते क्षितिम्॥ ५८॥
सुवर्णेन न मे ह्यर्थो न रत्नैर्न च भोजनैः।
एष मे जीवितस्यान्तो रामो यद्यभिषिच्यते॥५९॥
‘कुब्जे! मुझे न तो सुवर्ण से, न रत्नों से और न भाँति-भाँति के भोजनों से ही कोई प्रयोजन है; यदि श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवन का अन्त होगा। अब या तो श्रीराम के वन में चले जाने पर भरत को इस भूतल का राज्य प्राप्त होगा अथवा तू यहाँ महाराज को मेरी मृत्यु का समाचार सुनायेगी’। ५८-५९॥
ततः पुनस्तां महिषीं महीक्षितो वचोभिरत्यर्थमहापराक्रमैः।
उवाच कुब्जा भरतस्य मातरं हितं वचो राममुपेत्य चाहितम्॥६०॥
तदनन्तर कुब्जा महाराज दशरथ की रानी और भरत की माता कैकेयी से अत्यन्त क्रूर वचनों द्वारा पुनः ऐसी बात कहने लगी, जो लौकिक दृष्टि से भरत के लिये हितकर और श्रीराम के लिये अहितकर थी— ॥६०॥
प्रपत्स्यते राज्यमिदं हि राघवो यदि ध्रुवं त्वं ससुता च तप्स्यसे।
ततो हि कल्याणि यतस्व तत् तथा यथा सुतस्ते भरतोऽभिषेक्ष्यते॥६१॥
‘कल्याणि! यदि श्रीराम इस राज्य को प्राप्त कर लेंगे तो निश्चय ही अपने पुत्र भरत सहित तुम भारी संताप में पड़ जाओगी; अतः ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे पुत्र भरत का राज्याभिषेक हो जाय’। ६१॥
तथातिविद्धा महिषीति कुब्जया समाहता वागिषुभिर्मुहर्मुहुः।
विधाय हस्तौ हृदयेऽतिविस्मिता शशंस कुब्जां कुपिता पुनः पुनः॥ ६२॥
इस प्रकार कुब्जा ने अपने वचन रूपी बाणों का बारंबार प्रहार करके जब रानी कैकेयी को अत्यन्त घायल कर दिया, तब वह अत्यन्त विस्मित और कुपित हो अपने हृदय पर दोनों हाथ रखकर कुब्जासे । बारंबार इस प्रकार कहने लगी- ॥ ६२॥
यमस्य वा मां विषयं गतामितो निशम्य कुब्जे प्रतिवेदयिष्यसि।
वनं गते वा सुचिराय राघवे समृद्धकामो भरतो भविष्यति॥६३॥
‘कुब्जे! अब या तो रामचन्द्र के अधिक काल के लिये वन में चले जाने पर भरत का मनोरथ सफल होगा या तू मुझे यहाँ से यमलोक में चली गयी सुनकर महाराज से यह समाचार निवेदन करेगी॥ ६३॥
अहं हि नैवास्तरणानि न स्रजो न चन्दनं नाञ्जनपानभोजनम्।
न किंचिदिच्छामि न चेह जीवनं न चेदितो गच्छति राघवो वनम्॥६४॥
‘यदि राम यहाँ से वन को नहीं गये तो मैं न तो भाँति-भाँति के बिछौने, न फूलों के हार, न चन्दन, न अञ्जन, न पान, न भोजन और न दूसरी ही कोई वस्तु लेना चाहूँगी। उस दशा में तो मैं यहाँ इस जीवन को भी नहीं रखना चाहूँगी’॥ ६४॥
अथैवमुक्त्वा वचनं सुदारुणं निधाय सर्वाभरणानि भामिनी।
असंस्कृतामास्तरणेन मेदिनी तदाधिशिश्ये पतितेव किंनरी॥६५॥
ऐसे अत्यन्त कठोर वचन कहकर कैकेयी ने सारे आभूषण उतार दिये और बिना बिस्तर के ही वह खाली जमीन पर लेट गयी। उस समय वह स्वर्ग से भूतल पर गिरी हुई किसी किन्नरी के समान जान पड़ती थी॥६५॥
उदीर्णसंरम्भतमोवृतानना तदावमुक्तोत्तममाल्यभूषणा।
नरेन्द्रपत्नी विमना बभूव सा तमोवृता द्यौरिव मग्नतारका॥६६॥
उसका मुख बढ़े हुए अमर्षरूपी अन्धकार से आच्छादित हो रहा था। उसके अङ्गों से उत्तम पुष्पहार और आभूषण उतर चुके थे। उस दशा में उदास मनवाली राजरानी कैकेयी जिसके तारे डूब गये हों, उस अन्धकाराच्छन्न आकाशके समान प्रतीत होती थी॥६६॥
सर्ग १०
विदर्शिता यदा देवी कुब्जया पापया भृशम्।
तदा शेते स्म सा भूमौ दिग्धविद्धेव किंनरी॥१॥
पापिनी कुब्जा ने जब देवी कैकेयी को बहुत उलटी बातें समझा दीं, तब वह विषाक्त बाण से विद्ध हुई किन्नरी के समान धरती पर लोटने लगी॥१॥
निश्चित्य मनसा कृत्यं सा सम्यगिति भामिनी।
मन्थरायै शनैः सर्वमाचचक्षे विचक्षणा॥२॥
मन्थरा के बताये हुए समस्त कार्य को यह बहुत उत्तम है—ऐसा मन-ही-मन निश्चय करके बातचीत में कुशल भामिनी कैकेयी ने मन्थरा से धीरे-धीरे अपना सारा मन्तव्य बता दिया॥२॥
सा दीना निश्चयं कृत्वा मन्थरावाक्यमोहिता।
नागकन्येव निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च भामिनी॥ ३॥
मुहूर्तं चिन्तयामास मार्गमात्मसुखावहम्।
मन्थरा के वचनों से मोहित एवं दीन हुई भामिनी कैकेयी पूर्वोक्त निश्चय करके नागकन्या की भाँति गरम और लंबी साँस खींचने लगी और दो घड़ी तक अपने लिये सुखदायक मार्ग का विचार करती रही॥३ १/२॥
सा सुहृच्चार्थकामा च तं निशम्य विनिश्चयम्॥ ४॥
बभूव परमप्रीता सिद्धिं प्राप्येव मन्थरा।
और वह मन्थरा जो कैकेयी का हित चाहने वाली सुहृद् थी और उसी के मनोरथ को सिद्ध करने की अभिलाषा रखती थी, कैकेयी के उस निश्चय को सुनकर बहुत प्रसन्न हुई; मानो उसे कोई बहुत बड़ी सिद्धि मिल गयी हो॥
अथ सा रुषिता देवी सम्यक् कृत्वा विनिश्चयम्॥५॥
संविवेशाबला भूमौ निवेश्य भ्रुकुटिं मुखे।
तदनन्तर रोष में भरी हुई देवी कैकेयी अपने कर्तव्य का भलीभाँति निश्चय कर मुखमण्डल में स्थित भौंहों को टेढ़ी करके धरती पर सो गयी और क्या करती अबला ही तो थी॥ ५ १/२ ॥
ततश्चित्राणि माल्यानि दिव्यान्याभरणानि च॥ ६॥
अपविद्धानि कैकेय्या तानि भूमिं प्रपेदिरे।
तदनन्तर उस केकयराजकुमारी ने अपने विचित्र पुष्पहारों और दिव्य आभूषणों को उतारकर फेंक दिया। वे सारे आभूषण धरती पर यत्र-तत्र पड़े थे॥६ १/२॥
तया तान्यपविद्धानि माल्यान्याभरणानि च॥७॥
अशोभयन्त वसुधां नक्षत्राणि यथा नभः।
जैसे छिटके हुए तारे आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार फेंके हुए वे पुष्पहार और आभूषण वहाँ भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे॥ ७ १/२ ॥
क्रोधागारे च पतिता सा बभौ मलिनाम्बरा॥८॥
एकवेणी दृढां बद्ध्वा गतसत्त्वेव किंनरी।
मलिन वस्त्र पहनकर और सारे केशों को दृढ़ता। पूर्वक एक ही वेणी में बाँधकर कोपभवन में पड़ी हुई कैकेयी बलहीन अथवा अचेत हुई किन्नरी के समान जान पड़ती थी॥ ८ १/२ ॥
आज्ञाप्य तु महाराजो राघवस्याभिषेचनम्॥९॥
उपस्थानमनुज्ञाप्य प्रविवेश निवेशनम्।
उधर महाराज दशरथ मन्त्री आदि को श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी के लिये आज्ञा दे सबको यथासमय उपस्थित होने के लिये कहकर रनिवास में गये॥ ९ १/२॥
अद्य रामाभिषेको वै प्रसिद्ध इति जज्ञिवान्॥ १०॥
प्रियाहाँ प्रियमाख्यातुं विवेशान्तःपुरं वशी।
उन्होंने सोचा आज ही श्रीराम के अभिषेक की बात प्रसिद्ध की गयी है, इसलिये यह समाचार अभी किसी रानी को नहीं मालूम हुआ होगा; ऐसा विचारकर जितेन्द्रिय राजा दशरथ ने अपनी प्यारी रानी को यह प्रिय संवाद सुनाने के लिये अन्तःपुर में प्रवेश किया॥ १० १/२॥
स कैकेय्या गृहं श्रेष्ठं प्रविवेश महायशाः॥११॥
पाण्डुराभ्रमिवाकाशं राहयुक्तं निशाकरः।
उन महायशस्वी नरेश ने पहले कैकेयी के श्रेष्ठ भवन में प्रवेश किया, मानो श्वेत बादलों से युक्त राहयुक्त आकाश में चन्द्रमा ने पदार्पण किया हो॥ ११ १/२॥
शुकबर्हिसमायुक्तं क्रौञ्चहंसरुतायुतम्॥१२॥
वादित्ररवसंघुष्टं कुब्जावामनिकायुतम्।
लतागृहैश्चित्रगृहैश्चम्पकाशोकशोभितैः॥१३॥
उस भवन में तोते, मोर, क्रौञ्च और हंस आदि पक्षी कलरव कर रहे थे, वहाँ वाद्यों का मधुर घोष गूंज रहा था, बहुत-सी कुब्जा और बौनी दासियाँ भरी हुई थीं, चम्पा और अशोक से सुशोभित बहुत-से लताभवन और चित्रमन्दिर उस महल की शोभा बढ़ा रहे थे॥ १२-१३॥
दान्तराजतसौवर्णवेदिकाभिः समायुतम्।
नित्यपुष्पफलैर्वक्षैर्वापीभिरुपशोभितम्॥१४॥
हाथीदाँत, चाँदी और सोने की बनी हुई वेदियोंसे संयुक्त उस भवन को नित्य फूलने-फलने वाले वृक्ष और बहुत-सी बावड़ियाँ सुशोभित कर रही थीं। १४॥
दान्तराजतसौवर्णैः संवृतं परमासनैः।
विविधैरन्नपानैश्च भक्ष्यैश्च विविधैरपि॥१५॥
उपपन्नं महाहँश्च भूषणैस्त्रिदिवोपमम्।
उसमें हाथी दाँत, चाँदी और सोने के बने हुए उत्तम सिंहासन रखे गये थे। नाना प्रकार के अन्न, पान और भाँति-भाँति के भक्ष्य-भोज्य पदार्थों से वह भवन भरापूरा था। बहुमूल्य आभूषणों से सम्पन्न कैकेयी का वह भवन स्वर्ग के समान शोभा पा रहा था। १५ १/२॥
स प्रविश्य महाराजः स्वमन्तःपुरमृद्धिमत्॥१६॥
न ददर्श स्त्रियं राजा कैकेयीं शयनोत्तमे।
अपने उस समृद्धिशाली अन्तःपुर में प्रवेश करके महाराज राजा दशरथ ने वहाँ की उत्तम शय्यापर रानी कैकेयी को नहीं देखा॥ १६ १/२॥
स कामबलसंयुक्तो रत्यर्थी मनुजाधिपः॥१७॥
अपश्यन् दयितां भार्यां पप्रच्छ विषसाद च।
कामबल से संयुक्त वे नरेश रानी की प्रसन्नता बढ़ाने की अभिलाषा से भीतर गये थे। वहाँ अपनी प्यारी पत्नी को न देखकर उनके मन में बड़ा विषाद हुआ और वे उनके विषय में पूछ-ताछ करने लगे। १७ १/२॥
नहि तस्य पुरा देवी तां वेलामत्यवर्तत॥१८॥
न च राजा गृहं शून्यं प्रविवेश कदाचन।
ततो गृहगतो राजा कैकेयीं पर्यपृच्छत॥१९॥
यथापुरमविज्ञाय स्वार्थलिप्सुमपण्डिताम्।
इससे पहले रानी कैकेयी राजा के आगमन की उस बेला में कहीं अन्यत्र नहीं जाती थीं, राजा ने कभी सूने भवन में प्रवेश नहीं किया था, इसीलिये वे घर में आकर कैकेयी के बारे में पूछने लगे। उन्हें यह मालूम नहीं था कि वह मूर्खा कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहती है, अतः उन्होंने पहले की ही भाँति प्रतिहारी से उसके विषयमें पूछा ॥ १८-१९ १/२ ॥
प्रतिहारी त्वथोवाच संत्रस्ता तु कृताञ्जलिः॥ २०॥
देव देवी भृशं क्रुद्धा क्रोधागारमभिद्रुता।
प्रतिहारी बहुत डरी हुई थी। उसने हाथ जोड़कर कहा—’देव! देवी कैकेयी अत्यन्त कुपित हो कोपभवन की ओर दौड़ी गयी हैं’॥ २० १/२॥
प्रतीहार्या वचः श्रुत्वा राजा परमदुर्मनाः॥२१॥
विषसाद पुनर्भूयो लुलितव्याकुलेन्द्रियः।
प्रतिहारी की यह बात सुनकर राजा का मन बहुत उदास हो गया, उनकी इन्द्रियाँ चञ्चल एवं व्याकुल हो उठीं और वे पुनः अधिक विषाद करने लगे॥ २१ १/२॥
तत्र तां पतितां भूमौ शयानामतथोचिताम्॥२२॥
प्रतप्त इव दुःखेन सोऽपश्यज्जगतीपतिः।
कोपभवन में वह भूमि पर पड़ी थी और इस तरह लेटी हुई थी, जो उसके लिये योग्य नहीं था। राजा ने दुःख के कारण संतप्त-से होकर उसे इस अवस्था में देखा ॥ २२ १/२॥
स वृद्धस्तरुणीं भार्यां प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम्॥ २३॥
अपापः पापसंकल्पां ददर्श धरणीतले।
लतामिव विनिष्कृत्तां पतितां देवतामिव॥२४॥
राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी तरुणी थी, अतः वे उसे अपने प्राणों से भी बढ़कर मानते थे। राजा के मन में कोई पाप नहीं था; परंतु कैकेयी अपने मन में पाप पूर्ण संकल्प लिये हुए थी। उन्होंने उसे कटी हुई लता की भाँति पृथ्वी पर पड़ी देखा—मानो कोई देवाङ्गना स्वर्ग से भूतल पर गिर पड़ी हो ॥ २३-२४॥
किन्नरीमिव निर्धूतां च्युतामप्सरसं यथा।
मायामिव परिभ्रष्टां हरिणीमिव संयताम् ॥२५॥
वह स्वर्गभ्रष्ट किन्नरी, देवलोक से च्युत हुई अप्सरा, लक्ष्यभ्रष्ट माया और जाल में बँधी हुई हरिणी के समान जान पड़ती थी॥ २५॥
करेणुमिव दिग्धेन विद्धां मृगयुना वने।
महागज इवारण्ये स्नेहात् परमदुःखिताम्॥२६॥
परिमृज्य च पाणिभ्यामभिसंत्रस्तचेतनः।
कामी कमलपत्राक्षीमुवाच वनितामिदम्॥२७॥
जैसे कोई महान् गजराज वन में व्याध के द्वारा विषलिप्त बाण से विद्ध होकर गिरी हई अत्यन्त दुःखित हथिनी का स्नेहवश स्पर्श करता है, उसी प्रकार कामी राजा दशरथ ने महान् दुःख में पड़ी हुई कमलनयनी भार्या कैकेयी का स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से स्पर्श किया। उस समय उनके मन में सब ओर से यह भय समा गया था कि न जाने यह क्या कहेगी और क्या करेगी? वे उसके अङ्गों पर हाथ फेरते हुए उससे इस प्रकार बोले- ॥ २६-२७॥
न तेऽहमभिजानामि क्रोधमात्मनि संश्रितम्।
देवि केनाभियुक्तासि केन वासि विमानिता॥ २८॥
‘देवि! तुम्हारा क्रोध मुझ पर है, ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता। फिर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है ? किसके द्वारा तुम्हारी निन्दा की गयी है ? ॥
यदिदं मम दुःखाय शेषे कल्याणि पांसुषु।
भूमौ शेषे किमर्थं त्वं मयि कल्याणचेतसि॥ २९॥
भूतोपहतचित्तेव मम चित्तप्रमाथिनि।
‘कल्याणि! तुम जो इस तरह मुझे दुःख देने के लिये धूल में लोट रही हो, इसका क्या कारण है? मेरे चित्त को मथ डालने वाली सुन्दरी ! मेरे मन में तो सदा तुम्हारे कल्याण की ही भावना रहती है। फिर मेरे रहते हए तुम किसलिये धरती पर सो रही हो? जान पड़ता है तुम्हारे चित्तपर किसी पिशाच ने अधिकार कर लिया है॥ २९ १/२॥
सन्ति मे कुशला वैद्यास्त्वभितुष्टाश्च सर्वशः॥ ३०॥
सुखितां त्वां करिष्यन्ति व्याधिमाचक्ष्व भामिनि।
‘भामिनि ! तुम अपना रोग बताओ। मेरे यहाँ बहुतसे चिकित्साकुशल वैद्य हैं, जिन्हें मैंने सब प्रकारसे संतुष्ट कर रखा है, वे तुम्हें सुखी कर देंगे॥ ३० १/२ ॥
कस्य वापि प्रियं कार्यं केन वा विप्रियं कृतम्॥ ३१॥
कः प्रियं लभतामद्य को वा सुमहदप्रियम्।
‘अथवा कहो, आज किसका प्रिय करना है? या किसने तुम्हारा अप्रिय किया है? तुम्हारे किस उपकारी को आज प्रिय मनोरथ प्राप्त हो अथवा किस अपकारी को अत्यन्त अप्रिय–कठोर दण्ड दिया जाय? ।। ३१ १/२॥
मा रौत्सीर्मा च कार्षीस्त्वं देवि सम्परिशोषणम्॥ ३२॥
अवध्यो वध्यतां को वा वध्यः को वा विमुच्यताम्।
दरिद्रः को भवेदाढ्यो द्रव्यवान् वाप्यकिंचनः॥ ३३॥
‘देवि! तुम न रोओ, अपनी देह को न सुखाओ; आज तुम्हारी इच्छा के अनुसार किस अवध्य का वध किया जाय? अथवा किस प्राणदण्ड पाने योग्य अपराधी को भी मुक्त कर दिया जाय? किस दरिद्र को धनवान् और किस धनवान्को कंगाल बना दिया जाय? ॥ ३२-३३॥
अहं च हि मदीयाश्च सर्वे तव वशानुगाः।
न ते कंचिदभिप्रायं व्याहन्तुमहमुत्सहे ॥ ३४॥
आत्मनो जीवितेनापि ब्रूहि यन्मनसि स्थितम्।
‘मैं और मेरे सभी सेवक तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं। तुम्हारे किसी भी मनोरथ को मैं भंग नहीं कर सकता–उसे पूरा करके ही रहूँगा, चाहे उसके लिये मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें; अतः तुम्हारे मन में जो कुछ हो, उसे स्पष्ट कहो॥ ३४ १/२ ॥
बलमात्मनि जानन्ती न मां शङ्कितुमर्हसि ॥३५॥
करिष्यामि तव प्रीतिं सुकृतेनापि ते शपे।
‘अपने बल को जानते हुए भी तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिये। मैं अपने सत्कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ, जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो, वही करूँगा॥३५ १/२॥
यावदावर्तते चक्रं तावती मे वसुंधरा ॥३६॥
द्राविडाः सिन्धुसौवीराः सौराष्ट्रा दक्षिणापथाः।
वङ्गाङ्गमगधा मत्स्याः समृद्धाः काशिकोसलाः॥ ३७॥
‘जहाँ तक सूर्य का चक्र घूमता है, वहाँ तक सारी पृथ्वी मेरे अधिकार में है। द्रविड़, सिन्धु-सौवीर, सौराष्ट्र, दक्षिण भारत के सारे प्रदेश तथा अङ्ग, वङ्ग, मगध, मत्स्य, काशी और कोसल-इन सभी समृद्धिशाली देशों पर मेरा आधिपत्य है॥ ३६-३७॥
तत्र जातं बहु द्रव्यं धनधान्यमजाविकम्।
ततो वृणीष्व कैकेयि यद् यत् त्वं मनसेच्छसि॥ ३८॥
‘केकयराजनन्दिनि! उनमें पैदा होने वाले भाँतिभाँति के द्रव्य, धन-धान्य और बकरी-भेंड आदि जो भी तुम मन से लेना चाहती हो, वह मुझसे माँग लो॥
किमायासेन ते भीरु उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शोभने।
तत्त्वं मे ब्रूहि कैकेयि यतस्ते भयमागतम्।
तत ते व्यपनयिष्यामि नीहारमिव रश्मिवान्॥ ३९॥
‘भीरु ! इतना क्लेश उठाने प्रयास करने की क्या आवश्यकता है? शोभने! उठो, उठो। कैकेयि! ठीक-ठीक बताओ, तुम्हें किससे कौन-सा भय प्राप्त हुआ है? जैसे अंशुमाली सूर्य कुहरा दूर कर देते हैं, । उसी प्रकार मैं तुम्हारे भय का सर्वथा निवारण करदूंगा’ ॥ ३९॥
तथोक्ता सा समाश्वस्ता वक्तुकामा तदप्रियम्।
परिपीडयितुं भूयो भर्तारमुपचक्रमे॥४०॥
राजा के ऐसा कहने पर कैकेयी को कुछ सान्त्वना मिली। अब उसे अपने स्वामी से वह अप्रिय बात कहने की इच्छा हुई। उसने पति को और अधिक पीड़ा देने की तैयारी की॥ ४०॥
सर्ग ११
तं मन्मथशरैर्विद्धं कामवेगवशानुगम्।
उवाच पृथिवीपालं कैकेयी दारुणं वचः॥१॥
भूपाल दशरथ कामदेव के बाणों से पीड़ित तथा कामवेग के वशीभूत हो उसी का अनुसरण कर रहे थे। उनसे कैकेयी ने यह कठोर वचन कहा- ॥१॥
नास्मि विप्रकृता देव केनचिन्नावमानिता।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तमिच्छामि त्वया कृतम्॥२॥
‘देव! न तो किसी ने मेरा अपकार किया है और न किसी के द्वारा मैं अपमानित या निन्दित ही हुई हूँ। मेरा कोई एक अभिप्राय (मनोरथ) है और मैं आपके द्वारा उसकी पूर्ति चाहती हूँ॥२॥
प्रतिज्ञा प्रतिजानीष्व यदि त्वं कर्तुमिच्छसि।
अथ ते व्याहरिष्यामि यथाभिप्रार्थितं मया॥३॥
‘यदि आप उसे पूर्ण करना चाहते हों तो प्रतिज्ञा कीजिये। इसके बाद मैं अपना वास्तविक अभिप्राय आपसे कहूँगी’॥३॥
तामुवाच महाराजः कैकेयीमीषदुत्स्मयः।
कामी हस्तेन संगृह्य मूर्धजेषु भुवि स्थिताम्॥४॥
महाराज दशरथ काम के अधीन हो रहे थे। वे कैकेयी की बात सुनकर किंचित् मुस्कराये और पृथ्वी पर पड़ी हुई उस देवी के केशों को हाथ से पकड़कर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर उससे इस प्रकार बोले- ॥४॥
अवलिप्ते न जानासि त्वत्तः प्रियतरो मम।
मनुजो मनुजव्याघ्राद् रामादन्यो न विद्यते॥५॥
‘अपने सौभाग्य पर गर्व करने वाली कैकेयी! क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि नरश्रेष्ठ श्रीराम के अतिरिक्त दूसरा कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो मुझे तुमसे अधिक प्रिय हो॥
तेनाजय्येन मुख्येन राघवेण महात्मना।
शपे ते जीवनाण ब्रूहि यन्मनसेप्सितम्॥६॥
‘जो प्राणों के द्वारा भी आराधनीय हैं और जिन्हें जीतना किसी के लिये भी असम्भव है, उन प्रमुख वीर महात्मा श्रीराम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कामना पूर्ण होगी; अतः तुम्हारे मन की जो इच्छा हो उसे बताओ॥६॥
यं मुहूर्तमपश्यंस्तु न जीवे तमहं ध्रुवम्।
तेन रामेण कैकेयि शपे ते वचनक्रियाम्॥७॥
‘कैकेयि! जिन्हें दो घड़ी भी न देखनेपर निश्चय ही मैं जीवित नहीं रह सकता, उन श्रीरामकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उसे पूर्ण करूँगा॥७॥
आत्मना चात्मजैश्चान्यैर्वृणे यं मन्जर्षभम्।
तेन रामेण कैकेयि शपे ते वचनक्रियाम्॥८॥
‘केकयनन्दिनि! अपने तथा अपने दूसरे पुत्रों को निछावर करके भी मैं जिन नरश्रेष्ठ श्रीराम का वरण करने को उद्यत हूँ, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कही हुई बात पूरी करूँगा॥ ८॥
भद्रे हृदयमप्येतदनुमृश्योद्धरस्व मे।
एतत् समीक्ष्य कैकेयि ब्रूहि यत् साधु मन्यसे॥
‘भद्रे ! केकयराजकुमारी! मेरा यह हृदय भी तुम्हारे वचनों की पूर्ति के लिये तत्पर है। ऐसा सोचकर तुम अपनी इच्छा व्यक्त करके इस दुःख से मेरा उद्धार करो। श्रीराम सबको अधिक प्रिय हैं—इस बातपर दृष्टिपात करके तुम्हें जो अच्छा जान पड़े, वह कहो॥ ९॥
बलमात्मनि पश्यन्ती न विशङ्कितुमर्हसि।
करिष्यामि तव प्रीतिं सुकृतेनापि ते शपे॥१०॥
‘अपने बलको देखते हुए भी तुम्हें मुझ पर शङ्का नहीं करनी चाहिये। मैं अपने सत्कर्मो की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य सिद्ध करूँगा’ ॥ १०॥
सा तदर्थमना देवी तमभिप्रायमागतम्।
निर्माध्यस्थ्याच्च हर्षाच्च बभाषे दुर्वचं वचः॥ ११॥
रानी कैकेयी का मन स्वार्थ की सिद्धि में ही लगा हुआ था। उसके हृदय में भरत के प्रति पक्षपात था और राजा को अपने वश में देखकर हर्ष हो रहा था; अतः यह सोचकर कि अब मेरे लिये अपना मतलब साधने का अवसर आ गया है, वह राजासे ऐसी बात बोली, जिसे मुँह से निकालना (शत्रु के लिये भी) कठिन है॥ ११॥
तेन वाक्येन संहृष्टा तमभिप्रायमात्मनः।
व्याजहार महाघोरमभ्यागतमिवान्तकम्॥१२॥
राजा के उस शपथयुक्त वचन से उसको बड़ा हर्ष हुआ था। उसने अपने उस अभिप्राय को जो पास आये हुए यमराज के समान अत्यन्त भयंकर था, इन शब्दों में व्यक्त किया— ॥ १२॥
यथा क्रमेण शपसे वरं मम ददासि च।
तच्छृण्वन्तु त्रयस्त्रिंशद् देवाः सेन्द्रपुरोगमाः॥ १३॥
‘राजन्! आप जिस तरह क्रमशः शपथ खाकर मुझे वर देने को उद्यत हुए हैं, उसे इन्द्र आदि तैंतीस देवता सुन लें॥ १३॥
चन्द्रादित्यौ नभश्चैव ग्रहा रात्र्यहनी दिशः।
जगच्च पृथिवी चेयं सगन्धर्वाः सराक्षसाः॥ १४॥
निशाचराणि भूतानि गृहेषु गृहदेवताः।
यानि चान्यानि भूतानि जानीयुर्भाषितं तव॥ १५॥
‘चन्द्रमा, सूर्य, आकाश, ग्रह, रात, दिन, दिशा, जगत् , यह पृथ्वी, गन्धर्व, राक्षस, रात में विचरने वाले प्राणी, घरों में रहने वाले गृहदेवता तथा इनके अतिरिक्त भी जितने प्राणी हों, वे सब आपके कथन को जान लें -आपकी बातों के साक्षी बनें॥ १४-१५ ॥
सत्यसंधो महातेजा धर्मज्ञः सत्यवाक्शुचिः।
वरं मम ददात्येष सर्वे शृण्वन्तु दैवताः॥१६॥
‘सब देवता सुनें! महातेजस्वी, सत्यप्रतिज्ञ, धर्मके ज्ञाता, सत्यवादी तथा शुद्ध आचार-विचार वाले ये महाराज मुझे वर दे रहे हैं’ ॥ १६॥
इति देवी महेष्वासं परिगृह्याभिशस्य च।
ततः परमुवाचेदं वरदं काममोहितम्॥१७॥
इस प्रकार काम मोहित होकर वर देने को उद्यत हुए । महाधनुर्धर राजा दशरथ को अपनी मुट्ठी में करके देवीकैकेयी ने पहले उनकी प्रशंसा की; फिर इस प्रकार कहा- ॥ १७॥
स्मर राजन् पुरा वृत्तं तस्मिन् देवासुरे रणे।
तत्र त्वां च्यावयच्छत्रुस्तव जीवितमन्तरा॥१८॥
‘राजन् ! उस पुरानी बात को याद कीजिये, जब कि देवासुरसंग्राम हो रहा था। वहाँ शत्रु ने आपको घायल करके गिरा दिया था, केवल प्राण नहीं लिये थे॥ १८॥
तत्र चापि मया देव यत् त्वं समभिरक्षितः।
जाग्रत्या यतमानायास्ततो मे प्रददौ वरौ॥१९॥
‘देव! उस युद्धस्थल में सारी रात जागकर अनेक प्रकार के प्रयत्न करके जो मैंने आपके जीवन की रक्षा की थी उससे संतुष्ट होकर आपने मुझे दो वर दिये थे॥ १९॥
तौ दत्तौ च वरौ देव निक्षेपौ मृगयाम्यहम्।
तवैव पृथिवीपाल सकाशे रघुनन्दन ॥२०॥
‘देव! पृथ्वीपाल रघुनन्दन! आपके दिये हुए वे दोनों वर मैंने धरोहर के रूप में आपके ही पास रख दिये थे। आज इस समय उन्हीं की मैं खोज करती हूँ॥२०॥
तत् प्रतिश्रुत्य धर्मेण न चेद् दास्यसि मे वरम्।
अद्यैव हि प्रहास्यामि जीवितं त्वद्विमानिता॥ २१॥
‘इस प्रकार धर्मतः प्रतिज्ञा करके यदि आप मेरे उन वरों को नहीं देंगे तो मैं अपनेको आपके द्वारा” अपमानित हुई समझकर आज ही प्राणों का परित्याग कर दूंगी’ ॥ २१॥
वाङ्मात्रेण तदा राजा कैकेय्या स्ववशे कृतः।
प्रचस्कन्द विनाशाय पाशं मृग इवात्मनः॥२२॥
जैसे मृग बहेलिये की वाणीमात्र से अपने ही विनाश के लिये उसके जाल में फँस जाता है, उसी प्रकार कैकेयी के वशीभूत हुए राजा दशरथ उस समयपूर्वकाल के वरदान-वाक्य का स्मरण कराने मात्र से अपने ही विनाशके लिये प्रतिज्ञा के बन्धन में बँध गये। २२॥
ततः परमुवाचेदं वरदं काममोहितम्।
वरौ देयौ त्वया देव तदा दत्तौ महीपते॥२३॥
तौ तावदहमद्यैव वक्ष्यामि शृणु मे वचः।।
अभिषेकसमारम्भो राघवस्योपकल्पितः॥२४॥
अनेनैवाभिषेकेण भरतो मेऽभिषिच्यताम्।
तदनन्तर कैकेयी ने काममोहित होकर वर देने के लिये उद्यत हुए राजा से इस प्रकार कहा—’देव! पृथ्वीनाथ! उन दिनों आपने जो दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, उन्हें अब मुझे देना चाहिये। उन दोनों वरों को मैं अभी बताऊँगी-आप मेरी बात सुनिये—यह जो श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी की गयी है, इसी अभिषेक-सामग्रीद् वारा मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाय॥
यो द्वितीयो वरो देव दत्तः प्रीतेन मे त्वया॥२५॥
तदा देवासुरे युद्धे तस्य कालोऽयमागतः।
‘देव! आपने उस समय देवासुर संग्राम में प्रसन्न होकर मेरे लिये जो दूसरा वर दिया था, उसे प्राप्त करनेका यह समय भी अभी आया है॥२५ १/२॥
नव पञ्च च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः॥
चीराजिनधरो धीरो रामो भवतु तापसः।
भरतो भजतामद्य यौवराज्यमकण्टकम्॥२७॥
‘धीर स्वभाव वाले श्रीराम तपस्वी के वेश में वल्कल तथा मृगचर्म धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहें। भरत को आज निष्कण्टक युवराज पद प्राप्त हो जाय॥ २६-२७॥
एष मे परमः कामो दत्तमेव वरं वृणे।
अद्य चैव हि पश्येयं प्रयान्तं राघवं वने ॥२८॥
‘यही मेरी सर्वश्रेष्ठ कामना है। मैं आपसे पहले का दिया हुआ वर ही माँगती हूँ। आप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं आज ही श्रीराम को वन की ओर जाते देखें।
स राजराजो भव सत्यसंगरः कुलं च शीलं च हि जन्म रक्ष च।
परत्र वासे हि वदन्त्यनुत्तमं तपोधनाः सत्यवचो हितं नृणाम्॥२९॥
‘आप राजाओं के राजा हैं; अतः सत्यप्रतिज्ञ बनिये और उस सत्य के द्वारा अपने कुल, शील तथा जन्म की रक्षा कीजिये। तपस्वी पुरुष कहते हैं कि सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ धर्म है। वह परलोक में निवास होने पर मनुष्यों के लिये परम कल्याणकारी होता है॥ २९॥
सर्ग १२
ततः श्रुत्वा महाराजः कैकेय्या दारुणं वचः।
चिन्तामभिसमापेदे मुहर्तं प्रतताप च॥१॥
कैकेयीcका यह कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथcको बड़ी चिन्ता हुई वे एक मुहूर्त तक अत्यन्त संताप करते रहे॥१॥
किं नु मेऽयं दिवास्वप्नश्चित्तमोहोऽपि वा मम।
अनुभूतोपसर्गो वा मनसो वाप्युपद्रवः॥२॥
उन्होंने सोचा–’क्या दिन में ही यह मुझे स्वप्न दिखायी दे रहा है ? अथवा मेरे चित्त का मोह है ? या किसी भूत (ग्रह आदि) के आवेश से चित्त में विकलता आ गयी है? या आधि-व्याधि के कारण यह कोई मन का ही उपद्रव है’ ॥ २॥
इति संचिन्त्य तद् राजा नाध्यगच्छत् तदासुखम्।
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां कैकेयीवाक्यतापितः॥३॥
यही सोचते हुए उन्हें अपने भ्रम के कारण का पता नहीं लगा। उस समय राजा को मूर्च्छित कर देने वाला महान् दुःख प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् होश में आने पर कैकेयी की बात को याद करके उन्हें पुनः संताप होने लगा॥३॥
व्यथितो विक्लवश्चैव व्याघ्रीं दृष्ट्वा यथा मृगः।
असंवृतायामासीनो जगत्यां दीर्घमुच्छ्वसन्॥४॥
मण्डले पन्नगो रुद्वो मन्त्रैरिव महाविषः।
जैसे किसी बाघिन को देखकर मृग व्यथित हो जाता है, उसी प्रकार वे नरेश कैकेयी को देखकर पीड़ित एवं व्याकुल हो उठे। बिस्तररहित खाली भूमि पर बैठे हुए राजा लंबी साँस खींचने लगे मानो कोई महा विषैला सर्प किसी मण्डल में मन्त्रों द्वारा अवरुद्ध हो गया हो॥ ४ १/२॥
अहो धिगिति सामर्षो वाचमुक्त्वा नराधिपः॥
मोहमापेदिवान् भूयः शोकोपहतचेतनः।
राजा दशरथ रोष में भरकर ‘अहो! धिक्कार है’ यह कहकर पुनः मूर्च्छित हो गये। शोक के कारण उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी।॥ ५ १/२॥
चिरेण तु नृपः संज्ञां प्रतिलभ्य सुदुःखितः॥६॥
कैकेयीमब्रवीत् क्रुद्धो निर्दहन्निव तेजसा।
बहुत देर के बाद जब उन्हें फिर चेत हुआ, तब वे नरेश अत्यन्त दुःखी होकर कैकेयी को अपने तेज से दग्ध-सी करते हुए क्रोधपूर्वक उससे बोले- ॥ ६ १/२॥
नृशंसे दुष्टचारित्रे कुलस्यास्य विनाशिनि॥७॥
किं कृतं तव रामेण पापे पापं मयापि वा।
‘दयाहीन दुराचारिणी कैकेयि! तू इस कुल का विनाश करने वाली डाइन है। पापिनि! बता, मैंने अथवा श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है? ॥ ७ १/२॥
सदा ते जननीतुल्यां वृत्तिं वहति राघवः॥८॥
तस्यैवं त्वमनर्थाय किंनिमित्तमिहोद्यता।
‘श्रीरामचन्द्र तो तेरे साथ सदा सगी माता का-सा बर्ताव करते आये हैं; फिर तू किसलिये उनका इस तरह अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है॥ ८ १/२॥
त्वं मयाऽऽत्मविनाशाय भवनं स्वं निवेशिता॥ ९॥
अविज्ञानान्नृपसुता व्याला तीक्ष्णविषा यथा।
‘मालूम होता है-मैंने अपने विनाश के लिये ही तुझे अपने घर में लाकर रखा था। मैं नहीं जानता था कि तू राजकन्या के रूप में तीखे विषवाली नागिन है॥ ९१/२॥
जीवलोको यदा सर्वो रामस्याह गुणस्तवम्॥ १०॥
अपराधं कमुद्दिश्य त्यक्ष्यामीष्टमहं सुतम्।
‘जब सारा जीव-जगत् श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करता है, तब मैं किस अपराध के कारण अपने उस प्यारे पुत् रको त्याग दूं? ॥ १० १/२ ॥
कौसल्यां च सुमित्रां च त्यजेयमपि वा श्रियम्॥ ११॥
जीवितं चात्मनो रामं न त्वेव पितृवत्सलम्।
‘मैं कौसल्या और सुमित्रा को भी छोड़ सकता हूँ, राजलक्ष्मी का भी परित्याग कर सकता हूँ, परंतु अपने प्राणस्वरूप पितृभक्त श्रीराम को नहीं छोड़ सकता॥ ११ १/२॥
परा भवति मे प्रीतिर्दृष्ट्वा तनयमग्रजम्॥ १२॥
अपश्यतस्तु मे रामं नष्टं भवति चेतनम्।
‘अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखते ही मेरे हृदय में परमप्रेम उमड़ आता है; परंतु जब मैं श्रीराम को नहीं देखता हूँ, तब मेरी चेतना नष्ट होने लगती है॥ १२ १/२॥
तिष्ठेल्लोको विना सूर्यं सस्यं वा सलिलं विना॥ १३॥
न तु रामं विना देहे तिष्ठेत्तु मम जीवितम्।
‘सम्भव है सूर्य के बिना यह संसार टिक सके अथवा पानी के बिना खेती उपज सके, परंतु श्रीराम के बिना मेरे शरीर में प्राण नहीं रह सकते॥ १३ १/२॥
तदलं त्यज्यतामेष निश्चयः पापनिश्चये॥१४॥
अपि ते चरणौ मूर्ना स्पृशाम्येष प्रसीद मे।
किमर्थं चिन्तितं पापे त्वया परमदारुणम्॥१५॥
‘अतः ऐसा वर माँगने से कोई लाभ नहीं। पापपूर्ण निश्चयवाली कैकेयि! तू इस निश्चय अथवा दुराग्रह को त्याग दे। यह लो, मैं तेरे पैरों पर अपना मस्तक रखता हूँ, मुझ पर प्रसन्न हो जा। पापिनि! तूने ऐसी परम क्रूरतापूर्ण बात किसलिये सोची है?॥ १४-१५॥
अथ जिज्ञाससे मां त्वं भरतस्य प्रियाप्रिये।
अस्तु यत्तत्त्वया पूर्वं व्याहृतं राघवं प्रति॥१६॥
‘यदि यह जानना चाहती है कि भरत मुझे प्रिय हैं या अप्रिय तो रघुनन्दन भरत के सम्बन्ध में तू पहले जो कुछ कह चुकी है, वह पूर्ण हो अर्थात् तेरे प्रथम वर के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ॥१६॥
स मे ज्येष्ठसुतः श्रीमान् धर्मज्येष्ठ इतीव मे।
तत् त्वया प्रियवादिन्या सेवार्थं कथितं भवेत्॥ १७॥
‘तू पहले कहा करती थी कि ‘श्रीराम मेरे बड़े बेटे हैं, वे धर्माचरण में भी सबसे बड़े हैं!’ परंतु अब मालूम हुआ कि तू ऊपर-ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें किया करती थी और वह बात तूने श्रीराम से अपनी सेवा कराने के लिये ही कही होगी॥ १७॥
तच्छ्रुत्वा शोकसंतप्ता संतापयसि मां भृशम्।
आविष्टासि गृहे शून्ये सा त्वं परवशं गता॥१८॥
‘आज श्रीराम के अभिषेक की बात सुनकर तू शोक से संतप्त हो उठी है और मुझे भी बहुत संताप दे रही है; इससे जान पड़ता है कि इस सूने घर में तुझपर भूत आदि का आवेश हो गया है, अतः तू परवश होकर ऐसी बातें कह रही है।॥ १८॥
इक्ष्वाकूणां कुले देवि सम्प्राप्तः सुमहानयम्।
अनयो नयसम्पन्ने यत्र ते विकृता मतिः॥१९॥
‘देवि! न्यायशील इक्ष्वाकुवंशमें यह बड़ा भारी अन्याय आकर उपस्थित हुआ है, जहाँ तेरी बुद्धि इस प्रकार विकृत हो गयी है॥ १९॥
नहि किंचिदयुक्तं वा विप्रियं वा पुरा मम।
अकरोस्त्वं विशालाक्षि तेन न श्रद्दधामि ते॥ २०॥
‘विशाललोचने! आज से पहले तूने कभी कोई ऐसा आचरण नहीं किया है, जो अनुचित अथवा मेरे लिये अप्रिय हो; इसीलिये तेरी आजकी बात पर भी मुझे विश्वास नहीं होता है॥ २०॥
ननु ते राघवस्तुल्यो भरतेन महात्मना।
बहुशो हि स्म बाले त्वं कथाः कथयसे मम॥ २१॥
‘तेरे लिये तो श्रीराम भी महात्मा भरत के ही तुल्य हैं। बाले! तू बहुत बार बातचीत के प्रसंग में स्वयं ही यह बात मुझसे कहती रही है॥२१॥
तस्य धर्मात्मनो देवि वने वासं यशस्विनः।
कथं रोचयसे भीरु नव वर्षाणि पञ्च च॥२२॥
‘भीरु स्वभाववाली देवि! उन्हीं धर्मात्मा और यशस्वी श्रीराम का चौदह वर्षों के लिये वनवास तुझे कैसे अच्छा लगता है ? ॥ २२ ॥
अत्यन्तसुकुमारस्य तस्य धर्मे कृतात्मनः।
कथं रोचयसे वासमरण्ये भृशदारुणे॥२३॥
‘जो अत्यन्त सुकुमार और धर्म में दृढ़तापूर्वक मन लगाये रखने वाले हैं, उन्हीं श्रीराम को वनवास देना तुझे कैसे रुचिकर जान पड़ता है ? अहो! तेरा हृदय बड़ा कठोर है॥ २३॥
रोचयस्यभिरामस्य रामस्य शुभलोचने।
तव शुश्रूषमाणस्य किमर्थं विप्रवासनम्॥२४॥
‘सुन्दर नेत्रों वाली कैकेयि! जो सदा तेरी सेवा। शुश्रूषा में लगे रहते हैं, उन नयनाभिराम श्रीराम को देश निकाला दे देने की इच्छा तुझे किसलिये हो रही है ? ॥
रामो हि भरताद् भूयस्तव शुश्रूषते सदा।
विशेषं त्वयि तस्मात् तु भरतस्य न लक्षये॥ २५॥
‘मैं देखता हूँ, भरत से अधिक श्रीराम ही सदा तेरी सेवा करते हैं। भरत उनसे अधिक तेरी सेवा में रहते हों, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा है॥ २५ ॥
शुश्रूषां गौरवं चैव प्रमाणं वचनक्रियाम्।
कस्तु भूयस्तरं कुर्यादन्यत्र पुरुषर्षभात्॥ २६॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम से बढ़कर दूसरा कौन है, जो गुरुजनों की सेवा करने, उन्हें गौरव देने, उनकी बातों को मान्यता देने और उनकी आज्ञा का तुरंत पालन करने में अधिक तत्परता दिखाता हो॥२६॥
बहूनां स्त्रीसहस्राणां बहूनां चोपजीविनाम्।
परिवादोऽपवादो वा राघवे नोपपद्यते॥२७॥
‘मेरे यहाँ कई सहस्र स्त्रियाँ हैं और बहुत-से उपजीवी भृत्यजन हैं, परंतु किसी के मुँह से श्रीराम के सम्बन्ध में सच्ची या झूठी किसी प्रकार की शिकायत नहीं सुनी जाती॥२७॥
सान्त्वयन् सर्वभूतानि रामः शुद्धेन चेतसा।
गृह्णाति मनुजव्याघ्रः प्रियैर्विषयवासिनः ॥२८॥
‘पुरुषसिंह श्रीराम समस्त प्राणियोंको शुद्ध हृदयसे सान्त्वना देते हुए प्रिय आचरणोंद्वारा राज्यकी समस्त प्रजाओंको अपने वशमें किये रहते हैं।॥ २८॥
सत्येन लोकाञ्जयति द्विजान् दानेन राघवः ।
गुरूञ्छुश्रूषया वीरो धनुषा युधि शात्रवान्॥ २९॥
‘वीर श्रीरामचन्द्र अपने सात्त्विक भाव से समस्त लोकों को, दानके द्वारा द्विजों को, सेवा से गुरुजनों को और धनुष-बाणद्वारा युद्ध स्थल में शत्रु-सैनिकों को जीतकर अपने अधीन कर लेते हैं॥ २९ ॥
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम्।
विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे॥३०॥
‘सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, विद्या और गुरु-शुश्रूषा—ये सभी सद्गुण श्रीराम में स्थिररूप से रहते हैं॥ ३० ॥
तस्मिन्नार्जवसम्पन्ने देवि देवोपमे कथम्।
पापमाशंससे रामे महर्षिसमतेजसि॥३१॥
‘देवि! महर्षियों के समान तेजस्वी उन सीधे-सादे देवतुल्य श्रीराम का तू क्यों अनिष्ट करना चाहती है ?
न स्मराम्यप्रियं वाक्यं लोकस्य प्रियवादिनः।
“स कथं त्वत्कृते रामं वक्ष्यामि प्रियमप्रियम्॥ ३२॥
‘श्रीराम सब लोगों से प्रिय बोलते हैं उन्होंने कभी किसी को अप्रिय वचन कहा हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। ऐसे सर्वप्रिय राम से मैं तेरे लिये अप्रिय बात कैसे कहूँगा? ॥ ३२॥
क्षमा यस्मिंस्तपस्त्यागः सत्यं धर्मः कृतज्ञता।
अप्यहिंसा च भूतानां तमृते का गतिर्मम॥३३॥
‘जिनमें क्षमा, तप, त्याग, सत्य, धर्म, कृतज्ञता और समस्त जीवों के प्रति दया भरी हुई है, उन श्रीराम के बिना मेरी क्या गति होगी? ॥ ३३॥
मम वृद्धस्य कैकेयि गतान्तस्य तपस्विनः।
दीनं लालप्यमानस्य कारुण्यं कर्तुमर्हसि ॥३४॥
‘कैकेयि! मैं बूढ़ा हूँ। मौत के किनारे बैठा हूँ। मेरी अवस्था शोचनीय हो रही है और मैं दीनभाव से तेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुझे मुझ पर दया करनी चाहिये॥
पृथिव्यां सागरान्तायां यत् किंचिदधिगम्यते।
तत् सर्वं तव दास्यामि मा च त्वं मन्युमाविश॥ ३५॥
‘समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर जो कुछ मिल सकता है, वह सब मैं तुझे दे दूंगा, परंतु तू ऐसे दुराग्रह में न पड़, जो मुझे मौत के मुँह में ढकेलने वाला हो॥ ३५ ॥
अञ्जलिं कुर्मि कैकेयि पादौ चापि स्पृशामि ते।
शरणं भव रामस्य माधर्मो मामिह स्पृशेत्॥३६॥
‘केकयनन्दिनि! मैं हाथ जोड़ता हूँ और तेरे पैरों पड़ता हूँ। तू श्रीराम को शरण दे, जिससे यहाँ मुझे पाप न लगे’ ॥ ३६॥
इति दुःखाभिसंतप्तं विलपन्तमचेतनम्।
घूर्णमानं महाराजं शोकेन समभिप्लुतम्॥३७॥
पारं शोकार्णवस्याशु प्रार्थयन्तं पुनः पुनः।
प्रत्युवाचाथ कैकेयी रौद्रा रौद्रतरं वचः॥ ३८॥
महाराज दशरथ इस प्रकार दुःख से संतप्त होकर विलाप कर रहे थे। उनकी चेतना बार-बार लुप्त हो जाती थी। उनके मस्तिष्क में चक्कर आ रहा था और वे शोकमग्न हो उस शोक सागर से शीघ्र पार होने के लिये बारंबार अनुनय-विनय कर रहे थे, तो भी कैकेयी का हृदय नहीं पिघला। वह और भी भीषण रूप धारण करके अत्यन्त कठोर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगी- ॥ ३७-३८॥
यदि दत्त्वा वरौ राजन् पुनः प्रत्यनुतप्यसे।
धार्मिकत्वं कथं वीर पृथिव्यां कथयिष्यसि॥ ३९॥
‘राजन्! यदि दो वरदान देकर आप फिर उनके लिये पश्चात्ताप करते हैं तो वीर नरेश्वर! इस भूमण्डल में आप अपनी धार्मिकता का ढिंढोरा कैसे पीट सकेंगे?॥
यदा समेता बहवस्त्वया राजर्षयः सह।
कथयिष्यन्ति धर्मज्ञ तत्र किं प्रतिवक्ष्यसि ॥४०॥
‘धर्मके ज्ञाता महाराज! जब बहुत-से राजर्षि एकत्र होकर आपके साथ मुझे दिये हुए वरदान के विषय में बातचीत करेंगे, उस समय वहाँ आप उन्हें क्या उत्तर देंगे?॥ ४०॥
यस्याः प्रसादे जीवामि या च मामभ्यपालयत्।
तस्याः कृता मया मिथ्या कैकेय्या इति वक्ष्यसि॥ ४१॥
‘यही कहेंगे न, कि जिसके प्रसाद से मैं जीवित हूँ, । जिसने (बहुत बड़े संकट से) मेरी रक्षा की, उसी कैकेयी को वर देने के लिये की हुई प्रतिज्ञा मैंने झूठी कर दी॥ ४१॥
किल्बिषं त्वं नरेन्द्राणां करिष्यसि नराधिप।
यो दत्त्वा वरमद्यैव पुनरन्यानि भाषसे॥४२॥
‘महाराज! आज ही वरदान देकर यदि आप फिर उससे विपरीत बात कहेंगे तो अपने कुल के राजाओं के माथे कलंक का टीका लगायेंगे॥ ४२ ॥
शैब्यः श्येनकपोतीये स्वमांसं पक्षिणे ददौ।
अलर्कश्चक्षुषी दत्त्वा जगाम गतिमुत्तमाम्॥ ४३॥
‘राजा शैब्य ने बाज और कबूतर के झगड़े में (कबूतर के प्राण बचाने की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये) बाज नामक पक्षी को अपने शरीर का मांस काटकर दे दिया था। इसी तरह राजा अलर्क ने (एक अंधे ब्राह्मण को) अपने दोनों नेत्रों का दान करके परम उत्तम गति प्राप्त की थी॥४३॥
सागरः समयं कृत्वा न वेलामतिवर्तते।
समयं मानृतं कार्षीः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥४४॥
‘समुद्रने (देवताओंके समक्ष) अपनी नियत सीमा को न लाँघने की प्रतिज्ञा की थी, सो अब तक वह उसका उल्लङ्घन नहीं करता है। आप भी पूर्ववर्ती महापुरुषों के बर्ताव को सदा ध्यान में रखकर अपनी प्रतिज्ञा झूठी न करें। ४४॥
स त्वं धर्मं परित्यज्य रामं राज्येऽभिषिच्य च।
सह कौसल्यया नित्यं रन्तुमिच्छसि दर्मते॥४५॥
(परंतु आप मेरी बात क्यों सुनेंगे?) दुर्बुद्धि नरेश! आप तो धर्मको तिलाञ्जलि देकर श्रीराम को राज्यपर अभिषिक्त करके रानी कौसल्या के साथ सदा मौज उड़ाना चाहते हैं॥ ४५ ॥
भवत्वधर्मो धर्मो वा सत्यं वा यदि वानृतम्।
यत्त्वया संश्रुतं मह्यं तस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥ ४६॥
‘अब धर्म हो या अधर्म, झूठ हो या सच, जिस बात के लिये आपने मुझसे प्रतिज्ञा कर ली है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता॥ ४६॥
अहं हि विषमद्यैव पीत्वा बहु तवाग्रतः।
पश्यतस्ते मरिष्यामि रामो यद्यभिषिच्यते॥४७॥
‘यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा तो मैं आपके सामने आपके देखते-देखते आज ही बहुत-सा विष पीकर मर जाऊँगी॥४७॥
एकाहमपि पश्येयं यद्यहं राममातरम्।
“अञ्जलिं प्रतिगृह्णन्तीं श्रेयो ननु मृतिर्मम॥४८॥
‘यदि मैं एक दिन भी राम माता कौसल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूँगी तो उस समय मैं अपने लिये मर जाना ही अच्छा समझूगी॥ ४८॥
भरतेनात्मना चाहं शपे ते मनुजाधिप।
यथा नान्येन तुष्येयमृते रामविवासनात्॥४९॥
‘नरेश्वर! मैं आपके सामने अपनी और भरत की शपथ खाकर कहती हूँ कि श्रीराम को इस देश से निकाल देने के सिवा दूसरे किसी वर से मुझे संतोष नहीं होगा’॥
एतावदुक्त्वा वचनं कैकेयी विरराम ह।
विलपन्तं च राजानं न प्रतिव्याजहार सा॥५०॥
इतना कहकर कैकेयी चुप हो गयी। राजा बहुत रोये-गिड़गिड़ाये; किंतु उसने उनकी किसी बातका जवाब नहीं दिया॥५०॥
श्रुत्वा तु राजा कैकेय्या वाक्यं परमशोभनम्।
रामस्य च वने वासमैश्वर्यं भरतस्य च॥५१॥
नाभ्यभाषत कैकेयीं मुहूर्तं व्याकुलेन्द्रियः।
प्रेक्षतानिमिषो देवीं प्रियामप्रियवादिनीम्॥५२॥
‘श्रीराम का वनवास हो और भरत का राज्याभिषेक’ कैकेयी के मुख से यह परम अमङ्गलकारी वचन सुनकर राजा की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे एक मुहूर्त तक कैकेयी से कुछ न बोले। उस अप्रिय वचन बोलने वाली प्यारी रानी की ओर केवल एकटक दृष्टि से देखते रहे।
तां हि वज्रसमां वाचमाकर्ण्य हृदयाप्रियाम्।
दुःखशोकमयीं श्रुत्वा राजा न सुखितोऽभवत्॥
मन को अप्रिय लगने वाली कैकेयी की वह वज्र के समान कठोर तथा दुःख-शोकमयी वाणी सुनकर राजा को बड़ा दुःख हुआ उनकी सुख-शान्ति छिन गयी।
स देव्या व्यवसायं च घोरं च शपथं कृतम्।
ध्यात्वा रामेति निःश्वस्य च्छिन्नस्तरुरिवापतत्॥ ५४॥
देवी कैकेयी के उस घोर निश्चय और किये हुए शपथ की ओर ध्यान जाते ही वे ‘हा राम!’ कहकर लंबी साँस खींचते हुए कटे वृक्षकी भाँति गिर पड़े। ५४॥
नष्टचित्तो यथोन्मत्तो विपरीतो यथातुरः।
हृततेजा यथा सर्पो बभूव जगतीपतिः॥५५॥
उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी। वे उन्मादग्रस्त-से प्रतीत होने लगे। उनकी प्रकृति विपरीत-सी हो गयी। वे रोगी-से जान पड़ते थे। इस प्रकार भूपाल दशरथ मन्त्रसे जिसका तेज हर लिया गया हो उस सर्प के समान निश्चेष्ट हो गये॥ ५५॥
दीनयाऽऽतुरया वाचा इति होवाच कैकयीम्।
अनर्थमिममर्थाभं केन त्वम्पदेशिता॥५६॥
तदनन्तर उन्होंने दीन और आतुर वाणी में कैकेयी से इस प्रकार कहा—’अरी! तुझे अनर्थ ही अर्थ-सा प्रतीत हो रहा है, किसने तुझे इसका उपदेश दिया है? ॥ ५६॥
भूतोपहतचित्तेव ब्रुवन्ती मां न लज्जसे।
शीलव्यसनमेतत् ते नाभिजानाम्यहं पुरा॥५७॥
‘जान पड़ता है, तेरा चित्त किसी भूत के आवेशसेदूषित हो गया है। पिशाचग्रस्त नारी की भाँति मेरे सामने ऐसी बातें कहती हुई तू लज्जित क्यों नहीं होती? मुझे पहले इस बात का पता नहीं था कि तेरा यह कुलाङ्गनोचित शील इस तरह नष्ट हो गया है। ५७॥
बालायास्तत् त्विदानीं ते लक्षये विपरीतवत्।
कुतो वा ते भयं जातं या त्वमेवंविधं वरम्॥ ५८॥
राष्ट्र भरतमासीनं वृणीषे राघवं वने।
विरमैतेन भावेन त्वमेतेनानृतेन च॥५९॥
‘बालावस्था में जो तेरा शील था, उसे इस समय मैं विपरीत-सा देख रहा हूँ। तुझे किस बात का भय हो गया है जो इस तरह का वर माँगती है ? भरत राज्य सिंहासन पर बैठें और श्रीराम वन में रहें—यही तू माँग रही है। यह बड़ा असत्य तथा ओछा विचार है। तू अब भी इससे विरत हो जा॥ ५८-५९ ॥
यदि भर्तुः प्रियं कार्यं लोकस्य भरतस्य च।
नृशंसे पापसंकल्पे क्षुद्रे दुष्कृतकारिणि॥६०॥
‘क्रूर स्वभाव और पापपूर्ण विचार वाली नीच दुराचारिणि! यदि अपने पति का, सारे जगत् का और भरत का भी प्रिय करना चाहती है तो इस दूषित संकल्प को त्याग दे॥६०॥
किं नु दुःखमलीकं वा मयि रामे च पश्यसि।
“न कथंचिदृते रामाद् भरतो राज्यमावसेत्॥६१॥
‘तू मुझमें या श्रीराम में कौन-सा दुःखदायक या अप्रिय बर्ताव देख रही है (कि ऐसा नीच कर्म करने पर उतारू हो गयी है); श्रीराम के बिना भरत किसी तरह राज्य लेना स्वीकार नहीं करेंगे॥ ६१॥
रामादपि हि तं मन्ये धर्मतो बलवत्तरम्।
कथं द्रक्ष्यामि रामस्य वनं गच्छेति भाषिते॥ ६२॥
मुखवर्णं विवर्णं तु यथैवेन्दम्पप्लुतम्।
‘क्योंकि मेरी समझ में धर्मपालन की दृष्टि से भरत श्रीराम से भी बढ़े-चढ़े हैं। श्रीराम से यह कह देने पर कि तुम वन को जाओ; जब उनके मुख की कान्ति राहुग्रस्त चन्द्रमा की भाँति फीकी पड़ जायगी, उस समय मैं कैसे उनके उस उदास मुख की ओर देख सकूँगा? ॥ ६२ १/२॥
तां तु मे सुकृतां बुद्धिं सुहृद्भिः सह निश्चिताम्॥ ६३॥
कथं द्रक्ष्याम्यपावृत्तां परैरिव हतां चमूम्।
‘मैंने श्रीराम के अभिषेक का निश्चय सुहृदों के साथ विचार करके किया है, मेरी यह बुद्धि शुभ कर्म में प्रवृत्त हुई है; अब मैं इसे शत्रुओं द्वारा पराजित हुई सेना की भाँति पलटी हुई कैसे देखुंगा? ॥ ६३ १/२॥
किं मां वक्ष्यन्ति राजानो नानादिग्भ्यः समागताः॥६४॥
बालो बतायमैक्ष्वाकश्चिरं राज्यमकारयत्।
‘नाना दिशाओं से आये हुए राजालोग मुझे लक्ष्य करके खेदपूर्वक कहेंगे कि इस मूढ इक्ष्वाकुवंशी राजा ने कैसे दीर्घकाल तक इस राज्य का पालन किया है? ॥ ६४ १/२॥
यदा हि बहवो वृद्धा गुणवन्तो बहुश्रुताः॥६५॥
परिप्रक्ष्यन्ति काकुत्स्थं वक्ष्यामीह कथं तदा।
कैकेय्या क्लिश्यमानेन पुत्रः प्रव्राजितो मया॥ ६६॥
‘जब बहुत-से बहुश्रुत गुणवान् एवं वृद्ध पुरुष आकर मुझसे पूछेगे कि श्रीराम कहाँ हैं? तब मैं उनसे कैसे यह कहूँगा कि कैकेयी के दबाव देने पर मैंने अपने बेटे को घर से निकाल दिया॥ ६५-६६॥
यदि सत्यं ब्रवीम्येतत् तदसत्यं भविष्यति।
किं मां वक्ष्यति कौसल्या राघवे वनमास्थिते॥ ६७॥
“किं चैनां प्रतिवक्ष्यामि कृत्वा विप्रियमीदृशम्।
‘यदि कहूँ कि श्रीराम को वनवास देकर मैंने सत्य का पालन किया है तो इसके पहले जो उन्हें राज्य देने की बात कह चुका हूँ, वह असत्य हो जायगी। यदि राम वन को चले गये तो कौसल्या मुझे क्या कहेगी? उसका ऐसा महान् अपकार करके मैं उसे क्या उत्तर दूंगा॥ ६७ १/२ ॥
यदा यदा च कौसल्या दासीव च सखीव च॥ ६८॥
भार्यावद् भगिनीवच्च मातृवच्चोपतिष्ठति।
सततं प्रियकामा मे प्रियपुत्रा प्रियंवदा॥६९॥
न मया सत्कृता देवी सत्कारार्हा कृते तव।
‘हाय! जिसका पुत्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है, वह प्रिय वचन बोलने वाली कौसल्या जब-जब दासी, सखी, पत्नी, बहिन और माता की भाँति मेरा प्रिय करने की इच्छा से मेरी सेवा में उपस्थित होती थी, तब तब उस सत्कार पाने योग्य देवी का भी मैंने तेरे ही कारण कभी सत्कार नहीं किया॥ ६८-६९ १/२ ॥
इदानीं तत्तपति मां यन्मया सुकृतं त्वयि॥७०॥
अपथ्यव्यञ्जनोपेतं भुक्तमन्नमिवातुरम्
‘तेरे साथ जो मैंने इतना अच्छा बर्ताव किया, वह याद आकर इस समय मुझे उसी प्रकार संताप दे रहा है, जैसे अपथ्य (हानिकारक) व्यञ्जनों से युक्त खाया हुआ अन्न किसी रोगी को कष्ट देता है॥ ७० १/२॥
विप्रकारं च रामस्य सम्प्रयाणं वनस्य च॥७१॥
सुमित्रा प्रेक्ष्य वै भीता कथं मे विश्वसिष्यति।
‘श्रीराम के अभिषेक का निवारण और उनका वन की ओर प्रस्थान देखकर निश्चय ही सुमित्रा भयभीत हो जायगी, फिर वह कैसे मेरा विश्वास करेगी? ॥ ७१ १/२॥
कृपणं बत वैदेही श्रोष्यति द्वयमप्रियम्॥७२॥
मां च पञ्चत्वमापन्नं रामं च वनमाश्रितम्।
‘हाय! बेचारी सीता को एक ही साथ दो दुःखद एवं अप्रिय समाचार सुनने पड़ेंगे-श्रीराम का वनवास और मेरी मृत्यु॥ ७२ १/२॥
वैदेही बत मे प्राणान् शोचन्ती क्षपयिष्यति॥ ७३॥
हीना हिमवतः पार्वे किंनरेणेव किंनरी।
‘जब वह श्रीराम के लिये शोक करने लगेगी, उस समय मेरे प्राणों का नाश कर डालेगी उसका शोक देखकर मेरे प्राण इस शरीर में नहीं रह सकेंगे। उसकी दशा हिमालय के पार्श्व भाग में अपने स्वामी किन्नर से बिछुड़ी हुई किन्नरी के समान हो जायगी॥ ७३ १/२॥
नहि राममहं दृष्ट्वा प्रवसन्तं महावने॥७४॥
चिरं जीवितुमाशंसे रुदन्तीं चापि मैथिलीम्।
सा नूनं विधवा राज्यं सपुत्रा कारयिष्यसि॥ ७५॥
‘मैं श्रीराम को विशाल वन में निवास करते और मिथिलेशकुमारी सीता को रोती देख अधिक काल तक जीवित रहना नहीं चाहता। ऐसी दशा में तू निश्चय ही विधवा होकर बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करना।
सतीं त्वामहमत्यन्तं व्यवस्याम्यसतीं सतीम्।
रूपिणीं विषसंयुक्तां पीत्वेव मदिरां नरः॥७६॥
‘ओह ! मैं तुझे अत्यन्त सती-साध्वी समझता था, परंतु तू बड़ी दुष्टा निकली; ठीक उसी तरह जैसे कोई मनुष्य देखने में सुन्दर मदिरा को पीकर पीछे उसके द्वारा किये गये विकार से यह समझ पाता है कि इसमें विष मिला हुआ था। ७६ ॥
अनृतैर्बत मां सान्त्वैः सान्त्वयन्ती स्म भाषसे।
गीतशब्देन संरुध्य लुब्धो मृगमिवावधीः॥७७॥
‘अबतक जो तू सान्त्वनापूर्ण मीठे वचन बोलकर मुझे आश्वासन देती हुई बातें किया करती थी, वे तेरी कही हुई सारी बातें झूठी थीं। जैसे व्याध हरिण को मधुर संगीत से आकृष्ट करके उसे मार डालता है, उसी प्रकार तू भी पहले मुझे लुभाकर अब मेरे प्राण ले रही है।
अनार्य इति मामार्याः पुत्रविक्रायकं ध्रुवम्।
विकरिष्यन्ति रथ्यासु सुरापं ब्राह्मणं यथा॥७८॥
‘श्रेष्ठ पुरुष निश्चय ही मुझे नीच और एक नारी के मोह में पड़कर बेटे को बेच देने वाला कहकर शराबी ब्राह्मण की भाँति मेरी राह-बाट और गली-कूचों में निन्दा करेंगे॥ ७८॥
अहो दुःखमहो कृच्छ्रे यत्र वाचः क्षमे तव।
दुःखमेवंविधं प्राप्तं पुरा कृतमिवाशुभम्॥७९॥
‘अहो! कितना दुःख है! कितना कष्ट है!! जहाँ मझे तेरी ये बातें सहन करनी पड़ती हैं। मानो यह मेरे पूर्वजन्म के किये हुए पाप का ही अशुभ फल है, जो मुझपर ऐसा महान् दुःख आ पड़ा॥ ७९ ॥
चिरं खलु मया पापे त्वं पापेनाभिरक्षिता।
अज्ञानादुपसम्पन्ना रज्जुरुबन्धनी यथा॥८०॥
‘पापिनि! मुझ पापी ने बहुत दिनों से तेरी रक्षा की और अज्ञानवश तुझे गले लगाया; किंतु तू आज मेरे गले में पड़ी हुई फाँसी की रस्सी बन गयी। ८० ॥
रममाणस्त्वया सार्धं मृत्युं त्वां नाभिलक्षये।
बालो रहसि हस्तेन कृष्णसर्पमिवास्पृशम्॥८१॥
‘जैसे बालक एकान्त में खेलता-खेलता काले नाग को हाथ में पकड़ ले, उसी प्रकार मैंने एकान्त में तेरे साथ क्रीडा करते हए तेरा आलिङ्गन किया है,परंतु उस समय मुझे यह न सूझा कि तू ही एक दिन मेरी मृत्यु का कारण बनेगी॥ ८१॥
तं तु मां जीवलोकोऽयं नूनमाक्रोष्टमर्हति।
मया ह्यपितृकः पुत्रः स महात्मा दुरात्मना ॥ ८२॥
‘हाय! मुझ दुरात्माने जीते-जी ही अपने महात्मा पुत्र को पितृहीन बना दिया। मुझे यह सारा संसार निश्चय ही धिक्कारेगा—गालियाँ देगा, जो उचित ही होगा॥ ८२॥
बालिशो बत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।
स्त्रीकृते यः प्रियं पुत्रं वनं प्रस्थापयिष्यति॥८३॥
‘लोग मेरी निन्दा करते हुए कहेंगे कि राजा दशरथ बड़ा ही मूर्ख और कामी है, जो एक स्त्री को संतुष्ट करने के लिये अपने प्यारे पुत्र को वन में भेज रहा है। ८३॥
वेदैश्च ब्रह्मचर्यैश्च गुरुभिश्चोपकर्शितः।
भोगकाले महत्कृच्छं पुनरेव प्रपत्स्यते॥८४॥
‘हाय! अब तक तो श्रीराम वेदों का अध्ययन करने, ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने तथा अनेकानेक गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहने के कारण दुबले होते चले आये हैं। अब जब इनके लिये सुख भोग का समय आया है, तब ये वन में जाकर महान् कष्ट में पड़ेंगे॥ ८४॥
नालं द्वितीयं वचनं पुत्रो मां प्रतिभाषितुम्।
स वनं प्रव्रजेत्युक्तो बाढमित्येव वक्ष्यति॥८५॥
‘अपने पुत्र श्रीराम से यदि मैं कह दूँ कि तुम वन को चले जाओ तो वे तुरंत ‘बहुत अच्छा’ कहकर मेरी आज्ञा को स्वीकार कर लेंगे। मेरे पुत्र राम दूसरी कोई बात कहकर मुझे प्रतिकूल उत्तर नहीं दे सकते॥
यदि मे राघवः कुर्याद् वनं गच्छेति चोदितः।
प्रतिकूलं प्रियं मे स्यान्न तु वत्सः करिष्यति॥ ८६॥
‘यदि मेरे वन जाने की आज्ञा दे देने पर भी श्रीरामचन्द्र उसके विपरीत करते—वन में नहीं जाते तो वही मेरे लिये प्रिय कार्य होगा; किंतु मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता।। ८६॥
राघवे हि वनं प्राप्ते सर्वलोकस्य धिक्कृतम्।
मृत्युरक्षमणीयं मां नयिष्यति यमक्षयम्॥८७॥
‘यदि रघुनन्दन राम वन को चले गये तो सब लोगों के धिक्कारपात्र बने हुए मुझ अक्षम्य अपराधी को मृत्यु अवश्य यमलोक में पहुँचा देगी॥ ८७ ॥
मृते मयि गते रामे वनं मनुजपुङ्गवे।
इष्टे मम जने शेषे किं पापं प्रतिपत्स्यसे॥८८॥
‘यदि नरश्रेष्ठ श्रीराम के वन में चले जाने पर मेरी मृत्यु हो गयी तो शेष जो मेरे प्रियजन (कौसल्या आदि) यहाँ रहेंगे, उनपर तू कौन-सा अत्याचार करेगी? ॥८८॥
कौसल्या मां च रामं च पुत्रौ च यदि हास्यति।
दुःखान्यसहती देवी मामेवानुगमिष्यति॥८९॥
‘देवी कौसल्या को यदि मुझसे, श्रीराम से तथा शेष दोनों पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न से विछोह हो जायगा तो वह इतने बड़े दुःख को सहन नहीं कर सकेगी; अतः मेरे ही पीछे वह भी परलोक सिधार जायगी। (सुमित्रा का भी यही हाल होगा) ॥ ८९॥
कौसल्यां च सुमित्रां च मां च पुत्रैस्त्रिभिः सह।
प्रक्षिप्य नरके सा त्वं कैकेयि सुखिता भव॥ ९०॥
‘कैकेयि! इस प्रकार कौसल्या को, सुमित्रा को और तीनों पुत्रों के साथ मुझे भी नरक-तुल्य महान् शोक में डालकर तू स्वयं सुखी होना॥९०॥
मया रामेण च त्यक्तं शाश्वतं सत्कृतं गुणैः।
इक्ष्वाकुकुलमक्षोभ्यमाकुलं पालयिष्यसि ॥९१॥
‘अनेकानेक गुणों से सत्कृत, शाश्वत तथा क्षोभरहित यह इक्ष्वाकुकुल जब मुझसे और श्रीराम से परित्यक्त होकर शोक से व्याकुल हो जायगा, तब उस अवस्था में तू इसका पालन करेगी। ९१॥
प्रियं चेद् भरतस्यैतद् रामप्रव्राजनं भवेत्।
मा स्म मे भरतः कार्षीत् प्रेतकृत्यं गतायुषः॥ ९२॥
‘यदि भरत को भी श्रीरामका यह वनमें भेजा जाना प्रिय लगता हो तो मेरी मृत्यु के बाद वे मेरे शरीर का दाहसंस्कार न करें॥९२॥
मृते मयि गते रामे वनं पुरुषपुङ्गवे।
सेदानीं विधवा राज्यं सपुत्रा कारयिष्यसि॥९३॥
‘पुरुषशिरोमणि श्रीराम के वन-गमन के पश्चात् मेरी मृत्यु हो जाने पर अब विधवा होकर तू बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करेगी॥ ९३॥
त्वं राजपत्रि दैवेन न्यवसो मम वेश्मनि।
अकीर्तिश्चातुला लोके ध्रुवः परिभवश्च मे।
सर्वभूतेषु चावज्ञा यथा पापकृतस्तथा॥९४॥
‘राजकुमारी! तू मेरे दुर्भाग्य से मेरे घर में आकर बस गयी। तेरे कारण संसार में पापाचारी की भाँति मुझे निश्चय ही अनुपम अपयश, तिरस्कार और समस्त प्राणियों से अवहेलना प्राप्त होगी॥९४॥
कथं रथैर्विभुर्यात्वा गजाश्वैश्च मुहुर्मुहुः।
पद्भ्यां रामो महारण्ये वत्सो मे विचरिष्यति॥ ९५॥
‘मेरे पुत्र सामर्थ्यशाली राम बारंबार रथों, हाथियों और घोड़ोंसे यात्रा किया करते थे। वे ही अब उसविशाल वन में पैदल कैसे चलेंगे? ॥ ९५ ॥
यस्य चाहारसमये सूदाः कुण्डलधारिणः।
अहंपूर्वाः पचन्ति स्म प्रसन्नाः पानभोजनम्॥
स कथं नु कषायाणि तिक्तानि कटुकानि च।
भक्षयन् वन्यमाहारं सुतो मे वर्तयिष्यति॥ ९७॥
‘भोजनके समय जिनके लिये कुण्डलधारी रसोइये प्रसन्न होकर ‘पहले मैं बनाऊँगा’ ऐसा कहते हुए खाने-पीने की वस्तुएँ तैयार करते थे, वे ही मेरे पुत्र रामचन्द्र वन में कसैले, तिक्त और कड़वे फलों का आहार करते हुए किस तरह निर्वाह करेंगे॥९६-९७॥
महार्हवस्त्रसम्बद्धो भूत्वा चिरसुखोचितः।
काषायपरिधानस्तु कथं रामो भविष्यति॥९८॥
‘जो सदा बहुमूल्य वस्त्र पहना करते थे और जिनका चिरकाल से सुख में ही समय बीता है, वे ही श्रीराम वन में गेरुए वस्त्र पहनकर कैसे रह सकेंगे? ॥ ९८॥
कस्येदं दारुणं वाक्यमेवंविधमपीरितम्।
रामस्यारण्यगमनं भरतस्याभिषेचनम्॥ ९९॥
‘श्रीराम का वनगमन और भरत का अभिषेक-ऐसा कठोर वाक्य तुने किसकी प्रेरणा से अपने मुंह से निकाला है॥ ९९॥
धिगस्तु योषितो नाम शठाः स्वार्थपरायणाः।
न ब्रवीमि स्त्रियः सर्वा भरतस्यैव मातरम्॥ १००॥
‘स्त्रियों को धिक्कार है; क्योंकि वे शठ और स्वार्थपरायण होती हैं; परंतु मैं सारी स्त्रियों के लिये ऐसा नहीं कह सकता, केवल भरत की माता की ही निन्दा करता हूँ॥१०० ॥
अनर्थभावेऽर्थपरे नृशंसे ममानुतापाय निवेशितासि।
किमप्रियं पश्यसि मन्निमित्तं हितानुकारिण्यथवापि रामे॥१०१॥
‘अनर्थ में ही अर्थबुद्धि रखनेवाली क्रूर कैकेयि! तू मुझे संताप देने के लिये ही इस घर में बसायी गयी है। अरी! मेरे कारण तू अपना कौन-सा अप्रिय होता देख रही है? अथवा सबका निरन्तर हित करने वाले श्रीराम में ही तुझे कौन-सी बुराई दिखायी देती है। १०१॥
परित्यजेयुः पितरोऽपि पुत्रान् भार्याः पतींश्चापि कृतानुरागाः।
कृत्स्नं हि सर्वं कुपितं जगत् स्याद् दृष्ट्वैव रामं व्यसने निमग्नम्॥१०२॥
‘श्रीराम को संकट के समुद्र में डूबा हुआ देखकर तो पिता अपने पुत्रों को त्याग देंगे। अनुरागिणी स्त्रियाँ भी अपने पतियों को त्याग देंगी। इस प्रकार यह सारा जगत् ही कुपित–विपरीत व्यवहार करनेवाला हो जायगा॥ १०२॥
अहं पुनर्देवकुमाररूपमलंकृतं तं सुतमाव्रजन्तम्।
नन्दामि पश्यन्निव दर्शनेन भवामि दृष्ट्वैव पुनर्युवेव॥१०३॥
‘देवकुमार के समान कमनीय रूपवाले अपने पुत्र श्रीराम को जब वस्त्र और आभूषणों से विभूषित होकर सामने आते देखता हूँ तो नेत्रों से उनकी शोभा निहारकर निहाल हो जाता हूँ। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो मैं फिर जवान हो गया॥ १०३॥
विना हि सूर्येण भवेत् प्रवृत्तिरवर्षता वज्रधरेण वापि।
रामं तु गच्छन्तमितः समीक्ष्य जीवेन्न कश्चित्त्विति चेतना मे॥१०४॥
‘कदाचित् सूर्य के बिना भी संसारका काम चल जाय, वज्रधारी इन्द्र के वर्षा न करने पर भी प्राणियों का जीवन सुरक्षित रह जाय, परंतु राम को यहाँ से वन की ओर जाते देखकर कोई भी जीवित नहीं रह सकता –मेरी ऐसी धारणा है॥ १०४॥
विनाशकामामहिताममित्रामावासयं मृत्युमिवात्मनस्त्वाम्।
चिरं बताङ्केन धृतासि सी महाविषा तेन हतोऽस्मि मोहात्॥ १०५॥
‘अरी! तू मेरा विनाश चाहने वाली, अहित करनेवाली और शत्रुरूप है। जैसे कोई अपनी ही मृत्यु को घर में स्थान दे दे, उसी प्रकार मैंने तुझे घर में बसा लिया है। खेदकी बात है कि मैंने मोहवश तुझ महाविषैली नागिन को चिरकाल से अपने अङ्क में धारण कर रखा है इसीलिये आज मैं मारा गया। १०५॥
मया च रामेण सलक्ष्मणेन प्रशास्तु हीनो भरतस्त्वया सह।
पुरं च राष्ट्रं च निहत्य बान्धवान् ममाहितानां च भवाभिहर्षिणी॥१०६॥
‘मुझसे, श्रीराम और लक्ष्मण से हीन होकर भरत समस्त बान्धवों का विनाश करके तेरे साथ इस नगर तथा राष्ट्र का शासन करें तथा तू मेरे शत्रुओं का हर्ष बढ़ानेवाली हो॥
नृशंसवृत्ते व्यसनप्रहारिणि प्रसह्य वाक्यं यदिहाद्य भाषसे।
न नाम ते तेन मुखात् पतन्त्यधो विशीर्यमाणा दशनाः सहस्रधा॥१०७॥
‘क्रूरतापूर्ण बर्ताव करने वाली कैकेयी! तू संकट में पड़े हुए पर प्रहार कर रही है। अरी! जब तू दुराग्रहपूर्वक आज ऐसी कठोर बातें मुँह से निकालती है, उस समय तेरे दाँतों के हजारों टुकड़े होकर मुँह से नीचे क्यों नहीं गिर जाते? ॥ १०७॥
न किंचिदाहाहितमप्रियं वचो न वेत्ति रामः परुषाणि भाषितुम्।
कथं तु रामे ह्यभिरामवादिनि ब्रवीषि दोषान् गुणनित्यसम्मते॥१०८॥
‘श्रीराम कभी किसी से कोई अहितकारक या अप्रिय वचन नहीं कहते हैं। वे कटुवचन बोलना जानते ही नहीं हैं। उनका अपने गुणों के कारण सदासर्वदा सम्मान होता है। उन्हीं मनोहर वचन बोलने वाले श्रीराम में तू दोष कैसे बता रही है? क्योंकि वनवास उसी को दिया जाता है, जिसके बहुत-से दोष सिद्ध हो चुके हों ॥ १०८॥
प्रताम्य वा प्रज्वल वा प्रणश्य वा सहस्रशो वा स्फुटितां महीं व्रज।
न ते करिष्यामि वचः सुदारुणं ममाहितं केकयराजपांसने॥१०९॥
‘ओ केकयराज के कुलकी जीती-जागती कलङ्क ! तू चाहे ग्लानि में डूब जा अथवा आग में जलकर खाक हो जा या विष खाकर प्राण दे दे अथवा पृथ्वी में हजारों दरारें बनाकर उसी में समा जा; परंतु मेरा अहित करने वाली तेरी यह अत्यन्त कठोर बात मैं कदापि नहीं मानूँगा॥ १०९॥
क्षुरोपमां नित्यमसत्प्रियंवदां प्रदुष्टभावां स्वकुलोपघातिनीम्।
न जीवितुं त्वां विषहेऽमनोरमां दिधक्षमाणां हृदयं सबन्धनम्॥११०॥
‘तू छुरे के समान घात करनेवाली है। बातें तो मीठी-मीठी करती है, परंतु वे सदा झूठी औरसद्भावना से रहित होती हैं। तेरे हृदय का भाव अत्यन्त दूषित है तथा तू अपने कुल का भी नाश करनेवाली है। इतना ही नहीं, तू प्राणों सहित मेरे हृदय को भी जलाकर भस्म कर डालना चाहती है; इसीलिये मेरे मन को नहीं भाती है। तुझ पापिनी का जीवित रहना मैं नहीं सह सकता॥ ११० ॥
न जीवितं मेऽस्ति कुतः पुनः सुखं विनात्मजेनात्मवतां कुतो रतिः।
ममाहितं देवि न कर्तुमर्हसि स्पृशामि पादावपि ते प्रसीद मे॥१११॥
‘देवि! अपने बेटे श्रीराम के बिना मेरा जीवन नहीं रह सकता, फिर कहाँ से सुख हो सकता है? आत्मज्ञ पुरुषों को भी अपने पुत्र से बिछोह हो जाने पर कैसे चैन मिल सकता है ? अतः तू मेरा अहित न कर। मैं तेरे पैर छूता हूँ, तू मुझ पर प्रसन्न हो जा’ ॥ १११॥
स भूमिपालो विलपन्ननाथवत् स्त्रिया गृहीतो हृदयेऽतिमात्रया।
पपात देव्याश्चरणौ प्रसारितावुभावसम्प्राप्य यथाऽऽतुरस्तथा॥११२॥
इस प्रकार महाराज दशरथ मर्यादा का उल्लङ्घन करने वाली उस हठीली स्त्री के वश में पड़कर अनाथ की भाँति विलाप कर रहे थे। वे देवी कैकेयी के फैलाये हुए दोनों चरणों को छूना चाहते थे; परंतु उन्हें न पाकर बीच में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। ठीक उसी तरह, जैसे कोई रोगी किसी वस्तु को छूना चाहता है; किंतु दुर्बलता के कारण वहाँ तक न पहँचकर बीच में ही अचेत होकर गिर जाता है।
सर्ग १३
अतदर्ह महाराजं शयानमतथोचितम्।
ययातिमिव पुण्यान्ते देवलोकात् परिच्युतम्॥
अनर्थरूपासिद्धार्था ह्यभीता भयदर्शिनी।
पुनराकारयामास तमेव वरमङ्गना॥२॥
महाराज दशरथ उस अयोग्य और अनुचित अवस्था में पृथ्वी पर पड़े थे। उस समय वे पुण्य समाप्त होने पर देवलोक से भ्रष्ट हुए राजा ययाति के समान जान पड़ते थे। उनकी वैसी दशा देख अनर्थ की साक्षात् मूर्ति कैकेयी, जिसका प्रयोजन अभी तक सिद्ध नहीं हुआ था, जो लोकापवाद का भय छोड़ चुकी थी और श्रीराम से भरत के लिये भय देखती थी, पुनः उसी वर के लिये राजा को सम्बोधित करके कहने लगी- ॥ १-२॥
त्वं कत्थसे महाराज सत्यवादी दृढव्रतः।
मम चेदं वरं कस्माद् विधारयितुमिच्छसि॥३॥
‘महाराज! आप तो डींग मारा करते थे कि मैं बड़ा सत्यवादी और दृढ़प्रतिज्ञ हूँ, फिर आप मेरे इस वरदान को क्यों हजम कर जाना चाहते हैं ?’ ॥३॥
एवमुक्तस्तु कैकेय्या राजा दशरथस्तदा।
प्रत्युवाच ततः क्रुद्धो मुहूर्तं विह्वलन्निव॥४॥
कैकेयी के ऐसा कहने पर राजा दशरथ दो घड़ी तक व्याकुलकी-सी अवस्था में रहे। तत्पश्चात् कुपित होकर उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे— ॥४॥
मृते मयि गते रामे वनं मनुजपुङ्गवे।
हन्तानार्ये ममामित्रे सकामा सुखिनी भव॥५॥
‘ओ नीच! तू मेरी शत्रु है। नरश्रेष्ठ श्रीराम के वन में चले जाने पर जब मेरी मृत्यु हो जायगी, उस समय तू सफल मनोरथ होकर सुख से रहना॥ ५॥
स्वर्गेऽपि खलु रामस्य कुशलं दैवतैरहम्।
प्रत्यादेशादभिहितं धारयिष्ये कथं बत॥६॥
‘हाय! स्वर्ग में भी जब देवता मुझसे श्रीराम का कुशल समाचार पूछेगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा? यदि कहूँ, उन्हें वन में भेज दिया तो उसके बाद वे लोग जो मेरे प्रति धिक्कारपूर्ण बात कहेंगे, उसे कैसे सह सकूँगा? इसके लिये मुझे बड़ा खेद है॥
कैकेय्याः प्रियकामेन रामः प्रव्राजितो वनम्।
यदि सत्यं ब्रवीम्येतत् तदसत्यं भविष्यति॥७॥
‘कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से उसके माँगे हुए वरदान के अनुसार मैंने श्रीराम को वन में भेज दिया, यदि ऐसा कहूँ और इसे सत्य बताऊँ तो मेरी वह पहली बात असत्य हो जायगी, जिसके द्वारा मैंने राम को राज्य देने का आश्वासन दिया है।॥ ७॥
अपुत्रेण मया पुत्रः श्रमेण महता महान्।
रामो लब्धो महातेजाः स कथं त्यज्यते मया॥ ८॥
‘मैं पहले पुत्रहीन था, फिर महान् परिश्रम करके मैंने जिन महातेजस्वी महापुरुष श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त किया है, उनका मेरे द्वारा त्याग कैसे किया जा सकता है ? ॥ ८॥
शूरश्च कृतविद्यश्च जितक्रोधः क्षमापरः।
कथं कमलपत्राक्षो मया रामो विवास्यते॥९॥
‘जो शूरवीर, विद्वान्, क्रोधको जीतने वाले और क्षमापरायण हैं, उन कमलनयन श्रीराम को मैं देश निकाला कैसे दे सकता हूँ? ॥९॥
कथमिन्दीवरश्यामं दीर्घबाहुं महाबलम्।
अभिराममहं रामं स्थापयिष्यामि दण्डकान्॥ १०॥
‘जिनकी अङ्गकान्ति नीलकमल के समान श्याम है, भुजाएँ विशाल और बल महान् हैं, उन नयनाभिराम श्रीराम को मैं दण्डक वन में कैसे भेज सकूँगा?॥ १० ॥
सुखानामुचितस्यैव दुःखैरनुचितस्य च।
दुःखं नामानुपश्येयं कथं रामस्य धीमतः॥११॥
‘जो सदा सुख भोगने के ही योग्य हैं, कदापि दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं, उन बुद्धिमान् श्रीराम को दुःख उठाते मैं कैसे देख सकता हूँ? ॥ ११ ॥
यदि दुःखमकृत्वा तु मम संक्रमणं भवेत्।
अदुःखार्हस्य रामस्य ततः सुखमवाप्नुयाम्॥ १२॥
‘जो दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं, उन श्रीराम को यह वनवास का दुःख दिये बिना ही यदि मैं इस संसार से विदा हो जाता तो मुझे बड़ा सुख मिलता॥ १२॥
नृशंसे पापसंकल्पे रामं सत्यपराक्रमम्।
किं विप्रियेण कैकेयि प्रियं योजयसे मम॥१३॥
अकीर्तिरतुला लोके ध्रुवं परिभविष्यति।
‘ओ पापपूर्ण विचार रखने वाली पाषाणहृदया कैकेयि! सत्यपराक्रमी श्रीराम मुझे बहुत प्रिय हैं, तू मुझसे उनका विछोह क्यों करा रही है? अरी! ऐसा करने से निश्चय ही संसार में तेरी वह अपकीर्ति फैलेगी, जिसकी कहीं तुलना नहीं है’ ॥ १३ १/२॥
तथा विलपतस्तस्य परिभ्रमितचेतसः॥१४॥
अस्तमभ्यागमत् सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत।
इस प्रकार विलाप करते-करते राजा दशरथ का चित्त अत्यन्त व्याकुल हो उठा। इतने में ही सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये और प्रदोषकाल आ पहुँचा॥ १४ १/२॥
सा त्रियामा तदार्तस्य चन्द्रमण्डलमण्डिता॥ १५॥
राज्ञो विलपमानस्य न व्यभासत शर्वरी।
वह तीन पहरोंवाली रात यद्यपि चन्द्रमण्डलकी चारुचन्द्रिकासे आलोकित हो रही थी, तो भी उस समय आर्त होकर विलाप करते हुए राजा दशरथके लिये प्रकाश या उल्लास न दे सकी॥ १५ १/२ ॥
सदैवोष्णं विनिःश्वस्य वृद्धो दशरथो नृपः॥ १६॥
विललापार्तवद् दुःखं गगनासक्तलोचनः।
बूढ़े राजा दशरथ निरन्तर गरम उच्छ्वास लेते हुए आकाश की ओर दृष्टि लगाये आर्त की भाँति दुःखपूर्ण विलाप करने लगे- ॥ १६ १/२॥
न प्रभातं त्वयेच्छामि निशे नक्षत्रभूषिते॥१६॥
क्रियतां मे दया भद्रे मयायं रचितोऽञ्जलिः।
‘नक्षत्रमालाओं से अलंकृत कल्याणमयी रात्रिदेवि ! मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे द्वारा प्रभात-काल लाया जाय। मुझपर दया करो मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता हूँ॥
अथवा गम्यतां शीघ्रं नाहमिच्छामि निघृणाम्॥ १८॥
नृशंसां केकयीं द्रष्टुं यत्कृते व्यसनं मम।
‘अथवा शीघ्र बीत जाओ; क्योंकि जिसके कारण मुझे भारी संकट प्राप्त हुआ है, उस निर्दय और क्रूर कैकेयी को अब मैं नहीं देखना चाहता’ ॥ १८ १/२॥
एवमुक्त्वा ततो राजा कैकेयीं संयताञ्जलिः॥ १९॥
प्रसादयामास पुनः कैकेयी राजधर्मवित्।
कैकेयी से ऐसा कहकर राजधर्म के ज्ञाता राजा दशरथ ने पुनः हाथ जोड़कर उसे मनाने या प्रसन्न करने की चेष्टा आरम्भ की— ॥ १९ १/२॥
साधुवृत्तस्य दीनस्य त्वद्गतस्य गतायुषः॥२०॥
प्रसादः क्रियतां भद्रे देवि राज्ञो विशेषतः।
‘कल्याणमयी देवि! जो सदाचारी, दीन, तेरे आश्रित, गतायु (मरणासन्न) और विशेषतः राजा है —ऐसे मुझ दशरथ पर कृपा कर॥ २० १/२॥
शून्ये न खलु सुश्रोणि मयेदं समुदाहृतम्॥२१॥
कुरु साधुप्रसादं मे बाले सहृदया ह्यसि॥
‘सुन्दर कटिप्रदेश वाली केकयनन्दिनि ! मैंने जो यह श्रीराम को राज्य देने की बात कही है, वह किसी सूनेघर में नहीं, भरी सभा में घोषित की है, अतः बाले! तूबड़ी सहृदय है; इसलिये मुझ पर भलीभाँति कृपा कर (जिससे सभासदों द्वारा मेरा उपहास न हो) ॥ २११/२॥
प्रसीद देवि रामो मे त्वद्दत्तं राज्यमव्ययम्॥ २२॥
लभतामसितापाते यशः परमवाप्स्यसि।
‘देवि! प्रसन्न हो जा। कजरारे नेत्रप्रान्तवाली प्रिये ! मेरे श्रीराम तेरे ही दिये हुए इस अक्षय राज्य को प्राप्त करें, इससे तुझे उत्तम यश की प्राप्ति होगी॥ २२ १/२॥
मम रामस्य लोकस्य गुरूणां भरतस्य च।
प्रियमेतद् गुरुश्रोणि कुरु चारुमुखेक्षणे॥२३॥
‘पृथुल नितम्बवाली देवि! सुमुखि! सुलोचने! यह प्रस्ताव मुझको, श्रीराम को, समस्त प्रजावर्ग को, गुरुजनों को तथा भरत को भी प्रिय होगा, अतः इसे पूर्ण कर’॥ २३॥
विशुद्धभावस्य हि दुष्टभावा दीनस्य ताम्राश्रुकलस्य राज्ञः।
श्रुत्वा विचित्रं करुणं विलापं भर्तनूशंसा न चकार वाक्यम्॥२४॥
राजा के हृदय का भाव अत्यन्त शुद्ध था, उनके आँसूभरे नेत्र लाल हो गये थे और वे दीनभाव से विचित्र करुणाजनक विलाप कर रहे थे, किंतु मन में दूषित विचार रखनेवाली निष्ठुर कैकेयी ने पति के उस विलाप को सुनकर भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया॥ २४॥
ततः स राजा पुनरेव मूर्च्छितः प्रियामतुष्टां प्रतिकूलभाषिणीम्।
समीक्ष्य पुत्रस्य विवासनं प्रति क्षितौ विसंज्ञो निपपात दुःखितः॥२५॥
(इतनी अनुनय-विनयके बाद भी) जब प्रिया कैकेयी किसी तरह संतुष्ट न हो सकी और बराबर प्रतिकूल बात ही मुँह से निकालती गयी, तब पुत्र के वनवास की बात सोचकर राजा पुनः दुःख के मारे मूिर्च्छत हो गये और सुध-बुध खोकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥२५॥
इतीव राज्ञो व्यथितस्य सा निशा जगाम घोरं श्वसतो मनस्विनः।
विबोध्यमानः प्रतिबोधनं तदा निवारयामास स राजसत्तमः॥२६॥
इस प्रकार व्यथित होकर भयंकर उच्छ्वास लेते हुए मनस्वी राजा दशरथ की वह रात धीरे-धीरे बीत गयी। प्रातःकाल राजा को जगाने के लिये मनोहर वाद्यों के साथ मङ्गलगान होने लगा, परंतु उन राजशिरोमणिने तत्काल मनाही भेजकर वह सब बंद करा दिया॥२६॥
सर्ग १४
पुत्रशोकार्दितं पापा विसंज्ञं पतितं भुवि।
विचेष्टमानमुत्प्रेक्ष्य ऐक्ष्वाकमिदमब्रवीत्॥१॥
इक्ष्वाकुनन्दन राजा दशरथ पुत्रशोक से पीड़ित हो पृथ्वी पर अचेत पड़े थे और वेदना से छटपटा रहे थे, उन्हें इस अवस्था में देखकर पापिनी कैकेयी इस प्रकार बोली- ॥१॥
पापं कृत्वेव किमिदं मम संश्रुत्य संश्रवम्।
शेषे क्षितितले सन्नः स्थित्यां स्थातुं त्वमर्हसि॥ २॥
‘महाराज! आपने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी और जब मैंने उन्हें माँगा, तब आप इस प्रकार सन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो कोई पाप करके पछता रहे हों, यह क्या बात है? आपको सत्पुरुषों की मर्यादा में स्थिर रहना चाहिये॥२॥
आहुः सत्यं हि परमं धर्मं धर्मविदो जनाः।
सत्यमाश्रित्य च मया त्वं धर्मं प्रतिचोदितः॥३॥
‘धर्मज्ञ पुरुष सत्य को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म बतलाते हैं, उस सत्य का सहारा लेकर मैंने आपको धर्म का पालन करने के लिये ही प्रेरित किया है॥३॥
संश्रुत्य शैब्यः श्येनाय स्वां तनुं जगतीपतिः।
प्रदाय पक्षिणे राजा जगाम गतिमुत्तमाम्॥४॥
‘पृथ्वीपति राजा शैब्य ने बाज पक्षी को अपना शरीर देने की प्रतिज्ञा करके उसे दे ही दिया और देकर उत्तम गति प्राप्त कर ली॥४॥
तथा ह्यलर्कस्तेजस्वी ब्राह्मणे वेदपारगे।
याचमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ॥५॥
‘इसी प्रकार तेजस्वी राजा अलर्कने वेदोंके पारङ्गत । विद्वान् ब्राह्मणको उसके याचना करनेपर मनमें खेद न लाते हए अपनी दोनों आँखें निकालकर दे दी थीं॥
सरितां तु पतिः स्वल्पां मर्यादां सत्यमन्वितः।
सत्यानुरोधात् समये वेलां स्वां नातिवर्तते॥६॥
‘सत्यको प्राप्त हुआ समुद्र सत्यका ही अनुसरण करनेके कारण पर्व आदिके समय भी अपनी छोटीसी सीमातट-भूमिका भी उल्लङ्घन नहीं करता॥६॥
सत्यमेकपदं ब्रह्म सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः॥
सत्यमेवाक्षया वेदाः सत्येनावाप्यते परम्॥७॥
‘सत्य ही प्रणवरूप शब्दब्रह्म है, सत्यमें ही धर्म प्रतिष्ठित है, सत्य ही अविनाशी वेद है और सत्यसे ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है॥७॥
सत्यं समनुवर्तस्व यदि धर्मे धृता मतिः।
स वरः सफलो मेऽस्तु वरदो ह्यसि सत्तम॥८॥
‘इसलिये यदि आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है तो सत्य का अनुसरण कीजिये। साधुशिरोमणे! मेरा माँगा हुआ वह वर सफल होना चाहिये; क्योंकि आप स्वयं ही उस वर के दाता हैं।॥ ८॥
धर्मस्यैवाभिकामार्थं मम चैवाभिचोदनात्।
प्रव्राजय सुतं रामं त्रिः खलु त्वां ब्रवीम्यहम्॥९॥
‘धर्म के ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये तथा मेरी प्रेरणा से भी आप अपने पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दीजिये। मैं अपने इस कथन को तीन बार दुहराती हूँ।
समयं च ममार्येमं यदि त्वं न करिष्यसि।
अग्रतस्ते परित्यक्ता परित्यक्ष्यामि जीवितम्॥ १०॥
‘आर्य! यदि मुझसे की हुई इस प्रतिज्ञा का आप पालन नहीं करेंगे तो मैं आपसे परित्यक्त (उपेक्षित) होकर आपके सामने ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगी’ ॥ १०॥
एवं प्रचोदितो राजा कैकेय्या निर्विशङ्कया।
नाशकत् पाशमुन्मोक्तुं बलिरिन्द्रकृतं यथा॥ ११॥
इस प्रकार कैकेयी ने जब निःशङ्क होकर राजा को प्रेरित किया, तब वे उस सत्यरूपी बन्धन को वैसे ही नहीं खोल सके—उस बन्धन से अपने को उसी तरह नहीं मुक्त कर सके, जैसे राजा बलि इन्द्र प्रेरित वामन के पाश से अपने को मुक्त करने में असमर्थ हो गये थे॥११॥
उद्भ्रान्तहृदयश्चापि विवर्णवदनोऽभवत्।
स धुर्यो वै परिस्पन्दन् युगचक्रान्तरं यथा॥१२॥
दो पहियों के बीच में फँसकर वहाँ से निकलने की चेष्टा करने वाले गाड़ी के बैल की भाँति उनका हृदय उद्भ्रान्त हो उठा था और उनके मुख की कान्ति भी फीकी पड़ गयी थी॥ १२ ॥
विकलाभ्यां च नेत्राभ्यामपश्यन्निव भूमिपः।
कृच्छ्राद् धैर्येण संस्तभ्य कैकेयीमिदमब्रवीत्॥१३॥
अपने विकल नेत्रों से कुछ भी देखने में असमर्थ से होकर भूपाल दशरथ ने बड़ी कठिनाई से धैर्य धारण करके अपने हृदय को सँभाला और कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥१३॥
यस्ते मन्त्रकृतः पाणिरग्नौ पापे मया धृतः।
संत्यजामि स्वजं चैव तव पुत्रं सह त्वया॥१४॥
‘पापिनि! मैंने अग्नि के समीप ‘साष्ठं ते गृभ्णामि सौभगत्वाय हस्तम्’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का पाठ करके तेरे जिस हाथ को पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ। साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र का भी त्याग करता हूँ॥ १४ ॥
प्रयाता रजनी देवि सूर्यस्योदयनं प्रति।
अभिषेकाय हि जनस्त्वरयिष्यति मां ध्रुवम्॥
‘देवि! रात बीत गयी। सूर्योदय होते ही सब लोग निश्चय ही श्रीराम का राज्याभिषेक करने के लिये मुझे शीघ्रता करने को कहेंगे॥ १५ ॥
रामाभिषेकसम्भारैस्तदर्थमुपकल्पितैः।
रामः कारयितव्यो मे मृतस्य सलिलक्रियाम्॥ १६॥
सपुत्रया त्वया नैव कर्तव्या सलिलक्रिया।
‘उस समय जो सामान श्रीराम के अभिषेक के लिये जुटाया गया है, उसके द्वारा मेरे मरने के बाद श्रीराम के हाथ से मुझे जलाञ्जलि दिलवा देना; परंतु अपने पुत्र सहित तू मेरे लिये जलाञ्जलि न देना॥ १६ १/२॥
व्याहन्तास्यशुभाचारे यदि रामाभिषेचनम्॥१७॥
न शक्तोऽद्यास्म्यहं द्रष्टुं दृष्ट्वा पूर्वं तथामुखम्।
हतहर्षं तथानन्दं पुनर्जनमवाङ्मुखम्॥ १८॥
‘पापाचारिणि! यदि तू श्रीराम के अभिषेक में विघ्न डालेगी (तो तुझे मेरे लिये जलाञ्जलि देने का कोई अधिकार न होगा)। मैं पहले श्रीराम के राज्याभिषेक के समाचार से जो जन-समुदाय का हर्षोल्लास से परिपूर्ण उन्नत मुख देख चुका हूँ, वैसा देखने के पश्चात् आज पुनः उसी जनता के हर्ष और आनन्द से शून्य, नीचे लटके हुए मुख को मैं नहीं देख सकूँगा’ ॥ १७-१८॥
तां तथा ब्रुवतस्तस्य भूमिपस्य महात्मनः।
प्रभाता शर्वरी पुण्या चन्द्रनक्षत्रमालिनी॥१९॥
महात्मा राजा दशरथ के कैकेयी से इस तरह की बातें करते-करते ही चन्द्रमा और नक्षत्रमालाओं से अलंकृत वह पुण्यमयी रजनी बीत गयी और प्रभातकाल आ गया॥ १९॥
ततः पापसमाचारा कैकेयी पार्थिवं पुनः।
उवाच परुषं वाक्यं वाक्यज्ञा रोषमूर्च्छिता॥ २०॥
तदनन्तर बातचीत के मर्म को समझने वाली पापचारिणी कैकेयी रोष से मूर्च्छित-सी होकर राजा से पुनः कठोर वाणी में बोली- ॥ २० ॥
किमिदं भाषसे राजन् वाक्यं गररुजोपमम्।
आनाययितुमक्लिष्टं पुत्रं राममिहार्हसि ॥२१॥
स्थाप्य राज्ये मम सुतं कृत्वा रामं वनेचरम्। २०॥
निःसपत्नां च मां कृत्वा कृतकृत्यो भविष्यसि॥ २२॥
‘राजन् ! आप विष और शूल आदि रोगों के समान कष्ट देने वाले ऐसे वचन क्यों बोल रहे हैं (इन बातों से कुछ होने-जाने वाला नहीं है)। आप बिना किसी क्लेश के अपने पुत्र श्रीराम को यहाँ बुलवाइये। मेरे पुत्र को राज्यपर प्रतिष्ठित कीजिये और श्रीराम को वन में भेजकर मुझे निष्कण्टक बनाइये; तभी आप कृतकृत्य हो सकेंगे’॥ २१-२२॥
स तुन्न इव तीक्ष्णेन प्रतोदेन हयोत्तमः।
राजा प्रचोदितोऽभीक्ष्णं कैकेय्या वाक्यमब्रवीत्॥२३॥
तीखे कोडे की मार से पीड़ित हुए उत्तम अश्व की भाँति कैकेयी द्वारा बारंबार प्रेरित होने पर व्यथित हुए राजा दशरथ ने इस प्रकार कहा- ॥२३॥
धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि नष्टा च मम चेतना।
ज्येष्ठं पुत्रं प्रियं रामं द्रष्टुमिच्छामि धार्मिकम्॥ २४॥
‘मैं धर्म के बन्धन में बँधा हुआ हूँ। मेरी चेतना लुप्त होती जा रही है। इसलिये इस समय मैं अपने धर्मपरायण परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखना चाहता हूँ’॥ २४॥
ततः प्रभातां रजनीमुदिते च दिवाकरे।
पुण्ये नक्षत्रयोगे च मुहुर्ते च समागते॥२५॥
वसिष्ठो गुणसम्पन्नः शिष्यैः परिवृतस्तथा।
उपगृह्याशु सम्भारान् प्रविवेश पुरोत्तमम्॥२६॥
उधर जब रात बीती, प्रभात हुआ, सूर्यदेव का उदय हो गया और पुण्यनक्षत्र के योग में अभिषेक का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा, उस समय शिष्यों से घिरे हुए शुभगुणसम्पन्न महर्षि वसिष्ठ अभिषेक की आवश्यक सामग्रियों का संग्रह करके शीघ्रतापूर्वक उस श्रेष्ठ पुरी में आये॥ २५-२६॥
सिक्तसम्मार्जितपथां पताकोत्तमभूषिताम्।
संहृष्टमनुजोपेतां समृद्धविपणापणाम्॥२७॥
उस पुण्यवेला में अयोध्या की सड़कें झाड़-बुहारकर साफ की गयी थीं और उनपर जल का छिड़काव हआ था। सारी पुरी उत्तम पताकाओं से सुशोभित थी। वहाँ के सभी मनुष्य हर्ष और उत्साह से भरे हुए थे। बाजार और दूकानें इस तरह सजी हुई थीं कि उनकी समृद्धि देखते ही बनती थी॥ २७॥
महोत्सवसमायुक्तां राघवार्थे समुत्सुकाम्।
चन्दनागुरुधूपैश्च सर्वतः परिधूमिताम्॥२८॥
सब ओर महान् उत्सव हो रहा था। सारी नगरी श्रीरामचन्द्रजी के अभिषेक के लिये उत्सुक थी। चारों ओर चन्दन, अगर और धूप की सुगन्ध व्याप्त हो रही थी॥ २८॥
तां पुरीं समतिक्रम्य पुरंदरपुरोपमाम्।
ददर्शान्तःपुरं श्रीमान् नानाध्वजगणायुतम्॥ २९॥
इन्द्रनगरी अमरावती के समान शोभा पाने वाली उस पुरी को पार करके श्रीमान् वसिष्ठजी ने राजा दशरथ के अन्तःपुर का दर्शन किया जहाँ सहस्रों ध्वजाएँ फहरा रही थीं॥२९॥
पौरजानपदाकीर्णं ब्राह्मणैरुपशोभितम्।
यष्टिमद्भिः सुसम्पूर्ण सदश्वैः परमार्चितैः॥ ३०॥
नगर और जनपद के लोग वहाँ भरे हुए थे। बहुत से ब्राह्मण उस स्थान की शोभा बढ़ाते थे। छड़ीदार राजसेवक तथा सजे-सजाये सुन्दर घोड़े वहाँ अधिक संख्या में उपस्थित थे॥३०॥
तदन्तःपुरमासाद्य व्यतिचक्राम तं जनम्।
वसिष्ठः परमप्रीतः परमर्षिभिरावृतः॥३१॥
श्रेष्ठ महर्षियों से घिरे हए वसिष्ठजी परम प्रसन्न हो उस अन्तःपुर में पहुँचकर उस जन-समुदाय को लाँघकर आगे बढ़ गये॥ ३१॥
स त्वपश्यद् विनिष्क्रान्तं सुमन्त्रं नाम सारथिम्।
द्वारे मनुजसिंहस्य सचिवं प्रियदर्शनम्॥३२॥
वहाँ उन्होंने महाराज के सुन्दर सचिव तथा सारथि सुमन्त्र को अन्तःपुर के द्वार पर उपस्थित देखा, जो उसी समय भीतर से निकले थे॥ ३२॥
तमुवाच महातेजाः सूतपुत्रं विशारदम्।
वसिष्ठः क्षिप्रमाचक्ष्व नृपतेर्मामिहागतम्॥३३॥
तब महातेजस्वी वसिष्ठ ने परम चतुर सूतपुत्र सुमन्त्र से कहा—’सूत! तुम महाराज को शीघ्र ही मेरे आगमन की सूचना दो॥ ३३॥
इमे गङ्गोदकघटाः सागरेभ्यश्च काञ्चनाः।
औदुम्बरं भद्रपीठमभिषेकार्थमाहृतम्॥ ३४॥
‘(उन्हें बताओ कि श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र कर ली गयी है) ये गङ्गाजल से भरे कलश रखे हैं, इन सोने के कलशों में समुद्रों से लाया हुआ जल भरा हुआ है। यह गूलर की लकड़ी का बना हुआ भद्रपीठ है, जो अभिषेक के लिये लाया गया है (इसी पर बिठाकर श्रीराम का अभिषेक होगा) ॥ ३४॥
सर्वबीजानि गन्धाश्च रत्नानि विविधानि च।
क्षौद्रं दधि घृतं लाजा दर्भाः सुमनसः पयः॥ ३५॥
अष्टौ च कन्या रुचिरा मत्तश्च वरवारणः।
चतुरश्वो रथः श्रीमान् निस्त्रिंशो धनुरुत्तमम्॥
वाहनं नरसंयुक्तं छत्रं च शशिसंनिभम्।
श्वेते च वालव्यजने भृङ्गारं च हिरण्मयम्॥३७॥
हेमदामपिनद्धश्च ककुद्मान् पाण्डुरो वृषः।
केसरी च चतुर्दष्ट्रो हरिश्रेष्ठो महाबलः॥ ३८॥
सिंहासनं व्याघ्रतनुः समिधश्च हुताशनः।
सर्वे वादित्रसङ्घाश्च वेश्याश्चालंकृताः स्त्रियः॥ ३९॥
आचार्या ब्राह्मणा गावः पुण्याश्च मृगपक्षिणः।
पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणैः सह ॥ ४०॥
एते चान्ये च बहवः प्रीयमाणाः प्रियंवदाः।
अभिषेकाय रामस्य सह तिष्ठन्ति पार्थिवैः ॥४१॥
‘सब प्रकार के बीज, गन्ध, भाँति-भाँति के रत्न, मधु, दही, घी, लावा या खील, कुश, फूल, दूध, आठ सुन्दरी कन्याएँ, मत्त गजराज, चार घोड़ोंवाला रथ, चमचमाता हुआ खड्ग, उत्तम धनुष, मनुष्यों द्वारा ढोयी जाने वाली सवारी (पालकी आदि), चन्द्रमा के समान श्वेत छत्र, सफेद चँवर, सोने की झारी, सुवर्ण की माला से अलंकृत ऊँचे डीलवाला श्वेत पीतवर्ण का वृषभ, चार दाढ़ों वाला सिंह, महाबलवान् उत्तम अश्व, सिंहासन, व्याघ्रचर्म, समिधाएँ, अग्नि, सब प्रकार के बाजे, वाराङ्गनाएँ, शृङ्गारयुक्त सौभाग्यवती स्त्रियाँ, आचार्य, ब्राह्मण, गौ, पवित्र पशु-पक्षी, नगर और जनपद के श्रेष्ठ पुरुष अपने सेवक-गणों सहित प्रसिद्ध-प्रसिद्ध व्यापारी ये तथा और भी बहुत-से प्रियवादी मनुष्य बहुसंख्यक राजाओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामके अभिषेकके । लिये यहाँ उपस्थित हैं॥ ३५-४१॥
त्वरयस्व महाराजं यथा समुदितेऽहनि।
पुष्ये नक्षत्रयोगे च रामो राज्यमवाप्नुयात्॥४२॥
‘तुम महाराज से शीघ्रता करने के लिये कहो, जिससे अब सूर्योदय के पश्चात् पुष्यनक्षत्र के योग में श्रीरामराज्य प्राप्त कर लें’॥ ४२ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सूतपुत्रो महाबलः।
स्तुवन् नृपतिशार्दूलं प्रविवेश निवेशनम्॥४३॥
वसिष्ठजी के ये वचन सुनकर महाबली सूतपुत्र सुमन्त्र ने राजसिंह दशरथ की स्तुति करते हुए उनके भवन में प्रवेश किया॥४३॥
तं तु पूर्वोदितं वृद्धं द्वारस्था राजसम्मताः।
न शेकुरभिसंरोधडं राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥४४॥
राजा का प्रिय करने की इच्छा रखने वाले और उनके द्वारा सम्मानित द्वारपाल उन बूढ़े सचिव को भीतर जाने से रोक न सके; क्योंकि उनके लिये पहले से ही महाराज की आज्ञा थी कि ये किसी समय भी भीतर आने से रोके न जायँ॥ ४४॥
स समीपस्थितो राज्ञस्तामवस्थामजज्ञिवान्।
वाग्भिः परमतुष्टाभिरभिष्टोतुं प्रचक्रमे॥४५॥
सुमन्त्र राजा के पास जाकर खड़े हो गये। उन्हें उनकी उस अवस्था का पता नहीं था; इसलिये वे अत्यन्त संतोषदायक वचनों द्वारा उनकी स्तुति करने को उद्यत हुए॥ ४५ ॥
ततः सूतो यथापूर्वं पार्थिवस्य निवेशने।
सुमन्त्रः प्राञ्जलिर्भूत्वा तुष्टाव जगतीपतिम्॥ ४६॥
सूत सुमन्त्र राजा के उस महल में पहले की ही भाँति हाथ जोड़कर उन महाराज की स्तुति करने लगे-॥४६॥
यथा नन्दति तेजस्वी सागरो भास्करोदये।
प्रीतः प्रीतेन मनसा तथा नन्दय नस्ततः॥४७॥
‘महाराज! जैसे सूर्योदय होनेपर तेजस्वी समुद्र स्वयं हर्षकी तरंगोंसे उल्लसित हो उसमें स्नानकी इच्छावाले मनुष्योंको आनन्दित करता है, उसी प्रकार आप स्वयं प्रसन्न हो प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे हम सेवकोंको आनन्द प्रदान कीजिये॥ ४७ ॥
इन्द्रमस्यां तु वेलायामभितुष्टाव मातलिः।
सोऽजयद् दानवान् सर्वांस्तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥४८॥
‘देवसारथि मातलि ने इसी बेला में देवराज इन्द्र की स्तुति की थी, जिससे उन्होंने समस्त दानवों पर विजय प्राप्त कर ली, उसी प्रकार मैं भी स्तुति-वचनों द्वारा आपको जगा रहा हूँ॥४८॥
वेदाः सहाङ्गा विद्याश्च यथा ह्यात्मभुवं प्रभुम्।
रह्माणं बोधयन्त्यद्य तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥ ४९॥
‘छहों अङ्गों सहित चारों वेद तथा समस्त विद्याएँ जैसे स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा को जगाती हैं, उसी प्रकार आज मैं आपको जगा रहा हूँ॥४९॥
आदित्यः सह चन्द्रेण यथा भूतधरां शुभाम्।
बोधयत्यद्य पृथिवीं तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥ ५०॥
‘जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य समस्त भूतों की आधारभूता इस शुभ-स्वरूपा पृथ्वी को जगाया करते हैं, उसी प्रकार आज मैं आपको जगा रहा हूँ॥ ५० ॥
उत्तिष्ठ सुमहाराज कृतकौतुकमङ्गलः।
विराजमानो वपुषा मेरोरिव दिवाकरः॥५१॥
‘महाराज! उठिये और उत्सवकालिक मङ्गलकृत्य पूर्ण करके वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित शरीरसे सिंहासनपर विराजमान होइये। फिर मेरु पर्वतसे ऊपर उठनेवाले सूर्यदेवके समान आपकी शोभा होती रहे। ५१॥
सोमसूर्यौ च काकुत्स्थ शिववैश्रवणावपि।
वरुणश्चाग्निरिन्द्रश्च विजयं प्रदिशन्तु ते॥५२॥
‘ककुत्स्थ-कुलनन्दन ! चन्द्रमा, सूर्य, शिव, कुबेर, वरुण, अग्नि और इन्द्र आपको विजय प्रदान करें। ५२॥
गता भगवती रात्रिः कृतं कृत्यमिदं तव।
बुध्यस्व नृपशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम्॥५३॥
‘राजसिंह ! भगवती रात्रिदेवी विदा हो गयीं। आपने जिसके लिये आज्ञा दी थी, आपका वह सारा कार्य पूर्ण हो गया। इस बातको आप जान लें और इसके बाद जो अभिषेक का कार्य शेष है, उसे पूर्ण करें। ५३॥
उदतिष्ठत रामस्य समग्रमभिषेचनम्।
पौरजानपदाश्चापि नैगमश्च कृताञ्जलिः॥५४॥
‘श्रीराम के अभिषेक की सारी तैयारी हो चुकी है। नगर और जनपद के लोग तथा मुख्य-मुख्य व्यापारी भी हाथ जोड़े हुए उपस्थित हैं ॥ ५४॥
स्वयं वसिष्ठो भगवान् ब्राह्मणैः सह तिष्ठति।
क्षिप्रमाज्ञाप्यतां राजन् राघवस्याभिषेचनम्॥ ५५॥
‘राजन् ! ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ब्राह्मणों के साथ द्वार पर खड़े हैं; अतः श्रीराम के अभिषेक का कार्य आरम्भ करने के लिये शीघ्र आज्ञा दीजिये॥ ५५ ॥
यथा ह्यपालाः पशवो यथा सेना ह्यनायका।
यथा चन्द्रं विना रात्रिर्यथा गावो विना वृषम्॥ ५६॥
एवं हि भविता राष्ट्रं यत्र राजा न दृश्यते।
‘जैसे चरवाहों के बिना पशु, सेनापति के बिना सेना, चन्द्रमा के बिना रात्रि और साँड़ के बिना गौओं की शोभा नहीं होती, ऐसी ही दशा उस राष्ट्र की हो जाती है, जहाँ राजा का दर्शन नहीं होता है’। ५६ १/२॥
एवं तस्य वचः श्रुत्वा सान्त्वपूर्वमिवार्थवत्॥ ५७॥
अभ्यकीर्यत शोकेन भूय एव महीपतिः।
सुमन्त्रके इस प्रकार कहे हुए सान्त्वनापूर्ण और सार्थक वचनको सुनकर राजा दशरथ पुनः शोकसे ग्रस्त होगये॥ ५७ १/२॥
ततस्तु राजा तं सूतं सन्नहर्षः सुतं प्रति॥५८॥
शोकरक्तेक्षणः श्रीमानुद्रीक्ष्योवाच धार्मिकः।
वाक्यैस्तु खलु मर्माणि मम भूयो निकृन्तसि॥ ५९॥
उस समय पुत्र के वियोग की सम्भावना से उनकी प्रसन्नता नष्ट हो चुकी थी। शोक के कारण उनके नेत्र लाल हो गये थे। उन धर्मात्मा श्रीमान् नरेश ने एकबार दृष्टि उठाकर सूत की ओर देखा और इस प्रकार कहा—’तुम ऐसी बातें सुनाकर मेरे मर्म-स्थानों पर और अधिक आघात क्यों कर रहे हो’। ५८-५९॥
सुमन्त्रः करुणं श्रुत्वा दृष्ट्वा दीनं च पार्थिवम्।
प्रगृहीताञ्जलिः किंचित् तस्माद् देशादपाक्रमत्॥ ६०॥
राजा के ये करुण वचन सुनकर और उनकी दीन दशापर दृष्टिपात करके सुमन्त्र हाथ जोड़े हुए उस स्थानसे कुछ पीछे हट गये॥ ६०॥
यदा वक्तुं स्वयं दैन्यान्न शशाक महीपतिः।
तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह॥६१॥
जब दुःख और दीनता के कारण राजा स्वयं कुछ भी न कह सके, तब मन्त्रणा का ज्ञान रखने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ ६१॥
सुमन्त्र राजा रजनीं रामहर्षसमुत्सुकः।
प्रजागरपरिश्रान्तो निद्रावशमुपागतः॥६२॥
‘सुमन्त्र! राजा रातभर श्रीराम के राज्याभिषेक जनित हर्ष के कारण उत्कण्ठित होकर जागते रहे हैं। अधिक जागरण से थक जाने के कारण इस समय इन्हें नींद आ गयी है। ६२॥
तद् गच्छ त्वरितं सूत राजपुत्रं यशस्विनम्।
राममानय भद्रं ते नात्र कार्या विचारणा॥६३॥
‘अतः सूत! तुम्हारा भला हो। तुम तुरंत जाओ और यशस्वी राजकुमार श्रीराम को यहाँ बुला लाओ। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’ ॥ ६३॥
अश्रुत्वा राजवचनं कथं गच्छामि भामिनि।
तच्छ्रुत्वा मन्त्रिणो वाक्यं राजा मन्त्रिणमब्रवीत्॥ ६४॥
तब सुमन्त्र ने कहा—’भामिनि! मैं महाराज की आज्ञा सुने बिना कैसे जा सकता हूँ?’ मन्त्री की बात सुनकर राजा ने उनसे कहा- ॥६४॥
सुमन्त्र रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम्।
स मन्यमानः कल्याणं हृदयेन ननन्द च॥६५॥
‘सुमन्त्र! मैं सुन्दर श्रीराम को देखना चाहता हूँ। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ ले आओ।’ उस समय श्रीराम के दर्शन से ही कल्याण मानते हुए राजा मन-ही-मन आनन्द का अनुभव करने लगे॥६५॥
निर्जगाम च स प्रीत्या त्वरितो राजशासनात्।
सुमन्त्रश्चिन्तयामास त्वरितं चोदितस्तया॥६६॥
इधर सुमन्त्र राजा की आज्ञा से तुरंत प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चल दिये। कैकेयी ने जो तुरंत श्रीराम को बुला लाने की आज्ञा दी थी, उसे याद करके वे सोचने लगे – ‘पता नहीं, यह उन्हें बुलाने के लिये इतनी जल्दी क्यों मचा रही है? ॥६६॥
व्यक्तं रामाभिषेकार्थे इहायास्यति धर्मराट्।
इति सूतो मतिं कृत्वा हर्षेण महता पुनः॥६७॥
निर्जगाम महातेजा राघवस्य दिदृक्षया।
सागरहदसंकाशात्सुमन्त्रोऽन्तःपुराच्छुभात्।
निष्क्रम्य जनसम्बाधं ददर्श द्वारमग्रतः॥६८॥
‘जान पड़ता है, श्रीरामचन्द्र के अभिषेक के लिये ही यह जल्दी कर रही है। इस कार्य में धर्मराज राजा दशरथ को अधिक आयास करना पड़ता है (शायद इसीलिये ये बाहर नहीं निकलते)।’ ऐसा निश्चय करके महातेजस्वी सूत सुमन्त्र फिर बड़े हर्ष के साथ श्रीराम के दर्शन की इच्छा से चल पड़े। समुद्र के अन्तर्वर्ती जलाशय के समान उस सुन्दर अन्तःपुर से निकलकर सुमन्त्र ने द्वारके सामने मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई देखी॥६७-६८॥
ततः पुरस्तात् सहसा विनिःसृतो महीपतेरिगतान् विलोकयन्।
ददर्श पौरान् विविधान् महाधनानुपस्थितान् द्वारमुपेत्य विष्ठितान्॥६९॥
राजा के अन्तःपुर से सहसा निकलकर सुमन्त्र ने द्वार पर एकत्र हुए लोगों की ओर दृष्टिपात किया। उन्होंने देखा, बहुसंख्यक पुरवासी वहाँ उपस्थित थे और अनेकानेक महाधनी पुरुष राजद्वार पर आकर खड़े थे। ६९॥
सर्ग १५
ते तु तां रजनीमुष्य ब्राह्मणा वेदपारगाः।
उपतस्थुरुपस्थानं सह राजपुरोहिताः॥१॥
वे वेदों के पारङ्गत ब्राह्मण तथा राजपुरोहित वह रात बिताकर प्रातःकाल (राजा की प्रेरणा के अनुसार) राजद्वार पर उपस्थित हुए थे॥१॥
अमात्या बलमुख्याश्च मुख्या ये निगमस्य च।
राघवस्याभिषेकार्थे प्रीयमाणाः सुसंगताः॥२॥
मन्त्री, सेना के मुख्य-मुख्य अधिकारी और बड़े बड़े सेठ-साहूकार श्रीरामचन्द्रजी के अभिषेक के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ एकत्र हुए थे॥२॥
उदिते विमले सूर्ये पुष्ये चाभ्यागतेऽहनि।
लग्ने कर्कटके प्राप्ते जन्म रामस्य च स्थिते॥३॥
अभिषेकाय रामस्य द्विजेन्द्रैरुपकल्पितम्।
काञ्चना जलकुम्भाश्च भद्रपीठं स्वलंकृतम्॥ ४॥
रथश्च सम्यगास्तीर्णो भास्वता व्याघ्रचर्मणा।
गङ्गायमुनयोः पुण्यात् संगमादाहृतं जलम्॥५॥
निर्मल सूर्योदय होने पर दिन में जब पुष्यनक्षत्र का योग आया तथा श्रीराम के जन्म का कर्क लग्न उपस्थित हुआ, उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने श्रीराम के अभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र करके उसे अँचाकर रख दिया। जल से भरे हुए सोने के कलश, भलीभाँति सजाया हुआ भद्रपीठ, चमकीलेव्याघ्र चर्म से अच्छी तरह आवृत रथ, गङ्गा-यमुनाके पवित्र सङ्गम से लाया हुआ जल-ये सब वस्तुएँ एकत्र कर ली गयी थीं॥३–५॥
याश्चान्याः सरितः पुण्या ह्रदाः कूपाः सरांसि च।
प्राग्वहाश्चोर्ध्ववाहाश्च तिर्यग्वाहाश्च क्षीरिणः॥ ६॥
ताभ्यश्चैवाहृतं तोयं समुद्रेभ्यश्च सर्वशः।
क्षौद्रं दधि घृतं लाजा दर्भाः सुमनसः पयः॥७॥
अष्टौ च कन्या रुचिरा मत्तश्च वरवारणः।
सजलाः क्षीरिभिश्छन्ना घटाः काञ्चनराजताः॥ ८॥
पद्मोत्पलयुता भान्ति पूर्णाः परमवारिणा।
इनके सिवा जो अन्य नदियाँ, पवित्र जलाशय, कूप और सरोवर हैं तथा जो पूर्व की ओर बहने वाली (गोदावरी और कावेरी आदि) नदियाँ हैं, ऊपर की ओर प्रवाह वाले जो (ब्रह्मावर्त आदि) सरोवर हैं तथा दक्षिण और उत्तर की ओर बहने वाली जो (गण्डकी एवं शोणभद्र आदि) नदियाँ हैं, जिनमें दूध के समान निर्मल जल भरा रहता है, उन सबसे और समस्त समुद्रों से भी लाया हुआ जल वहाँ संग्रह करके रखा गया था। इनके अतिरिक्त दूध, दही, घी, मधु, लावा, कुश, फूल, आठ सुन्दर कन्याएँ, मदमत्त गजराज और दूध वाले वृक्षों के पल्लवों से ढके हुए सोने चाँदी के जलपूर्ण कलश भी वहाँ विराजमान थे, जोउत्तम जलसे भरे होनेके साथ ही पद्म और उत्पलोंसे संयुक्त होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥ ६–८ । १/२॥
चन्द्रांशुविकचप्रख्यं पाण्डुरं रत्नभूषितम्॥९॥
सज्जं तिष्ठति रामस्य वालव्यजनमुत्तमम्।
श्रीराम के लिये चन्द्रमा की किरणों के समान विकसित कान्ति से युक्त श्वेत, पीतवर्ण का रत्नजटित उत्तम चँवर सुसज्जित रूप से रखा हुआ था॥ ९ १/२ ॥
चन्द्रमण्डलसंकाशमातपत्रं च पाण्डुरम्॥१०॥
सज्जं द्युतिकरं श्रीमदभिषेकपुरस्सरम्।
चन्द्रमण्डल के समान सुसज्जित श्वेत छत्र भी अभिषेक-सामग्री के साथ शोभा पा रहा था, जो परम सुन्दर और प्रकाश फैलाने वाला था॥ १० १/२॥
पाण्डुरश्च वृषः सज्जः पाण्डुराश्वश्च संस्थितः॥ ११॥
सुसज्जित श्वेत वृषभ और श्वेत अश्व भी खड़े थे॥ ११ ॥
वादित्राणि च सर्वाणि वन्दिनश्च तथापरे।
इक्ष्वाकूणां यथा राज्ये सम्ध्येिताभिषेचनम्॥ १२॥
तथाजातीयमादाय राजपुत्राभिषेचनम्।
ते राजवचनात् तत्र समवेता महीपतिम्॥१३॥
सब प्रकार के बाजे मौजूद थे। स्तुति-पाठ करने वाले वन्दी तथा अन्य मागध आदि भी उपस्थित थे। इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के राज्यमें जैसी अभिषेक सामग्री का संग्रह होना चाहिये, राजकुमार के अभिषेक की वैसी ही सामग्री साथ लेकर वे सब लोग महाराज दशरथ की आज्ञा के अनुसार वहाँ उनके दर्शन के लिये एकत्र हुए थे॥ १२-१३ ॥
अपश्यन्तोऽब्रुवन् को नु राज्ञो नः प्रतिवेदयेत्।
न पश्यामश्च राजानमुदितश्च दिवाकरः॥१४॥
यौवराज्याभिषेकश्च सज्जो रामस्य धीमतः।
राजा को द्वार पर न देखकर वे कहने लगे—’कौन महाराज के पास जाकर हमारे आगमन की सूचना देगा। हम महाराज को यहाँ नहीं देखते हैं। सूर्योदय हो गया है और बुद्धिमान् श्रीराम के यौवराज्याभिषेक की सारी सामग्री जुट गयी है’ ॥ १४ १/२ ॥
इति तेषु ब्रुवाणेषु सर्वांस्तांश्च महीपतीन्॥१५॥
अब्रवीत् तानिदं वाक्यं सुमन्त्रो राजसत्कृतः।
वे सब लोग जब इस प्रकार की बातें कर रहे थे, उसी समय राजा द्वारा सम्मानित सुमन्त्र ने वहाँ खड़े हुए उन समस्त भूपतियों से यह बात कही— ॥ १५ १/२॥
रामं राज्ञो नियोगेन त्वरया प्रस्थितो ह्यहम्॥ १६॥
पूज्या राज्ञो भवन्तश्च रामस्य तु विशेषतः।
अयं पृच्छामि वचनात् सुखमायुष्मतामहम्॥ १७॥
‘मैं महाराज की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिये तुरंत जा रहा हूँ। आप सब लोग महाराज के तथा विशेषतः श्रीरामचन्द्रजी के पूजनीय हैं, मैं उन्हीं की ओर से आप समस्त चिरंजीवी पुरुषों के कुशल समाचार पूछ रहा हूँ। आपलोग सुख से हैं न?’॥ १६-१७॥
राज्ञः सम्प्रतिबुद्धस्य चानागमनकारणम्।
इत्युक्त्वान्तःपुरद्वारमाजगाम पुराणवित्॥१८॥
ऐसा कहकर और जगे हुए होने पर श्रीमहाराज के बाहर न आने का कारण बताकर पुरातन वृत्तान्तों को जानने वाले सुमन्त्र पुनः अन्तःपुर के द्वार पर लौट आये॥१८॥
सदा सक्तं च तद् वेश्म सुमन्त्रः प्रविवेश ह।
तुष्टावास्य तदा वंशं प्रविश्य स विशाम्पतेः॥ १९॥
वह राजभवन सुमन्त्र के लिये सदा खुला रहता था। उन्होंने भीतर प्रवेश किया और प्रवेश करके महाराज के वंश की स्तुति की॥ १९ ॥
शयनीयं नरेन्द्रस्य तदासाद्य व्यतिष्ठत।
सोऽत्यासाद्य तु तद् वेश्म तिरस्करणिमन्तरा॥ २०॥
आशीर्भिर्गुणयुक्ताभिरभितुष्टाव राघवम्।
तदनन्तर वे राजा के शयनगृह के पास जाकर खड़े हो गये। उस घर के अत्यन्त निकट पहुँचकर जहाँ बीच में केवल चिक का अन्तर रह गया था, खड़े होवे गुणवर्णनपूर्वक आशीर्वादसूचक वचनों द्वारा रघुकुलनरेश की स्तुति करने लगे- ॥ २० १/२ ॥
सोमसूर्यौ च काकुत्स्थ शिववैश्रवणावपि॥२१॥
वरुणश्चाग्निरिन्द्रश्च विजयं प्रदिशन्त ते।
‘ककुत्स्थनन्दन ! चन्द्रमा, सूर्य, शिव, कुबेर,वरुण, अग्नि और इन्द्र आपको विजय प्रदान करें॥ २१ १/२॥
गता भगवती रात्रिरहः शिवमुपस्थितम्॥ २२॥
बुद्ध्यस्व राजशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम्।
“भगवती रात्रि विदा हो गयी। अब कल्याणस्वरूप दिन उपस्थित हुआ है। राजसिंह ! निद्रा त्यागकर जग जाइये और अब जो कार्य प्राप्त है, उसे कीजिये। २२ १/२॥
ब्राह्मणा बलमुख्याश्च नैगमाश्चागतास्त्विह॥ २३॥
दर्शनं तेऽभिकांक्षन्ते प्रतिबुद्ध्यस्व राघव।
‘ब्राह्मण, सेना के मुख्य अधिकारी और बड़े-बड़े सेठ-साहूकार यहाँ आ गये हैं। वे सब लोग आपका दर्शन चाहते हैं। रघुनन्दन! जागिये’ ॥ २३ १/२ ॥
स्तुवन्तं तं तदा सूतं सुमन्त्रं मन्त्रकोविदम्॥२४॥
प्रतिबुद्ध्य ततो राजा इदं वचनमब्रवीत्।
मन्त्रणा करने में कुशल सूत सुमन्त्र जब इस प्रकार स्तुति करने लगे, तब राजा ने जागकर उनसे यह बात कही- ॥२४ १/२॥
राममानय सूतेति यदस्यभिहितो मया॥ २५ ॥
किमिदं कारणं येन ममाज्ञा प्रतिवाह्यते।
न चैव सम्प्रसुप्तोऽहमानयेहाशु राघवम्॥२६॥
‘सूत! श्रीराम को बुला लाओ’—यह जो मैंने तुमसे कहा था, उसका पालन क्यों नहीं हुआ? ऐसा कौन सा कारण है, जिससे मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया जा रहा है? मैं सोया नहीं हूँ। तुम श्रीराम को शीघ्र यहाँ बुला लाओ’॥
इति राजा दशरथः सूतं तत्रान्वशात् पुनः।
स राजवचनं श्रुत्वा शिरसा प्रतिपूज्य तम्॥२७॥
निर्जगाम नृपावासान्मन्यमानः प्रियं महत्।
प्रपन्नो राजमार्गं च पताकाध्वजशोभितम्॥२८॥
इस प्रकार राजा दशरथ ने जब सूत को फिर उपदेश दिया, तब वे राजा की वह आज्ञा सुनकर सिर झुकाकर उसका सम्मान करते हुए राजभवन से बाहर निकल गये। वे मन-ही-मन अपना महान् प्रिय हुआ मानने लगे। राजभवन से निकलकर सुमन्त्र ध्वजापताकाओं से सुशोभित राजमार्गपर आ गये॥ २७-२८॥
हृष्टः प्रमुदितः सूतो जगामाशु विलोकयन्।
स सूतस्तत्र शुश्राव रामाधिकरणाः कथाः॥ २९॥
अभिषेचनसंयुक्ताः सर्वलोकस्य हृष्टवत्।
वे हर्ष और उल्लास में भरकर सब ओर दृष्टि डालते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने लगे। सूत सुमन्त्र वहाँ मार्ग में सब लोगों के मुँह से श्रीराम के राज्याभिषेक की आनन्ददायिनी बातें सुनते जा रहे थे। २९ १/२॥
ततो ददर्श रुचिरं कैलाससदृशप्रभम्॥३०॥
रामवेश्म सुमन्त्रस्तु शक्रवेश्मसमप्रभम्।
महाकपाटपिहितं वितर्दिशतशोभितम्॥३१॥
तदनन्तर सुमन्त्र को श्रीराम का सुन्दर भवन दिखायी दिया, जो कैलासपर्वत के समान श्वेत प्रभा से प्रकाशित हो रहा था। वह इन्द्रभवन के समान दीप्तिमान् था। उसका फाटक विशाल किवाड़ों से बंद था (उसके भीतर का छोटा-सा द्वार ही खुला हुआ था)। सैकड़ों वेदिकाएँ उस भवन की शोभा बढ़ा रही थीं॥ ३०-३१॥
काञ्चनप्रतिमैकाग्रं मणिविद्रुमतोरणम्।
शारदाभ्रघनप्रख्यं दीप्तं मेरुगुहासमम्॥३२॥
उसका मुख्य अग्रभाग सोने की देव-प्रतिमाओं से अलंकृत था। उसके बाहर फाटक में मणि और मूंगे जड़े हुए थे। वह सारा भवन शरद् ऋतु के बादलों की भाँति श्वेत कान्ति से युक्त, दीप्तिमान् और मेरुपर्वत की कन्दरा के समान शोभायमान था॥ ३२॥
मणिभिर्वरमाल्यानां सुमहद्भिरलंकृतम्।
मुक्तामणिभिराकीर्णं चन्दनागुरुभूषितम्॥३३॥
सुवर्णनिर्मित पुष्पों की मालाओं के बीच-बीच में पिरोयी हुई बहुमूल्य मणियों से वह भवन सजा हुआ था। दीवारों में जड़ी हुई मुक्तामणियों से व्याप्त होकर जगमगा रहा था (अथवा वहाँ मोती और मणियोंके भण्डार भरे हुए थे)। चन्दन और अगर की सुगन्ध उसकी शोभा बढ़ा रही थी॥ ३३॥
गन्धान् मनोज्ञान् विसृजद् दार्दुरं शिखरं यथा।
सारसैश्च मयूरैश्च विनदद्भिर्विराजितम्॥ ३४॥
वह भवन मलयाचल के समीपवर्ती दर्दुर नामक चन्दनगिरि के शिखर की भाँति सब ओर मनोहर सुगन्ध बिखेर रहा था। कलरव करते हुए सारस और मयूर आदि पक्षी उसकी शोभावृद्धि कर रहे थे। ३४॥
सुकृतेहामृगाकीर्णमुत्कीर्णं भक्तिभिस्तथा।
मनश्चक्षुश्च भूतानामाददत् तिग्मतेजसा॥३५॥
सोने आदि की सुन्दर ढंग से बनी हुई भेड़ियों की मूर्तियों से वह व्याप्त था। शिल्पियों ने उसकी दीवारों में बड़ी सुन्दर नक्काशी की थी। वह अपनी उत्कृष्ट शोभा से समस्त प्राणियों के मन और नेत्रों को आकृष्ट कर लेता था॥ ३५ ॥
चन्द्रभास्करसंकाशं कुबेरभवनोपमम्।
महेन्द्रधामप्रतिमं नानापक्षिसमाकुलम्॥ ३६॥
चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी, कुबेर-भवन के समान अक्षय सम्पत्ति से पूर्ण तथा इन्द्रधाम के समान भव्य एवं मनोरम उस श्रीरामभवन में नाना प्रकार के पक्षी चहक रहे थे॥३६॥
मेरुशृङ्गसमं सूतो रामवेश्म ददर्श ह।
उपस्थितैः समाकीर्णं जनैरञ्जलिकारिभिः॥ ३७॥
सुमन्त्रने देखा—श्रीराम का महल मेरु-पर्वत के शिखर की भाँति शोभा पा रहा है। हाथ जोड़कर श्रीराम की वन्दना करने के लिये उपस्थित हुए असंख्य मनुष्यों से वह भरा हुआ है॥ ३७॥
उपादाय समाक्रान्तैस्तदा जानपदैर्जनैः।
रामाभिषेकसुमुखैरुन्मुखैः समलंकृतम्॥ ३८॥
भाँति-भाँति के उपहार लेकर जनपद-निवासी मनुष्य उस समय वहाँ पहुँचे हुए थे। श्रीराम के अभिषेक का समाचार सुनकर उनके मुख प्रसन्नता से खिल उठे थे। वे उस उत्सव को देखने के लिये उत्कण्ठित थे। । उन सबकी उपस्थिति से भवन की बड़ी शोभा हो रही थी॥
महामेघसमप्रख्यमुदग्रं सुविराजितम्।
नानारत्नसमाकीर्णं कुब्जकैरपि चावृतम्॥३९॥
वह विशाल राजभवन महान् मेघखण्ड के समान ऊँचा और सुन्दर शोभा से सम्पन्न था। उसकी दीवारों में नाना प्रकार के रत्न जड़े गये थे और कुबड़े सेवकों से वह भरा हुआ था॥ ३९॥
स वाजियुक्तेन रथेन सारथिः समाकुलं राजकुलं विराजयन्।
वरूथिना राजगृहाभिपातिना पुरस्य सर्वस्य मनांसि हर्षयन्॥४०॥
सारथि सुमन्त्र राजभवन की ओर जाने वाले वरूथ (लोहे की चद्दर या सींकचों के बने हुए आवरण) सेयुक्त तथा अच्छे घोड़ों से जुते हुए रथ के द्वारा मनुष्यों की भीड़ से भरे राजमार्ग की शोभा बढ़ाते तथा समस्त नगर-निवासियों के मन को आनन्द प्रदान करते हुए श्रीराम के भवन के पास जा पहुँचे॥ ४०॥
ततः समासाद्य महाधनं महत् प्रहृष्टरोमा स बभूव सारथिः।
मृगैर्मयूरैश्च समाकुलोल्बणं गृहं वराहस्य शचीपतेरिव॥४१॥
उत्तम वस्तु को प्राप्त करने के अधिकारी श्रीराम का वह महान् समृद्धिशाली विशाल भवन शचीपति इन्द्र के भवन की भाँति सुशोभित होता था। इधर-उधर फैले हुए मृगों और मयूरों से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वहाँ पहुँचकर सारथि सुमन्त्र के शरीर में अधिक हर्ष के कारण रोमाञ्च हो आया। ४१॥
स तत्र कैलासनिभाः स्वलंकृताः प्रविश्य कक्ष्यास्त्रिदशालयोपमाः।
प्रियान् वरान् राममते स्थितान् बहून् व्यपोह्य शुद्धान्तमुपस्थितौ रथी॥४२॥
वहाँ कैलास और स्वर्ग के समान दिव्य शोभा से युक्त, सुन्दर सजी हुई अनेक ड्यौढ़ियों को लाँघकर श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा में चलने वाले बहुतेरे श्रेष्ठ मनुष्यों को बीच में छोड़ते हुए रथसहित सुमन्त्र अन्तःपुर के द्वार पर उपस्थित हुए। ४२॥
स तत्र शुश्राव च हर्षयुक्ता रामाभिषेकार्थकृतां जनानाम्।
नरेन्द्रसूनोरभिमङ्गलार्थाः सर्वस्य लोकस्य गिरः प्रहृष्टाः॥४३॥
उस स्थान पर उन्होंने श्रीराम के अभिषेक-सम्बन्धी कर्म करने वाले लोगों की हर्षभरी बातें सुनीं, जो राजकुमार श्रीराम के लिये सब ओर से मङ्गलकामना सूचित करती थीं। इसी प्रकार उन्होंने अन्य सब लोगों की भी हर्षोल्लास से परिपूर्ण वार्ताओं को श्रवण किया। ४३॥
महेन्द्रसद्मप्रतिमं च वेश्म रामस्य रम्यं मृगपक्षिजुष्टम्।
ददर्श मेरोरिव शृङ्गमुच्चं विभ्राजमानं प्रभया सुमन्त्रः॥४४॥
श्रीराम का वह भवन इन्द्रसदन की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। मृगों और पक्षियों से सेवित होने के कारण उसकी रमणीयता और भी बढ़ गयी थी। सुमन्त्र ने उस भवन को देखा। वह अपनी प्रभा से प्रकाशित होने वाले मेरुगिरि के ऊँचे शिखर की भाँति सुशोभित हो रहा था॥ ४४॥
उपस्थितैरञ्जलिकारिभिश्च सोपायनैर्जानपदैर्जनैश्च।
कोट्या परार्धेश्च विमुक्तयानैः समाकुलं द्वारपदं ददर्श ॥ ४५ ॥
उस भवन के द्वार पर पहुँचकर सुमन्त्र ने देखाश्रीराम की वन्दना के लिये हाथ जोड़े उपस्थित हुए जनपदवासी मनुष्य अपनी सवारियों से उतरकर हाथों में भाँति-भाँतिके उपहार लिये करोड़ों और परार्धा की संख्या में खड़े थे, जिससे वहाँ बड़ी भारी भीड़ लग गयी थी॥ ४५ ॥
ततो महामेघमहीधराभं प्रभिन्नमत्यङ्कशमत्यसह्यम्।
रामोपवाह्यं रुचिरं ददर्श शत्रुञ्जयं नागमुदग्रकायम्॥४६॥
तदनन्तर उन्होंने श्रीराम की सवारी में आने वाले सुन्दर शत्रुञ्जय नामक विशालकाय गजराज को देखा, जो महान् मेघ से युक्त पर्वत के समान प्रतीत होता था। उसके गण्डस्थल से मद की धारा बह रही थी। वह अंकुश से काबू में आने वाला नहीं था। उसका वेग शत्रुओं के लिये अत्यन्त असह्य था। उसका जैसा नाम था, वैसा ही गुण भी था॥ ४६॥
स्वलंकृतान् साश्वरथान् सकुञ्जरानमात्यमुख्यांश्च ददर्श वल्लभान्।
व्यपोह्य सूतः सहितान् समन्ततः समृद्धमन्तःपुरमाविवेश ह॥४७॥
उन्होंने वहाँ राजा के परम प्रिय मुख्य-मुख्य मन्त्रियों को भी एक साथ उपस्थित देखा, जो सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित थे और घोड़े, रथ तथा हाथियों के साथ वहाँ आये थे। सुमन्त्र ने उन सबको एक ओर हटाकर स्वयं श्रीराम के समृद्धिशाली अन्तःपुर में प्रवेश किया॥४७॥
ततोऽद्रिकूटाचलमेघसंनिभं महाविमानोपमवेश्मसंयुतम्।
अवार्यमाणः प्रविवेश सारथिः प्रभूतरत्नं मकरो यथार्णवम्॥४८॥
जैसे मगर प्रचुर रत्नों से भरे हुए समुद्र में बेरोकटोक प्रवेश करता है, उसी प्रकार सारथि सुमन्त्र ने पर्वत-शिखर पर आरूढ़ हुए अविचल मेघ के समान शोभायमान महान् विमान के सदृश सुन्दर गृहों से संयुक्त तथा प्रचुर रत्न-भण्डार से भरपूर उस महल में बिना किसी रोक-टोक के प्रवेश किया॥४८॥
सर्ग १६
स तदन्तःपुरद्वारं समतीत्य जनाकुलम्।
प्रविविक्तां ततः कक्ष्यामाससाद पुराणवित्॥१॥
पुरातन वृत्तान्तों के ज्ञाता सूत सुमन्त्र मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए उस अन्तःपुर के द्वार को लाँघकर महल की एकान्त कक्षा में जा पहुँचे, जहाँ भीड़ बिलकुल नहीं थी॥१॥
प्रासकार्मुकबिभ्रद्भिर्युवभिम॒ष्टकुण्डलैः।
अप्रमादिभिरेकाग्रैः स्वानुरक्तैरधिष्ठिताम्॥२॥
वहाँ श्रीराम के चरणों में अनुराग रखने वाले एकाग्रचित्त एवं सावधान युवक प्रास और धनुष आदि लिये डटे हुए थे। उनके कानों में शुद्ध सुवर्ण के बने हुए कुण्डल झलमला रहे थे॥२॥
तत्र काषायिणो वृद्धान् वेत्रपाणीन् स्वलंकृतान्।
ददर्श विष्ठितान् द्वारि स्त्र्यध्यक्षान् सुसमाहितान्॥ ३॥
उस ड्योढ़ी में सुमन्त्र को गेरुआ वस्त्र पहने और हाथ में छड़ी लिये वस्त्राभूषणों से अलंकृत बहुत-से वृद्ध पुरुष बड़ी सावधानी के साथ द्वार पर बैठे दिखायी दिये, जो अन्तःपुर की स्त्रियों के अध्यक्ष (संरक्षक) थे॥३॥
ते समीक्ष्य समायान्तं रामप्रियचिकीर्षवः।
सहसोत्पतिताः सर्वे ह्यासनेभ्यः ससम्भ्रमाः॥४॥
सुमन्त्र को आते देख श्रीराम का प्रिय करने की इच्छा वाले वे सभी पुरुष सहसा वेगपूर्वक आसनों से उठकर खड़े हो गये॥४॥
तानुवाच विनीतात्मा सूतपुत्रः प्रदक्षिणः।
क्षिप्रमाख्यात रामाय सुमन्त्रो द्वारि तिष्ठति ॥५॥
राजसेवा में अत्यन्त कुशल तथा विनीत हृदयवाले सूतपुत्र सुमन्त्र ने उनसे कहा—’आप लोग श्रीरामचन्द्रजी से शीघ्र जाकर कहें, कि सुमन्त्र दरवाजे पर खड़े हैं ॥ ५॥
ते राममुपसङ्गम्य भर्तुः प्रियचिकीर्षवः।
सहभार्याय रामाय क्षिप्रमेवाचचक्षिरे॥६॥
स्वामी का प्रिय करने की इच्छा वाले वे सब सेवक श्रीरामचन्द्रजी के पास जा पहुँचे। उस समय श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ विराजमान थे। उन सेवकों ने शीघ्र ही उन्हें सुमन्त्र का संदेश सुना दिया। ६॥
प्रतिवेदितमाज्ञाय सूतमभ्यन्तरं पितुः।
तत्रैवानाययामास राघवः प्रियकाम्यया॥७॥
द्वार रक्षकों द्वारा दी हुई सूचना पाकर श्रीराम ने पिता की प्रसन्नता के लिये उनके अन्तरङ्ग सेवक सुमन्त्र को वहीं अन्तःपुर में बुलवा लिया॥७॥
तं वैश्रवणसंकाशमुपविष्टं स्वलंकृतम्।
ददर्श सूतः पर्यङ्के सौवर्णे सोत्तरच्छदे॥८॥
वहाँ पहुँचकर सुमन्त्र ने देखा श्रीरामचन्द्रजी वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो कुबेर के समान जान पड़ते हैं और बिछौनों से युक्त सोने के पलंग पर विराजमानहैं।॥ ८॥
वराहरुधिराभेण शुचिना च सुगन्धिना।
अनुलिप्तं परायेन चन्दनेन परंतपम्॥९॥
स्थितया पार्श्वतश्चापि वालव्यजनहस्तया।
उपेतं सीतया भूयश्चित्रया शशिनं यथा॥१०॥
शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनाथजी के श्रीअङ्गों में वाराह के रुधिर की भाँति लाल, पवित्र और सुगन्धित उत्तम चन्दन का लेप लगा हुआ है और देवी सीता उनके पास बैठकर अपने हाथ से चवँर डुला रही हैं। सीता के अत्यन्त समीप बैठे हुए श्रीराम चित्रा से संयुक्त चन्द्रमा की भाँति शोभा पाते हैं। ९-१० ॥
तं तपन्तमिवादित्यमुपपन्नं स्वतेजसा।
ववन्दे वरदं वन्दी विनयज्ञो विनीतवत्॥११॥
विनयके ज्ञाता वन्दी सुमन्त्र ने तपते हुए सूर्य की भाँति अपने नित्य प्रकाश से सम्पन्न रहकर अधिक प्रकाशित होने वाले वरदायक श्रीराम को विनीतभाव से प्रणाम किया॥
प्राञ्जलिः सुमुखं दृष्ट्वा विहारशयनासने।
राजपुत्रमुवाचेदं सुमन्त्रो राजसत्कृतः॥१२॥
विहारकालिक शयन के लिये जो आसन था, उस पलंग पर बैठे हुए प्रसन्न मुखवाले राजकुमारश्रीराम का दर्शन करके राजा दशरथद्वारा सम्मानित सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा— ॥ १२॥
कौसल्या सुप्रजा राम पिता त्वां द्रष्टमिच्छति।
महिष्यापि हि कैकेय्या गम्यतां तत्र मा चिरम्॥ १३॥
‘श्रीराम! आपको पाकर महारानी कौसल्या सर्वश्रेष्ठ संतानवाली हो गयी हैं। इस समय रानी कैकेयी के साथ बैठे हुए आपके पिताजी आपको देखना चाहते हैं, अतः वहाँ चलिये, विलम्ब न कीजिये’॥ १३॥
एवमुक्तस्तु संहृष्टो नरसिंहो महाद्युतिः।
ततः सम्मानयामास सीतामिदमुवाच ह॥१४॥
सुमन्त्र के ऐसा कहने पर महातेजस्वी नरश्रेष्ठ श्रीराम ने सीताजी का सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक उनसे इस प्रकार कहा- ॥ १४ ॥
देवि देवश्च देवी च समागम्य मदन्तरे।
मन्त्रयेते ध्रुवं किंचिदभिषेचनसंहितम्॥१५॥
‘देवि! जान पड़ता है, पिताजी और माता कैकेयी दोनों मिलकर मेरे विषय में ही कुछ विचार कर रहे हैं। निश्चय ही मेरे अभिषेक के सम्बन्ध में ही कोई बात होती होगी॥ १५॥
लक्षयित्वा ह्यभिप्रायं प्रियकामा सुदक्षिणा।
संचोदयति राजानं मदर्थमसितेक्षणा॥१६॥
‘मेरे अभिषेक के विषय में राजा के अभिप्राय को लक्ष्य करके उनका प्रिय करने की इच्छा वाली परम उदार एवं समर्थ कजरारे नेत्रों वाली कैकेयी मेरे अभिषेक के लिये ही राजा को प्रेरित कर रही होंगी। १६॥
सा प्रहृष्टा महाराजं हितकामानुवर्तिनी।
जननी चार्थकामा मे केकयाधिपतेः सुता॥१७॥
‘मेरी माता केकयराजकुमारी इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुई होंगी। वे महाराज का हित चाहनेवाली और उनकी अनुगामिनी हैं। साथ ही वे मेरा भी भला चाहती हैं। अतः वे महाराज को अभिषेक करने के लिये जल्दी करने को कह रही होंगी॥ १७ ॥
दिष्ट्या खलु महाराजो महिष्या प्रियया सह।
सुमन्त्रं प्राहिणोद् दूतमर्थकामकरं मम॥१८॥
‘सौभाग्य की बात है कि महाराज अपनी प्यारी रानी के साथ बैठे हैं और उन्होंने मेरे अभीष्ट अर्थ को सिद्ध करने वाले सुमन्त्र को ही दूत बनाकर भेजा है।
यादृशी परिषत् तत्र तादृशो दूत आगतः।
ध्रुवमद्यैव मां राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति॥१९॥
‘जैसी वहाँ अन्तरङ्ग परिषद् बैठी है, वैसे ही दूत सुमन्त्रजी यहाँ पधारे हैं। अवश्य आज ही महाराज मुझे युवराज के पद पर अभिषिक्त करेंगे॥ १९ ॥
हन्त शीघ्रमितो गत्वा द्रक्ष्यामि च महीपतिम्।
सह त्वं परिवारेण सुखमास्स्व रमस्व च ॥ २०॥
‘अतः मैं प्रसन्नतापूर्वक यहाँ से शीघ्र जाकर महाराज का दर्शन करूँगा। तुम परिजनों के साथ यहाँ सुखपूर्वक बैठो और आनन्द करो’ ॥ २० ॥
पतिसम्मानिता सीता भर्तारमसितेक्षणा।
आ द्वारमनुवव्राज मङ्गलान्यभिदध्युषी॥२१॥
पति के द्वारा इस प्रकार सम्मानित होकर कजरारे नेत्रों वाली सीतादेवी उनका मङ्गल-चिन्तन करती हुई स्वामी के साथ-साथ द्वार तक उन्हें पहुँचाने के लिये गयीं॥
राज्यं द्विजातिभिर्जुष्टं राजसूयाभिषेचनम्।
कर्तुमर्हति ते राजा वासवस्येव लोककृत्॥२२॥
उस समय वे बोलीं-‘आर्यपुत्र ! ब्राह्मणों के साथ रहकर आपका युवराज पद पर अभिषेक करके महाराज दूसरे समय में राजसूय-यज्ञ में सम्राट् के पद पर आपका अभिषेक करने योग्य हैं। ठीक उसी तरह जैसे लोकस्रष्टा ब्रह्मा ने देवराज इन्द्र का अभिषेक किया था॥ २२॥
दीक्षितं व्रतसम्पन्नं वराजिनधरं शुचिम्।
कुरङ्गशृङ्गपाणिं च पश्यन्ती त्वां भजाम्यहम्॥ २३॥
‘आप राजसूय-यज्ञ में दीक्षित हो तदनुकूल व्रत का पालन करने में तत्पर, श्रेष्ठ मृगचर्मधारी, पवित्र तथा हाथ में मृग का शृङ्ग धारण करने वाले हों और इस रूप में आपका दर्शन करती हुई मैं आपकी सेवा में संलग्न रहँ—यही मेरी शुभ-कामना है॥ २३॥
पूर्वां दिशं वज्रधरो दक्षिणां पातु ते यमः।
वरुणः पश्चिमामाशां धनेशस्तूत्तरां दिशम्॥ २४॥
‘आपकी पूर्व दिशा में वज्रधारी इन्द्र, दक्षिण दिशा में यमराज, पश्चिम दिशा में वरुण और उत्तर दिशा में कुबेर रक्षा करें’॥ २४॥
अथ सीतामनुज्ञाप्य कृतकौतुकमङ्गलः।
निश्चक्राम सुमन्त्रेण सह रामो निवेशनात्॥ २५॥
तदनन्तर सीता की अनुमति ले उत्सवकालिक मङ्गलकृत्य पूर्ण करके श्रीरामचन्द्र जी सुमन्त्र के साथ अपने महल से बाहर निकले॥ २५॥
पर्वतादिव निष्क्रम्य सिंहो गिरिगुहाशयः।
लक्ष्मणं द्वारि सोऽपश्यत् प्रवाञ्जलिपुटं स्थितम्॥२६॥
पर्वत की गुफा में शयन करने वाला सिंह जैसे पर्वत से निकलकर आता है, उसी प्रकार महल से निकलकर श्रीरामचन्द्रजी ने द्वार पर लक्ष्मण को उपस्थित देखा, जो विनीत भाव से हाथ जोड़े खड़े थे॥२६॥
अथ मध्यमकक्ष्यायां समागच्छत् सुहृज्जनैः।
स सर्वानर्थिनो दृष्ट्वा समेत्य प्रतिनन्द्य च॥२७॥
ततः पावकसंकाशमारुरोह रथोत्तमम्।।
वैयाघ्रं पुरुषव्याघ्रो राजितं राजनन्दनः॥२८॥
तदनन्तर मध्यम कक्षा में आकर वे मित्रों से मिले फिर प्रार्थी जनों को उपस्थित देख उन सबसे मिलकर उन्हें संतुष्ट करके पुरुष सिंह राजकुमार श्रीराम व्याघ्रचर्म से आवृत, शोभाशाली तथा अग्नि के समान तेजस्वी उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए। २७-२८॥
मेघनादमसम्बाधं मणिहेमविभूषितम्।
मुष्णन्तमिव चढूंषि प्रभया मेरुवर्चसम्॥२९॥
उस रथ की घरघराहट मेघ की गम्भीर गर्जना के समान प्रतीत होती थी। उसमें स्थान की संकीर्णता नहीं थी। वह विस्तृत था और मणि एवं सुवर्ण से विभूषित था। उसकी कान्ति सुवर्णमय मेरुपर्वत के समान जान पड़ती थी। वह रथ अपनी प्रभा से लोगों की आँखों में चकाचौंध-सा पैदा कर देता था॥ २९ ॥
करेणुशिशुकल्पैश्च युक्तं परमवाजिभिः।
हरियुक्तं सहस्राक्षो रथमिन्द्र इवाशुगम्॥३०॥
उसमें उत्तम घोड़े जुते हुए थे, जो अधिक पुष्ट होने के कारण हाथी के बच्चों के समान प्रतीत होते थे। जैसे सहस्र नेत्रधारी इन्द्र हरे रंग के घोड़ों से युक्त शीघ्रगामी रथपर सवार होते हैं, उसी प्रकार श्रीराम अपने उस रथपर आरूढ़ थे॥
प्रययौ तूर्णमास्थाय राघवो ज्वलितः श्रिया।
स पर्जन्य इवाकाशे स्वनवानभिनादयन्॥३१॥
निकेतान्निर्ययौ श्रीमान् महाभ्रादिव चन्द्रमाः।
अपनी सहज शोभा से प्रकाशित श्रीरघुनाथजी उस रथ पर आरूढ़ हो तुरंत वहाँ से चल दिये। वह तेजस्वी रथ आकाश में गरजने वाले मेघ की भाँति अपनी घर्घर ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ महान् मेघखण्ड से निकलने वाले चन्द्रमा के समान श्रीराम के उस भवन से बाहर निकला॥ ३१ ॥
चित्रचामरपाणिस्तु लक्ष्मणो राघवानुजः॥ ३२॥
जुगोप भ्रातरं भ्राता रथमास्थाय पृष्ठतः।
श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण भी हाथ में विचित्र चवँर लिये उस रथ पर बैठ गये और पीछे से अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम की रक्षा करने लगे॥ ३२ १/२॥
ततो हलहलाशब्दस्तुमुलः समजायत॥३३॥
तस्य निष्क्रममाणस्य जनौघस्य समन्ततः।
फिर तो सब ओर से मनुष्यों की भारी भीड़ निकलने लगी। उस समय उस जन-समूह के चलने से सहसा भयंकर कोलाहल मच गया॥ ३३ १/२ ॥
ततो हयवरा मुख्या नागाश्च गिरिसंनिभाः॥ ३४॥
अनुजग्मुस्तथा रामं शतशोऽथ सहस्रशः।
श्रीरामके पीछे-पीछे अच्छे-अच्छे घोड़े और पर्वतों के समान विशालकाय श्रेष्ठ गजराज सैकड़ों और हजारों की संख्या में चलने लगे॥ ३४ १/२॥
अग्रतश्चास्य संनद्धाश्चन्दनागुरुभूषिताः॥ ३५॥
खड्गचापधराः शूरा जग्मुराशंसवो जनाः।
उनके आगे-आगे कवच आदि से सुसज्जित तथा चन्दन और अगुरु से विभूषित हो खड्ग और धनुष धारण किये बहुत-से शूरवीर तथा मङ्गलाशंसी मनुष्य -वन्दी आदि चल रहे थे। ३५ १/२ ॥
ततो वादित्रशब्दाश्च स्तुतिशब्दाश्च वन्दिनाम्॥ ३६॥
सिंहनादाश्च शूराणां ततः शुश्रुविरे पथि।
हर्म्यवातायनस्थाभिभूषिताभिः समन्ततः॥३७॥
कीर्यमाणः सुपुष्पौधैर्ययौ स्त्रीभिररिंदमः॥
तदनन्तर मार्ग में वाद्यों की ध्वनि, वन्दीजनों के स्तुतिपाठ के शब्द तथा शूरवीरों के सिंहनाद सुनायी देने लगे। महलों की खिड़कियों में बैठी हुई वस्त्राभूषणों से विभूषित वनिताएँ सब ओर से शत्रुदमन श्रीराम पर ढेर-के-ढेर सुन्दर पुष्प बिखेर रही थीं। इस अवस्था में श्रीराम आगे बढ़ते चले जा रहे थे। ३६-३७ १/२॥
रामं सर्वानवद्याङ्ग्यो रामपिप्रीषया ततः॥३८॥
वचोभिरग्र्यैर्हर्म्यस्थाः क्षितिस्थाश्च ववन्दिरे।
उस समय अट्टालिकाओं और भूतलपर खड़ी हुई सर्वाङ्गसुन्दरी युवतियाँ श्रीराम का प्रिय करने की इच्छासे श्रेष्ठ वचनों द्वारा उनकी स्तुति गाने लगीं॥ ३८ १/२॥
नूनं नन्दति ते माता कौसल्या मातृनन्दन॥३९॥
पश्यन्ती सिद्धयात्रं त्वां पित्र्यं राज्यमुपस्थितम्।
‘माता को आनन्द प्रदान करने वाले रघुवीर! आपकी यह यात्रा सफल होगी और आपको पैतृक राज्य प्राप्त होगा। इस अवस्था में आपको देखती हुई आपकी माता कौसल्या निश्चय ही आनन्दित हो रही होंगी॥ ३९ १/२॥
सर्वसीमन्तिनीभ्यश्च सीतां सीमन्तिनीं वराम्॥ ४०॥
अमन्यन्त हि ता नार्यो रामस्य हृदयप्रियाम्।
तया सुचरितं देव्या पुरा नूनं महत् तपः॥४१॥
रोहिणीव शशाङ्केन रामसंयोगमाप या।
‘वे नारियाँ श्रीराम की हृदयवल्लभा सीमन्तिनी सीता को संसार की समस्त सौभाग्यवती स्त्रियों से श्रेष्ठ मानती हुई कहने लगीं—’उन देवी सीता ने पूर्वकाल में निश्चय ही बड़ा भारी तप किया होगा, तभी उन्होंने चन्द्रमा से संयुक्त हुई रोहिणी की भाँति श्रीराम का संयोग प्राप्त किया है’॥ ४०-४१ १/२॥
इति प्रासादशृङ्गेषु प्रमदाभिर्नरोत्तमः।
शुश्राव राजमार्गस्थः प्रिया वाच उदाहृताः॥ ४२॥
इस प्रकार राजमार्गपर रथ पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी प्रासाद शिखरों पर बैठी हुई युवती स्त्रियों के द्वारा कही गयी ये प्यारी बातें सुन रहे थे। ४२॥
स राघवस्तत्र तदा प्रलापान् शुश्राव लोकस्य समागतस्य।
आत्माधिकारा विविधाश्च वाचः प्रहृष्टरूपस्य पुरे जनस्य॥४३॥
उस समय अयोध्या में आये हुए दूर-दूर के लोग अत्यन्त हर्ष से भरकर वहाँ श्रीरामचन्द्रजी के विषय में जो वार्तालाप और तरह-तरह की बातें करते थे, अपने विषय में कही गयी उन सभी बातों को श्रीरघुनाथजी सुनते जा रहे थे॥ ४३॥
एष श्रियं गच्छति राघवोऽद्य राजप्रसादाद् विपुलां गमिष्यन्।
एते वयं सर्वसमृद्धकामा येषामयं नो भविता प्रशास्ता॥४४॥
वे कहते थे—’इस समय ये श्रीरामचन्द्रजी महाराज दशरथ की कृपा से बहुत बड़ी सम्पत्ति के अधिकारी होने जा रहे हैं। अब हम सब लोगों की समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायँगी, क्योंकि ये श्रीराम हमारे शासक होंगे॥४४॥
लाभो जनस्यास्य यदेष सर्वं प्रपत्स्यते राष्ट्रमिदं चिराय।
न ह्यप्रियं किंचन जातु कश्चित् पश्येन्न दुःखं मनुजाधिपेऽस्मिन्॥४५॥
यदि यह सारा राज्य चिरकाल के लिये इनके हाथ में आ जाय तो इस जगत् की समस्त जनता के लिये यह महान् लाभ होगा। इनके राजा होने पर कभी किसी का अप्रिय नहीं होगा और किसी को कोई दुःख भी नहीं देखना पड़ेगा’॥ ४५ ॥
स घोषवद्भिश्च हयैः सनागैः पुरःसरैः स्वस्तिकसूतमागधैः।
महीयमानः प्रवरैश्च वादकैरभिष्टुतो वैश्रवणो यथा ययौ॥४६॥
हिनहिनाते हुए घोड़ों, चिग्घाड़ते हुए हाथियों, जयजयकार करते हुए आगे-आगे चलने वाले वन्दियों, स्तुतिपाठ करने वाले सूतों, वंश की विरुदावलि बखानने वाले मागधों तथा सर्वश्रेष्ठ गुणगायकों के तुमुल घोष के बीच उन वन्दी आदि से पूजित एवं प्रशंसित होते हुए श्रीरामचन्द्रजी कुबेर के समान चल रहे थे॥ ४६॥
करेणुमातङ्गरथाश्वसंकुलं महाजनौघैः परिपूर्णचत्वरम्।
प्रभूतरत्नं बहुपण्यसंचयं ददर्श रामो विमलं महापथम्॥४७॥
यात्रा करते हुए श्रीराम ने उस विशाल राजमार्ग को देखा, जो हथिनियों, मतवाले हाथियों, रथों और घोड़ों से खचाखच भरा हुआ था। उसके प्रत्येक चौराहे पर मनुष्यों की भारी भीड़ इकट्ठी हो रही थी। उसके दोनों पार्श्वभागों में प्रचुर रत्नों से भरी हुई दुकानें थीं तथा विक्रय के योग्य और भी बहुत-से द्रव्यों के ढेर वहाँ दिखायी देते थे वह राजमार्ग बहुत साफ सुथरा था॥४७॥
सर्ग १७
स रामो रथमास्थाय सम्प्रहृष्टसुहृज्जनः।
पताकाध्वजसम्पन्नं महागुरुधूपितम्॥१॥
अपश्यन्नगरं श्रीमान् नानाजनसमन्वितम्।
स गृहैरभ्रसंकाशैः पाण्डुरैरुपशोभितम्॥२॥
राजमार्ग ययौ रामो मध्येनागुरुधूपितम्।
इस प्रकार श्रीमान् रामचन्द्रजी अपने सुहृदों को आनन्द प्रदान करते हुए रथ पर बैठे राजमार्ग के बीच से चले जा रहे थे; उन्होंने देखा-सारा नगर ध्वजा और पताकाओं से सुशोभित हो रहा है, चारों ओर बहुमूल्य अगुरु नामक धूप की सुगन्ध छा रही है और सब ओर असंख्य मनुष्यों की भीड़ दिखायी देती है। वह राजमार्ग श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल भव्य भवनों से सुशोभित तथा अगुरु की सुगन्ध से व्याप्त हो रहा था॥ २ १/२॥
चन्दनानां च मुख्यानामगुरूणां च संचयैः ॥ ३॥
उत्तमानां च गन्धानां क्षौमकौशाम्बरस्य च।
अविद्धाभिश्च मुक्ताभिरुत्तमैः स्फाटिकैरपि॥ ४॥
शोभमानमसम्बाधं तं राजपथमुत्तमम्।
संवृतं विविधैः पुष्पैर्भक्ष्यैरुच्चावचैरपि॥५॥
ददर्श तं राजपथं दिवि देवपतिर्यथा।
दध्यक्षतहविर्लाजैबूंपैरगुरुचन्दनैः॥६॥
नानामाल्योपगन्धैश्च सदाभ्यर्चितचत्वरम्।
अच्छी श्रेणी के चन्दनों, अगुरु नामक धूपों, उत्तम गन्धद्रव्यों, अलसी या सन आदि के रेशों से बने हुए कपड़ों तथा रेशमी वस्त्रों के ढेर, अनबिंधे मोती और उत्तमोत्तम स्फटिक रत्न उस विस्तृत एवं उत्तम राजमार्ग की शोभा बढ़ा रहे थे। वह नाना प्रकार के पुष्पों तथा भाँति-भाँति के भक्ष्य पदार्थों से भरा हुआ था। उसके चौराहों की दही, अक्षत, हविष्य, लावा, धूप, अगर, चन्दन, नाना प्रकार के पुष्पहार और गन्धद्रव्यों से सदा पूजा की जाती थी। स्वर्गलोक में बैठे हुए देवराज इन्द्र की भाँति रथारूढ़ श्रीराम ने उस राजमार्ग को देखा॥३–६ १/२ ॥
आशीर्वादान् बहून् शृण्वन् सुहृद्भिः समुदीरितान्॥७॥
यथार्हं चापि सम्पूज्य सर्वानेव नरान् ययौ।
वे अपने सुहृदों के मुख से कहे गये बहुत-से आशीर्वादों को सुनते और यथायोग्य उन सब लोगों का सम्मान करते हुए चले जा रहे थे॥ ७ १/२ ॥
पितामहैराचरितं तथैव प्रपितामहैः॥८॥
अद्योपादाय तं मार्गमभिषिक्तोऽनुपालय॥
(उनके हितैषी सुहृद् कहते थे—) ‘रघुनन्दन ! तुम्हारे पितामह और प्रपितामह (दादे और परदादे) जिस पर चलते आये हैं, आज उसी मार्ग को ग्रहण करके युवराज-पदपर अभिषिक्त हो आप हम सब लोगोंका निरन्तर पालन करें’॥ ८ १/२॥
यथा स्म पोषिताः पित्रा यथा सर्वैः पितामहैः।
ततः सुखतरं सर्वे रामे वत्स्याम राजनि॥९॥
(फिर वे आपस में कहने लगे—) भाइयो! श्रीराम के पिता तथा समस्त पितामहों द्वारा जिस प्रकार हमलोगोंका पालन-पोषण हुआ है, श्रीराम के राजा होने पर हम उससे भी अधिक सुखी रहेंगे॥९॥
अलमद्य हि भुक्तेन परमार्थैरलं च नः।
यदि पश्याम निर्यान्तं रामं राज्ये प्रतिष्ठितम्॥ १०॥
‘यदि हम राज्य पर प्रतिष्ठित हुए श्रीराम को पिता के घर से निकलते हुए देख लें यदि राजा राम का दर्शन कर लें तो अब हमें इहलोक के भोग और परमार्थस्वरूप मोक्ष लेकर क्या करना है।॥ १०॥
ततो हि नः प्रियतरं नान्यत् किंचिद् भविष्यति।
यथाभिषेको रामस्य राज्येनामिततेजसः॥११॥
‘अमित तेजस्वी श्रीराम का यदि राज्यपर अभिषेक हो जाय तो वह हमारे लिये जैसा प्रियतर कार्य होगा, उससे बढ़कर दूसरा कोई परम प्रिय कार्य नहीं होगा’।
एताश्चान्याश्च सुहृदामुदासीनः शुभाः कथाः।
आत्मसम्पूजनीः शृण्वन् ययौ रामो महापथम्॥ १२॥
सुहृदों के मुँह से निकली हुई ये तथा और भी कई तरह की अपनी प्रशंसा से सम्बन्ध रखने वाली सुन्दर बातें सुनते हुए श्रीरामचन्द्रजी राजपथ पर बढ़े चले जा रहे थे॥
न हि तस्मान्मनः कश्चिच्चक्षुषी वा नरोत्तमात्।
नरः शक्नोत्यपाक्रष्टमतिक्रान्तेऽपि राघवे॥१३॥
(जो श्रीराम की ओर एक बार देख लेता, वह उन्हें देखता ही रह जाता था।) श्रीरघुनाथजी के दूर चले जाने पर भी कोई उन पुरुषोत्तम की ओर से अपना मन या दृष्टि नहीं हटा पाता था॥ १३॥
यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति।
निन्दितः सर्वलोकेष स्वात्माप्येनं विगर्हते॥१४॥
उस समय जो श्रीराम को नहीं देखता और जिसे श्रीराम नहीं देख लेते थे, वह समस्त लोकों में निन्दित समझा जाता था तथा स्वयं उसकी अन्तरात्मा भी उसे धिक्कारती थी॥ १५॥
सर्वेषु स हि धर्मात्मा वर्णानां कुरुते दयाम्।
चतुर्णां हि वयःस्थानां तेन ते तमनुव्रताः॥१६॥
धर्मात्मा श्रीराम चारों वर्गों के सभी मनुष्यों पर उनकी अवस्था के अनुरूप दया करते थे, इसलिये वे सभी उनके भक्त थे॥१६॥
चतुष्पथान् देवपथांश्चैत्यांश्चायतनानि च।
प्रदक्षिणं परिहरज्जगाम नृपतेः सुतः॥१६॥
राजकुमार श्रीराम चौराहों, देवमार्गों, चैत्यवृक्षों तथा देवमन्दिरों को अपने दाहिने छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे॥
स राजकुलमासाद्य मेघसङ्घोपमैः शुभैः।
प्रासादशृङ्गैर्विविधैः कैलासशिखरोपमैः॥१७॥
आवारयद्भिर्गगनं विमानैरिव पाण्डुरैः।
वर्धमानगृहैश्चापि रत्नजालपरिष्कृतैः॥१८॥
तत् पृथिव्यां गृहवरं महेन्द्रसदनोपमम्।
राजपुत्रः पितुर्वेश्म प्रविवेश श्रिया ज्वलन्॥ १९॥
राजा दशरथ का भवन मेघसमूहों के समान शोभा पाने वाले, सुन्दर अनेक रूप-रंगवाले कैलासशिखर के समान उज्ज्वल प्रासादशिखरों (अट्टालिकाओं) से सुशोभित था। उसमें रत्नों की जाली से विभूषित तथा विमानाकार क्रीड़ागृह भी बने हुए थे, जो अपनी श्वेत आभा से प्रकाशित होते थे। वे अपनी ऊँचाई से आकाश को भी लाँघते हुए-से प्रतीत होते थे; ऐसे । गृहों से युक्त वह श्रेष्ठ भवन इस भूतलपर इन्द्र सदन के समान शोभा पाता था। उस राजभवन के पास पहुँचकर अपनी शोभा से प्रकाशित होने वाले राजकुमार श्रीराम ने पिता के महल में प्रवेश किया॥ १७ –१९॥
स कक्ष्या धन्विभिर्गुप्तास्तिस्रोऽतिक्रम्य वाजिभिः।
पदातिरपरे कक्ष्ये द्वे जगाम नरोत्तमः॥२०॥
उन्होंने धनुर्धर वीरों द्वारा सुरक्षित महल की तीन ड्यौढ़ियों को तो घोड़े जुते हुए रथ से ही पार किया, फिर दो ड्यौढ़ियों में वे पुरुषोत्तम राम पैदल ही गये॥ २०॥
स सर्वाः समतिक्रम्य कक्ष्या दशरथात्मजः।
संनिवर्त्य जनं सर्वं शुद्धान्तःपुरमत्यगात्॥२१॥
इस प्रकार सारी ड्यौढ़ियों को पार करके दशरथनन्दन श्रीराम साथ आये हुए सब लोगों को लौटाकर स्वयं अन्तःपुर में गये॥२१॥
तस्मिन् प्रविष्टे पितुरन्तिकं तदा जनः स सर्वो मुदितो नृपात्मजे।
प्रतीक्षते तस्य पुनः स्म निर्गमं यथोदयं चन्द्रमसः सरित्पतिः॥२२॥
जब राजकुमार श्रीराम पिता के पास जाने के लिये अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए, तब आनन्दमग्न हुए सब लोग बाहर खड़े होकर उनके पुनः निकलने की प्रतीक्षा करने लगे, ठीक उसी तरह जैसे सरिताओं का स्वामी समुद्र चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करता रहता है॥ २२ ॥
सर्ग १८
स ददर्शासने रामो विषण्णं पितरं शुभे।
कैकेय्या सहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता॥१॥
महल में जाकर श्रीराम ने पिता को कैकेयी के साथ एक सुन्दर आसन पर बैठे देखा। वे विषाद में डूबे हुए थे, उनका मुँह सूख गया था और वे बड़े दयनीय दिखायी देते थे॥२॥
स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत।
ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः॥२॥
निकट पहुँचने पर श्रीराम ने विनीत भाव से पहले अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया; उसके बाद बड़ी सावधानी के साथ उन्होंने कैकेयी के चरणों में भी मस्तक झुकाया॥२॥
रामेत्युक्त्वा तु वचनं बाष्पपर्याकुलेक्षणः।
शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम्॥३॥
उस समय दीनदशा में पड़े हुए राजा दशरथ एक बार ‘राम!’ ऐसा कहकर चुप हो गये (इससे आगे उनसे बोला नहीं गया)। उनके नेत्रों में आँसू भर आये, अतः वे श्रीराम की ओर न तो देख सके और न उनसे कोई बात ही कर सके॥३॥
तदपूर्वं नरपतेर्दृष्ट्वा रूपं भयावहम्।
रामोऽपि भयमापन्नः पदा स्पृष्ट्वेव पन्नगम्॥४॥
राजा का वह अभूतपूर्व भयंकर रूप देखकर श्रीराम को भी भय हो गया, मानो उन्होंने पैर से किसी सर्प को छू दिया हो॥ ४॥
इन्द्रियैरप्रहृष्टैस्तं शोकसंतापकर्शितम्।
निःश्वसन्तं महाराजं व्यथिताकुलचेतसम्॥५॥
ऊर्मिमालिनमक्षोभ्यं क्षुभ्यन्तमिव सागरम्।
उपप्लुतमिवादित्यमुक्तानृतमृषिं यथा॥६॥
राजा की इन्द्रियों में प्रसन्नता नहीं थी; वे शोक और संताप से दुर्बल हो रहे थे, बारंबार लंबी साँसें भरते थे तथा उनके चित्त में बड़ी व्यथा और व्याकुलता थी। वे ऐसे दीखते थे, मानो तरङ्गमालाओं से उपलक्षित अक्षोभ्य समुद्र क्षुब्ध हो उठा हो, सूर्य को राहु ने ग्रस लिया हो अथवा किसी महर्षि ने झूठ बोल दिया हो। ६॥
अचिन्त्यकल्पं नृपतेस्तं शोकमुपधारयन्।
बभूव संरब्धतरः समुद्र इव पर्वणि॥७॥
राजा का वह शोक सम्भावना से परे था। इस शोक का क्या कारण है—यह सोचते हुए श्रीरामचन्द्रजी पूर्णिमा के समुद्र की भाँति अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठे॥ ७॥
चिन्तयामास चतुरो रामः पितृहिते रतः।
किंस्विदद्यैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति॥८॥
पिता के हित में तत्पर रहने वाले परम चतुर श्रीराम सोचने लगे कि ‘आज ही ऐसी क्या बात हो गयी’ जिससे महाराज मुझसे प्रसन्न होकर बोलते नहीं हैं।८॥
अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति।
तस्य मामद्य सम्प्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते॥९॥
और दिन तो पिताजी कुपित होने पर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाते थे, आज मेरी ओर दृष्टिपात करके इन्हें क्लेश क्यों हो रहा है’ ॥ ९॥
स दीन इव शोका विषण्णवदनद्युतिः।
कैकेयीमभिवाद्यैव रामो वचनमब्रवीत्॥१०॥
यह सब सोचकर श्रीराम दीन-से हो गये, शोक से कातर हो उठे, विषाद के कारण उनके मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी। वे कैकेयी को प्रणाम करके उसी से पूछने लगे— ॥ १०॥
कच्चिन्मया नापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता।
कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वमेवैनं प्रसादय॥११॥
‘मा! मुझसे अनजान में कोई अपराध तो नहीं हो गया, जिससे पिताजी मुझ पर नाराज हो गये हैं। तुम यह बात मुझे बताओ और तुम्हीं इन्हें मना दो॥ ११॥
अप्रसन्नमनाः किं नु सदा मां प्रति वत्सलः।
विषण्णवदनो दीनः नहि मां प्रति भाषते॥१२॥
‘ये तो सदा मुझे प्यार करते थे, आज इनका मन अप्रसन्न क्यों हो गया? देखता हूँ, ये आज मुझसे बोलते तक नहीं हैं, इनके मुख पर विषाद छा रहा है और ये अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं ॥ १२ ॥
शारीरो मानसो वापि कच्चिदेनं न बाधते।
संतापो वाभितापो वा दुर्लभं हि सदा सुखम्॥ १३॥
‘कोई शारीरिक व्याधिजनित संताप अथवा मानसिक अभिताप (चिन्ता) तो इन्हें पीड़ित नहीं कर रहा है? क्योंकि मनुष्य को सदा सुख-ही-सुख मिले—ऐसा सुयोग प्रायः दुर्लभ होता है॥१३॥
कच्चिन्न किंचिद् भरते कुमारे प्रियदर्शने।
शत्रुघ्ने वा महासत्त्वे मातृणां वा ममाशुभम्॥ १४॥
‘प्रियदर्शन कुमार भरत, महाबली शत्रुघ्न अथवा मेरी माताओं का तो कोई अमङ्गल नहीं हुआ है ? ॥ १४॥
अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः।
मुहर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे॥१५॥
‘महाराज को असंतुष्ट करके अथवा इनकी आज्ञा न मानकर इन्हें कुपित कर देने पर मैं दो घड़ी भी जीवित रहना नहीं चाहूँगा॥ १५॥
यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः।
कथं तस्मिन् न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते॥१६॥
‘मनुष्य जिसके कारण इस जगत् में अपना प्रादुर्भाव (जन्म) देखता है, उस प्रत्यक्ष देवता पिता के जीते-जी वह उसके अनुकूल बर्ताव क्यों न करेगा? ॥१६॥
कच्चित्ते परुषं किंचिदभिमानात् पिता मम।
उक्तो भवत्या रोषेण येनास्य लुलितं मनः॥१७॥
‘कहीं तुमने तो अभिमान या रोषके कारण मेरे पिताजी से कोई कठोर बात नहीं कह डाली, जिससे इनका मन दुःखी हो गया है? ॥ १७॥
एतदाचक्ष्व मे देवि तत्त्वेन परिपृच्छतः।
किंनिमित्तमपूर्वोऽयं विकारो मनुजाधिपे॥१८॥
‘देवि! मैं सच्ची बात पूछता हूँ, बताओ, किस कारण से महाराज के मन में आज इतना विकार (संताप) है? इनकी ऐसी अवस्था तो पहले कभी नहीं देखी गयी थी’॥ १८॥
एवमुक्ता तु कैकेयी राघवेण महात्मना।
उवाचेदं सुनिर्लज्जा धृष्टमात्महितं वचः॥ १९॥
महात्मा श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर अत्यन्त निर्लज्ज कैकेयी बड़ी ढिठाई के साथ अपने मतलब की बात इस प्रकार बोली- ॥ १९॥
न राजा कुपितो राम व्यसनं नास्य किंचन।
किंचिन्मनोगतं त्वस्य त्वद्भयान्नानुभाषते॥२०॥
‘राम! महाराज कुपित नहीं हैं और न इन्हें कोई कष्ट ही हुआ है। इनके मन में कोई बात है, जिसे तुम्हारे डर से ये कह नहीं पा रहे हैं ॥ २० ॥
प्रियं त्वामप्रियं वक्तुं वाणी नास्य प्रवर्तते।
तदवश्यं त्वया कार्यं यदनेनाश्रुतं मम॥२१॥
‘तुम इनके प्रिय हो, तुमसे कोई अप्रिय बात कहने के लिये इनकी जबान नहीं खुलती; किंतु इन्होंने जिस कार्य के लिये मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिये॥ २१॥
एष मह्यं वरं दत्त्वा पुरा मामभिपूज्य च।
स पश्चात् तप्यते राजा यथान्यः प्राकृतस्तथा। २२॥
‘इन्होंने पहले तो मेरा सत्कार करते हुए मुझे मुँहमाँगा वरदान दे दिया और अब ये दूसरे गँवार मनुष्यों की भाँति उसके लिये पश्चात्ताप करते हैं। २२॥
अतिसृज्य ददानीति वरं मम विशाम्पतिः।
स निरर्थं गतजले सेतुं बन्धितुमिच्छति॥२३॥
‘ये प्रजानाथ पहले ‘मैं दूंगा’—ऐसी प्रतिज्ञा करके मुझे वर दे चुके हैं और अब उसके निवारण के लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं, पानी निकल जाने पर उसे रोकने के लिये बाँध बाँधने की निरर्थक चेष्टा करते हैं। २३॥
धर्ममूलमिदं राम विदितं च सतामपि।
तत् सत्यं न त्यजेद् राजा कुपितस्त्वत्कृते यथा॥ २४॥
‘राम! सत्य ही धर्म की जड़ है, यह सत्पुरुषों का भी निश्चय है। कहीं ऐसा न हो कि ये महाराज तुम्हारे कारण मुझपर कुपित होकर अपने उस सत्य को ही छोड़ बैठे। जैसे भी इनके सत्य का पालन हो, वैसा तुम्हें करना चाहिये॥ २४॥
यदि तद् वक्ष्यते राजा शुभं वा यदि वाशुभम्।
करिष्यसि ततः सर्वमाख्यास्यामि पुनस्त्वहम्॥ २५॥
यदि राजा जिस बात को कहना चाहते हैं, वह शुभ हो या अशुभ, तुम सर्वथा उसका पालन करो तो मैं सारी बात पुनः तुमसे कहूँगी॥ २५ ॥
यदि त्वभिहितं राज्ञा त्वयि तन्न विपत्स्यते।
ततोऽहमभिधास्यामि न ह्येष त्वयि वक्ष्यति॥२६॥
‘यदि राजा की कही हुई बात तुम्हारे कानों में पड़कर वहीं नष्ट न हो जाय—यदि तुम उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सको तो मैं तुमसे सब कुछ खोलकर बता दूँगी, ये स्वयं तुमसे कुछ नहीं कहेंगे’।
एतत् तु वचनं श्रुत्वा कैकेय्या समुदाहृतम्।
उवाच व्यथितो रामस्तां देवीं नृपसंनिधौ॥ २७॥
कैकेयी की कही हुई यह बात सुनकर श्रीराम के मन में बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने राजा के समीप ही देवी कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥२७॥
अहो धिङ् नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः।
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके॥२८॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च॥२९॥
तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो दिर्नाभिभाषते॥३०॥
‘अहो! धिक्कार है! देवि! तुम्हें मेरे प्रति ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिये। मैं महाराज के कहने से आग में भी कूद सकता हूँ, तीव्र विष का भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ! महाराज मेरे गुरु, पिता और हितैषी हैं, मैं उनकी आज्ञा पाकर क्या नहीं कर सकता? इसलिये देवि! राजा को जो अभीष्ट है, वह बात मुझे बताओ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, उसे पूर्ण करूँगा। राम दो तरह की बात नहीं करता है’ ॥ २८–३०॥
तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम्।
उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम्॥३१॥
श्रीराम सरल स्वभाव से युक्त और सत्यवादी थे, उनकी बात सुनकर अनार्या कैकेयी ने अत्यन्त दारुण वचन कहना आरम्भ किया— ॥३१॥
पुरा देवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव।
रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे॥३२॥
‘रघुनन्दन! पहले की बात है, देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता शत्रुओं के बाणों से बिंध गये थे, उस महासमर में मैंने इनकी रक्षा की थी, उससे प्रसन्न होकर इन्होंने मुझे दो वर दिये थे॥ ३२॥
तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम्।
गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव॥ ३३॥
‘राघव! उन्हीं में से एक वर के द्वारा तो मैंने महाराज से यह याचना की है कि भरत का राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है कि तुम्हें आज ही दण्डकारण्य में भेज दिया जाय॥ ३३॥
यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि।
आत्मानं च नरश्रेष्ठ मम वाक्यमिदं शृणु॥३४॥
‘नरश्रेष्ठ! यदि तुम अपने पिता को सत्यप्रतिज्ञ बनाना चाहते हो और अपने को भी सत्यवादी सिद्ध करने की इच्छा रखते हो तो मेरी यह बात सुनो। ३४॥
संनिदेशे पितुस्तिष्ठ यथानेन प्रतिश्रुतम्।
त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च॥ ३५॥
‘तुम पिता की आज्ञा के अधीन रहो, जैसी इन्होंने प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार तुम्हें चौदह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना चाहिये॥ ३५॥
भरतश्चाभिषिच्येत यदेतदभिषेचनम्।
त्वदर्थे विहितं राज्ञा तेन सर्वेण राघव॥३६॥
‘रघुनन्दन! राजा ने तुम्हारे लिये जो यह अभिषेक का सामान जुटाया है, उस सबके द्वारा यहाँ भरत का अभिषेक किया जाय॥ ३६॥
सप्त सप्त च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः।
अभिषेकमिदं त्यक्त्वा जटाचीरधरो भव॥३७॥
‘और तुम इस अभिषेक को त्यागकर चौदहवर्षों तक दण्डकारण्य में रहते हुए जटा और चीर धारण करो॥
भरतः कोसलपतेः प्रशास्तु वसुधामिमाम्।
नानारत्नसमाकीर्णां सवाजिरथसंकुलाम्॥३८॥
‘कोसलनरेश की इस वसुधा का, जो नाना प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी और घोड़े तथा रथों से व्याप्त है, भरत शासन करें॥ ३८॥
एतेन त्वां नरेन्द्रोऽयं कारुण्येन समाप्लुतः।
शोकैः संक्लिष्टवदनो न शक्नोति निरीक्षितुम्॥ ३९॥
‘बस इतनी ही बात है, ऐसा करने से तुम्हारे वियोग का कष्ट सहन करना पड़ेगा, यह सोचकर महाराज करुणा में डूब रहे हैं। इसी शोक से इनका मुख सूख गया है और इन्हें तुम्हारी ओर देखने का साहस नहीं होता॥
एतत् कुरु नरेन्द्रस्य वचनं रघुनन्दन।
सत्येन महता राम तारयस्व नरेश्वरम्॥४०॥
‘रघुनन्दन राम! तुम राजा की इस आज्ञा का पालन करो और इनके महान् सत्य की रक्षा करके इन नरेश को संकट से उबार लो’ ॥ ४० ॥
इतीव तस्यां परुषं वदन्त्यां न चैव रामः प्रविवेश शोकम्।
प्रविव्यथे चापि महानुभावो राजा च पुत्रव्यसनाभितप्तः॥४१॥
कैकेयी के इस प्रकार कठोर वचन कहने पर भी श्रीराम के हृदय में शोक नहीं हुआ, परंतु महानुभाव राजा दशरथ पुत्र के भावी वियोगजनित दुःख से संतप्त एवं व्यथित हो उठे॥४१॥
सर्ग १९
तदप्रियममित्रघ्नो वचनं मरणोपमम।
श्रुत्वा न विव्यथे रामः कैकेयीं चेदमब्रवीत्॥१॥
वह अप्रिय तथा मृत्यु के समान कष्टदायक वचन सुनकर भी शत्रुसूदन श्रीराम व्यथित नहीं हुए उन्होंने कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥१॥
एवमस्तु गमिष्यामि वनं वस्तुमहं त्वितः।
जटाचीरधरो राज्ञः प्रतिज्ञामनुपालयन्॥२॥
‘मा! बहुत अच्छा! ऐसा ही हो। मैं महाराज की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये जटा और चीर धारण करके वन में रहने के निमित्त अवश्य यहाँ से चला जाऊँगा॥२॥
इदं तु ज्ञातुमिच्छामि किमर्थं मां महीपतिः।
नाभिनन्दति दर्धर्षो यथापूर्वमरिंदमः॥३॥
‘परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज दुर्जय तथा शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज मुझसे पहले की तरह प्रसन्नतापूर्वक बोलते क्यों नहीं हैं?
मन्युर्न च त्वया कार्यो देवि ब्रूमि तवाग्रतः।
यास्यामि भव सुप्रीता वनं चीरजटाधरः॥४॥
‘देवि! मैं तुम्हारे सामने ऐसी बात पूछ रहा हूँ, इसलिये तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। निश्चय चीर और जटा धारण करके मैं वन को चला जाऊँगा, तुम प्रसन्न रहो॥४॥
हितेन गुरुणा पित्रा कृतज्ञेन नृपेण च।
नियुज्यमानो विस्रब्धः किं न कुर्यामहं प्रियम्॥
‘राजा मेरे हितैषी, गुरु, पिता और कृतज्ञ हैं। इनकी आज्ञा होने पर मैं इनका कौन-सा ऐसा प्रिय कार्य है, जिसे निःशङ्क होकर न कर सकूँ? ॥ ५॥
अलीकं मानसं त्वेकं हृदयं दहते मम।
स्वयं यन्नाह मां राजा भरतस्याभिषेचनम्॥६॥
‘किंतु मेरे मन को एक ही हार्दिक दुःख अधिक जला रहा है कि स्वयं महाराज ने मुझसे भरत के अभिषेक की बात नहीं कही॥६॥
अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टान् धनानि च।
हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरतायाप्रचोदितः॥७॥
‘मैं केवल तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिये इस राज्य को, सीता को, प्यारे प्राणों को तथा सारी सम्पत्ति को भी प्रसन्नतापूर्वक स्वयं ही दे सकता।
किं पुनर्मनुजेन्द्रेण स्वयं पित्रा प्रचोदितः।
तव च प्रियकामार्थं प्रतिज्ञामनुपालयन्॥८॥
‘फिर यदि स्वयं महाराज—मेरे पिताजी आज्ञा दें और वह भी तुम्हारा प्रिय कार्य करने के लिये, तो मैं प्रतिज्ञा का पालन करते हुए उस कार्य को क्यों नहीं करूँगा? ॥ ८॥
तथाश्वासय ह्रीमन्तं किं त्विदं यन्महीपतिः।
वसुधासक्तनयनो मन्दमश्रूणि मुञ्चति॥९॥
‘तुम मेरी ओर से विश्वास दिलाकर इन लज्जाशील महाराज को आश्वासन दो। ये पृथ्वीनाथ पृथ्वी की ओर दृष्टि किये धीरे-धीरे आँसू क्यों बहा रहे हैं? ॥
गच्छन्तु चैवानयितुं दूताः शीघ्रजवैर्हयैः।
भरतं मातुलकुलादद्यैव नृपशासनात्॥१०॥
‘आज ही महाराज की आज्ञा से दूत शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा के यहाँ से बुलाने के लिये चले जायँ॥ १०॥
दण्डकारण्यमेषोऽहं गच्छाम्येव हि सत्वरः।
अविचार्य पितुर्वाक्यं समा वस्तुं चतुर्दश॥११॥
‘मैं अभी पिता की बात पर कोई विचार न करके चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिये तुरंत दण्डकारण्य को चला ही जाता हूँ॥ ११॥
सा हृष्टा तस्य तद् वाक्यं श्रुत्वा रामस्य कैकयी।
प्रस्थानं श्रद्दधाना सा त्वरयामास राघवम्॥१२॥
श्रीराम की वह बात सुनकर कैकेयी बहुत प्रसन्न हुई। उसे विश्वास हो गया कि ये वन को चले जायेंगे। अतः श्रीराम को जल्दी जाने की प्रेरणा देती हुई वह बोली- ॥ १२॥
एवं भवतु यास्यन्ति दूताः शीघ्रजवैर्हयैः।
भरतं मातुलकुलादिहावर्तयितुं नराः॥१३॥
‘तुम ठीक कहते हो, ऐसा ही होना चाहिये। भरतको मामाके यहाँसे बुला लानेके लिये दूतलोग शीघ्रगामी घोड़ोंपर सवार होकर अवश्य जायँगे॥ १३॥
तव त्वहं क्षमं मन्ये नोत्सुकस्य विलम्बनम्।
राम तस्मादितः शीघ्रं वनं त्वं गन्तुमर्हसि ॥१४॥
‘परंतु राम! तुम वन में जाने के लिये स्वयं ही उत्सुक जान पड़ते हो; अतः तुम्हारा विलम्ब करना मैं ठीक नहीं समझती। जितना शीघ्र सम्भव हो, तुम्हें यहाँ से वन को चल देना चाहिये॥ १४ ॥
व्रीडान्वितः स्वयं यच्च नृपस्त्वां नाभिभाषते।
नैतत् किंचिन्नरश्रेष्ठ मन्युरेषोऽपनीयताम्॥१५॥
‘नरश्रेष्ठ! राजा लज्जित होने के कारण जो स्वयं तुमसे नहीं कहते हैं, यह कोई विचारणीय बात नहीं है। अतः इसका दुःख तुम अपने मन से निकाल दो॥ १५॥
यावत्त्वं न वनं यातः पुरादस्मादतित्वरम्।
पिता तावन्न ते राम स्नास्यते भोक्ष्यतेऽपि वा। १६॥
‘श्रीराम! तुम जब तक अत्यन्त उतावली के साथ इस नगर से वन को नहीं चले जाते, तबतक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे’॥ १६ ॥
धिक्कष्टमिति निःश्वस्य राजा शोकपरिप्लुतः।
मूर्च्छितो न्यपतत् तस्मिन् पर्यङ्के हेमभूषिते॥ १७॥
कैकेयी की यह बात सुनकर शोक में डूबे हुए राजा दशरथ लंबी साँस खींचकर बोले—’धिक्कार है! हाय ! बड़ा कष्ट हुआ!’ इतना कहकर वे मूर्च्छित हो उस सुवर्णभूषित पलंग पर गिर पड़े॥ १७ ॥
रामोऽप्युत्थाप्य राजानं कैकेय्याभिप्रचोदितः।
कशयेव हतो वाजी वनं गन्तुं कृतत्वरः॥१८॥
उस समय श्रीराम ने राजा को उठाकर बैठा दिया और कैकेयी से प्रेरित हो कोड़े की चोट खाये हुए घोड़े की भाँति वे शीघ्रतापूर्वक वन को जाने के लिये उतावले हो उठे॥ १८॥
तदप्रियमनार्याया वचनं दारुणोदयम्।
श्रुत्वा गतव्यथो रामः कैकेयीं वाक्यमब्रवीत्॥ १९॥
अनार्या कैकेयी के उस अप्रिय एवं दारुण वचन को सुनकर भी श्रीराम के मनमें व्यथा नहीं हुई। वे कैकेयी से बोले- ॥ १९॥
नाहमर्थपरो देवि लोकमावस्तुमुत्सहे।
विद्धि मामृषिभिस्तुल्यं विमलं धर्ममास्थितम्॥ २०॥
‘देवि! मैं धन का उपासक होकर संसार में नहीं रहना चाहता। तुम विश्वास रखो! मैंने भी ऋषियों की ही भाँति निर्मल धर्म का आश्रय ले रखा है।॥ २० ॥
यत् तत्रभवतः किंचिच्छक्यं कर्तुं प्रियं मया।
प्राणानपि परित्यज्य सर्वथा कृतमेव तत्॥२१॥
‘पूज्य पिताजी का जो भी प्रिय कार्य मैं कर सकता हूँ, उसे प्राण देकर भी करूँगा। तुम उसे सर्वथा मेरे द्वारा हुआ ही समझो॥२१॥
न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया॥२२॥
‘पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करना, जैसा महत्त्वपूर्ण धर्म है, उससे बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्माचरण नहीं है।॥ २२ ॥
अनुक्तोऽप्यत्रभवता भवत्या वचनादहम्।
वने वत्स्यामि विजने वर्षाणीह चतुर्दश॥ २३॥
‘यद्यपि पूज्य पिताजी ने स्वयं मुझसे नहीं कहा है, तथापि मैं तुम्हारे ही कहने से चौदह वर्षों तक इस भूतल पर निर्जन वन में निवास करूँगा॥ २३॥
न नूनं मयि कैकेयि किंचिदाशंससे गुणान्।
यद् राजानमवोचस्त्वं ममेश्वरतरा सती॥२४॥
‘कैकेयि! तुम्हारा मुझ पर पूरा अधिकार है। मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूँ; फिर भी तुमने स्वयं मुझसे न कहकर इस कार्य के लिये महाराज से कहा—इनको कष्ट दिया। इससे जान पड़ता है कि तुम मुझमें कोई गुण नहीं देखती हो॥ २४॥
यावन्मातरमापृच्छे सीतां चानुनयाम्यहम्।
ततोऽद्यैव गमिष्यामि दण्डकानां महद् वनम्॥ २५॥
‘अच्छा! अब मैं माता कौसल्या से आज्ञा ले लूँ और सीता को भी समझा-बुझा लूँ, इसके बाद आज ही विशाल दण्डकवन की यात्रा करूँगा॥ २५ ॥
भरतः पालयेद् राज्यं शुश्रूषेच्च पितुर्यथा।
तथा भवत्या कर्तव्यं स हि धर्मः सनातनः॥ २६॥
‘तुम ऐसा प्रयत्न करना, जिससे भरत इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें; क्योंकि यही सनातन धर्म है’ ॥ २६॥
रामस्य तु वचः श्रुत्वा भृशं दुःखगतः पिता।
शोकादशक्नुवन् वक्तुं प्ररुरोद महास्वनम्॥२७॥
श्रीराम का यह वचन सुनकर पिता को बहुत दुःख हुआ। वे शोक के आवेग से कुछ बोल न सके, केवल फूट-फूटकर रोने लगे॥२७॥
वन्दित्वा चरणौ राज्ञो विसंज्ञस्य पितुस्तदा।
कैकेय्याश्चाप्यनार्याया निष्पपात महाद्युतिः॥ २८॥
महातेजस्वी श्रीराम उस समय अचेत पड़े हुए पिता महाराज दशरथ तथा अनार्या कैकेयी के भी चरणों में प्रणाम करके उस भवन से निकले॥ २८॥
स रामः पितरं कृत्वा कैकेयीं च प्रदक्षिणम्।
निष्क्रम्यान्तःपुरात् तस्मात् स्वं ददर्श सुहृज्जनम्॥ २९॥
पिता दशरथ और माता कैकेयी की परिक्रमा करके उस अन्तःपुर से बाहर निकलकर श्रीराम अपने सुहृदों से मिले॥ २९॥
तं बाष्पपरिपूर्णाक्षः पृष्ठतोऽनुजगाम ह।
लक्ष्मणः परमक्रुद्धः सुमित्रानन्दवर्धनः॥३०॥
सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले लक्ष्मण उस अन्याय को देखकर अत्यन्त कुपित हो उठे थे, तथापि दोनों नेत्रों में आँसू भरकर वे चुपचाप श्रीरामचन्द्रजी के पीछे-पीछे चले गये॥ ३०॥
आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा रामः प्रदक्षिणम्।
शनैर्जगाम सापेक्षो दृष्टिं तत्राविचालयन्॥३१॥
श्रीरामचन्द्रजी के मन में अब वन जाने की आकांक्षा का उदय हो गया था, अतः अभिषेक के लिये एकत्र की हुई सामग्रियों की प्रदक्षिणा करते हुए वे धीरे-धीरे आगे बढ़ गये। उनकी ओर उन्होंने दृष्टिपात नहीं किया॥३१॥
न चास्य महतीं लक्ष्मी राज्यनाशोऽपकर्षति।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः॥ ३२॥
श्रीराम अविनाशी कान्ति से युक्त थे, इसलिये उस समय राज्य का न मिलना उन लोककमनीय श्रीराम की महती शोभा में कोई अन्तर न डाल सका; जैसे चन्द्रमा का क्षीण होना उसकी सहज शोभा का अपकर्ष नहीं कर पाता है।॥ ३२॥
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम्।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया॥३३॥
वे वन में जाने को उत्सुक थे और सारी पृथ्वी का राज्य छोड़ रहे थे; फिर भी उनके चित्त में सर्वलोकातीत जीवन्मुक्त महात्मा की भाँति कोई विकार नहीं देखा गया॥ ३३॥
प्रतिषिध्य शुभं छत्रं व्यजने च स्वलंकृते।
विसर्जयित्वा स्वजनं रथं पौरांस्तथा जनान्॥ ३४॥
धारयन् मनसा दुःखमिन्द्रियाणि निगृह्य च।
प्रविवेशात्मवान् वेश्म मातुरप्रियशंसिवान्॥ ३५॥
श्रीराम ने अपने ऊपर सुन्दर छत्र लगाने की मनाही कर दी। डुलाये जाने वाले सुसज्जित चँवर भी रोक दिये। वे रथ को लौटाकर स्वजनों तथा पुरवासी मनुष्यों को भी बिदा करके (आत्मीय जनों के दुःख से होने वाले) दुःख को मन में ही दबाकर इन्द्रियों को काबू में करके यह अप्रिय समाचार सुनाने के लिये माता कौसल्या के महल में गये। उस समय उन्होंने मन को पूर्णतः वश में कर रखा था॥ ३४-३५ ॥
सर्वोऽप्यभिजनः श्रीमान् श्रीमतः सत्यवादिनः।
नालक्षयत रामस्य कंचिदाकारमानने॥३६॥
जो शोभाशाली मनुष्य सदा सत्यवादी श्रीमान् राम के निकट रहा करते थे, उन्होंने भी उनके मुखपर कोई विकार नहीं देखा ॥ ३६॥
उचितं च महाबाहुर्न जहौ हर्षमात्मवान्।
शारदः समुदीर्णांशुश्चन्द्रस्तेज इवात्मजम्॥३७॥
मन को वश में रखने वाले महाबाहु श्रीराम ने अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता उसी तरह नहीं छोड़ी थी, जैसे शरद्-काल का उद्दीप्त किरणों वाला चन्द्रमा अपने सहज तेज का परित्याग नहीं करता है॥ ३७॥
वाचा मधुरया रामः सर्वं सम्मानयञ्जनम्।
मातुः समीपं धर्मात्मा प्रविवेश महायशाः॥३८॥
महायशस्वी धर्मात्मा श्रीराम मधुर वाणी से सबलोगों का सम्मान करते हुए अपनी माता के समीप गये॥ ३८॥
तं गुणैः समतां प्राप्तो भ्राता विपुलविक्रमः।
सौमित्रिरनुवव्राज धारयन् दुःखमात्मजम्॥३९॥
उस समय गुणों में श्रीराम की ही समानता करने वाले महापराक्रमी भ्राता सुमित्रा कुमार लक्ष्मण भी अपने मानसिक दुःख को मन में ही धारण किये हुए श्रीराम के पीछे-पीछे गये॥३९॥
प्रविश्य वेश्मातिभृशं मुदा युतं समीक्ष्य तां चार्थविपत्तिमागताम्।
न चैव रामोऽत्र जगाम विक्रियां सुहृज्जनस्यात्मविपत्तिशङ्कया॥४०॥
अत्यन्त आनन्द से भरे हुए उस भवन में प्रवेश करके लौकिक दृष्टि से अपने अभीष्ट अर्थ का विनाश हुआ देखकर भी हितैषी सुहृदों के प्राणों पर संकट आ जाने की आशङ्का से श्रीराम ने यहाँ अपने मुखपर कोई विकार नहीं प्रकट होने दिया॥ ४०॥
सर्ग २०
तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र निष्क्रामति कृताञ्जलौ।
आर्तशब्दो महान् जज्ञे स्त्रीणामन्तःपुरे तदा॥१॥
उधर पुरुष सिंह श्रीराम हाथ जोड़े हुए ज्यों ही कैकेयी के महल से बाहर निकलने लगे, त्यों ही अन्तःपुर में रहने वाली राजमहिलाओं का महान् आर्तनाद प्रकट हुआ॥
कृत्येष्वचोदितः पित्रा सर्वस्यान्तःपुरस्य च।
गतिश्च शरणं चासीत् स रामोऽद्य प्रवत्स्यति॥ २॥
वे कह रही थीं—’हाय! जो पिता के आज्ञा न देने पर भी समस्त अन्तःपुर के आवश्यक कार्यों में स्वतः संलग्न रहते थे, जो हमलोगों के सहारे और रक्षक थे, वे श्रीराम आज वन को चले जायेंगे॥२॥
कौसल्यायां यथा युक्तो जनन्यां वर्तते सदा।
तथैव वर्ततेऽस्मासु जन्मप्रभृति राघवः ॥३॥
‘वे रघुनाथजी जन्मसे ही अपनी माता कौसल्याके प्रति सदा जैसा बर्ताव करते थे, वैसा ही हमारे साथ भी करते थे॥३॥
न क्रुध्यत्यभिशप्तोऽपि क्रोधनीयानि वर्जयन्।
क्रुद्धान् प्रसादयन् सर्वान् स इतोऽद्य प्रवत्स्यति॥ ४॥
‘जो कठोर बात कह देने पर भी कुपित नहीं होते थे, दूसरों के मन में क्रोध उत्पन्न करने वाली बातें नहीं बोलते थे तथा जो सभी रूठे हुए व्यक्तियों को मना लिया करते थे, वे ही श्रीराम आज यहाँ से वन को चले जायँगे॥
अबुद्धिर्बत नो राजा जीवलोकं चरत्ययम्।
यो गतिं सर्वभूतानां परित्यजति राघवम्॥५॥
‘बड़े खेद की बात है कि हमारे महाराज की बुद्धि मारी गयी। ये इस समय सम्पूर्ण जीव-जगत् का विनाश करने पर तुले हुए हैं, तभी तो ये समस्त प्राणियों के जीवनाधार श्रीराम का परित्याग कर रहे हैं’॥५॥
इति सर्वा महिष्यस्ता विवत्सा इव धेनवः।
पतिमाचुक्रुशुश्चापि सस्वनं चापि चुक्रुशुः॥६॥
इस प्रकार समस्त रानियाँ अपने पति को कोसने लगीं और बछड़ों से बिछुड़ी हुई गौओं की तरह उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगीं ॥ ६॥
स हि चान्तःपुरे घोरमार्तशब्दं महीपतिः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तः श्रुत्वा व्यालीयतासने॥७॥
अन्तःपुर का वह भयङ्कर आर्तनाद सुनकर महाराज दशरथ ने पुत्रशोक से संतप्त हो लज्जा के मारे बिछौने में ही अपने को छिपा लिया॥७॥
रामस्तु भृशमायस्तो निःश्वसन्निव कुञ्जरः।
जगाम सहितो भ्रात्रा मातुरन्तःपुरं वशी॥८॥
इधर जितेन्द्रिय श्रीरामचन्द्रजी स्वजनों के दुःख से अधिक खिन्न होकर हाथी के समान लंबी साँस खींचते हुए भाई लक्ष्मण के साथ माता के अन्तःपुरमें गये॥ ८॥
सोऽपश्यत् पुरुषं तत्र वृद्धं परमपूजितम्।
उपविष्टं गृहद्वारि तिष्ठतश्चापरान् बहून्॥९॥
वहाँ उन्होंने उस घर के दरवाजे पर एक परम पूजित वृद्ध पुरुष को बैठा हुआ देखा और दूसरे भी बहुत-से मनुष्य वहाँ खड़े दिखायी दिये॥९॥
दृष्ट्वैव तु तदा रामं ते सर्वे समुपस्थिताः।
जयेन जयतां श्रेष्ठं वर्धयन्ति स्म राघवम्॥१०॥
वे सब-के-सब विजयी वीरों में श्रेष्ठ रघुनन्दन श्रीराम को देखते ही जय-जयकार करते हुए उनकी सेवा में उपस्थित हुए और उन्हें बधाई देने लगे॥१०॥
प्रविश्य प्रथमां कक्ष्यां द्वितीयायां ददर्श सः।
ब्राह्मणान् वेदसम्पन्नान् वृद्धान् राज्ञाभिसत्कृतान्॥११॥
पहली ड्योढ़ी पार करके जब वे दूसरी में पहुँचे, तब वहाँ उन्हें राजा के द्वारा सम्मानित बहुत-से वेदज्ञ ब्राह्मण दिखायी दिये॥ ११॥
प्रणम्य रामस्तान् वृद्धांस्तृतीयायां ददर्श सः।
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च द्वाररक्षणतत्पराः॥ १२॥
उन वृद्ध ब्राह्मणों को प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी जब तीसरी ड्योढ़ी में पहुँचे, तब वहाँ उन्हें द्वाररक्षा के कार्य में लगी हुई बहुत-सी नववयस्का एवं वृद्ध अवस्था वाली स्त्रियाँ दिखायी दीं ॥ १२ ॥
वर्धयित्वा प्रहृष्टास्ताः प्रविश्य च गृहं स्त्रियः।
न्यवेदयन्त त्वरितं राममातुः प्रियं तदा ॥१३॥
उन्हें देखकर उन स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ। श्रीराम को बधाई देकर उन स्त्रियों ने तत्काल महल के भीतर प्रवेश किया और तुरंत ही श्रीरामचन्द्रजी की माता को उनके आगमन का प्रिय समाचार सुनाया। १३॥
कौसल्यापि तदा देवी रात्रिं स्थित्वा समाहिता।
प्रभाते चाकरोत् पूजां विष्णोः पुत्रहितैषिणी॥ १४॥
उस समय देवी कौसल्या पुत्र की मङ्गलकामना से रातभर जागकर सबेरे एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थीं॥ १४ ॥
सा क्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा।
अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमङ्गला॥ १५॥
वे रेशमी वस्त्र पहनकर बड़ी प्रसन्नता के साथ निरन्तर व्रतपरायण होकर मङ्गलकृत्य पूर्ण करने के पश्चात् मन्त्रोच्चारणपूर्वक उस समय अग्नि में आहुति दे रही थीं॥ १५ ॥
प्रविश्य तु तदा रामो मातुरन्तःपुरं शुभम्।
ददर्श मातरं तत्र हावयन्तीं हुताशनम्॥१६॥
उसी समय श्रीराम ने माता के शुभ अन्तःपुर में प्रवेश करके वहाँ माता को देखा। वे अग्नि में हवन करा रही थीं॥१६॥
देवकार्यनिमित्तं च तत्रापश्यत् समुद्यतम्।
दध्यक्षतघृतं चैव मोदकान् हविषस्तथा ॥१७॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसं कृसरं तथा।
समिधः पूर्णकुम्भांश्च ददर्श रघुनन्दनः॥१८॥
रघुनन्दन ने देखा तो वहाँ देव-कार्य के लिये बहुत सी सामग्री संग्रह करके रखी हुई है। दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, धान का लावा, सफेद माला, खीर, खिचड़ी, समिधा और भरे हुए कलश ये सब वहाँ दृष्टिगोचर हुए॥ १७-१८॥
तां शुक्लक्षौमसंवीतां व्रतयोगेन कर्शिताम्।
तर्पयन्तीं ददर्शाद्भिर्देवतां वरवर्णिनीम्॥१९॥
उत्तम कान्तिवाली माता कौसल्या सफेद रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए थीं। वे व्रत के अनुष्ठान से दुर्बल हो गयी थीं और इष्टदेवता का तर्पण कर रही थीं। इस अवस्थामें श्रीराम ने उन्हें देखा॥ १९॥
सा चिरस्यात्मजं दृष्ट्वा मातृनन्दनमागतम्।
अभिचक्राम संहृष्टा किशोरं वडवा यथा॥२०॥
माता का आनन्द बढ़ाने वाले प्रिय पुत्र को बहुत देर के बाद सामने उपस्थित देख कौसल्यादेवी बड़े हर्ष में भरकर उसकी ओर चलीं, मानो कोई घोड़ी अपने बछेड़े को देखकर बड़े हर्ष से उसके पास आयी हो॥२०॥
स मातरमुपक्रान्तामुपसंगृह्य राघवः।
परिष्वक्तश्च बाहुभ्यामवघ्रातश्च मूर्धनि॥२१॥
श्रीरघुनाथजी ने निकट आयी हुई माता के चरणों में प्रणाम किया और माता कौसल्या ने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया तथा बड़े प्यार से उनका मस्तक सूंघा ॥ २१ ॥
तमुवाच दुराधर्षं राघवं सुतमात्मनः।
कौसल्या पुत्रवात्सल्यादिदं प्रियहितं वचः॥ २२॥
उस समय कौसल्यादेवी ने अपने दुर्जय पुत्र श्रीरामचन्द्रजी से पुत्रस्नेहवश यह प्रिय एवं हितकर बात कही- ॥ २२॥
वृद्धानां धर्मशीलानां राजर्षीणां महात्मनाम्।
प्राप्नुह्यायुश्च कीर्तिं च धर्मं चाप्युचितं कुले॥ २३॥
‘बेटा ! तुम धर्मशील, वृद्ध एवं महात्मा राजर्षियों के समान आयु, कीर्ति और कुलोचित धर्म प्राप्त करो। २३॥
सत्यप्रतिज्ञं पितरं राजानं पश्य राघव।
अद्यैव त्वां स धर्मात्मा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति॥ २४॥
‘रघुनन्दन ! अब तुम जाकर अपने सत्यप्रतिज्ञ पिता राजा का दर्शन करो। वे धर्मात्मा नरेश आज ही तुम्हारा युवराज के पद पर अभिषेक करेंगे’॥ २४॥
दत्तमासनमालभ्य भोजनेन निमन्त्रितः।
मातरं राघवः किंचित् प्रसार्याञ्जलिमब्रवीत्॥ २५॥
यह कहकर माता ने उन्हें बैठने के लिये आसन दिया और भोजन करने को कहा। भोजन के लिये निमन्त्रित होकर श्रीराम ने उस आसन का स्पर्श मात्र कर लिया। फिर वे अञ्जलि फैलाकर माता से कुछ कहने को उद्यत हुए।
स स्वभावविनीतश्च गौरवाच्च तथानतः।
प्रस्थितो दण्डकारण्यमाप्रष्टमुपचक्रमे॥२६॥
वे स्वभाव से ही विनयशील थे तथा माता के गौरव से भी उनके सामने नतमस्तक हो गये थे। उन्हें दण्डकारण्य को प्रस्थान करना था, अतः वे उसके लिये आज्ञा लेने का उपक्रम करने लगे॥ २६॥
देवि नूनं न जानीषे महद् भयमुपस्थितम्।
इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च॥२७॥
उन्होंने कहा—’देवि! निश्चय ही तुम्हें मालूम नहीं है, तुम्हारे ऊपर महान् भय उपस्थित हो गया है। इस समय मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, उसे सुनकर तुमको, सीता को और लक्ष्मण को भी दुःख होगा; तथापि कहूँगा॥
गमिष्ये दण्डकारण्यं किमनेनासनेन मे।
विष्टरासनयोग्यो हि कालोऽयं मामुपस्थितः॥ २८॥
‘अब तो मैं दण्डकारण्य में जाऊँगा, अतः ऐसे बहुमूल्य आसन की मुझे क्या आवश्यकता है? अब मेरे लिये यह कुश की चटाई पर बैठने का समय आया है।
चतर्दश हि वर्षाणि वत्स्याम विजने वने।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम्॥२९॥
‘मैं राजभोग्य वस्तु का त्याग करके मुनि की भाँति कन्द, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करूँगा॥ २९॥
भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति।।
मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसम्॥३०॥
‘महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य में भेज रहे हैं। ३०॥
स षट् चाष्टौ च वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
आसेवमानो वन्यानि फलमूलैश्च वर्तयन्॥ ३१॥
‘अतः चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा और जंगल में सुलभ होने वाले वल्कल आदि को धारण करके फल-मूल के आहार से ही जीवन-निर्वाह करता रहूँगा’।
सा निकृत्तेव सालस्य यष्टिः परशुना वने।
पपात सहसा देवी देवतेव दिवश्च्युता॥३२॥
यह अप्रिय बात सुनकर वन में फरसे से काटी हुई शालवृक्ष की शाखा के समान कौसल्या देवी सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं, मानो स्वर्ग से कोई देवाङ्गना भूतल पर आ गिरी हो॥ ३२॥
तामदुःखोचितां दृष्ट्वा पतितां कदलीमिव।
रामस्तूत्थापयामास मातरं गतचेतसम्॥३३॥
जिन्होंने जीवन में कभी दुःख नहीं देखा था—जो दुःख भोगने के योग्य थीं ही नहीं, उन्हीं माता कौसल्या को कटी हुई कदली की भाँति अचेतअवस्था में भूमिपर पड़ी देख श्रीराम ने हाथ का सहारा देकर उठाया॥ ३३॥
उपावृत्योत्थितां दीनां वडवामिव वाहिताम्।
पांसगण्ठितसर्वाङ्गी विममर्श च पाणिना॥३४॥
जैसे कोई घोड़ी पहले बड़ा भारी बोझ ढो चुकी हो और थकावट दूर करने के लिये धरती पर लोटपोटकर उठी हो, उसी तरह उठी हुई कौसल्याजी के समस्त अङ्गों में धूल लिपट गयी थी और वे अत्यन्त दीन दशा को पहुँच गयी थीं। उस अवस्था में श्रीराम ने अपने हाथ से उनके अङ्गों की धूल पोंछी॥ ३४ ॥
सा राघवमुपासीनमसुखार्ता सुखोचिता।
उवाच पुरुषव्याघ्रमुपशृण्वति लक्ष्मणे॥३५॥
कौसल्याजी ने जीवन में पहले सदा सुख ही देखा था और उसी के योग्य थीं, परंतु उस समय वे दुःख से कातर हो उठी थीं। उन्होंने लक्ष्मण के सुनते हुए अपने पास बैठे पुरुषसिंह श्रीराम से इस प्रकार कहा- ॥ ३५॥
यदि पुत्र न जायेथा मम शोकाय राघव।
न स्म दुःखमतो भूयः पश्येयमहमप्रजाः॥३६॥
‘बेटा रघुनन्दन! यदि तुम्हारा जन्म न हुआ होता तो मुझे इस एक ही बात का शोक रहता। आज जो मुझपर इतना भारी दुःख आ पड़ा है, इसे वन्ध्या होने पर मुझे नहीं देखना पड़ता॥ ३६॥
एक एव हि वन्ध्यायाः शोको भवति मानसः।
अप्रजास्मीति संतापो न ह्यन्यः पुत्र विद्यते॥ ३७॥
‘बेटा! वन्ध्या को एक मानसिक शोक होता है। उसके मन में यह संताप बना रहता है कि मुझे कोई संतान नहीं है, इसके सिवा दूसरा कोई दुःख उसे नहीं होता।
न दृष्टपूर्वं कल्याणं सुखं वा पतिपौरुषे।
अपि पुत्रे विपश्येयमिति रामास्थितं मया॥३८॥
‘बेटा राम! पति के प्रभुत्वकाल में एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख प्राप्त होना चाहिये, वह मुझे पहले कभी नहीं देखने को मिला। सोचतीथी, पुत्र के राज्य में मैं सब सुख देख लूँगी और इसी आशा से मैं अब तक जीती रही॥ ३८॥
सा बहून्यमनोज्ञानि वाक्यानि हृदयच्छिदाम्।
अहं श्रोष्ये सपत्नीनामवराणां परा सती॥३९॥
‘बड़ी रानी होकर भी मुझे अपनी बातों से हृदय को विदीर्ण कर देने वाली छोटी सौतों के बहुत-से अप्रिय वचन सुनने पड़ेंगे॥ ३९॥
अतो दुःखतरं किं नु प्रमदानां भविष्यति।
मम शोको विलापश्च यादृशोऽयमनन्तकः॥ ४०॥
‘स्त्रियों के लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या होगा; अतः मेरा शोक और विलाप जैसा है, उसका कभी अन्त नहीं है॥ ४० ॥
त्वयि संनिहितेऽप्येवमहमासं निराकृता।
किं पुनः प्रोषिते तात ध्रुवं मरणमेव हि॥४१॥
‘तात! तुम्हारे निकट रहने पर भी मैं इस प्रकार सौतों से तिरस्कृत रही हूँ, फिर तुम्हारे परदेश चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी? उस दशा में तो मेरा मरण ही निश्चित है॥ ४१॥
अत्यन्तं निगृहीतास्मि भर्तुर्नित्यमसम्मता।
परिवारेण कैकेय्याः समा वाप्यथवावरा॥४२॥
‘पति की ओर से मुझे सदा अत्यन्त तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूँ।
यो हि मां सेवते कश्चिदपि वाप्यनुवर्तते।
कैकेय्याः पुत्रमन्वीक्ष्य स जनो नाभिभाषते॥ ४३॥
‘जो कोई मेरी सेवा में रहता या मेरा अनुसरण करता है, वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप होजाता है, मुझसे बात नहीं करता है। ४३॥
नित्यक्रोधतया तस्याः कथं नु खरवादि तत्।
कैकेय्या वदनं द्रष्टं पुत्र शक्ष्यामि दुर्गता॥४४॥
‘बेटा! इस दुर्गति में पड़कर मैं सदा क्रोधी स्वभाव के कारण कटुवचन बोलने वाले उस कैकेयी के मुख को कैसे देख सकूँगी॥४४॥
दश सप्त च वर्षाणि जातस्य तव राघव।
अतीतानि प्रकांक्षन्त्या मया दुःखपरिक्षयम्॥ ४५॥
‘रघुनन्दन ! तुम्हारे उपनयनरूप द्वितीय जन्म लिये सत्रह वर्ष बीत गये (अर्थात् तुम अब सत्ताईस वर्ष के हो गये)। अबतक मैं यही आशा लगाये चली आ रही थी कि अब मेरा दुःख दूर हो जायगा॥ ४५ ॥
तदक्षयं महद्दुःखं नोत्सहे सहितुं चिरात्।
विप्रकारं सपत्नीनामेवं जीर्णापि राघव॥४६॥
‘राघव! अब इस बुढ़ापे में इस तरह सौतों का तिरस्कार और उससे होने वाले महान् अक्षय दुःख को मैं अधिक काल तक नहीं सह सकती॥ ४६॥
अपश्यन्ती तव मुखं परिपूर्णशशिप्रभम्।
कृपणा वर्तयिष्यामि कथं कृपणजीविका॥४७॥
पूर्ण चन्द्रमा के समान तुम्हारे मनोहर मुख को देखे बिना मैं दुःखिनी दयनीय जीवनवृत्ति से रहकर कैसे निर्वाह करूँगी॥४७॥
उपवासैश्च योगैश्च बहभिश्च परिश्रमैः।
दुःखसंवर्धितो मोघं त्वं हि दुर्गतया मया॥४८॥
‘बेटा! (यदि तुझे इस देश से निकल ही जाना है तो) मुझ भाग्यहीना ने बारंबार उपवास, देवताओं का ध्यान तथा बहुत-से परिश्रमजनक उपाय करके व्यर्थ ही तुम्हारा इतने कष्ट से पालन-पोषण किया है॥४८॥
स्थिरं नु हृदयं मन्ये ममेदं यन्न दीर्यते।
प्रावृषीव महानद्याः स्पृष्टं कूलं नवाम्भसा॥४९॥
‘मैं समझती हूँ कि निश्चय ही यह मेरा हृदय बड़ा कठोर है, जो तुम्हारे बिछोह की बात सुनकर भी वर्षाकाल के नूतन जल के प्रवाह से टकराये हुए महानदी के कगार की भाँति फट नहीं जाता है॥ ४९॥
ममैव नूनं मरणं न विद्यते न चावकाशोऽस्ति यमक्षये मम।
यदन्तकोऽद्यैव न मां जिहीर्षति प्रसह्य सिंहो रुदतीं मृगीमिव॥५०॥
निश्चय ही मेरे लिये कहीं मौत नहीं है, यमराज के घर में भी मेरे लिये जगह नहीं है, तभी तो जैसे किसी रोती हुई मृगी को सिंह जबरदस्ती उठा ले जाता है, उसी प्रकार यमराज मुझे आज ही उठा ले जाना नहीं चाहता है॥ ५० ॥
स्थिरं हि नूनं हृदयं ममायसं न भिद्यते यद् भुवि नो विदीर्यते।
अनेन दुःखेन च देहमर्पितं ध्रुवं ह्यकाले मरणं न विद्यते॥५१॥
‘अवश्य ही मेरा कठोर हृदय लोहे का बना हुआ है, जो पृथिवी पर पड़ने पर भी न तो फटता है और न टूक-टूक हो जाता है। इसी दुःख से व्याप्त हुए इस शरीर के भी टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जाते हैं। निश्चय ही, मृत्युकाल आये बिना किसी का मरण नहीं होता है॥
इदं तु दुःखं यदनर्थकानि मे व्रतानि दानानि च संयमाश्च हि।
तपश्च तप्तं यदपत्यकाम्यया सुनिष्फलं बीजमिवोप्तमूषरे॥५२॥
सबसे अधिक दुःख की बात तो यह है कि पुत्र के सुख के लिये मेरे द्वारा किये गये व्रत, दान और संयम सब व्यर्थ हो गये। मैंने संतान की हित-कामना से जो तप किया है, वह भी ऊसर में बोये हुए बीज की भाँति निष्फल हो गया। ५२॥
यदि ह्यकाले मरणं यदृच्छया लभेत कश्चिद् गुरुदुःखकर्शितः।
गताहमयैव परेतसंसदं विना त्वया धेनुरिवात्मजेन वै॥५३॥
‘यदि कोई मनुष्य भारी दुःखसे पीड़ित हो असमयमें भी अपनी इच्छाके अनुसार मृत्यु पा सके तो मैं तुम्हारे बिना अपने बछड़ेसे बिछुड़ी हुई गायकी भाँति आज ही यमराजकी सभामें चली जाऊँ॥ ५३॥
अथापि किं जीवितमद्य मे वृथा त्वया विना चन्द्रनिभाननप्रभ।
अनुव्रजिष्यामि वनं त्वयैव गौः सदुर्बला वत्समिवाभिकांक्षया॥५४॥
‘चन्द्रमा के समान मनोहर मुख-कान्ति वाले श्रीराम ! यदि मेरी मृत्यु नहीं होती है तो तुम्हारे बिना यहाँ व्यर्थ कुत्सित जीवन क्यों बिताऊँ ? बेटा ! जैसे गौ दुर्बल होने पर भी अपने बछडे के लोभ से उसके पीछे-पीछे चली जाती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ ही वन को चली चलूँगी’॥
भृशमसुखममर्षिता तदा बहु विललाप समीक्ष्य राघवम्।
व्यसनमुपनिशाम्य सा महत् सुतमिव बद्धमवेक्ष्य किंनरी॥५५॥
आने वाले भारी दुःख को सहने में असमर्थ हो महान् संकट का विचार करके सत्य के ध्यान में बँधे हुए अपने पुत्र श्रीरघुनाथजी की ओर देखकर माता कौसल्या उस समय बहुत विलाप करने लगीं, मानो कोई किन्नरी अपने पुत्र को बन्धन में पड़ा हुआ देखकर बिलख रही हो॥५५॥
सर्ग २१
तथा त विलपन्तीं तां कौसल्यां राममातरम्।
उवाच लक्ष्मणो दीनस्तत्कालसदृशं वचः॥१॥
इस प्रकार विलाप करती हुई श्रीराम माता कौसल्या से अत्यन्त दुःखी हुए लक्ष्मण ने उस समय के योग्य बात कही— ॥१॥
न रोचते ममाप्येतदार्ये यद् राघवो वनम्।
त्यक्त्वा राज्यश्रियं गच्छेत् स्त्रिया वाक्यवशंगतः॥२॥
विपरीतश्च वृद्धश्च विषयैश्च प्रधर्षितः।
नृपः किमिव न ब्रूयाच्चोद्यमानः समन्मथः॥३॥
‘बड़ी माँ! मुझे भी यह अच्छा नहीं लगता कि श्रीराम राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके वन में जायँ। महाराज तो इस समय स्त्री की बात में आ गये हैं, इसलिये उनकी प्रकृति विपरीत हो गयी है। एक तो वे बूढ़े हैं, दूसरे विषयों ने उन्हें वश में कर लिया है; अतः कामदेव के वशीभूत हुए वे नरेश कैकेयी-जैसी स्त्री की प्रेरणा से क्या नहीं कह सकते हैं? ॥२-३॥
नास्यापराधं पश्यामि नापि दोषं तथाविधम्।
येन निर्वास्यते राष्ट्राद् वनवासाय राघवः॥४॥
‘मैं श्रीरघुनाथजी का ऐसा कोई अपराध या दोष नहीं देखता, जिससे इन्हें राज्य से निकाला जाय और वन में रहने के लिये विवश किया जाय॥४॥
न तं पश्याम्यहं लोके परोक्षमपि यो नरः।
स्वमित्रोऽपि निरस्तोऽपि योऽस्य दोषमुदाहरेत्॥
‘मैं संसार में एक मनुष्य को भी ऐसा नहीं देखता, जो अत्यन्त शत्रु एवं तिरस्कृत होने पर भी परोक्ष में भी इनका कोई दोष बता सके॥५॥
देवकल्पमृगँ दान्तं रिपूणामपि वत्सलम्।
अवेक्षमाणः को धर्मं त्यजेत् पुत्रमकारणात्॥
‘धर्मपर दृष्टि रखने वाला कौन ऐसा राजा होगा, जो देवता के समान शुद्ध, सरल, जितेन्द्रिय और शत्रुओं पर भी स्नेह रखने वाले (श्रीराम-जैसे) पुत्र का अकारण परित्याग करेगा? ॥ ६॥
तदिदं वचनं राज्ञः पुनर्बाल्यमुपेयुषः।
पुत्रः को हृदये कुर्याद् राजवृत्तमनुस्मरन्॥७॥
‘जो पुनः बालभाव (विवेक शून्यता) को प्राप्त हो गये हैं, ऐसे राजा के इस वचन को राजनीति का ध्यान रखने वाला कौन पुत्र अपने हृदय में स्थान दे सकता है?
यावदेव न जानाति कश्चिदर्थमिमं नरः।
तावदेव मया सार्धमात्मस्थं कुरु शासनम्॥८॥
‘रघुनन्दन! जबतक कोई भी मनुष्य आपके वनवास की बात को नहीं जानता है, तब तक ही, आप मेरी सहायता से इस राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लीजिये॥८॥
मया पार्श्वे सधनुषा तव गुप्तस्य राघव।
कः समर्थोऽधिकं कर्तुं कृतान्तस्येव तिष्ठतः॥९॥
रघुवीर ! जब मैं धनुष लिये आपके पास रहकर आपकी रक्षा करता रहूँ और आप काल के समान युद्ध के लिये डट जायँ, उस समय आपसे अधिक पौरुष प्रकट करने में कौन समर्थ हो सकता है? ॥
निर्मनुष्यामिमां सर्वामयोध्यां मनुजर्षभ।
करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैर्यदि स्थास्यति विप्रिये॥ १०॥
‘नरश्रेष्ठ! यदि नगर के लोग विरोध में खड़े होंगे तो मैं अपने तीखे बाणों से सारी अयोध्या को मनुष्यों से सूनी कर दूंगा॥१०॥
भरतस्याथ पक्ष्यो वा यो वास्य हितमिच्छति।
सर्वांस्तांश्च वधिष्यामि मृदुर्हि परिभूयते॥११॥
‘जो-जो भरतका पक्ष लेगा अथवा केवल जो उन्हींका हित चाहेगा, उन सबका मैं वध कर डालूँगा; क्योंकि जो कोमल या नम्र होता है, उसका सभी तिरस्कार करते हैं।॥ ११॥
प्रोत्साहितोऽयं कैकेय्या संतुष्टो यदि नः पिता।
अमित्रभूतो निःसङ्गं वध्यतां वध्यतामपि॥१२॥
‘यदि कैकेयी के प्रोत्साहन देने पर उसके ऊपर – संतुष्ट हो पिताजी हमारे शत्रु बन रहे हैं तो हमें भी मोह-ममता छोड़कर इन्हें कैद कर लेना या मार डालना चाहिये॥ १२॥
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनम्॥१३॥
‘क्योंकि यदि गुरु भी घमंड में आकर कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दण्ड देना आवश्यक हो जाता है। १३॥
बलमेष किमाश्रित्य हेतुं वा पुरुषोत्तम।
दातुमिच्छति कैकेय्यै उपस्थितमिदं तव॥१४॥
‘पुरुषोत्तम! राजा किस बल का सहारा लेकर अथवा किस कारण को सामने रखकर आपको न्यायतः प्राप्त हुआ यह राज्य अब कैकेयी को देना चाहते हैं?॥
त्वया चैव मया चैव कृत्वा वैरमनुत्तमम्।
कास्य शक्तिः श्रियं दातुं भरतायारिशासन॥ १५॥
‘शत्रुदमन श्रीराम! आपके और मेरे साथ भारी वैर बाँधकर इनकी क्या शक्ति है कि यह राज्यलक्ष्मी ये भरत को दे दें? ॥ १५॥
अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वतः।
सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे॥१६॥
‘देवि! (बड़ी माँ!) मैं सत्य, धनुष, दान तथा यज्ञ आदि की शपथ खाकर तुमसे सच्ची बात कहता हूँ कि मेरा अपने पूज्य भ्राता श्रीराम में हार्दिक अनुराग है॥१६॥
दीप्तमग्निमरण्यं वा यदि रामः प्रवेक्ष्यति।
प्रविष्टं तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय॥१७॥
‘देवि! आप विश्वास रखें, यदि श्रीराम जलती हुई आग में या घोर वन में प्रवेश करने वाले होंगे तो मैं इनसे भी पहले उसमें प्रविष्ट हो जाऊँगा॥ १७॥
हरामि वीर्याद् दुःखं ते तमः सूर्य इवोदितः।
देवी पश्यतु मे वीर्यं राघवश्चैव पश्यतु॥१८॥
‘इस समय आप, रघुनाथ जी तथा अन्य सब लोग भी मेरे पराक्रम को देखें। जैसे सूर्य उदित होकर अन्धकार का नाश कर देता है, उसी प्रकार मैं भी अपनी शक्ति से आपके सब दुःख दूर कर दूंगा। १८॥
हनिष्ये पितरं वृद्धं कैकेय्यासक्तमानसम्।
कृपणं च स्थितं बाल्ये वृद्धभावेन गर्हितम्॥ १९॥
‘जो कैकेयी में आसक्तचित्त होकर दीन बन गये हैं, बालभाव (अविवेक) में स्थित हैं और अधिक बुढ़ापे के कारण निन्दित हो रहे हैं, उन वृद्ध पिता को मैं अवश्य मार डालूँगा’ ॥ १९ ॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य महात्मनः।
उवाच रामं कौसल्या रुदती शोकलालसा॥ २०॥
महामनस्वी लक्ष्मण के ये ओजस्वी वचन सुनकर शोकमग्न कौसल्या श्रीराम से रोती हुई बोलीं-॥ २०॥
भ्रातुस्ते वदतः पुत्र लक्ष्मणस्य श्रुतं त्वया।
यदत्रानन्तरं तत्त्वं कुरुष्व यदि रोचते॥२१॥
‘बेटा ! तुमने अपने भाई लक्ष्मण की कही हुई सारी बातें सुन लीं, यदि झुंचे तो अब इसके बाद तुम जो कुछ करना उचित समझो, उसे करो॥ २१ ॥
न चाधर्म्यं वचः श्रुत्वा सपत्न्या मम भाषितम्।
विहाय शोकसंतप्तां गन्तुमर्हसि मामितः॥२२॥
‘मेरी सौत की कही हुई अधर्मयुक्त बात सुनकर मुझ शोक से संतप्त हुई माता को छोड़कर तुम्हें यहाँ से नहीं जाना चाहिये॥ २२॥
धर्मज्ञ इति धर्मिष्ठ धर्मं चरितुमिच्छसि।
शुश्रूष मामिहस्थस्त्वं चर धर्ममनुत्तमम्॥ २३॥
“धर्मिष्ठ! तुम धर्म को जानने वाले हो, इसलिये यदि धर्म का पालन करना चाहो तो यहीं रहकर मेरी सेवा करो और इस प्रकार परम उत्तम धर्म का आचरण करो॥
शुश्रूषुर्जननीं पुत्र स्वगृहे नियतो वसन्।
परेण तपसा युक्तः काश्यपस्त्रिदिवं गतः॥२४॥
‘वत्स! अपने घर में नियम पूर्वक रहकर माता की सेवा करने वाले काश्यप उत्तम तपस्या से युक्त हो स्वर्गलोक में चले गये थे॥ २४॥
यथैव राजा पूज्यस्ते गौरवेण तथा ह्यहम्।
त्वां साहं नानुजानामि न गन्तव्यमितो वनम्॥ २५॥
‘जैसे गौरव के कारण राजा तुम्हारे पूज्य हैं, उसी प्रकार मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा नहीं देती, अतः तुम्हें यहाँ से वन को नहीं जाना चाहिये॥ २५ ॥
त्वद्वियोगान्न मे कार्यं जीवितेन सुखेन च।
त्वया सह मम श्रेयस्तृणानामपि भक्षणम्॥२६॥
‘तुम्हारे साथ तिनके चबाकर रहना भी मेरे लिये श्रेयस्कर है, परंतु तुमसे विलग हो जाने पर न मुझे इस जीवन से कोई प्रयोजन है और न सुख से॥२६॥
यदि त्वं यास्यसि वनं त्यक्त्वा मां शोकलालसाम्।
अहं प्रायमिहासिष्ये न च शक्ष्यामि जीवितुम्॥ २७॥
‘यदि तुम मुझे शोक में डूबी हुई छोड़कर वन को चले जाओगे तो मैं उपवास करके प्राण त्याग दूंगी, जीवित नहीं रह सकूँगी॥ २७॥
ततस्त्वं प्राप्स्यसे पुत्र निरयं लोकविश्रुतम्।
ब्रह्महत्यामिवाधर्मात् समुद्रः सरितां पतिः॥२८॥
‘बेटा! ऐसा होने पर तुम संसार प्रसिद्ध वह नरकतुल्य कष्ट पाओगे, जो ब्रह्महत्या के समान है और जिसे सरिताओं के स्वामी समुद्र ने अपने अधर्म के फलरूप से प्राप्त किया था’ ॥ २८॥
विलपन्तीं तथा दीनां कौसल्यां जननीं ततः।
उवाच रामो धर्मात्मा वचनं धर्मसंहितम्॥२९॥
माता कौसल्या को इस प्रकार दीन होकर विलाप करती देख धर्मात्मा श्रीरामचन्द्र ने यह धर्मयुक्त वचन कहा- ॥२९॥
नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम।
प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम्॥ ३०॥
‘माता! मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर तुम्हें प्रसन्न करना चाहता हूँ। मुझमें पिताजी की आज्ञा का उल्लङ्घन करने की शक्ति नहीं है, अतः मैं वन को ही जाना चाहता हूँ॥ ३०॥
ऋषिणा च पितुर्वाक्यं कुर्वता वनचारिणा।
गौर्हता जानताधर्मं कण्डुना च विपश्चिता॥ ३१॥
‘वनवासी विद्वान् कण्डु मुनि ने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अधर्म समझते हुए भी गौ का वध कर डाला था॥ ३१॥
अस्माकं तु कुले पूर्वं सगरस्याज्ञया पितुः।
खनद्भिः सागरैर्भूमिमवाप्तः सुमहान् वधः॥३२॥
‘हमारे कुल में भी पहले राजा सगर के पुत्र ऐसे हो गये हैं, जो पिता की आज्ञा से पृथ्वी खोदते हुए बुरी तरह से मारे गये॥ ३२॥
जामदग्न्येन रामेण रेणुका जननी स्वयम्।
कृत्ता परशुनारण्ये पितुर्वचनकारणात्॥ ३३॥
‘जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ही वन में फरसे से अपनी माता रेणुका का गला काट डाला था॥ ३३॥
एतैरन्यैश्च बहुभिर्देवि देवसमैः कृतम्।
पितर्वचनमक्लीबं करिष्यामि पितुर्हितम्॥३४॥
‘देवि! इन्होंने तथा और भी बहुत-से देवतुल्य मनुष्यों ने उत्साह के साथ पिता के आदेश का पालन किया है। अतः मैं भी कायरता छोड़कर पिता का हित-साधन करूँगा॥ ३४॥
न खल्वेतन्मयैकेन क्रियते पितृशासनम्।
एतैरपि कृतं देवि ये मया परिकीर्तिताः॥ ३५॥
‘देवि! केवल मैं ही इस प्रकार पिता के आदेश का पालन नहीं कर रहा हूँ। जिनकी मैंने अभी चर्चा की है, उन सबने भी पिता के आदेश का पालन किया है।
नाहं धर्ममपूर्वं ते प्रतिकूलं प्रवर्तये।
पूर्वैरयमभिप्रेतो गतो मार्गोऽनुगम्यते॥३६॥
‘मा! मैं तुम्हारे प्रतिकूल किसी नवीन धर्म का प्रचार नहीं कर रहा हूँ। पूर्वकाल के धर्मात्मा पुरुषों को भी यह अभीष्ट था। मैं तो उनके चले हुए मार्ग का ही अनुसरण करता हूँ॥ ३६॥
तदेतत् तु मया कार्यं क्रियते भुवि नान्यथा।
पितुर्हि वचनं कुर्वन् न कश्चिन्नाम हीयते॥ ३७॥
‘इस भूमण्डल पर जो सबके लिये करने योग्य है, वही मैं भी करने जा रहा हूँ। इसके विपरीत कोई न करने योग्य काम नहीं कर रहा हूँ। पिता की आज्ञा का पालन करने वाला कोई भी पुरुष धर्म से भ्रष्ट नहीं होता’॥
तामेवमुक्त्वा जननी लक्ष्मणं पुनरब्रवीत्।
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्॥ ३८॥
अपनी माता से ऐसा कहकर वाक्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ समस्त धनुर्धरशिरोमणि श्रीराम ने पुनः लक्ष्मण से कहा – ॥ ३८॥
तव लक्ष्मण जानामि मयि स्नेहमनुत्तमम्।
विक्रमं चैव सत्त्वं च तेजश्च सुदुरासदम्॥३९॥
‘लक्ष्मण ! मेरे प्रति तुम्हारा जो परम उत्तम स्नेह है, उसे मैं जानता हूँ। तुम्हारे पराक्रम, धैर्य और दुर्धर्ष तेज का भी मुझे ज्ञान है॥ ३९॥
मम मातुर्महद् दुःखमतुलं शुभलक्षण।
अभिप्रायं न विज्ञाय सत्यस्य च शमस्य च॥ ४०॥
‘शुभलक्षण लक्ष्मण ! मेरी माता को जो अनुपम एवं महान् दुःख हो रहा है, वह सत्य और शम के विषय में मेरे अभिप्राय को न समझने के कारण है।॥ ४० ॥
धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्।
धर्मसंश्रितमप्येतत् पितुर्वचनमुत्तमम्॥४१॥
‘संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। पिताजी का यह वचन भी धर्म के आश्रित होने के कारण परम उत्तम है॥ ४१॥
संश्रुत्य च पितुर्वाक्यं मातुर्वा ब्राह्मणस्य वा।
न कर्तव्यं वृथा वीर धर्ममाश्रित्य तिष्ठता॥४२॥
‘वीर! धर्म का आश्रय लेकर रहने वाले पुरुष को पिता, माता अथवा ब्राह्मण के वचनों का पालन करने की प्रतिज्ञा करके उसे मिथ्या नहीं करना चाहिये॥ ४२ ॥
सोऽहं न शक्ष्यामि पुनर्नियोगमतिवर्तितुम्।
पितुर्हि वचनाद् वीर कैकेय्याह प्रचोदितः॥४३॥
‘वीर! अतः मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं कर सकता; क्योंकि पिताजी के कहने से ही कैकेयी ने मुझे वन में जाने की आज्ञा दी है॥ ४३॥
तदेतां विसृजानार्यां क्षत्रधर्माश्रितां मतिम्।
धर्ममाश्रय मा तैक्ष्ण्यं मबुद्धिरनुगम्यताम्॥ ४४॥
‘इसलिये केवल क्षात्रधर्म का अवलम्बन करने वाली इस ओछी बुद्धि का त्याग करो, धर्म का आश्रय लो, कठोरता छोड़ो और मेरे विचार के अनुसार चलो’ ॥ ४४॥
तमेवमुक्त्वा सौहार्दाद् भ्रातरं लक्ष्मणाग्रजः।
उवाच भूयः कौसल्यां प्राञ्जलिः शिरसा नतः॥ ४५॥
अपने भाई लक्ष्मण से सौहार्दवश ऐसी बात कहकर उनके बड़े भ्राता श्रीराम ने पुनः कौसल्या के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ॥ ४५ ॥
अनुमन्यस्व मां देवि गमिष्यन्तमितो वनम्।
शापितासि मम प्राणैः कुरु स्वस्त्ययनानि मे॥ ४६॥
‘देवि! मैं यहाँ से वन को जाऊँगा। तुम मुझे आज्ञा दो और स्वस्तिवाचन कराओ। यह बात मैं अपने प्राणों की शपथ दिलाकर कहता हूँ॥ ४६॥
तीर्णप्रतिज्ञश्च वनात् पुनरेष्याम्यहं पुरीम्।
ययातिरिव राजर्षिः पुरा हित्वा पुनर्दिवम्॥४७॥
‘जैसे पूर्वकाल में राजर्षि ययाति स्वर्गलोक का त्याग करके पुनः भूतल पर उतर आये थे, उसी प्रकार मैं भी प्रतिज्ञा पूर्ण करके पुनः वन से अयोध्यापुरी को लौट आऊँगा॥ ४७॥
शोकः संधार्यतां मातर्हृदये साधु मा शुचः।
वनवासादिहैष्यामि पुनः कृत्वा पितुर्वचः॥४८॥
‘मा! शोक को अपने हृदय में ही अच्छी तरह दबाये रखो। शोक न करो। पिता की आज्ञा का पालन करके मैं फिर वनवास से यहाँ लौट आऊँगा॥४८॥
त्वया मया च वैदेह्या लक्ष्मणेन सुमित्रया।
पितर्नियोगे स्थातव्यमेष धर्मः सनातनः॥४९॥
‘तुमको, मुझको, सीता को, लक्ष्मण को और माता सुमित्रा को भी पिताजी की आज्ञा में ही रहना चाहिये। यही सनातन धर्म है॥ ४९॥
अम्ब सम्भृत्य सम्भारान् दुःखं हृदि निगृह्य च।
वनवासकृता बुद्धिर्मम धानुवर्त्यताम्॥५०॥
‘मा! यह अभिषेक की सामग्री ले जाकर रख दो। अपने मन का दुःख मन में ही दबा लो और वनवास के सम्बन्ध में जो मेरा धर्मानुकूल विचार है, उसका अनुसरण करो—मुझे जाने की आज्ञा दो’ ॥ ५० ॥
एतद् वचस्तस्य निशम्य माता सुधर्म्यमव्यग्रमविक्लवं च।
मृतेव संज्ञां प्रतिलभ्य देवी समीक्ष्य रामं पुनरित्युवाच॥५१॥
श्रीरामचन्द्रजी की यह धर्मानुकूल तथा व्यग्रता और आकुलता से रहित बात सुनकर जैसे मरे हुए मनुष्य में प्राण आ जाय, उसी प्रकार देवी कौसल्या मर्छा त्यागकर होश में आ गयीं तथा अपने पुत्र श्रीराम की ओर देखकर इस प्रकार कहने लगीं- ॥५१॥
यथैव ते पुत्र पिता तथाहं गुरुः स्वधर्मेण सुहृत्तया च।
न त्वानुजानामि न मां विहाय सुदुःखितामर्हसि पुत्र गन्तुम्॥५२॥
‘बेटा! धर्म और सौहार्द के नाते जैसे पिता तुम्हारे लिये आदरणीय गुरुजन हैं, वैसी ही मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन में जाने की आज्ञा नहीं देती। वत्स! मुझ दुःखिया को छोड़कर तुम्हें कहीं नहीं जाना चाहिये। ५२॥
किं जीवितेनेह विना त्वया मे लोकेन वा किं स्वधयामृतेन।
श्रेयो मुहर्तं तव संनिधानं ममैव कृत्स्नादपि जीवलोकात्॥५३॥
‘तुम्हारे बिना मुझे यहाँ इस जीवन से क्या लाभ है ? इन स्वजनों से, देवता तथा पितरों की पूजा से और अमृत से भी क्या लेना है? तुम दो घड़ी भी मेरे पास रहो तो वही मेरे लिये सम्पूर्ण संसार के राज्य से भी बढ़कर सुख देनेवाला है’ ॥ ५३ ॥
नरैरिवोल्काभिरपोह्यमानो महागजो ध्वान्तमभिप्रविष्टः।
भूयः प्रजज्वाल विलापमेवं निशम्य रामः करुणं जनन्याः॥५४॥
जैसे कोई विशाल गजराज किसी अन्धकूप में पड़ जाय और लोग उसे जलते लुआठों से मार-मारकर पीडित करने लगें, उस दशा में वह क्रोध से जल उठे; उसी प्रकार श्रीराम भी माता का बारंबार करुण विलाप सुनकर (इसे स्वधर्मपालन में बाधा मानकर) आवेश में भर गये। (वन में जाने का ही दृढ़ निश्चय कर लिया) ॥५४॥
स मातरं चैव विसंज्ञकल्पामार्तं च सौमित्रिमभिप्रतप्तम्।
धर्मे स्थितो धर्म्यमुवाच वाक्यं यथा स एवार्हति तत्र वक्तुम्॥५५॥
उन्होंने धर्म में ही दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर अचेत सी हो रही माता से और आर्त एवं संतप्त हुए सुमित्रा कुमार लक्ष्मण से भी ऐसी धर्मानुकूल बात कही, जैसी उस अवसर पर वे ही कह सकते थे। ५५॥
अहं हि ते लक्ष्मण नित्यमेव जानामि भक्तिं च पराक्रमं च।
मम त्वभिप्रायमसंनिरीक्ष्य मात्रा सहाभ्यर्दसि मा सुदुःखम्॥५६॥
‘लक्ष्मण ! मैं जानता हूँ, तुम सदा ही मुझमें भक्ति रखते हो और तुम्हारा पराक्रम कितना महान् है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है; तथापि तुम मेरे अभिप्राय की ओर ध्यान न देकर माताजी के साथ स्वयं भी मुझे पीड़ा दे रहे हो। इस तरह मुझे अत्यन्त दुःख में न डालो॥५६॥
धर्मार्थकामाः खलु जीवलोके समीक्षिता धर्मफलोदयेषु।
ये तत्र सर्वे स्युरसंशयं मे भार्येव वश्याभिमता सपुत्रा॥५७॥
‘इस जीवजगत् में पूर्वकृत धर्म के फल की प्राप्ति के अवसरों पर जो धर्म, अर्थ और काम तीनों देखे गये हैं, वे सब-के-सब जहाँ धर्म है, वहाँ अवश्य प्राप्त होते हैं—इसमें संशय नहीं है; ठीक उसी तरह जैसे भार्या धर्म, अर्थ और काम तीनों की साधन होती है। वह पति के वशीभूत या अनुकूल रहकर अतिथिसत्कार आदि धर् के पालन में सहायक होती है। प्रेयसीरूप से काम का साधन बनती है और पुत्रवती होकर उत्तम लोक की प्राप्तिरूप अर्थ की साधिका होती है।। ५७॥
यस्मिंस्तु सर्वे स्युरसंनिविष्टा धर्मो यतः स्यात् तदुपक्रमेत।
द्वेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥५८॥
‘जिस कर्ममें धर्म आदि सब पुरुषार्थोंका समावेश । न हो, उसको नहीं करना चाहिये। जिससे धर्मकी सिद्धि होती हो, उसीका आरम्भ करना चाहिये। जो केवल अर्थपरायण होता है, वह लोकमें सबके द्वेषका पात्र बन जाता है तथा धर्मविरुद्ध काममें अत्यन्त आसक्त होना प्रशंसा नहीं, निन्दाकी बात है। ५८॥
गुरुश्च राजा च पिता च वृद्धः क्रोधात् प्रहर्षादथवापि कामात्।
यद् व्यादिशेत् कार्यमवेक्ष्य धर्म कस्तं न कुर्यादनृशंसवृत्तिः॥५९॥
‘महाराज हमलोगों के गुरु, राजा और पिता होने के साथ ही बड़े-बूढ़े माननीय पुरुष हैं। वे क्रोध से, हर्ष से अथवा काम से प्रेरित होकर भी यदि किसी कार्य के लिये आज्ञा दें तो हमें धर्म समझकर उसका पालन करना चाहिये। जिसके आचरणों में क्रूरता नहीं है, ऐसा कौन पुरुष पिता की आज्ञा के पालन रूप धर्म का आचरण नहीं करेगा॥ ५९॥
न तेन शक्नोमि पितुः प्रतिज्ञामिमां न कर्तुं सकलां यथावत्।
स ह्यावयोस्तात गुरुर्नियोगे देव्याश्च भर्ता स गतिश्च धर्मः॥६०॥
‘इसलिये मैं पिता की इस सम्पूर्ण प्रतिज्ञा का यथावत् पालन करने से मुँह नहीं मोड़ सकता। तात लक्ष्मण! वे हम दोनों को आज्ञा देने में समर्थ गुरु हैं और माताजी के तो वे ही पति, गति तथा धर्म हैं। ६०॥
तस्मिन् पुनर्जीवति धर्मराजे विशेषतः स्वे पथि वर्तमाने।
देवी मया सार्धमितोऽभिगच्छेत् कथंस्विदन्या विधवेव नारी॥६१॥
‘वे धर्म के प्रवर्तक महाराज अभी जीवित हैं और विशेषतः अपने धर्ममय मार्गपर स्थित हैं, ऐसी दशा में माताजी, जैसे दूसरी कोई विधवा स्त्री बेटे के साथ रहती है, उस प्रकार मेरे साथ यहाँ से वन में कैसे चल सकती हैं? ॥ ६१॥
सा मानुमन्यस्व वनं व्रजन्तं कुरुष्व नः स्वस्त्ययनानि देवि।
यथा समाप्ते पुनराव्रजेयं यथा हि सत्येन पुनर्ययातिः॥६२॥
‘अतः देवि! तुम मुझे वन में जाने की आज्ञा दो और हमारे मङ्गल के लिये स्वस्तिवाचन कराओ, जिससे वनवास की अवधि समाप्त होने पर मैं फिर तुम्हारी सेवा में आ जाऊँ। जैसे राजा ययाति सत्य के प्रभाव से फिर स्वर्गमें लौट आये थे॥६२॥
यशो ह्यहं केवलराज्यकारणान्न पृष्ठतः कर्तुमलं महोदयम्।
अदीर्घकालेन तु देवि जीविते वृणेऽवरामद्य महीमधर्मतः॥६३॥
केवल धर्महीन राज्य के लिये मैं महान् फलदायक धर्मपालनरूप सुयश को पीछे नहीं ढकेल सकता। मा! जीवन अधिक कालतक रहने वाला नहीं है; इसके लिये मैं आज अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता’ ॥ ६३॥
प्रसादयन्नरवृषभः स मातरं पराक्रमाज्जिगमिषुरेव दण्डकान्।
अथानुजं भृशमनुशास्य दर्शनं चकार तां हृदि जननीं प्रदक्षिणम्॥६४॥
इस प्रकार नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने धैर्यपूर्वक दण्डकारण्य में जाने की इच्छा से माता को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया तथा अपने छोटे भाई लक्ष्मण को भी अपने विचार के अनुसार भलीभाँति धर्म का रहस्य समझाकर मन-ही-मन माता की परिक्रमा करने का संकल्प किया।
सर्ग २२
अथ तं व्यथया दीनं सविशेषममर्षितम्।
सरोषमिव नागेन्द्रं रोषविस्फारितेक्षणम्॥१॥
आसाद्य रामः सौमित्रिं सुहृदं भ्रातरं प्रियम्।
उवाचेदं स धैर्येण धारयन् सत्त्वमात्मवान्॥२॥
(श्रीराम के राज्याभिषेक में विघ्न पड़ने के कारण) सुमित्राकुमार लक्ष्मण मानसिक व्यथा से बहुत दुःखी थे। उनके मन में विशेष अमर्ष भरा हुआ था। वे रोष से भरे हए गजराज की भाँति क्रोध से आँखें फाड़फाड़कर देख रहे थे। अपने मन को वश में रखने वाले श्रीराम धैर्यपूर्वक चित्त को निर्विकाररूप से काबू में रखते हुए अपने हितैषी सुहृद् प्रिय भाई लक्ष्मण के पास जाकर इस प्रकार बोले- ॥ १-२॥
निगृह्य रोषं शोकं च धैर्यमाश्रित्य केवलम्।
अवमानं निरस्यैनं गृहीत्वा हर्षमुत्तमम्॥३॥
उपक्लुप्तं यदैतन्मे अभिषेकार्थमुत्तमम्।
सर्वं निवर्तय क्षिप्रं कुरु कार्यं निरव्ययम्॥४॥
‘लक्ष्मण! केवल धैर्य का आश्रय लेकर अपने मन के क्रोध और शोक को दूर करो, चित्त से अपमान की भावना निकाल दो और हृदय में भलीभाँति हर्ष भरकर मेरे अभिषेक के लिये यह जो उत्तम सामग्री एकत्र की गयी है, इसे शीघ्र हटा दो और ऐसा कार्य करो, जिससे मेरे वनगमन में बाधा उपस्थित न हो॥३-४॥
सौमित्रे योऽभिषेकार्थे मम सम्भारसम्भ्रमः।
अभिषेकनिवृत्त्यर्थे सोऽस्तु सम्भारसम्भ्रमः॥५॥
‘सुमित्रानन्दन! अबतक अभिषेक के लिये सामग्री जुटाने में जो तुम्हारा उत्साह था, वह इसे रोकने और मेरे वन जाने की तैयारी करने में होना चाहिये॥५॥
यस्या मदभिषेकार्थे मानसं परितप्यते।
माता नः सा यथा न स्यात् सविशङ्का तथा कुरु॥ ६ ॥
मेरे अभिषेक के कारण जिसके चित्त में संताप हो रहा है, उस हमारी माता कैकेयी को जिससे किसी तरह की शङ्का न रह जाय, वही काम करो॥६॥
तस्याः शङ्कामयं दुःखं मुहूर्तमपि नोत्सहे।
मनसि प्रतिसंजातं सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम्॥७॥
‘लक्ष्मण! उसके मन में संदेह के कारण दुःख उत्पन्न हो, इस बात को मैं दो घड़ी के लिये भी नहीं सह सकता और न इसकी उपेक्षा ही कर सकता हूँ।
न बुद्धिपूर्वं नाबुद्धं स्मरामीह कदाचन।
मातृणां वा पितुहिं कृतमल्पं च विप्रियम्॥८॥
‘मैंने यहाँ कभी जान-बूझकर या अनजान में माताओं का अथवा पिताजी का कोई छोटा-सा भी अपराध किया हो, ऐसा याद नहीं आता॥ ८॥
सत्यः सत्याभिसंधश्च नित्यं सत्यपराक्रमः।
परलोकभयाद् भीतो निर्भयोऽस्तु पिता मम॥९॥
‘पिताजी सदा सत्यवादी और सत्यपराक्रमी रहे हैं।वे परलोक के भय से सदा डरते रहते हैं; इसलिये मुझे वही काम करना चाहिये, जिससे मेरे पिताजी का पारलौकिक भय दूर हो जाय॥९॥
तस्यापि हि भवेदस्मिन् कर्मण्यप्रतिसंहृते।
सत्यं नेति मनस्तापस्तस्य तापस्तपेच्च माम्॥ १०॥
‘यदि इस अभिषेकसम्बन्धी कार्य को रोक नहीं दिया गया तो पिताजी को भी मन-ही-मन यह सोचकर संताप होगा कि मेरी बात सच्ची नहीं हुई और उनका वह मनस्ताप मुझे सदा संतप्त करता रहेगा॥ १० ॥
अभिषेकविधानं तु तस्मात् संहृत्य लक्ष्मण।
अन्वगेवाहमिच्छामि वनं गन्तुमितः पुरः॥११॥
“लक्ष्मण! इन्हीं सब कारणों से मैं अपने अभिषेक का कार्य रोककर शीघ्र ही इस नगर से वन को चला जाना चाहता हूँ॥ ११॥
मम प्रव्राजनादद्य कृतकृत्या नृपात्मजा।
सुतं भरतमव्यग्रमभिषेचयतां ततः॥१२॥
‘आज मेरे चले जाने से कृतकृत्य हुई राजकुमारी कैकेयी अपने पुत्र भरत का निर्भय एवं निश्चिन्त होकर अभिषेक करावे॥ १२॥
मयि चीराजिनधरे जटामण्डलधारिणि।
गतेऽरण्यं च कैकेय्या भविष्यति मनः सुखम्॥ १३॥
‘मैं वल्कल और मृगचर्म धारण करके सिर पर जटाजूट बाँधे जब वन को चला जाऊँगा, तभी कैकेयी के मन को सुख प्राप्त होगा॥ १३॥
बुद्धिः प्रणीता येनेयं मनश्च सुसमाहितम्।
तं नु नार्हामि संक्लेष्टुं प्रव्रजिष्यामि मा चिरम्॥ १४॥
‘जिस विधाता ने कैकेयी को ऐसी बुद्धि प्रदान की है तथा जिसकी प्रेरणा से उसका मन मुझे वन भेजने में अत्यन्त दृढ़ हो गया है, उसे विफल मनोरथ करके कष्ट देना मेरे लिये उचित नहीं है।॥ १४ ॥
कृतान्त एव सौमित्रे द्रष्टव्यो मत्प्रवासने।
राज्यस्य च वितीर्णस्य पुनरेव निवर्तने॥ १५॥
‘सुमित्राकुमार! मेरे इस प्रवास में तथा पिताद्वारा दिये हुए राज्य के फिर हाथ से निकल जाने में दैव को ही कारण समझना चाहिये॥ १५ ॥
कैकेय्याः प्रतिपत्तिर्हि कथं स्यान्मम वेदने।
यदि तस्या न भावोऽयं कृतान्तविहितो भवेत्॥ १६॥
‘मेरी समझसे कैकेयी का यह विपरीत मनोभाव दैव का ही विधान है। यदि ऐसा न होता तो वह मुझे वन में भेजकर पीड़ा देने का विचार क्यों करती॥ १६ ॥
जानासि हि यथा सौम्य न मातृषु ममान्तरम्।
भूतपूर्वं विशेषो वा तस्या मयि सुतेऽपि वा॥ १७॥
‘सौम्य! तुम तो जानते ही हो कि मेरे मन में पहले भी कभी माताओं के प्रति भेदभाव नहीं हुआ और कैकेयी भी पहले मुझमें या अपने पुत्र में कोई अन्तर नहीं समझती थी॥ १७॥
सोऽभिषेकनिवृत्त्यर्थैः प्रवासाथैश्च दुर्वचैः।
उग्रैर्वाक्यैरहं तस्या नान्यद् दैवात् समर्थये ॥१८॥
‘मेरे अभिषेक को रोकने और मुझे वन में भेजने के लिये उसने राजा को प्रेरित करने के निमित्त जिन भयंकर और कटुवचनों का प्रयोग किया है, उन्हें साधारण मनुष्यों के लिये भी मुँह से निकालना कठिन है। उसकी ऐसी चेष्टा में मैं दैव के सिवा दूसरे किसी कारण का समर्थन नहीं करता॥ १८॥
कथं प्रकृतिसम्पन्ना राजपुत्री तथागुणा।
ब्रूयात् सा प्राकृतेव स्त्री मत्पीड्यं भर्तृसंनिधौ॥ १९॥
‘यदि ऐसी बात न होती तो वैसे उत्तम स्वभाव और श्रेष्ठ गुणों से युक्त राजकुमारी कैकेयी एक साधारण स्त्री की भाँति अपने पति के समीप मुझे पीड़ा देनेवाली बात कैसे कहती—मुझे कष्ट देने के लिये राम को वन में भेजने का प्रस्ताव कैसे उपस्थित करती। १९॥
यदचिन्त्यं तु तद् दैवं भूतेष्वपि न हन्यते।
व्यक्तं मयि च तस्यां च पतितो हि विपर्ययः॥ २०॥
‘जिसके विषय में कभी कुछ सोचा न गया हो, वही दैव का विधान है। प्राणियों में अथवा उनके अधिष्ठाता देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं है, जो उस दैव के विधान को मेट सके अतः निश्चय ही उसी की प्रेरणा से मुझमें और कैकेयी में यह भारी उलट-फेर हुआ है (मेरे हाथ में आया हुआ राज्य चला गया और कैकेयी की बुद्धि बदल गयी) ॥ २० ॥
कश्च दैवेन सौमित्रे योद्धमुत्सहते पुमान्।
यस्य नु ग्रहणं किंचित् कर्मणोऽन्यन्न दृश्यते॥ २१॥
सुमित्रानन्दन! कर्मों के सुख-दुःखादि रूप फल प्राप्त होने पर ही जिसका ज्ञान होता है, कर्मफल से अन्यत्र कहीं भी जिसका पता नहीं चलता, उस दैव के साथ कौन पुरुष युद्ध कर सकता है ? ॥ २१॥
सुखदुःखे भयक्रोधौ लाभालाभौ भवाभवौ।
यस्य किंचित् तथाभूतं ननु दैवस्य कर्म तत्॥ २२॥
‘सुख-दुःख, भय-क्रोध (क्षोभ), लाभ-हानि, उत्पत्ति और विनाश तथा इस प्रकार के और भी जितने परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका कोई कारण समझ में नहीं आता, वे सब दैव के ही कर्म हैं ॥ २२ ॥
ऋषयोऽप्युग्रतपसो दैवेनाभिप्रचोदिताः।
उत्सृज्य नियमांस्तीव्रान् भ्रश्यन्ते काममन्युभिः॥ २३॥
‘उग्र तपस्वी ऋषि भी दैव से प्रेरित होकर अपने तीव्र नियमों को छोड़ बैठते और काम-क्रोध के द्वारा विवश हो मर्यादा से भ्रष्ट हो जाते हैं।। २३॥
असंकल्पितमेवेह यदकस्मात् प्रवर्तते।
निवारब्धमारम्भैर्ननु दैवस्य कर्म तत्॥२४॥
‘जो बात बिना सोचे-विचारे अकस्मात् सिर पर आ पड़ती है और प्रयत्नों द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य को रोककर एक नया ही काण्ड उपस्थित कर देती है, अवश्य वह दैव का ही विधान है॥२४॥
एतया तत्त्वया बुद्ध्या संस्तभ्यात्मानमात्मना।
व्याहतेऽप्यभिषेके मे परितापो न विद्यते॥ २५॥
‘इस तात्त्विक बुद्धि के द्वारा स्वयं ही मन को स्थिर कर लेने के कारण मुझे अपने अभिषेक में विघ्न पड़ जाने पर भी दुःख या संताप नहीं हो रहा है॥ २५ ॥
तस्मादपरितापः संस्त्वमप्यनविधाय माम्।
प्रतिसंहारय क्षिप्रमाभिषेचनिकी क्रियाम्॥२६॥
‘इसी प्रकार तुम भी मेरे विचार का अनुसरण करके संताप शून्य हो राज्याभिषेक के इस आयोजन को शीघ्र बंद करा दो॥ २६॥
एभिरेव घटैः सर्वैरभिषेचनसम्भृतैः।
मम लक्ष्मण तापस्ये व्रतस्नानं भविष्यति॥२७॥
‘लक्ष्मण! राज्याभिषेक के लिये सँजोकर रखे गये इन्हीं सब कलशों द्वारा मेरा तापस-व्रत के संकल्प के लिये आवश्यक स्नान होगा॥ २७॥
अथवा किं मयैतेन राज्यद्रव्यमयेन तु।
उद्धृतं मे स्वयं तोयं व्रतादेशं करिष्यति ॥२८॥
‘अथवा राज्याभिषेक सम्बन्धी मङ्गल द्रव्यमय इस कलश जल की मुझे क्या आवश्यकता है? स्वयं मेरे द्वारा अपने हाथ से निकाला हुआ जल ही मेरे व्रतादेश का साधक होगा।॥ २८॥
मा च लक्ष्मण संतापं कार्षीर्लक्ष्या विपर्यये।
राज्यं वा वनवासो वा वनवासो महोदयः॥२९॥
‘लक्ष्मण! लक्ष्मी के इस उलट-फेर के विषय में तुम कोई चिन्ता न करो। मेरे लिये राज्य अथवा वनवास दोनों समान हैं, बल्कि विशेष विचार करने पर वनवास ही महान् अभ्युदयकारी प्रतीत होता है। २९॥
न लक्ष्मणास्मिन् मम राज्यविघ्ने माता यवीयस्यभिशङ्कितव्या।
दैवाभिपन्ना न पिता कथंचिज्जानासि दैवं हि तथाप्रभावम्॥३०॥
‘लक्ष्मण! मेरे राज्याभिषेक में जो विघ्न आया है, इसमें मेरी सबसे छोटी माता कारण है, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वह दैव के अधीन थी। इसी प्रकार पिताजी भी किसी तरह इसमें कारण नहीं हैं। तुम तो दैव और उसके अद्भुत प्रभाव को जानते ही हो, वही कारण है ॥३०॥
सर्ग २३
इति ब्रुवति रामे तु लक्ष्मणोऽवाक् शिरा इव।
ध्यात्वा मध्यं जगामाशु सहसा दैन्यहर्षयोः॥१॥
श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय लक्ष्मण सिर झुकाये कुछ सोचते रहे; फिर सहसा शीघ्रतापूर्वक वे दुःख और हर्ष के बीच की स्थिति में आ गये (श्रीराम के राज्याभिषेक में विघ्न पड़ने के कारण उन्हें दुःख हुआ और उनकी धर्म में दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई)॥
तदा तु बद्ध्वा भ्रुकुटी ध्रुवोर्मध्ये नरर्षभः।
निशश्वास महासर्पो बिलस्थ इव रोषितः॥२॥
नरश्रेष्ठ लक्ष्मण ने उस समय ललाट में भौंहों को चढ़ाकर लंबी साँस खींचना आरम्भ किया, मानो बिल में बैठा हुआ महान् सर्प रोष में भरकर फुकार मार रहा हो॥
तस्य दुष्प्रतिवीक्ष्यं तद् भृकुटीसहितं तदा।
बभौ क्रुद्धस्य सिंहस्य मुखस्य सदृशं मुखम्॥३॥
तनी हुई भौंहों के साथ उस समय उनका मुख कुपित हुए सिंह के मुख के समान जान पड़ता था, उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था॥३॥
अग्रहस्तं विधुन्वंस्तु हस्ती हस्तमिवात्मनः।
तिर्यगूर्ध्वं शरीरे च पातयित्वा शिरोधराम्॥४॥
अग्राक्ष्णा वीक्षमाणस्तु तिर्यग्भ्रातरमब्रवीत्।
जैसे हाथी अपनी सूंड हिलाया करता है, उसी प्रकार वे अपने दाहिने हाथ को हिलाते और गर्दन को शरीर में ऊपर-नीचे और अगल-बगल सब ओर घुमाते हुए नेत्रों के अग्रभाग से टेढ़ी नजरों द्वारा अपने भाई श्रीराम को देखकर उनसे बोले- ॥ ४ १/२॥
अस्थाने सम्भ्रमो यस्य जातो वै सुमहानयम्॥५॥
धर्मदोषप्रसङ्गेन लोकस्यानतिशङ्कया।
कथं ह्येतदसम्भ्रान्तस्त्वद्विधो वक्तुमर्हति॥६॥
यथा ह्येवमशौण्डीरं शौण्डीरः क्षत्रियर्षभः।
किं नाम कृपणं दैवमशक्तमभिशंससि॥७॥
‘भैया! आप समझते हैं कि यदि पिता की इस आज्ञा का पालन करने के लिये मैं वन को न जाऊँ तो धर्म के विरोध का प्रसङ्ग उपस्थित होता है, इसके सिवा लोगों के मन में यह बड़ी भारी शङ्का उठ खड़ी होगी कि जो पिता की आज्ञा का उल्लङ्घन करता है, वह यदि राजा ही हो जाय तो हमारा धर्मपूर्वक पालन कैसे करेगा? साथ ही आप यह भी सोचते हैं कि यदि मैं पिता की इस आज्ञा का पालन नहीं करूँ तो दूसरे लोग भी नहीं करेंगे। इस प्रकार धर्म की अवहेलना होने से जगत् के विनाश का भय उपस्थित होगा। इन सब दोषों और शङ्काओं का निराकरण करने के लिये आपके मन में वनगमन के प्रति जो यह बड़ा भारी सम्भ्रम (उतावलापन) आ गया है, यह सर्वथा अनुचित एवं भ्रममूलक ही है; क्योंकि आप असमर्थ ‘दैव’ नामक तुच्छ वस्तु को प्रबल बता रहे हैं। दैव का निराकरण करने में समर्थ आप-जैसा क्षत्रियशिरोमणि वीर यदि भ्रम में नहीं पड़ गया होता तो ऐसी बात कैसे कह सकता था? अतः असमर्थ पुरुषों द्वारा ही अपनाये जाने योग्य और पौरुष के निकट कुछ भी करनेमें असमर्थ ‘दैव’ की आप साधारण मनुष्य के समान इतनी स्तुति या प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? ॥ ५-७॥
पापयोस्ते कथं नाम तयोः शङ्का न विद्यते।
सन्ति धर्मोपधासक्ता धर्मात्मन् किं न बुध्यसे॥ ८॥
‘धर्मात्मन् ! आपको उन दोनों पापियों पर संदेह क्यों नहीं होता? संसार में कितने ही ऐसे पापासक्त मनुष्य हैं, जो दूसरों को ठगने के लिये धर्म का ढोंग बनाये रहते हैं, क्या आप उन्हें नहीं जानते हैं? ॥ ८॥
तयोः सुचरितं स्वार्थं शाठ्यात् परिजिहीर्षतोः।
यदि नैवं व्यवसितं स्याद्धि प्रागेव राघव।
तयोः प्रागेव दत्तश्च स्याद् वरः प्रकृतश्च सः॥ ९॥
‘रघुनन्दन! वे दोनों अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये शठतावश धर्म के बहाने आप-जैसे सच्चरित्र पुरुष का परित्याग करना चाहते हैं। यदि उनका ऐसा विचार न होता तो जो कार्य आज हुआ है, वह पहले ही हो गया होता। यदि वरदान वाली बात सच्ची होती तो आपके अभिषेक का कार्य प्रारम्भ होने से पहले ही इस तरह का वर दे दिया गया होता॥९॥
लोकविदिष्टमारब्धं त्वदन्यस्याभिषेचनम्।
नोत्सहे सहितुं वीर तत्र मे क्षन्तुमर्हसि॥१०॥
(गुणवान् ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए छोटे का अभिषेक करना) यह लोकविरुद्ध कार्य है, जिसका आज आरम्भ किया गया है। आपके सिवा दूसरे किसी का राज्याभिषेक हो, यह मुझसे सहन नहीं होग। इसके लिये आप मुझे क्षमा करेंगे॥ १० ॥
येनैवमागता द्वैधं तव बुद्धिर्महामते।
सोऽपि धर्मो मम द्वेष्यो यत्प्रसङ्गाद् विमुह्यसि॥ ११॥
‘महामते! पिता के जिस वचन को मानकर आप मोह में पड़े हुए हैं और जिसके कारण आपकी बुद्धि में दुविधा उत्पन्न हो गयी है, मैं उसे धर्म मानने का पक्षपाती नहीं हूँ; ऐसे धर्म का तो मैं घोर विरोध करता हूँ॥ ११॥
कथं त्वं कर्मणा शक्तः कैकेयीवशवर्तिनः।
करिष्यसि पितर्वाक्यमधर्मिष्ठं विगर्हितम्॥१२॥
‘आप अपने पराक्रमसे सब कुछ करनेमें समर्थ होकर भी कैकेयीके वशमें रहनेवाले पिताके अधर्मपूर्ण एवं निन्दित वचनका पालन कैसे करेंगे? ॥ १२॥
यदयं किल्बिषाद् भेदः कृतोऽप्येवं न गृह्यते।
जायते तत्र मे दुःखं धर्मसङ्गश्च गर्हितः॥१३॥
‘वरदान की झूठी कल्पना का पाप करके आपके अभिषेक में रोड़ा अटकाया गया है, फिर भी आप इस रूप में नहीं ग्रहण करते हैं। इसके लिये मेरे मन में बड़ा दुःख होता है। ऐसे कपटपूर्ण धर्म के प्रति होने वाली आसक्ति निन्दित है॥ १३॥
तवायं धर्मसंयोगो लोकस्यास्य विगर्हितः।
मनसापि कथं कामं कुर्यात् त्वां कामवृत्तयोः।
तयोस्त्वहितयोर्नित्यं शञ्चोः पित्रभिधानयोः॥ १४॥
‘ऐसे पाखण्डपूर्ण धर्म के पालन में जो आपकी प्रवृत्ति हो रही है, वह यहाँ के जनसमुदाय की दृष्टि में निन्दित है। आपके सिवा दूसरा कोई पुरुष सदा पुत्र का अहित करने वाले, पिता-माता नामधारी उन कामाचारी शत्रुओं के मनोरथ को मन से भी कैसे पूर्ण कर सकता है (उसकी पूर्ति का विचार भी मन में कैसे ला सकता है?) ॥ १४॥
यद्यपि प्रतिपत्तिस्ते दैवी चापि तयोर्मतम।
तथाप्युपेक्षणीयं ते न मे तदपि रोचते॥१५॥
‘माता-पिता के इस विचार को कि–’आपका राज्याभिषेक न हो’ जो आप दैव की प्रेरणा का फल मानते हैं, यह भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यद्यपि वह आपका मत है, तथापि आपको उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये॥ १५ ॥
विक्लवो वीर्यहीनो यः स दैवमनुवर्तते।
वीराः सम्भावितात्मानो न दैवं पर्युपासते॥१६॥
‘जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। सारा संसार जिन्हें आदर की दृष्टि से देखता है, वे शक्तिशाली वीर पुरुष दैव की उपासना नहीं करते हैं॥ १६॥
दैवं पुरुषकारेण यः समर्थः प्रबाधितुम्।
न दैवेन विपन्नार्थः पुरुषः सोऽवसीदति ॥१७॥
‘जो अपने पुरुषार्थ से दैव को दबाने में समर्थ है, वह पुरुष दैव के द्वारा अपने कार्य में बाधा पड़ने पर खेद नहीं करता—शिथिल होकर नहीं बैठता॥ १७ ॥
द्रक्ष्यन्ति त्वद्य दैवस्य पौरुषं पुरुषस्य च।
दैवमानुषयोरद्य व्यक्ता व्यक्तिर्भविष्यति॥१८॥
आज संसार के लोग देखेंगे कि दैव की शक्ति बड़ी है या पुरुष का पुरुषार्थ। आज दैव और मनुष्य में कौन बलवान् है और कौन दुर्बल—इसका स्पष्ट निर्णय हो जायगा॥१८॥
अद्य मे पौरुषहतं दैवं द्रक्ष्यन्ति वै जनाः।
यैर्दैवादाहतं तेऽद्य दृष्टं राज्याभिषेचनम्॥१९॥
‘जिन लोगों ने दैव के बलसे आज आपके राज्याभिषेक को नष्ट हुआ देखा है, वे ही आज मेरे पुरुषार्थ से अवश्य ही दैव का भी विनाश देख लेंगे। १९॥
अत्यङ्कशमिवोद्दामं गजं मदजलोद्धतम्।
प्रधावितमहं दैवं पौरुषेण निवर्तये॥२०॥
‘जो अङ्कश की परवा नहीं करता और रस्से या साँकल को भी तोड़ देता है, मद की धारा बहाने वाले उस मत्त गजराज की भाँति वेग पूर्वक दौड़ने वाले दैव को भी आज मैं अपने पुरुषार्थ से पीछे लौटा दूंगा। २०॥
लोकपालाः समस्तास्ते नाद्य रामाभिषेचनम्।
न च कृत्स्नास्त्रयो लोका विहन्युः किं पुनःपिता॥२१॥
समस्त लोकपाल और तीनों लोकों के सम्पर्ण प्राणी आज श्रीराम के राज्याभिषेक को नहीं रोक सकते, फिर केवल पिताजी की तो बात ही क्या है ? ॥ २१॥
यैर्विवासस्तवारण्ये मिथो राजन् समर्थितः।
अरण्ये ते विवत्स्यन्ति चतुर्दश समास्तथा ॥ २२॥
‘राजन् ! जिन लोगों ने आपस में आपके वनवास का समर्थन किया है, वे स्वयं चौदह वर्षों तक वन में जाकर छिपे रहेंगे॥ २२॥
अहं तदाशां धक्ष्यामि पितुस्तस्याश्च या तव।
अभिषेकविघातेन पुत्रराज्याय वर्तते॥२३॥
‘मैं पिता की और जो आपके अभिषेक में विघ्न डालकर अपने पुत्र को राज्य देने के प्रयत्न में लगी हुई है, उस कैकेयी की भी उस आशा को जलाकर भस्म कर डालूँगा ॥ २३॥
मबलेन विरुद्धाय न स्याद् दैवबलं तथा।
प्रभविष्यति दुःखाय यथोग्रं पौरुषं मम॥२४॥
‘जो मेरे बल के विरोध में खड़ा होगा, उसे मेरा भयंकर पुरुषार्थ जैसा दुःख देने में समर्थ होगा, वैसा दैव बल उसे सुख नहीं पहुँचा सकेगा॥ २४ ॥
ऊर्ध्वं वर्षसहस्रान्ते प्रजापाल्यमनन्तरम्।
आर्यपुत्राः करिष्यन्ति वनवासं गते त्वयि ॥२५॥
‘सहस्रों वर्ष बीतने के पश्चात् जब आप अवस्था क्रम से वन में निवास करने के लिये जायेंगे, उस समय आपके बाद आपके पुत्र प्रजापालनरूप कार्य करेंगे (अर्थात् उस समय भी दूसरों को इस राज्य में दखल देने का अवसर नहीं प्राप्त होगा) ॥ २५॥
पूर्वराजर्षिवृत्त्या हि वनवासोऽभिधीयते।
प्रजा निक्षिप्य पुत्रेषु पुत्रवत् परिपालने॥२६॥
‘पुरातन राजर्षियों की आचारपरम्परा के अनुसार प्रजा का पुत्रवत् पालन करने के निमित्त प्रजावर्ग को पुत्रों के हाथ में सौंपकर वृद्ध राजा का वन में निवास करना उचित बताया जाता है॥२६॥
स चेद् राजन्यनेकाग्रे राज्यविभ्रमशङ्कया।
नैवमिच्छसि धर्मात्मन् राज्यं राम त्वमात्मनि॥२७॥
‘धर्मात्मा श्रीराम! हमारे महाराज वानप्रस्थधर्म के पालन में चित्त को एकाग्र नहीं कर रहे हैं, इसीलिये यदि आप यह समझते हों कि उनकी आज्ञा के विरुद्ध राज्य ग्रहण कर लेने पर समस्त जनता विद्रोही हो जायगी, अतः राज्य अपने हाथ में नहीं रह सकेगा और इसी शङ्का से यदि आप अपने ऊपर राज्यकाभार नहीं लेना चाहते हैं अथवा वन में चले जाना चाहते हैं तो इस शङ्का को छोड़ दीजिये॥२७॥
प्रतिजाने च ते वीर मा भूवं वीरलोकभाक्।
राज्यं च तव रक्षेयमहं वेलेव सागरम्॥२८॥
‘वीर! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जैसे तटभूमि समुद्र को रोके रहती है, उसी प्रकार मैं आपकी और आपके राज्य की रक्षा करूँगा। यदि ऐसा न करूँ तो वीरलोक का भागी न होऊँ॥ २८॥
मङ्गलैरभिषिञ्चस्व तत्र त्वं व्याप्तो भव।
अहमेको महीपालानलं वारयितुं बलात्॥२९॥
‘इसलिये आप मङ्गलमयी अभिषेक-सामग्री से अपना अभिषेक होने दीजिये। इस अभिषेक के कार्य में आप तत्पर हो जाइये। मैं अकेला ही बलपूर्वक समस्त विरोधी भूपालों को रोक रखनेमें समर्थ हूँ॥ २९॥
न शोभार्थाविमौ बाहू न धनुर्भूषणाय मे।
नासिराबन्धनार्थाय न शराः स्तम्भहेतवः॥३०॥
‘ये मेरी दोनों भुजाएँ केवल शोभा के लिये नहीं हैं। मेरे इस धनुष का आभूषण नहीं बनेगा। यह तलवार केवल कमर में बाँधे रखने के लिये नहीं है तथा इन बाणों के खम्भे नहीं बनेंगे॥ ३० ॥
अमित्रमथनार्थाय सर्वमेतच्चतुष्टयम्।
न चाहं कामयेऽत्यर्थं यः स्याच्छत्रुर्मतो मम॥
‘ये सब चारों वस्तुएँ शत्रुओं का दमन करने के लिये ही हैं। जिसे मैं अपना शत्रु समझता हूँ, उसे कदापि जीवित रहने देना नहीं चाहता।। ३१॥
असिना तीक्ष्णधारेण विद्युच्चलितवर्चसा।
प्रगृहीतेन वै शत्रु वज्रिणं वा न कल्पये॥३२॥
‘जिस समय मैं इस तीखी धारवाली तलवार को हाथ में लेता हूँ, यह बिजली की तरह चञ्चल प्रभा से चमक उठती है। इसके द्वारा अपने किसी भी शत्रु को, वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, मैं कुछ नहीं समझता ॥ ३२॥
खड्गनिष्पेषनिष्पिष्टैर्गहना दुश्चरा च मे।
हस्त्यश्वरथिहस्तोरुशिरोभिर्भविता मही॥ ३३॥
आज मेरे खड्ग के प्रहार से पीस डाले गये हाथी,घोड़े और रथियों के हाथ, जाँघ और मस्तकों द्वारा पटी हुई यह पृथ्वी ऐसी गहन हो जायगी कि इस पर चलना-फिरना कठिन हो जायगा॥ ३३॥
खड्गधाराहता मेऽद्य दीप्यमाना इवाग्नयः।
पतिष्यन्ति द्विषो भूमौ मेघा इव सविद्युतः॥ ३४॥
‘मेरी तलवार की धार से कटकर रक्त से लथपथ हुए शत्रु जलती हुई आग के समान जान पड़ेंगे और बिजली सहित मेघों के समान आज पृथ्वी पर गिरेंगे। ३४॥
बद्धगोधाङ्गलित्राणे प्रगृहीतशरासने।
कथं पुरुषमानी स्यात् पुरुषाणां मयि स्थिते॥ ३५॥
अपने हाथों में गोह के चर्म से बने हुए दस्ताने को बाँधकर जब हाथ में धनुष ले मैं युद्ध के लिये खड़ा हो जाऊँगा, उस समय पुरुषों से कोई भी मेरे सामने कैसे अपने पौरुष पर अभिमान कर सकेगा? ॥ ३५ ॥
बहुभिश्चैकमत्यस्यन्नेकेन च बहूञ्जनान्।
विनियोक्ष्याम्यहं बाणान्नृवाजिगजमर्मसु॥३६॥
मैं बहुत-से बाणों द्वारा एक को और एक ही बाण से बहुत-से योद्धाओं को धराशायी करता हुआ मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के मर्मस्थानों पर बाण मारूँगा॥३६॥
अद्य मेऽस्त्रप्रभावस्य प्रभावः प्रभविष्यति।
राज्ञश्चाप्रभुतां कर्तुं प्रभुत्वं च तव प्रभो॥३७॥
‘प्रभो! आज राजा दशरथ की प्रभुता को मिटाने और आपके प्रभुत्व की स्थापना करने के लिये अस्त्रबल से सम्पन्न मुझ लक्ष्मण का प्रभाव प्रकट होगा॥ ३७॥
अद्य चन्दनसारस्य केयूरामोक्षणस्य च।
वसूनां च विमोक्षस्य सुहृदां पालनस्य च॥ ३८॥
अनुरूपाविमौ बाहू राम कर्म करिष्यतः।
अभिषेचनविघ्नस्य कर्तृणां ते निवारणे॥३९॥
‘श्रीराम! आज मेरी ये दोनों भुजाएँ, जो चन्दन का लेप लगाने, बाजूबंद पहनने, धन का दान करने और सुहृदों के पालन में संलग्न रहने के योग्य हैं, आपके राज्याभिषेक में विघ्न डालने वालों को रोकने के लिये अपने अनुरूप पराक्रम प्रकट करेंगी॥ ३८-३९ ॥
ब्रवीहि कोऽद्यैव मया वियुज्यतां तवासुहृत् प्राणयशःसुहृज्जनैः।
यथा तवेयं वसुधा वशा भवेत् तथैव मां शाधि तवास्मि किंकरः॥४०॥
‘प्रभो! बतलाइये, मैं आपके किस शत्रुको अभी प्राण, यश और सुहृज्जनों से सदा के लिये बिलग कर दूं। जिस उपाय से भी यह पृथ्वी आपके अधिकार में आ जाय, उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपका दास हूँ’॥
विमृज्य बाष्पं परिसान्त्व्य चासकृत् स लक्ष्मणं राघववंशवर्धनः।
उवाच पित्रोर्वचने व्यवस्थितं निबोध मामेष हि सौम्य सत्पथः॥४१॥
रघुवंश की वृद्धि करने वाले श्रीराम ने लक्ष्मण की ये बातें सुनकर उनके आँसू पोंछे और उन्हें बारंबार सान्त्वना देते हुए कहा—’सौम्य! मुझे तो तुम माता पिता की आज्ञा के पालन में ही दृढ़तापूर्वक स्थित समझो यही सत्पुरुषों का मार्ग है’ ॥ ४१॥
सर्ग २४
तं समीक्ष्य व्यवसितं पितुर्निर्देशपालने।
कौसल्या बाष्पसंरुद्धा वचो धर्मिष्ठमब्रवीत्॥१॥
कौसल्या ने जब देखा कि श्रीराम ने पिता की आज्ञा के पालन का ही दृढ़ निश्चय कर लिया है, तब वे आँसुओं से सैंधी हुई गद्गद वाणी में धर्मात्मा श्रीराम से इस प्रकार बोलीं- ॥१॥
अदृष्टदुःखो धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः।
मयि जातो दशरथात् कथमुञ्छेन वर्तयेत्॥२॥
‘हाय! जिसने जीवन में कभी दुःख नहीं देखा है, जो समस्त प्राणियों से सदा प्रिय वचन बोलता है, जिसका जन्म महाराज दशरथ से मेरे द्वारा हुआ है,वह मेरा धर्मात्मा पुत्र उञ्छवृत्ति से-खेत में गिरे हुए अनाज के एक-एक दाने को बीनकर कैसे जीवन निर्वाह कर सकेगा? ॥ २॥
यस्य भृत्याश्च दासाश्च मृष्टान्यन्नानि भुञ्जते।
कथं स भोक्ष्यते रामो वने मूलफलान्ययम्॥३॥
‘जिनके भृत्य और दास भी शुद्ध, स्वादिष्ट अन्न खाते हैं, वे ही श्रीराम वन में फल-मूल का आहार कैसे करेंगे? ॥ ३॥
क एतच्छ्रद्दधेच्छ्रत्वा कस्य वा न भवेद् भयम्।
गुणवान् दयितो राज्ञः काकुत्स्थो यद् विवास्यते॥४॥
‘जो सद्गुणसम्पन्न और महाराज दशरथ के प्रिय हैं, उन्हीं ककुत्स्थ-कुल-भूषण श्रीराम को जो वनवास दिया जा रहा है, इसे सुनकर कौन इस पर विश्वास करेगा? अथवा ऐसी बात सुनकर किसको भय नहीं होगा? ॥ ४॥
नूनं तु बलवाँल्लोके कृतान्तः सर्वमादिशन्।
लोके रामाभिरामस्त्वं वनं यत्र गमिष्यसि॥५॥
श्रीराम! निश्चय ही इस जगत् में दैव सबसे बड़ा बलवान् है। उसकी आज्ञा सबके ऊपर चलती है वही सबको सुख-दुःख से संयुक्त करता है; क्योंकि उसी के प्रभाव में आकर तुम्हारे-जैसा लोकप्रिय मनुष्य भी वन में जाने को उद्यत है॥५॥
अयं तु मामात्मभवस्तवादर्शनमारुतः।
विलापदुःखसमिधो रुदिताश्रुहुताहुतिः॥६॥
चिन्ताबाष्पमहाधूमस्तवागमनचिन्तजः।।
कर्शयित्वाधिकं पुत्र निःश्वासायाससम्भवः॥७॥
त्वया विहीनामिह मां शोकाग्निरतुलो महान्।
प्रधक्ष्यति यथा कक्ष्यं चित्रभानुर्हिमात्यये॥८॥
‘परंतु बेटा! तुमसे बिछुड़ जाने पर यहाँ मुझे शोक की अनुपम एवं बहुत बढ़ी हुई आग उसी तरह जलाकर भस्म कर डालेगी, जैसे ग्रीष्मऋतु में दावानल सूखी लकड़ियों और घास-फूस को जला डालता है। शोक की यह आग मेरे अपने ही मन में प्रकट हुई है। तुम्हें न देख पाने की सम्भावना ही वायु बनकर इस अग्नि को उद्दीप्त कर रही है। । विलाप जनित दुःख ही इसमें ईंधन का काम कर रहे । हैं। रोने से जो अश्रुपात होते हैं, वे ही मानो इसमें दी हुई घी की आहुति हैं। चिन्ता के कारण जो गरम-गरम उच्छ्वास उठ रहा है, वही इसका महान् धूम है। तुम दूर देश में जाकर फिर किस तरह आओगे इस प्रकार की चिंता ही इस शोकाग्नि को जन्म दे रही है। साँस लेने का जो प्रयत्न है, उसी से इस आग की प्रतिक्षण वृद्धि हो रही है। तुम्हीं इसे बुझाने के लिये जल हो तुम्हारे बिना यह आग मुझे अधिक सुखाकर जला डालेगी॥६-८॥
कथं हि धेनुः स्वं वत्सं गच्छन्तमनुगच्छति।
अहं त्वानुगमिष्यामि यत्र वत्स गमिष्यसि ॥९॥
‘वत्स! धेनु आगे जाते हुए अपने बछड़े के पीछे पीछे कैसे चली जाती है, उसी प्रकार मैं भी तुम जहाँ भी जाओगे, तुम्हारे पीछे-पीछे चली चलूँगी’ ॥९॥
यथा निगदितं मात्रा तद् वाक्यं पुरुषर्षभः।
श्रुत्वा रामोऽब्रवीद् वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम्॥ १०॥
माता कौसल्या ने जैसे जो कुछ कहा, उस वचन को सुनकर पुरुषोत्तम श्रीराम ने अत्यन्त दुःख में डूबी हुई अपनी माँ से पुनः इस प्रकार कहा- ॥ १० ॥
कैकेय्या वञ्चितो राजा मयि चारण्यमाश्रिते।
भवत्या च परित्यक्तो न ननं वर्तयिष्यति॥११॥
‘माँ! कैकेयी ने राजा के साथ धोखा किया है। इधर मैं वन को चला जा रहा हूँ। इस दशा में यदि तुम भी उनका परित्याग कर दोगी तो निश्चय ही वे जीवित नहीं रह सकेंगे॥११॥
भर्तः किल परित्यागो नृशंसः केवलं स्त्रियाः।
स भवत्या न कर्तव्यो मनसापि विगर्हितः॥१२॥
‘पति का परित्याग नारी के लिये बड़ा ही क्रूरतापूर्ण कर्म है। सत्पुरुषों ने इसकी बड़ी निन्दा की है; अतः तुम्हें तो ऐसी बात कभी मन में भी नहीं लानी चाहिये। १२॥
यावज्जीवति काकुत्स्थः पिता मे जगतीपतिः।
शुश्रूषा क्रियतां तावत् स हि धर्मः सनातनः॥ १३॥
‘मेरे पिता ककुत्स्थकुल-भूषण महाराज दशरथ जबतक जीवित हैं, तबतक तुम उन्हीं की सेवा करो। पति की सेवा ही स्त्री के लिये सनातन धर्म है’ ॥ १३ ॥
एवमुक्ता तु रामेण कौसल्या शुभदर्शना।
तथेत्युवाच सुप्रीता राममक्लिष्टकारिणम्॥१४॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर शुभ कर्मो पर दृष्टि रखने वाली देवी कौसल्या ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम से कहा —’अच्छा बेटा ! ऐसा ही करूँगी’ ॥ १४ ॥
एवमुक्तस्तु वचनं रामो धर्मभृतां वरः।
भूयस्तामब्रवीद् वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम्॥ १५॥
माँ के इस प्रकार स्वीकृतिसूचक बात कहने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम ने अत्यन्त दुःख में पड़ी हुई अपनी माता से पुनः इस प्रकार कहा- ॥ १५ ॥
मया चैव भवत्या च कर्तव्यं वचनं पितुः।
राजा भर्ता गुरुः श्रेष्ठः सर्वेषामीश्वरः प्रभुः॥ १६॥
‘माँ! पिताजी की आज्ञा का पालन करना मेरा और तुम्हारा—दोनों का कर्तव्य है; क्योंकि राजा हम सब लोगों के स्वामी, श्रेष्ठ गुरु, ईश्वर एवं प्रभु हैं॥ १६॥
इमानि तु महारण्ये विहृत्य नव पञ्च च।
वर्षाणि परमप्रीत्या स्थास्यामि वचने तव॥१७॥
‘इन चौदह वर्षों तक मैं विशाल वन में घूम-फिरकर लौट आऊँगा और बड़े प्रेम से तुम्हारी आज्ञा का पालन करता रहूँगा’॥ १७॥
एवमुक्ता प्रियं पुत्रं बाष्पपूर्णानना तदा।
उवाच परमार्ता तु कौसल्या सुतवत्सला॥१८॥
उनके ऐसा कहने पर पुत्रवत्सला कौसल्या के मुखपर पुनः आँसुओं की धारा बह चली। वे उस समय अत्यन्त आर्त होकर अपने प्रिय पुत्र से बोलीं – ॥१८॥
आसां राम सपत्नीनां वस्तुं मध्ये न मे क्षमम्।
नय मामपि काकुत्स्थ वनं वन्यां मृगीमिव॥ १९॥
यदि ते गमने बुद्धिः कृता पितरपेक्षया।
‘बेटा राम! अब मुझसे इन सौतों के बीच में नहीं रहा जायगा। काकुत्स्थ! यदि पिता की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से तुमने वन में जाने का ही निश्चय किया है तो मुझे भी वनवासिनी हरिणी की भाँति वन में ही ले चलो’ ॥ १९ १/२॥
तां तथा रुदतीं रामो रुदन् वचनमब्रवीत्॥२०॥
जीवन्त्या हि स्त्रिया भर्ता दैवतं प्रभुरेव च।
भवत्या मम चैवाद्य राजा प्रभवति प्रभुः ॥२१॥
यह कहकर माता कौसल्या रोने लगीं। उन्हें उस तरह रोती देख श्रीराम भी रो पड़े और उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले—’माँ! स्त्री के जीते-जी उसका पति ही उसके लिये देवता और ईश्वर के समान है। महाराज तुम्हारे और मेरे दोनों के प्रभु हैं। २०-२१॥
न ह्यनाथा वयं राज्ञा लोकनाथेन धीमता।
भरतश्चापि धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः॥ २२॥
भवतीमनुवर्तेत स हि धर्मरतः सदा।
‘जबतक बुद्धिमान् जगदीश्वर महाराज दशरथ जीवित हैं, तब तक हमें अपने को अनाथ नहीं समझना चाहिये। भरत भी बड़े धर्मात्मा हैं। वे समस्त प्राणियों के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले और सदा ही धर्म में तत्पर रहने वाले हैं; अतः वे तुम्हारा अनुसरण -तुम्हारी सेवा करेंगे॥ २२ १/२ ॥
यथा मयि तु निष्क्रान्ते पुत्रशोकेन पार्थिवः ॥२३॥
श्रमं नावाप्नुयात् किंचिदप्रमत्ता तथा कुरु।
‘मेरे चले जाने पर जिस तरह भी महाराज को पुत्रशोक के कारण कोई विशेष कष्ट न हो, तुम सावधानी के साथ वैसा ही प्रयत्न करना॥ २३ १/२ ॥
दारुणश्चाप्ययं शोको यथैनं न विनाशयेत॥२४॥
राज्ञो वृद्धस्य सततं हितं चर समाहिता।
‘कहीं ऐसा न हो कि यह दारुण शोक इनकी जीवनलीला ही समाप्त कर डाले। जैसे भी सम्भव हो, तुम सदा सावधान रहकर बूढ़े महाराज के हितसाधन में लगी रहना ॥ २४ १/२॥
व्रतोपवासनिरता या नारी परमोत्तमा॥२५॥
भर्तारं नानुवर्तेत सा च पापगतिर्भवेत्।
‘उत्कृष्ट गुण और जाति आदि की दृष्टि से परम उत्तम तथा व्रत-उपवास में तत्पर होकर भी जो नारी पति की सेवा नहीं करती है, उसे पापियों को मिलने वाली गति (नरक आदि)- की प्राप्ति होती है। २५ १/२॥
भर्तुः शुश्रूषया नारी लभते स्वर्गमुत्तमम्॥२६॥
अपि या निर्नमस्कारा निवृत्ता देवपूजनात्।
‘जो अन्यान्य देवताओं की वन्दना और पूजा से दूर रहती है, वह नारी भी केवल पति की सेवामात्र से उत्तम स्वर्गलोक को प्राप्त कर लेती है॥ २६ १/२॥
शुश्रूषामेव कुर्वीत भर्तुः प्रियहिते रता॥ २७॥
एष धर्मः स्त्रिया नित्यो वेदे लोके श्रुतः स्मृतः।
‘अतः नारी को चाहिये कि वह पति के प्रिय एवं हितसाधन में तत्पर रहकर सदा उसकी सेवा ही करे, यही स्त्री का वेद और लोक में प्रसिद्ध नित्य (सनातन) धर्म है। इसी का श्रुतियों और स्मृतियों में भी वर्णन है॥ २७ १/२ ॥
अग्निकार्येषु च सदा सुमनोभिश्च देवताः॥ २८॥
पूज्यास्ते मत्कृते देवि ब्राह्मणाश्चैव सत्कृताः।
‘देवि! तुम्हें मेरी मङ्गल-कामना से सदा अग्निहोत्र के अवसरों पर पुष्पों से देवताओं का तथा सत्कारपूर्वक ब्राह्मणों का भी पूजन करते रहना चाहिये॥ २८ १/२॥
एवं कालं प्रतीक्षस्व ममागमनकांक्षिणी॥२९॥
नियता नियताहारा भर्तृशुश्रूषणे रता।
‘इस प्रकार तुम नियमित आहार करके नियमों का पालन करती हुई स्वामी की सेवा में लगी रहो और मेरे आगमन की इच्छा रखकर समय की प्रतीक्षा करो॥२९ १/२॥
प्राप्स्यसे परमं कामं मयि पर्यागते सति ॥ ३०॥
यदि धर्मभृतां श्रेष्ठो धारयिष्यति जीवितम्।
‘यदि धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज जीवित रहेंगे तो मेरे लौट आने पर तुम्हारी भी शुभ कामना पूर्ण होगी’।
एवमुक्ता तु रामेण बाष्पपर्याकुलेक्षणा॥३१॥
कौसल्या पुत्रशोकार्ता रामं वचनमब्रवीत्।
श्रीराम के ऐसा कहने पर कौसल्या के नेत्रों में आँसू छलक आये। वे पुत्रशोक से पीड़ित होकर श्रीरामचन्द्रजी से बोलीं- ॥३१ १/२॥
गमने सुकृतां बुद्धिं न ते शक्नोमि पुत्रक॥३२॥
विनिवर्तयितुं वीर नूनं कालो दुरत्ययः।
‘बेटा! मैं तुम्हारे वन में जाने के निश्चित विचार को नहीं पलट सकती। वीर! निश्चय ही काल की आज्ञा का उल्लङ्घन करना अत्यन्त कठिन है॥ ३२ १/२॥
गच्छ पुत्र त्वमेकाग्रो भद्रं तेऽस्तु सदा विभो॥ ३३॥
पुनस्त्वयि निवृत्ते तु भविष्यामि गतक्लमा।
‘सामर्थ्यशाली पुत्र! अब तुम निश्चिन्त होकर वन को जाओ, तुम्हारा सदा ही कल्याण हो। जब फिर तुम वन से लौट आओगे, उस समय मेरे सारे क्लेश-सब संताप दूर हो जायेंगे॥ ३३ १/२ ॥
प्रत्यागते महाभागे कृतार्थे चरितव्रते।
पितुरानृण्यतां प्राप्ते स्वपिष्ये परमं सुखम्॥३४॥
‘बेटा! जब तुम वनवास का महान् व्रत पूर्ण करके कृतार्थ एवं महान् सौभाग्यशाली होकर लौट आओगे और ऐसा करके पिता के ऋण से उऋण हो जाओगे, तभी मैं उत्तम सुख की नींद सो सकूँगी॥ ३४ ॥
कृतान्तस्य गतिः पुत्र दुर्विभाव्या सदा भुवि।
यस्त्वां संचोदयति मे वच आविध्य राघव॥
‘बेटा रघुनन्दन! इस भूतल पर दैव की गति को समझना बहुत ही कठिन है, जो मेरी बात काटकर तुम्हें वन जाने के लिये प्रेरित कर रहा है।॥ ३५ ॥
गच्छेदानीं महाबाहो क्षेमेण पुनरागतः।
नन्दयिष्यसि मां पुत्र साम्ना श्लक्ष्णेन चारुणा॥ ३६॥
‘बेटा! महाबाहो! इस समय जाओ, फिर कुशलपूर्वक लौटकर सान्त्वना भरे मधुर एवं मनोहर वचनोंसे मुझे आनन्दित करना।। ३६ ॥
अपीदानीं स कालः स्याद् वनात् प्रत्यागतं पुनः।
यत् त्वां पुत्रक पश्येयं जटावल्कलधारिणम्॥ ३७॥
‘वत्स! क्या वह समय अभी आ सकता है, जब कि जटा-वल्कल धारण किये वन से लौटकर आये हुए तुमको फिर देख सकूँगी’ ॥ ३७॥
तथा हि रामं वनवासनिश्चितं ददर्श देवी परमेण चेतसा।
उवाच रामं शुभलक्षणं वचो बभूव च स्वस्त्ययनाभिकांक्षिणी॥३८॥
देवी कौसल्या ने जब देखा कि इस प्रकार श्रीराम वनवास का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं, तब वे परम आदरयुक्त हृदय से उनको शुभसूचक आशीर्वाद देने और उनके लिये स्वस्तिवाचन कराने की इच्छा करने लगीं ॥ ३८॥
सर्ग २५
सा विनीय तमायासमुपस्पृश्य जलं शुचि।
चकार माता रामस्य मङ्गलानि मनस्विनी॥१॥
तदनन्तर उस क्लेशजनक शोक को मन से निकालकर श्रीराम की मनस्विनी माता कौसल्या ने पवित्र जल से आचमन किया, फिर वे यात्राकालिक मङ्गलकृत्यों का अनुष्ठान करने लगीं॥ १॥
न शक्यसे वारयितुं गच्छेदानीं रघूत्तम।
शीघ्रं च विनिवर्तस्व वर्तस्व च सतां क्रमे॥२॥
(इसके बाद वे आशीर्वाद देती हुई बोलीं-) ‘रघुकुलभूषण! अब मैं तुम्हें रोक नहीं सकती, इस समय जाओ, सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर रहो और शीघ्र ही वन से लौट आओ॥२॥
यं पालयसि धर्मं त्वं प्रीत्या च नियमेन च।
स वै राघवशार्दूल धर्मस्त्वामभिरक्षतु॥३॥
‘रघुकुलसिंह! तुम नियमपूर्वक प्रसन्नता के साथ जिस धर्म का पालन करते हो, वही सब ओर से तुम्हारी रक्षा करे॥३॥
येभ्यः प्रणमसे पुत्र देवेष्वायतनेषु च।
ते च त्वामभिरक्षन्तु वने सह महर्षिभिः॥४॥
‘बेटा! देवस्थानों और मन्दिरों में जाकर तुम जिनको प्रणाम करते हो, वे सब देवता महर्षियों के साथ वन में तुम्हारी रक्षा करें॥४॥
यानि दत्तानि तेऽस्त्राणि विश्वामित्रेण धीमता।
तानि त्वामभिरक्षन्तु गुणैः समुदितं सदा॥५॥
“तुम सद्गुणों से प्रकाशित हो, बुद्धिमान् विश्वामित्रजी ने तुम्हें जो-जो अस्त्र दिये हैं, वे सबके-सब सदा सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें॥ ५॥
पितृशुश्रूषया पुत्र मातृशुश्रूषया तथा।
सत्येन च महाबाहो चिरं जीवाभिरक्षितः॥६॥
‘महाबाहु पुत्र! तुम पिता की शुश्रूषा, माता की सेवा तथा सत्य के पालन से सुरक्षित होकर चिरंजीवी बने रहो॥
समित्कुशपवित्राणि वेद्यश्चायतनानि च।
स्थण्डिलानि च विप्राणां शैला वृक्षाः क्षुपा ह्रदाः।
पतङ्गाः पन्नगाः सिंहास्त्वां रक्षन्तु नरोत्तम॥७॥
‘नरश्रेष्ठ! समिधा, कुशा, पवित्री, वेदियाँ, मन्दिर, ब्राह्मणोंके देवपूजन सम्बन्धी स्थान, पर्वत, वृक्ष, क्षुप (छोटी शाखा वाले वृक्ष), जलाशय, पक्षी, सर्प और सिंह वन में तुम्हारी रक्षा करें॥ ७॥
स्वस्ति साध्याश्च विश्वे च मरुतश्च महर्षिभिः।
स्वस्ति धाता विधाता च स्वस्ति पूषा भगोय॑मा॥८॥
‘साध्य, विश्वेदेव तथा महर्षियों सहित मरुद्गण तुम्हारा कल्याण करें; धाता और विधाता तुम्हारे लिये मङ्गलकारी हों; पूषा, भग और अर्यमा तुम्हारा कल्याण करें॥८॥
लोकपालाश्च ते सर्वे वासवप्रमुखास्तथा।
ऋतवः षट् च ते सर्वे मासाः संवत्सराः क्षपाः॥
दिनानि च मुहूर्ताश्च स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा।
श्रुतिः स्मृतिश्च धर्मश्च पातु त्वां पुत्र सर्वतः॥ १०॥
‘वे इन्द्र आदि समस्त लोकपाल, छहों ऋतुएँ, सभी मास, संवत्सर, रात्रि, दिन और मुहूर्त सदा तुम्हारा मङ्गल करें। बेटा ! श्रुति, स्मृति और धर्म भी सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। ९-१०॥
स्कन्दश्च भगवान् देवः सोमश्च सबृहस्पतिः।
सप्तर्षयो नारदश्च ते त्वां रक्षन्तु सर्वतः॥११॥
‘भगवान् स्कन्ददेव, सोम, बृहस्पति, सप्तर्षिगण और नारद-ये सभी सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। ११॥
ते चापि सर्वतः सिद्धा दिशश्च सदिगीश्वराः।
स्तुता मया वने तस्मिन् पान्तु त्वां पुत्र नित्यशः॥ १२॥
‘बेटा! वे प्रसिद्ध सिद्धगण, दिशाएँ और दिक्पाल मेरी की हुई स्तुति से संतुष्ट हो उस वन में सदा सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें॥ १२ ॥
शैलाः सर्वे समुद्राश्च राजा वरुण एव च।
द्यौरन्तरिक्षं पृथिवी वायुश्च सचराचरः॥१३॥
नक्षत्राणि च सर्वाणि ग्रहाश्च सह दैवतैः।
अहोरात्रे तथा संध्ये पान्तु त्वां वनमाश्रितम्॥ १४॥
‘समस्त पर्वत, समुद्र, राजा वरुण, धुलोक, अन्तरिक्ष, पृथिवी, वायु, चराचर प्राणी, समस्त नक्षत्र, देवताओं सहित ग्रह, दिन और रात तथा दोनों संध्याएँ—ये सब-के-सब वन में जाने पर सदा तुम्हारी रक्षा करें॥ १३-१४॥
ऋतवश्चापि षट् चान्ये मासाः संवत्सरास्तथा।
कलाश्च काष्ठाश्च तथा तव शर्म दिशन्तु ते॥ १५॥
‘छः ऋतुएँ, अन्यान्य मास, संवत्सर, कला और काष्ठा—ये सब तुम्हें कल्याण प्रदान करें॥ १५ ॥
महावनेऽपि चरतो मुनिवेषस्य धीमतः।
तथा देवाश्च दैत्याश्च भवन्तु सुखदाः सदा॥ १६॥
‘मुनि का वेष धारण करके उस विशाल वन में विचरते हुए तुझ बुद्धिमान् पुत्र के लिये समस्त देवता और दैत्य सदा सुखदायक हों॥ १६॥
राक्षसानां पिशाचानां रौद्राणां क्रूरकर्मणाम्।
क्रव्यादानां च सर्वेषां मा भूत् पुत्रक ते भयम्॥ १७॥
‘बेटा! तुम्हें भयंकर राक्षसों, क्रूरकर्मा पिशाचों तथा समस्त मांसभक्षी जन्तुओं से कभी भय न हो। १७॥
प्लवगा वृश्चिका दंशा मशकाश्चैव कानने।
सरीसृपाश्च कीटाश्च मा भूवन् गहने तव॥ १८॥
‘वन में जो मेढक या वानर, बिच्छू, डाँस, मच्छर, पर्वतीय सर्प और कीड़े होते हैं, वे उस गहन वन में तुम्हारे लिये हिंसक न हों॥ १८॥
महाद्विपाश्च सिंहाश्च व्याघ्रा ऋक्षाश्च दंष्ट्रिणः।
महिषाः शृङ्गिणो रौद्रा न ते द्रुह्यन्तु पुत्रक॥१९॥
‘पुत्र! बड़े-बड़े हाथी, सिंह, व्याघ्र, रीछ, दाढ़ वाले अन्य जीव तथा विशाल सींगवाले भयंकर भैंसे वन में तुमसे द्रोह न करें॥ १९॥
नृमांसभोजना रौद्रा ये चान्ये सर्वजातयः।
मा च त्वां हिंसिषुः पुत्र मया सम्पूजितास्त्विह॥ २०॥
वत्स! इनके सिवा जो सभी जातियों में नरमांसभक्षी भयंकर प्राणी हैं, वे मेरे द्वारा यहाँ पूजित होकर वन में तुम्हारी हिंसा न करें॥ २०॥
आगमास्ते शिवाः सन्तु सिध्यन्तु च पराक्रमाः।
सर्वसम्पत्तयो राम स्वस्तिमान् गच्छ पुत्रक॥ २१॥
‘बेटा राम! सभी मार्ग तुम्हारे लिये मङ्गलकारी हों। तुम्हारे पराक्रम सफल हों तथा तुम्हें सब सम्पत्तियाँ प्राप्त होती रहें। तुम सकुशल यात्रा करो ॥ २१॥
स्वस्ति तेऽस्त्वान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यः पुनः पुनः
सर्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो ये च ते परिपन्थिनः॥ २२॥
‘तुम्हें आकाशचारी प्राणियों से, भूतल के जीवजन्तुओं से, समस्त देवताओं से तथा जो तुम्हारे शत्रु हैं, उनसे भी सदा कल्याण प्राप्त होता रहे ॥ २२॥
शुक्रः सोमश्च सूर्यश्च धनदोऽथ यमस्तथा।
पान्तु त्वामर्चिता राम दण्डकारण्यवासिनम॥ २३॥
‘श्रीराम! शुक्र, सोम, सूर्य, कुबेर तथा यम—ये मुझसे पूजित हो दण्डकारण्य में निवास करते समय सदा तुम्हारी रक्षा करें॥ २३॥
अग्निर्वायुस्तथा धूमो मन्त्राश्चर्षिमुखच्युताः।
उपस्पर्शनकाले तु पान्तु त्वां रघुनन्दन॥२४॥
‘रघुनन्दन! स्नान और आचमन के समय अग्नि, वायु, धूम तथा ऋषियों के मुख से निकले हुए मन्त्र तुम्हारी रक्षा करें॥२४॥
सर्वलोकप्रभुर्ब्रह्मा भूतकर्तृ तथर्षयः।
ये च शेषाः सुरास्ते तु रक्षन्तु वनवासिनम्॥ २५॥
‘समस्त लोकों के स्वामी ब्रह्मा, जगत् के कारणभूत परब्रह्म, ऋषिगण तथा उनके अतिरिक्त जो देवता हैं, वे सब-के-सब वनवास के समय तुम्हारी रक्षा करें’। २५॥
इति माल्यैः सुरगणान् गन्धैश्चापि यशस्विनी।
स्तुतिभिश्चानुरूपाभिरान यतलोचना॥२६॥
ऐसा कहकर विशाललोचना यशस्विनी रानी कौसल्या ने पुष्पमाला और गन्ध आदि उपचारों से तथा अनुरूप स्तुतियों द्वारा देवताओं का पूजन किया।२६॥
ज्वलनं समुपादाय ब्राह्मणेन महात्मना।
हावयामास विधिना राममङ्गलकारणात्॥२७॥
उन्होंने श्रीरामकी मङ्गलकामना से अग्नि को लाकर एक महात्मा ब्राह्मण के द्वारा उसमें विधिपूर्वक होम करवाया।
घृतं श्वेतानि माल्यानि समिधश्चैव सर्षपान्।
उपसम्पादयामास कौसल्या परमाङ्गना॥२८॥
श्रेष्ठ नारी महारानी कौसल्या ने घी, श्वेत पुष्प और माला, समिधा तथा सरसों आदि वस्तुएँ ब्राह्मण के समीप रखवा दीं॥ २८॥
उपाध्यायः स विधिना हुत्वा शान्तिमनामयम्।
हतहव्यावशेषेण बाह्यं बलिमकल्पयत्॥२९॥
पुरोहितजी ने समस्त उपद्रवों की शान्ति और आरोग्य के उद्देश्यसे विधिपूर्वक अग्नि में होम करके हवन से बचे हुए हविष्य के द्वारा होम की वेदी से बाहर दसों दिशाओं में इन्द्र आदि लोकपालों के लिये बलि अर्पित की॥ २९॥
मधुदध्यक्षतघृतैः स्वस्तिवाच्यं द्विजांस्ततः।
वाचयामास रामस्य वने स्वस्त्ययनक्रियाम्॥ ३०॥
तदनन्तर स्वस्तिवाचन के उद्देश्य से ब्राह्मणों को मधु, दही, अक्षत और घृत अर्पित करके ‘वन में श्रीराम का सदा मङ्गल हो’ इस कामना से कौसल्याजी ने उन सबसे स्वस्त्ययनसम्बन्धी मन्त्रों का पाठ करवाया। ३०॥
ततस्तस्मै द्विजेन्द्राय राममाता यशस्विनी।
दक्षिणां प्रददौ काम्यां राघवं चेदमब्रवीत्॥३१॥
इसके बाद यशश्विनी श्रीराममाता ने उन विप्रवर पुरोहितजी को उनकी इच्छा के अनुसार दक्षिणा दी और श्रीरघुनाथजी से इस प्रकार कहा— ॥३१॥
यन्मङ्गलं सहस्राक्षे सर्वदेवनमस्कृते।
वृत्रनाशे समभवत् तत् ते भवतु मङ्गलम्॥३२॥
‘वृत्रासुर का नाश करने के निमित्त सर्वदेववन्दित सहस्रनेत्रधारी इन्द्र को जो मङ्गलमय आशीर्वाद प्राप्त हुआ था, वही मङ्गल तुम्हारे लिये भी हो॥३२॥
यन्मङ्गलं सुपर्णस्य विनताकल्पयत् पुरा।
अमृतं प्रार्थयानस्य तत् ते भवतु मङ्गलम्॥३३॥
‘पूर्वकाल में विनतादेवी ने अमृत लाने की इच्छा वाले अपने पुत्र गरुड़ के लिये जो मङ्गलकृत्य किया था, वही मङ्गल तुम्हें भी प्राप्त हो॥ ३३॥
अमृतोत्पादने दैत्यान् नतो वज्रधरस्य यत्।
अदितिर्मङ्गलं प्रादात् तत् ते भवतु मङ्गलम्॥ ३४॥
‘अमृतकी उत्पत्ति के समय दैत्यों का संहार करने वाले वज्रधारी इन्द्र के लिये माता अदिति ने जो मङ्गलमय आशीर्वाद दिया था, वही मङ्गल तुम्हारे लिये भी सुलभ हो॥ ३४॥
त्रिविक्रमान प्रक्रमतो विष्णोरतलतेजसः।
यदासीन्मङ्गलं राम तत् ते भवतु मङ्गलम्॥३५॥
‘श्रीराम! तीन पगों को बढ़ाते हुए अनुपम तेजस्वी भगवान् विष्णु के लिये जो मङ्गलाशंसा की गयी थी, वही मङ्गल तुम्हारे लिये भी प्राप्त हो॥ ३५ ॥
ऋषयः सागरा दीपा वेदा लोका दिशश्च ते।
मङ्गलानि महाबाहो दिशन्तु शुभमङ्गलम्॥३६॥
‘महाबाहो! ऋषि, समुद्र, द्वीप, वेद, समस्त लोक और दिशाएँ तुम्हें मङ्गल प्रदान करें। तुम्हारा सदा शुभ मङ्गल हो’ ॥ ३६॥
इति पुत्रस्य शेषाश्च कृत्वा शिरसि भामिनी।
गन्धैश्चापि समालभ्य राममायतलोचना॥ ३७॥
औषधीं च सुसिद्धार्थां विशल्यकरणीं शुभाम्।
चकार रक्षां कौसल्या मन्त्रैरभिजजाप च॥३८॥
इस प्रकार आशीर्वाद देकर विशाललोचना भामिनी कौसल्या ने पुत्र के मस्तक पर अक्षत रखकर चन्दन और रोली लगायी तथा सब मनोरथों को सिद्ध करने वाली विशल्यकरणी नामक शुभ ओषधि लेकर रक्षा के उद्देश्य से मन्त्र पढ़ते हुए उसको श्रीराम के हाथ में बाँध दिया; फिर उसमें उत्कर्ष लाने के लिये मन्त्र का जप भी किया।
उवाचापि प्रहृष्टेव सा दुःखवशवर्तिनी।
वामात्रेण न भावेन वाचा संसज्जमानया॥३९॥
तदनन्तर दुःख के अधीन हुई कौसल्या ने ऊपर से प्रसन्न-सी होकर मन्त्रों का स्पष्ट उच्चारण भी किया। उस समय वे वाणीमात्र से ही मन्त्रोच्चारण कर सकीं, हृदय से नहीं (क्योंकि हृदय श्रीराम के वियोग की सम्भावनासे व्यथित था, इसीलिये) वे खेद से गद्गद, लड़खड़ाती हुई वाणी से मन्त्र बोल रही थीं॥ ३९॥
आनम्य मूर्ध्नि चाघ्राय परिष्वज्य यशस्विनी।
अवदत् पुत्रमिष्टार्थो गच्छ राम यथासुखम्॥ ४०॥
अरोगं सर्वसिद्धार्थमयोध्यां पुनरागतम्।
पश्यामि त्वां सुखं वत्स संधितं राजवर्त्मसु॥ ४१॥
इसके बाद उनके मस्तक को कुछ झुकाकर यशस्विनी माता ने सूंघा और बेटे को हृदय से लगाकर कहा—’वत्स राम! तुम सफलमनोरथ होकर सुखपूर्वक वन को जाओ। जब पूर्णकाम होकर रोगरहित सकुशल अयोध्या लौटोगे, उस समय तुम्हें राजमार्ग पर स्थित देखकर सुखी होऊँगी। ४०-४१॥
प्रणष्टदुःखसंकल्पा हर्षविद्योतितानना।
द्रक्ष्यामि त्वां वनात् प्राप्तं पूर्णचन्द्रमिवोदितम्॥ ४२॥
‘उस समय मेरे दुःखपूर्ण संकल्प मिट जायँगे, मुखपर हर्षजनित उल्लास छा जायगा और मैं वन से आये हुए तुमको पूर्णिमा की रातमें उदित हुए पूर्ण चन्द्रमा की भाँति देलूँगी॥ ४३॥
भद्रासनगतं राम वनवासादिहागतम्।
द्रक्ष्यामि च पुनस्त्वां तु तीर्णवन्तं पितुर्वचः॥ ४३॥
‘श्रीराम ! वनवास से यहाँ आकर पिता की प्रतिज्ञा को पूर्ण करके जब तुम राजसिंहासन पर बैठोगे, उस समय मैं पुनः प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारा दर्शन करूँगी॥ ४३॥
मङ्गलैरुपसम्पन्नो वनवासादिहागतः।
वध्वाश्च मम नित्यं त्वं कामान् संवर्ध याहि भोः॥४४॥
‘अब जाओ और वनवास से यहाँ लौटकर राजोचित मङ्गलमय वस्त्राभूषणों से विभूषित हो तुम सदा मेरी बहू सीता की समस्त कामनाएँ पूर्ण करते रहो॥४४॥
मयार्चिता देवगणाः शिवादयो महर्षयो भूतगणाः सुरोरगाः।
अभिप्रयातस्य वनं चिराय ते हितानि कांक्षन्तु दिशश्च राघव॥४५॥
‘रघुनन्दन ! मैंने सदा जिनका पूजन और सम्मान किया है, वे शिव आदि देवता, महर्षि, भूतगण, देवोपम नाग और सम्पूर्ण दिशाएँ—ये सब-के-सब वन में जानेपर चिरकालतक तुम्हारे हितसाधन की कामना करते रहें’॥ ४५ ॥
अतीव चाश्रुप्रतिपूर्णलोचना समाप्य च स्वस्त्ययनं यथाविधि।
प्रदक्षिणं चापि चकार राघवं पुनः पुनश्चापि निरीक्ष्य सस्वजे॥४६॥
इस प्रकार माता ने नेत्रों में अत्यन्त आँसू भरकर विधिपूर्वक वह स्वस्तिवाचन कर्म पूर्ण किया। फिर श्रीराम की परिक्रमा की और बारंबार उनकी ओर देखकर उन्हें छाती से लगाया॥ ४६॥
तया हि देव्या च कृतप्रदक्षिणो निपीड्य मातुश्चरणौ पुनः पुनः।
जगाम सीतानिलयं महायशाः स राघवः प्रज्वलितस्तया श्रिया॥४७॥
देवी कौसल्या ने जब श्रीराम की प्रदक्षिणा कर ली, तब महायशस्वी रघुनाथजी बारंबार माता के चरणोंको दबाकर प्रणाम करके माता की मङ्गलकामना-जनित उत्कृष्ट शोभा से सम्पन्न हो सीताजी के महल की ओर चल दिये॥ ४७॥
सर्ग २६
अभिवाद्य तु कौसल्यां रामः सम्प्रस्थितो वनम्।
कृतस्वस्त्ययनो मात्रा धर्मिष्ठे वर्त्मनि स्थितः॥१॥
धर्मिष्ठ मार्ग पर स्थित हुए श्रीराम माता द्वारा स्वस्तिवाचन-कर्म सम्पन्न हो जाने पर कौसल्या को प्रणाम करके वहाँ से वन के लिये प्रस्थित हुए॥१॥
विराजयन् राजसुतो राजमार्ग नरैर्वृतम्।
हृदयान्याममन्थेव जनस्य गुणवत्तया॥२॥
उस समय मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए राजमार्ग को प्रकाशित करते हुए राजकुमार श्रीराम अपने सद्गुणों के कारण लोगों के मन को मथने-से लगे (ऐसे गुणवान् श्रीराम को वनवास दिया जा रहा है, यह सोचकर वहाँ के लोगों का जी कचोटने लगा) ॥२॥
वैदेही चापि तत् सर्वं न शुश्राव तपस्विनी।
तदेव हृदि तस्याश्च यौवराज्याभिषेचनम्॥३॥
तपस्विनी विदेहनन्दिनी सीता ने अभी तक वह सारा हाल नहीं सुना था। उनके हृदय में यही बात समायी हुई थी कि मेरे पति का युवराज पद पर अभिषेक हो रहा होगा।
देवकार्यं स्म सा कृत्वा कृतज्ञा हृष्टचेतना।
अभिज्ञा राजधर्माणां राजपुत्री प्रतीक्षति॥४॥
विदेहराजकुमारी सीता सामयिक कर्तव्यों तथा राजधर्मो को जानती थीं, अतः देवताओं की पूजा करके प्रसन्नचित्त से श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं।
प्रविवेशाथ रामस्तु स्ववेश्म सुविभूषितम्।
प्रहृष्टजनसम्पूर्ण ह्रिया किंचिदवाङ्मखः॥५॥
इतने में ही श्रीराम ने अपने भलीभाँति सजे-सजाये अन्तःपुर में, जो प्रसन्न मनुष्यों से भरा हुआ था, प्रवेश किया। उस समय लज्जा से उनका मुख कुछ नीचा हो रहा था।
अथ सीता समुत्पत्य वेपमाना च तं पतिम्।
अपश्यच्छोकसंतप्तं चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियम्॥
सीता उन्हें देखते ही आसन से उठकर खड़ी हो गयीं। उनकी अवस्था देखकर काँपने लगीं और चिन्ता से व्याकुल इन्द्रियों वाले अपने उन शोकसंतप्त पति को निहारने लगीं॥६॥
तां दृष्ट्वा स हि धर्मात्मा न शशाक मनोगतम्।
तं शोकं राघवः सोढुं ततो विवृततां गतः॥७॥
धर्मात्मा श्रीराम सीता को देखकर अपने मानसिक शोक का वेग सहन न कर सके, अतः उनका वह शोक प्रकट हो गया॥७॥
विवर्णवदनं दृष्ट्वा तं प्रस्विन्नममर्षणम्।
आह दुःखाभिसंतप्ता किमिदानीमिदं प्रभो॥८॥
उनका मुख उदास हो गया था। उनके अङ्गों से पसीना निकल रहा था। वे अपने शोक को दबाये रखने में असमर्थ हो गये थे। उन्हें इस अवस्था में देखकर सीता दुःख से संतप्त हो उठी और बोलीं —’प्रभो! इस समय यह आपकी कैसी दशा है? ॥ ८॥
अद्य बार्हस्पतः श्रीमान् युक्तः पुष्येण राघव।
प्रोच्यते ब्राह्मणैः प्राज्ञैः केन त्वमसि दुर्मनाः॥९॥
‘रघुनन्दन! आज बृहस्पति देवता-सम्बन्धी मङ्गलमय पुष्यनक्षत्र है, जो अभिषेक के योग्य है। उस पुष्यनक्षत्र के योग में विद्वान् ब्राह्मणों ने आपका अभिषेक बताया है। ऐसे समय में जब कि आपको प्रसन्न होना चाहिये था, आपका मन इतना उदास क्यों है? ॥९॥
न ते शतशलाकेन जलफेननिभेन च।
आवृतं वदनं वल्गु च्छत्रेणाभिविराजते॥१०॥
‘मैं देखती हूँ, इस समय आपका मनोहर मुख जल के फेन के समान उज्ज्वल तथा सौ तीलियों वाले श्वेत छत्र से आच्छादित नहीं है, अतएव अधिक शोभा नहीं पा रहा है॥ १० ॥
व्यजनाभ्यां च मुख्याभ्यां शतपत्रनिभेक्षणम्।
चन्द्रहंसप्रकाशाभ्यां वीज्यते न तवाननम्॥११॥
‘कमल-जैसे सुन्दर नेत्र धारण करनेवाले आपके इस मुखपर चन्द्रमा और हंसके समान श्वेत वर्णवाले दो श्रेष्ठ चँवरोंद्वारा हवा नहीं की जा रही है॥ ११॥
वाग्मिनो वन्दिनश्चापि प्रहृष्टास्त्वां नरर्षभ।
स्तुवन्तो नाद्य दृश्यन्ते मङ्गलैः सूतमागधाः॥ १२॥
‘नरश्रेष्ठ! प्रवचनकुशल वन्दी, सूत और मागधजन आज अत्यन्त प्रसन्न हो अपने माङ्गलिक वचनोंद्वारा आपकी स्तुति करते नहीं दिखायी देते हैं।१२ ॥
न ते क्षौद्रं च दधि च ब्राह्मणा वेदपारगाः।
मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्तस्य ददति स्म विधानतः॥
‘वेदों के पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मणों ने आज मूर्धाभिषिक्त हुए आपके मस्तक पर तीर्थोदकमिश्रित मधु और दधि का विधिपूर्वक अभिषेक नहीं किया। १३॥
न त्वां प्रकृतयः सर्वाः श्रेणीमुख्याश्च भूषिताः।
अनुव्रजितुमिच्छन्ति पौरजानपदास्तथा ॥१४॥
‘मन्त्री-सेनापति आदि सारी प्रकृतियाँ, वस्त्राभूषणों से विभूषित मुख्य-मुख्य सेठ-साहूकार तथा नगर और जनपद के लोग आज आपके पीछे पीछे चलने की इच्छा नहीं कर रहे हैं! (इसका क्या कारण है?) ॥१४॥
चतुर्भिर्वेगसम्पन्नैर्हयैः काञ्चनभूषणैः ।
मुख्यः पुष्परथो युक्तः किं न गच्छति तेऽग्रतः॥ १५॥
‘सुनहरे साज-बाज से सजे हुए चार वेगशाली घोड़ों से जुता हुआ श्रेष्ठ पुष्परथ (पुष्पभूषित केवल भ्रमणोपयोगी रथ) आज आपके आगे-आगे क्यों नहीं चल रहा है? ॥ १५ ॥
न हस्ती चाग्रतः श्रीमान् सर्वलक्षणपूजितः।
प्रयाणे लक्ष्यते वीर कृष्णमेघगिरिप्रभः॥१६॥
‘वीर! आपकी यात्रा के समय समस्त शुभ लक्षणों से प्रशंसित तथा काले मेघवाले पर्वत के समान विशालकाय तेजस्वी गजराज आज आपके आगे क्यों नहीं दिखायी देता है ? ॥ १६॥
न च काञ्चनचित्रं ते पश्यामि प्रियदर्शन।
भद्रासनं पुरस्कृत्य यान्तं वीर पुरःसरम्॥१७॥
‘प्रियदर्शन वीर! आज आपके सुवर्णजटित भद्रासन को सादर हाथ में लेकर अग्रगामी सेवक आगे जाता क्यों नहीं दिखायी देता है ? ॥ १७॥
अभिषेको यदा सज्जः किमिदानीमिदं तव।
अपूर्वो मुखवर्णश्च न प्रहर्षश्च लक्ष्यते॥१८॥
‘जब अभिषेककी सारी तैयारी हो चुकी है, ऐसे समयमें आपकी यह क्या दशा हो रही है? आपके मुखकी कान्ति उड़ गयी है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। आपके चेहरेपर प्रसन्नताका कोई चिह्न नहीं दिखायी देता है। इसका क्या कारण है?’। १८॥
इतीव विलपन्तीं तां प्रोवाच रघुनन्दनः।
सीते तत्रभवांस्तातः प्रव्राजयति मां वनम्॥१९॥
इस प्रकार विलाप करती हुई सीतासे रघुनन्दन श्रीरामने कहा—’सीते! आज पूज्य पिताजी मुझे वनमें भेज रहे हैं॥१९॥
कुले महति सम्भूते धर्मज्ञे धर्मचारिणि।
शृणु जानकि येनेदं क्रमेणाद्यागतं मम॥२०॥
‘महान् कुलमें उत्पन्न, धर्मको जाननेवाली तथा धर्मपरायणे जनकनन्दिनि! जिस कारण यह वनवास आज मुझे प्राप्त हुआ है, वह क्रमशः बताता हूँ, सुनो॥
राज्ञा सत्यप्रतिज्ञेन पित्रा दशरथेन वै।
कैकेय्यै मम मात्रे तु पुरा दत्तौ महावरौ॥२१॥
मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिता महाराज दशरथ ने माता कैकेयी को पहले कभी दो महान् वर दिये थे॥ २१॥
तयाद्य मम सज्जेऽस्मिन्नभिषेके नृपोद्यते।
प्रचोदितः स समयो धर्मेण प्रतिनिर्जितः॥२२॥
‘इधर जब महाराज के उद्योग से मेरे राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी, तब कैकेयी ने उस वरदान की प्रतिज्ञा को याद दिलाया और महाराज को धर्मतः अपने काबू में कर लिया॥ २२॥
चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यं दण्डके मया।
पित्रा मे भरतश्चापि यौवराज्ये नियोजितः॥ २३॥
‘इससे विवश होकर पिताजी ने भरत को तो युवराज के पदपर नियुक्त किया और मेरे लिये दूसरा वर स्वीकार किया, जिसके अनुसार मुझे चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में निवास करना होगा॥२३॥
सोऽहं त्वामागतो द्रष्टुं प्रस्थितो विजनं वनम्।
भरतस्य समीपे ते नाहं कथ्यः कदाचन ॥२४॥
ऋद्धियुक्ता हि पुरुषा न सहन्ते परस्तवम्।
तस्मान्न ते गुणाः कथ्या भरतस्याग्रतो मम॥ २५॥
‘इस समय मैं निर्जन वन में जाने के लिये प्रस्थान कर चुका हूँ और तुमसे मिलने के लिये यहाँ आया हूँ। तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा न करना; क्योंकि समृद्धिशाली पुरुष दूसरे की स्तुति नहीं सहन कर पाते हैं। इसीलिये कहता हूँ कि तुम भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा न करना॥ २४-२५ ॥
अहं ते नानुवक्तव्यो विशेषेण कदाचन।
अनुकूलतया शक्यं समीपे तस्य वर्तितुम्॥२६॥
‘विशेषतः तुम्हें भरत के समक्ष अपनी सखियों के साथ भी बारंबार मेरी चर्चा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उनके मन के अनुकूल बर्ताव करके ही तुम उनके निकट रह सकती हो॥२६॥
तस्मै दत्तं नृपतिना यौवराज्यं सनातनम्।
स प्रसाद्यस्त्वया सीते नृपतिश्च विशेषतः॥२७॥
‘सीते! राजा ने उन्हें सदा के लिये युवराज पद दे दिया है, इसलिये तुम्हें विशेष प्रयत्नपूर्वक उन्हें प्रसन्न रखना चाहिये; क्योंकि अब वे ही राजा होंगे। २७॥
अहं चापि प्रतिज्ञां तां गुरोः समनुपालयन्।
वनमद्यैव यास्यामि स्थिरीभव मनस्विनि॥२८॥
मैं भी पिताजी की उस प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये आज ही वन को चला जाऊँगा। मनस्विनि ! तुम धैर्य धारण करके रहना॥२८॥
याते च मयि कल्याणि वनं मुनिनिषेवितम्।
व्रतोपवासपरया भवितव्यं त्वयानघे॥२९॥
‘कल्याणि! निष्पाप सीते! मेरे मुनिजन सेवित वन को चले जाने पर तुम्हें प्रायः व्रत और उपवास में संलग्न रहना चाहिये॥ २९॥
कल्यमुत्थाय देवानां कृत्वा पूजां यथाविधि।
वन्दितव्यो दशरथः पिता मम जनेश्वरः॥३०॥
‘प्रतिदिन सबेरे उठकर देवताओंकी विधिपूर्वक पूजा करके तुम्हें मेरे पिता महाराज दशरथकी वन्दना करनी चाहिये॥३०॥
माता च मम कौसल्या वृद्धा संतापकर्शिता।
धर्ममेवाग्रतः कृत्वा त्वत्तः सम्मानमर्हति॥३१॥
‘मेरी माता कौसल्या को भी प्रणाम करना चाहिये। एक तो वे बूढ़ी हुईं, दूसरे दुःख और संताप ने उन्हें दुर्बल कर दिया है; अतः धर्म को ही सामने रखकर तुमसे वे विशेष सम्मान पाने के योग्य हैं॥ ३१॥
वन्दितव्याश्च ते नित्यं याः शेषा मम मातरः।
स्नेहप्रणयसम्भोगैः समा हि मम मातरः॥३२॥
‘जो मेरी शेष माताएँ हैं, उनके चरणों में भी तुम्हें प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिये; क्योंकि स्नेह, उत्कृष्ट प्रेम और पालन-पोषण की दृष्टि से सभी माताएँ मेरे लिये समान हैं॥ ३२॥
भ्रातृपुत्रसमौ चापि द्रष्टव्यौ च विशेषतः।
त्वया भरतशत्रुघ्नौ प्राणैः प्रियतरौ मम॥३३॥
‘भरत और शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं, अतः तुम्हें उन दोनोंको विशेषतः अपने भाई और पुत्र के समान देखना और मानना चाहिये।। ३३॥
विप्रियं च न कर्तव्यं भरतस्य कदाचन।
स हि राजा च वैदेहि देशस्य च कुलस्य च॥ ३४॥
‘विदेहनन्दिनि! तुम्हें भरत की इच्छाके विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस समय वे मेरे देश और कुल के राजा हैं॥ ३४॥
आराधिता हि शीलेन प्रयत्नैश्चोपसेविताः।
राजानः सम्प्रसीदन्ति प्रकुप्यन्ति विपर्यये॥ ३५॥
‘अनुकूल आचरण के द्वारा आराधना और प्रयत्नपूर्वक सेवा करने पर राजा लोग प्रसन्न होते हैं तथा विपरीत बर्ताव करने पर वे कुपित हो जाते हैं। ३५॥
औरस्यानपि पुत्रान् हि त्यजन्त्यहितकारिणः।
समर्थान् सम्प्रगृह्णन्ति जनानपि नराधिपाः॥ ३६॥
‘जो अहित करने वाले हैं, वे अपने औरस पुत्र ही क्यों न हों, राजा उन्हें त्याग देते हैं और आत्मीय न होने पर भी जो सामर्थ्यवान् होते हैं, उन्हें वे अपना बना लेते हैं॥ ३६॥
सा त्वं वसेह कल्याणि राज्ञः समनुवर्तिनी।
भरतस्य रता धर्मे सत्यव्रतपरायणा॥३७॥
‘अतः कल्याणि! तुम राजा भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहाँ निवास करो॥ ३७॥
अहं गमिष्यामि महावनं प्रिये त्वया हि वस्तव्यमिहैव भामिनि।
यथा व्यलीकं कुरुषे न कस्यचित् तथा त्वया कार्यमिदं वचो मम॥३८॥
‘प्रिये! अब मैं उस विशाल वन में चला जाऊँगा,भामिनि! तुम्हें यहीं निवास करना होगा। तुम्हारे बर्ताव से किसी को कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते हुए तुम्हें यहाँ मेरी इस आज्ञा का पालन करते रहना चाहिये’॥ ३८॥
सर्ग २७
एवमुक्ता तु वैदेही प्रियाय प्रियवादिनी।
प्रणयादेव संक्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर प्रियवादिनी विदेहकुमारी सीताजी, जो सब प्रकार से अपने स्वामी का प्यार पाने योग्य थीं, प्रेम से ही कुछ कुपित होकर पति से इस प्रकार बोलीं- ॥ १॥
किमिदं भाषसे राम वाक्यं लघुतया ध्रुवम्।
त्वया यदपहास्यं मे श्रुत्वा नरवरोत्तम ॥२॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम! आप मुझे ओछी समझकर यह क्या कह रहे हैं? आपकी ये बातें सुनकर मुझे बहुत हँसी आती है॥२॥
वीराणां राजपुत्राणां शस्त्रास्त्रविदुषां नृप।
अनर्हमयशस्यं च न श्रोतव्यं त्वयेरितम्॥३॥
‘नरेश्वर! आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्रशस्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों के योग्य नहीं है। वह अपयश का टीका लगानेवाला होने के कारण सुनने योग्य भी नहीं है॥३॥
आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा।
स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते॥४॥
‘आर्यपुत्र ! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू-ये सब पुण्यादि कर्मों का फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य (शुभाशुभ कर्म) के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं॥४॥
भर्तुर्भाग्यं तु नार्येका प्राप्नोति पुरुषर्षभ।
अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि॥५॥
‘पुरुषप्रवर! केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गयी है॥५॥
न पिता नात्मजो वात्मा न माता न सखीजनः।
इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा॥६॥
‘नारियों के लिये इस लोक और परलोक में एकमात्र पति ही सदा आश्रय देनेवाला है। पिता, पुत्र, माता, सखियाँ तथा अपना यह शरीर भी उसका सच्चा सहायक नहीं है।
यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव।
अग्रतस्ते गमिष्यामि मृदुनन्ती कुशकण्टकान्॥ ७॥
‘रघुनन्दन! यदि आप आज ही दुर्गम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो मैं रास्ते के कुश और काँटों को कुचलती हुई आपके आगे-आगे चलूँगी॥७॥
ईर्ष्या रोषं बहिष्कृत्य भुक्तशेषमिवोदकम्।
नय मां वीर विस्रब्धः पापं मयि न विद्यते॥८॥
‘अतः वीर! आप ईर्ष्या और रोष को दूर करके पीने से बचे हुए जल की भाँति मुझे निःशङ्क होकर साथ ले चलिये। मुझमें ऐसा कोई पाप-अपराध नहीं है, जिसके कारण आप मुझे यहाँ त्याग दें॥८॥
प्रासादाग्रे विमानैर्वा वैहायसगतेन वा।
सर्वावस्थागता भर्तुः पादच्छाया विशिष्यते॥९॥
‘ऊँचे-ऊँचे महलों में रहना, विमानों पर चढ़कर घूमना अथवा अणिमा आदि सिद्धियों के द्वारा आकाश में विचरना—इन सबकी अपेक्षा स्त्री के लिये सभी अवस्थाओं में पति के चरणों की छाया में रहना विशेष महत्त्व रखता है॥९॥
अनुशिष्टास्मि मात्रा च पित्रा च विविधाश्रयम्।
नास्मि सम्प्रति वक्तव्या वर्तितव्यं यथा मया॥ १०॥
‘मुझे किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस विषय में मेरी माता और पिता ने मुझे अनेक प्रकार से शिक्षा दी है। इस समय इसके विषय में मुझे कोई उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है॥ १०॥
अहं दुर्गं गमिष्यामि वनं पुरुषवर्जितम्।
नानामृगगणाकीर्णं शार्दूलगणसेवितम्॥११॥
‘अतः नाना प्रकारके वन्य पशुओंसे व्याप्त तथा सिंहों और व्याघ्रोंसे सेवित उस निर्जन एवं दुर्गम | वनमें मैं अवश्य चलूँगी॥११॥
सुखं वने निवत्स्यामि यथैव भवने पितुः।
अचिन्तयन्ती त्रील्लोकांश्चिन्तयन्ती पतिव्रतम्॥
‘मैं तो जैसे अपने पिता के घर में रहती थी, उसी प्रकार उस वन में भी सुखपूर्वक निवास करूँगी। वहाँ तीनों लोकों के ऐश्वर्य को भी कुछ न समझती हुई मैं सदा पतिव्रत-धर्म का चिन्तन करती हुई आपकी सेवा में लगी रहूँगी॥ १२ ॥
शुश्रूषमाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी।
सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगन्धिषु॥१३॥
‘वीर! नियमपूर्वक रहकर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करूँगी और सदा आपकी सेवा में तत्पर रहकर आपही के साथ मीठी-मीठी सुगन्ध से भरे हुए वनों में विचरूँगी॥ १३॥
त्वं हि कर्तुं वने शक्तो राम सम्परिपालनम्।
अन्यस्यापि जनस्येह किं पुनर्मम मानद ॥१४॥
‘दूसरों को मान देने वाले श्रीराम! आप तो वन में रहकर दूसरे लोगों की भी रक्षा कर सकते हैं, फिर मेरी रक्षा करना आपके लिये कौन बड़ी बात है?॥ १४॥
साहं त्वया गमिष्यामि वनमद्य न संशयः।
नाहं शक्या महाभाग निवर्तयितुमुद्यता॥१५॥
‘महाभाग! अतः मैं आपके साथ आज अवश्य वनमें चलूँगी। इसमें संशय नहीं है। मैं हर तरह चलनेको तैयार हूँ। मुझे किसी तरह भी रोका नहीं जा सकता ॥ १५॥
फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः।
न ते दुःखं करिष्यामि निवसन्ती त्वया सदा॥ १६॥
‘वहाँ चलकर मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूंगी, सदा आपके साथ रहूँगी और प्रतिदिन फल-मूल खाकर ही निर्वाह करूँगी। मेरे इस कथनमें किसी प्रकारके संदेहके लिये स्थान नहीं है॥१६॥
अग्रतस्ते गमिष्यामि भोक्ष्ये भुक्तवति त्वयि।
इच्छामि परतः शैलान् पल्वलानि सरांसि च॥ १७॥
द्रष्टुं सर्वत्र निर्मीता त्वया नाथेन धीमता।
‘आपके आगे-आगे चलूँगी और आपके भोजन कर लेने पर जो कुछ बचेगा, उसे ही खाकर रहूँगी।प्रभो! मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं आप बुद्धिमान् प्राणनाथ के साथ निर्भय हो वन में सर्वत्र घूमकर पर्वतों, छोटे-छोटे तालाबों और सरोवरों को देखू॥ १७ १/२॥
हंसकारण्डवाकीर्णाः पद्मिनीः साधुपुष्पिताः॥ १८॥
इच्छेयं सुखिनी द्रष्टुं त्वया वीरेण संगता।
‘आप मेरे वीर स्वामी हैं। मैं आपके साथ रहकर सुखपूर्वक उन सुन्दर सरोवरों की शोभा देखना चाहती हूँ, जो श्रेष्ठ कमलपुष्पों से सुशोभित हैं तथा जिनमें हंस और कारण्डव आदि पक्षी भरे रहते हैं॥ १८ १/२॥
अभिषेकं करिष्यामि तासु नित्यमनुव्रता॥१९॥
सह त्वया विशालाक्ष रंस्ये परमनन्दिनी।
‘विशाल नेत्रोंवाले आर्यपुत्र! आपके चरणों में अनुरक्त रहकर मैं प्रतिदिन उन सरोवरों में स्नान करूँगी और आपके साथ वहाँ सब ओर विचरूँगी, इससे मुझे परम आनन्द का अनुभव होगा॥ १९ १/२ ॥
एवं वर्षसहस्राणि शतं वापि त्वया सह ॥२०॥
व्यतिक्रमं न वेत्स्यामि स्वर्गोऽपि हि न मे मतः।
‘इस तरह सैकड़ों या हजारों वर्षों तक भी यदि आपके साथ रहने का सौभाग्य मिले तो मुझे कभी कष्ट का अनुभव नहीं होगा। यदि आप साथ न हों तो मुझे स्वर्गलोक की प्राप्ति भी अभीष्ट नहीं है॥ २० १/२॥
स्वर्गेऽपि च विना वासो भविता यदि राघव।
त्वया विना नरव्याघ्र नाहं तदपि रोचये॥२१॥
‘पुरुषसिंह रघुनन्दन! आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोक का निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिये रुचिकर नहीं हो सकता—मैं उसे लेना नहीं चाहूँगी॥ २१॥
अहं गमिष्यामि वनं सदर्गमं मृगायुतं वानरवारणैश्च।
वने निवत्स्यामि यथा पितुर्गृहे तवैव पादावुपगृह्य सम्मता॥२२॥
‘प्राणनाथ! अतः उस अत्यन्त दुर्गम वन में, जहाँ सहस्रों मृग, वानर और हाथी निवास करते हैं, मैं अवश्य चलूँगी और आपके ही चरणों की सेवा में रहकर आपके अनुकूल चलती हुई उस वन में उसी तरह सुख से रहूँगी, जैसे पिता के घर में रहा करती थी॥ २२॥
अनन्यभावामनुरक्तचेतसं त्वया वियुक्तां मरणाय निश्चिताम्।
नयस्व मां साधु कुरुष्व याचना नातो मया ते गुरुता भविष्यति ॥२३॥
‘मेरे हृदय का सम्पूर्ण प्रेम एकमात्र आपको ही अर्पित है, आपके सिवा और कहीं मेरा मन नहीं जाता, यदि आपसे वियोग हुआ तो निश्चय ही मेरी मृत्यु हो जायगी। इसलिये आप मेरी याचना सफल करें, मुझे साथ ले चलें, यही अच्छा होगा; मेरे रहने से आपपर कोई भार नहीं पड़ेगा’ ॥ २३॥
तथा ब्रुवाणामपि धर्मवत्सलां न च स्म सीतां नृवरो निनीषति।
उवाच चैनां बहु संनिवर्तने वने निवासस्य च दुःखितां प्रति॥२४॥
धर्म में अनुरक्त रहने वाली सीता के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भी नरश्रेष्ठ श्रीराम को उन्हें साथ ले जाने की इच्छा नहीं हुई। वे उन्हें वनवास के विचार से निवृत्त करने के लिये वहाँ के कष्टों का अनेक प्रकार से विस्तारपूर्वक वर्णन करने लगे॥ २४॥
सर्ग २८
स एवं ब्रुवतीं सीतां धर्मज्ञां धर्मवत्सलः।
न नेतुं कुरुते बुद्धिं वने दुःखानि चिन्तयन्॥१॥
धर्म को जानने वाली सीता के इस प्रकार कहने पर भी धर्मवत्सल श्रीराम ने वन में होने वाले दुःखों को सोचकर उन्हें साथ ले जाने का विचार नहीं किया॥१॥
सान्त्वयित्वा ततस्तां तु बाष्पदूषितलोचनाम्।
निवर्तनार्थे धर्मात्मा वाक्यमेतदुवाच ह॥२॥
सीता के नेत्रों में आँसू भरे हुए थे। धर्मात्मा श्रीराम उन्हें वनवास के विचार से निवृत्त करने के लिये सान्त्वना देते हुए इस प्रकार बोले- ॥२॥
सीते महाकुलीनासि धर्मे च निरता सदा।
इहाचरस्व धर्मं त्वं यथा मे मनसः सुखम्॥
‘सीते! तुम अत्यन्त उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो और सदा धर्म के आचरण में ही लगी रहती हो; अतःयहीं रहकर धर्म का पालन करो, जिससे मेरे मन को संतोष हो॥
सीते यथा त्वां वक्ष्यामि तथा कार्यं त्वयाबले।
वने दोषा हि बहवो वसतस्तान् निबोध मे॥४॥
‘सीते! मैं तुमसे जैसा कहूँ, वैसा ही करना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम अबला हो, वन में निवास करने वाले मनुष्य को बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं; उन्हें बता रहा हूँ, मुझसे सुनो॥४॥
सीते विमुच्यतामेषा वनवासकृता मतिः।
बहुदोषं हि कान्तारं वनमित्यभिधीयते॥५॥
‘सीते! वनवास के लिये चलने का यह विचार छोड़ दो, वन को अनेक प्रकार के दोषों से व्याप्त और दुर्गम बताया जाता है॥५॥
हितबुद्ध्या खलु वचो मयैतदभिधीयते।
सदा सुखं न जानामि दुःखमेव सदा वनम्॥६॥
‘तुम्हारे हित की भावना से ही मैं ये सब बातें कह रहा हूँ। जहाँ तक मेरी जानकारी है, वन में सदा सुख नहीं मिलता। वहाँ तो सदा दुःख ही मिला करता है। ६॥
गिरिनिर्झरसम्भूता गिरिनिर्दरिवासिनाम्।
सिंहानां निनदा दुःखाः श्रोतुं दुःखमतो वनम्॥ ७॥
‘पर्वतों से गिरने वाले झरनों के शब्द को सुनकर उन पर्वतों की कन्दराओं में रहने वाले सिंह दहाड़ने लगते हैं। उनकी वह गर्जना सुनने में बड़ी दुःखदायिनी प्रतीत होती है, इसलिये वन दुःखमय ही है॥ ७॥
क्रीडमानाश्च विस्रब्धा मत्ताः शून्ये तथा मृगाः।
दृष्ट्वा समभिवर्तन्ते सीते दुःखमतो वनम्॥८॥
‘सीते! सूने वन में निर्भय होकर क्रीड़ा करने वाले मतवाले जंगली पशु मनुष्य को देखते ही उस पर चारों ओर से टूट पड़ते हैं; अतः वन दुःख से भरा हुआ है।
सग्राहाः सरितश्चैव पङ्कवत्यस्तु दुस्तराः।
मत्तैरपि गजैर्नित्यमतो दुःखतरं वनम्॥९॥
‘वन में जो नदियाँ होती हैं, उनके भीतर ग्राह निवास करते हैं, उनमें कीचड़ अधिक होने के कारण उन्हें पार करना अत्यन्त कठिन होता है। इसके सिवा वन में मतवाले हाथी सदा घूमते रहते हैं। इस सब कारणों से वन बहुत ही दुःखदायक होता है॥९॥
लताकण्टकसंकीर्णाः कृकवाकूपनादिताः।
निरपाश्च सुदुःखाश्च मार्गा दुःखमतो वनम्॥ १०॥
‘वन के मार्ग लताओं और काँटों से भरे रहते हैं। वहाँ जंगली मुर्गे बोला करते हैं, उन मार्गों पर चलने में बड़ा कष्ट होता है तथा वहाँ आस-पास जल नहीं मिलता, इससे वन में दुःख-ही-दुःख है॥ १० ॥
सुप्यते पर्णशय्यासु स्वयंभग्नासु भूतले।
रात्रिषु श्रमखिन्नेन तस्माद् दुःखमतो वनम्॥ ११॥
‘दिनभर के परिश्रम से थके-माँदे मनुष्य को रात में जमीन के ऊपर अपने-आप गिरे हुए सूखे पत्तों के बिछौने पर सोना पड़ता है, अतः वन दुःख से भरा हुआ है॥ ११॥
अहोरात्रं च संतोषः कर्तव्यो नियतात्मना।
फलैर्वृक्षावपतितैः सीते दुःखमतो वनम्॥१२॥
‘सीते! वहाँ मन को वश में रखकर वृक्षों से स्वतः गिरे हुए फलों के आहार पर ही दिन-रात संतोष करना पड़ता है, अतः वन दुःख देने वाला ही है॥ १२ ॥
उपवासश्च कर्तव्यो यथा प्राणेन मैथिलि।
जटाभारश्च कर्तव्यो वल्कलाम्बरधारणम्॥ १३॥
‘मिथिलेशकुमारी! अपनी शक्तिके अनुसार उपवास करना, सिरपर जटाका भार ढोना और वल्कल वस्त्र धारण करना—यही वहाँकी जीवनशैली है॥ १३ ॥
देवतानां पितॄणां च कर्तव्यं विधिपूर्वकम्।
प्राप्तानामतिथीनां च नित्यशः प्रतिपूजनम्॥ १४॥
‘देवताओं का, पितरों का तथा आये हुए अतिथियों का प्रतिदिन शास्त्रोक्तविधि के अनुसार पूजन करना—यह वनवासी का प्रधान कर्तव्य है॥ १४ ॥
कार्यस्त्रिरभिषेकश्च काले काले च नित्यशः।
चरतां नियमेनैव तस्माद् दुःखतरं वनम्॥१५॥
‘वनवासी को प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों समय स्नान करना होता है। इसलिये वन बहुत ही कष्ट देनेवाला है।
उपहारश्च कर्तव्यः कुसुमैः स्वयमाहृतैः।
आर्षेण विधिना वेद्यां सीते दुःखमतो वनम्॥ १६॥
‘सीते! वहाँ स्वयं चुनकर लाये हुए फूलों द्वारा वेदोक्त विधि से वेदी पर देवताओं की पूजा करनी पड़ती है। इसलिये वन को कष्टप्रद कहा गया है।॥ १६॥
यथालब्धेन कर्तव्यः संतोषस्तेन मैथिलि।
यताहारैर्वनचरैः सीते दुःखमतो वनम्॥१७॥
‘मिथिलेशकुमारी जानकी! वनवासियों को जब जैसा आहार मिल जाय उसी पर संतोष करना पड़ता है; अतः वन दुःखरूप ही है॥ १७॥
अतीव वातस्तिमिरं बुभुक्षा चाति नित्यशः।
भयानि च महान्त्यत्र ततो दुःखतरं वनम्॥१८॥
‘वन में प्रचण्ड आँधी, घोर अन्धकार, प्रतिदिन भूख का कष्ट तथा और भी बड़े-बड़े भय प्राप्त होते हैं, अतः वन अत्यन्त कष्टप्रद है॥ १८॥
सरीसृपाश्च बहवो बहुरूपाश्च भामिनि।
चरन्ति पथि ते दर्पात् ततो दुःखतरं वनम्॥१९॥
‘भामिनि! वहाँ बहुत-से पहाड़ी सर्प, जो अनेक प्रकार के रूपवाले होते हैं, दर्पवश बीच रास्ते में विचरते रहते हैं; अतः वन अत्यन्त कष्टदायक है। १९॥
नदीनिलयनाः सर्पा नदीकुटिलगामिनः।
तिष्ठन्त्यावृत्य पन्थानमतो दुःखतरं वनम्॥२०॥
‘जो नदियों में निवास करते और नदियों के समान ही कुटिल गति से चलते हैं, ऐसे बहुसंख्यक सर्प वन में रास्ते को घेरकर पड़े रहते हैं; इसलिये वन बहुत ही कष्टदायक है॥ २०॥
पतङ्गा वृश्चिकाः कीटा दंशाश्च मशकैः सह।
बाधन्ते नित्यमबले सर्वं दुःखमतो वनम्॥ २१॥
‘अबले! पतंगे, बिच्छू, कीड़े, डाँस और मच्छर वहाँ सदा कष्ट पहुँचाते रहते हैं; अतः सारा वन दुःखरूप ही है॥ २१॥
द्रुमाः कण्टकिनश्चैव कुशाः काशाश्च भामिनि।
वने व्याकुलशाखाग्रास्तेन दुःखमतो वनम्॥ २२॥
‘भामिनि! वन में काँटेदार वृक्ष, कुश और कास होते हैं, जिनकी शाखाओं के अग्रभाग सब ओर फैले हुए होते हैं; इसलिये वन विशेष कष्टदायक होता है। २२॥
कायक्लेशाश्च बहवो भयानि विविधानि च।
अरण्यवासे वसतो दुःखमेव सदा वनम्॥२३॥
‘वनमें निवास करने वाले मनुष्य को बहुत-से शारीरिक क्लेशों और नाना प्रकार के भयों का सामना करना पड़ता है, अतः वन सदा दुःखरूप ही होता है।॥ २३॥
क्रोधलोभौ विमोक्तव्यौ कर्तव्या तपसे मतिः।
न भेतव्यं च भेतव्ये दुःखं नित्यमतो वनम्॥ २४॥
‘वहाँ क्रोध और लोभ को त्याग देना होता है, तपस्या में मन लगाना पड़ता है और जहाँ भय का स्थान है, वहाँ भी भयभीत न होने की आवश्यकता होती है; अतः वन में सदा दुःख-ही-दुःख है॥ २४॥
तदलं ते वनं गत्वा क्षेमं नहि वनं तव।।
विमृशन्निव पश्यामि बहुदोषकरं वनम्॥२५॥
‘इसलिये तुम्हारा वन में जाना ठीक नहीं है। वहाँ जाकर तुम सकुशल नहीं रह सकती। मैं बहुत सोच विचारकर देखता और समझता हूँ कि वन में रहना अनेक दोषों का उत्पादक बहुत ही कष्टदायक है। २५॥
वनं तु नेतुं न कृता मतिर्यदा बभूव रामेण तदा महात्मना।
न तस्य सीता वचनं चकार तं ततोऽब्रवीद् राममिदं सुदुःखिता॥२६॥
जब महात्मा श्रीराम ने उस समय सीता को वन में ले जाने का विचार नहीं किया, तब सीता ने भी उनकी उस बात को नहीं माना। वे अत्यन्त दुःखी होकर श्रीराम से इस प्रकार बोलीं॥२६॥
सर्ग २९
एतत् तु वचनं श्रुत्वा सीता रामस्य दुःखिता।
प्रसक्ताश्रुमुखी मन्दमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर सीता को बड़ा दुःख हुआ, उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली और वे धीरे-धीरे इस प्रकार कहने लगीं- ॥१॥
ये त्वया कीर्तिता दोषा वने वस्तव्यतां प्रति।
गुणानित्येव तान् विद्धि तव स्नेहपुरस्कृता॥२॥
‘प्राणनाथ! आपने वन में रहने के जो-जो दोष बताये हैं, वे सब आपका स्नेह पाकर मेरे लिये गुणरूप हो जायँगे। इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें॥
मृगाः सिंहा गजाश्चैव शार्दूलाः शरभास्तथा।
चमराः सृमराश्चैव ये चान्ये वनचारिणः॥३॥
अदृष्टपूर्वरूपत्वात् सर्वे ते तव राघव।
रूपं दृष्ट्वापसपैयुस्तव सर्वे हि बिभ्यति॥४॥
‘रघुनन्दन! मृग, सिंह, हाथी, शेर, शरभ. चमरी गाय, नीलगाय तथा जो अन्य जंगली जीव हैं, वे सब-के-सब आपका रूप देखकर भाग जायँगे; क्योंकि ऐसा प्रभावशाली स्वरूप उन्होंने पहले कभी नहीं देखा होगा। आपसे तो सभी डरते हैं; फिर वे पशु क्यों नहीं डरेंगे? ॥ ३-४॥
त्वया च सह गन्तव्यं मया गुरुजनाज्ञया।
त्वद्वियोगेन मे राम त्यक्तव्यमिह जीवितम्॥५॥
‘श्रीराम! मुझे गुरुजनों की आज्ञा से निश्चय ही आपके साथ चलना है; क्योंकि आपका वियोग हो जाने पर मैं यहाँ अपने जीवन का परित्याग कर दूँगी॥
नहि मां त्वत्समीपस्थामपि शक्रोऽपि राघव।
सुराणामीश्वरः शक्तः प्रधर्षयितुमोजसा॥६॥
‘रघुनाथजी! आपके समीप रहने पर देवताओं के राजा इन्द्र भी बलपूर्वक मेरा तिरस्कार नहीं कर सकते॥६॥
पतिहीना तु या नारी न सा शक्ष्यति जीवितुम्।
काममेवंविधं राम त्वया मम निदर्शितम्॥७॥
श्रीराम ! पतिव्रता स्त्री अपने पति से वियोग होने पर जीवित नहीं रह सकेगी; ऐसी बात आपने भी मुझे भलीभाँति दर्शायी है॥७॥
अथापि च महाप्राज्ञ ब्राह्मणानां मया श्रुतम्।
पुरा पितृगृहे सत्यं वस्तव्यं किल मे वने॥८॥
‘महाप्राज्ञ! यद्यपि वन में दोष और दुःख ही भरे हैं, तथापि अपने पिता के घर पर रहते समय मैं ब्राह्मणों के मुख से पहले यह बात सुन चुकी हूँ कि ‘मुझे अवश्य ही वन में रहना पड़ेगा’ यह बात मेरे जीवन में सत्य होकर रहेगी॥८॥
लक्षणिभ्यो द्विजातिभ्यः श्रुत्वाहं वचनं गृहे।
वनवासकृतोत्साहा नित्यमेव महाबल॥९॥
‘महाबली वीर! हस्तरेखा देखकर भविष्य की बातें जान लेने वाले ब्राह्मणों के मुख से अपने घर पर ऐसी बात सुनकर मैं सदा ही वनवास के लिये उत्साहित रहती हूँ॥
आदेशो वनवासस्य प्राप्तव्यः स मया किल।
सा त्वया सह भाहं यास्यामि प्रिय नान्यथा॥ १०॥
‘प्रियतम! ब्राह्मण से ज्ञात हुआ वन में रहने का आदेश एक-न-एक दिन मुझे पूरा करना ही पड़ेगा, यह किसी तरह पलट नहीं सकता। अतः मैं अपने स्वामी आपके साथ वन में अवश्य चलूँगी॥ १० ॥
कृतादेशा भविष्यामि गमिष्यामि त्वया सह।
कालश्चायं समुत्पन्नः सत्यवान् भवतु द्विजः॥ ११॥
‘ऐसा होने से मैं उस भाग्य के विधान को भोग लूंगी। उसके लिये यह समय आ गया है, अतः आपके साथ मुझे चलना ही है; इससे उस ब्राह्मण की बात भी सच्ची हो जायगी॥ ११॥
वनवासे हि जानामि दुःखानि बहुधा किल।
प्राप्यन्ते नियतं वीर पुरुषैरकृतात्मभिः॥१२॥
‘वीर! मैं जानती हूँ कि वनवास में अवश्य ही बहुत-से दुःख प्राप्त होते हैं; परंतु वे उन्हीं को दुःख जान पड़ते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नहीं हैं ॥ १२॥
कन्यया च पितुर्गेहे वनवासः श्रुतो मया।
भिक्षिण्याः शमवृत्ताया मम मातुरिहाग्रतः॥१३॥
‘पिता के घर पर कुमारी अवस्था में एक शान्तिपरायणा भिक्षुकी के मुख से भी मैंने अपने वनवास की बात सुनी थी। उसने मेरी माता के सामने ही ऐसी बात कही थी॥
प्रसादितश्च वै पूर्वं त्वं मे बहुतिथं प्रभो।
गमनं वनवासस्य कांक्षितं हि सह त्वया॥१४॥
‘प्रभो! यहाँ आने पर भी मैंने पहले ही कई बार आपसे कुछ कालतक वन में रहने के लिये प्रार्थना की थी और आपको राजी भी कर लिया था। इससे आप निश्चितरूप से जान लें कि आपके साथ वन को चलना मुझे पहले से ही अभीष्ट है॥ १४ ॥
कृतक्षणाहं भद्रं ते गमनं प्रति राघव।
वनवासस्य शूरस्य मम चर्या हि रोचते॥१५॥
‘रघुनन्दन! आपका भला हो। मैं वहाँ चलने के लिये पहले से ही आपकी अनुमति प्राप्त कर चुकी हूँ। अपने शूरवीर वनवासी पति की सेवा करना मेरे लिये अधिक रुचिकर है॥ १५ ॥
शुद्धात्मन् प्रेमभावाद्धि भविष्यामि विकल्मषा।
भर्तारमनुगच्छन्ती भर्ता हि परदैवतम्॥१६॥
‘शुद्धात्मन्! आप मेरे स्वामी हैं, आपके पीछे प्रेमभाव से वन में जाने पर मेरे पाप दूर हो जायेंगे; क्योंकि स्वामी ही स्त्री के लिये सबसे बड़ा देवता है॥ १६॥
प्रेत्यभावे हि कल्याणः संगमो मे सदा त्वया।
श्रुतिर्हि श्रूयते पुण्या ब्राह्मणानां यशस्विनाम्॥ १७॥
‘आपके अनुगमन से परलोक में भी मेरा कल्याण होगा और सदा आपके साथ मेरा संयोग बना रहेगा। इस विषय में यशस्वी ब्राह्मणों के मुख से एक पवित्र – श्रुति सुनी जाती है (जो इस प्रकार है-)॥१७॥
इहलोके च पितृभिर्या स्त्री यस्य महाबल।
अद्भिर्दत्ता स्वधर्मेण प्रेत्यभावेऽपि तस्य सा॥ १८॥
‘महाबली वीर! इस लोक में पिता आदि के द्वारा जो कन्या जिस पुरुष को अपने धर्म के अनुसार जल से संकल्प करके दे दी जाती है, वह मरने के बाद परलोक में भी उसी की स्त्री होती है॥ १८॥
एवमस्मात् स्वकां नारी सुवृत्तां हि पतिव्रताम्।
नाभिरोचयसे नेतुं त्वं मां केनेह हेतुना ॥१९॥
‘मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, उत्तम व्रत का पालन करने वाली और पतिव्रता हूँ, फिर क्या कारण है कि आप मुझे यहाँ से अपने साथ ले चलना नहीं चाहतेहैं।॥ १९॥
भक्तां पतिव्रतां दीनां मां समां सुखदुःखयोः।
नेतुमर्हसि काकुत्स्थ समानसुखदुःखिनीम्॥२०॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण! मैं आपकी भक्त हूँ, पातिव्रत्य का पालन करती हूँ, आपके बिछोह के भय से दीन हो रही हूँ तथा आपके सुख-दुःख में समान रूप से हाथ बँटाने वाली हूँ। मुझे सुख मिले या दुःख, मैं दोनों अवस्थाओं में सम रहूँगी हर्ष या शोक के वशीभूत नहीं होऊँगी। अतः आप अवश्य ही मुझे साथ ले चलने की कृपा करें॥ २०॥
यदि मां दुःखितामेवं वनं नेतुं न चेच्छसि।
विषमग्निं जलं वाहमास्थास्ये मृत्युकारणात्॥ २१॥
‘यदि आप इस प्रकार दुःख में पड़ी हुई मुझ सेविका को अपने साथ वन में ले जाना नहीं चाहते हैं तो मैं मृत्यु के लिये विष खा लूँगी, आगमें कूद पडूंगी अथवा जल में डूब जाऊँगी’ ॥ २१॥
एवं बहुविधं तं सा याचते गमनं प्रति।
नानुमेने महाबाहुस्तां नेतुं विजनं वनम्॥ २२॥
इस तरह अनेक प्रकार से सीताजी वन में जाने के लिये याचना कर रही थीं तथापि महाबाहु श्रीराम ने उन्हें अपने साथ निर्जन वन में ले जाने की अनुमति नहीं दी।
एवमुक्ता तु सा चिन्तां मैथिली समुपागता।
स्नापयन्तीव गामुष्णैरश्रुभिर्नयनच्युतैः॥२३॥
इस प्रकार उनके अस्वीकार कर देने पर मिथिलेशकुमारी सीता को बड़ी चिन्ता हुई और वे अपने नेत्रों से गरम-गरम आँसू बहाकर धरती को भिगोने-सी लगीं॥ २३॥
चिन्तयन्तीं तदा तां तु निवर्तयितुमात्मवान्।
क्रोधाविष्टां तु वैदेहीं काकुत्स्थो बह्वसान्त्वयत्॥ २४॥
उस समय विदेहनन्दिनी जानकी को चिन्तित और कुपित देख मन को वश में रखने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें वनवास के विचार से निवृत्त करने के लिये भाँति भाँति की बातें कहकर समझाया॥ २४ ॥
सर्ग ३०
सान्त्व्यमाना तु रामेण मैथिली जनकात्मजा।
वनवासनिमित्तार्थं भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
श्रीराम के समझाने पर मिथिलेशकुमारी जानकी वनवास की आज्ञा प्राप्त करने के लिये अपने पति से फिर इस प्रकार बोलीं॥१॥
सा तमुत्तमसंविग्ना सीता विपुलवक्षसम्।
प्रणयाच्चाभिमानाच्च परिचिक्षेप राघवम्॥२॥
सीता अत्यन्त डरी हुई थीं। वे प्रेम और स्वाभिमान के कारण विशाल वक्षःस्थलवाले श्रीरामचन्द्रजी पर आक्षेप-सा करती हुई कहने लगीं – ॥२॥
किं त्वामन्यत वैदेहः पिता मे मिथिलाधिपः।
राम जामातरं प्राप्य स्त्रियं पुरुषविग्रहम्॥३॥
‘श्रीराम! क्या मेरे पिता मिथिलानरेश विदेहराज जनक ने आपको जामाता के रूप में पाकर कभी यह भी समझा था कि आप केवल शरीर से ही पुरुष हैं; कार्यकलाप से तो स्त्री ही हैं॥३॥
अनृतं बत लोकोऽयमज्ञानाद् यदि वक्ष्यति।
तेजो नास्ति परं रामे तपतीव दिवाकरे॥४॥
‘नाथ! आपके मुझे छोड़कर चले जानेपर संसारके लोग अज्ञानवश यदि यह कहने लगें कि सूर्यके समान तपनेवाले श्रीरामचन्द्रमें तेज और पराक्रमका अभाव है तो उनकी यह असत्य धारणा मेरे लिये कितने दुःखकी बात होगी॥ ४॥
किं हि कृत्वा विषण्णस्त्वं कुतो वा भयमस्ति ते।
यत् परित्यक्तुकामस्त्वं मामनन्यपरायणाम्॥५॥
‘आप क्या सोचकर विषादमें पड़े हुए हैं अथवा किससे आपको भय हो रहा है, जिसके कारण आप अपनी पत्नी मुझ सीताका, जो एकमात्र आपके ही आश्रित है, परित्याग करना चाहते हैं॥ ५॥
धुमत्सेनसुतं वीरं सत्यवन्तमनुव्रताम्।
सावित्रीमिव मां विद्धि त्वमात्मवशवर्तिनीम्॥ ६॥
‘जैसे सावित्री धुमत्सेनकुमार वीरवर सत्यवान् की ही अनुगामिनी थी, उसी प्रकार आप मुझे भी अपनी ही आज्ञा के अधीन समझिये॥६॥
न त्वहं मनसा त्वन्यं द्रष्टास्मि त्वदृतेऽनघ।
त्वया राघव गच्छेयं यथान्या कुलपांसनी॥७॥
‘निष्पाप रघुनन्दन! जैसी दूसरी कोई कुलकलङ्किनी स्त्री परपुरुष पर दृष्टि रखती है, वैसी मैं नहीं हूँ। मैं तो आपके सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन से भी नहीं देख सकती। इसलिये आपके साथ ही चलूँगी (आपके बिना अकेली यहाँ नहीं रहूँगी)॥ ७॥
स्वयं तु भार्यां कौमारी चिरमध्युषितां सतीम्।
शैलूष इव मां राम परेभ्यो दातुमिच्छसि॥८॥
‘श्रीराम! जिसका कुमारावस्था में ही आपके साथ विवाह हुआ है और जो चिरकाल तक आपके साथ रह चुकी है, उसी मुझ अपनी सती-साध्वी पत्नी को आप औरत की कमाई खाने वाले नट की भाँति दूसरों के हाथ में सौंपना चाहते हैं? ॥ ८॥
यस्य पथ्यंचरामात्थ यस्य चार्थेऽवरुध्यसे।
त्वं तस्य भव वश्यश्च विधेयश्च सदानघ॥९॥
‘निष्पाप रघुनन्दन! आप मुझे जिसके अनुकूल चलने की शिक्षा दे रहे हैं और जिसके लिये आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया है, उस भरत के सदा ही वशवर्ती और आज्ञापालक बनकर आप ही रहिये, मैं नहीं रहूँगी॥९॥
स मामनादाय वनं न त्वं प्रस्थितमर्हसि।
तपो वा यदि वारण्यं स्वर्गो वा स्यात् त्वया सह॥ १०॥
‘इसलिये आपका मुझे अपने साथ लिये बिना वन की ओर प्रस्थान करना उचित नहीं है। यदि तपस्या करनी हो, वन में रहना हो अथवा स्वर्ग में जाना हो तो सभी जगह मैं आपके साथ रहना चाहती हूँ॥ १०॥
न च मे भविता तत्र कश्चित् पथि परिश्रमः।
पृष्ठतस्तव गच्छन्त्या विहारशयनेष्विव॥११॥
‘जैसे बगीचे में घूमने और पलंग पर सोने में कोई कष्ट नहीं होता, उसी प्रकार आपके पीछे-पीछे वन के मार्ग पर चलने में भी मुझे कोई परिश्रम नहीं जान पड़ेगा।
कुशकाशशरेषीका ये च कण्टकिनो द्रुमाः।
तूलाजिनसमस्पर्शा मार्गे मम सह त्वया॥१२॥
‘रास्ते में जो कुश-कास, सरकंडे, सींक और काँटेदार वृक्ष मिलेंगे, उनका स्पर्श मुझे आपके साथ रहने से रूई और मृगचर्म के समान सुखद प्रतीत होगा॥
महावातसमुद्भूतं यन्मामवकरिष्यति।
रजो रमण तन्मन्ये परार्घ्यमिव चन्दनम्॥१३॥
‘प्राणवल्लभ! प्रचण्ड आँधी से उड़कर मेरे शरीर पर जो धूल पड़ेगी, उसे मैं उत्तम चन्दन के समान समशृंगी॥
शाद्रलेषु यदा शिश्ये वनान्तर्वनगोचरा।
कुथास्तरणयुक्तेषु किं स्यात् सुखतरं ततः॥१४॥
‘जब वन के भीतर रहँगी, तब आपके साथ घासों पर भी सो लूँगी। रंग-बिरंगे कालीनों और मुलायम बिछौनों से युक्त पलंगों पर क्या उससे अधिक सुख हो सकता है ? ॥ १४॥
पत्रं मूलं फलं यत्तु अल्पं वा यदि वा बहु।
दास्यसे स्वयमाहृत्य तन्मेऽमृतरसोपमम्॥१५॥
‘आप अपने हाथ से लाकर थोड़ा या बहुत फल, मूल या पत्ता, जो कुछ दे देंगे, वही मेरे लिये अमृत रस के समान होगा॥ १५ ॥
न मातुर्न पितुस्तत्र स्मरिष्यामि न वेश्मनः।
आर्तवान्युपभुजाना पुष्पाणि च फलानि च। १६॥
‘ऋतु के अनुकूल जो भी फल-फूल प्राप्त होंगे, उन्हें खाकर रहँगी और माता-पिता अथवा महल को कभी याद नहीं करूँगी॥१६॥
न च तत्र ततः किंचिद् द्रष्टमर्हसि विप्रियम्।
मत्कृते न च ते शोको न भविष्यामि दुर्भरा॥ १७॥
‘वहाँ रहते समय मेरा कोई भी प्रतिकूल व्यवहार आप नहीं देख सकेंगे। मेरे लिये आपको कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। मेरा निर्वाह आपके लिये दूभर नहीं होगा॥ १७ ॥
यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना।
इति जानन् परां प्रीतिं गच्छ राम मया सह ॥ १८॥
‘आपके साथ जहाँ भी रहना पड़े, वही मेरे लिये स्वर्ग है और आपके बिना जो कोई भी स्थान हो, वह मेरे लिये नरक के समान है। श्रीराम! मेरे इस निश्चय को जानकर आप मेरे साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वनको चलें॥ १८॥
अथ मामेवमव्यग्रां वनं नैव नयिष्यसे।
विषमद्यैव पास्यामि मा वशं द्विषतां गमम्॥ १९॥
‘मुझे वनवास के कष्ट से कोई घबराहट नहीं है। यदि इस दशा में भी आप अपने साथ मुझे वन में नहीं ले चलेंगे तो मैं आज ही विष पी लूँगी, परंतु शत्रुओं के अधीन होकर नहीं रहूँगी॥ १९॥
पश्चादपि हि दुःखेन मम नैवास्ति जीवितम्।
उज्झितायास्त्वया नाथ तदैव मरणं वरम्॥२०॥
नाथ! यदि आप मुझे त्यागकर वन को चले जायँगे तो पीछे भी इस भारी दुःख के कारण मेरा जीवित रहना सम्भव नहीं है; ऐसी दशा में मैं इसी समय आपके जाते ही अपना प्राण त्याग देना अच्छा समझती हूँ॥ २०॥
इमं हि सहितुं शोकं मुहूर्तमपि नोत्सहे।
किं पुनर्दश वर्षाणि त्रीणि चैकं च दुःखिता॥ २१॥
‘आपके विरह का यह शोक मैं दो घड़ी भी नहीं सह सकूँगी। फिर मुझ दुःखिया से यह चौदह वर्षों तक कैसे सहा जायगा?’ ॥ २१॥
इति सा शोकसंतप्ता विलप्य करुणं बह।
चुक्रोश पतिमायस्ता भृशमालिङ्ग्य सस्वरम्॥ २२॥
इस प्रकार बहुत देरतक करुणाजनक विलाप करके शोक से संतप्त हुई सीता शिथिल हो अपने पति को जोर से पकड़कर उनका गाढ़ आलिङ्गन करके फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ २२ ॥
सा विद्धा बहुभिर्वाक्यैर्दिग्धैरिव गजाङ्गना।
चिरसंनियतं बाष्पं मुमोचाग्निमिवारणिः॥२३॥
जैसे कोई हथिनी विष में बुझे हुए बहुसंख्यक बाणों द्वारा घायल कर दी गयी हो, उसी प्रकार सीता श्रीरामचन्द्रजी के पूर्वोक्त अनेकानेक वचनों द्वारा मर्माहत हो उठी थीं; अतः जैसे अरणी आग प्रकट करती है, उसी प्रकार वे बहुत देर से रोके हुए आँसुओं को बरसाने लगीं॥ २३॥
तस्याः स्फटिकसंकाशं वारि संतापसम्भवम्।
नेत्राभ्यां परिसुस्राव पङ्कजाभ्यामिवोदकम्॥ २४॥
उनके दोनों नेत्रों से स्फटिक के समान निर्मल संतापजनित अश्रुजल झर रहा था, मानो दो कमलों से जलकी धारा गिर रही हो॥२४॥
तत्सितामलचन्द्राभं मुखमायतलोचनम्।
पर्यशुष्यत बाष्पेण जलोद्धृतमिवाम्बुजम्॥२५॥
बड़े-बड़े नेत्रों से सुशोभित और पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान कान्तिमान् उनका वह मनोहर मुख संतापजनित ताप के कारण पानी से बाहर निकाले हुए कमल के समान सूख-सा गया था॥ २५ ॥
तां परिष्वज्य बाहुभ्यां विसंज्ञामिव दुःखिताम्।
उवाच वचनं रामः परिविश्वासयंस्तदा ॥२६॥
सीताजी दुःख के मारे अचेत-सी हो रही थीं। श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें दोनों हाथों से सँभालकर हृदय से लगा लिया और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ॥२६॥
न देवि बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये।
नहि मेऽस्ति भयं किंचित् स्वयम्भोरिव सर्वतः॥ २७॥
‘देवि! तुम्हें दुःख देकर मुझे स्वर्ग का सुख मिलताहो तो मैं उसे भी लेना नहीं चाहूँगा। स्वयम्भू ब्रह्माजी की भाँति मुझे किसी से किञ्चित् भी भय नहीं है॥ २७॥
तव सर्वमभिप्रायमविज्ञाय शुभानने।
वासं न रोचयेऽरण्ये शक्तिमानपि रक्षणे॥२८॥
‘शुभानने! यद्यपि वन में तुम्हारी रक्षा करने के लिये मैं सर्वथा समर्थ हूँ तो भी तुम्हारे हार्दिक अभिप्राय को पूर्णरूप से जाने बिना तुमको वनवासिनी बनाना मैं उचित नहीं समझता था॥२८॥
यत् सृष्टासि मया सार्धं वनवासाय मैथिलि।
न विहातुं मया शक्या प्रीतिरात्मवता यथा॥ २९॥
‘मिथिलेशकुमारी! जब तुम मेरे साथ वन में रहने के लिये ही उत्पन्न हुई हो तो मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, ठीक उसी तरह जैसे आत्मज्ञानी पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता का त्याग नहीं करते ॥ २९ ॥
धर्मस्तु गजनासोरु सद्भिराचरितः पुरा।
तं चाहमनुवर्तिष्ये यथा सूर्यं सुवर्चला ॥ ३०॥
‘हाथी की ढूँड़ के समान जाँघ वाली जनककिशोरी! पूर्वकाल के सत्पुरुषों ने अपनी पत्नी के साथ रहकर जिस धर्म का आचरण किया था, उसीका मैं भी तुम्हारे साथ रहकर अनुसरण करूँगा तथा जैसे सुवर्चला (संज्ञा) अपने पति सूर्य का अनुगमन करती है, उसी प्रकार तुम भी मेरा अनुसरण करो॥३०॥
न खल्वहं न गच्छेयं वनं जनकनन्दिनि।
वचनं तन्नयति मां पितुः सत्योपबृंहितम्॥३१॥
‘जनकनन्दिनि! यह तो किसी प्रकार सम्भव ही नहीं है कि मैं वन को न जाऊँ; क्योंकि पिताजी का वह सत्ययुक्त वचन ही मुझे वन की ओर ले जा रहा है।
एष धर्मश्च सुश्रोणि पितुर्मातुश्च वश्यता।
आज्ञां चाहं व्यतिक्रम्य नाहं जीवितुमुत्सहे॥ ३२॥
‘सुश्रोणि! पिता और माता की आज्ञा के अधीन रहना पुत् रका धर्म है, इसलिये मैं उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके जीवित नहीं रह सकता॥ ३२ ॥
अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते।
स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्॥३३॥
‘जो अपनी सेवा के अधीन हैं, उन प्रत्यक्ष देवता माता, पिता एवं गुरु का उल्लङ्घन करके जो सेवा के अधीन नहीं है, उस अप्रत्यक्ष देवता दैव की विभिन्न प्रकार से किस तरह आराधना की जा सकती है। ३३॥
यत्र त्रयं त्रयो लोकाः पवित्रं तत्समं भुवि।
नान्यदस्ति शुभापाले तेनेदमभिराध्यते॥३४॥
‘सुन्दर नेत्रप्रान्तवाली सीते! जिनकी आराधना करने पर धर्म, अर्थ और काम तीनों प्राप्त होते हैं तथा तीनों लोकों की आराधना सम्पन्न हो जाती है, उन माता, पिता और गुरु के समान दूसरा कोई पवित्र देवता इस भूतल पर नहीं है। इसीलिये भूतल के निवासी इन तीनों देवताओं की आराधना करते हैं। ३४॥
न सत्यं दानमानौ वा यज्ञो वाप्याप्तदक्षिणाः।
तथा बलकराः सीते यथा सेवा पितुर्मता॥ ३५॥
‘सीते! पिताकी सेवा करना कल्याण की प्राप्ति का जैसा प्रबल साधन माना गया है, वैसा न सत्य है, न दान है, न मान है और न पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञ ही हैं॥ ३५॥
स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किंचिदपि दुर्लभम्॥३६॥
‘गुरुजनों की सेवा का अनुसरण करने से स्वर्ग, धनधान्य, विद्या, पुत्र और सुख-कुछ भी दुर्लभ नहीं है॥ ३६॥
देवगन्धर्वगोलोकान् ब्रह्मलोकांस्तथापरान्।
प्राप्नुवन्ति महात्मानो मातापितृपरायणाः॥३७॥
‘माता-पिता की सेवा में लगे रहने वाले महात्मा पुरुष देवलोक, गन्धर्वलोक, ब्रह्मलोक, गोलोक तथा अन्य लोकों को भी प्राप्त कर लेते हैं॥ ३७॥
स मा पिता यथा शास्ति सत्यधर्मपथे स्थितः।
तथा वर्तितुमिच्छामि स हि धर्मः सनातनः॥ ३८॥
‘इसीलिये सत्य और धर्म के मार्ग पर स्थित रहने वाले पूज्य पिताजी मुझे जैसी आज्ञा दे रहे हैं, मैं वैसा ही बर्ताव करना चाहता हूँ; क्योंकि वह सनातन धर्म है॥
मम सन्ना मतिः सीते नेतुं त्वां दण्डकावनम्।
वसिष्यामीति सा त्वं मामनुयातुं सुनिश्चिता॥ ३९॥
‘सीते! ‘मैं आपके साथ वन में निवास करूँगी’ऐसा कहकर तुमने मेरे साथ चलने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, इसलिये तुम्हें दण्डकारण्य ले चलने के सम्बन्ध में जो मेरा पहला विचार था, वह अब बदल गया है॥ ३९॥
सा हि दिष्टानवद्याङ्गि वनाय मदिरेक्षणे।
अनुगच्छस्व मां भीरु सहधर्मचरी भव॥४०॥
‘मदभरे नेत्रोंवाली सुन्दरी! अब मैं तुम्हें वन में चलने के लिये आज्ञा देता हूँ। भीरु! तुम मेरी अनुगामिनी बनो और मेरे साथ रहकर धर्म का आचरण करो॥ ४०॥
सर्वथा सदृशं सीते मम स्वस्य कुलस्य च।
व्यवसायमनुक्रान्ता कान्ते त्वमतिशोभनम्॥ ४१॥
‘प्राणवल्लभे सीते! तुमने मेरे साथ चलने का जो यह परम सुन्दर निश्चय किया है, यह तुम्हारे और मेरे कुल के सर्वथा योग्य ही है॥ ४१॥
आरभस्व शुभश्रोणि वनवासक्षमाः क्रियाः।
नेदानीं त्वदते सीते स्वर्गोऽपि मम रोचते॥४२॥
‘सुश्रोणि! अब तुम वनवास के योग्य दान आदि कर्म प्रारम्भ करो। सीते! इस समय तुम्हारे इस प्रकार दृढ़ निश्चय कर लेने पर तुम्हारे बिना स्वर्ग भी मुझे अच्छा नहीं लगता है॥ ४२ ॥
ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि भिक्षुकेभ्यश्च भोजनम्।
देहि चाशंसमानेभ्यः संत्वरस्व च मा चिरम्॥ ४३॥
‘ब्राह्मणों को रत्नस्वरूप उत्तम वस्तुएँ दान करो और भोजन माँगने वाले भिक्षकों को भोजन दो। शीघ्रता करो, विलम्ब नहीं होना चाहिये॥४३॥
भूषणानि महार्हाणि वरवस्त्राणि यानि च।
रमणीयाश्च ये केचित् क्रीडार्थाश्चाप्युपस्कराः॥ ४४॥
शयनीयानि यानानि मम चान्यानि यानि च।
देहि स्वभृत्यवर्गस्य ब्राह्मणानामनन्तरम्॥४५॥
तुम्हारे पास जितने बहुमूल्य आभूषण हों, जो-जो अच्छे-अच्छे वस्त्र हों, जो कोई भी रमणीय पदार्थ हों तथा मनोरञ्जनकी जो-जो सुन्दर सामग्रियाँ हों, मेरे और तुम्हारे उपयोग में आने वाली जो उत्तमोत्तम शय्याएँ, सवारियाँ तथा अन्य वस्तुएँ हों, उनमें से ब्राह्मणों को दान करनेके पश्चात् जो बचें उन सबको अपने सेवकों को बाँट दो’ ॥ ४४-४५ ॥
अनुकूलं तु सा भर्तुर्ज्ञात्वा गमनमात्मनः।
क्षिप्रं प्रमुदिता देवी दातुमेव प्रचक्रमे॥४६॥
‘स्वामी ने वन में मेरा जाना स्वीकार कर लिया मेरा वनगमन उनके मन के अनुकूल हो गया’ यह जानकर देवी सीता बहुत प्रसन्न हुईं और शीघ्रतापूर्वक सब वस्तुओं का दान करने में जुट गयीं। ४६॥
ततः प्रहृष्टा प्रतिपूर्णमानसा यशस्विनी भर्तुरवेक्ष्य भाषितम्।
धनानि रत्नानि च दातुमङ्गना प्रचक्रमे धर्मभृतां मनस्विनी॥४७॥
तदनन्तर अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने से अत्यन्त हर्ष में भरी हुई यशस्विनी एवं मनस्विनी सीता देवी स्वामी के आदेश पर विचार करके धर्मात्मा ब्राह्मणों को धन और रत्नों का दान करने के लिये उद्यत हो गयीं।
सर्ग ३१
एवं श्रुत्वा स संवादं लक्ष्मणः पूर्वमागतः।
बाष्पपर्याकुलमुखः शोकं सोढुमशक्नुवन्॥१॥
जिस समय श्रीराम और सीता में बातचीत हो रही थी, लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गये थे। उन दोनों का ऐसा संवाद सुनकर उनका मुखमण्डल आँसुओं से भींग गया। भाई के विरह का शोक अब उनके लिये भी असह्य हो उठा॥१॥
स भ्रातुश्चरणौ गाढं निपीड्य रघुनन्दनः।
सीतामुवाचातियशां राघवं च महाव्रतम्॥२॥
रघुकुल को आनन्दित करने वाले लक्ष्मण ने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी के दोनों पैर जोर से पकड़ लिये और अत्यन्त यशस्विनी सीता तथा महान् व्रतधारी श्रीरघुनाथजी से कहा- ॥२॥
यदि गन्तुं कृता बुद्धिर्वनं मृगगजायुतम्।
अहं त्वानुगमिष्यामि वनमग्रे धनुर्धरः॥३॥
‘आर्य! यदि आपने सहस्रों वन्य पशुओं तथा हाथियों से भरे हुए वन में जाने का निश्चय कर ही लिया है तो मैं भी आपका अनुसरण करूँगा। धनुष हाथ में लेकर आगे-आगे चलूँगा॥३॥
मया समेतोऽरण्यानि रम्याणि विचरिष्यसि।
पक्षिभिर्मंगयूथैश्च संघुष्टानि समन्ततः॥४॥
‘आप मेरे साथ पक्षियों के कलरव और भ्रमरसमूहों के गुञ्जारव से गूंजते हुए रमणीय वनों में सब ओर विचरण कीजियेगा॥ ४॥
न देवलोकाक्रमणं नामरत्वमहं वृणे।
ऐश्वर्यं चापि लोकानां कामये न त्वया विना॥
‘मैं आपके बिना स्वर्ग में जाने, अमर होने तथा सम्पूर्ण लोकों का ऐश्वर्य प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं रखता’ ॥५॥
एवं ब्रुवाणः सौमित्रिर्वनवासाय निश्चितः।
रामेण बहुभिः सान्त्वैर्निषिद्धः पुनरब्रवीत्॥६॥
वनवास के लिये निश्चित विचार करके ऐसी बात कहने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण को श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत-से सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा समझाकर जब वन में चलने से मना किया, तब वे फिर बोले- ॥६॥
अनुज्ञातस्तु भवता पूर्वमेव यदस्म्यहम्।
किमिदानीं पुनरपि क्रियते मे निवारणम्॥७॥
‘भैया! आपने तो पहले से ही मुझे अपने साथ रहने की आज्ञा दे रखी है, फिर इस समय आप मुझे क्यों रोकते हैं? ॥७॥
यदर्थं प्रतिषेधो मे क्रियते गन्तुमिच्छतः।
एतदिच्छामि विज्ञातुं संशयो हि ममानघ॥८॥
‘निष्पाप रघुनन्दन! जिस कारण से आपके साथ चलने की इच्छा वाले मुझको आप मना करते हैं, उस कारण को मैं जानना चाहता हूँ। मेरे हृदय में इसके लिये बड़ा संशय हो रहा है’ ॥ ८॥
ततोऽब्रवीन्महातेजा रामो लक्ष्मणमग्रतः।
स्थितं प्राग्गामिनं धीरं याचमानं कृताञ्जलिम्॥ ९॥
ऐसा कहकर धीर-वीर लक्ष्मण आगे जानेके लिये तैयार हो भगवान् श्रीरामके सामने खड़े हो गये और हाथ जोड़कर याचना करने लगे। तब महातेजस्वी श्रीरामने उनसे कहा- ॥९॥
स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजेयश्च सखा च मे॥ १०॥
‘लक्ष्मण! तुम मेरे स्नेही, धर्मपरायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्ग में स्थित रहने वाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय हो तथा मेरे वश में रहने वाले आज्ञापालक और सखा हो॥१०॥
मयाद्य सह सौमित्रे त्वयि गच्छति तदनम्।
को भजिष्यति कौसल्यां सुमित्रां वा यशस्विनीम्॥११॥
‘सुमित्रानन्दन ! यदि आज मेरे साथ तुम भी वन को चल दोगे तो परमयशस्विनी माता कौसल्या और सुमित्रा की सेवा कौन करेगा? ॥ ११॥
अभिवर्षति कामैर्यः पर्जन्यः पृथिवीमिव।
स कामपाशपर्यस्तो महातेजा महीपतिः॥१२॥
‘जैसे मेघ पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते थे, वे महातेजस्वी महाराज दशरथ अब कैकेयी के प्रेमपाश में बँध गये हैं।॥ १२ ॥
सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता।
दुःखितानां सपत्नीनां न करिष्यति शोभनम्॥ १३॥
‘केकयराज अश्वपतिकी पुत्री कैकेयी महाराजके इस राज्यको पाकर मेरे वियोगके दुःखमें डूबी हुई अपनी सौतोंके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करेगी॥१३॥
न भरिष्यति कौसल्यां सुमित्रां च सुदुःखिताम्।
भरतो राज्यमासाद्य कैकेय्यां पर्यवस्थितः॥१४॥
‘भरत भी राज्य पाकर कैकेयी के अधीन रहने के कारण दुःखिया कौसल्या और सुमित्रा का भरणपोषण नहीं करेंगे॥ १४॥
तामार्यां स्वयमेवेह राजानुग्रहणेन वा।
सौमित्रे भर कौसल्यामुक्तमर्थममुं चर॥१५॥
‘अतः सुमित्राकुमार! तुम यहीं रहकर अपने प्रयत्न से अथवा राजा की कृपा प्राप्त करके माता कौसल्या का पालन करो। मेरे बताये हुए इस प्रयोजन को ही सिद्ध करो॥
एवं मयि च ते भक्तिर्भविष्यति सुदर्शिता।
धर्मज्ञगुरुपूजायां धर्मश्चाप्यतुलो महान्॥१६॥
‘ऐसा करने से मेरे प्रति जो तुम्हारी भक्ति है, वह भी भलीभाँति प्रकट हो जायगी तथा धर्मज्ञ गुरुजनों की पूजा करने से जो अनुपम एवं महान् धर्म होता है, वह भी तुम्हें प्राप्त हो जायगा॥ १६ ॥
एवं कुरुष्व सौमित्रे मत्कृते रघुनन्दन।
अस्माभिर्विप्रहीणाया मातु! न भवेत् सुखम्॥ १७॥
‘रघुकुल को आनन्दित करने वाले सुमित्राकुमार! तुम मेरे लिये ऐसा ही करो; क्योंकि हमलोगों से बिछुड़ी हुई हमारी माँ को कभी सुख नहीं होगा (वह सदा हमारी ही चिन्ता में डूबी रहेगी)’ ॥ १७ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः श्लक्ष्णया गिरा।
प्रत्युवाच तदा रामं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्॥ १८॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझने वाले लक्ष्मण ने उस समय बात का तात्पर्य समझने वाले श्रीराम को मधुर वाणी में उत्तर दिया- ॥ १८॥
तवैव तेजसा वीर भरतः पूजयिष्यति।
कौसल्यां च सुमित्रां च प्रयतो नास्ति संशयः॥ १९॥
‘वीर! आपके ही तेज (प्रभाव) से भरत माता कौसल्या और सुमित्रा दोनों का पवित्र भाव से पूजन करेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ १९॥
यदि दुःस्थो न रक्षेत भरतो राज्यमुत्तमम्।
प्राप्य दुर्मनसा वीर गर्वेण च विशेषतः ॥२०॥
तमहं दुर्मतिं क्रूरं वधिष्यामि न संशयः।
तत्पक्षानपि तान् सर्वांस्त्रैलोक्यमपि किं तु सा॥ २१॥
कौसल्या बिभृयादार्या सहस्रं मद्विधानपि।
यस्याः सहस्रं ग्रामाणां सम्प्राप्तमुपजीविनाम्॥ २२॥
‘वीरवर! इस उत्तम राज्य को पाकर यदि भरत बुरे रास्ते पर चलेंगे और दृषित हृदय एवं विशेषतः घमण्ड के कारण माताओं की रक्षा नहीं करेंगे तो मैं उन दुर्बुद्धि और क्रूर भरत का तथा उनके पक्ष का समर्थन करने वाले उन सब लोगों का वध कर डालूँगा; इसमें संशय नहीं है। यदि सारी त्रिलोकी उनका पक्ष करने लगे तो उसे भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा, परंतु बड़ी माता कौसल्या तो स्वयं ही मेरे-जैसे सहस्रों मनुष्यों का भी भरण कर सकती हैं;क्योंकि उन्हें अपने आश्रितों का पालन करने के लिये एक सहस्र गाँव मिले हुए हैं।
तदात्मभरणे चैव मम मातुस्तथैव च।
पर्याप्ता मद्विधानां च भरणाय मनस्विनी॥२३॥
‘इसलिये वे मनस्विनी कौसल्या स्वयं ही अपना, मेरी माताका तथा मेरे-जैसे और भी बहुत-से मनुष्योंका भरण-पोषण करनेमें समर्थ हैं॥ २३॥
कुरुष्व मामनुचरं वैधवें नेह विद्यते।
कृतार्थोऽहं भविष्यामि तव चार्थः प्रकल्प्यते॥ २४॥
‘अतः आप मुझको अपना अनुगामी बना लीजिये। इसमें कोई धर्म की हानि नहीं होगी। मैं कृतार्थ हो जाऊँगा तथा आपका भी प्रयोजन मेरे द्वारा सिद्ध हुआ करेगा॥२४॥
धनुरादाय सगुणं खनित्रपिटकाधरः।
अग्रतस्ते गमिष्यामि पन्थानं तव दर्शयन्॥ २५॥
‘प्रत्यञ्चासहित धनुष लेकर खंती और पिटारी लिये आपको रास्ता दिखाता हुआ मैं आपके आगेआगे चलूँगा॥ २५ ॥
आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च।
वन्यानि च तथान्यानि स्वाहाहा॑णि तपस्विनाम्॥ २६॥
‘प्रतिदिन आपके लिये फल-मूल लाऊँगा तथा तपस्वीजनों के लिये वन में मिलने वाली तथा अन्यान्य हवन-सामग्री जुटाता रहूँगा॥ २६॥
भवांस्तु सह वैदेह्या गिरिसानुषु रंस्यसे।
अहं सर्वं करिष्यामि जाग्रतः स्वपतश्च ते॥२७॥
‘आप विदेहकुमारीके साथ पर्वतशिखरों पर भ्रमण करेंगे। वहाँ आप जागते हों या सोते, मैं हर समय आपके सभी आवश्यक कार्य पूर्ण करूँगा’ ॥ २७॥
रामस्त्वनेन वाक्येन सुप्रीतः प्रत्युवाच तम्।
व्रजापृच्छस्व सौमित्रे सर्वमेव सुहृज्जनम्॥ २८॥
लक्ष्मण की इस बात से श्रीरामचन्द्रजी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनसे कहा —’सुमित्रानन्दन! जाओ, माता आदि सभी सुहृदों से मिलकर अपनी वनयात्रा के विषय में पूछ लो-उनकी आज्ञा एवं अनुमति ले लो॥ २८॥
ये च राज्ञो ददौ दिव्ये महात्मा वरुणः स्वयम्।
जनकस्य महायज्ञे धनुषी रौद्रदर्शने॥२९॥
अभेद्ये कवचे दिव्ये तूणी चाक्षय्यसायकौ।
आदित्यविमलाभौ द्वौ खड्गौ हेमपरिष्कृतौ॥ ३०॥
सत्कृत्य निहितं सर्वमेतदाचार्यसद्मनि।
सर्वमायुधमादाय क्षिप्रमाव्रज लक्ष्मण॥३१॥
‘लक्ष्मण! राजा जनक के महान् यज्ञ में स्वयं महात्मा वरुण ने उन्हें जो देखने में भयंकर दो दिव्य धनुष दिये थे, साथ ही, जो दो दिव्य अभेद्य कवच, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस तथा सूर्य की भाँति निर्मल दीप्ति से दमकते हुए जो दो सुवर्णभूषित खड्गप्रदान किये थे (वे सभी दिव्यास्त्र मिथिला नरेश ने मुझे दहेज में दे दिये थे), उन सबको आचार्यदेव के घर में सत्कारपूर्वक रखा गया है। तुम उन सारे आयुधों को लेकर शीघ्र लौट आओ’ ॥ २९–३१॥
स सुहृज्जनमामन्त्र्य वनवासाय निश्चितः।
इक्ष्वाकुगुरुमागम्य जग्राहायुधमुत्तमम्॥३२॥
आज्ञा पाकर लक्ष्मणजी गये और सुहृज्जनोंकी अनुमति लेकर वनवास के लिये निश्चित रूप से तैयार हो इक्ष्वाकुकुल के गुरु वसिष्ठजी के यहाँ गये। वहाँ से उन्होंने उन उत्तम आयुधों को ले लिया॥३२॥
तद् दिव्यं राजशार्दूलः सत्कृतं माल्यभूषितम्।
रामाय दर्शयामास सौमित्रिः सर्वमायुधम्॥३३॥
क्षत्रियशिरोमणि सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने सत्कारपूर्वक रखे हुए उन माल्यविभूषित समस्त दिव्य आयुधों को लाकर उन्हें श्रीराम को दिखाया। ३३॥
तमुवाचात्मवान् रामः प्रीत्या लक्ष्मणमागतम्।
काले त्वमागतः सौम्य कांक्षिते मम लक्ष्मण॥३४॥
तब मनस्वी श्रीराम ने वहाँ आये हुए लक्ष्मण से प्रसन्न होकर कहा—’सौम्य! लक्ष्मण! तुम ठीक समय पर आ गये। इसी समय तुम्हारा आना मुझे अभीष्ट था॥ ३५॥
अहं प्रदातुमिच्छामि यदिदं मामकं धनम्।
ब्राह्मणेभ्यस्तपस्विभ्यस्त्वया सह परंतप॥३५॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! मेरा जो यह धन है, इसे मैं तुम्हारे साथ रहकर तपस्वी ब्राह्मणों को बाँटना चाहता हूँ॥ ३५॥
वसन्तीह दृढं भक्त्या गुरुषु द्विजसत्तमाः।
तेषामपि च मे भूयः सर्वेषां चोपजीविनाम्॥ ३६॥
‘गुरुजनों के प्रति सुदृढ़ भक्तिभाव से युक्त जो श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ मेरे पास रहते हैं, उनको तथा समस्तआश्रितजनों को भी मुझे अपना यह धन बाँटना है। ३६॥
वसिष्ठपुत्रं तु सुयज्ञमार्य त्वमानयाशु प्रवरं द्विजानाम्।
अपि प्रयास्यामि वनं समस्तानभ्यर्च्य शिष्टानपरान् द्विजातीन्॥३७॥
‘वसिष्ठजी के पुत्र जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ आर्य सुयज्ञ हैं, उन्हें तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ। मैं इन सबका तथा और जो ब्राह्मण शेष रह गये हों, उनका भी सत्कार करके वन को जाऊँगा’ ॥ ३७॥
सर्ग ३२
ततः शासनमाज्ञाय भ्रातुः प्रियकरं हितम्।
गत्वा स प्रविवेशाशु सुयज्ञस्य निवेशनम्॥१॥
तदनन्तर अपने भाई श्रीराम की प्रियकारक एवं हितकर आज्ञा पाकर लक्ष्मण वहाँ से चल दिये। उन्होंने शीघ्र ही गुरुपुत्र सुयज्ञ के घर में प्रवेश किया। १॥
तं विप्रमग्न्यगारस्थं वन्दित्वा लक्ष्मणोऽब्रवीत्।
सखेऽभ्यागच्छ पश्य त्वं वेश्म दुष्करकारिणः॥ २॥
” उस समय विप्रवर सुयज्ञ अग्निशाला में बैठे हए थे। लक्ष्मण ने उन्हें प्रणाम करके कहा—’सखे! दुष्कर कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के घर पर आओ और उनका कार्य देखो’॥२॥
ततः संध्यामुपास्थाय गत्वा सौमित्रिणा सह।
ऋष्टुं स प्राविशल्लक्ष्या रम्यं रामनिवेशनम्॥
सुयज्ञ ने मध्याह्नकाल की संध्योपासना पूरी करके लक्ष्मण के साथ जाकर श्रीराम के रमणीय भवन में प्रवेश किया, जो लक्ष्मी से सम्पन्न था॥ ३॥
तमागतं वेदविदं प्राञ्जलिः सीतया सह।
सुयज्ञमभिचक्राम राघवोऽग्निमिवार्चितम्॥४॥
होमकाल में पूजित अग्नि के समान तेजस्वी वेदवेत्ता सुयज्ञ को आया जान सीतासहित श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनकी अगवानी की॥४॥
जातरूपमयैर्मुख्यैरङ्गदैः कुण्डलैः शुभैः ।
सहेमसूत्रैर्मणिभिः केयरैर्वलयैरपि॥५॥
अन्यैश्च रत्नैर्बहुभिः काकुत्स्थः प्रत्यपूजयत्।
तत्पश्चात् ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने सोने के बने हुए श्रेष्ठ अङ्गदों, सुन्दर कुण्डलों, सुवर्णमय सूत्र में पिरोयी हुई मणियों, केयूरों, वलयों तथा अन्य बहुत से रत्नों द्वारा उनका पूजन किया॥ ५ १/२ ॥
सुयज्ञं स तदोवाच रामः सीताप्रचोदितः॥६॥
हारं च हेमसूत्रं च भार्यायै सौम्य हारय।
रशनां चाथ सा सीता दातुमिच्छति ते सखी॥ ७॥
इसके बाद सीता की प्रेरणा से श्रीराम ने सुयज्ञ से कहा —’सौम्य! तुम्हारी पत्नी की सखी सीता तुम्हें अपना हार, सुवर्णसूत्र और करधनी देना चाहती है। इन वस्तुओं को अपनी पत्नी के लिये ले जाओ॥६-७॥
अङ्गदानि च चित्राणि केयूराणि शुभानि च।
प्रयच्छति सखी तुभ्यं भार्यायै गच्छती वनम्॥ ८॥
‘वनको प्रस्थान करने वाली तुम्हारी स्त्रीकी सखी सीता तुम्हें तुम्हारी पत्नी के लिये विचित्र अङ्गद और सुन्दर केयूर भी देना चाहती है॥ ८॥
पर्यमग्र्यास्तरणं नानारत्नविभूषितम्।
तमपीच्छति वैदेही प्रतिष्ठापयितुं त्वयि॥९॥
‘उत्तम बिछौनोंसे युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित जो पलंग है, उसे भी विदेहनन्दिनी सीता तुम्हारे ही घरमें भेज देना चाहती है॥९॥
नागः शत्रुजयो नाम मातुलोऽयं ददौ मम।
तं ते निष्कसहस्रेण ददामि द्विजपुङ्गव॥१०॥
‘विप्रवर! शत्रुञ्जय नामक जो हाथी है, जिसे मेरे मामा ने मुझे भेंट किया था, उसे एक हजार अशर्फियों के साथ मैं तुम्हें अर्पित करता हूँ’॥ १०॥
इत्युक्तः स तु रामेण सुयज्ञः प्रतिगृह्य तत्।
रामलक्ष्मणसीतानां प्रयुयोजाशिषः शिवाः॥ ११॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर सुयज्ञने वे सब वस्तुएँ ग्रहण करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के लिये मङ्गलमय आशीर्वाद प्रदान किये॥ ११॥
अथ भ्रातरमव्यग्रं प्रियं रामः प्रियंवदम्।
सौमित्रिं तमुवाचेदं ब्रह्मेव त्रिदशेश्वरम्॥१२॥
तदनन्तर श्रीराम ने शान्तभाव से खड़े हुए और प्रिय वचन बोलने वाले अपने प्रिय भ्राता सुमित्राकुमार लक्ष्मण से उसी तरह निम्नाङ्कित बात कही, जैसे ब्रह्मा देवराज इन्द्र से कुछ कहते हैं॥ १२॥
अगस्त्यं कौशिकं चैव तावुभौ ब्राह्मणोत्तमौ।
अर्चयाहूय सौमित्रे रत्नैः सस्यमिवाम्बुभिः॥
तर्पयस्व महाबाहो गोसहस्रेण राघव।
सुवर्णरजतैश्चैव मणिभिश्च महाधनैः॥१४॥
‘सुमित्रानन्दन! अगस्त्य और विश्वामित्र दोनों उत्तम ब्राह्मणों को बुलाकर रत्नों द्वारा उनकी पूजा करो। महाबाहु रघुनन्दन ! जैसे मेघ जल की वर्षाद्वारा खेती को तृप्त करता है, उसी प्रकार तुम उन्हें सहस्रों गौओं, सुवर्णमुद्राओं, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों द्वारा संतुष्ट करो। १३-१४॥
कौसल्यां च य आशीर्भिर्भक्तः पर्युपतिष्ठति।
आचार्यस्तैत्तिरीयाणामभिरूपश्च वेदवित्॥ १५॥
तस्य यानं च दासीश्च सौमित्रे सम्प्रदापय।
कौशेयानि च वस्त्राणि यावत् तुष्यति स द्विजः॥ १६॥
‘लक्ष्मण! यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणों के जो आचार्य और सम्पूर्ण वेदों के विद्वान् हैं, साथ ही जिनमें दानप्राप्ति की योग्यता है तथा जो माता कौसल्या के प्रति भक्तिभाव रखकर प्रतिदिन उनके पास आकर उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं, उनको सवारी, दास-दासी, रेशमी वस्त्र और जितने धन से वे ब्राह्मणदेवता संतुष्ट हों, उतना धन खजाने से दिलवाओ॥१५-१६ ॥
सूतश्चित्ररथश्चार्यः सचिवः सुचिरोषितः।
तोषयैनं महाहश्च रत्नैर्वस्त्रैर्धनैस्तथा॥१७॥
पशकाभिश्च सर्वाभिर्गवां दशशतेन च।
‘चित्ररथ नामक सूत श्रेष्ठ सचिव भी हैं। वे सुदीर्घकाल से यहीं राजकुल की सेवा में रहते हैं। इनको भी तुम बहुमूल्य रत्न, वस्त्र और धन देकर संतुष्ट करो। साथ ही, इन्हें उत्तम श्रेणी के अज आदि सभी पशु और एक सहस्र गौएँ अर्पित करके पूर्ण संतोष प्रदान करो॥ १७ १/२॥
ये चेमे कठकालापा बहवो दण्डमाणवाः॥१८॥
नित्यस्वाध्यायशीलत्वान्नान्यत् कुर्वन्ति किंचन।
अलसाः स्वादुकामाश्च महतां चापि सम्मताः॥ १९॥
तेषामशीतियानानि रत्नपूर्णानि दापय।
शालिवाहसहस्रं च द्वे शते भद्रकांस्तथा ॥२०॥
मुझसे सम्बन्ध रखने वाले जो कठशाखा और कलाप-शाखा के अध्येता बहुत-से दण्डधारी ब्रह्मचारी हैं, वे सदा स्वाध्याय में ही संलग्न रहने के कारण दूसरा कोई कार्य नहीं कर पाते। भिक्षा माँगने में आलसी हैं, परंतु स्वादिष्ट अन्न खाने की इच्छा रखते हैं। महान् पुरुष भी उनका सम्मान करते हैं। उनके लिये रत्नों के बोझसे लदे हुए अस्सी ऊँट, अगहनी चावल का भार ढोने वाले एक सहस्र बैल तथा भद्रक नामक धान्यविशेष (चने, मूंग आदि) का भार लिये हुए दो सौ बैल और दिलवाओ॥
व्यञ्जनार्थं च सौमित्रे गोसहस्रमुपाकुरु।
मेखलीनां महासङ्गः कौसल्यां समुपस्थितः।
तेषां सहस्रं सौमित्रे प्रत्येकं सम्प्रदापय॥२१॥
‘सुमित्राकुमार! उपर्युक्त वस्तुओं के सिवा उनके लिये दही, घी आदि व्यञ्जन के निमित्त एक सहस्र गौएँ भी हँकवा दो। माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का बहुत बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दो॥ २१॥
अम्बा यथा नो नन्देच्च कौसल्या मम दक्षिणाम्।
तथा द्विजातीस्तान् सर्वाल्लँक्ष्मणार्चय सर्वशः॥ २२॥
‘लक्ष्मण! उन समस्त ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को मेरे द्वारा दिलायी हुई दक्षिणा देखकर जिस प्रकार मेरी माता कौसल्या आनन्दित हो उठे, उसी प्रकार तुम उन सबकी सब प्रकार से पूजा करो’ ।। २२ ॥
ततः पुरुषशार्दूलस्तद् धनं लक्ष्मणः स्वयम्।
यथोक्तं ब्राह्मणेन्द्राणामददाद् धनदो यथा॥ २३॥
इस प्रकार आज्ञा प्राप्त होने पर पुरुषसिंह लक्ष्मण ने स्वयं ही कुबेर की भाँति श्रीराम के कथनानुसार उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को उस धन का दान किया॥२३॥
अथाब्रवीद् बाष्पगलांस्तिष्ठतश्चोपजीविनः।
स प्रदाय बहुद्रव्यमेकैकस्योपजीवनम्॥२४॥
लक्ष्मणस्य च यद् वेश्म गृहं च यदिदं मम।
अशून्यं कार्यमेकैकं यावदागमनं मम॥ २५॥
इसके बाद वहाँ खड़े हुए अपने आश्रित सेवकों को जिनका गला आँसुओं से रुंधा हुआ था, बुलाकर श्रीराम ने उनमें से एक-एक को चौदह वर्षों तक जीविका चलाने योग्य बहुत-सा द्रव्य प्रदान किया और उन सबसे कहा—’जब तक मैं वन से लौटकर न आऊँ, तब तक तुम लोग लक्ष्मण के और मेरे इस घर को कभी सूना न करना—छोड़कर अन्यत्र न जाना’ ।। २४-२५॥
इत्युक्त्वा दुःखितं सर्वं जनं तमुपजीविनम्।
उवाचेदं धनाध्यक्षं धनमानीयतां मम॥२६॥
वे सब सेवक श्रीराम के वनगमन से बहुत दुःखी थे। उनसे उपर्युक्त बात कहकर श्रीराम अपने धनाध्यक्ष (खजांची) से बोले—’खजाने में मेरा जितना धन है, वह सब ले आओ’ ॥ २६॥
ततोऽस्य धनमाजहः सर्व एवोपजीविनः।
स राशिः सुमहांस्तत्र दर्शनीयो ह्यदृश्यत॥ २७॥
यह सुनकर सभी सेवक उनका धन ढो-ढोकर ले आने लगे। वहाँ उस धन की बहुत बड़ी राशि एकत्र हुई दिखायी देने लगी, जो देखने ही योग्य थी॥२७॥
ततः स पुरुषव्याघ्रस्तद् धनं सहलक्ष्मणः।
द्विजेभ्यो बालवृद्धेभ्यः कृपणेभ्यो ह्यदापयत्॥ २८॥
तब लक्ष्मण सहित पुरुषसिंह श्रीराम ने बालक और बूढ़े ब्राह्मणों तथा दीन-दुःखियों को वह सारा धन बँटवा दिया॥ २८॥
तत्रासीत् पिङ्गलो गार्ग्यस्त्रिजटो नाम वै द्विजः।
क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललाङ्गली॥२९॥
उन दिनों वहाँ अयोध्या के आस-पास वन में त्रिजट नाम वाले एक गर्गगोत्रीय ब्राह्मण रहते थे। उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं था, इसलिये उपवास आदि के कारण उनके शरीर का रंग पीला पड़ गया था। वे सदा फाल, कुदाल और हल लिये वन में फल-मूल की तलाश में घूमा करते थे॥२९॥
तं वृद्धं तरुणी भार्या बालानादाय दारकान्।
अब्रवीद् ब्राह्मणं वाक्यं स्त्रीणां भर्ता हि देवता॥ ३०॥
अपास्य फालं कुद्दालं कुरुष्व वचनं मम।
रामं दर्शय धर्मज्ञं यदि किंचिदवाप्स्यसि॥३१॥
वे स्वयं तो बूढ़े हो चले थे, परंतु उनकी पत्नी अभी तरुणी थी। उसने छोटे बच्चों को लेकर ब्राह्मण देवता से यह बात कही—’प्राणनाथ! (यद्यपि) स्त्रियों के लिये पति ही देवता है, (अतः मुझे आपको आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है, तथापि मैं आपकी भक्त हूँ; इसलिये विनयपूर्वक यह अनुरोध करती हूँ कि-) आप यह फाल और कुदाल फेंककर मेरा कहना कीजिये। धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी से मिलिये। यदि आप ऐसा करें तो वहाँ अवश्य कुछ पा जायँगे’ ॥ ३०-३१॥
स भार्याया वचः श्रुत्वा शाटीमाच्छाद्य दुश्छदाम्।
स प्रातिष्ठत पन्थानं यत्र रामनिवेशनम्॥३२॥
पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण एक फटी धोती, जिससे मुश्किल से शरीर ढक पाता था, पहनकर उस मार्गपर चल दिये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजी का महल था॥ ३२॥
भृग्वङ्गिरःसमं दीप्त्या त्रिजटं जनसंसदि।
आपञ्चमायाः कक्ष्याया नैतं कश्चिदवारयत्॥ ३३॥
भृगु और अङ्गिरा के समान तेजस्वी त्रिजट, जनसमुदाय के बीच से होकर श्रीराम-भवन की पाँचवीं ड्यौढ़ीतक चले गये, परंतु उनके लिये किसी ने रोक टोक नहीं की॥ ३३॥
स राममासाद्य तदा त्रिजटो वाक्यमब्रवीत्।
निर्धनो बहुपुत्रोऽस्मि राजपुत्र महाबल॥३४॥
क्षतवृत्तिर्वने नित्यं प्रत्यवेक्षस्व मामिति।
उस समय श्रीराम के पास पहुँचकर त्रिजट ने कहा-‘महाबली राजकुमार! मैं निर्धन हूँ, मेरे बहुत-से पुत्र हैं, जीविका नष्ट हो जाने से सदा वन में ही रहता हूँ, आप मुझपर कृपादृष्टि कीजिये’ ॥ ३४ १/२ ॥
तमुवाच ततो रामः परिहाससमन्वितम्॥३५॥
गवां सहस्रमप्येकं न च विश्राणितं मया।
परिक्षिपसि दण्डेन यावत्तावदवाप्स्यसे॥३६॥
तब श्रीराम ने विनोदपूर्वक कहा—’ब्रह्मन् ! मेरे पास असंख्य गौएँ हैं, इनमें से एक सहस्र का भी मैंने अभी तक किसी को दान नहीं किया है। आप अपना डंडा जितनी दूर फेंक सकेंगे, वहाँत क की सारी गौएँ आपको मिल जायँगी’ ॥ ३६॥
स शाटी परितः कट्यां सम्भ्रान्तः परिवेष्टय ताम्।
आविध्य दण्डं चिक्षेप सर्वप्राणेन वेगतः॥३७॥
यह सुनकर उन्होंने बड़ी तेजी के साथ धोती के पल्ले को सब ओर से कमर में लपेट लिया और अपनी सारी शक्ति लगाकर डंडे को बड़े वेग से घुमाकर फेंका॥
स तीर्वा सरयूपारं दण्डस्तस्य कराच्च्युतः।
गोव्रजे बहुसाहस्रे पपातोक्षणसंनिधौ॥ ३८॥
ब्राह्मण के हाथसे छूटा हुआ वह डंडा सरयू के उस पार जाकर हजारों गौओं से भरे हुए गोष्ठ में एक साँड़ के पास गिरा॥ ३८॥
तं परिष्वज्य धर्मात्मा आ तस्मात् सरयूतटात्।
आनयामास ता गावस्त्रिजटस्याश्रमं प्रति॥ ३९॥
धर्मात्मा श्रीराम ने त्रिजट को छाती से लगा लिया और उस सरयूतट से लेकर उस पार गिरे हुए डंडे के स्थान तक जितनी गौएँ थीं, उन सबको मँगवाकर त्रिजट के आश्रम पर भेज दिया।॥ ३९ ॥
उवाच च तदा रामस्तं गाय॑मभिसान्त्वयन्।
मन्युर्न खलु कर्तव्यः परिहासो ह्ययं मम॥४०॥
उस समय श्रीराम ने गर्गवंशी त्रिजट को सान्त्वना देते हुए कहा—’ब्रह्मन् ! मैंने विनोद में यह बात कही थी, आप इसके लिये बुरा न मानियेगा॥ ४०॥
इदं हि तेजस्तव यद् दुरत्ययं तदेव जिज्ञासितुमिच्छता मया।
इमं भवानर्थमभिप्रचोदितो वृणीष्व किंचेदपरं व्यवस्यसि ॥४१॥
‘आपका यह जो दुर्लङ्घय तेज है, इसीको जानने की इच्छासे मैंने आपको यह डंडा फेंकने के लिये प्रेरित किया था, यदि आप और कुछ चाहते हों तो माँगिये॥४१॥
ब्रवीमि सत्येन न ते स्म यन्त्रणां धनं हि यद्यन्मम विप्रकारणात्।
भवत्सु सम्यकप्रतिपादनेन मयार्जितं चैव यशस्करं भवेत्॥४२॥
मैं सच कहता हूँ कि इसमें आपके लिये कोई संकोच की बात नहीं है। मेरे पास जो-जो धन हैं, वह सब ब्राह्मणों के लिये ही है। आप-जैसे ब्राह्मणों को शास्त्रीय विधि के अनुसार दान देने से मेरे द्वारा उपार्जित किया हुआ धन मेरे यश की वृद्धि करने वाला होगा’॥
ततः सभार्यस्त्रिजटो महामुनिर्गवामनीकं प्रतिगृह्य मोदितः।
यशोबलप्रीतिसुखोपबंहिणीस्तदाशिषः प्रत्यवदन्महात्मनः॥४३॥
गौओं के उस महान् समूह को पाकर पत्नी सहित महामुनि त्रिजट को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे महात्मा श्रीराम को यश, बल, प्रीति तथा सुख बढ़ानेवाले आशीर्वाद देने लगे॥ ४३॥
स चापि रामः प्रतिपूर्णपौरुषो महाधनं धर्मबलैरुपार्जितम्।
नियोजयामास सुहृज्जने चिराद् यथार्हसम्मानवचः प्रचोदितः॥४४॥
तदनन्तर पूर्ण पराक्रमी भगवान् श्रीराम धर्मबल से उपार्जित किये हुए उस महान् धन को लोगों के यथायोग्य सम्मानपूर्ण वचनों से प्रेरित हो बहुत देर तक अपने सुहृदों में बाँटते रहे ॥४४॥
द्विजः सुहृद् भृत्यजनोऽथवा तदा दरिद्रभिक्षाचरणश्च यो भवेत्।
न तत्र कश्चिन्न बभूव तर्पितो यथार्हसम्माननदानसम्भ्रमैः॥४५॥
उस समय वहाँ कोई भी ब्राह्मण, सुहृद्, सेवक, दरिद्र अथवा भिक्षुक ऐसा नहीं था, जो श्रीराम के यथायोग्य सम्मान, दान तथा आदर-सत्कार से तृप्त न किया गया हो॥ ४५॥
सर्ग ३३
दत्त्वा तु सह वैदेह्या ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु।
जग्मतुः पितरं द्रष्टं सीतया सह राघवौ॥१॥
विदेहकुमारी सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान करके वन जाने के लिये उद्यत हो पिता का दर्शन करने के लिये गये॥१॥
ततो गृहीते प्रेष्याभ्यामशोभेतां तदायुधे।
मालादामभिरासक्ते सीतया समलंकृते॥२॥
उनके साथ दो सेवक श्रीराम और लक्ष्मण के वे धनुष आदि आयुध लेकर चले, जिन्हें फूल की मालाओं से सजाया गया था और सीताजी ने पूजा के लिये चढ़ाये हुए चन्दन आदि से अलंकृत किया था। उन दोनों के आयुधों की उस समय बड़ी शोभा हो रही थी।॥ २॥
ततः प्रासादहाणि विमानशिखराणि च॥
अभिरुह्य जनः श्रीमानुदासीनो व्यलोकयत्॥३॥
उस अवसरपर धनी लोग प्रासादों (तिमंजिले महलों), हर्म्यगृहों (राजभवनों) तथा विमानों (सात मंजिले महलों) की ऊपरी छतों पर चढ़कर उदासीन भाव से उन तीनों की ओर देखने लगे॥३॥
न हि रथ्याः सुशक्यन्ते गन्तुं बहुजनाकुलाः।
आरुह्य तस्मात् प्रासादाद् दीनाः पश्यन्ति राघवम्॥४॥
उस समय सड़कें मनुष्यों की भीड़ से भरी थीं इसलिये उनपर सुगमतापूर्वक चलना कठिन हो गया था। अतः अधिकांश मनुष्य प्रासादों (तिमंजिले मकानों) पर चढ़कर वहीं से दुःखी होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख रहे थे॥ ४॥
पदातिं सानुजं दृष्ट्वा ससीतं च जनास्तदा।
ऊचुर्बहुजना वाचः शोकोपहतचेतसः॥५॥
श्रीराम को अपने छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ पैदल जाते देख बहुत-से मनुष्यों का हृदय शोक से व्याकुल हो उठा। वे खेदपूर्वक कहने लगे— ॥५॥
यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत्।
तमेकं सीतया सार्धमनुयाति स्म लक्ष्मणः॥६॥
‘हाय! यात्रा के समय जिनके पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चलती थी, वे ही श्रीराम आज अकेले जा रहे हैं और उनके पीछे सीता के साथ लक्ष्मण चल रहे हैं॥ ६॥
ऐश्वर्यस्य रसज्ञः सन् कामानां चाकरो महान्।
नेच्छत्येवानृतं कर्तुं वचनं धर्मगौरवात्॥७॥
‘जो ऐश्वर्य के सुख का अनुभव करने वाले तथा भोग्य वस्तुओं के महान् भण्डार थे—जहाँ सबकी कामनाएँ पूर्ण होती थीं, वे ही श्रीराम आज धर्म का गौरव रखने के लिये पिता की बात झूठी करना नहीं चाहते हैं॥ ७॥
या न शक्या पुरा द्रष्टं भूतैराकाशगैरपि।
तामद्य सीतां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः॥८॥
‘ओह! पहले जिसे आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं॥ ८॥
अङ्गरागोचितां सीतां रक्तचन्दनसेविनीम्।
वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम्॥९॥
‘सीता अङ्गराग-सेवनके योग्य हैं, लाल चन्दनका सेवन करनेवाली हैं। अब वर्षा, गर्मी और सर्दी शीघ्र ही इनके अङ्गोंकी कान्ति फीकी कर देगी॥९॥
अद्य नूनं दशरथः सत्त्वमाविश्य भाषते।
नहि राजा प्रियं पुत्रं विवासयितुमर्हति ॥१०॥
‘निश्चय ही आज राजा दशरथ किसी पिशाच के आवेश में पड़कर अनुचित बात कह रहे हैं; क्योंकि अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहने वाला कोई भी राजा अपने प्यारे पुत्र को घर से निकाल नहीं सकता॥१० ॥
निर्गुणस्यापि पुत्रस्य कथं स्याद् विनिवासनम्।
किं पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम्॥
‘पुत्र यदि गुणहीन हो तो भी उसे घर से निकाल देने का साहस कैसे हो सकता है? फिर जिसके केवल चरित्र से ही यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उसको वनवास देने की तो बात ही कैसे की जा सकती है? ॥
आनृशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः।
राघवं शोभयन्त्येते षड्गुणाः पुरुषर्षभम्॥१२॥
‘क्रूरता का अभाव, दया, विद्या, शील, दम (इन्द्रियसंयम) और शम (मनोनिग्रह)-ये छः गुण नरश्रेष्ठ श्रीराम को सदा ही सुशोभित करते हैं ॥ १२ ॥
तस्मात् तस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः।
औदकानीव सत्त्वानि ग्रीष्मे सलिलसंक्षयात्॥
‘अतः इनके ऊपर आघात करने—इनके राज्याभिषेक में विघ्न डालने से प्रजा को उसी तरह महान् क्लेश पहुँचा है, जैसे गर्मी में जलाशय का पानी सूख जाने से उसके भीतर रहने वाले जीव तड़पने लगते हैं।
पीडया पीडितं सर्वं जगदस्य जगत्पतेः।
मूलस्येवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः॥१४॥
‘इन जगदीश्वर श्रीराम की व्यथा से सम्पूर्ण जगत् व्यथित हो उठा है, जैसे जड़ काट देने से पुष्प और फलसहित सारा वृक्ष सूख जाता है॥ १४ ॥
मूलं ह्येष मनुष्याणां धर्मसारो महाद्युतिः।
पुष्पं फलं च पत्रं च शाखाश्चास्येतरे जनाः॥ १५॥
‘ये महान् तेजस्वी श्रीराम सम्पूर्ण मनुष्यों के मूल हैं, धर्म ही इनका बल है। जगत् के दूसरे प्राणी पत्र, पुष्प, फल और शाखाएँ हैं॥ १५ ॥
ते लक्ष्मण इव क्षिप्रं सपत्न्यः सहबान्धवाः।
गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति राघवः॥१६॥
‘अतः हमलोग भी लक्ष्मण की भाँति पत्नी और बन्धु-बान्धवों के साथ शीघ्र ही इन जाने वाले श्रीराम के ही पीछे-पीछे चल दें। जिस मार्ग से श्रीरघुनाथ जी जा रहे हैं, उसी का हम भी अनुसरण करें॥ १६॥
उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च।
एकदुःखसुखा राममनुगच्छाम धार्मिकम्॥१७॥
‘बाग-बगीचे, घर-द्वार और खेती-बारी—सब छोड़कर धर्मात्मा श्रीराम का अनुगमन करें। इनके दुःख-सुख के साथी बनें॥ १७॥
समुद्धृतनिधानानि परिध्वस्ताजिराणि च।
उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः॥१८॥
रजसाभ्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः।
मूषकैः परिधावद्भिरुबिलैरावृतानि च॥१९॥
अपेतोदकधूमानि हीनसम्मार्जनानि च।
प्रणष्टबलिकर्मेज्यामन्त्रहोमजपानि च ॥२०॥
दुष्कालेनेव भग्नानि भिन्नभाजनवन्ति च।
अस्मत्त्यक्तानि कैकेयी वेश्मानि प्रतिपद्यताम्॥ २१॥
‘हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकालें। आँगन की फर्श खोद डालें। सारा धन-धान्य साथ ले लें। सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरों को छोड़कर भाग जाएँ। चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दौड़ लगाने लगें और उनसे ये घर भर जायें। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाड़ ही लगे। यहाँ बलिवैश्वदेव, यज्ञ, मन्त्रपाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायें। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हों और हम सदा के लिये इन्हें छोड़ दें ऐसी दशा में इन घरों पर कैकेयी आकर अधिकार कर ले॥ १८-२१॥
वनं नगरमेवास्तु येन गच्छति राघवः।
अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं सम्पद्यतां वनम्॥ २२॥
‘जहाँ पहुँचने के लिये ये श्रीरामचन्द्रजी जा रहे हैं,वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर भी वन के रूप में परिणत हो जाय॥ २२ ॥
बिलानि दंष्टिणः सर्वे सानूनि मृगपक्षिणः।
त्यजन्त्वस्मद्भयागीता गजाः सिंहा वनान्यपि॥ २३॥
‘वन में हमलोगों के भयसे साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ। पर्वत पर रहने वाले मृग और पक्षी उसके शिखरों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी उन वनों को त्यागकर दूर चले जायँ॥ २३॥
अस्मत्त्यक्तं प्रपद्यन्तु सेव्यमानं त्यजन्तु च।
तृणमांसफलादानां देशं व्यालमृगद्विजम्॥२४॥
प्रपद्यतां हि कैकेयी सपुत्रा सह बान्धवैः।
राघवेण वयं सर्वे वने वत्स्याम निर्वृताः॥२५॥
‘वे सर्प आदि उन स्थानों में चले जायँ, जिन्हें हमलोगों ने छोड़ रखा है और उन स्थानों को त्याग दें, जिनका हम सेवन करते हैं। यह देश घास चरने वाले पशुओं, मांसभक्षी हिंसक जन्तुओं और फल खाने वाले पक्षियों का निवासस्थान बन जाय। यहाँ सर्प, पशु और पक्षी रहने लगें। उस दशा में पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित कैकेयी इसे अपने अधिकार में कर ले। हम सब लोग वन में श्रीरघुनाथजी के साथ बड़े आनन्द से रहेंगे’॥ २४-२५ ॥
इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः।
शुश्राव राघवः श्रुत्वा न विचक्रेऽस्य मानसम्॥ २६॥
स तु वेश्म पुनर्मातुः कैलासशिखरप्रभम्।
अभिचक्राम धर्मात्मा मत्तमातङ्गविक्रमः॥२७॥
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत-से मनुष्यों के मुँह से निकली हुई तरह-तरह की बातें सुनीं; किंतु सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं हुआ। मतवाले गजराज के समान पराक्रमी धर्मात्मा श्रीराम पुनः माता कैकेयी के कैलासशिखर के सदृश शुभ्र भवन में गये॥ २६-२७॥
विनीतवीरपुरुषं प्रविश्य तु नृपालयम्।
ददर्शावस्थितं दीनं सुमन्त्रमविदूरतः॥२८॥
विनयशील वीर पुरुषों से युक्त उस राजभवन में प्रवेश करके उन्होंने देखा-सुमन्त्र पास ही दुःखी होकर खड़े हैं।॥ २८॥
प्रतीक्षमाणोऽभिजनं तदात मनार्तरूपः प्रहसन्निवाथ।
जगाम रामः पितरं दिदृक्षुः पितुर्निदेशं विधिवच्चिकीर्षुः ॥ २९॥
पूर्वजों की निवासभूमि अवध के मनुष्य वहाँ शोक से आतुर होकर खड़े थे। उन्हें देखकर भी श्रीराम स्वयं शोक से पीड़ित नहीं हुए उनके शरीर पर व्यथा का कोई चिह्न प्रकट नहीं हुआ। वे पिता की आज्ञा का विधिपूर्वक पालन करने की इच्छा से उनका दर्शन करने के लिये हँसते हुए-आगे बढ़े॥ २९॥
तत्पूर्वमैक्ष्वाकसुतो महात्मा रामो गमिष्यन् नृपमार्तरूपम्।
व्यतिष्ठत प्रेक्ष्य तदा सुमन्त्रं पितुर्महात्मा प्रतिहारणार्थम्॥३०॥
शोकाकुल रूप से पड़े हुए राजा के पास जाने वाले महात्मा महामना इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीराम वहाँ पहुँचने से पहले सुमन्त्र को देखकर पिता के पास अपने आगमन की सूचना भेज नेके लिये उस समय वहीं ठहर गये॥ ३०॥
पितुर्निदेशेन तु धर्मवत्सलो वनप्रवेशे कृतबुद्धिनिश्चयः।
स राघवः प्रेक्ष्य सुमन्त्रमब्रवीनिवेदयस्वागमनं नृपाय मे॥३१॥
पिता के आदेश से वन में प्रवेश करने का बुद्धिपूर्वक निश्चय करके आये हुए धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी सुमन्त्र की ओर देखकर बोले—’आप महाराज को मेरे आगमन की सूचना दे दें’॥ ३१॥
सर्ग ३४
ततः कमलपत्राक्षः श्यामो निरुपमो महान्।
उवाच रामस्तं सूतं पितुराख्याहि मामिति॥१॥
स रामप्रेषितः क्षिप्रं संतापकलुषेन्द्रियम्।
प्रविश्य नृपतिं सूतो निःश्वसन्तं ददर्श ह॥२॥
जब कमलनयन श्यामसुन्दर उपमारहित महापुरुष श्रीराम ने सूत सुमन्त्र से कहा—’आप पिताजी को मेरे आगमन की सूचना दे दीजिये’ तब श्रीराम की प्रेरणा से शीघ्र ही भीतर जाकर सारथि सुमन्त्र ने राजा का दर्शन किया। उनकी सारी इन्द्रियाँ संताप से कलुषित हो रही थीं। वे लम्बी साँस खींच रहे थे॥ १-२॥
उपरक्तमिवादित्यं भस्मच्छन्नमिवानलम्।
तटाकमिव निस्तोयमपश्यज्जगतीपतिम्॥३॥
आबोध्य च महाप्राज्ञः परमाकुलचेतनम्।
राममेवानुशोचन्तं सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥४॥
सुमन्त्र ने देखा, पृथ्वीपति महाराज दशरथ राहुग्रस्त सूर्य, राख से ढकी हुई आग तथा जलशून्य तालाब के समान श्रीहीन हो रहे हैं। उनका चित्त अत्यन्त व्याकुल है और वे श्रीराम का ही चिन्तन कर रहे हैं। तब महाप्राज्ञ सूत ने महाराज को सम्बोधित करके हाथ जोड़कर कहा॥
तं वर्धयित्वा राजानं पूर्वं सूतो जयाशिषा।
भयविक्लवया वाचा मन्दया श्लक्ष्णयाब्रवीत्॥
पहले तो सूत सुमन्त्र ने विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए महाराज की अभ्युदय-कामना की; फिर भय से व्याकुल मन्द-मधुर वाणी द्वारा यह बात कही—॥ ५॥
अयं स पुरुषव्याघ्रो द्वारि तिष्ठति ते सुतः।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सर्वं चैवोपजीविनाम्॥ ६॥
स त्वां पश्यतु भद्रं ते रामः सत्यपराक्रमः।
सर्वान् सुहृद आपृच्छ्य त्वां हीदानी दिदृक्षते॥ ७॥
गमिष्यति महारण्यं तं पश्य जगतीपते।
वृतं राजगुणैः सर्वैरादित्यमिव रश्मिभिः॥८॥
‘पृथ्वीनाथ! आपके पुत्र ये सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह श्रीराम ब्राह्मणों तथा आश्रित सेवकों को अपना साराधन देकर द्वार पर खड़े हैं। आपका कल्याण हो, ये अपने सब सुहृदों से मिलकर उनसे विदा लेकर इस समय आपका दर्शन करना चाहते हैं। आज्ञा हो तो यहाँ आकर आपका दर्शन करें। राजन्! अब ये विशाल वन में चले जायेंगे, अतः किरणों से युक्त सूर्य की भाँति समस्त राजोचित गुण से सम्पन्न इन श्रीराम को आप भी जी भरकर देख लीजिये’॥ ६– ८॥
स सत्यवाक्यो धर्मात्मा गाम्भीर्यात् सागरोपमः।
आकाश इव निष्पङ्को नरेन्द्रः प्रत्युवाच तम्॥९॥
यह सुनकर समुद्र के समान गम्भीर तथा आकाश की भाँति निर्मल, सत्यवादी धर्मात्मा महाराज दशरथ ने उन्हें उत्तर दिया- ॥९॥
सुमन्त्रानय मे दारान् ये केचिदिह मामकाः।
दारैः परिवृतः सर्वैर्द्रष्टमिच्छामि राघवम्॥१०॥
‘सुमन्त्र! यहाँ जो कोई भी मेरी स्त्रियाँ हैं, उन सबको बुलाओ। उन सबके साथ मैं श्रीराम को देखना चाहता हूँ’॥१०॥
सोऽन्तःपुरमतीत्यैव स्त्रियस्ता वाक्यमब्रवीत्।
आर्यो ह्वयति वो राजा गम्यतां तत्र मा चिरम्॥ ११॥
तब सुमन्त्र ने बड़े वेग से अन्तःपुर में जाकर सब स्त्रियों से कहा—’देवियो! आपलोगों को महाराज बुला रहे हैं, अतः वहाँ शीघ्र चलें ॥११॥
एवमुक्ताः स्त्रियः सर्वाः सुमन्त्रेण नृपाज्ञया।
प्रचक्रमुस्तद् भवनं भर्तुराज्ञाय शासनम्॥१२॥
राजा की आज्ञा से सुमन्त्र के ऐसा कहने पर वे सब रानियाँ स्वामी का आदेश समझकर उस भवन की ओर चलीं॥ १२॥
अर्धसप्तशतास्तत्र प्रमदास्ताम्रलोचनाः।
कौसल्यां परिवार्याथ शनैर्जग्मुधृतव्रताः॥१३॥
कुछ-कुछ लाल नेत्रोंवाली साढ़े तीन सौ पतिव्रता युवती स्त्रियाँ महारानी कौसल्या को सब ओर से घेरकर धीरे-धीरे उस भवन में गयीं॥ १३॥
आगतेषु च दारेषु समवेक्ष्य महीपतिः।
उवाच राजा तं सूतं सुमन्त्रानय मे सुतम्॥१४॥
उन सबके आ जाने पर उन्हें देखकर पृथ्वीपति राजा दशरथ ने सूत से कहा—’सुमन्त्र! अब मेरे पुत्र को ले आओ’ ॥
स सूतो राममादाय लक्ष्मणं मैथिली तथा।
जगामाभिमुखस्तूर्णं सकाशं जगतीपतेः ॥१५॥
आज्ञा पाकर सुमन्त्र गये और श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता को साथ लेकर शीघ्र ही महाराज के पास लौट आये॥ १५॥
स राजा पुत्रमायान्तं दृष्ट्वा चारात् कृताञ्जलिम्।
उत्पपातासनात् तूर्णमार्तः स्त्रीजनसंवृतः॥१६॥
महाराज दूर से ही अपने पुत्र को हाथ जोड़कर आते देख सहसा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उस समय स्त्रियों से घिरे हुए वे नरेश शोक से आर्त हो रहे थे।
सोऽभिदुद्राव वेगेन रामं दृष्ट्वा विशाम्पतिः।
तमसम्प्राप्य दुःखार्तः पपात भुवि मूर्च्छितः॥ १७॥
श्रीराम को देखते ही वे प्रजापालक महाराज बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े, किंतु उनके पास पहँचने के पहले ही दुःख से व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े और मूर्छित हो गये॥१७॥
तं रामोऽभ्यपतत् क्षिप्रं लक्ष्मणश्च महारथः।
विसंज्ञमिव दुःखेन सशोकं नृपतिं तथा॥१८॥
उस समय श्रीराम और महारथी लक्ष्मण बड़ी तेजी से चलकर दुःख के कारण अचेत-से हुए शोकमग्न महाराज के पास जा पहुँचे॥१८॥
स्त्रीसहस्रनिनादश्च संजज्ञे राजवेश्मनि।
हा हा रामेति सहसा भूषणध्वनिमिश्रितः॥१९॥
इतने ही में उस राजभवन के भीतर सहसा आभूषणों की ध्वनि के साथ सहस्रों स्त्रियों का ‘हा राम! हा राम!’ यह आर्तनाद गूंज उठा॥१९॥
तं परिष्वज्य बाहुभ्यां तावुभौ रामलक्ष्मणौ।
पर्यङ्के सीतया सार्धं रुदन्तः समवेशयन्॥२०॥
श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई भी सीता के साथ रो पड़े और उन तीनों ने महाराज को दोनों भुजाओं से उठाकर पलंग पर बिठा दिया॥ २०॥
अथ रामो मुहूर्तस्य लब्धसंज्ञं महीपतिम्।
उवाच प्राञ्जलिर्बाष्पशोकार्णवपरिप्लुतम्॥२१॥
शोकाश्रु के सागर में डूबे हुए महाराज दशरथ को दो घड़ी में जब फिर चेत हुआ, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा- ॥ २१॥
आपृच्छे त्वां महाराज सर्वेषामीश्वरोऽसि नः।
प्रस्थितं दण्डकारण्यं पश्य त्वं कुशलेन माम्॥ २२॥
‘महाराज! आप हमलोगों के स्वामी हैं। मैं दण्डकारण्य को जा रहा हूँ और आपसे आज्ञा लेने आया हूँ। आप अपनी कल्याणमयी दृष्टि से मेरी ओर देखिये॥
लक्ष्मणं चानुजानीहि सीता चान्वेतु मां वनम्।
कारणैर्बहुभिस्तथ्यैर्वार्यमाणौ न चेच्छतः॥ २३॥
अनुजानीहि सर्वान् नः शोकमुत्सृज्य मानद।
लक्ष्मणं मां च सीतां च प्रजापतिरिवात्मजान्॥ २४॥
‘मेरे साथ लक्ष्मण को भी वन में जाने की आज्ञा दीजिये। साथ ही यह भी स्वीकार कीजिये कि सीता भी मेरे साथ वन को जाय। मैंने बहुत-से सच्चे कारण बताकर इन दोनों को रोकने की चेष्टा की है. परंतु ये यहाँ रहना नहीं चाहते हैं; अतः दूसरों को मान देने वाले नरेश! आप शोक छोड़कर हम सबको मुझको, लक्ष्मण को और सीता को भी उसी तरह वन में जाने की आज्ञा दीजिये, जैसे ब्रह्माजी ने अपने पुत्र सनकादिकों को तप के लिये वन में जाने की अनुमति दी थी’ ॥ २३-२४॥
प्रतीक्षमाणमव्यग्रमनुज्ञां जगतीपतेः।
उवाच राजा सम्प्रेक्ष्य वनवासाय राघवम्॥२५॥
इस प्रकार शान्तभाव से वनवास के लिये राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखकर महाराज ने उनसे कहा— ॥२५॥
अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः।
अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम्॥ २६॥
‘रघुनन्दन ! मैं कैकेयी को दिये हुए वर के कारण मोह में पड़ गया हूँ। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अब अयोध्या के राजा बन जाओ’ ॥ २६॥
एवमुक्तो नृपतिना रामो धर्मभृतां वरः।
रत्युवाचाञ्जलिं कृत्वा पितरं वाक्यकोविदः॥ २७॥
महाराज के ऐसा कहने पर बातचीत करने में कुशल धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर पिता को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२७॥
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य कांक्षिता॥ २८॥
‘महाराज! आप सहस्रों वर्षों तक इस पृथ्वी केअधिपति बने रहें। मैं तो अब वन में ही निवास करूँगा। मुझे राज्य लेने की इच्छा नहीं है॥ २८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप॥२९॥
‘नरेश्वर! चौदह वर्षों तक वन में घूम-फिरकर आपकी प्रतिज्ञा पूरी कर लेने के पश्चात् मैं पुनः आपके युगल चरणों में मस्तक झुकाऊँगा’ ॥ २९॥
रुदन्नार्तः प्रियं पुत्रं सत्यपाशेन संयुतः।
कैकेय्या चोद्यमानस्तु मिथो राजा तमब्रवीत्॥ ३०॥
राजा दशरथ एक तो सत्य के बन्धन में बँधे हुए थे, दूसरे एकान्त में कैकेयी उन्हें श्रीराम को वन में तुरंत भेजने के लिये बाध्य कर रही थी—इस अवस्था में वे आर्तभाव से रोते हुए वहाँ अपने प्रिय पुत्र श्रीराम से बोले- ॥३०॥
श्रेयसे वृद्धये तात पुनरागमनाय च।
गच्छस्वारिष्टमव्यग्रः पन्थानमकुतोभयम्॥३१॥
‘तात! तुम कल्याण के लिये, वृद्धि के लिये और फिर लौट आने के लिये शान्तभाव से जाओ। तुम्हारा मार्ग विघ्न-बाधाओं से रहित और निर्भय हो॥३१॥
न हि सत्यात्मनस्तात धर्माभिमनसस्तव।
संनिवर्तयितुं बुद्धिः शक्यते रघुनन्दन॥३२॥
अद्य त्विदानी रजनी पुत्र मा गच्छ सर्वथा।
एकाहं दर्शनेनापि साधु तावच्चराम्यहम्॥३३॥
‘बेटा रघुनन्दन ! तुम सत्यस्वरूप और धर्मात्मा हो। तुम्हारे विचार को पलटना तो असम्भव है; परंतु रात भर और रह जाओ। सिर्फ एक रात के लिये सर्वथा अपनी यात्रा रोक दो। केवल एक दिन भी तो तुम्हें देखने का सुख उठा लूँ॥ ३२-३३॥
मातरं मां च सम्पश्यन् वसेमामद्य शर्वरीम्।
तर्पितः सर्वकामैस्त्वं श्वः काल्ये साधयिष्यसि॥ ३४॥
‘अपनी माता को और मुझको इस अवस्था में देखकर आज की इस रात में यहीं रह जाओ। मेरे द्वारा सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं से तृप्त होकर कल प्रातःकाल यहाँ से जाना॥
दुष्करं क्रियते पुत्र सर्वथा राघव प्रिय।
त्वया हि मत्प्रियार्थं तु वनमेवमुपाश्रितम्॥ ३५॥
‘मेरे प्रिय पुत्र श्रीराम ! तुम सर्वथा दुष्कर कार्य कर रहे हो। मेरा प्रिय करने के लिये ही तुमने इस प्रकार वन का आश्रय लिया है॥ ३५॥
न चैतन्मे प्रियं पुत्र शपे सत्येन राघव।
छन्नया चलितस्त्वस्मि स्त्रिया भस्माग्निकल्पया॥ ३६॥
वञ्चना या तु लब्धा मे तां त्वं निस्तर्तुमिच्छसि।
अनया वृत्तसादिन्या कैकेय्याभिप्रचोदितः॥ ३७॥
‘परंतु बेटा रघुनन्दन! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि यह मुझे प्रिय नहीं है। मुझे तुम्हारा वन में जाना अच्छा नहीं लगता। यह मेरी स्त्री कैकेयी राख में छिपी हुई आग के समान भयंकर है। इसने अपने क्रूर अभिप्राय को छिपा रखा था। इसी ने आज मुझे मेरे अभीष्ट संकल्प से विचलित कर दिया है। कुलोचित सदाचार का विनाश करने वाली इस कैकेयी ने मुझे वरदान के लिये प्रेरित करके मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। इसके द्वारा जो वञ्चना मुझे प्राप्त हुई है, उसी को तुम पार करना चाहते हो॥ ३६-३७॥
न चैतदाश्चर्यतमं यत् त्वं ज्येष्ठः सुतो मम।
अपानृतकथं पुत्र पितरं कर्तुमिच्छसि ॥ ३८॥
‘पुत्र! तुम अपने पिता को सत्यवादी बनाना चाहते हो। तुम्हारे लिये यह कोई अधिक आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि तुम गुण और अवस्था दोनों ही दृष्टियों से मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो’ ॥ ३८॥
अथ रामस्तदा श्रुत्वा पितुरार्तस्य भाषितम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा दीनो वचनमब्रवीत्॥३९॥
अपने शोकाकुल पिता का यह कथन सुनकर उस समय छोटे भाई लक्ष्मणसहित श्रीराम ने दुःखी होकर कहा- ॥३९॥
राप्स्यामि यानद्य गुणान् को मे श्वस्तान् प्रदास्यति।
अपक्रमणमेवातः सर्वकामैरहं वृणे॥४०॥
‘महाराज! आज यात्रा करके मैं जिन गुणों (लाभों) को पाऊँगा, उन्हें कल कौन मुझे देगा? अतः मैं सम्पूर्ण कामनाओं के बदले आज यहाँ से निकल जाना ही अच्छा समझता हूँ और इसी का वरण करता हूँ॥
इयं सराष्ट्रा सजना धनधान्यसमाकुला।
मया विसृष्टा वसुधा भरताय प्रदीयताम्॥४१॥
‘राष्ट्र और यहाँ के निवासी मनुष्यों सहित धनधान्य से सम्पन्न यह सारी पृथ्वी मैंने छोड़ दी। आप इसे भरत को दे दें॥४१॥
वनवासकृता बुद्धिर्न च मेऽद्य चलिष्यति।
यस्तु युद्धे वरो दत्तः कैकेय्यै वरद त्वया॥४२॥
दीयतां निखिलेनैव सत्यस्त्वं भव पार्थिव।
मेरा वनवास विषयक निश्चय अब बदल नहीं सकेगा। वरदायक नरेश! आपने देवासुर-संग्राम में कैकेयी को जो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, उसे पूर्णरूप से दीजिये और सत्यवादी बनिये॥ ४२ १/२ ॥
अहं निदेशं भवतो यथोक्तमनुपालयन्॥४३॥
चतुर्दश समा वत्स्ये वने वनचरैः सह।
मा विमर्शो वसुमती भरताय प्रदीयताम्॥४४॥
‘मैं आपकी उक्त आज्ञा का पालन करता हुआ चौदह वर्षों तक वन में वनचारी प्राणियों के साथ निवास करूँगा। आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। आप यह सारी पृथ्वी भरत को दे दीजिये॥
नहि मे कांक्षितं राज्यं सुखमात्मनि वा प्रियम्।
यथानिदेशं कर्तुं वै तवैव रघुनन्दन॥४५॥
‘रघुनन्दन! मैंने अपने मन को सुख देने अथवा । स्वजनों का प्रिय करने के उद्देश्य से राज्य लेने की इच्छा नहीं की थी। आपकी आज्ञा का यथावत् रूप से पालन करने के लिये ही मैंने उसे ग्रहण करने की अभिलाषा की थी॥४५॥
अपगच्छतु ते दुःखं मा भूर्बाष्पपरिप्लुतः।
नहि क्षुभ्यति दुर्धर्षः समुद्रः सरितां पतिः॥४६॥
‘आपका दुःख दूर हो जाय, आप इस प्रकार आँसू न बहावें। सरिताओं का स्वामी दुर्धर्ष समुद्र क्षुब्ध नहीं होता है—अपनी मर्यादा का त्याग नहीं करता है (इसी तरह आपको भी क्षुब्ध नहीं होना चाहिये) ॥ ४६॥
नैवाहं राज्यमिच्छामि न सुखं न च मेदिनीम्।
नैव सर्वानिमान् कामान् न स्वर्गं न च जीवितुम्॥ ४७॥
‘मुझे न तो इस राज्य की, न सुख की, न पृथ्वी की, न इन सम्पूर्ण भोगों की, न स्वर्ग की और न जीवन की ही इच्छा है॥४७॥
त्वामहं सत्यमिच्छामि नानृतं पुरुषर्षभ।
प्रत्यक्षं तव सत्येन सुकृतेन च ते शपे॥४८॥
‘पुरुषशिरोमणे! मेरे मन में यदि कोई इच्छा है तो यही कि आप सत्यवादी बनें। आपका वचन मिथ्या न होने पावे। यह बात मैं आपके सामने सत्य और शुभ कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ॥४८॥
न च शक्यं मया तात स्थातुं क्षणमपि प्रभो।
स शोकं धारयस्वेमं नहि मेऽस्ति विपर्ययः॥ ४९॥
तात! प्रभो! अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता। अतः आप इस शोक को अपने भीतर ही दबा लें। मैं अपने निश्चय के विपरीत कुछ नहीं कर सकता॥
अर्थितो ह्यस्मि कैकेय्या वनं गच्छेति राघव।
मया चोक्तं व्रजामीति तत्सत्यमनुपालये॥५०॥
‘रघुनन्दन! कैकेयी ने मुझसे यह याचना की कि ‘राम! तुम वन को चले जाओ’ मैंने वचन दिया था कि ‘अवश्य जाऊँगा’ उस सत्य का मुझे पालन करना।
मा चोत्कण्ठां कृथा देव वने रंस्यामहे वयम्।
प्रशान्तहरिणाकीर्णे नानाशकुनिनादिते॥५१॥
‘देव! बीच में हमें देखने या हमसे मिलने के लिये आप उत्कण्ठित न होंगे। शान्तस्वभाव वाले मृगों से भरे हुए और भाँति-भाँति के पक्षियों के कलरवों से गूंजते हुए उस वन में हमलोग बड़े आनन्द से रहेंगे॥५१॥
पिता हि दैवतं तात देवतानामपि स्मृतम्।
तस्माद दैवतमित्येव करिष्यामि पितुर्वचः॥५२॥
‘तात! पिता देवताओं के भी देवता माने गये हैं। अतः मैं देवता समझकर ही पिता (आप) की आज्ञा का पालन करूँगा॥५२॥
चतुर्दशसु वर्षेषु गतेषु नृपसत्तम।
पुनर्द्रक्ष्यसि मां प्राप्तं संतापोऽयं विमुच्यताम्॥ ५३॥
‘नृपश्रेष्ठ! अब यह संताप छोड़िये। चौदह वर्ष बीत जाने पर आप फिर मुझे आया हुआ देखेंगे॥ ५३॥
येन संस्तम्भनीयोऽयं सर्वो बाष्पकलो जनः।
स त्वं पुरुषशार्दूल किमर्थं विक्रियां गतः॥५४॥
‘पुरुषसिंह ! यहाँ जितने लोग आँसू बहा रहे हैं, इन सबको धैर्य बँधाना आपका कर्तव्य है; फिर आप स्वयं ही इतने विकल कैसे हो रहे हैं? ॥ ५४॥
पुरं च राष्ट्रं च मही च केवला मया विसृष्टा भरताय दीयताम्।
अहं निदेशं भवतोऽनुपालयन् वनं गमिष्यामि चिराय सेवितुम्॥५५॥
‘यह नगर, यह राज्य और यह सारी पृथ्वी मैंने छोड़ दी। आप यह सब कुछ भरत को दे दीजिये।अब मैं आपके आदेश का पालन करता हुआ । दीर्घकालतक वन में निवास करने के लिये यहाँ से यात्रा कर रहा हूँ॥
मया विसृष्टां भरतो महीमिमां सशैलखण्डां सपुरोपकाननाम्।
शिवासु सीमास्वनुशास्तु केवलं त्वया यदुक्तं नृपते तथास्तु तत्॥५६॥
‘मेरी छोड़ी हुई पर्वतखण्डों, नगरों और उपवनोंसहित इस सारी पृथ्वी का भरत कल्याणकारिणी मर्यादाओं में स्थित रहकर पालन करें। नरेश्वर! आपने जो वचन दिया है, वह पूर्ण हो॥५६॥
न मे तथा पार्थिव धीयते मनो महत्सु कामेषु न चात्मनः प्रिये।
यथा निदेशे तव शिष्टसम्मते व्यपैतु दुःखं तव मत्कृतेऽनघ॥५७॥
‘पृथ्वीनाथ! निष्पाप महाराज! सत्पुरुषोंद्वारा अनुमोदित आपकी आज्ञा का पालन करने में मेरा मन जैसा लगता है, वैसा बड़े-बड़े भोगों में तथा अपने किसी प्रिय पदार्थ में भी नहीं लगता; अतः मेरे लिये आपके मन में जो दुःख है, वह दूर हो जाना चाहिये। ५७॥
तदद्य नैवानघ राज्यमव्ययं न सर्वकामान् वसुधां न मैथिलीम्।
न चिन्तितं त्वामनृतेन योजयन् वृणीय सत्यं व्रतमस्तु ते तथा॥५८॥
‘निष्पाप नरेश! आज आपको मिथ्यावादी बनाकर मैं अक्षय राज्य, सब प्रकार के भोग, वसुधा का आधिपत्य, मिथिलेशकुमारी सीता तथा अन्य किसी अभिलषित पदार्थ को भी स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी एक मात्र इच्छा यही है कि ‘आपकी प्रतिज्ञा सत्य हो’ ॥ ५८॥
फलानि मूलानि च भक्षयन् वने गिरीश्च पश्यन् सरितः सरांसि च।
वनं प्रविश्यैव विचित्रपादपं सुखी भविष्यामि तवास्तु निर्वृतिः॥५९॥
‘मैं विचित्र वृक्षों से युक्त वन में प्रवेश करके फलमूल का भोजन करता हुआ वहाँ के पर्वतों, नदियों और सरोवरों को देख-देखकर सुखी होऊँगा; इसलिये आप अपने मन को शान्त कीजिये’ ॥ ५९॥
एवं स राजा व्यसनाभिपन्नस्तापेन दुःखेन च पीड्यमानः।
आलिङ्ग्य पुत्रं सुविनष्टसंज्ञो भूमिं गतो नैव चिचेष्ट किंचित्॥६०॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर पुत्र-बिछोह के संकट में पड़े हुए राजा दशरथ ने दुःख और संताप से पीड़ित हो उन्हें छाती से लगाया और फिर अचेत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय उनका शरीर जड की भाँति कुछ भी चेष्टा न कर सका। ६०॥
देव्यः समस्ता रुरुदुः समेतास्तां वर्जयित्वा नरदेवपत्नीम्।
रुदन् सुमन्त्रोऽपि जगाम मूच्र्छा हाहाकृतं तत्र बभूव सर्वम्॥६१॥
यह देख राजरानी कैकेयी को छोड़कर वहाँ एकत्र हुई अन्य सभी रानियाँ रो पड़ीं। सुमन्त्र भी रोते-रोते मूर्च्छित हो गये तथा वहाँ सब ओर हाहाकार मच गया॥ ६॥
सर्ग ३५
ततो निधूय सहसा शिरो निःश्वस्य चासकृत्।
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य दन्तान् कटकटाय्य च॥
लोचने कोपसंरक्ते वर्णं पूर्वोचितं जहत्।
कोपाभिभूतः सहसा संतापमशुभं गतः॥२॥
मनः समीक्षमाणश्च सूतो दशरथस्य च।
कम्पयन्निव कैकेय्या हृदयं वाक्शरैः शितैः॥३॥
तदनन्तर होश में आने पर सारथि सुमन्त्र सहसा उठकर खड़े हो गये। उनके मन में बड़ा संताप हुआ, जो अमङ्गलकारी था। वे क्रोध के मारे काँपने लगे। उनके शरीर और मुख की पहली स्वाभाविक कान्ति बदल गयी। वे क्रोध से आँखें लाल करके दोनों हाथों से सिर पीटने लगे और बारम्बार लम्बी साँस खींचकर, हाथ-से-हाथ मलकर, दाँत कटकटाकर राजा दशरथ के मन की वास्तविक अवस्था देखते हुए अपने वचनरूपी तीखे बाणों से कैकेयी के हृदय को कम्पित-सा करने लगे॥१-३॥
वाक्यवज्ररनुपमैर्निर्भिन्दन्निव चाशुभैः।
कैकेय्याः सर्वमर्माणि सुमन्त्रः प्रत्यभाषत॥४॥
अपने अशुभ एवं अनुपम वचनरूपी वज्र से कैकेयी के सारे मर्मस्थानों को विदीर्ण-से करते हुए सुमन्त्र ने उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥ ४॥
यस्यास्तव पतिस्त्यक्तो राजा दशरथः स्वयम्।
भर्ता सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च॥५॥
नह्यकार्यतमं किंचित्तव देवीह विद्यते।
पतिघ्नीं त्वामहं मन्ये कुलनीमपि चान्ततः॥६॥
‘देवि! जब तुमने सम्पूर्ण चराचर जगत् के स्वामी स्वयं अपने पति महाराज दशरथ का ही त्याग कर दिया, तब इस जगत् में कोई ऐसा कुकर्म नहीं है, जिसे तुम न कर सको; मैं तो समझता हूँ कि तुम पति की हत्या करने वाली तो हो ही; अन्ततः कुलघातिनी भी हो॥५-६॥
यन्महेन्द्रमिवाजय्यं दुष्प्रकम्प्यमिवाचलम्।
महोदधिमिवाक्षोभ्यं संतापयसि कर्मभिः॥७॥
‘ओह! जो देवराज इन्द्र के समान अजेय, पर्वत के समान अकम्पनीय और महासागर के समान क्षोभरहित हैं, उन महाराज दशरथ को भी तुम अपने कर्मों से संतप्त कर रही हो॥७॥
मावमंस्था दशरथं भर्तारं वरदं पतिम्।
भर्तुरिच्छा हि नारीणां पुत्रकोट्या विशिष्यते॥ ८॥
राजा दशरथ तुम्हारे पति, पालक और वरदाता हैं। तुम इनका अपमान न करो। नारियों के लिये पति की इच्छा का महत्त्व करोड़ों पुत्रों से भी अधिक है।॥ ८॥
यथावयो हि राज्यानि प्राप्नुवन्ति नृपक्षये।
इक्ष्वाकुकुलनाथेऽस्मिंस्तं लोपयितुमिच्छसि॥९॥
‘इस कुल में राजा का परलोकवास हो जाने पर उसके पुत्रों की अवस्था का विचार करके जो ज्येष्ठ पुत्र होते हैं, वे ही राज्य पाते हैं। राजकुल के इस परम्परागत आचार को तुम इन इक्ष्वाकुवंश के स्वामी महाराज दशरथ के जीते-जी ही मिटा देना चाहती हो। ९॥
राजा भवतु ते पुत्रो भरतः शास्तु मेदिनीम्।
वयं तत्र गमिष्यामो यत्र रामो गमिष्यति॥१०॥
‘तुम्हारे पुत्र भरत राजा हो जायँ और इस पृथ्वी का शासन करें; किंतु हमलोग तो वहीं चले जायँगे जहाँ श्रीराम जायँगे॥ १० ॥
न च ते विषये कश्चिद् ब्राह्मणो वस्तुमर्हति।
तादृशं त्वममर्यादमद्य कर्म करिष्यसि॥११॥
नूनं सर्वे गमिष्यामो मार्गं रामनिषेवितम्।
‘तुम्हारे राज्य में कोई भी ब्राह्मण निवास नहीं करेगा; यदि तुम आज वैसा मर्यादाहीन कर्म करोगी तो निश्चय ही हम सब लोग उसी मार्ग पर चले जायेंगे, जिसका श्रीराम ने सेवन किया है॥ ११ १/२ ॥
त्यक्ता या बान्धवैः सर्वैाह्मणैः साधुभिः सदा॥ १२॥
का प्रीती राज्यलाभेन तव देवि भविष्यति।
तादृशं त्वममर्यादं कर्म कर्तुं चिकीर्षसि॥१३॥
‘सम्पूर्ण बन्धु-बान्धव और सदाचारी ब्राह्मण भी तुम्हारा त्याग कर देंगे। देवि! फिर इस राज्य को पाकर तुम्हें क्या आनन्द मिलेगा। ओह! तुम ऐसा मर्यादाहीन कर्म करना चाहती हो॥ १२-१३ ॥
आश्चर्यमिव पश्यामि यस्यास्ते वृत्तमीदृशम्।
आचरन्त्या न विवृता सद्यो भवति मेदिनी॥ १४॥
‘मुझे तो यह देखकर आश्चर्य-सा हो रहा है कि तुम्हारे इतने बड़े अत्याचार करने पर भी पृथ्वी तुरंत फट क्यों नहीं जाती? ॥ १४ ॥
महाब्रह्मर्षिसृष्टा वा ज्वलन्तो भीमदर्शनाः।
धिग्वाग्दण्डा न हिंसन्ति रामप्रव्राजने स्थिताम्॥ १५॥
‘अथवा बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों के धिक्कारपूर्ण वाग्दण्ड (शाप) जो देखने में भयंकर और जलाकर भस्म कर देने वाले होते हैं, श्रीराम को घर से निकालने के लिये तैयार खड़ी हुई तुम-जैसी पाषाणहृदया का सर्वनाश क्यों नहीं कर डालते हैं ? ॥ १५ ॥
आनं छित्त्वा कुठारेण निम्बं परिचरेत् तु कः।
यश्चैनं पयसा सिञ्चेन्नैवास्य मधुरो भवेत्॥
‘भला आम को कुल्हाड़ी से काटकर उसकी जगह नीम का सेवन कौन करेगा? जो आम की जगह नीम को ही दूध से सींचता है, उसके लिये भी यह नीम मीठा फल देने वाला नहीं हो सकता (अतः वरदान के बहाने श्रीराम को वनवास देकर कैकेयी के चित्त को संतुष्ट करना राजा के लिये कभी सुखद परिणाम का जनक नहीं हो सकता) ॥१६॥
आभिजात्यं हि ते मन्ये यथा मातुस्तथैव च।
न हि निम्बात् स्रवेत् क्षौद्रं लोके निगदितं वचः॥ १७॥
‘कैकेयि! मैं समझता हूँ कि तुम्हारी माता का अपने कुल के अनुरूप जैसा स्वभाव था, वैसा ही तुम्हारा भी है। लोक में कही जाने वाली यह कहावत सत्य ही है कि नीम से मधु नहीं टपकता॥ १७ ॥
तव मातुरसद्ग्राहं विद्म पूर्वं यथा श्रुतम्।
पितुस्ते वरदः कश्चिद् ददौ वरमनुत्तमम्॥१८॥
‘तुम्हारी माता के दुराग्रह की बात भी हम जानते हैं। इसके विषय में पहले जैसा सुना गया है, वह बताया जाता है। एक समय किसी वर देने वाले साधुने तुम्हारे पिता को अत्यन्त उत्तम वर दिया था॥ १८ ॥
सर्वभूतरुतं तस्मात् संजज्ञे वसुधाधिपः।
तेन तिर्यग्गतानां च भूतानां विदितं वचः॥१९॥
‘उस वर के प्रभाव से केकयनरेश समस्त प्राणियों की बोली समझने लगे तिर्यक् योनि में पड़े हुएप्राणियों की बातें भी उनकी समझमें आ जाती थीं। १९॥
ततो जृम्भस्य शयने विरुताद् भूरिवर्चसः।
पित्स्ते विदितो भावः स तत्र बहुधाहसत्॥२०॥
‘एक दिन तुम्हारे महातेजस्वी पिता शय्यापर लेटे हुए थे। उसी समय जृम्भ नामक पक्षी की आवाज उनके कानों में पड़ी। उसकी बोली का अभिप्राय उनकी समझमें आ गया। अतः वे वहाँ कई बार हँसे॥२०॥
तत्र ते जननी क्रुद्धा मृत्युपाशमभीप्सती।
हासं ते नृपते सौम्य जिज्ञासामीति चाब्रवीत्॥ २१॥
‘उसी शय्या पर तुम्हारी माँ भी सोयी थी। वह यह समझकर कि राजा मेरी ही हँसी उड़ा रहे हैं, कुपित हो उठी और गले में मौत की फाँसी लगाने की इच्छा रखती हुई बोली—’सौम्य! नरेश्वर! तुम्हारे हँसने का क्या कारण है, यह मैं जानना चाहती हूँ’॥ २१॥
नृपश्चोवाच तां देवीं हासं शंसामि ते यदि।
ततो मे मरणं सद्यो भविष्यति न संशयः॥ २२॥
‘तब राजा ने उस देवी से कहा—’रानी! यदि मैं अपने हँसने का कारण बता दूं तो उसी क्षण मेरी मृत्यु हो जायगी, इसमें संशय नहीं है’ ॥ २२॥
माता ते पितरं देवि पुनः केकयमब्रवीत्।
शंस मे जीव वा मा वा न मां त्वं प्रहसिष्यसि॥ २३॥
‘देवि! यह सुनकर तुम्हारी रानी माता ने तुम्हारे पिता केकयराज से फिर कहा–’तुम जीओ या मरो, मुझे कारण बता दो। भविष्य में तुम फिर मेरी हँसी नहीं उड़ा सकोगे’ ॥ २३॥
प्रियया च तथोक्तः स केकयः पृथिवीपतिः।
तस्मै तं वरदायार्थं कथयामास तत्त्वतः॥२४॥
‘अपनी प्यारी रानी के ऐसा कहने पर केकयनरेश ने उस वर देने वाले साधु के पास जाकर सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया॥ २४ ॥
ततः स वरदः साधू राजानं प्रत्यभाषत।
म्रियतां ध्वंसतां वेयं मा शंसीस्त्वं महीपते॥२५॥
‘तब उस वर देने वाले साधु ने राजा को उत्तर दिया – ‘महाराज! रानी मरे या घर से निकल जाय; तुम कदापि यह बात उसे न बताना’ ॥ २५ ॥
स तच्छ्रुत्वा वचस्तस्य प्रसन्नमनसो नृपः।
मातरं ते निरस्याशु विजहार कुबेरवत्॥२६॥
‘प्रसन्न चित्तवाले उस साधु का यह वचन सुनकर केकय नरेश ने तुम्हारी माता को तुरंत घर से निकाल दिया और स्वयं कुबेर के समान विहार करने लगे। २६॥
तथा त्वमपि राजानं दुर्जनाचरिते पथि।
असद्ग्राहमिमं मोहात् कुरुषे पापदर्शिनी॥२७॥
‘तुम भी इसी प्रकार दुर्जनों के मार्ग पर स्थित हो पापपर ही दृष्टि रखकर मोहवश राजा से यह अनुचित आग्रह कर रही हो ॥२७॥
सत्यश्चात्र प्रवादोऽयं लौकिकः प्रतिभाति मा।
पितृन् समनुजायन्ते नरा मातरमङ्गनाः॥२८॥
‘आज मुझे यह लोकोक्ति सोलह आने सच मालूम होती है कि पुत्र पिता के समान होते हैं और कन्याएँ माता के समान॥ २८॥
नैवं भव गृहाणेदं यदाह वसुधाधिपः।
भर्तुरिच्छामुपास्वेह जनस्यास्य गतिर्भव॥२९॥
‘तुम ऐसी न बनो—इस लोकोक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ न करो। राजा ने जो कुछ कहा है, उसे स्वीकार करो (श्रीराम का राज्याभिषेक होने दो)। अपने पति की इच्छा का अनुसरण करके इस जन-समुदाय को यहाँ शरण देने वाली बनो॥ २९॥
मा त्वं प्रोत्साहिता पापैर्देवराजसमप्रभम्।
भर्तारं लोकभर्तारमसद्धर्ममुपादध॥३०॥
‘पापपूर्ण विचार रखनेवाले लोगोंके बहकावेमें आकर तुम देवराज इन्द्रके तुल्य तेजस्वी अपने लोक-प्रतिपालक स्वामीको अनुचित कर्ममें न लगाओ॥ ३०॥
नहि मिथ्या प्रतिज्ञातं करिष्यति तवानघः।
श्रीमान् दशरथो राजा देवि राजीवलोचनः॥ ३१॥
‘देवि! कमलनयन श्रीमान् राजा दशरथ पाप से दूर रहते हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा झूठी नहीं करेंगे॥ ३१॥
ज्येष्ठो वदान्यः कर्मण्यः स्वधर्मस्यापि रक्षिता।
रक्षिता जीवलोकस्य बली रामोऽभिषिच्यताम्॥ ३२॥
‘श्रीरामचन्द्रजी अपने भाइयों में ज्येष्ठ, उदार, कर्मठ, स्वधर्म के पालक, जीवजगत् के रक्षक और बलवान् हैं। इनका इस राज्य पर अभिषेक होने दो॥ ३२॥
परिवादो हि ते देवि महाँल्लोके चरिष्यति।
यदि रामो वनं याति विहाय पितरं नृपम्॥३३॥
‘देवि! यदि श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ को छोड़कर वन को चले जायँगे तो संसार में तुम्हारी बड़ी निन्दा होगी॥३३॥
स्वराज्यं राघवः पातु भव त्वं विगतज्वरा।
नहि ते राघवादन्यः क्षमः पुरवरे वसन्॥३४॥
‘अतः श्रीरामचन्द्रजी ही अपने राज्य का पालन करें और तुम निश्चिन्त होकर बैठो। श्रीराम के सिवा दूसरा कोई राजा इस श्रेष्ठ नगर में रहकर तुम्हारे अनुकूल आचरण नहीं कर सकता॥३४॥
रामे हि यौवराज्यस्थे राजा दशरथो वनम्।
प्रवेक्ष्यति महेष्वासः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥३५॥
‘श्रीराम के युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद महाधनुर्धर राजा दशरथ पूर्वजों के वृत्तान्त का स्मरण करके स्वयं वन में प्रवेश करेंगे’ ॥ ३५ ॥
इति सान्त्वैश्च तीक्ष्णैश्च कैकेयीं राजसंसदि।
भूयः संक्षोभयामास सुमन्त्रस्तु कृताञ्जलिः॥ ३६॥
नैव सा क्षुभ्यते देवी न च स्म परिदूयते।
न चास्या मुखवर्णस्य लक्ष्यते विक्रिया तदा॥ ३७॥
इस प्रकार सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर कैकेयी को उस राजभवन में सान्त्वनापूर्ण तथा तीखे वचनों से भी बारम्बार विचलित करने की चेष्टा की; किंतु वह टस से-मस न हुई। देवी कैकेयी के मन में न तो क्षोभ हुआ और न दुःख ही। उस समय उसके चेहरे के रंग में भी कोई फर्क पड़ता नहीं दिखायी दिया॥ ३६-३७॥
सर्ग ३६
ततः समन्त्रमैक्ष्वाकः पीडितोऽत्र प्रतिज्ञया।
सबाष्पमतिनिःश्वस्य जगादेदं पुनर्वचः॥१॥
तब इक्ष्वाकु कुलनन्दन राजा दशरथ वहाँ अपनी प्रतिज्ञा से पीड़ित हो आँसू बहाते हुए लम्बी साँस खींचकर सुमन्त्र से फिर इस प्रकार बोले- ॥१॥
सूत रत्नसुसम्पूर्णा चतुर्विधबला चमूः।
राघवस्यानुयात्रार्थं क्षिप्रं प्रतिविधीयताम्॥२॥
‘सूत! तुम शीघ्र ही रत्नों से भरी-पूरी चतुरङ्गिणी सेनाको श्रीराम के पीछे-पीछे जाने की आज्ञा दो॥२॥
रूपाजीवाश्च वादिन्यो वणिजश्च महाधनाः।
शोभयन्तु कुमारस्य वाहिनीः सुप्रसारिताः॥३॥
‘रूपसे आजीविका चलाने और सरस वचन बोलने वाली स्त्रियाँ तथा महाधनी एवं विक्रययोग्य द्रव्यों का प्रसारण करने में कुशल वैश्य राजकुमार श्रीराम की सेनाओं को सुशोभित करें॥३॥
ये चैनमुपजीवन्ति रमते यैश्च वीर्यतः।
तेषां बहविधं दत्त्वा तानप्यत्र नियोजय॥४॥
‘जो श्रीराम के पास रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं तथा जिन मल्लों से ये उनका पराक्रम देखकर प्रसन्न रहते हैं, उन सबको अनेक प्रकार का धन देकर उन्हें भी इनके साथ जाने की आज्ञा दे दो॥४॥
आयुधानि च मुख्यानि नागराः शकटानि च।
अनुगच्छन्तु काकुत्स्थं व्याधाश्चारण्यकोविदाः॥
‘मुख्य-मुख्य आयुध, नगर के निवासी, छकड़े तथा वन के भीतरी रहस्य को जानने वाले व्याध ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम के पीछे-पीछे जायें॥ ५॥
निघ्नन् मृगान् कुञ्जरांश्च पिबंश्चारण्यकं मधु।
नदीश्च विविधाः पश्यन् न राज्यं संस्मरिष्यति॥ ६॥
‘वे रास्ते में आये हुए मृगों एवं हाथियों को पीछे लौटाते, जंगली मधु का पान करते और नाना प्रकार की नदियों को देखते हुए अपने राज्य का स्मरण नहीं करेंगे।
धान्यकोशश्च यः कश्चिद् धनकोशश्च मामकः।
तौ राममनुगच्छेतां वसन्तं निर्जने वने॥७॥
‘श्रीराम निर्जन वन में निवास करने के लिये जा रहे हैं, अतः मेरा खजाना और अन्नभण्डार—ये दोनोंवस्तुएँ इनके साथ जायें ॥ ७॥
यजन् पुण्येषु देशेषु विसृजंश्चाप्तदक्षिणाः।
ऋषिभिश्चापि संगम्य प्रवत्स्यति सुखं वने॥८॥
‘ये वन के पावन प्रदेशों में यज्ञ करेंगे, उनमें आचार्य आदि को पर्याप्त दक्षिणा देंगे तथा ऋषियों से मिलकर वन में सुखपूर्वक रहेंगे॥८॥
भरतश्च महाबाहुरयोध्यां पालयिष्यति।
सर्वकामैः पुनः श्रीमान् रामः संसाध्यतामिति॥
‘महाबाहु भरत अयोध्या का पालन करेंगे। श्रीमान् राम को सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगों से सम्पन्न करके यहाँ से भेजा जाय’ ॥९॥
एवं ब्रुवति काकुत्स्थे कैकेय्या भयमागतम्।
मुखं चाप्यगमच्छोषं स्वरश्चापि व्यरुध्यत॥
जब महाराज दशरथ ऐसी बातें कहने लगे, तब कैकेयी को बड़ा भय हुआ। उसका मुँह सूख गया और उसका स्वर भी रुंध गया॥१०॥
सा विषण्णा च संत्रस्ता मुखेन परिशुष्यता।
राजानमेवाभिमुखी कैकेयी वाक्यमब्रवीत्॥ ११॥
वह केकयराजकुमारी विषादग्रस्त एवं त्रस्त होकर सूखे मुँह से राजा की ओर ही मुँह करके बोली- ॥ ११॥
राज्यं गतधनं साधो पीतमण्डां सुरामिव।
निरास्वाद्यतमं शन्यं भरतो नाभिपत्स्यते॥१२॥
‘श्रेष्ठ महाराज! जिसका सारभाग पहले से ही पी लिया गया हो, उस आस्वादरहित सुरा को जैसे उसका सेवन करने वाले लोग नहीं ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार इस धनहीन और सूने राज्य को, जो कदापि सेवन करने योग्य नहीं रह जायगा, भरत कदापि नहीं ग्रहण करेंगे’ ॥ १२॥
कैकेय्यां मुक्तलज्जायां वदन्त्यामतिदारुणम्।
राजा दशरथो वाक्यमुवाचायतलोचनाम्॥१३॥
कैकेयी लाज छोड़कर जब वह अत्यन्त दारुण वचन बोलने लगी, तब राजा दशरथने उस विशाललोचना कैकेयीसे इस प्रकार कहा- ॥१३॥
वहन्तं किं तुदसि मां नियुज्य धुरि माहिते।
अनार्ये कृत्यमारब्धं किं न पूर्वमुपारुधः॥१४॥
‘अनार्ये! अहितकारिणि! तु राम को वनवास देने के दुर्वह भार में लगाकर जब मैं उस भार को ढो रहा हूँ, उस अवस्था में क्यों अपने वचनों का चाबुक मारकर मुझे पीड़ा दे रही है ? इस समय जो कार्य तूने आरम्भ किया है अर्थात् श्रीराम के साथ सेना और सामग्री भेजने में जो प्रतिबन्ध लगाया है, इसके लिये तूने पहले ही क्यों नहीं प्रार्थना की थी? (अर्थात् पहले ही यह क्यों नहीं कह दिया था कि श्रीराम को अकेले वन में जाना पड़ेगा, उनके साथ सेना आदि सामग्री नहीं जा सकती)’ ॥१४॥
तस्यैतत् क्रोधसंयुक्तमुक्तं श्रुत्वा वराङ्गना।
कैकेयी द्विगुणं क्रुद्धा राजानमिदमब्रवीत्॥ १५॥
राजा का यह क्रोधयुक्त वचन सुनकर सुन्दरी कैकेयी उनकी अपेक्षा दूना क्रोध करके उनसे इस प्रकार बोली- ॥ १५ ॥
तवैव वंशे सगरो ज्येष्ठपुत्रमुपारुधत्।
असमञ्ज इति ख्यातं तथायं गन्तुमर्हति ॥१६॥
‘महाराज! आपके ही वंशमें पहले राजा सगर हो गये हैं, जिन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज को निकालकर उसके लिये राज्य का दरवाजा सदा के लिये बंद कर दिया था। इसी तरह इनको भी यहाँ से निकल जाना चाहिये’ ॥ १६॥
एवमुक्तो धिगित्येव राजा दशरथोऽब्रवीत्।
वीडितश्च जनः सर्वः सा च तन्नावबुध्यत॥ १७॥
उसके ऐसा कहने पर राजा दशरथ ने कहा —‘धिक्कार है।’ वहाँ जितने लोग बैठे थे सभी लाज से गड़ गये; किंतु कैकेयी अपने कथन के अनौचित्य को अथवा राजा द्वारा दिये गये धिक्कार के औचित्य को नहीं समझ सकी॥ १७॥
तत्र वृद्धो महामात्रः सिद्धार्थो नाम नामतः।
शुचिर्बहुमतो राज्ञः कैकेयीमिदमब्रवीत्॥१८॥
उस समय वहाँ राजा के प्रधान और वयोवृद्ध मन्त्री सिद्धार्थ बैठे थे। वे बड़े ही शुद्ध स्वभाव वाले और राजा के विशेष आदरणीय थे। उन्होंने कैकेयी से इस प्रकार कहा— ॥ १८॥
असमञ्जो गृहीत्वा तु क्रीडतः पथि दारकान्।
सरय्वां प्रक्षिपन्नप्सु रमते तेन दुर्मतिः॥१९॥
‘देवि! असमञ्ज बड़ी दुष्ट बुद्धि का राजकुमार था। वह मार्गपर खेलते हुए बालकों को पकड़कर सरयू के जल में फेंक देता था और ऐसे ही कार्यों से अपना मनोरञ्जन करता था॥ १९॥
तं दृष्ट्वा नागराः सर्वे क्रुद्धा राजानमब्रुवन्।
असमजं वृणीष्वैकमस्मान् वा राष्टवर्धन॥२०॥
‘उसकी यह करतूत देखकर सभी नगरनिवासी कुपित हो राजा के पास जाकर बोले—’राष्ट्र की वृद्धि करने वाले महाराज! या तो आप अकेले असमञ्ज को लेकर रहिये या इन्हें निकालकर हमें इस नगर में रहने दीजिये’ ॥२०॥
तानुवाच ततो राजा किंनिमित्तमिदं भयम्।
ताश्चापि राज्ञा सम्पृष्टा वाक्यं प्रकृतयोऽब्रुवन्॥ २१॥
‘तब राजा ने उनसे पूछा—’तुम्हें असमञ्ज से किस कारण भय हुआ है?’ राजा के पूछने पर उन प्रजाजनों ने यह बात कही-॥२१॥
क्रीडतस्त्वेष नः पुत्रान् बालानुभ्रान्तचेतसः।
सरय्वां प्रक्षिपन्मौादतुलां प्रीतिमश्नुते॥२२॥
‘महाराज! यह हमारे खेलते हुए छोटे-छोटे बच्चोंको पकड़ लेते हैं और जब वे बहुत घबरा जाते हैं, तब उन्हें सरयूमें फेंक देते हैं। मूर्खतावश ऐसा करके इन्हें अनुपम आनन्द प्राप्त होता है’ ॥ २२॥
स तासां वचनं श्रुत्वा प्रकृतीनां नराधिपः।
तं तत्याजाहितं पुत्रं तासां प्रियचिकीर्षया॥२३॥
‘उन प्रजाजनों की वह बात सुनकर राजा सगर ने उनका प्रिय करने की इच्छा से अपने उस अहितकारक दुष्ट पुत्र को त्याग दिया॥ २३॥
तं यानं शीघ्रमारोप्य सभार्यं सपरिच्छदम्।
यावज्जीवं विवास्योऽयमिति तानन्वशात् पिता॥ २४॥
‘पिता ने अपने उस पुत्र को पत्नी और आवश्यक सामग्री सहित शीघ्र रथ पर बिठाकर अपने सेवकों को आज्ञा दी—’इसे जीवन भर के लिये राज्य से बाहर निकाल दो’ ॥ २४॥
स फालपिटकं गृह्य गिरिदुर्गाण्यलोकयत्।
दिशः सर्वास्त्वनुचरन् स यथा पापकर्मकृत्॥ २५॥
इत्येनमत्यजद् राजा सगरो वै सुधार्मिकः।
रामः किमकरोत् पापं येनैवमुपरुध्यते॥२६॥
‘असमञ्ज ने फाल और पिटारी लेकर पर्वतों की दुर्गम गुफाओं को ही अपने निवास के योग्य देखा और कन्द आदि के लिये वह सम्पूर्ण दिशाओं में विचरने लगा। वह जैसा कि बताया गया है, पापाचारी था, इसलिये परम धार्मिक राजा सगर ने उसको त्याग दिया था। श्रीराम ने ऐसा कौन-सा अपराध किया है, जिसके कारण इन्हें इस तरह राज्य पाने से रोका जा रहा है? ॥
नहि कंचन पश्यामो राघवस्यागुणं वयम्।
दुर्लभो ह्यस्य निरयः शशाङ्कस्येव कल्मषम्॥ २७॥
‘हमलोग तो श्रीरामचन्द्रजी में कोई अवगुण नहीं देखते हैं; जैसे (शुक्लपक्ष की द्वितीया के) चन्द्रमा में मलिनता का दर्शन दुर्लभ है, उसी प्रकार इनमें कोई पाप या अपराध ढूँढ़ने से भी नहीं मिल सकता॥२७॥
अथवा देवि त्वं कंचिद् दोषं पश्यसि राघवे।
तमद्य ब्रूहि तत्त्वेन तदा रामो विवास्यते॥२८॥
‘अथवा देवि! यदि तुम्हें श्रीरामचन्द्रजी में कोई दोष दिखायी देता हो तो आज उसे ठीक-ठीक बताओ। उस दशा में श्रीराम को निकाल दिया जा सकता है। २८॥
अदुष्टस्य हि संत्यागः सत्पथे निरतस्य च।
निर्दहेदपि शक्रस्य द्युतिं धर्मविरोधवान्॥२९॥
‘जिसमें कोई दुष्टता नहीं है, जो सदा सन्मार्ग में ही स्थित है, ऐसे पुरुष का त्याग धर्म से विरुद्ध माना जाता है। ऐसा धर्म विरोधी कर्म तो इन्द्र के भी तेज को दग्ध कर देगा॥ २९॥
तदलं देवि रामस्य श्रिया विहतया त्वया।
लोकतोऽपि हि ते रक्ष्यः परिवादः शुभानने॥ ३०॥
अतः देवि! श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक में विघ्न डालने से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। शुभानने! तुम्हें लोकनिन्दा से भी बचने की चेष्टा करनी चाहिये। ३०॥
श्रुत्वा तु सिद्धार्थवचो राजा श्रान्ततरस्वरः।
शोकोपहतया वाचा कैकेयीमिदमब्रवीत्॥३१॥
सिद्धार्थ की बातें सुनकर राजा दशरथ अत्यन्त थके हुए स्वर से शोकाकुल वाणी में कैकेयी से इस प्रकार बोले- ॥३१॥
एतद्रचो नेच्छसि पापरूपे हितं न जानासि ममात्मनोऽथवा।
आस्थाय मार्ग कृपणं कुचेष्टा चेष्टा हि ते साधुपथादपेता॥३२॥
‘पापिनि! क्या तुझे यह बात नहीं रुची? तुझे मेरे या अपने हित का भी बिलकुल ज्ञान नहीं है? तू दुःखद मार्ग का आश्रय लेकर ऐसी कुचेष्टा कर रही है। तेरी यह सारी चेष्टा साधु पुरुषों के मार्ग के विपरीत है॥३२॥
अनुव्रजिष्याम्यहमद्य रामं राज्यं परित्यज्य सुखं धनं च।
सर्वे च राज्ञा भरतेन च त्वं यथासुखं भुक्ष्व चिराय राज्यम्॥३३॥
‘अब मैं भी यह राज्य, धन और सुख छोड़कर श्रीराम के पीछे चला जाऊँगा। ये सब लोग भी उन्हीं के साथ जायँगे। तू अकेली राजा भरत के साथ चिरकाल तक सुखपूर्वक राज्य भोगती रह’ ॥ ३३॥
सर्ग ३७
महामात्रवचः श्रुत्वा रामो दशरथं तदा।
अभ्यभाषत वाक्यं तु विनयज्ञो विनीतवत्॥१॥
प्रधान मन्त्री की पूर्वोक्त बात सुनकर विनय के ज्ञाता श्रीराम ने उस समय राजा दशरथ से विनीत होकर कहा- ॥१॥
त्यक्तभोगस्य मे राजन् वने वन्येन जीवतः।
किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः॥२॥
‘राजन्! मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूँ। मुझे जंगल के फल-मूलों से जीवन-निर्वाह करना है। जब मैं सब ओर से आसक्ति छोड़ चुका हूँ, तब मुझे सेना से क्या प्रयोजन है? ॥२॥
यो हि दत्त्वा द्विपश्रेष्ठं कक्ष्यायां कुरुते मनः।
रज्जुस्नेहेन किं तस्य त्यजतः कुञ्जरोत्तमम्॥३॥
‘जो श्रेष्ठ गजराज का दान करके उसके रस्से में मन लगाता है—लोभवश रस्से को रख लेना चाहता है, वह अच्छा नहीं करता; क्योंकि उत्तम हाथी का त्याग करने वाले पुरुष को उसके रस्से में आसक्ति रखने की क्या आवश्यकता है?॥३॥
तथा मम सतां श्रेष्ठ किं ध्वजिन्या जगत्पते।
सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे॥४॥
‘सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज! इसी तरह मुझे सेना लेकर क्या करना है? मैं ये सारी वस्तुएँ भरत को अर्पित करने की अनुमति देता हूँ। मेरे लिये तो (माता कैकेयी की दासियाँ) चीर (चिथड़े या वल्कलवस्त्र) ला दें॥४॥
खनित्रपिटके चोभे समानयत गच्छत।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम॥५॥
‘दासियो! जाओ, खन्ती और पेटारी अथवा कुदारी और खाँची ये दोनों वस्तुएँ लाओ। चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिये ये चीजें उपयोगी हो सकती हैं।
अथ चीराणि कैकेयी स्वयमाहृत्य राघवम्।
उवाच परिधत्स्वेति जनौघे निरपत्रपा॥६॥
कैकेयी लाज-संकोच छोड़ चुकी थी। वह स्वयं ही जाकर बहुत-सी चीर ले आयी और जनसमुदाय में श्रीरामचन्द्रजी से बोली, ‘लो, पहन लो’ ॥ ६॥
स चीरे पुरुषव्याघ्रः कैकेय्याः प्रतिगृह्य ते।
सूक्ष्मवस्त्रमवक्षिप्य मुनिवस्त्राण्यवस्त ह॥७॥
पुरुषसिंह श्रीराम ने कैकेयी के हाथ से दो चीर ले लिये और अपने महीन वस्त्र उतारकर मुनियों के-से वस्त्र धारण कर लिये॥७॥
लक्ष्मणश्चापि तत्रैव विहाय वसने शुभे।
तापसाच्छादने चैव जग्राह पितुरग्रतः॥८॥
इसी प्रकार लक्ष्मण ने भी अपने पिता के सामने ही दोनों सुन्दर वस्त्र उतारकर तपस्वियों के-से वल्कलवस्त्र पहन लिये॥ ८॥
अथात्मपरिधानार्थं सीता कौशेयवासिनी।
सम्प्रेक्ष्य चीरं संत्रस्ता पृषती वागुरामिव॥९॥
सा व्यपत्रपमाणेव प्रगृह्य च सुदुर्मनाः।
कैकेय्याः कुशचीरे ते जानकी शुभलक्षणा॥ १०॥
अश्रुसम्पूर्णनेत्रा च धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी।
गन्धर्वराजप्रतिमं भर्तारमिदमब्रवीत्॥११॥
कथं नु चीरं बघ्नन्ति मुनयो वनवासिनः।
इति ह्यकुशला सीता सा मुमोह मुहुर्मुहुः॥१२॥
तदनन्तर रेशमी-वस्त्र पहनने और धर्म पर ही दृष्टि रखने वाली धर्मज्ञा शुभलक्षणा जनकनन्दिनी सीता अपने पहनने के लिये भी चीरवस्त्र को प्रस्तुत देख उसी प्रकार डर गयीं, जैसे मृगी बिछे हुए जाल को देखकर भयभीत हो जाती है। वे कैकेयी के हाथ से दो वल्कल-वस्त्र लेकर लज्जित-सी हो गयीं। उनके मन में बड़ा दुःख हुआ और नेत्रों में आँसू भर आये। उस समय उन्होंने गन्धर्वराज के समान तेजस्वी पति से इस प्रकार पूछा—’नाथ! वनवासी मुनि लोग चीर कैसे बाँधते हैं?’ यह कहकर उसे धारण करने में कुशल न होने के कारण सीता बारम्बार मोह में पड़ जाती थीं—भूल कर बैठती थीं।
कृत्वा कण्ठे स्म सा चीरमेकमादाय पाणिना।
तस्थौ ह्यकुशला तत्र व्रीडिता जनकात्मजा॥ १३॥
चीर-धारण में कुशल न होने से जनकनन्दिनी सीता लज्जित हो एक वल्कल गले में डाल दूसरा हाथ में लेकर चुपचाप खड़ी रहीं॥ १३॥
तस्यास्तत् क्षिप्रमागत्य रामो धर्मभृतां वरः।
चीरं बबन्ध सीतायाः कौशेयस्योपरि स्वयम्॥ १४॥
तब धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम जल्दी से उनके पास आकर स्वयं अपने हाथों से उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर वल्कल-वस्त्र बाँधने लगे॥१४॥
रामं प्रेक्ष्य तु सीताया बध्नन्तं चीरमुत्तमम्।
अन्तःपुरचरा नार्यो मुमुचुर्वारि नेत्रजम्॥१५॥
सीता को उत्तम चीरवस्त्र पहनाते हुए श्रीराम की ओर देखकर रनवास की स्त्रियाँ अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगीं॥ १५ ॥
ऊचुश्च परमायत्ता रामं ज्वलिततेजसम्।
वत्स नैवं नियुक्तेयं वनवासे मनस्विनी॥१६॥
वे सब अत्यन्त खिन्न होकर उदीप्त तेजवाले श्रीराम से बोलीं-‘बेटा! मनस्विनी सीता को इस प्रकार वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी है।१६ ॥
पितुर्वाक्यानुरोधेन गतस्य विजनं वनम्।
तावद् दर्शनमस्या नः सफलं भवतु प्रभो॥१७॥
‘प्रभो! तुम पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये जबतक निर्जन वन में जाकर रहोगे, तबतक इसी को देखकर हमारा जीवन सफल होने दो॥ १७॥
लक्ष्मणेन सहायेन वनं गच्छस्व पुत्रक।
नेयमर्हति कल्याणि वस्तुं तापसवद् वने॥१८॥
‘बेटा! तुम लक्ष्मण को अपना साथी बनाकर उनके साथ वन को जाओ, परंतु यह कल्याणी सीता तपस्वी मुनि की भाँति वन में निवास करने के योग्य नहीं है। १८॥
कुरु नो याचनां पुत्र सीता तिष्ठतु भामिनी।
धर्मनित्यः स्वयं स्थातुं न हीदानीं त्वमिच्छसि॥ १९॥
‘पुत्र! तुम हमारी यह याचना सफल करो। भामिनी सीता यहीं रहे। तुम तो नित्य धर्मपरायण हो अतः स्वयं इस समय यहाँ नहीं रहना चाहते हो (परंतु सीता को तो रहने दो)’ ॥ १९॥
तासामेवंविधा वाचः शृण्वन् दशरथात्मजः।
बबन्धैव तथा चीरं सीतया तुल्यशीलया॥२०॥
चीरे गृहीते तु तया सबाष्पो नृपतेर्गुरुः।
निवार्य सीतां कैकेयीं वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥ २१॥
माताओं की ऐसी बातें सुनते हुए भी दशरथ-नन्दन श्रीराम ने सीता को वल्कल-वस्त्र पहना ही दिया। पति के समान शील स्वभाव वाली सीता के वल्कल धारण कर लेने पर राजा के गुरु वसिष्ठजी के नेत्रों में आँसू भर आया। उन्होंने सीता को रोककर कैकेयी से कहा- ॥२०-२१॥
अतिप्रवृत्ते दुर्मेधे कैकेयि कुलपांसनि।
वञ्चयित्वा तु राजानं न प्रमाणेऽवतिष्ठसि ॥२२॥
‘मर्यादा का उल्लङ्घन करके अधर्म की ओर पैर बढ़ाने वाली दुर्बुद्धि कैकेयी! तू केकयराज के कुल की जीती-जागती कलङ्क है। अरी! राजा को धोखा देकर अब तू सीमा के भीतर नहीं रहना चाहती है ? ॥ २२ ॥
न गन्तव्यं वनं देव्या सीतया शीलवर्जिते।
अनुष्ठास्यति रामस्य सीता प्रकृतमासनम्॥२३॥
‘शील का परित्याग करने वाली दुष्टे! देवी सीता वन में नहीं जायँगी। राम के लिये प्रस्तुत हुए राजसिंहासन पर ये ही बैठेंगी॥ २३॥
आत्मा हि दाराः सर्वेषां दारसंग्रहवर्तिनाम्।
आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति मेदिनीम्॥ २४॥
‘सम्पूर्ण गृहस्थों की पत्नियाँ उनका आधा अङ्ग हैं। इस तरह सीता देवी भी श्रीराम की आत्मा हैं; अतः उनकी जगह ये ही इस राज्य का पालन करेंगी॥ २४॥
अथ यास्यति वैदेही वनं रामेण संगता।
वयमत्रानुयास्यामः पुरं चेदं गमिष्यति॥ २५॥
अन्तपालाश्च यास्यन्ति सदारो यत्र राघवः।
सहोपजीव्यं राष्ट्रं च पुरं च सपरिच्छदम्॥२६॥
‘यदि विदेहनन्दिनी सीता श्रीराम के साथ वन में जायँगी तो हमलोग भी इनके साथ चले जायँगे। यह सारा नगर भी चला जायगा और अन्तःपुर के रक्षकभी चले जायँगे। अपनी पत्नी के साथ श्रीरामचन्द्रजी जहाँ निवास करेंगे, वहीं इस राज्य और नगर के लोग भी धन-दौलत और आवश्यक सामान लेकर चले जायँगे॥
भरतश्च सशत्रुघ्नश्चीरवासा वनेचरः।
वने वसन्तं काकुत्स्थमनुवत्स्यति पूर्वजम्॥२७॥
‘भरत और शत्रुघ्न भी चीरवस्त्र धारण करके वन में रहेंगे और वहाँ निवास करने वाले अपने बड़े भाई श्रीराम की सेवा करेंगे॥२७॥
ततः शून्यां गतजनां वसुधां पादपैः सह।
त्वमेका शाधि दुर्वृत्ता प्रजानामहिते स्थिता॥ २८॥
‘फिर तू वृक्षों के साथ अकेली रहकर इस निर्जन एवं सूनी पृथ्वी का राज्य करना। तू बड़ी दुराचारिणी है और प्रजा का अहित करने में लगी हुई है॥ २८॥
न हि तद् भविता राष्ट्रं यत्र रामो न भूपतिः।
तद् वनं भविता राष्ट्रं यत्र रामो निवत्स्यति॥ २९॥
‘याद रख, श्रीराम जहाँ के राजा न होंगे, वह राज्य राज्य नहीं रह जायगा–जंगल हो जायगा तथा श्रीराम जहाँ निवास करेंगे, वह वन एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन जायगा॥ २९॥
न ह्यदत्तां महीं पित्रा भरतः शास्तुमिच्छति।
त्वयि वा पत्रवद वस्तं यदि जातो महीपतेः॥ ३०॥
‘यदि भरत राजा दशरथ से पैदा हुए हैं तो पिता के प्रसन्नतापूर्वक दिये बिना इस राज्य को कदापि लेना नहीं चाहेंगे तथा तेरे साथ पुत्रवत् बर्ताव करने के लिये भी यहाँ बैठे रहने की इच्छा नहीं करेंगे॥ ३० ॥
यद्यपि त्वं क्षितितलाद् गगनं चोत्पतिष्यसि।
पितृवंशचरित्रज्ञः सोऽन्यथा न करिष्यति॥३१॥
‘तू पृथ्वी छोड़कर आसमान में उड़ जाय तो भी अपने पितृकुल के आचार-व्यवहार को जानने वाले भरत उसके विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे॥ ३१॥
तत् त्वया पुत्रगर्धिन्या पुत्रस्य कृतमप्रियम्।
लोके नहि स विद्येत यो न राममनुव्रतः॥ ३२॥
‘तूने पुत्र का प्रिय करने की इच्छा से वास्तव में उसका अप्रिय ही किया है; क्योंकि संसार में कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो श्रीराम का भक्त न हो॥३२॥
द्रक्ष्यस्यद्यैव कैकेयि पशुव्यालमृगद्विजान्।
गच्छतः सह रामेण पादपांश्च तदुन्मुखान्॥ ३३॥
‘कैकेयि! तू आज ही देखेगी कि वन को जाते हुए श्रीराम के साथ पशु, सर्प, मृग और पक्षी भी चले जा रहे हैं औरों की तो बात ही क्या, वृक्ष भी उनके साथ जाने को उत्सुक हैं॥ ३३॥
अथोत्तमान्याभरणानि देवि देहि स्नुषायै व्यपनीय चीरम्।
न चीरमस्याः प्रविधीयतेति न्यवारयत् तद् वसनं वसिष्ठः॥ ३४॥
‘देवि! सीता तेरी पुत्रवधू हैं। इनके शरीर से वल्कल-वस्त्र हटाकर तू इन्हें पहनने के लिये उत्तमोत्तम वस्त्र और आभूषण दे। इनके लिये वल्कल-वस्त्र देना कदापि उचित नहीं है।’ ऐसा कहकर वसिष्ठ ने उसे जानकी को वल्कल-वस्त्र पहनाने से मना किया॥३४॥
एकस्य रामस्य वने निवासस्त्वया वृतः केकयराजपुत्रि।
विभूषितेयं प्रतिकर्मनित्या वसत्वरण्ये सह राघवेण॥३५॥
वे फिर बोले—’केकयराजकुमारी! तूने अकेले श्रीराम के लिये ही वनवास का वर माँगा है (सीता के लिये नहीं); अतः ये राजकुमारी वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर सदा शृङ्गार धारण करके वन में श्रीरामचन्द्रजी के साथ निवास करें। ३५ ॥
यानैश्च मुख्यैः परिचारकैश्च सुसंवृता गच्छतु राजपुत्री।
वस्त्रैश्च सर्वैः सहितैर्विधान र्नेयं वृता ते वरसम्प्रदाने॥ ३६॥
‘राजकुमारी सीता मुख्य-मुख्य सेवकों तथा सवारियों के साथ सब प्रकार के वस्त्रों और आवश्यक उपकरणों से सम्पन्न होकर वन की यात्रा करें। तूने वर माँगते समय पहले सीता के वनवास की कोई चर्चा नहीं की थी (अतः इन्हें वल्कल-वस्त्र नहीं पहनाया जा सकता)’॥
तस्मिंस्तथा जल्पति विप्रमुख्ये गुरौ नृपस्याप्रतिमप्रभावे।
नैव स्म सीता विनिवृत्तभावा प्रियस्य भर्तुः प्रतिकारकामा॥३७॥
ब्राह्मणशिरोमणि अप्रतिम प्रभावशाली राजगुरु महर्षि वसिष्ठ के ऐसा कहने पर भी सीता अपने प्रियतम पति के समान ही वेशभूषा धारण करने की इच्छा रखकर उस चीर-धारण से विरत नहीं हुईं॥ ३७॥
सर्ग ३८
तस्यां चीरं वसानायां नाथवत्यामनाथवत्।
प्रचुक्रोश जनः सर्वो धिक् त्वां दशरथं त्विति॥
सीताजी सनाथ होकर भी जब अनाथ की भाँति चीर-वस्त्र धारण करने लगी, तब सब लोग चिल्लाचिल्लाकर कहने लगे—’राजा दशरथ! तुम्हें धिक्कार है!’ ॥१॥
तेन तत्र प्रणादेन दुःखितः स महीपतिः।
चिच्छेद जीविते श्रद्धां धर्मे यशसि चात्मनः॥
स निःश्वस्योष्णमैक्ष्वाकस्तां भार्यामिदमब्रवीत्।
कैकेयि कुशचीरेण न सीता गन्तुमर्हति॥३॥
वहाँ होने वाले उस कोलाहल से दुःखी हो इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ ने अपने जीवन, धर्म और यश की उत्कट इच्छा त्याग दी। फिर वे गरम साँस खींचकर अपनी भार्या कैकेयी से इस प्रकार बोले—’कैकेयि! सीता कुश-चीर (वल्कल-वस्त्र) पहनकर वन में जाने के योग्य नहीं है॥ २-३॥
सुकुमारी च बाला च सततं च सुखोचिता।
नेयं वनस्य योग्येति सत्यमाह गुरुर्मम॥४॥
‘यह सुकुमारी है, बालिका है और सदा सुखों में ही पली है। मेरे गुरुजी ठीक कहते हैं कि यह सीता वन में जाने योग्य नहीं है॥४॥
इयं हि कस्यापि करोति किंचित् तपस्विनी राजवरस्य पुत्री।
या चीरमासाद्य जनस्य मध्ये स्थिता विसंज्ञा श्रमणीव काचित् ॥५॥
‘राजाओं में श्रेष्ठ जनक की यह तपस्विनी पुत्री क्या किसी का भी कुछ बिगाड़ती है? जो इस प्रकार जनसमुदाय के बीच किसी किंकर्तव्यविमूढ़ भिक्षुकी के समान चीर धारण करके खड़ी है ? ॥ ५ ॥
चीराण्यपास्याज्जनकस्य कन्या नेयं प्रतिज्ञा मम दत्तपूर्वा ।
यथासुखं गच्छतु राजपुत्री वनं समग्रा सह सर्वरत्नैः॥६॥
‘जनकनन्दिनी अपने चीर-वस्त्र उतार डाले। यह इस रूप में वन जाय’ ऐसी कोई प्रतिज्ञा मैंने पहले नहीं की है और न किसी को इस तरह का वचन ही दिया है। अतः राजकुमारी सीता सम्पूर्ण वस्त्रालंकारों से सम्पन्न हो सब प्रकार के रत्नों के साथ जिस तरह भी वह सुखी रह सके, उसी तरह वन को जा सकती है॥६॥
अजीवनाण मया नृशंसा कृता प्रतिज्ञा नियमेन तावत्।
त्वया हि बाल्यात् प्रतिपन्नमेतत् तन्मा दहेद् वेणुमिवात्मपुष्पम्॥७॥
‘मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ। मैंने तेरे वचनों में बँधकर एक तो यों ही नियम (शपथ) पूर्वक बड़ी क्रूर प्रतिज्ञा कर डाली है, दूसरे तूने अपनी नादानी के कारण सीता को इस तरह चीर पहनाना प्रारम्भ कर दिया। जिस प्रकार बाँस का फूल उसी को सुखा डालता है, उसी प्रकार मेरी की हुई प्रतिज्ञा मुझी को भस्म किये डालती है॥ ७॥
रामेण यदि ते पापे किंचित्कृतमशोभनम्।
अपकारः क इह ते वैदेह्या दर्शितोऽधमे॥८॥
‘नीच पापिनि! यदि श्रीराम ने तेरा कोई अपराध किया है तो (उन्हें तो तू वनवास दे ही चुकी) विदेहनन्दिनी सीता ने ऐसा दण्ड पाने योग्य तेरा कौन सा अपकार कर डाला है ? ॥ ८॥
मृगीवोत्फुल्लनयना मृदुशीला मनस्विनी।
अपकारं कमिव ते करोति जनकात्मजा॥९॥
‘जिसके नेत्र हरिणी के नेत्रों के समान खिले हुए हैं, जिसका स्वभाव अत्यन्त कोमल एवं मधुर है, वह मनस्विनी जनकनन्दिनी तेरा कौन-सा अपराध कर रही है? ॥९॥
ननु पर्याप्तमेवं ते पापे रामविवासनम्।
किमेभिः कृपणैर्भूयः पातकैरपि ते कृतैः॥१०॥
‘पापिनि! तूने श्रीराम को वनवास देकर ही पूरा पाप कमा लिया है। अब सीता को भी वन में भेजने और वल्कल पहनाने आदि का अत्यन्त दुःखद कार्य करके फिर तू इतने पातक किसलिये बटोर रही है ? ॥ १० ॥
प्रतिज्ञातं मया तावत् त्वयोक्तं देवि शृण्वता।
रामं यदभिषेकाय त्वमिहागतमब्रवीः॥११॥
‘देवि! श्रीराम जब अभिषेक के लिये यहाँ आये थे, उस समय तूने उनसे जो कुछ कहा था, उसे सुनकर मैंने उतने के लिये ही प्रतिज्ञा की थी॥११॥
तत्त्वेतत् समतिक्रम्य निरयं गन्तुमिच्छसि।
मैथिलीमपि या हि त्वमीक्षसे चीरवासिनीम्॥ १२॥
‘उसका उल्लङ्घन करके जो तू मिथिलेशकुमारी जानकी को भी वल्कल-वस्त्र पहने देखना चाहती है, इससे जान पड़ता है, तुझे नरक में ही जाने की इच्छा हो रही है ॥ १२॥
एवं ब्रुवन्तं पितरं रामः सम्प्रस्थितो वनम्।
अवाक्शिरसमासीनमिदं वचनमब्रवीत्॥१३॥
राजा दशरथ सिर नीचा किये बैठे हुए जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय वन की ओर जाते हुए श्रीराम ने पिता से इस प्रकार कहा- ॥ १३॥
इयं धार्मिक कौसल्या मम माता यशस्विनी।
वृद्धा चाक्षुद्रशीला च न च त्वां देव गर्हते॥ १४॥
मया विहीनां वरद प्रपन्नां शोकसागरम्।
अदृष्टपूर्वव्यसनां भूयः सम्मन्तुमर्हसि ॥१५॥
‘धर्मात्मन्! ये मेरी यशस्विनी माता कौसल्या अब वृद्ध हो चली हैं। इनका स्वभाव बहुत ही उच्च और उदार है। देव! यह कभी आपकी निन्दा नहीं करती हैं। इन्होंने पहले कभी ऐसा भारी संकट नहीं देखा होगा। वरदायक नरेश! ये मेरे न रहने से शोक के समुद्र में डूब जायँगी। अतः आप सदा इनका अधिक सम्मान करते रहें। १४-१५ ॥
पुत्रशोकं यथा नछेत् त्वया पूज्येन पूजिता।
मां हि संचिन्तयन्ती सा त्वयि जीवेत् तपस्विनी॥ १६॥
‘आप पूज्यतम पतिसे सम्मानित हो जिस प्रकार यह पुत्रशोकका अनुभव न कर सकें और मेरा चिन्तन करती हुई भी आपके आश्रयमें ही ये मेरी तपस्विनी माता जीवन धारण करें, ऐसा प्रयत्न आपको करना चाहिये॥१६॥
इमां महेन्द्रोपम जातगर्धिनी तथा विधातुं जननीं ममार्हसि।
यथा वनस्थे मयि शोककर्शिता न जीवितं न्यस्य यमक्षयं व्रजेत्॥१७॥
‘इन्द्र के समान तेजस्वी महाराज! ये निरन्तर अपने बिछुड़े हुए बेटे को देखने के लिये उत्सुक रहेंगी। कहीं ऐसा न हो मेरे वन में रहते समय ये शोक से कातर हो अपने प्राणों को त्याग करके यमलोक को चली जायँ। अतः आप मेरी माता को सदा ऐसी ही परिस्थिति में रखें, जिससे उक्त आशङ्का के लिये अवकाश न रह जाय’ ॥ १७॥
सर्ग ३९
रामस्य तु वचः श्रुत्वा मुनिवेषधरं च तम्।
समीक्ष्य सह भार्याभी राजा विगतचेतनः॥१॥
श्रीराम की बात सुनकर और उन्हें मुनिवेष धारण किये देख स्त्रियोंसहित राजा दशरथ शोक से अचेत हो गये॥१॥
नैनं दुःखेन संतप्तः प्रत्यवैक्षत राघवम्।
न चैनमभिसम्प्रेक्ष्य प्रत्यभाषत दुर्मनाः॥२॥
दुःख से संतप्त होने के कारण वे श्रीराम की ओर भर आँख देख भी न सके और देखकर भी मन में दुःख होने के कारण उन्हें कुछ उत्तर न दे सके॥२॥
स मुहूर्तमिवासंज्ञो दुःखितश्च महीपतिः।
विललाप महाबाहू राममेवानुचिन्तयन्॥३॥
दो घड़ी तक अचेत-सा रहने के बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे महाबाहु नरेश श्रीराम का ही चिन्तन करते हुए दुःखी होकर विलाप करने लगे— ॥३॥
मन्ये खल मया पूर्वं विवत्सा बहवः कृताः।
प्राणिनो हिंसिता वापि तन्मामिदमुपस्थितम्॥ ४॥
‘मालूम होता है, मैंने पूर्वजन्म में अवश्य ही बहुत सी गौओं का उनके बछड़ों से विछोह कराया है अथवा अनेक प्राणियों की हिंसा की है, इसी से आज मेरे ऊपर यह संकट आ पड़ा है॥ ४॥
न त्वेवानागते काले देहाच्च्यवति जीवितम्।
कैकेय्या क्लिश्यमानस्य मृत्युर्मम न विद्यते॥५॥
‘समय पूरा हुए बिना किसी के शरीर से प्राण नहीं निकलते; तभी तो कैकेयी के द्वारा इतना क्लेश पाने पर भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है॥ ५ ॥
योऽहं पावकसंकाशं पश्यामि पुरतः स्थितम्।
विहाय वसने सूक्ष्मे तापसाच्छादमात्मजम्॥६॥
‘ओह! अपने अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र को महीन वस्त्र त्यागकर तपस्वियों के-से वल्कल-वस्त्र धारण किये सामने खड़ा देख रहा हूँ (फिर भी मेरे प्राण नहीं निकलते हैं) ॥ ६॥
एकस्याः खलु कैकेय्याः कृतेऽयं खिद्यते जनः।
स्वार्थे प्रयतमानायाः संश्रित्य निकृतिं त्विमाम्॥ ७॥
‘इस वरदानरूप शठता का आश्रय लेकर अपने स्वार्थसाधन के प्रयत्न में लगी हुई एकमात्र कैकेयी के कारण ये सब लोग महान् कष्ट में पड़ गये हैं ॥७॥
एवमुक्त्वा तु वचनं बाष्पेण विहतेन्द्रियः।
रामेति सकृदेवोक्त्वा व्याहर्तुं न शशाक सः॥ ८॥
‘ऐसी बात कहते-कहते राजा के नेत्रों में आँसू भर आये। उनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं और वे एक ही बार ‘हे राम!’ कहकर मूर्च्छित हो गये। आगे कुछ न बोल सके’ ॥ ८॥
संज्ञां तु प्रतिलभ्यैव मुहूर्तात् स महीपतिः।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां सुमन्त्रमिदमब्रवीत्॥९॥
दो घड़ी बाद होश में आते ही वे महाराज आँसू-भरे नेत्रों से देखते हुए सुमन्त्र से इस प्रकार बोले- ॥९॥
औपवाह्यं रथं युक्त्वा त्वमायाहि हयोत्तमैः।
प्रापयैनं महाभागमितो जनपदात् परम्॥१०॥
‘तुम सवारी के योग्य एक रथ को उसमें उत्तम घोड़े जोतकर यहाँ ले आओ और इन महाभाग श्रीराम को उसपर बिठाकर इस जनपद से बाहर तक पहुँचा आओ॥१०॥
एवं मन्ये गुणवतां गुणानां फलमुच्यते।
पित्रा मात्रा च यत्साधुर्वीरो निर्वास्यते वनम्॥
‘अपने श्रेष्ठ वीर पुत्र को स्वयं माता-पिता ही जब घर से निकालकर वन में भेज रहे हैं, तब ऐसा मालूम होता है कि शास्त्र में गुणवान् पुरुषों के गुणों का यही फल बताया जाता है’ ॥ ११॥
राज्ञो वचनमाज्ञाय सुमन्त्रः शीघ्रविक्रमः।
योजयित्वा ययौ तत्र रथमश्वैरलंकृतम्॥१२॥
राजा की आज्ञा शिरोधार्य करके शीघ्रगामी सुमन्त्र गये और उत्तम घोड़ों से सुशोभित रथ जोतकर ले आये॥ १२॥
तं रथं राजपुत्राय सूतः कनकभूषितम्।
आचचक्षेऽञ्जलिं कृत्वा युक्तं परमवाजिभिः॥ १३॥
फिर सूत सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर कहा—’महाराज! राजकुमार श्रीराम के लिये उत्तम घोड़ों से जुता हुआ सुवर्णभूषित रथ तैयार है’।॥ १३॥
राजा सत्वरमाहूय व्यापृतं वित्तसंचये।
उवाच देशकालज्ञो निश्चितं सर्वतः शुचिः॥ १४॥
तब देश और काल को समझने वाले, सब ओर से शुद्ध (इहलोक और परलोक से उऋण) राजा दशरथ ने तुरंत ही धन-संग्रह के व्यापार में नियुक्त कोषाध्यक्ष को बुलाकर यह निश्चित बात कही-॥ १४॥
वासांसि च वराहा॑णि भूषणानि महान्ति च।
वर्षाण्येतानि संख्याय वैदेह्याः क्षिप्रमानय॥१५॥
‘तुम विदेहकुमारी सीता के पहनने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और महान् आभूषण जो चौदह वर्षों के लिये पर्याप्त हों, गिनकर शीघ्र ले आओ’ ॥ १५ ॥
नरेन्द्रेणैवमुक्तस्तु गत्वा कोशगृहं ततः।
प्रायच्छत् सर्वमाहृत्य सीतायै क्षिप्रमेव तत्॥ १६॥
महाराज के ऐसा कहने पर कोषाध्यक्ष ने खजाने में जा वहाँ से सब चीजें लाकर शीघ्र ही सीता को समर्पित कर दीं॥ १६॥
सा सुजाता सुजातानि वैदेही प्रस्थिता वनम्।
भूषयामास गात्राणि तैर्विचित्रैर्विभूषणैः ॥१७॥
उत्तम कुल में उत्पन्न अथवा अयोनिजा और वनवास के लिये प्रस्थित विदेहकुमारी सीता ने सुन्दर लक्षणों से युक्त अपने सभी अङ्गों को उन विचित्र आभूषणों से विभूषित किया॥१७॥
व्यराजयत वैदेही वेश्म तत् सुविभूषिता।
उद्यतोऽशुमतः काले खं प्रभेव विवस्वतः॥१८॥
उन आभूषणों से विभूषित हुई विदेहनन्दिनी सीता उस घर को उसी प्रकार सुशोभित करने लगीं, जैसे प्रातःकाल उगते हुए अंशुमाली सूर्य की प्रभा आकाश को प्रकाशित करती है॥ १८॥
तां भुजाभ्यां परिष्वज्य श्वश्रूर्वचनमब्रवीत्।
अनाचरन्तीं कृपणं मूर्युपाघ्राय मैथिलीम्॥ १९॥
उस समय सास कौसल्या ने कभी दुःखद बर्ताव न करने वाली मिथिलेशकुमारी सीता को अपनी दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया और उनके मस्तक को सूंघकर कहा- ॥ १९॥
असत्यः सर्वलोकेऽस्मिन सततं सत्कृताः प्रियैः ।
भर्तारं नानुमन्यन्ते विनिपातगतं स्त्रियः॥२०॥
‘बेटी! जो स्त्रियाँ अपने प्रियतम पति के द्वारा सदा सम्मानित होकर भी संकट में पड़ने पर उसका आदर नहीं करती हैं, वे इस सम्पूर्ण जगत् में ‘असती’ (दुष्टा) के नाम से पुकारी जाती हैं॥ २० ॥
एष स्वभावो नारीणामनुभूय पुरा सुखम्।
अल्पामप्यापदं प्राप्य दुष्यन्ति प्रजहत्यपि॥२१॥
‘दुष्टा स्त्रियों का यह स्वभाव होता है कि पहले तो वे पति के द्वारा यथेष्ट सुख भोगती हैं, परंतु जब वह थोड़ी-सी भी विपत्ति में पड़ता है, तब उस पर दोषारोपण करती और उसका साथ छोड़ देती हैं। २१॥
असत्यशीला विकृता दुर्गा अहृदयाः सदा।
असत्यः पापसंकल्पाः क्षणमात्रविरागिणः॥ २२॥
‘जो झूठ बोलने वाली, विकृत चेष्टा करनेवाली, दुष्ट पुरुषों से संसर्ग रखने वाली, पति के प्रति सदा हृदयहीनता का परिचय देने वाली, कुलटा, पाप के ही मनसूबे बाँधने वाली और छोटी-सी बात के लिये भी क्षणमात्र में पति की ओर से विरक्त हो जाने वाली हैं, वे सब-की-सब असती या दुष्टा कही गयी हैं।२२ ॥
न कुलं न कृतं विद्या न दत्तं नापि संग्रहः।
स्त्रीणां गृह्णाति हृदयमनित्यहृदया हि ताः॥ २३॥
‘उत्तम कुल, किया हुआ उपकार, विद्या, भूषण आदि का दान और संग्रह (पति के द्वारा स्नेहपूर्वक अपनाया जाना), यह सब कुछ दुष्टा स्त्रियों के हृदय को नहीं वश में कर पाता है; क्योंकि उनका चित्त अव्यवस्थित होता है॥
साध्वीनां तु स्थितानां तु शीले सत्ये श्रुते स्थिते।
स्त्रीणां पवित्रं परमं पतिरेको विशिष्यते॥२४॥
‘इसके विपरीत जो सत्य, सदाचार, शास्त्रों की आज्ञा और कुलोचित मर्यादाओं में स्थित रहती हैं, उन साध्वी स्त्रियों के लिये एकमात्र पति ही परम पवित्र एवं सर्वश्रेष्ठ देवता है॥ २४॥
स त्वया नावमन्तव्यः पुत्रः प्रव्राजितो वनम्।
तव देवसमस्त्वेष निर्धनः सधनोऽपि वा ॥२५॥
‘इसलिये तुम मेरे पुत्र श्रीराम का, जिन्हें वनवास की आज्ञा मिली है, कभी अनादर न करना। ये निर्धन हों या धनी, तुम्हारे लिये देवता के तुल्य हैं’ ॥ २५ ॥
विज्ञाय वचनं सीता तस्या धर्मार्थसंहितम्।
कृत्वाञ्जलिमुवाचेदं श्वश्रूमभिमुखे स्थिता॥ २६॥
सास के धर्म और अर्थयुक्त वचनों का तात्पर्य भलीभाँति समझकर उनके सामने खड़ी हुई सीता ने हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा— ॥२६॥
करिष्ये सर्वमेवाहमार्या यदनुशास्ति माम्।
अभिज्ञास्मि यथा भर्तुर्वर्तितव्यं श्रुतं च मे ॥२७॥
‘आर्ये! आप मेरे लिये जो कुछ उपदेश दे रही हैं, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगी। स्वामी के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, यह मुझे भलीभाँति विदित है; क्योंकि इस विषय को मैंने पहले से ही सुन रखा है।
न मामसज्जनेनार्या समानयितुमर्हति।
धर्माद् विचलितुं नाहमलं चन्द्रादिव प्रभा॥ २८॥
‘पूजनीया माताजी! आपको मुझे असती स्त्रियों के समान नहीं मानना चाहिये; क्योंकि जैसे प्रभा चन्द्रमा से दूर नहीं हो सकती, उसी प्रकार मैं पतिव्रत धर्म से विचलित नहीं हो सकती॥ २८॥
नातन्त्री वाद्यते वीणा नाचक्रो विद्यते रथः।
नापतिः सुखमेधेत या स्यादपि शतात्मजा॥ २९॥
‘जैसे बिना तार की वीणा नहीं बज सकती और बिना पहिये का रथ नहीं चल सकता है, उसी प्रकार नारी सौ बेटों की माता होने पर भी बिना पति के सुखी नहीं हो सकती॥ २९॥
मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः।
अमितस्य तु दातारं भर्तारं का न पूजयेत्॥३०॥
‘पिता, भ्राता और पुत्र—ये परिमित सुख प्रदान करते हैं, परंतु पति अपरिमित सुख का दाता है उसकी सेवा से इहलोक और परलोक दोनों में कल्याण होता है; अतः ऐसी कौन स्त्री है, जो अपने पति का सत्कार नहीं करेगी॥३०॥
साहमेवंगता श्रेष्ठा श्रुतधर्मपरावरा।
आर्ये किमवमन्येयं स्त्रिया भर्ता हि दैवतम्॥ ३१॥
‘आर्ये! मैंने श्रेष्ठ स्त्रियों—माता आदि के मुख से नारी के सामान्य और विशेष धर्मों का श्रवण किया है। इस प्रकार पातिव्रत्य का महत्त्व जानकर भी मैं पति का क्यों अपमान करूँगी? मैं जानती हूँ कि पति ही स्त्री का देवता है’ ॥ ३१॥
सीताया वचनं श्रुत्वा कौसल्या हृदयङ्गमम्।
शुद्धसत्त्वा मुमोचाश्रु सहसा दुःखहर्षजम्॥३२॥
सीता का यह मनोहर वचन सुनकर शुद्ध अन्तःकरण वाली देवी कौसल्या के नेत्रों से सहसा दुःख और हर्ष के आँसू बहने लगे॥ ३२ ॥
तां प्राञ्जलिरभिप्रेक्ष्य मातृमध्येऽतिसत्कृताम्।
रामः परमधर्मात्मा मातरं वाक्यमब्रवीत्॥३३॥
तब परम धर्मात्मा श्रीराम ने माताओं के बीच में अत्यन्त सम्मानित होकर खड़ी हुई माता कौसल्या की ओर देख हाथ जोड़कर कहा- ॥३३॥
अम्ब मा दुःखिता भूत्वा पश्येस्त्वं पितरं मम।
क्षयोऽपि वनवासस्य क्षिप्रमेव भविष्यति॥३४॥
‘माँ! (इन्हीं के कारण मेरे पुत्र का वनवास हुआ है; ऐसा समझकर) तुम मेरे पिताजी की ओर दुःखित होकर न देखना। वनवास की अवधि भी शीघ्र ही समाप्त हो जायगी॥ ३४॥
सुप्तायास्ते गमिष्यन्ति नव वर्षाणि पञ्च च।
समग्रमिह सम्प्राप्तं मां द्रक्ष्यसि सुहृद्वृतम्॥ ३५॥
‘ये चौदह वर्ष तो तुम्हारे सोते-सोते निकल जायेंगे, फिर एक दिन देखोगी कि मैं अपने सुहृदों से घिरा हुआ सीता और लक्ष्मण के साथ सम्पूर्ण रूप से यहाँ आ पहुँचा हूँ’॥ ३५॥
एतावदभिनीतार्थमुक्त्वा स जननीं वचः।
त्रयः शतशतार्धा हि ददर्शावेक्ष्य मातरः॥३६॥
ताश्चापि स तथैवार्ता मातृर्दशरथात्मजः।
धर्मयुक्तमिदं वाक्यं निजगाद कृताञ्जलिः॥ ३७॥
माता से इस प्रकार अपना निश्चित अभिप्राय बताकर दशरथनन्दन श्रीराम ने अपनी अन्य साढ़े तीन सौ माताओं की ओर दृष्टिपात किया और उनको भी कौसल्या की ही भाँति शोकाकुल पाया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर उन सबसे यह धर्मयुक्त बात कही—॥ ३६-३७॥
संवासात् परुषं किंचिदज्ञानादपि यत् कृतम्।
तन्मे समुपजानीत सर्वाश्चामन्त्रयामि वः॥ ३८॥
‘माताओ! सदा एक साथ रहने के कारण मैंने जो कुछ कठोर वचन कह दिये हों अथवा अनजान में भी मुझसे जो अपराध बन गये हों, उनके लिये आप मुझे क्षमा कर दें। मैं आप सब माताओं से विदा माँगता हूँ’॥ ३८॥
वचनं राघवस्यैतद् धर्मयुक्तं समाहितम्।
शुश्रुवुस्ताः स्त्रियः सर्वाः शोकोपहतचेतसः॥ ३९॥
राजा दशरथ की उन सभी स्त्रियों ने श्रीरघुनाथजी का यह समाधानकारी धर्मयुक्त वचन सुना, सुनकर उन सबका चित्त शोक से व्याकुल हो गया॥ ३९ ॥
जज्ञोऽथ तासां संनादः क्रौञ्चीनामिव निःस्वनः।
मानवेन्द्रस्य भार्याणामेवं वदति राघवे॥४०॥
श्रीरामके ऐसी बात कहते समय महाराज दशरथकी रानियाँ कुररियोंके समान विलाप करनेलगीं उनका वह आर्तनाद उस राजभवनमें सब ओर गूंज उठा॥ ४०॥
मुरजपणवमेघघोषवद् दशरथवेश्म बभूव यत् पुरा।
विलपितपरिदेवनाकुलं व्यसनगतं तदभूत् सुदुःखितम्॥४१॥
राजा दशरथ का जो भवन पहले मुरज, पणव और मेघ आदि वाद्यों के गम्भीर घोष से गूंजता रहता था, वही विलाप और रोदन से व्याप्त हो संकट में पड़कर अत्यन्त दुःखमय प्रतीत होने लगा॥४१॥
सर्ग ४०
अथ रामश्च सीता च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः।
उपसंगृह्य राजानं चक्रुर्दीनाः प्रदक्षिणम्॥१॥
तदनन्तर राम, लक्ष्मण और सीता ने हाथ जोड़कर दीनभाव से राजा दशरथ के चरणों का स्पर्श करके उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की॥१॥
तं चापि समनुज्ञाप्य धर्मज्ञः सह सीतया।
राघवः शोकसम्मूढो जननीमभ्यवादयत्॥२॥
उनसे विदा लेकर सीतासहित धर्मज्ञ रघुनाथजी ने माता का कष्ट देखकर शोक से व्याकुल हो उनके चरणों में प्रणाम किया॥२॥
अन्वक्षं लक्ष्मणो भ्रातुः कौसल्यामभ्यवादयत्।
अपि मातुः सुमित्राया जग्राह चरणौ पुनः॥३॥
श्रीराम के बाद लक्ष्मण ने भी पहले माता कौसल्या को प्रणाम किया, फिर अपनी माता सुमित्रा के भी दोनों पैर पकड़े॥३॥
तं वन्दमानं रुदती माता सौमित्रिमब्रवीत्।।
हितकामा महाबाहं मूर्युपाघ्राय लक्ष्मणम्॥४॥
अपने पुत्र महाबाहु लक्ष्मण को प्रणाम करते देख उनका हित चाहने वाली माता सुमित्रा ने बेटे का मस्तक सूंघकर कहा- ॥४॥
सृष्टस्त्वं वनवासाय स्वनुरक्तः सुहृज्जने।
रामे प्रमादं मा कार्षीः पुत्र भ्रातरि गच्छति॥५॥
‘वत्स! तुम अपने सुहृद् श्रीराम के परम अनुरागी हो, इसलिये मैं तुम्हें वनवास के लिये विदा करती हूँ। अपने बड़े भाई के वन में इधर-उधर जाते समय तुम उनकी सेवा में कभी प्रमाद न करना॥ ५॥
व्यसनी वा समृद्धो वा गतिरेष तवानघ।
एष लोके सतां धर्मो यज्ज्येष्ठवशगो भवेत्॥६॥
ये संकट में हों या समृद्धि में, ये ही तुम्हारी परम गति हैं। निष्पाप लक्ष्मण! संसार में सत्पुरुषों का यही धर्म है कि सर्वदा अपने बड़े भाई की आज्ञा के अधीन रहें॥
इदं हि वृत्तमुचितं कुलस्यास्य सनातनम्।
दानं दीक्षा च यज्ञेषु तनुत्यागो मृधेषु हि॥७॥
‘दान देना, यज्ञ में दीक्षा ग्रहण करना और युद्ध में शरीर त्यागना—यही इस कुल का उचित एवं सनातन आचार है’ ॥ ७॥
लक्ष्मणं त्वेवमुक्त्वासौ संसिद्धं प्रियराघवम्।
सुमित्रा गच्छ गच्छेति पुनः पुनरुवाच तम्॥८॥
अपने पुत्र लक्ष्मण से ऐसा कहकर सुमित्रा ने वनवास के लिये निश्चित विचार रखने वाले सर्वप्रिय श्रीरामचन्द्रजी से कहा—’बेटा! जाओ, जाओ (तुम्हारा मार्ग मङ्गलमय हो)।’ इसके बाद वे लक्ष्मण से फिर बोलीं- ॥ ८॥
रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम्॥ ९॥
बेटा! तुम श्रीराम को ही अपने पिता महाराज दशरथ समझो, जनकनन्दिनी सीता को ही अपनी माता सुमित्रा मानो और वन को ही अयोध्या जानो। अब सुखपूर्वक यहाँ से प्रस्थान करो’ ॥९॥
ततः सुमन्त्रः काकुत्स्थं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।
विनीतो विनयज्ञश्च मातलिसवं यथा ॥१०॥
इसके बाद जैसे मातलि इन्द्र से कोई बात कहते हैं, उसी प्रकार विनय के ज्ञाता सुमन्त्र ने ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा— ॥१०॥
रथमारोह भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
क्षिप्रं त्वां प्रापयिष्यामि यत्र मां राम वक्ष्यसे॥ ११॥
‘महायशस्वी राजकुमार श्रीराम! आपका कल्याण हो। आप इस रथ पर बैठिये। आप मुझसे जहाँ कहेंगे, वहीं मैं शीघ्र आपको पहुँचा दूंगा॥ ११॥
चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यानि वने त्वया।
तान्युपक्रमितव्यानि यानि देव्या प्रचोदितः॥ १२॥
आपको जिन चौदह वर्षों तक वन में रहना है, उनकी गणना आज से ही आरम्भ हो जानी चाहिये; क्योंकि देवी कैकेयी ने आज ही आपको वन में जाने के लिये प्रेरित किया है’ ॥ १२ ॥
तं रथं सूर्यसंकाशं सीता हृष्टेन चेतसा।
आरुरोह वरारोहा कृत्वालंकारमात्मनः॥१३॥
तब सुन्दरी सीता अपने अङ्गों में उत्तम अलंकार धारण करके प्रसन्न चित्त से उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुईं। १३ ॥
वनवासं हि संख्याय वासांस्याभरणानि च।
भर्तारमनुगच्छन्त्यै सीतायै श्वशुरो ददौ ॥१४॥
पति के साथ जाने वाली सीता के लिये उनके श्वशुर ने वनवास की वर्षसंख्या गिनकर उसके अनुसार ही वस्त्र और आभूषण दिये थे॥१४॥
तथैवायुधजातानि भ्रातृभ्यां कवचानि च।
रथोपस्थे प्रविन्यस्य सचर्म कठिनं च यत्॥१५॥
इसी प्रकार महाराज ने दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण के लिये जो बहुत-से अस्त्र-शस्त्र और कवच प्रदान किये थे, उन्हें रथ के पिछले भाग में रखकर उन्होंने चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी और खन्ती या कुदारी भी उसी पर रख दी॥ १५॥
अथो ज्वलनसंकाशं चामीकरविभूषितम्।
तमारुरुहतुस्तूर्णं भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१६॥
इसके बाद दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस अग्नि के समान दीप्तिमान् सुवर्णभूषित रथ पर शीघ्र ही आरूढ़ हो गये॥ १६॥
सीतातृतीयानारूढान् दृष्ट्वा रथमचोदयत्।
सुमन्त्रः सम्मतानश्वान् वायुवेगसमाजवे॥१७॥
जिनमें सीता की संख्या तीसरी थी, उन श्रीराम आदि को रथ पर आरूढ़ हुआ देख सारथि सुमन्त्र ने रथ को आगे बढ़ाया। उसमें जुते हुए वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों को हाँका॥१७॥
प्रयाते तु महारण्यं चिररात्राय राघवे।
बभूव नगरे मूर्छा बलमूर्छा जनस्य च ॥१८॥
जब श्रीरामचन्द्र जी सुदीर्घकाल के लिये महान् वन की ओर जाने लगे, उस समय समस्त पुरवासियों, सैनिकों तथा दर्शक रूप में आये हुए बाहरी लोगों को भी मूर्छा आ गयी॥ १८ ॥
तत् समाकुलसम्भ्रान्तं मत्तसंकुपितद्विपम्।
हयसिञ्जितनिर्घोषं पुरमासीन्महास्वनम्॥१९॥
उस समय सारी अयोध्या में महान् कोलाहल मच गया। सब लोग व्याकुल होकर घबरा उठे। मतवाले हाथी श्रीराम के वियोग से कुपित हो उठे और इधर उधर भागते हुए घोड़ों के हिनहिनाने एवं उनके आभूषणों के खनखनाने की आवाज सब ओर गूंजने लगी॥ १९॥
ततः सबालवृद्धा सा पुरी परमपीडिता।
राममेवाभिदुद्राव घर्तिः सलिलं यथा॥२०॥
अयोध्यापुरी के आबाल वृद्ध सब लोग अत्यन्त पीड़ित होकर श्रीराम के ही पीछे दौड़े, मानो धूप से पीडित हुए प्राणी पानी की ओर भागे जाते हों।॥ २० ॥
पार्श्वतः पृष्ठतश्चापि लम्बमानास्तदुन्मुखाः।
बाष्पपूर्णमुखाः सर्वे तमच शनिःस्वनाः॥२१॥
उनमें से कुछ लोग रथ के पीछे और अगल-बगल में लटक गये। सभी श्रीराम के लिये उत्कण्ठित थे और सबके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वे सबके-सब उच्चस्वर से कहने लगे- ॥२१॥
संयच्छ वाजिनां रश्मीन् सूत याहि शनैः शनैः।
मुखं द्रक्ष्याम रामस्य दुर्दर्शं नो भविष्यति॥२२॥
सूत! घोड़ों की लगाम खींचो। रथ को धीरे-धीरे ले चलो। हम श्रीराम का मुख देखेंगे; क्योंकि अब इस मुख का दर्शन हमलोगों के लिये दुर्लभ हो जायगा॥ २२॥
आयसं हृदयं नूनं राममातुरसंशयम्।
यद् देवगर्भप्रतिमे वनं याति न भिद्यते॥२३॥
निश्चय ही श्रीरामचन्द्रजी की माता का हृदय लोहे का बना हुआ है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। तभी तो देवकुमार के समान तेजस्वी पुत्र के वन की ओर जाते समय फट नहीं जाता है।॥ २३॥
कृतकृत्या हि वैदेही छायेवानुगता पतिम्।
न जहाति रता धर्मे मेरुमर्कप्रभा यथा॥२४॥
‘विदेहनन्दिनी सीता कृतार्थ हो गयीं; क्योंकि वे पतिव्रत-धर्म में तत्पर रहकर छाया की भाँति पति के पीछे-पीछे चली जा रही हैं। वे श्रीराम का साथ उसी प्रकार नहीं छोड़ती हैं, जैसे सूर्य की प्रभा मेरुपर्वत का त्याग नहीं करती है॥ २४॥
अहो लक्ष्मण सिद्धार्थः सततं प्रियवादिनम्।
भ्रातरं देवसंकाशं यस्त्वं परिचरिष्यसि ॥ २५॥
अहो लक्ष्मण! तुम भी कृतार्थ हो गये; क्योंकि तुम सदा प्रिय वचन बोलने वाले अपने देवतुल्य भाई की वन में सेवा करोगे॥ २५॥
महत्येषा हि ते बुद्धिरेष चाभ्युदयो महान्।
एष स्वर्गस्य मार्गश्च यदेनमनुगच्छसि ॥२६॥
‘तुम्हारी यह बुद्धि विशाल है। तुम्हारा यह महान् अभ्युदय है और तुम्हारे लिये यह स्वर्ग का मार्ग मिल गया है; क्योंकि तुम श्रीराम का अनुसरण कर रहे हो’ ॥ २६॥
एवं वदन्तस्ते सोढुं न शेकुर्बाष्पमागतम्।
नरास्तमनुगच्छन्ति प्रियमिक्ष्वाकुनन्दनम्॥२७॥
ऐसी बातें कहते हुए वे पुरवासी मनुष्य उमड़े हुए आँसुओं का वेग न सह सके। वे लोग सबके प्रेमपात्र इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजी के पीछे-पीछे चले जा रहे थे॥२७॥
अथ राजा वृतः स्त्रीभिर्दीनाभिर्दीनचेतनः।
निर्जगाम प्रियं पुत्रं द्रक्ष्यामीति ब्रुवन् गृहात्॥ २८॥
उसी समय दयनीय दशा को प्राप्त हुई अपनी स्त्रियों से घिरे हुए राजा दशरथ अत्यन्त दीन होकर मैं अपने प्यारे पुत्र श्रीराम को देखूगा’ ऐसा कहते हुए महल से बाहर निकल आये॥ २८॥
शुश्रुवे चाग्रतः स्त्रीणां रुदतीनां महास्वनः।
यथा नादः करेणूनां बद्धे महति कुञ्जरे॥२९॥
उन्होंने अपने आगे रोती हुई स्त्रियों का महान् आर्तनाद सुना। वह वैसा ही जान पड़ता था, जैसे बड़े हाथी यूथपति के बाँध लिये जाने पर हथिनियों का चीत्कार सुनायी देता है॥ २९॥
पिता हि राजा काकुत्स्थः श्रीमान् सन्नस्तदा बभौ।
परिपूर्णः शशी काले ग्रहेणोपप्लुतो यथा॥३०॥
उस समय श्रीराम के पिता ककुत्स्थवंशी श्रीमान् राजा दशरथ उसी तरह खिन्न जान पड़ते थे, जैसे पर्व के समय राहु से ग्रस्त होने पर पूर्ण चन्द्रमा श्रीहीन प्रतीत होते हैं॥३०॥
स च श्रीमानचिन्त्यात्मा रामो दशरथात्मजः।
सूतं संचोदयामास त्वरितं वाह्यतामिति॥३१॥
यह देख अचिन्त्यस्वरूप दशरथनन्दन श्रीमान् भगवान् राम ने सुमन्त्र को प्रेरित करते हुए कहा —’आप रथ को तेजीसे चलाइये’ ॥ ३१॥
रामो याहीति तं सूतं तिष्ठेति च जनस्तथा।
उभयं नाशकत् सूतः कर्तुमध्वनि चोदितः॥ ३२॥
एक ओर श्रीरामचन्द्रजी सारथि से रथ हाँकने के लिये कहते थे और दूसरी ओर सारा जनसमुदाय उन्हें ठहर जाने के लिये कहता था। इस प्रकार दुविधा में पड़कर सारथि सुमन्त्र उस मार्गपर दोनों में से कुछ न कर सके न तो रथ को आगे बढ़ा सके और न सर्वथा रोक ही सके॥३२॥
निर्गच्छति महाबाहौ रामे पौरजनाश्रुभिः।
पतितैरभ्यवहितं प्रणनाश महीरजः॥ ३३॥
महाबाहु श्रीराम के नगर से निकलते समय पुरवासियों के नेत्रों से गिरे हुए आँसुओं द्वारा भीगकर धरती की उड़ती हुई धूल शान्त हो गयी॥ ३३॥
रुदिताश्रुपरिघुनं हाहाकृतमचेतनम्।
प्रयाणे राघवस्यासीत् पुरं परमपीडितम्॥३४॥
श्रीरामचन्द्रजी के प्रस्थान करते समय सारा नगर अत्यन्त पीड़ित हो गया। सब रोने और आँसू बहाने लगे तथा सभी हाहाकार करते-करते अचेत-से हो गये॥ ३४॥
सुस्राव नयनैः स्त्रीणामस्रमायाससम्भवम्।
मीनसंक्षोभचलितैः सलिलं पङ्कजैरिव॥ ३५॥
नारियों के नेत्रों से उसी तरह खेदजनित अश्रु झर रहे थे, जैसे मछलियों के उछलने से हिले हुए कमलों द्वारा जलकणों की वर्षा होने लगती है॥ ३५ ॥
दृष्ट्वा तु नृपतिः श्रीमानेकचित्तगतं पुरम्।
निपपातैव दुःखेन कृत्तमूल इव द्रुमः॥३६॥
श्रीमान् राजा दशरथ सारी अयोध्यापुरी के लोगों को एक-सा व्याकुलचित्त देखकर अत्यन्त दुःख के कारण जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति भूमिपर गिर पड़े॥३६॥
ततो हलहलाशब्दो जज्ञे रामस्य पृष्ठतः।
नराणां प्रेक्ष्य राजानं सीदन्तं भृशदुःखितम्॥ ३७॥
उस समय राजा को अत्यन्त दुःख में मग्न हो कष्ट पाते देख श्रीराम के पीछे जाते हुए मनुष्यों का पुनः महान् कोलाहल प्रकट हुआ॥ ३७॥
हा रामेति जनाः केचिद् राममातेति चापरे।
अन्तःपुरसमृद्धं च क्रोशन्तं पर्यदेवयन्॥३८॥
अन्तःपुरकी रानियों के सहित राजा दशरथ को उच्चस्वर से विलाप करते देख कोई ‘हा राम!’ कहकर और कोई ‘हा राममाता!’ की पुकार मचाकर करुणक्रन्दन करने लगे॥ ३८ ॥
अन्वीक्षमाणो रामस्तु विषण्णं भ्रान्तचेतसम्।
राजानं मातरं चैव ददर्शानुगतौ पथि॥३९॥
उस समय श्रीरामचन्द्रजी ने पीछे घूमकर देखा तो उन्हें विषादग्रस्त तथा भ्रान्तचित्त पिता राजा दशरथ और दुःख में डूबी हुई माता कौसल्या दोनों ही मार्ग पर अपने पीछे आते हुए दिखायी दिये॥ ३९॥
स बद्ध इव पाशेन किशोरो मातरं यथा।
धर्मपाशेन संयुक्तः प्रकाशं नाभ्युदैक्षत॥४०॥
जैसे रस्सी में बँधा हुआ घोड़े का बच्चा अपनी मा को नहीं देख पाता, उसी प्रकार धर्म के बन्धन में बँधे हुए श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता की ओर स्पष्ट रूप से न देख सके॥ ४०॥
पदातिनौ च यानाविदुःखाही सुखोचितौ।
दृष्ट्वा संचोदयामास शीघ्रं याहीति सारथिम्॥ ४१॥
जो सवारीपर चलने योग्य, दुःख भोगनेके अयोग्य और सुख भोगने के ही योग्य थे, उन माता-पिता को पैदल ही अपने पीछे-पीछे आते देख श्रीरामचन्द्रजी ने सारथि को शीघ्र रथ हाँकने के लिये प्रेरित किया। ४१॥
नहि तत् पुरुषव्याघ्रो दुःख दर्शनं पितुः।
मातुश्च सहितुं शक्तस्तोत्नैर्नुन्न इव द्विपः॥४२॥
जैसे अंकुश से पीड़ित किया हुआ गजराज उस कष्ट को नहीं सहन कर पाता है, उसी प्रकार पुरुषसिंह श्रीराम के लिये माता-पिता को इस दुःखद अवस्था में देखना असह्य हो गया॥४२॥
प्रत्यगारमिवायान्ती सवत्सा वत्सकारणात्।
बद्धवत्सा यथा धेनू राममाताभ्यधावत॥४३॥
जैसे बँधे हुए बछड़े वाली सवत्सा गौ शाम को घर की ओर लौटते समय बछड़े के स्नेह से दौड़ी चली आती है, उसी प्रकार श्रीराम की माता कौसल्या उनकी ओर दौड़ी आ रही थीं॥ ४३॥
तथा रुदन्तीं कौसल्यां रथं तमनुधावतीम्।
क्रोशन्तीं राम रामेति हा सीते लक्ष्मणेति च॥ ४४॥
रामलक्ष्मणसीतार्थं सवन्तीं वारि नेत्रजम्।
असकृत् प्रैक्षत स तां नृत्यन्तीमिव मातरम्॥ ४५॥
हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण !’ की रट लगाती और रोती हुई कौसल्या उस रथ के पीछे दौड़ रही थीं। वे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के लिये नेत्रों से आँसू बहा रही थीं एवं इधर-उधर नाचती–चक्कर लगाती-सी डोल रही थीं। इस अवस्था में माता कौसल्या को श्रीरामचन्द्रजी ने बारंबार देखा। ४४-४५॥
तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः।
सुमन्त्रस्य बभूवात्मा चक्रयोरिव चान्तरा॥४६॥
राजा दशरथ चिल्लाकर कहते थे—’सुमन्त्र ! ठहरो।’ किंतु श्रीरामचन्द्रजी कहते थे—’आगे बढ़िये, शीघ्र आगे बढ़िये।’ उन दो प्रकार के आदेशों में पड़े हुए बेचारे सुमन्त्र का मन उस समय दो पहियों के बीच में फंसे हुए मनुष्यका-सा हो रहा था॥ ४६॥
नाश्रौषमिति राजानमपालब्धोऽपि वक्ष्यसि।
चिरं दुःखस्य पापिष्ठमिति रामस्तमब्रवीत्॥४७॥
उस समय श्रीराम ने सुमन्त्र से कहा—’यहाँ अधिक विलम्ब करना मेरे और पिताजी के लिये दुःख ही नहीं, महान् दुःख का कारण होगा; इसलिये रथ आगे बढ़ाइये। लौटने पर महाराज उलाहना दें तो कह दीजियेगा, मैंने आपकी बात नहीं सुनी’ ॥ ४७॥
स रामस्य वचः कुर्वन्ननुज्ञाप्य च तं जनम्।
व्रजतोऽपि हयान् शीघ्रं चोदयामास सारथिः॥ ४८॥
अन्त में श्रीराम के ही आदेश का पालन करते हुए सारथि ने पीछे से आने वाले लोगों से जाने की आज्ञा ली और स्वतः चलते हुए घोड़ों को भी तीव्रगति से चलने के लिये हाँका॥४८॥
न्यवर्तत जनो राज्ञो रामं कृत्वा प्रदक्षिणम्।
मनसाप्याशुवेगेन न न्यवर्तत मानुषम्॥४९॥
राजा दशरथ के साथ आने वाले लोग मन-ही-मन श्रीराम की परिक्रमा करके शरीर मात्र से लौटे (मन से नहीं लौटे); क्योंकि वह उनके रथ की अपेक्षा भी तीव्रगामी था। दूसरे मनुष्यों का समुदाय शीघ्रगामी मन और शरीर दोनों से ही नहीं लौटा (वे सब लोग श्रीराम के पीछे-पीछे दौड़े चले गये) ॥ ४९॥
यमिच्छेत् पुनरायातं नैनं दूरमनुव्रजेत्।
इत्यमात्या महाराजमूचुर्दशरथं वचः॥५०॥
इधर मन्त्रियों ने महाराज दशरथ से कहा—’राजन् ! जिसके लिये यह इच्छा की जाय कि वह पुनः शीघ्र लौट आये, उसके पीछे दूर तक नहीं जाना चाहिये’। ५०॥
तेषां वचः सर्वगुणोपपन्नः प्रस्विन्नगात्रः प्रविषण्णरूपः।
निशम्य राजा कृपणः सभार्यो व्यवस्थितस्तं सुतमीक्षमाणः॥५१॥
सर्वगुणसम्पन्न राजा दशरथ का शरीर पसीने से भीग रहा था। वे विषाद के मूर्तिमान् स्वरूप जान पड़ते थे। अपने मन्त्रियों की उपर्युक्त बात सुनकर वे वहीं खड़े हो गये और रानियों सहित अत्यन्त दीनभाव से पुत्र की ओर देखने लगे॥
सर्ग ४१
तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र निष्क्रामति कृताञ्जलौ।
आर्तशब्दो हि संजज्ञे स्त्रीणामन्तःपुरे महान्॥१॥
पुरुषसिंह श्रीराम ने माताओं सहित पिता के लिये दूर से ही हाथ जोड़ रखे थे, उसी अवस्था में जब वे रथ द्वारा नगर से बाहर निकलने लगे, उस समय रनवास की रानियों में बड़ा हाहाकार मच गया॥१॥
अनाथस्य जनस्यास्य दुर्बलस्य तपस्विनः।
यो गतिः शरणं चासीत् स नाथः क्व नु गच्छति॥२॥
वे रोती हुई कहने लगीं—’हाय! जो हम अनाथ, दुर्बल और शोचनीय जनों की गति (सब सुखों की प्राप्ति कराने वाले) और शरण (समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले) थे, वे हमारे नाथ (मनोरथ पूर्ण करने वाले) श्रीराम कहाँ चले जा रहे हैं? ॥ २॥
न क्रुध्यत्यभिशस्तोऽपि क्रोधनीयानि वर्जयन्।
क्रुद्वान् प्रसादयन् सर्वान् समदुःखः क्व गच्छति॥३॥
‘जो किसी के द्वारा झूठा कलंक लगाये जाने पर भी क्रोध नहीं करते थे, क्रोध दिलाने वाली बातें नहीं कहते थे और रूठे हुए सभी लोगों को मनाकर प्रसन्न कर लेते थे, वे दूसरों के दुःख में समवेदना प्रकट करने वाले राम कहाँ जा रहे हैं? ॥ ३॥
कौसल्यायां महातेजा यथा मातरि वर्तते।
तथा यो वर्ततेऽस्मासु महात्मा क्व नु गच्छति॥ ४॥
‘जो महातेजस्वी महात्मा श्रीराम अपनी माता कौसल्याके साथ जैसा बर्ताव करते थे, वैसा ही बर्ताव हमारे साथ भी करते थे, वे कहाँ चले जा रहे हैं? ॥ ४॥
कैकेय्या क्लिश्यमानेन राज्ञा संचोदितो वनम्।
परित्राता जनस्यास्य जगतः क्व नु गच्छति॥५॥
‘कैकेयी के द्वारा क्लेश में डाले गये महाराज के वन जाने के लिये कहने पर हमलोगों की अथवा समस्त जगत् की रक्षा करने वाले श्रीरघुवीर कहाँ चले जा रहे हैं? ॥ ५॥
अहो निश्चेतनो राजा जीवलोकस्य संक्षयम्।
धर्म्यं सत्यव्रतं रामं वनवासे प्रवत्स्यति॥६॥
‘अहो! ये राजा बड़े बुद्धिहीन हैं, जो कि जीवजगत् के आश्रयभूत, धर्मपरायण, सत्यव्रती श्रीराम को वनवास के लिये देश निकाला दे रहे हैं ॥६॥
इति सर्वा महिष्यस्ता विवत्सा इव धेनवः।
रुरुदुश्चैव दुःखार्ताः सस्वरं च विचुक्रुशुः॥७॥
इस प्रकार वे सब-की-सब रानियाँ बछड़ों से बिछुड़ी हुई गौओं की तरह दुःख से आर्त होकर रोने और उच्चस्वर से क्रन्दन करने लगीं॥७॥
स तमन्तःपुरे घोरमार्तशब्दं महीपतिः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तः श्रुत्वा चासीत् सुदुःखितः॥
अन्तःपुर में वह घोर आर्तनाद सुनकर पुत्रशोक से संतप्त हुए महाराज दशरथ बहुत दुःखी हो गये॥८॥
नाग्निहोत्राण्यहूयन्त नापचन् गृहमेधिनः।
अकुर्वन् न प्रजाः कार्यं सूर्यश्चान्तरधीयत॥९॥
व्यसृजन् कवलान् नागा गावो वत्सान् न पाययन्।
पुत्रां प्रथमजं लब्ध्वा जननी नाभ्यनन्दत ॥१०॥
उस दिन अग्निहोत्र बंद हो गया, गृहस्थों के घर भोजन नहीं बना, प्रजाओं ने कोई काम नहीं किया, सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, हाथियों ने मुँह में लिया हुआ चारा छोड़ दिया, गौओं ने बछड़ों को दूध नहीं पिलाया और पहले-पहल पुत्र को जन्म देकर भी कोई माता प्रसन्न नहीं हुई॥९-१० ॥
त्रिशङ्कर्लोहिताङ्गश्च बृहस्पतिबुधावपि।
दारुणाः सोममभ्येत्य ग्रहाः सर्वे व्यवस्थिताः॥ ११॥
त्रिशंकु, मङ्गल, गुरु, बुध तथा अन्य समस्त ग्रह शुक्र, शनि आदि रात में वक्रगति से चन्द्रमा के पास पहुँचकर दारुण (क्रूरकान्तियुक्त) होकर स्थित हो गये॥
नक्षत्राणि गता षि ग्रहाश्च गततेजसः।
विशाखाश्च सधमाश्च नभसि प्रचकाशिरे॥ १२॥
नक्षत्रों की कान्ति फीकी पड़ गयी और ग्रह निस्तेज हो गये। वे सब-के-सब आकाश में विपरीत मार्गपर स्थित हो धूमाच्छन्न प्रतीत हो रहे थे॥ १२ ॥
कालिकानिलवेगेन महोदधिरिवोत्थितः।
रामे वनं प्रव्रजिते नगरं प्रचचाल तत्॥१३॥
आकाश में छायी हुई मेघमाला वायु के वेग से उमड़े हुए समुद्र के समान प्रतीत होती थी। श्रीराम के वन को जाते समय वह सारा नगर जोर-जोर से हिलने लगा (वहाँ भूकम्प आ गया) ॥ १३॥
दिशः पर्याकुलाः सर्वास्तिमिरेणेव संवृताः।
न ग्रहो नापि नक्षत्रं प्रचकाशे न किंचन॥१४॥
समस्त दिशाएँ व्याकुल हो उठीं, उनमें अन्धकार सा छा गया। न कोई ग्रह प्रकाशित होता था, न नक्षत्र॥
अकस्मान्नागरः सर्वो जनो दैन्यमुपागमत्।
आहारे वा विहारे वा न कश्चिदकरोन्मनः॥ १५॥
सहसा सारे नागरिक दीन-दशा को प्राप्त हो गये। किसी ने भी आहार या विहार में मन नहीं लगाया॥ १५॥
शोकपर्यायसंतप्तः सततं दीर्घमुच्छ्वसन्।
अयोध्यायां जनः सर्वश्चुक्रोश जगतीपतिम्॥ १६॥
अयोध्यावासी सब लोग शोकपरम्परा से संतप्त हो निरन्तर लंबी साँस खींचते हुए राजा दशरथ को कोसने लगे॥१६॥
बाष्पपर्याकुलमुखो राजमार्गगतो जनः।
न हृष्टो लभ्यते कश्चित् सर्वः शोकपरायणः॥ १७॥
सड़क पर निकला हुआ कोई भी मनुष्य प्रसन्न नहीं दिखायी देता था। सबका मुख आँसुओं से भीगा हुआ था और सभी शोकमग्न हो रहे थे॥१७॥
न वाति पवनः शीतो न शशी सौम्यदर्शनः।
न सूर्यस्तपते लोकं सर्वं पर्याकुलं जगत्॥१८॥
शीतल वायु नहीं चलती थी। चन्द्रमा सौम्य नहीं दिखायी देता था। सूर्य भी जगत् को उचित मात्रा में ताप या प्रकाश नहीं दे रहा था। सारा संसार ही व्याकुल हो उठा था॥ १८॥
अनर्थिनः सुताः स्त्रीणां भर्तारो भ्रातरस्तथा।
सर्वे सर्वं परित्यज्य राममेवान्वचिन्तयन्॥१९॥
बालक माँ-बाप को भूल गये। पतियों को स्त्रियों की याद नहीं आती थी और भाई भाई का स्मरण नहीं करते थे—सभी सब कुछ छोड़कर केवल श्रीराम का ही चिन्तन करने लगे॥ १९॥
ये तु रामस्य सुहृदः सर्वे ते मूढचेतसः।
शोकभारेण चाक्रान्ताः शयनं नैव भेजिरे॥२०॥
जो श्रीराम के मित्र थे, वे सब तो और भी अपनी सुध-बुध खो बैठे थे। शोक के भार से आक्रान्त होने के कारण वे रात में सोये तक नहीं॥ २० ॥
ततस्त्वयोध्या रहिता महात्मना पुरन्दरेणेव मही सपर्वता।
चचाल घोरं भयशोकदीपिता सनागयोधाश्वगणा ननाद च॥२१॥
इस प्रकार सारी अयोध्यापुरी श्रीराम से रहित होकर भय और शोक से प्रज्वलित-सी होकर उसी प्रकार घोर हलचल में पड़ गयी, जैसे देवराज इन्द्र से रहित हुई मेरु-पर्वतसहित यह पृथ्वी डगमगाने लगती है। हाथी, घोड़े और सैनिकों सहित उस नगरी में भयंकर आर्तनाद होने लगा।
सर्ग ४२
यावत् तु निर्यतस्तस्य रजोरूपमदृश्यत।
नैवेक्ष्वाकुवरस्तावत् संजहारात्मचक्षुषी॥१॥
वन की ओर जाते हुए श्रीराम के रथ की धूल जबतक दिखायी देती रही, तब तक इक्ष्वाकुवंश के स्वामी राजा दशरथ ने उधर से अपनी आँखें नहीं हटायीं॥१॥
यावद् राजा प्रियं पुत्रं पश्यत्यत्यन्तधार्मिकम्।
तावद् व्यवर्धतेवास्य धरण्यां पुत्रदर्शने॥२॥
वे महाराज अपने अत्यन्त धार्मिक प्रिय पुत्र को जबतक देखते रहे, तबतक पुत्र को देखने के लिये उनका शरीर मानो पृथ्वी पर बढ़ रहा था—वे ऊँचे उठ-उठकर उनकी ओर निहार रहे थे॥२॥
न पश्यति रजोऽप्यस्य यदा रामस्य भूमिपः।
तदार्तश्च निषण्णश्च पपात धरणीतले॥३॥
जब राजा को श्रीराम के रथ की धूल भी नहीं दिखायी देने लगी, तब वे अत्यन्त आर्त और विषादग्रस्त हो पृथ्वी पर गिर पड़े॥३॥
तस्य दक्षिणमन्वागात् कौसल्या बाहुमङ्गना।
परं चास्यान्वगात् पार्वं कैकेयी सा सुमध्यमा॥ ४॥
उस समय उन्हें सहारा देने के लिये उनकी धर्मपत्नी कौसल्या देवी दाहिनी बाँह के पास आयीं और सुन्दरी कैकेयी उनके वामभाग में जा पहुँचीं॥ ४॥
तां नयेन च सम्पन्नो धर्मेण विनयेन च।
उवाच राजा कैकेयीं समीक्ष्य व्यथितेन्द्रियः॥५॥
कैकेयी को देखते ही नय, विनय और धर्म से सम्पन्न राजा दशरथ की समस्त इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं; वे बोल उठे— ॥५॥
कैकेयि मामकाङ्गानि मा स्पाक्षीः पापनिश्चये।
नहि त्वां द्रष्टुमिच्छामि न भार्या न च बान्धवी॥ ६॥
‘पापपूर्ण विचार रखने वाली कैकेयि! तू मेरे अङ्गों का स्पर्श न कर मैं तुझे देखना नहीं चाहता। तू न तो मेरी भार्या है और न बान्धवी॥ ६॥
ये च त्वामनुजीवन्ति नाहं तेषां न ते मम।
केवलार्थपरां हि त्वां त्यक्तधर्मां त्यजाम्यहम्॥ ७॥
‘जो तेरा आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, मैं उनका स्वामी नहीं हूँ और वे मेरे परिजन नहीं हैं। तूने केवल धन में आसक्त होकर धर्मका त्याग किया है, इसलिये मैं तेरा परित्याग करता हूँ॥७॥
अगृह्णां यच्च ते पाणिमग्निं पर्यणयं च यत्।
अनुजानामि तत् सर्वमस्मिंल्लोके परत्र च॥८॥
‘मैंने जो तेरा पाणिग्रहण किया है और तुझे साथ लेकर अग्निकी परिक्रमा की है, तेरे साथ का वह सारा सम्बन्ध इस लोक और परलोक के लिये भी त्याग देता हूँ॥ ८॥
भरतश्चेत् प्रतीतः स्याद् राज्यं प्राप्यैतदव्ययम्।
यन्मे स दद्यात् पित्रर्थं मा मां तद्दत्तमागमत्॥९॥
‘तेरा पुत्र भरत भी यदि इस विघ्न-बाधा से रहित राज्य को पाकर प्रसन्न हो तो वह मेरे लिये श्राद्ध में जो कुछ पिण्ड या जल आदि दान करे, वह मुझे प्राप्त न हो’ ॥ ९॥
अथ रेणुसमुद्ध्वस्तं समुत्थाप्य नराधिपम्।
न्यवर्तत तदा देवी कौसल्या शोककर्शिता॥ १०॥
तदनन्तर शोक से कातर हुई कौसल्या देवी उस समय धरती पर लोटने के कारण धूल से व्याप्त हुए महाराज को उठाकर उनके साथ राजभवन की ओर लौटीं ॥ १०॥
हत्वेव ब्राह्मणं कामात् स्पृष्ट्वाग्निमिव पाणिना।
अन्वतप्यत धर्मात्मा पुत्रं संचिन्त्य राघवम्॥ ११॥
जैसे कोई जान-बूझकर स्वेच्छापूर्वक ब्राह्मण की हत्या कर डाले अथवा हाथ से प्रज्वलित अग्नि का स्पर्श कर ले और ऐसा करके संतप्त होता रहे, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा दशरथ अपने ही दिये हुए वरदान के कारण वन में गये हुए श्रीराम का चिन्तन करके अनुतप्त हो रहे थे॥११॥
निवृत्यैव निवृत्यैव सीदतो रथवर्त्मसु।
राज्ञो नातिबभौ रूपं ग्रस्तस्यांशुमतो यथा॥१२॥
राजा दशरथ बारंबार पीछे लौटकर रथ के मार्गो पर देखने का कष्ट उठाते थे। उस समय उनका रूप राहुग्रस्त सूर्य की भाँति अधिक शोभा नहीं पाता था। १२॥
विललाप स दुःखार्तः प्रियं पुत्रमनुस्मरन्।
नगरान्तमनुप्राप्तं बुद्ध्वा पुत्रमथाब्रवीत्॥१३॥
वे अपने प्रिय पुत्र का बारंबार स्मरण करके दुःख से आतुर हो विलाप करने लगे। वे बेटे को नगर की सीमा पर पहुँचा हुआ समझकर इस प्रकार कहने लगे – ॥१३॥
वाहनानां च मुख्यानां वहतां तं ममात्मजम्।
पदानि पथि दृश्यन्ते स महात्मा न दृश्यते॥१४॥
‘हाय! मेरे पुत्र को वन की ओर ले जाते हुए श्रेष्ठ वाहनों (घोड़ों) के पदचिह्न तो मार्ग में दिखायी देते हैं; परंतु उन महात्मा श्रीराम का दर्शन नहीं हो रहा है। १४॥
यः सुखेनोपधानेषु शेते चन्दनरूषितः।
वीज्यमानो महार्हाभिः स्त्रीभिर्मम सतोत्तमः॥ १५॥
स नूनं क्वचिदेवाद्य वृक्षमूलमुपाश्रितः।
काष्ठं वा यदि वाश्मानमुपधाय शयिष्यते॥१६॥
‘जो मेरे श्रेष्ठ पुत्र श्रीराम चन्दन से चर्चित हो तकियों का सहारा लेकर उत्तम शय्याओं पर सुख से सोते थे और उत्तम अलंकारों से विभूषित सुन्दरी स्त्रियाँ जिन्हें व्यजन डुलाती थीं, वे निश्चय ही आज कहीं वृक्ष की जड़का आश्रय ले अथवा किसी काठ या पत्थर को सिर के नीचे रखकर भूमिपर ही शयन करेंगे॥१५-१६ ॥
उत्थास्यति च मेदिन्याः कृपणः पांसुगुण्ठितः।
विनिःश्वसन प्रस्रवणात् करेणूनामिवर्षभः॥ १७॥
‘फिर अङ्गों में धूल लपेटे दीन की भाँति लंबी साँस खींचते हुए वे उस शयन-भूमि से उसी प्रकार उठेंगे, जैसे किसी झरने के पास से गजराज उठता है॥
द्रक्ष्यन्ति नूनं पुरुषा दीर्घबाहं वनेचराः।
राममुत्थाय गच्छन्तं लोकनाथमनाथवत्॥१८॥
‘निश्चय ही वन में रहने वाले मनुष्य लोकनाथ महाबाहु श्रीराम को वहाँ से अनाथ की भाँति उठकर जाते हुए देखेंगे॥ १८॥
सा नूनं जनकस्येष्टा सुता सुखसदोचिता।
कण्टकाक्रमणक्लान्ता वनमद्य गमिष्यति॥
‘जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, वह जनक की प्यारी पुत्री सीता आज अवश्य ही काँटों पर पैर पड़ने से व्यथा का अनुभव करती हुई वन को जायगी। १९॥
अनभिज्ञा वनानां सा नूनं भयमुपैष्यति।
श्वपदानर्दितं श्रुत्वा गम्भीरं रोमहर्षणम्॥२०॥
‘वह वन के कष्टों से अनभिज्ञ है। वहाँ व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं का गम्भीर तथा रोमाञ्चकारी गर्जनतर्जन सुनकर निश्चय ही भयभीत हो जायगी॥ २० ॥
सकामा भव कैकेयि विधवा राज्यमावस।
नहि तं पुरुषव्याघ्रं विना जीवितुमुत्सहे॥२१॥
‘अरी कैकेयी! तू अपनी कामना सफल कर ले और विधवा होकर राज्य भोग। मैं पुरुषसिंह श्रीराम के बिना जीवित नहीं रह सकता’ ॥ २१॥
इत्येवं विलपन् राजा जनौघेनाभिसंवृतः।
अपस्नात इवारिष्टं प्रविवेश गृहोत्तमम्॥२२॥
इस प्रकार विलाप करते हुए राजा दशरथ ने मरघट से नहाकर आये हुए पुरुष की भाँति मनुष्यों की भारी भीड़ से घिरकर अपने शोकपूर्ण उत्तम भवन में प्रवेश किया।॥ २२ ॥
शून्यचत्वरवेश्मान्तां संवृतापणवेदिकाम्।
क्लान्तदुर्बलदुःखार्ती नात्याकीर्णमहापथाम्॥ २३॥
तामवेक्ष्य पुरीं सर्वां राममेवानुचिन्तयन्।
विलपन् प्राविशद् राजा गृहं सूर्य इवाम्बुदम्॥ २४॥
उन्होंने देखा, अयोध्यापुरी के प्रत्येक घर का बाहरी चबूतरा और भीतरी भाग भी सूना हो रहा है। (क्योंकि उन घरों के सब लोग श्रीराम के पीछे चले गये थे।) बाजार-हाट बंद है। जो लोग नगर में हैं, वे भी अत्यन्त क्लान्त, दुर्बल और दुःख से आतुर हो रहे हैं तथा बड़ी-बड़ी सड़कों पर भी अधिक आदमी जाते-आते नहीं दिखायी देते हैं। सारे नगर की यह अवस्था देखकर श्रीराम के लिये ही चिन्ता और विलाप करते हुए राजा उसी तरह महल के भीतर गये,जैसे सूर्य मेघों की घटा में छिप जाते हैं॥ २३-२४ ॥
महाह्रदमिवाक्षोभ्यं सुपर्णेन हृतोरगम्।
रामेण रहितं वेश्म वैदेह्या लक्ष्मणेन च ॥ २५॥
श्रीराम, लक्ष्मण और सीता से रहित वह राजभवन उस महान् अक्षोभ्य जलाशय के समान जान पड़ता था, जिसके भीतर के नाग को गरुड़ उठा ले गये हों। २५॥
अथ गद्गदशब्दस्तु विलपन् वसुधाधिपः।
उवाच मृदु मन्दार्थं वचनं दीनमस्वरम्॥२६॥
उस समय विलाप करते हुए राजा दशरथ ने गद्गद वाणी में द्वारपालों से यह मधुर, अस्पष्ट, दीनतायुक्त और स्वाभाविक स्वर से रहित बात कही— ॥२६॥
कौसल्याया गृहं शीघ्रं राममातुर्नयन्तु माम्।
नह्यन्यत्र ममाश्वासो हृदयस्य भविष्यति॥२७॥
‘मुझे शीघ्र ही श्रीराम-माता कौसल्या के घरमें पहुँचा दो; क्योंकि मेरे हृदय को और कहीं शान्ति नहीं मिल सकती’ ॥ २७॥
इति ब्रुवन्तं राजानमनयन् द्वारदर्शिनः।
कौसल्याया गृहं तत्र न्यवेस्यत विनीतवत्॥ २८॥
ऐसी बात कहते हुए राजा दशरथ को द्वारपालों ने बड़ी विनय के साथ रानी कौसल्या के भवन में पहुँचाया और पलंगपर सुला दिया॥२८॥
ततस्तत्र प्रविष्टस्य कौसल्याया निवेशनम्।
अधिरुह्यापि शयनं बभूव लुलितं मनः॥२९॥
वहाँ कौसल्या के भवन में प्रवेश करके पलंगपर आरूढ़ हो जाने पर भी राजा दशरथ का मन चञ्चल एवं मलिन ही रहा॥ २९॥
पुत्रद्वयविहीनं च स्नुषया च विवर्जितम्।
अपश्यद् भवनं राजा नष्टचन्द्रमिवाम्बरम्॥३०॥
दोनों पुत्र और पुत्रवधू सीता से रहित वह भवन राजा को चन्द्रहीन आकाश की भाँति श्रीहीन दिखायी देने लगा॥३०॥
तच्च दृष्ट्वा महाराजो भुजमुद्यम्य वीर्यवान्।
उच्चैःस्वरेण प्राक्रोशद्धा राम विजहासि नौ॥ ३१॥
सुखिता बत तं कालं जीविष्यन्ति नरोत्तमाः।
परिष्वजन्तो ये रामं द्रक्ष्यन्ति पुनरागतम्॥३२॥
उसे देखकर पराक्रमी महाराज ने एक बाँह ऊपर उठाकर उच्चस्वर से विलाप करते हुए कहा—’हा राम! तुम हम दोनों माता-पिता को त्याग दे रहे हो। जो नरश्रेष्ठ चौदह वर्षों की अवधितक जीवित रहेंगे और अयोध्या में पुनः लौटे हुए श्रीराम को हृदय से लगाकर देखेंगे, वे ही वास्तव में सुखी होंगे’। ३१-३२॥
अथ रात्र्यां प्रपन्नायां कालरात्र्यामिवात्मनः।
अर्धरात्रे दशरथः कौसल्यामिदमब्रवीत्॥ ३३॥
तदनन्तर अपनी कालरात्रि के समान वह रात्रि आने पर राजा दशरथ ने आधी रात होने पर कौसल्या से इस प्रकार कहा- ॥३३॥
न त्वां पश्यामि कौसल्ये साधु मां पाणिना स्पृश।
रामं मेऽनुगता दृष्टिरद्यापि न निवर्तते॥३४॥
‘कौसल्ये! मेरी दृष्टि श्रीराम के ही साथ चली गयी और वह अब तक नहीं लौटी है; अतः मैं तुम्हें देख नहीं पाता हूँ। एक बार अपने हाथ से मेरे शरीर का स्पर्श तो करो’॥
तं राममेवानुविचिन्तयन्तं समीक्ष्य देवी शयने नरेन्द्रम्।
उपोपविश्याधिकमार्तरूपा विनिश्वसन्तं विललाप कृच्छ्रम्॥ ३५॥
शय्यापर पड़े हुए महाराज दशरथ को श्रीराम का ही चिन्तन करते और लंबी साँस खींचते देख देवी कौसल्या अत्यन्त व्यथित हो उनके पास आ बैठी और बड़े कष्ट से विलाप करने लगीं ॥ ३५ ॥
सर्ग ४३
ततः समीक्ष्य शयने सन्नं शोकेन पार्थिवम्।
कौसल्या पुत्रशोकार्ता तमुवाच महीपतिम्॥१॥
शय्या पर पड़े हुए राजा को पुत्रशोक से व्याकुल देख पुत्र के ही शोक से पीड़ित हुई कौसल्या ने उन महाराज से कहा- ॥१॥
राघवे नरशार्दूले विषं मुक्त्वाहिजिह्मगा।
विचरिष्यति कैकेयी निर्मुक्तेव हि पन्नगी॥२॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम पर अपना विष उँडेलकर टेढ़ी चाल से चलने वाली कैकेयी केंचुल छोड़कर नूतन शरीर से प्रकट हुई सर्पिणी की भाँति अब स्वच्छन्द विचरेगी॥२॥
विवास्य रामं सुभगा लब्धकामा समाहिता।
त्रासयिष्यति मां भूयो दुष्टाहिरिव वेश्मनि॥३॥
‘जैसे घर में रहने वाला दुष्ट सर्प बारंबार भय देता रहता है, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्र को वनवास देकर सफलमनोरथ हुई सुभगा कैकेयी सदा सावधान होकर मुझे त्रास देती रहेगी॥३॥
अथास्मिन् नगरे रामश्चरन् भैक्षं गृहे वसेत्।
कामकारो वरं दातुमपि दासं ममात्मजम्॥४॥
‘यदि श्रीराम इस नगर में भीख माँगते हुए भी घर में रहते अथवा मेरे पुत्र को कैकेयी का दास भी बना दिया गया होता तो वैसा वरदान मुझे भी अभीष्ट होता (क्योंकि उस दशा में मुझे भी श्रीराम का दर्शन होता रहता। श्रीराम के वनवास का वरदान तो कैकेयी ने मुझे दुःख देने के लिये ही माँगा है।) ॥ ४॥
पातयित्वा तु कैकेय्या रामं स्थानाद् यथेष्टतः।
प्रविद्धो रक्षसां भागः पर्वणीवाहिताग्निना॥५॥
‘कैकेयी ने अपनी इच्छा के अनुसार श्रीराम को उनके स्थान से भ्रष्ट करके वैसा ही किया है, जैसे किसी अग्निहोत्री ने पर्व के दिन देवताओं को उनके भाग से वञ्चित करके राक्षसों को वह भाग अर्पित कर दिया हो॥५॥
नागराजगतिर्वीरो महाबाहुर्धनुर्धरः।
वनमाविशते नूनं सभार्यः सहलक्ष्मणः॥६॥
‘गजराज के समान मन्द गति से चलने वाले वीर महाबाहु धनुर्धर श्रीराम निश्चय ही अपनी पत्नी और लक्ष्मण के साथ वन में प्रवेश कर रहे होंगे॥६॥
वने त्वदृष्टदुःखानां कैकेय्यनुमते त्वया।
त्यक्तानां वनवासाय कान्यावस्था भविष्यति॥ ७॥
‘महाराज! जिन्होंने जीवन में कभी दुःख नहीं देखे थे, उन श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को आपने कैकेयी की बातों में आकर वन में भेज दिया। अब उन बेचारों की वनवास के कष्ट भोगने के सिवा और क्या अवस्था होगी?॥
ते रत्नहीनास्तरुणाः फलकाले विवासिताः।
कथं वत्स्यन्ति कृपणाः फलमूलैः कृताशनाः॥ ८ ॥
‘रत्नतुल्य उत्तम वस्तुओं से वञ्चित वे तीनों तरुण सुखरूप फल भोगने के समय घर से निकाल दिये गये। अब वे बेचारे फल-मूल का भोजन करके कैसे रह सकेंगे? ॥ ८॥
अपीदानीं स कालः स्यान्मम शोकक्षयः शिवः।
सहभार्यं सह भ्रात्रा पश्येयमिह राघवम्॥९॥
क्या अब फिर मेरे शोक को नष्ट करने वाला वह शुभ समय आयेगा, जब मैं सीता और लक्ष्मण के साथ वन से लौटे हुए श्रीराम को देखूगी? ॥ ९॥
श्रुत्वैवोपस्थितौ वीरौ कदायोध्या भविष्यति।
यशस्विनी हृष्टजना सूच्छ्रितध्वजमालिनी॥१०॥
‘कब वह शुभ अवसर प्राप्त होगा जब कि ‘वीर श्रीराम और लक्ष्मण वन से लौट आये’ यह सुनते ही यशस्विनी अयोध्यापुरी के सब लोग हर्ष से उल्लसित हो उठेगे और घर-घर फहराये गये ऊँचे-ऊँचे ध्वजसमूह पुरी की शोभा बढ़ाने लगेंगे॥ १० ॥
कदा प्रेक्ष्य नरव्याघ्रावरण्यात् पुनरागतौ।
भविष्यति पुरी हृष्टा समुद्र इव पर्वणि॥११॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण को पुनः वन से आया हुआ देख यह अयोध्यापुरी पूर्णिमा के उमड़ते हुए समुद्र की भाँति कब हर्षोल्लास से परिपूर्ण होगी?॥ ११॥
कदायोध्यां महाबाहुः पुरीं वीरः प्रवेक्ष्यति।
पुरस्कृत्य रथे सीतां वृषभो गोवधूमिव॥१२॥
‘जैसे साँड़ गाय को आगे करके चलता है, उसी प्रकार वीर महाबाहु श्रीराम रथ पर सीता को आगे करके कब अयोध्यापुरी में प्रवेश करेंगे? ॥ १२ ॥
कदा प्राणिसहस्राणि राजमार्गे ममात्मजौ।
लाजैरवकरिष्यन्ति प्रविशन्तावरिंदमौ॥१३॥
‘कब यहाँ के सहस्रों मनुष्य पुरी में प्रवेश करते और राजमार्ग पर चलते हुए मेरे दोनों शत्रुदमन पुत्रों पर लावा (खील)-की वर्षा करेंगे? ॥ १३॥
प्रविशन्तौ कदायोध्यां द्रक्ष्यामि शुभकुण्डलौ।
उदग्रायुधनिस्त्रिंशौ सशृङ्गाविव पर्वतौ॥१४॥
‘उत्तम आयुध एवं खड्ग लिये शिखरयुक्त पर्वतों के समान प्रतीत होने वाले श्रीराम और लक्ष्मण सुन्दर कुण्डलों से अलंकृत हो कब अयोध्यापुरी में प्रवेश करते हुए मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट होंगे? ॥१४॥
कदा सुमनसः कन्या द्विजातीनां फलानि च।
प्रदिशन्त्यः पुरीं हृष्टाः करिष्यन्ति प्रदक्षिणम्॥ १५॥
‘कब ब्राह्मणों की कन्याएँ हर्षपूर्वक फूल और फल अर्पण करती हुई अयोध्यापुरी की परिक्रमा करेंगी? ॥ १५॥
कदा परिणतो बुद्धया वयसा चामरप्रभाः।
अभ्युपैष्यति धर्मात्मा सुवर्ष इव लालयन्॥१६॥
‘कब ज्ञान में बढ़े-चढ़े और अवस्था में देवताओं के समान तेजस्वी धर्मात्मा श्रीराम उत्तम वर्षा की भाँति जनसमुदाय का लालन करते हुए यहाँ पधारेंगे?॥ १६॥
निःसंशयं मया मन्ये पुरा वीर कदर्यया।
पातुकामेषु वत्सेषु मातृणां शातिताः स्तनाः॥ १७॥
‘वीर! इसमें संदेह नहीं कि पूर्व जन्म में मुझ नीच आचार-विचारवाली नारी ने बछड़ों के दूध पीने के लिये उद्यत होते ही उनकी माताओं के स्तन काट दिये होंगे॥१७॥
साहं गौरिव सिंहेन विवत्सा वत्सला कृता।
कैकेय्या पुरुषव्याघ्र बालवत्सेव गौर्बलात्॥ १८॥
‘पुरुषसिंह ! जैसे किसी सिंह ने छोटे-से बछड़े वालीवत्सला गौ को बलपूर्वक बछड़े से हीन कर दिया हो, उसी प्रकार कैकेयी ने मुझे बलात् अपने बेटे से विलग कर दिया है।॥ १८॥
नहि तावद्गुणैर्जुष्टं सर्वशास्त्रविशारदम्।
एकपुत्रा विना पुत्रमहं जीवितुमुत्सहे ॥१९॥
‘जो उत्तम गुणों से युक्त और सम्पूर्ण शास्त्रों में प्रवीण हैं, उन अपने पुत्र श्रीराम के बिना मैं इकलौते बेटेवाली माँ जीवित नहीं रह सकती॥ १९ ॥
न हि मे जीविते किंचित् सामर्थ्यमिह कल्प्यते।
अपश्यन्त्याः प्रियं पुत्रं लक्ष्मणं च महाबलम्॥ २०॥
‘अब प्यारे पुत्र श्रीराम और महाबली लक्ष्मण को देखे बिना मुझमें जीवित रहने की कुछ भी शक्ति नहीं है॥ २०॥
अयं हि मां दीपयतेऽद्य वह्निस्तनूजशोकप्रभवो महाहितः।
महीमिमां रश्मिभिरुत्तमप्रभो यथा निदाघे भगवान् दिवाकरः॥२१॥
‘जैसे ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट प्रभावाले भगवान् सूर्य अपनी किरणों द्वारा इस पृथ्वी को अधिक ताप देते हैं, उसी प्रकार यह पुत्रशोकजनित महान् अहितकारक अग्नि आज मुझे जलाये दे रही है’ ॥ २१॥
सर्ग ४४
विलपन्ती तथा तां तु कौसल्यां प्रमदोत्तमाम्।
इदं धर्मे स्थिता धन॑ सुमित्रा वाक्यमब्रवीत्॥१॥
नारियों में श्रेष्ठ कौसल्या को इस प्रकार विलाप करती देख धर्मपरायणा सुमित्रा यह धर्मयुक्त बात बोली- ॥१॥
तवार्ये सद्गुणैर्युक्तः स पुत्रः पुरुषोत्तमः।
किं ते विलपितेनैवं कृपणं रुदितेन वा ॥२॥
‘आर्ये! तुम्हारे पुत्र श्रीराम उत्तम गुणों से युक्त और पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। उनके लिये इस प्रकार विलाप करना और दीनतापूर्वक रोना व्यर्थ है, इस तरह रोने-धोने से क्या लाभ? ॥२॥
यस्तवार्ये गतः पुत्रस्त्यक्त्वा राज्यं महाबलः।
साधु कुर्वन् महात्मानं पितरं सत्यवादिनम्॥३॥
शिष्टैराचरिते सम्यक्शश्वत् प्रेत्य फलोदये।
रामो धर्मे स्थितः श्रेष्ठो न स शोच्यः कदाचन। ४॥
‘बहिन! जो राज्य छोड़कर अपने महात्मा पिता को भलीभाँति सत्यवादी बनाने के लिये वन में चले गये हैं, वे तुम्हारे महाबली श्रेष्ठ पुत्र श्रीराम उस उत्तम धर्म में स्थित हैं, जिसका सत्पुरुषों ने सर्वदा और सम्यक् प्रकार से पालन किया है तथा जो परलोक में भी सुखमय फल प्रदान करने वाला है। ऐसे धर्मात्मा के लिये कदापि शोक नहीं करना चाहिये॥ ३-४ ॥
वर्तते चोत्तमां वृत्तिं लक्ष्मणोऽस्मिन् सदानघः।
दयावान् सर्वभूतेषु लाभस्तस्य महात्मनः॥५॥
‘निष्पाप लक्ष्मण समस्त प्राणियों के प्रति दयालु हैं। वे सदा श्रीराम के प्रति उत्तम बर्ताव करते हैं, अतः उन महात्मा लक्ष्मण के लिये यह लाभ की ही बात है।
अरण्यवासे यद् दुःखं जानन्त्येव सुखोचिता।
अनुगच्छति वैदेही धर्मात्मानं तवात्मजम्॥६॥
‘विदेहनन्दिनी सीता भी जो सुख भोगने के ही योग्य है, वनवास के दुःखों को भलीभाँति सोच-समझकर ही तुम्हारे धर्मात्मा पुत्र का अनुसरण करती है॥६॥
कीर्तिभूतां पताकां यो लोके भ्रमयति प्रभुः।
धर्मः सत्यव्रतपरः किं न प्राप्तस्तवात्मजः॥७॥
‘जो प्रभु संसार में अपनी कीर्तिमयी पताका फहरा रहे हैं और सदा सत्यव्रत के पालन में तत्पर रहते हैं, उन धर्मस्वरूप तुम्हारे पुत्र श्रीराम को कौन-सा श्रेय प्राप्त नहीं हुआ है॥ ७॥
व्यक्तं रामस्य विज्ञाय शौचं माहात्म्यमुत्तमम्।
न गात्रमंशुभिः सूर्यः संतापयितुमर्हति ॥८॥
‘श्रीराम की पवित्रता और उत्तम माहात्म्य को जानकर निश्चय ही सूर्य अपनी किरणों द्वारा उनके शरीर को संतप्त नहीं कर सकते॥८॥
शिवः सर्वेषु कालेषु काननेभ्यो विनिःसृतः।
राघवं युक्तशीतोष्णः सेविष्यति सुखोऽनिलः॥ ९॥
‘सभी समयों में वनों से निकली हई उचित सरदी और गरमी से युक्त सुखद एवं मङ्गलमय वायु श्रीरघुनाथजी की सेवा करेगी॥९॥
शयानमनघं रात्रौ पितेवाभिपरिष्वजन्।
घर्मघ्नः संस्पृशन् शीतश्चन्द्रमा ह्लादयिष्यति॥ १०॥
‘रात्रिकाल में धूप का कष्ट दूर करने वाले शीतल चन्द्रमा सोते हुए निष्पाप श्रीराम का अपने किरणरूपी करों से आलिङ्गन और स्पर्श करके उन्हें आह्लाद प्रदान करेंगे॥१०॥
ददौ चास्त्राणि दिव्यानि यस्मै ब्रह्मा महौजसे।
दानवेन्द्रं हतं दृष्ट्वा तिमिध्वजसुतं रणे॥११॥
‘श्रीराम के द्वारा रणभूमि में तिमिध्वज (शम्बर)-के पुत्र दानवराज सुबाहु को मारा गया देख विश्वामित्रजी ने उन महातेजस्वी वीरको बहुत-से दिव्यास्त्र प्रदान किये थे॥११॥
स शूरः पुरुषव्याघ्रः स्वबाहुबलमाश्रितः।
असंत्रस्तो शरण्येऽसौ वेश्मनीव निवत्स्यते॥ १२॥
‘वे पुरुषसिंह श्रीराम बड़े शूरवीर हैं। वे अपने ही बाहुबल का आश्रय लेकर जैसे महल में रहते थे, उसी तरह वन में भी निडर होकर रहेंगे॥ १२॥
यस्येषुपथमासाद्य विनाशं यान्ति शत्रवः।
कथं न पृथिवी तस्य शासने स्थातुमर्हति॥१३॥
‘जिनके बाणों का लक्ष्य बनकर सभी शत्रु विनाशको प्राप्त होते हैं, उनके शासन में यह पृथ्वी और यहाँ के प्राणी कैसे नहीं रहेंगे? ॥ १३ ॥
या श्रीः शौर्यं च रामस्य या च कल्याणसत्त्वता।
निवृत्तारण्यवासः स्वं क्षिप्रं राज्यमवाप्स्यति॥ १४॥
‘श्रीराम की जैसी शारीरिक शोभा है, जैसा पराक्रम है और जैसी कल्याणकारिणी शक्ति है, उससे जान पड़ता है कि वे वनवास से लौटकर शीघ्र ही अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे॥१४॥
सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्नः प्रभोः प्रभुः।
श्रियाः श्रीश्च भवेदग्र्या कीर्त्याः कीर्तिः क्षमाक्षमा॥१५॥
दैवतं देवतानां च भूतानां भूतसत्तमः।
तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे॥१६॥
‘देवि! श्रीराम सूर्य के भी सूर्य (प्रकाशक) और अग्नि के भी अग्नि (दाहक) हैं। वे प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की भी उत्तम लक्ष्मी और क्षमा की भी क्षमा हैं। इतना ही नहीं वे देवताओं के भी देवता तथा भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वे वन में रहें या नगर में, उनके लिये कौन-से चराचर प्राणी दोषावह हो सकते हैं। १५-१६॥
पृथिव्या सह वैदेह्या श्रिया च पुरुषर्षभः।
क्षिप्रं तिसृभिरेताभिः सह रामोऽभिषेक्ष्यते॥१७॥
‘पुरुषशिरोमणि श्रीराम शीघ्र ही पृथ्वी, सीता और लक्ष्मी—इन तीनों के साथ राज्य पर अभिषिक्त होंगे। १७॥
दुःख विसृजत्यश्रु निष्क्रामन्तमुदीक्ष्य यम्।
अयोध्यायां जनः सर्वः शोकवेगसमाहतः॥१८॥
कुशचीरधरं वीरं गच्छन्तमपराजितम्।
सीतेवानुगता लक्ष्मीस्तस्य किं नाम दुर्लभम्॥ १९॥
जिनको नगर से निकलते देख अयोध्या का सारा जनसमुदाय शोक के वेग से आहत हो नेत्रों से दुःखके आँसू बहा रहा है, कुश और चीर धारण करके वन को जाते हुए जिन अपराजित नित्यविजयी वीर के पीछे-पीछे सीता के रूप में साक्षात् लक्ष्मी ही गयी है, उनके लिये क्या दुर्लभ है ? ॥ १८-१९॥
धनुर्ग्रहवरो यस्य बाणखड्गास्त्रभृत् स्वयम्।
लक्ष्मणो व्रजति ह्यग्रे तस्य किं नाम दुर्लभम्॥ २०॥
‘जिनके आगे धनुर्धारियों में श्रेष्ठ लक्ष्मण स्वयं बाण और खड्ग आदि अस्त्र लिये जा रहे हैं, उनके लिये जगत् में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥
निवृत्तवनवासं तं द्रष्टासि पुनरागतम्।
जहि शोकं च मोहं च देवि सत्यं ब्रवीमि ते॥ २१॥
‘देवि! मैं तुमसे सत्य कहती हूँ। तुम वनवास की अवधि पूर्ण होने पर यहाँ लौटे हुए श्रीराम को फिर देखोगी, इसलिये तुम शोक और मोह छोड़ दो॥ २१॥
शिरसा चरणावेतौ वन्दमानमनिन्दिते।
पुनर्द्रक्ष्यसि कल्याणि पुत्रं चन्द्रमिवोदितम्॥ २२॥
‘कल्याणि! अनिन्दिते! तुम नवोदित चन्द्रमा के समान अपने पुत्र को पुनः अपने चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करते देखोगी॥ २२॥
पुनः प्रविष्टं दृष्ट्वा तमभिषिक्तं महाश्रियम्।
समुत्स्रक्ष्यसि नेत्राभ्यां शीघ्रमानन्दजं जलम्॥ २३॥
‘राजभवन में प्रविष्ट होकर पुनः राजपद पर अभिषिक्त हुए अपने पुत्र को बड़ी भारी राजलक्ष्मी से सम्पन्न देखकर तुम शीघ्र ही अपने नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाओगी॥ २३॥
मा शोको देवि दुःखं वा न रामे दृष्यतेऽशिवम्।
क्षिप्रं द्रक्ष्यसि पुत्रं त्वं ससीतं सहलक्ष्मणम्॥ २४॥
‘देवि! श्रीराम के लिये तुम्हारे मन में शोक और दुःख नहीं होना चाहिये; क्योंकि उनमें कोई अशुभ बात नहीं दिखायी देती। तुम सीता और लक्ष्मण के साथ अपने पुत्र श्रीराम को शीघ्र ही यहाँ उपस्थित देखोगी॥२४॥
त्वयाऽशेषो जनश्चायं समाश्वास्यो यतोऽनघे।
कमिदानीमिदं देवि करोषि हृदि विक्लवम्॥ २५॥
‘पापरहित देवि! तुम्हें तो इन सब लोगों को धैर्य बँधाना चाहिये, फिर स्वयं ही इस समय अपने हृदय में इतना दुःख क्यों करती हो? ॥ २५ ॥
नार्हा त्वं शोचितुं देवि यस्यास्ते राघवः सुतः।
नहि रामात् परो लोके विद्यते सत्पथे स्थितः॥ २६॥
‘देवि! तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि तुम्हें रघुकुलनन्दन राम-जैसा बेटा मिला है। श्रीराम से बढ़कर सन्मार्ग में स्थिर रहने वाला मनुष्य संसार में दूसरा कोई नहीं है॥ २६॥
अभिवादयमानं तं दृष्ट्वा ससुहृदं सुतम्।
मृदाश्र मोक्ष्यसे क्षिप्रं मेघरेखेव वार्षिकी॥२७॥
‘जैसे वर्षाकाल के मेघों की घटा जल की वृष्टि करती है, उसी प्रकार तुम सुहृदोंसहित अपने पुत्र श्रीराम को अपने चरणों में प्रणाम करते देख शीघ्र ही आनन्दपूर्वक आँसुओं की वर्षा करोगी॥२७॥
पुत्रस्ते वरदः क्षिप्रमयोध्यां पुनरागतः।
कराभ्यां मृदुपीनाभ्यां चरणौ पीडयिष्यति॥ २८॥
‘तुम्हारे वरदायक पुत्र पुनः शीघ्र ही अयोध्या में आकर अपने मोटे-मोटे कोमल हाथों द्वारा तुम्हारे दोनों पैरों को दबायँगे॥ २८॥
अभिवाद्य नमस्यन्तं शूरं ससुहृदं सुतम्।
मुदाझैः प्रोक्षसे पुत्रं मेघराजिरिवाचलम्॥ २९॥
‘जैसे मेघमाला पर्वत को नहलाती है, उसी प्रकार तुम अभिवादन करके नमस्कार करते हुए सुहृदोंसहित अपने शूरवीर पुत् रका आनन्द के आँसुओं से अभिषेक करोगी’ ॥ २९॥
आश्वासयन्ती विविधैश्च वाक्यैः क्योपचारे कुशलानवद्या।
रामस्य तां मातरमेवमुक्त्वा देवी सुमित्रा विरराम रामा॥ ३०॥
बातचीत करने में कुशल, दोषरहित तथा रमणीय रूपवाली देवी सुमित्रा इस प्रकार तरह-तरह की बातों से श्रीराम माता कौसल्या को आश्वासन देती हुई उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गयीं॥३०॥
निशम्य तल्लक्ष्मणमातृवाक्यं रामस्य मातुर्नरदेवपत्न्याः ।
सद्यः शरीरे विननाश शोकः शरद्गतो मेघ इवाल्पतोयः॥३१॥
लक्ष्मण की माता का वह वचन सुनकर महाराज दशरथ की पत्नी तथा श्रीराम की माता कौसल्या का सारा शोक उनके शरीर (मन) में ही तत्काल विलीन हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे शरद् ऋतु का थोड़े जलवाला बादल शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो जाता है। ३१॥
सर्ग ४५
अनुरक्ता महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्।
अनुजग्मुः प्रयान्तं तं वनवासाय मानवाः॥१॥
उधर सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम जब वन की ओर जाने लगे, उस समय उनके प्रति अनुराग रखने वाले बहुत-से अयोध्यावासी मनुष्य वन में निवास करने के लिये उनके पीछे-पीछे चल दिये॥ १॥
निवर्तितेऽतीव बलात् सुहृद्धर्मेण राजनि।
नैव ते संन्यवर्तन्त रामस्यानुगता रथम्॥२॥
जिसके जल्दी लौटने की कामना की जाय, उस स्वजन को दूर तक नहीं पहुँचाना चाहिये’–इत्यादि रूप से बताये गये सुहृद्धर्म के अनुसार जब राजा दशरथ बलपूर्वक लौटा दिये गये, तब भी जो श्रीरामजी के रथ के पीछे-पीछे लगे हुए थे, वे अयोध्यावासी अपने घर की ओर नहीं लौटे॥२॥
अयोध्यानिलयानां हि पुरुषाणां महायशाः।
बभूव गुणसम्पन्नः पूर्णचन्द्र इव प्रियः॥३॥
क्योंकि अयोध्यावासी पुरुषों के लिये सद्गुणसम्पन्न महायशस्वी श्रीराम पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रिय हो गये थे॥
स याच्यमानः काकुत्स्थस्ताभिः प्रकृतिभिस्तदा।
कुर्वाणः पितरं सत्यं वनमेवान्वपद्यत॥४॥
उन प्रजाजनों ने श्रीराम से घर लौट चलने के लिये बहुत प्रार्थना की; किंतु वे पिता के सत्य की रक्षा करने के लिये वन की ओर ही बढ़ते गये॥४॥
अवेक्षमाणः सस्नेहं चक्षुषा प्रपिबन्निव।
उवाच रामः सस्नेहं ताः प्रजाः स्वाः प्रजा इव॥
वे प्रजाजनों को इस प्रकार स्नेहभरी दृष्टि से देख रहे थे मानो नेत्रों से उन्हें पी रहे हों। उस समय श्रीराम ने अपनी संतान के समान प्रिय उन प्रजाजनों से स्नेहपूर्वक कहा— ॥ ५॥
या प्रीतिर्बहुमानश्च मय्ययोध्यानिवासिनाम्।
मत्प्रियार्थं विशेषेण भरते सा विधीयताम्॥६॥
‘अयोध्यानिवासियों का मेरे प्रति जो प्रेम और आदर है, वह मेरी ही प्रसन्नता के लिये भरत के प्रति और अधिक रूप में होना चाहिये॥६॥
स हि कल्याणचारित्रः कैकेय्यानन्दवर्धनः।
करिष्यति यथावद् वः प्रियाणि च हितानि च॥ ७॥
‘उनका चरित्र बड़ा ही सुन्दर और सबका कल्याण करने वाला है। कैकेयी का आनन्द बढ़ाने वाले भरत आप लोगों का यथावत् प्रिय और हित करेंगे॥७॥
ज्ञानवृद्धो वयोबालो मृदुर्वीर्यगुणान्वितः।
अनुरूपः स वो भर्ता भविष्यति भयापहः॥८॥
‘वे अवस्था में छोटे होने पर भी ज्ञान में बड़े हैं। पराक्रमोचित गुणों से सम्पन्न होने पर भी स्वभाव के बड़े कोमल हैं। वे आपलोगों के लिये योग्य राजा होंगे और प्रजा के भय का निवारण करेंगे॥८॥
स हि राजगुणैर्युक्तो युवराजः समीक्षितः।
अपि चापि मया शिष्टैः कार्यं वो भर्तृशासनम्॥ ९॥
‘वे मुझसे भी अधिक राजोचित गुणों से युक्त हैं, इसीलिये महाराज ने उन्हें युवराज बनाने का निश्चय किया है; अतः आपलोगों को अपने स्वामी भरत की आज्ञा का सदा पालन करना चाहिये॥९॥
न संतप्येद् यथा चासौ वनवासं गते मयि।
महाराजस्तथा कार्यो मम प्रियचिकीर्षया॥१०॥
‘मेरे वन में चले जाने पर महाराज दशरथ जिस प्रकार भी शोक से संतप्त न होने पायें, इस बात के लिये आपलोग सदा चेष्टा रखें। मेरा प्रिय करने की इच्छा से आपको मेरी इस प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देना चाहिये’॥
यथा यथा दाशरथिर्धर्ममेवाश्रितो भवेत।
तथा तथा प्रकृतयो रामं पतिमकामयन्॥११॥
दशरथनन्दन श्रीराम ने ज्यों-ज्यों धर्म का आश्रय लेने के लिये ही दृढ़ता दिखायी, त्यों-ही-त्यों प्रजाजनों के मन में उन्हीं को अपना स्वामी बनाने की इच्छा प्रबल होती गयी॥
बाष्पेण पिहितं दीनं रामः सौमित्रिणा सह।
चकर्षेव गुणैर्बद्धं जनं पुरनिवासिनम्॥१२॥
समस्त पुरवासी अत्यन्त दीन होकर आँसू बहा रहे थे और लक्ष्मणसहित श्रीराम मानो अपने गुणों में बाँधकर उन्हें खींचे लिये जा रहे थे॥ १२ ॥
ते द्विजास्त्रिविधं वृद्धा ज्ञानेन वयसौजसा।
वयःप्रकम्पशिरसो दूरादूचुरिदं वचः॥१३॥
उनमें बहुत-से ब्राह्मण थे, जो ज्ञान, अवस्था और तपोबल–तीनों ही दृष्टियों से बड़े थे। वृद्धावस्था के कारण कितनों के तो सिर काँप रहे थे। वे दूर से ही इस प्रकार बोले- ॥१३॥
वहन्तो जवना रामं भो भो जात्यास्तुरंगमाः।
निवर्तध्वं न गन्तव्यं हिता भवत भर्तरि ॥१४॥
‘अरे! ओ तेज चलने वाले अच्छी जाति के घोड़ो!तुम बड़े वेगशाली हो और श्रीराम को वन की ओर लिये जा रहे हो, लौटो! अपने स्वामी के हितैषी बनो! तुम्हें वन में नहीं जाना चाहिये॥ १४ ॥
कर्णवन्ति हि भूतानि विशेषेण तुरङ्गमाः।
यूयं तस्मान्निवर्तध्वं याचनां प्रतिवेदिताः॥१५॥
‘यों तो सभी प्राणियों के कान होते हैं, परंतु घोड़ों के कान बड़े होते हैं; अतः तुम्हें हमारी याचना का ज्ञान तो हो ही गया होगा; इसलिये घर की ओर लौट चलो॥ १५॥
धर्मतः स विशुद्धात्मा वीरः शुभदृढव्रतः।
उपवाह्यस्तु वो भर्ता नापवाह्यः पुराद् वनम्॥ १६॥
‘तुम्हारे स्वामी श्रीराम विशुद्धात्मा, वीर और उत्तम व्रत का दृढ़ता से पालन करने वाले हैं, अतः तुम्हें इनका उपवहन करना चाहिये—इन्हें बाहर से नगर के समीप ले चलना चाहिये। नगर से वन की ओर इनका अपवहन करना—इन्हें ले जाना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है’ ॥ १६॥
एवमार्तप्रलापांस्तान् वृद्धान् प्रलपतो द्विजान्।
अवेक्ष्य सहसा रामो रथादवततार ह॥१७॥
वृद्ध ब्राह्मणों को इस प्रकार आर्तभाव से प्रलाप करते देख श्रीरामचन्द्रजी सहसा रथ से नीचे उतर गये॥
पद्भ्यामेव जगामाथ ससीतः सहलक्ष्मणः।
संनिकृष्टपदन्यासो रामो वनपरायणः॥१८॥
वे सीता और लक्ष्मण के साथ पैदल ही चलने लगे। ब्राह्मणों का साथ न छूटे, इसके लिये वे अपना पैर बहुत निकट रखते थे-लंबे डग से नहीं चलते थे। वन में पहुँचना ही उनकी यात्रा का परम लक्ष्य था।॥ १८॥
द्विजातीन् हि पदातींस्तान् रामश्चारित्रवत्सलः।
न शशाक घृणाचक्षुः परिमोक्तुं रथेन सः॥१९॥
श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र में वात्सल्य-गुण की प्रधानता थी। उनकी दृष्टि में दया भरी हुई थी; इसलिये वे रथ के द्वारा चलकर उन पैदल चलने वाले ब्राह्मणों को पीछे छोड़ने का साहस न कर सके॥ १९॥
गच्छन्तमेव तं दृष्ट्वा रामं सम्भ्रान्तमानसाः।
ऊचुः परमसंतप्ता रामं वाक्यमिदं द्विजाः॥२०॥
श्रीराम को अब भी वन की ओर ही जाते देख वे ब्राह्मण मन-ही-मन घबरा उठे और अत्यन्त संतप्त होकर उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २०॥
ब्राह्मण्यं कृत्स्नमेतत् त्वां ब्रह्मण्यमनुगच्छति।
द्विजस्कन्धाधिरूढास्त्वामग्नयोऽप्यनुयान्त्वमी॥ २१॥
‘रघुनन्दन! तुम ब्राह्मणों के हितैषी हो, इसीसे यह सारा ब्राह्मण-समाज तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा है। इन ब्राह्मणों के कंधों पर चढ़कर अग्निदेव भी तुम्हारा अनुसरण कर रहे हैं॥ २१॥
वाजपेयसमुत्थानि च्छत्राण्येतानि पश्य नः।
पृष्ठतोऽनुप्रयातानि मेघानिव जलात्यये॥ २२॥
‘वर्षा बीतने पर शरद् ऋतु में दिखायी देने वाले सफेद बादलों के समान हमारे इन श्वेत छत्रों की ओर देखो, जो तुम्हारे पीछे-पीछे चल पड़े हैं। ये हमें वाजपेय-यज्ञ में प्राप्त हुए थे॥ २२॥
अनवाप्तातपत्रस्य रश्मिसंतापितस्य ते।
एभिश्छायां करिष्यामः स्वैश्छत्रैर्वाजपेयकैः॥ २३॥
‘तुम्हें राजकीय श्वेतच्छत्र नहीं प्राप्त हुआ, अतएव तुम सूर्यदेव की किरणों से संतप्त हो रहे हो। इस अवस्था में हम वाजपेय-यज्ञ में प्राप्त हुए इन अपने छत्रों द्वारा तुम्हारे लिये छाया करेंगे॥ २३ ॥
या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी।
त्वत्कृते सा कृता वत्स वनवासानुसारिणी॥२४॥
‘वत्स! हमारी जो बुद्धि सदा वेदमन्त्रों के पीछे चलती थी—उन्हीं के चिन्तन में लगी रहती थी, वही तुम्हारे लिये वनवास का अनुसरण करने वाली हो गयी है।॥ २४॥
हृदयेष्ववतिष्ठन्ते वेदा ये नः परं धनम्।
वत्स्यन्त्यपि गृहेष्वेव दाराश्चारित्ररक्षिताः॥२५॥
‘जो हमारे परम धन वेद हैं, वे हमारे हृदयों में स्थित हैं। हमारी स्त्रियाँ अपने चरित्रबल से सुरक्षित रहकर घरों में ही रहेंगी॥२५॥
पुनर्न निश्चयः कार्यस्त्वद्गतौ सुकृता मतिः।
त्वयि धर्मव्यपेक्षे तु किं स्याद् धर्मपथे स्थितम्॥ २६॥
‘अब हमें अपने कर्तव्य के विषय में पुनः कुछ निश्चय नहीं करना है। हमने तुम्हारे साथ जाने का विचार स्थिर कर लिया है। तो भी हमें इतना अवश्य कहना है कि ‘जब तुम ही ब्राह्मण की आज्ञा के पालनरूपी धर्म की ओर से निरपेक्ष हो जाओगे, तब दूसरा कौन प्राणी धर्ममार्ग पर स्थित रह सकेगा। २६॥
याचितो नो निवर्तस्व हंसशुक्लशिरोरुहैः ।
शिरोभिर्निभृताचार महीपतनपांसुलैः॥२७॥
‘सदाचार का पोषण करने वाले श्रीराम! हमारे सिर के बाल पककर हंस के समान सफेद हो गये हैं और पृथ्वी पर पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम करने से इनमें धूल भर गयी है। हम अपने ऐसे मस्तकों को झुकाकर तुमसे याचना करते हैं कि तुम घर को लौट चलो (वे तत्त्वज्ञ ब्राह्मण यह जानते थे कि श्रीराम साक्षात् भगवान् विष्णु हैं। इसीलिये उनका श्रीराम के प्रति प्रणाम करना दोष की बात नहीं है)।
बहूनां वितता यज्ञा द्विजानां य इहागताः।
तेषां समाप्तिरायत्ता तव वत्स निवर्तने ॥२८॥
(इतने पर भी जब श्रीराम नहीं रुके, तब वे ब्राह्मण । बोले-) वत्स! जो लोग यहाँ आये हैं, इनमें बहुत। से ऐसे ब्राह्मण हैं, जिन्होंने यज्ञ आरम्भ कर दियाहै;अब इनके यज्ञोंकी समाप्ति तुम्हारे लौटनेपर ही निर्भर है॥
भक्तिमन्तीह भूतानि जङ्गमाजङ्गमानि च।
याचमानेषु तेषु त्वं भक्तिं भक्तेषु दर्शय॥ २९॥
‘संसार के स्थावर और जङ्गम सभी प्राणी तुम्हारे प्रति भक्ति रखते हैं। वे सब तुमसे लौट चलने की प्रार्थना कर रहे हैं। अपने उन भक्तों पर तुम अपना स्नेह दिखाओ॥
अनुगन्तुमशक्तास्त्वां मूलैरुद्धतवेगिनः।
उन्नता वायुवेगेन विक्रोशन्तीव पादपाः॥३०॥
‘ये वृक्ष अपनी जड़ों के कारण अत्यन्त वेगहीन हैं, इसी से तुम्हारे पीछे नहीं चल सकते; परंतु वायु के वेग से इनमें जो सनसनाहट पैदा होती है, उनके द्वारा ये ऊँचे वृक्ष मानो तुम्हें पुकार रहे हैं तुमसे लौट चलने की प्रार्थना कर रहे हैं॥ ३० ॥
निश्चेष्टाहारसंचारा वृक्षकस्थाननिश्चिताः।
पक्षिणोऽपि प्रयाचन्ते सर्वभूतानुकम्पिनम्॥३१॥
‘जो सब प्रकार की चेष्टा छोड़ चुके हैं, चारा चुगने के लिये भी कहीं उड़कर नहीं जाते हैं और निश्चित रूप से वृक्ष के एक स्थान पर ही पड़े रहते हैं, वे पक्षी भी तुमसे लौट चलने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं; क्योंकि तुम समस्त प्राणियों पर कृपा करने वाले हो’ ॥ ३१॥
एवं विक्रोशतां तेषां द्विजातीनां निवर्तने।
ददृशे तमसा तत्र वारयन्तीव राघवम्॥३२॥
इस प्रकार श्रीराम से लौटने के लिये पुकार मचाते हुए उन ब्राह्मणों पर मानो कृपा करने के लिये मार्ग में तमसा नदी दिखायी दी, जो अपने तिर्यक्-प्रवाह (तिरछी धारा) से श्रीरघुनाथजी को रोकती हुई-सी प्रतीत होती थी॥ ३२॥
ततः सुमन्त्रोऽपि रथाद् विमुच्य श्रान्तान् हयान् सम्परिवर्त्य शीघ्रम्।
पीतोदकांस्तोयपरिप्लुताङ्गानचारयद् वै तमसाविदूरे॥३३॥
वहाँ पहुँचने पर सुमन्त्र ने भी थके हुए घोड़ों को शीघ्र ही रथ से खोलकर उन सबको टहलाया, फिर पानी पिलाया और नहलाया, तत्पश्चात् तमसा के निकट ही चरने के लिये छोड़ दिया॥३३॥
सर्ग ४६
ततस्तु तमसातीरं रम्यमाश्रित्य राघवः।
सीतामुद्रीक्ष्य सौमित्रिमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर तमसा के रमणीय तट का आश्रय लेकर श्रीराम ने सीता की ओर देखकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ॥१॥
इयमद्य निशा पूर्वा सौमित्रे प्रहिता वनम्।
वनवासस्य भद्रं ते न चोत्कण्ठितुमर्हसि ॥२॥
‘सुमित्रानन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। हमलोग जो वन की ओर प्रस्थित हुए हैं, हमारे उस वनवास की आज यह पहली रात प्राप्त हुई है; अतः अब तुम्हें नगर के लिये उत्कण्ठित नहीं होना चाहिये॥२॥
पश्य शून्यान्यरण्यानि रुदन्तीव समन्ततः।
यथानिलयमायद्भिर्निलीनानि मृगद्विजैः॥३॥
‘इन सूने वनों की ओर तो देखो, इनमें वन्य पशु पक्षी अपने-अपने स्थान पर आकर अपनी बोली बोल रहे हैं। उनके शब्द से सारी वनस्थली व्याप्त हो गयी है, मानो ये सारे वन हमें इस अवस्था में देखकर खिन्न हो सब ओर से रो रहे हैं॥३॥
अद्यायोध्या तु नगरी राजधानी पितुर्मम।
सस्त्रीपुंसा गतानस्मान् शोचिष्यति न संशयः॥ ४॥
‘आज मेरे पिता की राजधानी अयोध्या नगरी वन में आये हुए हमलोगों के लिये समस्त नर-नारियों सहित शोक करेगी, इसमें संशय नहीं है॥ ४॥
अनुरक्ता हि मनुजा राजानं बहुभिर्गुणैः।
त्वां च मां च नरव्याघ्र शत्रुघ्नभरतौ तथा॥५॥
‘पुरुषसिंह! अयोध्या के मनुष्य बहुत-से सद्गुणों के कारण महाराज में, तुममें, मुझमें तथा भरत और शत्रुघ्न में भी अनुरक्त हैं ॥ ५ ॥
पितरं चानुशोचामि मातरं च यशस्विनीम्।
अपि नान्धौ भवेतां नौ रुदन्तौ तावभीक्ष्णशः॥
‘इस समय मुझे पिता और यशस्विनी माता के लिये बड़ा शोक हो रहा है; कहीं ऐसा न हो कि वे निरन्तर रोते रहने के कारण अंधे हो जायँ॥ ६॥
भरतः खलु धर्मात्मा पितरं मातरं च मे।
धर्मार्थकामसहितैर्वाक्यैराश्वासयिष्यति॥७॥
‘परंतु भरत बड़े धर्मात्मा हैं अवश्य ही वे धर्म, अर्थ और काम–तीनों के अनुकूल वचनों द्वारा पिताजी को और मेरी माता को भी सान्त्वना देंगे॥७॥
भरतस्यानृशंसत्वं संचिन्त्याहं पुनः पुनः।
नानुशोचामि पितरं मातरं च महाभुज॥८॥
‘महाबाहो! जब मैं भरतके कोमल स्वभावका बार-बार स्मरण करता हूँ, तब मुझे माता-पिताके लिये अधिक चिन्ता नहीं होती॥ ८॥
त्वया कार्यं नरव्याघ्र मामनुव्रजता कृतम्।
अन्वेष्टव्या हि वैदेह्या रक्षणार्थं सहायता॥९॥
‘नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! तुमने मेरे साथ आकर बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है; क्योंकि तुम न आते तोमुझे विदेहकुमारी सीताकी रक्षाके लिये कोई सहायक ढूँढ़ना पड़ता॥९॥
अद्भिरेव हि सौमित्रे वत्स्याम्यद्य निशामिमाम्।
एतद्धि रोचते मह्यं वन्येऽपि विविधे सति॥१०॥
‘सुमित्रानन्दन! यद्यपि यहाँ नाना प्रकार के जंगली फल-मूल मिल सकते हैं तथापि आज की यह रात मैं केवल जल पीकर ही बिताऊँगा। यही मुझे अच्छा जान पड़ता है’ ॥ १०॥
एवमुक्त्वा तु सौमित्रिं सुमन्त्रमपि राघवः।
अप्रमत्तस्त्वमश्वेषु भव सौम्येत्युवाच ह ॥११॥
लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने सुमन्त्र से भी कहा—’सौम्य ! अब आप घोड़ों की रक्षा पर ध्यान दें, उनकी ओर से असावधान न हों’ ॥ ११॥
सोऽश्वान् सुमन्त्रः संयम्य सूर्येऽस्तं समुपागते।
प्रभूतयवसान् कृत्वा बभूव प्रत्यनन्तरः॥१२॥
सुमन्त्र ने सूर्यास्त हो जानेपर घोड़ों को लाकर बाँध दिया और उनके आगे बहुत-सा चारा डालकर वे श्रीराम के पास आ गये॥ १२ ॥
उपास्य तु शिवां संध्यां दृष्ट्वा रात्रिमुपागताम्।
रामस्य शयनं चक्रे सूतः सौमित्रिणा सह ॥१३॥
फिर (वर्णानुकूल) कल्याणमयी संध्योपासना करके रात आयी देख लक्ष्मणसहित सुमन्त्र ने श्रीरामचन्द्रजी के शयन करने योग्य स्थान और आसन ठीक किया॥१३॥
तां शय्यां तमसातीरे वीक्ष्य वृक्षदलैर्वृताम्।
रामः सौमित्रिणा सार्धं सभार्यः संविवेश ह॥ १४॥
तमसा के तट पर वृक्ष के पत्तों से बनी हुई वह शय्या देखकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण और सीता के साथ उसपर बैठे॥१४॥
सभार्यं सम्प्रसुप्तं तु श्रान्तं सम्प्रेक्ष्य लक्ष्मणः।
कथयामास सूताय रामस्य विविधान् गुणान्॥ १५॥
थोड़ी देर में सीतासहित श्रीराम को थककर सोया हुआ देख लक्ष्मण सुमन्त्र से उनके नाना प्रकार के गुणों का वर्णन करने लगे॥ १५॥
जाग्रतोरेव तां रात्रिं सौमित्रेरुदितो रविः।
सूतस्य तमसातीरे रामस्य ब्रुवतो गुणान्॥१६॥
सुमन्त्र और लक्ष्मण तमसा के किनारे श्रीराम के गुणों की चर्चा करते हुए रातभर जागते रहे। इतने ही में सूर्योदय का समय निकट आ पहुँचा॥ १६ ॥
गोकुलाकुलतीरायास्तमसाया विदूरतः।
अवसत् तत्र तां रात्रिं रामः प्रकृतिभिः सह॥ १७॥
तमसा का वह तट गौओं के समुदाय से भरा हुआ था। श्रीरामचन्द्रजी ने प्रजाजनों के साथ वहीं रात्रि में निवास किया। वे प्रजाजनों से कुछ दूर पर सोये थे॥ १७॥
उत्थाय च महातेजाः प्रकृतीस्ता निशाम्य च।
अब्रवीद् भ्रातरं रामो लक्ष्मणं पुण्यलक्षणम्॥ १८॥
महातेजस्वी श्रीराम तड़के ही उठे और प्रजाजनों को सोते देख पवित्र लक्षणों वाले भाई लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ॥१८॥
अस्मद्व्यपेक्षान् सौमित्रे निळपेक्षान् गृहेष्वपि।
वृक्षमूलेषु संसक्तान् पश्य लक्ष्मण साम्प्रतम्॥ १९॥
‘सुमित्राकुमार लक्ष्मण! इन पुरवासियों की ओर देखो, ये इस समय वृक्षों की जड़ से सटकर सो रहे हैं। इन्हें केवल हमारी चाह है। ये अपने घरों की ओर से भी पूर्ण निरपेक्ष हो गये हैं॥ १९॥
यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने।
अपि प्राणान् न्यसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम्॥२०॥
‘हमें लौटा ले चलने के लिये ये जैसा उद्योग कर रहे हैं, इससे जान पड़ता है, ये अपना प्राण त्याग देंगे; किंतु अपना निश्चय नहीं छोड़ेंगे॥ २० ॥
यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु।
रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम्॥२१॥
‘अतः जबतक ये सो रहे हैं तभीतक हमलोग रथ पर सवार होकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ से चल दें। फिर हमें इस मार्गपर और किसी के आने का भय नहीं रहेगा॥ २१॥
अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिताः॥२२॥
‘अयोध्यावासी हमलोगों के अनुरागी हैं। जब हम यहाँ से निकल चलेंगे, तब उन्हें फिर अब इस प्रकार वृक्षों की जड़ों से सटकर नहीं सोना पड़ेगा॥ २२॥
पौरा ह्यात्मकृताद् दुःखाद् विप्रमोच्या नृपात्मजैः ।
न तु खल्वात्मना योज्या दुःखेन पुरवासिनः॥ २३॥
‘राजकुमारों का यह कर्तव्य है कि वे पुरवासियों को अपने द्वारा होने वाले दुःख से मुक्त करें, न कि अपना दुःख देकर उन्हें और दुःखी बना दें’॥ २३॥
अब्रवील्लक्ष्मणो रामं साक्षाद् धर्ममिव स्थितम्।
रोचते मे तथा प्राज्ञ क्षिप्रमारुह्यतामिति ॥ २४॥
यह सुनकर लक्ष्मण ने साक्षात् धर्म के समान विराजमान भगवान् श्रीराम से कहा—’परम बुद्धिमान् आर्य! मुझे आपकी राय पसंद है। शीघ्र ही रथ पर सवार होइये’ ॥२४॥
अथ रामोऽब्रवीत् सूतं शीघ्रं संयुज्यतां रथः।
गमिष्यामि ततोऽरण्यं गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥
तब श्रीराम ने सुमन्त्र से कहा—’प्रभो! आप जाइये और शीघ्र ही रथ जोतकर तैयार कीजिये फिर मैं जल्दी ही यहाँ से वन की ओर चलूँगा’ ॥ २५ ॥
सूतस्ततः संत्वरितः स्यन्दनं तैर्हयोत्तमैः।
योजयित्वा तु रामस्य प्राञ्जलिः प्रत्यवेदयत्॥ २६॥
आज्ञा पाकर सुमन्त्र ने उन उत्तम घोड़ों को तुरंत ही रथ में जोत दिया और श्रीराम के पास हाथ जोड़कर निवेदन किया- ॥ २६॥
अयं युक्तो महाबाहो रथस्ते रथिनां वर।
त्वरयाऽऽरोह भद्रं ते ससीतः सहलक्ष्मणः॥२७॥
‘महाबाहो! रथियों में श्रेष्ठ वीर! आपका कल्याण हो आपका यह रथ जुता हुआ तैयार है अब सीता और लक्ष्मण के साथ शीघ्र इस पर सवार होइये’॥ २७॥
तं स्यन्दनमधिष्ठाय राघवः सपरिच्छदः।
शीघ्रगामाकुलावर्ती तमसामतरन्नदीम्॥२८॥
श्रीरामचन्द्रजी सबके साथ रथ पर बैठकर तीव्रगति से बहने वाली भँवरों से भरी हुई तमसा नदी के उस पार गये॥ २८॥
स संतीर्य महाबाहुः श्रीमान् शिवमकण्टकम्।
प्रापद्यत महामार्गमभयं भयदर्शिनाम्॥२९॥
नदी को पार करके महाबाहु श्रीमान् राम ऐसे महान् मार्ग पर जा पहुँचे जो कल्याणप्रद, कण्टकरहित तथा सर्वत्र भय देखने वालों के लिये भी भय से रहित था। २९॥
मोहनार्थं तु पौराणां सूतं रामोऽब्रवीद् वचः।
उदमखः प्रयाहि त्वं रथमारुह्य सारथे॥३०॥
मुहूर्तं त्वरितं गत्वा निवर्तय रथं पुनः।
यथा न विद्युः पौरा मां तथा कुरु समाहितः॥ ३१॥
उस समय श्रीराम ने पुरवासियों को भुलावा देने के लिये सुमन्त्र से यह बात कही—’सारथे! (हम लोग तो यहीं उतर जाते हैं;) परंतु आप रथ पर आरूढ़ होकरपहले उत्तर दिशा की ओर जाइये। दो घड़ी तक तीव्रगति से उत्तर जाकर फिर दूसरे मार्ग से रथ को यहीं लौटा लाइये। जिस तरह भी पुरवासियों को मेरा पता न चले, वैसा एकाग्रतापूर्वक प्रयत्न कीजिये’। ३०-३१॥
रामस्य तु वचः श्रुत्वा तथा चक्रे च सारथिः।
प्रत्यागम्य च रामस्य स्यन्दनं प्रत्यवेदयत्॥ ३२॥
श्रीरामजीका यह वचन सुनकर सारथिने वैसा ही किया और लौटकर पुनः श्रीरामकी सेवामें रथ उपस्थित कर दिया॥ ३२॥
तौ सम्प्रयुक्तं तु रथं समास्थितौ तदा ससीतौ रघुवंशवर्धनौ।
प्रचोदयामास ततस्तुरंगमान् स सारथिर्येन पथा तपोवनम्॥३३॥
तत्पश्चात् सीतासहित श्रीराम और लक्ष्मण, जो रघुवंश की वृद्धि करने वाले थे, लौटाकर लाये गये उस रथ पर चढ़े तदनन्तर सारथि ने घोड़ों को उस मार्गपर बढ़ा दिया, जिससे तपोवन में पहुँचा जा सकता था॥ ३३॥
ततः समास्थाय रथं महारथः ससारथिर्दाशरथिर्वनं ययौ।
उदमखं तं तु रथं चकार प्रयाणमाङ्गल्यनिमित्तदर्शनात्॥ ३४॥
तदनन्तर सारथिसहित महारथी श्रीराम ने यात्राकालिक मङ्गलसूचक शकुन देखने के लिये पहले तो उस रथ को उत्तराभिमुख खड़ा किया; फिर वे उस रथ पर आरूढ़ होकर वन की ओर चल दिये। ३४॥
सर्ग ४७
प्रभातायां तु शर्वर्यां पौरास्ते राघवं विना।
शोकोपहतनिश्चेष्टा बभूवुर्हतचेतसः॥१॥
इधर रात बीतने पर जब सबेरा हुआ, तब अयोध्यावासी मनुष्य श्रीरघुनाथजी को न देखकर अचेत हो गये। शोक से व्याकुल होने के कारण उनसे कोई भी चेष्टा करते न बनी॥१॥
शोकजाश्रुपरिघुना वीक्षमाणास्ततस्ततः।
आलोकमपि रामस्य न पश्यन्ति स्म दुःखिताः॥ २॥
वे शोकजनित आँसू बहाते हुए अत्यन्त खिन्न हो गये तथा इधर-उधर उनकी खोज करने लगे। परंतु उन दुःखी पुरवासियों को श्रीराम किधर गये, इस बातका पता देने वाला कोई चिह्नतक नहीं दिखायी दिया॥२॥
ते विषादातवदना रहितास्तेन धीमता।
कृपणाः करुणा वाचो वदन्ति स्म मनीषिणः॥ ३॥
बुद्धिमान् श्रीराम से विलग होकर वे अत्यन्त दीन हो गये। उनके मुख पर विषादजनित वेदना स्पष्ट दिखायी देती थी। वे मनीषी पुरवासी करुणा भरे वचन बोलते हुए विलाप करने लगे- ॥३॥
धिगस्तु खलु निद्रां तां ययापहतचेतसः।
नाद्य पश्यामहे रामं पृथूरस्कं महाभुजम्॥४॥
‘हाय! हमारी उस निद्रा को धिक्कार है, जिससे अचेत हो जाने के कारण हम उस समय विशाल वक्ष वाले महाबाहु श्रीराम के दर्शन से वञ्चित हो गये हैं॥४॥
कथं रामो महाबाहुः स तथावितथक्रियः।
भक्तं जनमभित्यज्य प्रवासं तापसो गतः॥५॥
‘जिनकी कोई भी क्रिया कभी निष्फल नहीं होती,वे तापस वेषधारी महाबाहु श्रीराम हम भक्तजनों को छोड़कर परदेश (वन) में कैसे चले गये? ॥ ५ ॥
यो नः सदा पालयति पिता पुत्रानिवौरसान्।
कथं रघूणां स श्रेष्ठस्त्यक्त्वा नो विपिनं गतः॥ ६॥
‘जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार जो सदा हमारी रक्षा करते थे, वे ही रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम आज हमें छोड़कर वन को क्यों चले गये? ॥ ६॥
इहैव निधनं याम महाप्रस्थानमेव वा।
रामेण रहितानां नो किमर्थं जीवितं हितम्॥७॥
‘अब हमलोग यहीं प्राण दे दें या मरने का निश्चय करके उत्तर दिशा की ओर चल दें। श्रीराम से रहित होकर हमारा जीवन-धारण किसलिये हितकर हो सकता है ? ॥ ७॥
सन्ति शुष्काणि काष्ठानि प्रभूतानि महान्ति च।
तैः प्रज्वाल्य चितां सर्वे प्रविशामोऽथवा वयम्॥ ८॥
‘अथवा यहाँ बहुत-से बड़े-बड़े सूखे काठ पड़े हैं, उनसे चिता जलाकर हम सब लोग उसी में प्रवेश कर जायँ॥ ८॥
किं वक्ष्यामो महाबाहुरनसूयः प्रियंवदः।
नीतः स राघवोऽस्माभिरिति वक्तुं कथं क्षमम्॥
(यदि हमसे कोई श्रीराम का वृत्तान्त पूछेगा तो हम उसे क्या उत्तर देंगे?) क्या हम यह कहेंगे कि जो किसी के दोष नहीं देखते और सबसे प्रिय वचन बोलते हैं, उन महाबाहु श्रीरघुनाथजी को हमने वन में पहुँचा दिया है ? हाय! यह अयोग्य बात हमारे मुँह से कैसे निकल सकती है ? ॥९॥
सा नूनं नगरी दीना दृष्ट्वास्मान् राघवं विना।
भविष्यति निरानन्दा सस्त्रीबालवयोऽधिका॥१०॥
‘श्रीराम के बिना हमलोगों को लौटा हुआ देखकर स्त्री, बालक और वृद्धोंसहित सारी अयोध्यानगरी निश्चय ही दीन और आनन्दहीन हो जायगी॥ १० ॥
निर्यातास्तेन वीरेण सह नित्यं महात्मना।
विहीनास्तेन च पुनः कथं द्रक्ष्याम तां पुरीम्॥११॥
‘हमलोग वीरवर महात्मा श्रीराम के साथ सर्वदा निवास करने के लिये निकले थे अब उनसे बिछुड़कर हम अयोध्यापुरी को कैसे देख सकेंगे’॥ ११॥
इतीव बहुधा वाचो बाहुमुद्यम्य ते जनाः।
विलपन्ति स्म दुःखार्ता हृतवत्सा इवाग्रयगाः॥ १२॥
इस प्रकार अनेक तरह की बातें कहते हुए वे समस्त पुरवासी अपनी भुजा उठाकर विलाप करने लगे। वे बछड़ों से बिछुड़ी हुई अग्रगामिनी गौओं की भाँति दुःख से व्याकुल हो रहे थे॥ १२॥
ततो मार्गानुसारेण गत्वा किंचित् ततः क्षणम्।
मार्गनाशाद् विषादेन महता समभिप्लुताः॥१३॥
फिर रास्ते पर रथ की लीक देखते हुए सब-के-सब कुछ दूर तक गये; किंतु क्षणभर में मार्गका चिह्न न मिलने के कारण वे महान् शोक में डूब गये॥१३॥
रथमार्गानुसारेण न्यवर्तन्त मनस्विनः।
किमिदं किं करिष्यामो दैवेनोपहता इति॥१४॥
उस समय यह कहते हुए कि ‘यह क्या हुआ? अब हम क्या करें? दैव ने हमें मार डाला’ वे मनस्वी पुरुष रथ की लीक का अनुसरण करते हुए अयोध्या की ओर लौट पड़े॥ १४ ॥
तदा यथागतेनैव मार्गेण क्लान्तचेतसः।
अयोध्यामगमन् सर्वे पुरीं व्यथितसज्जनाम्॥ १५॥
उनका चित्त क्लान्त हो रहा था। वे सब जिस मार्ग से गये थे, उसी से लौटकर अयोध्यापुरी में जा पहुँचे, जहाँ के सभी सत्पुरुष श्रीराम के लिये व्यथित थे॥ १५॥
आलोक्य नगरी तां च क्षयव्याकुलमानसाः।
आवर्तयन्त तेऽणि नयनैः शोकपीडितैः॥१६॥
उस नगरी को देखकर उनका हृदय दुःख से व्याकुल हो उठा। वे अपने शोकपीड़ित नेत्रों द्वारा आँसुओं की वर्षा करने लगे॥१६॥
एषा रामेण नगरी रहिता नातिशोभते।
आपगा गरुडेनेव ह्रदादुद्धृतपन्नगा॥१७॥
(वे बोले-) जिसके गहरे कुण्ड से वहाँ का नाग गरुड़ के द्वारा निकाल लिया गया हो, वह नदी जैसे शोभाहीन हो जाती है, उसी प्रकार श्रीराम से रहित हुई यह अयोध्यानगरी अब अधिक शोभा नहीं पाती है’।
चन्द्रहीनमिवाकाशं तोयहीनमिवार्णवम्।
अपश्यन् निहतानन्दं नगरं ते विचेतसः॥ १८॥
उन्होंने देखा, सारा नगर चन्द्रहीन आकाश और जलहीन समुद्र के समान आनन्दशून्य हो गया है। पुरी की यह दुरवस्था देख वे अचेत-से हो गये॥ १८ ॥
ते तानि वेश्मानि महाधनानि दुःखेन दुःखोपहता विशन्तः।
नैव प्रजग्मुः स्वजनं परं वा निरीक्ष्यमाणाः प्रविनष्टहर्षाः॥१९॥
उनके हृदय का सारा उल्लास नष्ट हो चुका था। वे दुःख से पीड़ित हो उन महान् वैभवसम्पन्न गृहों में बड़े क्लेश के साथ प्रविष्ट हो सबको देखते हुए भी अपने और पराये की पहचान न कर सके॥ १९॥
सर्ग ४८
तेषामेवं विषण्णानां पीडितानामतीव च।
बाष्पविप्लुतनेत्राणां सशोकानां मुमूर्षया॥१॥
अभिगम्य निवृत्तानां रामं नगरवासिनाम्।
उद्गतानीव सत्त्वानि बभूवुरमनस्विनाम्॥२॥
इस प्रकार जो विषादग्रस्त, अत्यन्त पीड़ित,शोकमग्न तथा प्राण त्याग देने की इच्छा से युक्त हो नेत्रों से आँसू बहा रहे थे, श्रीरामचन्द्रजी के साथ जाकर भी जो उन्हें लिये बिना लौट आये थे और इसीलिये जिनका चित्त ठिकाने नहीं था, उन नगरवासियों की ऐसी दशा हो रही थी मानो उनके प्राण निकल गये हों॥ १-२॥
स्वं स्वं निलयमागम्य पुत्रदारैः समावृताः।
अश्रूणि मुमुचुः सर्वे बाष्पेण पिहिताननाः॥३॥
वे सब अपने-अपने घर में आकर पत्नी और पुत्रों से घिरे हुए आँसू बहाने लगे। उनके मुख अश्रुधारा से आच्छादित थे॥३॥
न चाहृष्यन् न चामोदन् वणिजो न प्रसारयन्।
न चाशोभन्त पण्यानि नापचन् गृहमेधिनः॥४॥
उनके शरीर में हर्ष का कोई चिह्न नहीं दिखायी देता था तथा मन में भी आनन्द का अभाव ही था। वैश्यों ने अपनी दुकानें नहीं खोली। क्रय-विक्रय की वस्तुएँ बाजारों में फैलायी जाने पर भी उनकी शोभा नहीं हुई (उन्हें लेने के लिये ग्राहक नहीं आये)। उस दिन गृहस्थों के घर में चूल्हे नहीं जले—रसोई नहीं बनी॥ ४॥
नष्टं दृष्ट्वा नाभ्यनन्दन् विपुलं वा धनागमम्।
पुत्रं प्रथमजं लब्ध्वा जननी नाप्यनन्दत॥५॥
खोयी हुई वस्तु मिल जाने पर भी किसी को प्रसन्नता नहीं हुई, विपुल धन-राशि प्राप्त हो जाने पर भी किसी ने उसका अभिनन्दन नहीं किया। जिसने प्रथम बार पुत्र को जन्म दिया था, वह माता भी आनन्दित नहीं हुई॥ ५॥
गृहे गृहे रुदत्यश्च भर्तारं गृहमागतम्।
व्यगर्हयन्त दुःखार्ता वाग्भिस्तोत्नैरिव द्विपान्॥ ६॥
प्रत्येक घर की स्त्रियाँ अपने पतियों को श्रीराम के बिना ही लौटकर आये देख रो पड़ीं और दुःख से आतुर हो कठोर वचनों द्वारा उन्हें कोसने लगीं, मानो महावत अंकुशों से हाथियों को मार रहे हों॥६॥
किं नु तेषां गृहैः कार्यं किं दारैः किं धनेन वा।
पुत्रैर्वापि सुखैर्वापि ये न पश्यन्ति राघवम्॥७॥
वे बोलीं—’जो लोग श्रीराम को नहीं देखते, उन्हें घर-द्वार, स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और सुख-भोगों से क्या प्रयोजन है? ॥ ७॥
एकः सत्पुरुषो लोके लक्ष्मणः सह सीतया।
योऽनुगच्छति काकुत्स्थं रामं परिचरन् वने॥८॥
‘संसार में एकमात्र लक्ष्मण ही सत्पुरुष हैं, जो सीता के साथ श्रीराम की सेवा करने के लिये उनके पीछे-पीछे वन में जा रहे हैं।॥ ८॥
आपगाः कृतपुण्यास्ताः पद्मिन्यश्च सरांसि च।
येषु यास्यति काकुत्स्थो विगाह्य सलिलं शुचि॥
‘उन नदियों, कमलमण्डित बावड़ियों तथा सरोवरों ने अवश्य ही बहुत पुण्य किया होगा, जिनके पवित्र जल में स्नान करके श्रीरामचन्द्रजी आगे जायँगे॥९॥
शोभयिष्यन्ति काकुत्स्थमटव्यो रम्यकाननाः।
आपगाश्च महानूपाः सानुमन्तश्च पर्वताः॥१०॥
‘जिनमें रमणीय वृक्षावलियाँ शोभा पाती हैं, वेसुन्दर वनश्रेणियाँ, बड़े कछारवाली नदियाँ और शिखरों से सम्पन्न पर्वत श्रीराम की शोभा बढ़ायेंगे॥ १०॥
काननं वापि शैलं वा यं रामोऽनुगमिष्यति।
प्रियातिथिमिव प्राप्तं नैनं शक्ष्यन्त्यनर्चितुम्॥ ११॥
‘श्रीराम जिस वन अथवा पर्वत पर जायँगे, वहाँ उन्हें अपने प्रिय अतिथि की भाँति आया हुआ देख वे वन और पर्वत उनकी पूजा किये बिना नहीं रह सकेंगे॥
विचित्रकुसुमापीडा बहुमञ्जरिधारिणः।
राघवं दर्शयिष्यन्ति नगा भ्रमरशालिनः॥१२॥
‘विचित्र फूलों के मुकुट पहने और बहुत-सी मञ्जरियाँ धारण किये भ्रमरों से सुशोभित वृक्ष वन में श्रीरामचन्द्रजी को अपनी शोभा दिखायेंगे॥ १२ ॥
अकाले चापि मुख्यानि पुष्पाणि च फलानि च।
दर्शयिष्यन्त्यनुक्रोशाद् गिरयो राममागतम्॥ १३॥
‘वहाँ के पर्वत अपने यहाँ पधारे हुए श्रीराम को अत्यन्त आदर के कारण असमय में भी उत्तम-उत्तम फूल और फल दिखायेंगे (भेंट करेंगे) ॥ १३ ॥
प्रस्रविष्यन्ति तोयानि विमलानि महीधराः।
विदर्शयन्तो विविधान् भूयश्चित्रांश्च निर्झरान्॥ १४॥
‘वे पर्वत बारंबार नाना प्रकार के विचित्र झरने दिखाते हुए श्रीराम के लिये निर्मल जल के स्रोत बहायेंगे॥
पादपाः पर्वताग्रेषु रमयिष्यन्ति राघवम्।
यत्र रामो भयं नात्र नास्ति तत्र पराभवः॥१५॥
स हि शूरो महाबाहुः पुत्रो दशरथस्य च।
पुरा भवति नोऽदूरादनुगच्छाम राघवम्॥१६॥
‘पर्वत-शिखरों पर लहलहाते हुए वृक्ष श्रीरघुनाथजी का मनोरंजन करेंगे। जहाँ श्रीराम हैं वहाँ न तो कोई भय है और न किसी के द्वारा पराभव ही हो सकता है; क्योंकि दशरथनन्दन महाबाहु श्रीराम बड़े शूरवीर हैं। अतः जबतक वे हमलोगों से बहुत दूर नहीं निकल जाते, इसके पहले ही हमें उनके पास पहुँचकर पीछे लग जाना चाहिये।
पादच्छाया सुखं भर्तुस्तादृशस्य महात्मनः।
स हि नाथो जनस्यास्य स गतिः स परायणम्॥ १७॥
‘उनके-जैसे महात्मा एवं स्वामी के चरणों की छाया ही हमारे लिये परम सुखद है। वे ही हमारे रक्षक, गति और परम आश्रय हैं।॥ १७॥
वयं परिचरिष्यामः सीतां यूयं च राघवम्।
इति पौरस्त्रियोभर्तृन् दुःखार्तास्तत्तदब्रुवन्॥१८॥
‘हम स्त्रियाँ सीताजी की सेवा करेंगी और तुम सब लोग श्रीरघुनाथजी की सेवा में लगे रहना।’ इस प्रकार पुरवासियों की स्त्रियाँ दुःख से आतुर हो अपने पतियों से उपर्युक्त बातें कहने लगीं॥ १८॥
युष्माकं राघवोऽरण्ये योगक्षेमं विधास्यति।
सीता नारीजनस्यास्य योगक्षेमं करिष्यति॥१९॥
(वे पुनः बोलीं-) ‘वन में श्रीरामचन्द्रजी आपलोगों का योगक्षेम सिद्ध करेंगे और सीताजी हम नारियों के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी॥ १९ ॥
को न्वनेनाप्रतीतेन सोत्कण्ठितजनेन च।
सम्प्रीयेतामनोज्ञेन वासेन हृतचेतसा॥२०॥
‘यहाँ का निवास प्रीति और प्रतीति से रहित है। यहाँ के सब लोग श्रीराम के लिये उत्कण्ठित रहते हैं। किसी को यहाँ का रहना अच्छा नहीं लगता तथा यहाँ रहने से मन अपनी सुध-बुध खो बैठता है। भला, ऐसे निवाससे किसको प्रसन्नता होगी? ॥ २० ॥
कैकेय्या यदि चेद् राज्यं स्यादधर्म्यमनाथवत् ।
न हि नो जीवितेनार्थः कुतः पुत्रैः कुतो धनैः॥
‘यदि इस राज्य पर कैकेयी का अधिकार हो गया तो यह अनाथ-सा हो जायगा। इसमें धर्म की मर्यादा नहीं रहने पायेगी। ऐसे राज्य में तो हमें जीवित रहने की ही आवश्यकता नहीं जान पड़ती, फिर यहाँ धन और पुत्रों से क्या लेना है ? ॥ २१॥
यया पुत्रश्च भर्ता च त्यक्तावैश्वर्यकारणात्।
कं सा परिहरेदन्यं कैकेयी कलपांसनी॥२२॥
‘जिसने राज्य-वैभव के लिये अपने पुत्र और पति को त्याग दिया, वह कुलकलङ्किनी कैकेयी दूसरे किसका त्याग नहीं करेगी? ॥ २२ ॥
नहि प्रव्रजिते रामे जीविष्यति महीपतिः।
कैकेय्या न वयं राज्ये भृतका हि वसेमहि।
जीवन्त्या जातु जीवन्त्यः पुत्रैरपि शपामहे ॥ २३॥
‘हम अपने पुत्रों की शपथ खाकर कहती हैं कि जबतक कैकेयी जीवित रहेगी, तबतक हम जीते-जी कभी उसके राज्य में नहीं रह सकेंगी, भले ही यहाँ हमारा पालन-पोषण होता रहे (फिर भी हम यहाँ रहना नहीं चाहेंगी) ॥२३॥
या पुत्रं पार्थिवेन्द्रस्य प्रवासयति निघृणा।
कस्तां प्राप्य सुखं जीवेदधर्म्या दुष्टचारिणीम्॥ २४॥
‘जिस निर्दय स्वभाववाली नारी ने महाराज के पुत्र को राज्यसे बाहर निकलवा दिया है, उस अधर्म परायणा दुराचारिणी कैकेयी के अधिकार में रहकर कौन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है ? ॥२४॥
उपद्रुतमिदं सर्वमनालम्भमनायकम्।
कैकेय्यास्तु कृते सर्वं विनाशमुपयास्यति॥२५॥
‘कैकेयी के कारण यह सारा राज्य अनाथ एवं यज्ञरहित होकर उपद्रव का केन्द्र बन गया है, अतः एक दिन सबका विनाश हो जायगा॥ २५ ॥
नहि प्रव्रजिते रामे जीविष्यति महीपतिः।
मृते दशरथे व्यक्तं विलोपस्तदनन्तरम्॥२६॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के वनवासी हो जाने पर महाराज दशरथ जीवित नहीं रहेंगे। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि राजा दशरथ की मृत्यु के पश्चात् इस राज्य का लोप हो जायगा॥२६॥
ते विषं पिबतालोड्य क्षीणपुण्याः सुदुःखिताः।
राघवं वानुगच्छध्वमश्रुतिं वापि गच्छत॥२७॥
‘इसलिये अब तुमलोग यह समझ लो कि अब हमारे पुण्य समाप्त हो गये। यहाँ रहकर हमें अत्यन्त दुःख ही भोगना पड़ेगा। ऐसी दशा में या तो जहर घोलकर पी जाओ या श्रीराम का अनुसरण करो अथवा किसी ऐसे देश में चले चलो, जहाँ कैकेयी का नाम भी न सुनायी पड़े॥२७॥
मिथ्याप्रव्राजितो रामः सभार्यः सहलक्ष्मणः।
भरते संनिबद्धाः स्मः सौनिके पशवो यथा॥ २८॥
‘झूठे वर की कल्पना करके पत्नी और लक्ष्मण के साथ श्रीराम को देश निकाला दे दिया गया और हमें भरत के साथ बाँध दिया गया। अब हमारी दशा कसाई के घर बँधे हुए पशुओं के समान हो गयी है। २८॥
पूर्णचन्द्राननः श्यामो गूढजत्रुररिंदमः।
आजानुबाहुः पद्माक्षो रामो लक्ष्मणपूर्वजः॥२९॥
पूर्वाभिभाषी मधुरः सत्यवादी महाबलः।
सौम्यश्च सर्वलोकस्य चन्द्रवत् प्रियदर्शनः॥ ३०॥
‘लक्ष्मण के ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर है। उनके शरीर की कान्ति श्याम, गले की हँसली मांस से ढकी हुई, भुजाएँ घुटनों तक लंबी और नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। । वे सामने आने पर पहले ही बातचीत छेड़ते हैं तथा मीठे और सत्य वचन बोलते हैं। श्रीराम शत्रुओं का दमन करने वाले और महान बलवान हैं। समस्त जगत् के लिये सौम्य (कोमल स्वभाव वाले) हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान प्यारा है॥ २९-३०॥
नूनं पुरुषशार्दूलो मत्तमातङ्गविक्रमः।
शोभयिष्यत्यरण्यानि विचरन् स महारथः॥ ३१॥
‘निश्चय ही मतवाले गजराज के समान पराक्रमी पुरुषसिंह महारथी श्रीराम भूतल पर विचरते हुए वनस्थलियों की शोभा बढ़ायेंगे’ ॥ ३१॥
तास्तथा विलपन्त्यस्तु नगरे नागरस्त्रियः।
चुक्रुशुर्दुःखसंतप्ता मृत्योरिव भयागमे॥ ३२॥
नगर में नागरिकों की स्त्रियाँ इस प्रकार विलाप करती हुई दुःख से संतप्त हो इस तरह जोर-जोर से रोने लगीं, मानो उन पर मृत्यु का भय आ गया हो॥ ३२॥
इत्येवं विलपन्तीनां स्त्रीणां वेश्मसु राघवम्।
जगामास्तं दिनकरो रजनी चाभ्यवर्तत॥३३॥
अपने-अपने घरों में श्रीराम के लिये स्त्रियाँ इस प्रकार दिनभर विलाप करती रहीं। धीरे-धीरे सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये और रात हो गयी॥ ३३॥
नष्टज्वलनसंतापा प्रशान्ताध्यायसत्कथा।
तिमिरेणानुलिप्तेव तदा सा नगरी बभौ ॥ ३४॥
उस समय किसी के घर में अग्निहोत्र के लिये भी आग नहीं जली। स्वाध्याय और कथा-वार्ता भी नहीं हुई। सारी अयोध्यापुरी अन्धकार से पुती हुई-सी प्रतीत होती थी॥
उपशान्तवणिक्पण्या नष्टहर्षा निराश्रया।
अयोध्या नगरी चासीन्नष्टतारमिवाम्बरम्॥ ३५॥
बनियों की दुकानें बंद होने के कारण वहाँ चहल पहल नहीं थी, सारी पुरी की हँसी-खुशी छिन गयी थी, श्रीरामरूपी आश्रय से रहित अयोध्यानगरी जिसके तारे छिप गये हों, उस आकाश के समान श्रीहीन जान पड़ती थी॥ ३५॥
तदा स्त्रियो रामनिमित्तमातुरा यथा सुते भ्रातरि वा विवासिते।
विलप्य दीना रुरुदुर्विचेतसः सुतैर्हि तासामधिकोऽपि सोऽभवत्॥३६॥
उस समय नगरवासिनी स्त्रियाँ श्रीराम के लिये इस तरह शोकातुर हो रही थीं, मानो उनके सगे बेटे या भाई को देश निकाला दे दिया गया हो। वे अत्यन्त दीनभाव से विलाप करके रोने लगी और रोते-रोते अचेत हो गयीं; क्योंकि श्रीराम उनके लिये पुत्रों (तथा भाइयों)-से भी बढ़कर थे॥३६॥
प्रशान्तगीतोत्सवनृत्यवादना विभ्रष्टहर्षा पिहितापणोदया।
तदा ह्ययोध्या नगरी बभूव सा महार्णवः संक्षपितोदको यथा॥ ३७॥
वहाँ गाने, बजाने और नाचने के उत्सव बंद हो गये, सबका उत्साह जाता रहा, बाजार की दुकानें नहीं खुलीं, इन सब कारणों से उस समय अयोध्यानगरी जलहीन समुद्र के समान सूनसान लग रही थी॥ ३७॥
सर्ग ४९
रामोऽपि रात्रिशेषेण तेनैव महदन्तरम्।
जगाम पुरुषव्याघ्रः पितुराज्ञामनुस्मरन्॥१॥
उधर पुरुषसिंह श्रीराम भी पिता की आज्ञा का बारंबार स्मरण करते हुए उस शेष रात्रि में ही बहुत दूर निकल गये॥
तथैव गच्छतस्तस्य व्यपायाद रजनी शिवा।
उपास्य तु शिवां संध्यां विषयानत्यगाहत॥२॥
उसी तरह चलते-चलते उनकी वह कल्याणमयी रजनी भी व्यतीत हो गयी। सबेरा होने पर मङ्गलमयी संध्योपासना करके वे विभिन्न जनपदों को लाँघते हुए चल दिये॥२॥
ग्रामान् विकृष्टसीमान्तान् पुष्पितानि वनानि च।
पश्यन्नतिययौ शीघ्रं शनैरिव हयोत्तमैः॥३॥
जिनकी सीमा के पास की भूमि जोत दी गयी थी, उन ग्रामों तथा फूलों से सुशोभित वनों को देखते हुए वे उन उत्तम घोड़ों द्वारा शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े जा रहे थे तथापि सुन्दर दृश्यों के देखने में तन्मय रहने के कारण उन्हें उस रथ की गति धीमी-सी ही जान पड़ती थी।
शृण्वन् वाचो मनुष्याणां ग्रामसंवासवासिनाम्।
राजानं धिग् दशरथं कामस्य वशमास्थितम्॥ ४॥
मार्ग में जो बड़े और छोटे गाँव मिलते थे, उनमें निवास करने वाले मनुष्यों की निम्नाङ्कित बातें उनके कानों में पड़ रही थीं—’अहो! काम के वश में पड़े हुए राजा दशरथ को धिक्कार है !॥ ४॥
हा नृशंसाद्य कैकेयी पापा पापानुबन्धिनी।
तीक्ष्णा सम्भिन्नमर्यादा तीक्ष्णकर्मणि वर्तते॥५॥
‘हाय! हाय! पापशीला, पापासक्त, क्रूर तथा धर्ममर्यादा का त्याग करने वाली कैकेयी को तो दया छू भी नहीं गयी है, वह क्रूर अब निष्ठुर कर् ममें ही लगी रहती है॥५॥
या पुत्रमीदृशं राज्ञः प्रवासयति धार्मिकम।
वनवासे महाप्राज्ञं सानुक्रोशं जितेन्द्रियम्॥६॥
‘जिसने महाराज के ऐसे धर्मात्मा, महाज्ञानी, दयालु और जितेन्द्रिय पुत्र को वनवास के लिये घर से निकलवा दिया है॥६॥
कथं नाम महाभागा सीता जनकनन्दिनी।
सदा सुखेष्वभिरता दुःखान्यनुभविष्यति॥७॥
‘जनकनन्दिनी महाभागा सीता, जो सदा सुखों में ही रत रहती थीं, अब वनवास के दुःख कैसे भोग सकेंगी?
अहो दशरथो राजा निःस्नेहः स्वसुतं प्रति।
प्रजानामनघं रामं परित्यक्तुमिहेच्छति॥८॥
‘अहो! क्या राजा दशरथ अपने पुत्र के प्रति इतने स्नेहहीन हो गये, जो प्रजाओं के प्रति कोई अपराध न करने वाले श्रीरामचन्द्रजी का यहाँ परित्याग कर देना चाहते हैं’॥ ८॥
एता वाचो मनुष्याणां ग्रामसंवासवासिनाम्।
शृण्वन्नतिययौ वीरः कोसलान् कोसलेश्वरः॥ ९॥
छोटे-बड़े गाँवों में रहने वाले मनुष्यों की ये बातें सुनते हुए वीर कोसलपति श्रीराम कोसल जनपद की सीमा लाँघकर आगे बढ़ गये॥९॥
ततो वेदश्रुतिं नाम शिववारिवहां नदीम्।
उत्तीर्याभिमुखः प्रायादगस्त्याध्युषितां दिशम्॥ १०॥
तदनन्तर शीतल एवं सुखद जल बहाने वाली वेदश्रुति नामक नदी को पार करके श्रीरामचन्द्रजी अगस्त्यसेवित दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये॥ १० ॥
गत्वा तु सुचिरं कालं ततः शीतवहां नदीम्।
गोमतीं गोयुतानूपामतरत् सागरङ्गमाम्॥११॥
दीर्घकाल तक चलकर उन्होंने समुद्रगामिनी गोमती नदी को पार किया, जो शीतल जल का स्रोत बहाती थी। उसके कछार में बहुत-सी गौएँ विचरती थीं। ११॥
गोमतीं चाप्यतिक्रम्य राघवः शीघ्रगैर्हयैः।
मयूरहंसाभिरुतां ततार स्यन्दिकां नदीम्॥१२॥
शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा गोमती नदी को लाँघ करके श्रीरघुनाथजी ने मोरों और हंसों के कलरवों से व्याप्त स्यन्दि का नामक नदी को भी पार किया॥ १२॥
स महीं मनुना राज्ञा दत्तामिक्ष्वाकवे पुरा।
स्फीतां राष्ट्रवृतां रामो वैदेहीमन्वदर्शयत्॥१३॥
वहाँ जाकर श्रीराम ने धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक अवान्तर जनपदों से घिरी हुई भूमिका सीता को दर्शन कराया, जिसे पूर्वकाल में राजा मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था॥ १३॥
सूत इत्येव चाभाष्य सारथिं तमभीक्ष्णशः।
हंसमत्तस्वरः श्रीमानुवाच पुरुषोत्तमः॥१४॥
फिर श्रीमान् पुरुषोत्तम श्रीराम ने ‘सूत!’ कहकर सारथि को बारंबार सम्बोधित किया और मदमत्त हंस के समान मधुर स्वर में इस प्रकार कहा— ॥१४॥
कदाहं पुनरागम्य सरय्वाः पुष्पिते वने।
मृगयां पर्यटिष्यामि मात्रा पित्रा च संगतः॥१५॥
‘सूत ! मैं कब पुनः लौटकर माता-पिता से मिलूँगा और सरयू के पार्श्ववर्ती पुष्पित वन में मृगया के लिये भ्रमण करूँगा?॥ १५॥
नात्यर्थमभिकांक्षामि मृगयां सरयूवने।
रतिद्देषातुला लोके राजर्षिगणसम्मता॥१६॥
‘मैं सरयू के वन में शिकार खेलने की बहुत अधिक अभिलाषा नहीं रखता। यह लोक में एक प्रकार की अनुपम क्रीड़ा है, जो राजर्षियों के समुदाय को अभिमत है॥ १६॥
राजर्षीणां हि लोकेऽस्मिन् रत्यर्थं मृगया वने।
काले कृतां तां मनुजैर्धन्विनामभिकांक्षिताम्॥ १७॥
‘इस लोक में वन में जाकर शिकार खेलना राजर्षियों की क्रीड़ा के लिये प्रचलित हुआ था। अतः मनुपुत्रों द्वारा उस समय की गयी यह क्रीड़ा अन्य धनुर्धरों को भी अभीष्ट हुई’ ॥ १७॥
स तमध्वानमैक्ष्वाकः सूतं मधुरया गिरा।
तं तमर्थमभिप्रेत्य ययौ वाक्यमुदीरयन्॥१८॥
इक्ष्वाकुनन्दन श्रीरामचन्द्रजी विभिन्न विषयों को लेकर सूत से मधुर वाणी में उपयुक्त बातें कहते हुए उस मार्ग पर बढ़ते चले गये॥ १८ ॥
सर्ग ५०
विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः।
अयोध्यामुन्मुखो धीमान् प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १॥
इस प्रकार विशाल और रमणीय कोसलदेशकी सीमाको पार करके लक्ष्मणके बड़े भाई बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने अयोध्याकी ओर अपना मुख किया और हाथ जोड़कर कहा- ॥१॥
आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते।
दैवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च॥ २॥
‘ककुत्स्थवंशी राजाओं से परिपालित परीशिरोमणि अयोध्ये! मैं तुमसे तथा जो-जो देवता तुम्हारी रक्षा करते और तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, उनसे भी वन में जाने की आज्ञा चाहता हूँ॥२॥
निवृत्तवनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः।
पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह संगतः॥३॥
‘वनवास की अवधि पूरी करके महाराज के ऋण से उऋण हो मैं पुनः लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पिता से भी मिलूँगा’ ॥ ३॥
ततो रुचिरताम्राक्षो भुजमुद्यम्य दक्षिणम्।
अश्रुपूर्णमुखो दीनोऽब्रवीज्जानपदं जनम्॥४॥
इसके बाद सुन्दर एवं अरुण नेत्र वाले श्रीराम ने दाहिनी भुजा उठाकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए दुःखी होकर जनपद के लोगों से कहा- ॥ ४॥
अनुक्रोशो दया चैव यथार्ह मयि वः कृतः।
चिरं दुःखस्य पापीयो गम्यतामर्थसिद्धये ॥५॥
‘आपने मुझपर बड़ी कृपा की और यथोचित दया दिखायी। मेरे लिये आपलोगों ने बहुत देर तक कष्टसहन किया। इस तरह आपका देर तक दुःख में पड़े रहना अच्छा नहीं है; इसलिये अब आपलोग अपना अपना कार्य करने के लिये जाइये ॥५॥
तेऽभिवाद्य महात्मानं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
विलपन्तो नरा घोरं व्यतिष्ठंश्च क्वचित् क्वचित्॥६॥
यह सुनकर उन मनुष्यों ने महात्मा श्रीराम को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और घोर विलाप करते हुए वे जहाँ-तहाँ खड़े हो गये॥६॥
तथा विलपतां तेषामतृप्तानां च राघवः।
अचक्षुर्विषयं प्रायाद् यथार्कः क्षणदामुखे॥७॥
उनकी आँखें अभी श्रीराम के दर्शन से तृप्त नहीं हुई थीं और वे पूर्वोक्त रूप से विलाप कर ही रहे थे, इतने में श्रीरघुनाथजी उनकी दृष्टि से ओझल हो गये, जैसे सूर्य प्रदोषकाल में छिप जाते हैं॥७॥
ततो धान्यधनोपेतान् दानशीलजनान् शिवान्।
अकुतश्चिद्भयान् रम्यांश्चैत्ययूपसमावृतान्॥८॥
उद्यानाम्रवणोपेतान् सम्पन्नसलिलाशयान्।
तुष्टपुष्टजनाकीर्णान् गोकुलाकुलसेवितान्॥९॥
रक्षणीयान् नरेन्द्राणां ब्रह्मघोषाभिनादितान्।
रथेन पुरुषव्याघ्रः कोसलानत्यवर्तत ॥१०॥
इसके बाद पुरुषसिंह श्रीराम रथ के द्वारा ही उस कोसल जनपद को लाँघ गये, जो धन-धान्य से सम्पन्न और सुखदायक था। वहाँ के सब लोग दानशील थे। उस जनपद में कहीं से कोई भय नहीं था। वहाँ के भूभाग रमणीय एवं चैत्य-वृक्षों तथा यज्ञ-सम्बन्धी यूपों से व्याप्त थे। बहुत-से उद्यान और आमों के वन उस जनपद की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ जल से भरे हुए बहुत-से जलाशय सुशोभित थे। सारा जनपद हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा था; गौओं के समूहों से व्याप्त और सेवित था। वहाँ के ग्रामों की बहुत-से नरेश रक्षा करते थे तथा वहाँ वेदमन्त्रों की ध्वनि गूंजती रहती थी॥ ८ -१०॥
मध्येन मुदितं स्फीतं रम्योद्यानसमाकुलम्।
राज्यं भोज्यं नरेन्द्राणां ययौ धृतिमतां वरः॥ ११॥
कोसलदेश से आगे बढ़ने पर धैर्यवानों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी मध्यमार्ग से ऐसे राज्य में होकर निकले, जो सुख-सुविधा से युक्त, धन-धान्य से सम्पन्न, रमणीय उद्यानों से व्याप्त तथा सामन्त नरेशों के उपभोग में आने वाला था॥ ११॥
तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयामशैवलाम्।
ददर्श राघवो गङ्गां रम्यामृषिनिषेविताम्॥१२॥
उस राज्य में श्रीरघुनाथजी ने त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गङ्गा का दर्शन किया, जो शीतल जल से भरी हुई, सेवारों से रहित तथा रमणीय थीं। बहुत-से महर्षि उनका सेवन करते थे॥ १२ ॥
आश्रमैरविदूरस्थैः श्रीमद्भिः समलंकृताम्।
कालेऽप्सरोभिर्हृष्टाभिः सेविताम्भोह्रदां शिवाम्॥ १३॥
उनके तट पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर बहुत-से सुन्दर आश्रम बने थे, जो उन देवनदी की शोभा बढ़ाते थे। समय-समय पर हर्ष भरी अप्सराएँ भी उतरकर उनके जलकुण्ड का सेवन करती हैं। वे गङ्गा सबका कल्याण करने वाली हैं॥ १३॥
देवदानवगन्धर्वैः किंनरैरुपशोभिताम्।
नागगन्धर्वपत्नीभिः सेवितां सततं शिवाम्॥१४॥
देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर उन शिवस्वरूपा भागीरथी की शोभा बढ़ाते हैं। नागों और गन्धर्वो की पत्नियाँ उनके जल का सदा सेवन करती हैं।॥ १४॥
देवाक्रीडशताकीर्णा देवोद्यानयुतां नदीम्।
देवार्थमाकाशगतां विख्यातां देवपद्मिनीम्॥१५॥
गङ्गा के दोनों तटों पर देवताओं के सैकड़ों पर्वतीय क्रीड़ास्थल हैं। उनके किनारे देवताओं के बहुत-से उद्यान भी हैं। वे देवताओं की क्रीड़ा के लिये आकाश में भी विद्यमान हैं और वहाँ देवपद्मिनी के रूप में विख्यात हैं॥
जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीम्।
क्वचिद् वेणीकृतजलां क्वचिदावर्तशोभिताम्॥ १६॥
प्रस्तरखण्डों से गङ्गा के जल के टकराने से जो शब्द होता है, वही मानो उनका उग्र अट्टहास है। जल से जो फेन प्रकट होता है, वही उन दिव्य नदी का निर्मल हास है। कहीं तो उनका जल वेणी के आकार का है और कहीं वे भँवरों से सुशोभित होती हैं॥ १६॥
क्वचित् स्तिमितगम्भीरां क्वचिद् वेगसमाकुलाम्।
क्वचिद् गम्भीरनिर्घोषां क्वचिद् भैरवनिःस्वनाम्॥१७॥
कहीं उनका जल निश्चल एवं गहरा है। कहीं वे महान् वेगसे व्याप्त हैं। कहीं उनके जलसे मृदङ्ग आदिके समान गम्भीर घोष प्रकट होता है और कहीं वज्रपात आदिके समान भयंकर नाद सुनायी पड़ता है॥ १७॥
देवसंघाप्लुतजलां निर्मलोत्पलसंकुलाम्।
क्वचिदाभोगपुलिनां क्वचिन्निर्मलवालुकाम्॥ १८॥
उनके जलमें देवताओं के समुदाय गोते लगाते हैं। कहीं-कहीं उनका जल नील कमलों अथवा कुमुदों से आच्छादित होता है। कहीं विशाल पुलिन का दर्शन होता है तो कहीं निर्मल बालुका-राशिका॥ १८॥
हंससारससंघुष्टां चक्रवाकोपशोभिताम्।
सदामत्तैश्च विहगैरभिपन्नामनिन्दिताम्॥१९॥
हंसों और सारसों के कलरव वहाँ गूंजते रहते हैं। चकवे उन देवनदी की शोभा बढ़ाते हैं। सदा मदमत्त रहने वाले विहंगम उनके जलपर मँडराते रहते हैं। वे उत्तम शोभा से सम्पन्न हैं॥ १९॥
क्वचित् तीररुहैर्वृक्षर्मालाभिरिव शोभिताम्।
क्वचित् फुल्लोत्पलच्छन्नां क्वचित् पद्मवनाकुलाम्॥२०॥
कहीं तटवर्ती वृक्ष मालाकार होकर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। कहीं तो उनका जल खिले हुए उत्पलों से आच्छादित है और कहीं कमलवनों से व्याप्त॥ २० ॥
क्वचित् कुमुदखण्डैश्च कुड्मलैरुपशोभिताम्।
नानापुष्परजोध्वस्तां समदामिव च क्वचित्॥ २१॥
कहीं कुमुदसमूह तथा कहीं कलिकाएँ उन्हें सुशोभित करती हैं। कहीं नाना प्रकार के पुष्पों के परागों से व्याप्त होकर वे मदमत्त नारी के समान प्रतीत होती हैं।
व्यपेतमलसंघातां मणिनिर्मलदर्शनाम।
दिशागजैर्वनगजैर्मत्तैश्च वरवारणैः ॥२२॥
देवराजोपवाय॑श्च संनादितवनान्तराम्।
वे मलसमूह (पापराशि) दूर कर देती हैं। उनका जल इतना स्वच्छ है कि मणि के समान निर्मल दिखायी देता है। उनके तटवर्ती वन का भीतरी भाग मदमत्त दिग्गजों, जंगली हाथियों तथा देवराज की सवारी में आने वाले श्रेष्ठ गजराजों से कोलाहलपूर्ण बना रहता है।
प्रमदामिव यत्नेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥२३॥
फलपुष्पैः किसलयैर्वृतां गुल्मैर्दिजैस्तथा।
विष्णुपादच्युतां दिव्यामपापां पापनाशिनीम्॥ २४॥
वे फलों, फूलों, पल्लवों, गुल्मों तथा पक्षियों से आवृत होकर उत्तम आभूषणों से यत्नपूर्वक विभूषित हुई युवती के समान शोभा पाती हैं। उनका प्राकट्य भगवान् विष्णु के चरणों से हुआ है। उनमें पाप का लेश भी नहीं है। वे दिव्य नदी गङ्गा जीवों के समस्त पापों का नाश कर देने वाली हैं॥ २३-२४॥
शिंशुमारैश्च नक्रैश्च भुजंगैश्च समन्विताम्।
शंकरस्य जटाजूटाद् भ्रष्टां सागरतेजसा ॥ २५॥
समुद्रमहिषीं गङ्गां सारसक्रौञ्चनादिताम्।
आससाद महाबाहुः शृङ्गवेरपुरं प्रति॥२६॥
उनके जल में राँस, घड़ियाल और सर्प निवास करते हैं। सगरवंशी राजा भगीरथ के तपोमय तेज से जिनका शंकरजी के जटाजूट से अवतरण हुआ था, जो समुद्र की रानी हैं तथा जिनके निकट सारस और क्रौञ्च पक्षी कलरव करते रहते हैं, उन्हीं देवनदी गङ्गा के पास महाबाहु श्रीरामजी पहुँचे। गङ्गा की वह धारा शृङ्गवेरपुर में बह रही थी॥ २५-२६॥
तामूर्मिकलिलावर्तामन्ववेक्ष्य महारथः।
सुमन्त्रमब्रवीत् सूतमिहैवाद्य वसामहे ॥२७॥
जिनके आवर्त (भँवरें) लहरों से व्याप्त थे, उन गङ्गाजी का दर्शन करके महारथी श्रीराम ने सारथि सुमन्त्र से कहा- ‘सूत! आज हम लोग यहीं रहेंगे’। २७॥
अविदूरादयं नद्या बहुपुष्पप्रवालवान्।
सुमहानिङ्गदीवृक्षो वसामोऽत्रैव सारथे॥२८॥
‘सारथे! गङ्गाजी के समीप ही जो यह बहुत-से फूलों और नये-नये पल्लवों से सुशोभित महान् इङ्गदी का वृक्ष है, इसीके नीचे आज रात में हम निवास करेंगे॥ २८॥
प्रेक्षामि सरितां श्रेष्ठां सम्मान्यसलिलां शिवाम्।
देवमानवगन्धर्वमृगपन्नगपक्षिणाम्॥२९॥
‘जिनका जल देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वो, सो, पशुओं तथा पक्षियों के लिये भी समादरणीय है, उन कल्याणस्वरूपा, सरिताओं में श्रेष्ठ गङ्गाजी का भी मुझे यहाँ से दर्शन होता रहेगा’ ॥ २९॥
लक्ष्मणश्च सुमन्त्रश्च बाढमित्येव राघवम्।
उक्त्वा तमिङ्गदीवृक्षं तदोपययतुर्हयैः॥ ३०॥
तब लक्ष्मण और सुमन्त्र भी श्रीरामचन्द्रजी से बहुत अच्छा कहकर अश्वों द्वारा उस इंगुदी-वृक्ष के समीप गये॥
रामोऽभियाय तं रम्यं वृक्षमिक्ष्वाकुनन्दनः।
रथादवतरत् तस्मात् सभार्यः सहलक्ष्मणः॥३१॥
उस रमणीय वृक्ष के पास पहुँचकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ रथ से उतर गये॥ ३१॥
सुमन्त्रोऽप्यवतीर्याथ मोचयित्वा हयोत्तमान्।
वृक्षमूलगतं राममुपतस्थे कृताञ्जलिः॥३२॥
फिर सुमन्त्र ने भी उतरकर उत्तम घोड़ों को खोल दिया और वृक्ष की जड़पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी के पास जाकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ ३२॥
तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा।
निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः॥ ३३॥
शृङ्गवेरपुर में गुह नाम का राजा राज्य करता था। वह श्रीरामचन्द्रजी का प्राणों के समान प्रिय मित्र था। उसका जन्म निषादकुल में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्ति की दृष्टि से भी बलवान् था तथा वहाँ के निषादों का सुविख्यात राजा था॥ ३३॥
स श्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं रामं विषयमागतम्।
वृद्धैः परिवृतोऽमात्यैातिभिश्चाप्युपागतः॥ ३४॥
उसने जब सुना कि पुरुषसिंह श्रीराम मेरे राज्यमें पधारे हैं, तब वह बूढ़े मन्त्रियों और बन्धु-बान्धवों से घिरा हुआ वहाँ आया॥ ३४॥
ततो निषादाधिपतिं दृष्ट्वा दूरादुपस्थितम्।
सह सौमित्रिणा रामः समागच्छद् गुहेन सः॥ ३५॥
निषादराज को दूर से आया हुआ देख श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ आगे बढ़कर उससे मिले॥ ३५ ॥
तमार्तः सम्परिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत्।
यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते॥३६॥
ईदृशं हि महाबाहो कः प्राप्स्यत्यतिथिं प्रियम्।
श्रीरामचन्द्रजी को वल्कल आदि धारण किये देख गुह को बड़ा दुःख हुआ। उसने श्रीरघुनाथजी को हृदय से लगाकर कहा—’श्रीराम! आपके लिये जैसे अयोध्या का राज्य है, उसी प्रकार यह राज्य भी है। बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? महाबाहो! आप-जैसा प्रिय अतिथि किसको सुलभ होगा?’ ॥ ३६ १/२॥
ततो गुणवदन्नाद्यमुपादाय पृथग्विधम्॥३७॥
अर्घ्य चोपानयच्छीघ्रं वाक्यं चेदमुवाच ह।
स्वागतं ते महाबाहो तवेयमखिला मही॥ ३८॥
वयं प्रेष्या भवान् भर्ता साधु राज्यं प्रशाधि नः।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चैतदुपस्थितम्।
शयनानि च मुख्यानि वाजिनां खादनं च ते॥
फिर भाँति-भाँति का उत्तम अन्न लेकर वह सेवा में उपस्थित हुआ। उसने शीघ्र ही अर्घ्य निवेदन किया और इस प्रकार कहा—’महाबाहो! आपका स्वागत है। यह सारी भूमि, जो मेरे अधिकार में है, आपकी ही है। हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी, आज से आप ही हमारे इस राज्य का भलीभाँति शासन करें। यह भक्ष्य (अन्न आदि), भोज्य (खीर आदि), पेय(पानकरस आदि) तथा लेह्य (चटनी आदि) आपकी सेवा में उपस्थित है, इसे स्वीकार करें। ये उत्तमोत्तम शय्याएँ हैं तथा आपके घोड़ों के खाने के लिये चने और घास आदि भी प्रस्तुत हैं—ये सब सामग्री ग्रहण करें’॥ ३७–३९॥
गुहमेवं ब्रुवाणं तु राघवः प्रत्युवाच ह।
अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वदा वयम्॥४०॥
पद्भ्यामभिगमाच्चैव स्नेहसंदर्शनेन च।
गुह के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्रजी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया—’सखे! तुम्हारे यहाँ तक पैदल आने और स्नेह दिखाने से ही हमारा सदा के लिये भलीभाँति पूजन-स्वागत-सत्कार हो गया। तुमसे मिलकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है’। ४० १/२ ॥
भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन् वाक्यमब्रवीत्॥४१॥
दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि ह्यरोगं सह बान्धवैः।
अपि ते कुशलं राष्ट्र मित्रेषु च वनेषु च॥४२॥
फिर श्रीराम ने अपनी दोनों गोल-गोल भुजाओं से गुह का अच्छी तरह आलिङ्गन करते हुए कहा -‘गुह! सौभाग्य की बात है कि मैं आज तुम्हें बन्धुबान्धवों के साथ स्वस्थ एवं सानन्द देख रहा हूँ। बताओ, तुम्हारे राज्य में, मित्रों के यहाँ तथा वनों में सर्वत्र कुशल तो है? ॥ ४१-४२॥
यत् त्विदं भवता किंचित् प्रीत्या समुपकल्पितम्।
सर्वं तदनुजानामि नहि वर्ते प्रतिग्रहे॥४३॥
‘तुमने प्रेमवश यह जो कुछ सामग्री प्रस्तुत की है, इसे स्वीकार करके मैं तुम्हें वापिस ले जाने की आज्ञा देता हूँ; क्योंकि इस समय दूसरों की दी हुई कोई भी वस्तु मैं ग्रहण नहीं करता-अपने उपयोग में नहीं लाता॥
कुशचीराजिनधरं फलमूलाशनं च माम्।
विद्धि प्रणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम्॥४४॥
‘वल्कल और मृगचर्म धारण करके फल-मूल का आहार करता हूँ और धर्म स्थित रहकर तापस वेश में वन के भीतर ही विचरता हूँ। इन दिनों तुम मुझे इसी नियम में स्थित जानो॥४४॥
अश्वानां खादनेनाहमर्थी नान्येन केनचित् ।
एतावतात्र भवता भविष्यामि सुपूजितः॥४५॥
‘इन सामग्रियों में जो घोड़ों के खाने-पीने की वस्तु है, उसी की इस समय मुझे आवश्यकता है, दूसरी किसी वस्तु की नहीं। घोड़ों को खिला-पिला देने मात्र से तुम्हारे द्वारा मेरा पूर्ण सत्कार हो जायगा।॥ ४५ ॥
एते हि दयिता राज्ञः पितुर्दशरथस्य मे।
एतैः सुविहितैरश्वैर्भविष्याम्यहमर्चितः॥४६॥
‘ये घोड़े मेरे पिता महाराज दशरथ को बहुत प्रिय हैं। इनके खाने-पीने का सुन्दर प्रबन्ध कर देने से मेरा भलीभाँति पूजन हो जायगा’ ॥ ४६॥
अश्वानां प्रतिपानं च खादनं चैव सोऽन्वशात्।
गुहस्तत्रैव पुरुषांस्त्वरितं दीयतामिति॥४७॥
तब गुह ने अपने सेवकों को उसी समय यह आज्ञा दी कि तुम घोड़ों के खाने-पीने के लिये आवश्यक वस्तुएँ शीघ्र लाकर दो॥ ४७॥
ततश्चीरोत्तरासङ्गः संध्यामन्वास्य पश्चिमाम्।
जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणोनाहृतं स्वयम्॥४८॥
तत्पश्चात् वल्कल का उत्तरीय-वस्त्र धारण करने वाले श्रीराम ने सायंकाल की संध्योपासना करके भोजन के नाम पर स्वयं लक्ष्मण का लाया हुआ केवल जलमात्र पी लिया॥ ४८॥
तस्य भूमौ शयानस्य पादौ प्रक्षाल्य लक्ष्मणः।
सभार्यस्य ततोऽभ्येत्य तस्थौ वृक्षमुपाश्रितः॥ ४९॥
फिर पत्नीसहित श्रीराम भूमि पर ही तृण की शय्या बिछाकर सोये। उस समय लक्ष्मण उनके दोनों चरणों को धो-पोंछकर वहाँ से कुछ दूर पर हट आये और एक वृक्ष का सहारा लेकर बैठ गये॥४९॥
गुहोऽपि सह सूतेन सौमित्रिमनुभाषयन्।
अन्वजाग्रत् ततो राममप्रमत्तो धनुर्धरः॥५०॥
गुह भी सावधानी के साथ धनुष धारण करके सुमन्त्र के साथ बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बातचीत करता हुआ श्रीराम की रक्षा के लिये रातभर जागता रहा। ५०॥
तथा शयानस्य ततो यशस्विनो मनस्विनो दाशरथेर्महात्मनः।
अदृष्टदुःखस्य सुखोचितस्य सा तदा व्यतीता सुचिरेण शर्वरी॥५१॥
इस प्रकार सोये हुए यशस्वी मनस्वी दशरथनन्दन महात्मा श्रीराम की, जिन्होंने कभी दुःख नहीं देखा था तथा जो सुख भोगने के ही योग्य थे, वह रात उस समय (नींद न आने के कारण) बहुत देर के बाद व्यतीत हुई।
सर्ग ५१
तं जाग्रतमदम्भेन भ्रातुराय लक्ष्मणम्।
गुहः संतापसंतप्तो राघवं वाक्यमब्रवीत्॥१॥
लक्ष्मण को अपने भाई के लिये स्वाभाविक अनुराग से जागते देख निषादराज गुह को बड़ा संताप हुआ। उसने रघुकुलनन्दन लक्ष्मण से कहा- ॥१॥
इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता।
प्रत्याश्वसिहि साध्वस्यां राजपुत्र यथासुखम्॥ २॥
‘तात! राजकुमार! तुम्हारे लिये यह आराम देने वाली शय्या तैयार है, इस पर सुखपूर्वक सोकर भलीभाँति विश्राम कर लो॥२॥
उचितोऽयं जनः सर्वः क्लेशानां त्वं सुखोचितः।
गुप्त्यर्थं जागरिष्यामः काकुत्स्थस्य वयं निशाम्॥ ३॥
‘यह (मैं) सेवक तथा इसके साथ के सब लोग वनवासी होने के कारण सब प्रकार के क्लेश सहन करने के योग्य हैं (क्योंकि हम सबको कष्ट सहने का अभ्यास है), परंतु तुम सुख में ही पले हो, अतः उसी के योग्य हो (इसलिये सो जाओ)। हम सब लोग श्रीरामचन्द्रजी की रक्षा के लिये रातभर जागते रहेंगे॥३॥
नहि रामात् प्रियतमो ममास्ते भुवि कश्चन।
ब्रवीम्येव च ते सत्यं सत्येनैव च ते शपे॥४॥
‘मैं सत्य की ही शपथ खाकर तुमसे सत्य कहता हूँ कि इस भूतल पर मुझे श्रीराम से बढ़कर प्रिय दूसरा कोई नहीं है॥४॥
अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन् सुमहद् यशः।
धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थकामौ च पुष्कलौ॥५॥
‘इन श्रीरघुनाथजी के प्रसाद से ही मैं इस लोक में महान् यश, विपुल धर्म-लाभ तथा प्रचुर अर्थ एवं भोग्य वस्तु पाने की आशा करता हूँ॥ ५॥
सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया।
रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वथा ज्ञातिभिः सह ॥ ६॥
अतः मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ हाथ में धनुष लेकर सीतासहित सोये हुए प्रियसखा श्रीराम की सब प्रकार से रक्षा करूँगा॥६॥
न मेऽस्त्यविदितं किंचिद वनेऽस्मिंश्चरतः सदा।
चतुरङ्ग ह्यतिबलं सुमहत् संतरेमहि ॥७॥
‘इस वन में सदा विचरते रहने के कारण मुझसे यहाँ की कोई बात छिपी नहीं है। हमलोग यहाँ शत्रु की अत्यन्त शक्तिशालिनी विशाल चतुरङ्गिणी सेना को भी अनायास ही जीत लेंगे’॥ ७॥
लक्ष्मणस्तु तदोवाच रक्ष्यमाणास्त्वयानघ।
नात्र भीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता॥८॥
कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया।
शक्या निद्रा मया लब्धं जीवितं वा सुखानि वा॥ ९॥
यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा—’निष्पाप निषादराज ! तुम धर्म पर ही दृष्टि रखते हुए हमारी रक्षा करते हो,इसलिये इस स्थान पर हम सब लोगों के लिये कोई भय नहीं है। फिर भी जब महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र सीता के साथ भूमि पर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिये उत्तम शय्यापर सोकर नींद लेना, जीवनधारण के लिये स्वादिष्ट अन्न खाना अथवा दूसरे-दूसरे सुखों को भोगना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥ ८-९॥
यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि।
तं पश्य सुखसंसुप्तं तृणेषु सह सीतया॥१०॥
‘देखो! सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में जिनके वेग को नहीं सह सकते, वे ही श्रीराम इस समय सीता के साथ तिनकों के ऊपर सुखसे सो रहे हैं॥ १०॥
यो मन्त्रतपसा लब्धो विविधैश्च पराक्रमैः।
एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः॥११॥
अस्मिन् प्रव्रजिते राजा न चिरं वर्तयिष्यति।
विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति॥१२॥
‘गायत्री आदि मन्त्रों के जप, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि तप तथा नाना प्रकार के पराक्रम (यज्ञानुष्ठान आदि प्रयत्न) करने से जो महाराज दशरथ को अपने समान उत्तम लक्षणों से युक्त ज्येष्ठ पुत्र के रूप में प्राप्त हुए हैं, उन्हीं इन श्रीराम के वन में आ जाने से अब राजा दशरथ अधिक कालतक जीवन धारण नहीं कर सकेंगे। जान पड़ता है, निश्चय ही यह पृथ्वी अब शीघ्र विधवा हो जायगी॥ ११-१२ ॥
विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः।
निर्घोषोपरतं तात मन्ये राजनिवेशनम्॥१३॥
‘तात! रनिवासकी स्त्रियाँ बड़े जोर से आर्तनाद करके अधिक श्रम के कारण अब चुप हो गयी होंगी। मैं समझता हूँ, राजभवन का हाहाकार और चीत्कार अब शान्त हो गया होगा॥ १३ ॥
कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम।
नाशंसे यदि जीवन्ति सर्वे ते शर्वरीमिमाम्॥ १४॥
‘महारानी कौसल्या, राजा दशरथ तथा मेरी माता सुमित्रा—ये सब लोग आज की राततक जीवित रहेंगे या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता॥ १४ ॥
जीवेदपि हि मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया।
तद् दुःखं यदि कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति॥ १५॥
‘शत्रुघ्न की बाट देखने के कारण सम्भव है मेरी माता जीवित रह जाय, परंतु यदि वीरजननी कौसल्या श्रीराम के विरह में नष्ट हो जायँगी तो यह हमलोगों के लिये बड़े दुःखकी बात होगी॥ १५॥
अनुरक्तजनाकीर्णा सुखालोकप्रियावहा।
राजव्यसनसंसृष्टा सा पुरी विनशिष्यति ॥१६॥
‘जिसमें श्रीराम के अनुरागी मनुष्य भरे हुए हैं तथा जो सदा सुखका दर्शनरूप प्रिय वस्तु की प्राप्ति कराने वाली रही है, वह अयोध्यापुरी राजा दशरथ के निधनजनित दुःख से युक्त होकर नष्ट हो जायगी॥ १६॥
कथं पुत्रं महात्मानं ज्येष्ठपुत्रमपश्यतः।
शरीरं धारयिष्यन्ति प्राणा राज्ञो महात्मनः॥ १७॥
‘अपने ज्येष्ठ पुत्र महात्मा श्रीराम को न देखने पर महामना राजा दशरथ के प्राण उनके शरीर में कैसे टिके रह सकेंगे॥१७॥
विनष्टे नृपतौ पश्चात् कौसल्या विनशिष्यति।
अनन्तरं च मातापि मम नाशमुपैष्यति॥१८॥
‘महाराज के नष्ट होने पर देवी कौसल्या भी नष्ट हो जायँगी। तदनन्तर मेरी माता सुमित्रा भी नष्ट हुए बिना नहीं रहेंगी॥ १८॥
अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम्।
राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति॥१९॥
(महाराज की इच्छा थी कि श्रीराम को राज्य पर अभिषिक्त करूँ) अपने उस मनोरथ को न पाकर श्रीराम को राज्यपर स्थापित किये बिना ही ‘हाय! मेरा सब कुछ नष्ट हो गया, नष्ट हो गया’ ऐसा कहते हुए मेरे पिताजी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ १९ ॥
सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन् काले घुपस्थिते।
प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति राघवम्॥२०॥
‘उनकी उस मृत्यु का समय उपस्थित होने पर जो लोग रहेंगे और मेरे मरे हुए पिता रघुकुलशिरोमणि दशरथ का सभी प्रेतकार्यों में संस्कार करेंगे, वे ही सफल मनोरथ और भाग्यशाली हैं॥ २०॥
रम्यचत्वरसंस्थानां संविभक्तमहापथाम्।
हर्म्यप्रासादसम्पन्नां गणिकावरशोभिताम्॥२१॥
रथाश्वगजसम्बाधां तूर्यनादनिनादिताम्।
सर्वकल्याणसम्पूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम्॥ २२॥
आरामोद्यानसम्पन्नां समाजोत्सवशालिनीम्।
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानी पितुर्मम॥२३॥
‘(यदि पिताजी जीवित रहे तो) रमणीय चबूतरों और चौराहों के सुन्दर स्थानों से युक्त, पृथक्-पृथक् बने हुए विशाल राजमार्गों से अलंकृत, धनिकों की अट्टालिकाओं और देवमन्दिरों एवं राजभवनों से सम्पन्न, श्रेष्ठ वाराङ्गनाओंसे सुशोभित, रथों, घोड़ों और हाथियों के आवागमन से भरी हुई, विविध वाद्यों की ध्वनियों से निनादित, समस्त कल्याणकारी वस्तुओं से भरपूर, हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से सेवित, पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से विभूषित तथा सामाजिक उत्सवों से सुशोभित हुई मेरे पिता की राजधानी अयोध्यापुरी में जो लोग विचरेंगे, वास्तव में वे ही सुखी हैं॥ २१–२३॥
अपि जीवेद् दशरथो वनवासात् पुनर्वयम्।
प्रत्यागम्य महात्मानमपि पश्याम सुव्रतम्॥२४॥
‘क्या मेरे पिता महाराज दशरथ हमलोगों के लौटने तक जीवित रहेंगे? क्या वनवास से लौटकर उन उत्तम व्रतधारी महात्मा का हम फिर दर्शन कर सकेंगे?॥
अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम्।
निवृत्ते वनवासेऽस्मिन्नयोध्यां प्रविशेमहि ॥ २५॥
‘क्या वनवास की इस अवधि के समाप्त होने पर हमलोग सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम के साथ कुशलपूर्वक अयोध्यापुरी में प्रवेश कर सकेंगे?’ ॥ २५ ॥
परिदेवयमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः।
तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत ॥२६॥
इस प्रकार दुःख से आर्त होकर विलाप करते हुए महामना राजकुमार लक्ष्मण को वह सारी रात जागते ही बीती॥२६॥
तथा हि सत्यं ब्रुवति प्रजाहिते नरेन्द्रसूनौ गुरुसौहृदाद् गुहः।
मुमोच बाष्पं व्यसनाभिपीडितो ज्वरातुरो नाग इव व्यथातुरः॥२७॥
प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले राजकुमार लक्ष्मण जब बड़े भाई के प्रति सौहार्दवश उपर्युक्त रूप से यथार्थ बात कह रहे थे, उस समय उसे सुनकर निषादराज गुह दुःख से पीड़ित हो उठा और व्यथा से व्याकुल हो ज्वरसे आतुर हुए हाथी की भाँति आँसू बहाने लगा। २७॥
सर्ग ५२
प्रभातायां तु शर्वर्यां पृथुवक्षा महायशाः।
उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं शुभलक्षणम्॥१॥
जब रात बीती और प्रभात हुआ, उस समय विशाल वक्षवाले महायशस्वी श्रीरामने शुभलक्षणसम्पन्न सुमित्राकुमार लक्ष्मणसे इस प्रकार कहा- ॥१॥
भास्करोदयकालोऽसौ गता भगवती निशा।
असौ सुकृष्णो विहगः कोकिलस्तात कूजति॥ २॥
‘तात! भगवती रात्रि व्यतीत हो गयी अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। वह अत्यन्त कालेरंग का पक्षी कोकिल कुहू कुहू बोल रहा है। २॥
बर्हिणानां च निर्घोषः श्रूयते नदतां वने।
तराम जाह्नवीं सौम्य शीघ्रगां सागरङ्गमाम्॥३॥
‘वन में अव्यक्त शब्द करने वाले मयूरों की केकावाणी भी सुनायी देती है; अतः सौम्य! अब हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी गङ्गाजी के पार उतरना चाहिये’॥
विज्ञाय रामस्य वचः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः।
गुहमामन्त्र्य सूतं च सोऽतिष्ठद् भ्रातुरग्रतः॥४॥
मित्रों को आनन्दित करने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने श्रीरामचन्द्रजी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह और सुमन्त्र को बुलाकर पार उतरने की व्यवस्था करने के लिये कहा और स्वयं वे भाई के सामने आकर खड़े हो गये।
स तु रामस्य वचनं निशम्य प्रतिगृह्य च।
स्थपतिस्तूर्णमाहूय सचिवानिदमब्रवीत्॥५॥
श्रीरामचन्द्रजी का वचन सुनकर उनका आदेश शिरोधार्य करके निषादराज ने तुरंत अपने सचिवों को बुलाया और इस प्रकार कहा- ॥५॥
अस्यवाहनसंयुक्तां कर्णग्राहवतीं शुभाम्।
सुप्रतारां दृढां तीर्थे शीघ्रं नावमुपाहर॥६॥
‘तुम घाटपर शीघ्र ही एक ऐसी नाव ले आओ, जो मजबूत होने के साथ ही सुगमतापूर्वक खेने योग्य हो, उसमें डाँड़ लगा हुआ हो, कर्णधार बैठा हो तथा वह नाव देखने में सुन्दर हो’॥ ६॥
तं निशम्य गुहादेशं गुहामात्यो गतो महान्।
उपोह्य रुचिरां नावं गुहाय प्रत्यवेदयत्॥७॥
निषादराज गुह का वह आदेश सुनकर उसका महान् मन्त्री गया और एक सुन्दर नाव घाट पर पहुँचाकर उसने गुह को इसकी सूचना दी॥७॥
ततः स प्राञ्जलिर्भूत्वा गुहो राघवमब्रवीत्।
उपस्थितेयं नौर्देव भूयः किं करवाणि ते॥८॥
तब गुह ने हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजी से कहा —’देव! यह नौका उपस्थित है; बताइये, इस समय आपकी और क्या सेवा करूँ? ॥ ८॥
तवामरसुतप्रख्य तर्तुं सागरगामिनीम्।
नौरियं पुरुषव्याघ्र शीघ्रमारोह सुव्रत॥९॥
‘देवकुमार के समान तेजस्वी तथा उत्तम व्रतकापालन करने वाले पुरुषसिंह श्रीराम ! समुद्रगामिनी गङ्गानदी को पार करने के लिये आपकी सेवा में यह नाव आ गयी है, अब आप शीघ्र इस पर आरूढ़ होइये’ ॥९॥
अथोवाच महातेजा रामो गुहमिदं वचः।
कृतकामोऽस्मि भवता शीघ्रमारोप्यतामिति॥ १०॥
तब महातेजस्वी श्रीराम गुह से इस प्रकार बोले ‘सखे! तुमने मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया,अब शीघ्र ही सब सामान नाव पर चढ़ाओ’ ॥ १०॥
ततः कलापान् संनह्य खड्गौ बध्वा च धन्विनौ।
जग्मतुर्येन तां गङ्गां सीतया सह राघवौ॥११॥
यह कहकर श्रीराम और लक्ष्मण ने कवच धारण करके तरकस एवं तलवार बाँधी तथा धनुष लेकर वे दोनों भाई जिस मार्ग से सब लोग घाटपर जाया करते थे, उसी से सीता के साथ गङ्गाजी के तट पर गये॥ ११॥
राममेवं तु धर्मज्ञमुपागत्य विनीतवत्।
किमहं करवाणीति सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ १२॥
उस समय धर्म के ज्ञाता भगवान् श्रीराम के पास जाकर सारथि सुमन्त्र ने विनीतभाव से हाथ जोड़कर पूछा-‘प्रभो! अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’॥ १२॥
ततोऽब्रवीद् दाशरथिः सुमन्त्रं स्पृशन् करेणोत्तमदक्षिणेन।
सुमन्त्र शीघ्रं पुनरेव याहि राज्ञः सकाशे भव चाप्रमत्तः॥१३॥
तब दशरथनन्दन श्रीराम ने सुमन्त्र को उत्तम दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुए कहा—’सुमन्त्रजी! अब आप शीघ्र ही पुनः महाराज के पास लौट जाइये और वहाँ सावधान होकर रहिये’ ॥ १३॥
निवर्तस्वेत्युवाचैनमेतावद्धि कृतं मम।
रथं विहाय पद्भ्यां तु गमिष्यामो महावनम्॥ १४॥
उन्होंने फिर कहा—’इतनी दूरतक महाराज की आज्ञा से मैंने रथ द्वारा यात्रा की है, अब हमलोग रथ छोड़कर पैदल ही महान् वन की यात्रा करेंगे; अतः आप लौट जाइये’ ॥ १४॥
आत्मानं त्वभ्यनुज्ञातमवेक्ष्यार्तः स सारथिः।
सुमन्त्रः पुरुषव्याघ्रमैक्ष्वाकमिदमब्रवीत्॥१५॥
अपने को घर लौटने की आज्ञा प्राप्त हुई देख सारथि सुमन्त्र शोक से व्याकुल हो उठे और इक्ष्वाकुनन्दन पुरुषसिंह श्रीराम से इस प्रकार बोले- ॥ १५॥
नातिक्रान्तमिदं लोके पुरुषेणेह केनचित्।
तव सभ्रातृभार्यस्य वासः प्राकृतवद् वने॥१६॥
‘रघुनन्दन! जिसकी प्रेरणा से आपको भाई और पत्नी के साथ साधारण मनुष्यों की भाँति वन में रहने को विवश होना पड़ा है, उस दैव का इस संसार में किसी भी पुरुष ने उल्लङ्घन नहीं किया॥१६॥
न मन्ये ब्रह्मचर्ये वा स्वधीते वा फलोदयः।
मार्दवार्जवयोऽपि त्वां चेद् व्यसनमागतम्॥ १७॥
‘जब आप-जैसे महान् पुरुष पर यह संकट आ गया, तब मैं समझता हूँ कि ब्रह्मचर्य-पालन, वेदों के स्वाध्याय, दयालुता अथवा सरलता में भी किसी फल की सिद्धि नहीं है॥ १७॥
सह राघव वैदेह्या भ्रात्रा चैव वने वसन्।
त्वं गतिं प्राप्स्यसे वीर त्रील्लोकांस्तु जयन्निव॥ १८॥
‘वीर रघुनन्दन! (इस प्रकार पिता के सत्य की रक्षा के लिये) विदेहनन्दिनी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन में निवास करते हुए आप तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाले महापुरुष नारायण की भाँति उत्कर्ष (महान् यश) प्राप्त करेंगे॥ १८ ॥
वयं खलु हता राम ये त्वया ह्युपवञ्चिताः।
कैकेय्या वशमेष्यामः पापाया दुःखभागिनः॥ १९॥
‘श्रीराम! निश्चय ही हमलोग हर तरह से मारे गये; क्योंकि आपने हम पुरवासियों को अपने साथ न ले जाकर अपने दर्शनजनित सुख से वञ्चित कर दिया। अब हम पापिनी कैकेयी के वश में पड़ेंगे और दुःख भोगते रहेंगे’॥ १९॥
इति ब्रुवन्नात्मसमं सुमन्त्रः सारथिस्तदा।
दृष्ट्वा दूरगतं रामं दुःखार्तो रुरुदे चिरम्॥२०॥
आत्मा के समान प्रिय श्रीरामचन्द्रजी से ऐसी बात कहकर उन्हें दूर जाने को उद्यत देख सारथि सुमन्त्र दुःख से व्याकुल होकर देर तक रोते रहे ॥ २०॥
ततस्तु विगते बाष्पे सूतं स्पृष्ट्वोदकं शुचिम्।
रामस्तु मधुरं वाक्यं पुनः पुनरुवाच तम्॥२१॥
आँसुओं का प्रवाह रुकने पर आचमन करके पवित्र हुए सारथि से श्रीरामचन्द्रजी ने बारंबार मधुर वाणी में कहा- ॥२१॥
इक्ष्वाकूणां त्वया तुल्यं सुहृदं नोपलक्षये।
यथा दशरथो राजा मां न शोचेत् तथा कुरु॥ २२॥
‘सुमन्त्रजी! मेरी दृष्टि में इक्ष्वाकुवंशियों का हित करने वाला सुहृद् आपके समान दूसरा कोई नहीं है। आप ऐसा प्रयत्न करें, जिससे महाराज दशरथ को मेरे लिये शोक न हो॥ २२॥
शोकोपहतचेताश्च वृद्धश्च जगतीपतिः।
कामभारावसन्नश्च तस्मादेतद् ब्रवीमि ते॥२३॥
‘पृथिवीपति महाराज दशरथ एक तो बूढ़े हैं, दूसरे उनका सारा मनोरथ चूर-चूर हो गया है; इसलिये उनका हृदय शोक से पीड़ित है। यही कारण है कि मैं आपको उनकी सँभाल के लिये कहता हूँ॥२३॥
यद् यथा ज्ञापयेत् किंचित् स महात्मा महीपतिः।
कैकेय्याः प्रियकामार्थं कार्यं तदविकांक्षया॥ २४॥
‘वे महामनस्वी महाराज कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से आपको जो कुछ जैसी भी आज्ञा दें, उसका आप आदरपूर्वक पालन करें-यही मेरा अनुरोध है॥ २४॥
एतदर्थं हि राज्यानि प्रशासति नराधिपाः।
यदेषां सर्वकृत्येषु मनो न प्रतिहन्यते॥ २५॥
‘राजा लोग इसीलिये राज्य का पालन करते हैं कि किसी भी कार्य में इनके मन की इच्छा-पूर्ति में विघ्न न डाला जाय॥२५॥
यद् यथा स महाराजो नालीकमधिगच्छति।
न च ताम्यति शोकेन सुमन्त्र कुरु तत् तथा॥ २६॥
समन्त्रजी! जिस किसी भी कार्य में जिस किसी तरह भी महाराज को अप्रिय बात से खिन्न होने का अवसर न आवे तथा वे शोक से दुबले न हों, वह आपको उसी प्रकार करना चाहिये॥ २६ ॥
अदृष्टदुःखं राजानं वृद्धमार्यं जितेन्द्रियम्।
ब्रूयास्त्वमभिवाद्यैव मम हेतोरिदं वचः॥२७॥
‘जिन्होंने कभी दुःख नहीं देखा है, उन आर्य, जितेन्द्रिय और वृद्ध महाराज को मेरी ओर से प्रणाम करके यह बात कहियेगा॥ २७॥
न चाहमनुशोचामि लक्ष्मणो न च शोचति।
अयोध्यायाश्च्युताश्चेति वने वत्स्यामहेति वा॥ २८॥
‘हम लोग अयोध्या से निकल गये अथवा हमें वन में रहना पड़ेगा, इस बात को लेकर न तो मैं कभी शोक करता हूँ और न लक्ष्मण को ही इसका शोक है। २८॥
चतुर्दशसु वर्षेषु निवृत्तेषु पुनः पुनः।
लक्ष्मणं मां च सीतां च द्रक्ष्यसे शीघ्रमागतान्॥ २९॥
‘चौदह वर्ष समाप्त होने पर हम पुनः शीघ्र ही लौट आयेंगे और उस समय आप मुझे, लक्ष्मण को और सीता को भी फिर देखेंगे॥ २९॥
एवमुक्त्वा तु राजानं मातरं च सुमन्त्र मे।
अन्याश्च देवीः सहिताः कैकेयीं च पुनः पुनः॥ ३०॥
“सुमन्त्रजी! महाराज से ऐसा कहकर आप मेरी माता से, उनके साथ बैठी हुई अन्य देवियों (माताओं) से तथा कैकेयी से भी बारंबार मेरा कुशल-समाचार कहियेगा॥३०॥
आरोग्यं ब्रूहि कौसल्यामथ पादाभिवन्दनम्।
सीताया मम चार्यस्य वचनाल्लक्ष्मणस्य च॥ ३१॥
‘माता कौसल्या से कहियेगा कि तुम्हारा पुत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न है। इसके बाद सीता की ओर से, मुझ ज्येष्ठ पुत्र की ओर से तथा लक्ष्मण की ओर से भी माता की चरण वन्दना कह दीजियेगा॥३१॥
ब्रूयाश्चापि महाराजं भरतं क्षिप्रमानय।
आगतश्चापि भरतः स्थाप्यो नृपमते पदे॥३२॥
तदनन्तर मेरी ओर से महाराज से भी यह निवेदन कीजियेगा कि आप भरत को शीघ्र ही बुलवा लें और जब वे आ जायँ, तब अपने अभीष्ट युवराज पद पर उनका अभिषेक कर दें॥३२॥
भरतं च परिष्वज्य यौवराज्येऽभिषिच्य च।
अस्मत्संतापजं दुःखं न त्वामभिभविष्यति॥३३॥
‘भरत को छाती से लगाकर और युवराज के पद पर अभिषिक्त करके आपको हमलोगों के वियोग से होने वाला दुःख दबा नहीं सकेगा॥३३॥
भरतश्चापि वक्तव्यो यथा राजनि वर्तसे।
तथा मातृषु वर्तेथाः सर्वास्वेवाविशेषतः॥ ३४॥
‘भरत से भी हमारा यह संदेश कह दीजियेगा कि महाराज के प्रति जैसा तुम्हारा बर्ताव है, वैसा ही समानरूप से सभी माताओं के प्रति होना चाहिये। ३४॥
यथा च तव कैकेयी सुमित्रा चाविशेषतः।
तथैव देवी कौसल्या मम माता विशेषतः॥ ३५॥
‘तुम्हारी दृष्टि में कैकेयी का जो स्थान है, वही समान रूप से सुमित्रा और मेरी माता कौसल्या का भी होना उचित है, इन सबमें कोई अन्तर न रखना॥ ३५॥
तातस्य प्रियकामेन यौवराज्यमवेक्षता।
लोकयोरुभयोः शक्यं नित्यदा सुखमेधितुम्॥ ३६॥
‘पिताजीका प्रिय करने की इच्छा से युवराज पद को स्वीकार करके यदि तुम राजकाज की देखभाल करते रहोगे तो इहलोक और परलोक में सदा ही सुख पाओगे’।
निवर्त्यमानो रामेण सुमन्त्रः प्रतिबोधितः।
तत्सर्वं वचनं श्रुत्वा स्नेहात् काकुत्स्थमब्रवीत्॥३७॥
श्रीरामचन्द्रजी ने सुमन्त्र को लौटाते हुए जब इस प्रकार समझाया, तब उनकी सारी बातें सुनकर वे श्रीराम से स्नेहपूर्वक बोले- ॥ ३७॥
यदहं नोपचारेण ब्रूयां स्नेहादविक्लवम्।
भक्तिमानिति तत् तावद् वाक्यं त्वं क्षन्तुमर्हसि॥ ३८॥
कथं हि त्वद्धिहीनोऽहं प्रतियास्यामि तां पुरीम्।
तव तात वियोगेन पुत्रशोकातुरामिव॥ ३९॥
तात! सेवक का स्वामी के प्रति जो सत्कारपूर्ण बर्ताव होना चाहिये, उसका यदि मैं आपसे बात करते समय पालन न कर सकूँ, यदि मेरे मुख से स्नेहवश कोई धृष्टतापूर्ण बात निकल जाय तो ‘यह मेरा भक्त है’ ऐसा समझकर आप मुझे क्षमा कीजियेगा। जो आपके वियोग से पुत्रशोक से आतुर हुई माता की भाँति संतप्त हो रही है, उस अयोध्यापुरी में मैं आपको साथ लिये बिना कैसे लौटकर जा सकूँगा? ॥ ३८-३९॥
सराममपि तावन्मे रथं दृष्ट्वा तदा जनः।
विना रामं रथं दृष्ट्वा विदीर्येतापि सा पुरी॥४०॥
‘आते समय लोगों ने मेरे रथ में श्रीराम को विराजमान देखा था, अब इस रथ को श्रीराम से रहित देखकर उन लोगों का और उस अयोध्यापुरी का भी हृदय विदीर्ण हो जायगा॥ ४० ॥
दैन्यं हि नगरी गच्छेद् दृष्ट्वा शून्यमिमं रथम्।
सूतावशेषं स्वं सैन्यं हतवीरमिवाहवे॥४१॥
‘जैसे युद्ध में अपने स्वामी वीर रथी के मारे जाने पर जिसमें केवल सारथि शेष रह गया हो ऐसे रथ को देखकर उसकी अपनी सेना अत्यन्त दयनीय अवस्था में पड़ जाती है, उसी प्रकार मेरे इस रथ को आपसे सूना देखकर सारी अयोध्या नगरी दीन दशा को प्राप्त हो जायगी॥४१॥
दूरेऽपि निवसन्तं त्वां मानसेनाग्रतः स्थितम्।
चिन्तयन्तोऽद्य नूनं त्वां निराहाराः कृताः प्रजाः॥ ४२॥
‘आप दूर रहकर भी प्रजा के हृदय में निवास करने के कारण सदा उसके सामने ही खड़े रहते हैं। निश्चय ही इस समय प्रजावर्ग के सब लोगों ने आपका ही चिन्तन करते हुए खाना-पीना छोड़ दिया होगा। ४२॥
दृष्टं तद् वै त्वया राम यादृशं त्वत्प्रवासने।
प्रजानां संकुलं वृत्तं त्वच्छोकक्लान्तचेतसाम्॥ ४३॥
‘श्रीराम! जिस समय आप वन को आने लगे, उस समय आपके शोक से व्याकुलचित्त हुई प्रजा ने जैसा आर्तनाद एवं क्षोभ प्रकट किया था, उसे तो आपने देखा ही था॥४३॥
आर्तनादो हि यः पौरैरुन्मुक्तस्त्वत्प्रवासने।
सरथं मां निशाम्यैव कुर्युः शतगुणं ततः॥४४॥
‘आपके अयोध्या से निकलते समय पुरवासियों ने जैसा आर्तनाद किया था, आपके बिना मुझे खाली रथ लिये लौटा देख वे उससे भी सौगुना हाहाकार करेंगे॥
अहं किं चापि वक्ष्यामि देवीं तव सुतो मया।
नीतोऽसौ मातुलकुलं संतापं मा कृथा इति॥
असत्यमपि नैवाहं ब्रूयां वचनमीदृशम्।
कथमप्रियमेवाहं ब्रूयां सत्यमिदं वचः॥ ४६॥
‘क्या मैं महारानी कौसल्या से जाकर कहँगा कि मैंने आपके बेटे को मामा के घर पहुँचा दिया है ? इसलिये आप संताप न करें, यह बात प्रिय होने पर भी असत्य है, अतः ऐसा असत्य वचन भी मैं कभी नहीं कह सकता। फिर यह अप्रिय सत्य भी कैसे सुना सकूँगा कि मैं आपके पुत्र को वन में पहुँचा आया। ४५-४६॥
मम तावन्नियोगस्थास्त्वबन्धुजनवाहिनः।
कथं रथं त्वया हीनं प्रवाह्यन्ति हयोत्तमाः॥४७॥
‘ये उत्तम घोड़े मेरी आज्ञा के अधीन रहकर आपके बन्धुजनों का भार वहन करते हैं (आपके बन्धुजनों से हीन रथ का ये वहन नहीं करते हैं), ऐसी दशा में आपसे सूने रथ को ये कैसे खींच सकेंगे?॥४७॥
तन्न शक्ष्याम्यहं गन्तुमयोध्यां त्वदृतेऽनघ।
वनवासानुयानाय मामनुज्ञातुमर्हसि ॥४८॥
‘अतः निष्पाप रघुनन्दन! अब मैं आपके बिना अयोध्या लौटकर नहीं जा सकूँगा। मुझे भी वन में चलने की ही आज्ञा दीजिये॥४८॥
यदि मे याचमानस्य त्यागमेव करिष्यसि।
सरथोऽग्निं प्रवेक्ष्यामि त्यक्तमात्र इह त्वया॥ ४९॥
‘यदि इस तरह याचना करनेपर भी आप मुझे त्याग ही देंगे तो मैं आपके द्वारा परित्यक्त होकर यहाँ रथसहित अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा॥४९॥
भविष्यन्ति वने यानि तपोविघ्नकराणि ते।
रथेन प्रतिबाधिष्ये तानि सर्वाणि राघव॥५०॥
‘रघुनन्दन! वन में आपकी तपस्या में विघ्न डालने वाले जो-जो जन्तु उपस्थित होंगे, मैं इस रथ के द्वारा उन सबको दूर भगा दूंगा॥ ५० ॥
त्वत्कृतेन मया प्राप्तं रथचर्याकृतं सुखम्।
आशंसे त्वत्कृतेनाहं वनवासकृतं सुखम्॥५१॥
श्रीराम! आपकी कृपा से मुझे आपको रथ पर बिठाकर यहाँ तक लाने का सुख प्राप्त हुआ। अब आपके ही अनुग्रह से मैं आपके साथ वन में रहने का सुख भी पाने की आशा करता हूँ॥५१॥
प्रसीदेच्छामि तेऽरण्ये भवितुं प्रत्यनन्तरः।
प्रीत्याभिहितमिच्छामि भव मे प्रत्यनन्तरः॥५२॥
‘आप प्रसन्न होकर आज्ञा दीजिये। मैं वन में आपके पास ही रहना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप प्रसन्नतापूर्वक कह दें कि तुम वन में मेरे साथ ही रहो॥५२॥
इमेऽपि च हया वीर यदि ते वनवासिनः।
परिचर्यां करिष्यन्ति प्राप्स्यन्ति परमां गतिम्॥ ५३॥
‘वीर! ये घोड़े भी यदि वन में रहते समय आपकी सेवा करेंगे तो इन्हें परमगति की प्राप्ति होगी॥ ५३॥
तव शुश्रूषणं मूर्ना करिष्यामि वने वसन्।
अयोध्यां देवलोकं वा सर्वथा प्रजहाम्यहम्॥ ५४॥
‘प्रभो! मैं वन में रहकर अपने सिरसे (सारे शरीर से) आपकी सेवा करूँगा और इस सुख के आगे अयोध्या तथा देवलोक का भी सर्वथा त्याग कर दूँगा।
नहि शक्या प्रवेष्टं सा मयायोध्या त्वया विना।
राजधानी महेन्द्रस्य यथा दुष्कृतकर्मणा ॥५५॥
‘जैसे सदाचारहीन प्राणी इन्द्र की राजधानी स्वर्ग में नहीं प्रवेश कर सकता, उसी प्रकार आपके बिना मैं अयोध्यापुरी में नहीं जा सकता॥ ५५ ॥
वनवासे क्षयं प्राप्ते ममैष हि मनोरथः।
यदनेन रथेनैव त्वां वहेयं पुरी पुनः॥५६॥
‘मेरी यह अभिलाषा है कि जब वनवास की अवधि समाप्त हो जाय, तब फिर इसी रथ पर बिठाकर आपको अयोध्यापुरी में ले चलूँ॥५६॥
चतुर्दश हि वर्षाणि सहितस्य त्वया वने।
क्षणभूतानि यास्यन्ति शतसंख्यानि चान्यथा॥ ५७॥
‘वनमें आपके साथ रहने से ये चौदह वर्ष मेरे लिये चौदह क्षणों के समान बीत जायँगे। अन्यथा चौदह सौ वर्षों के समान भारी जान पड़ेंगे॥५७॥
भृत्यवत्सल तिष्ठन्तं भर्तृपुत्रगते पथि।
भक्तं भृत्यं स्थितं स्थित्या न मा त्वं हातुमर्हसि॥ ५८॥
‘अतः भक्तवत्सल! आप मेरे स्वामी के पुत्र हैं। आप जिस पथ पर चल रहे हैं, उसी पर आपकी सेवा के लिये साथ चलने को मैं भी तैयार खड़ा हूँ। मैं आपके प्रति भक्ति रखता हूँ, आपका भृत्य हूँ और भृत्यजनोचित मर्यादा के भीतर स्थित हूँ; अतः आप मेरा परित्याग न करें’। ५८॥
एवं बहविधं दीनं याचमानं पुनः पुनः।
रामो भृत्यानुकम्पी तु सुमन्त्रमिदमब्रवीत्॥५९॥
इस तरह अनेक प्रकार से दीन वचन कहकर बारंबार याचना करने वाले सुमन्त्र से सेवकों पर कृपा करने वाले श्रीराम ने इस प्रकार कहा- ॥ ५९॥
जानामि परमां भक्तिमहं ते भर्तृवत्सल।
शृणु चापि यदर्थं त्वां प्रेषयामि पुरीमितः॥६०॥
‘सुमन्त्रजी! आप स्वामी के प्रति स्नेह रखने वाले हैं। मुझमें आपकी जो उत्कृष्ट भक्ति है, उसे मैं जानता हूँ; फिर भी जिस कार्य के लिये मैं आपको यहाँ से अयोध्यापुरी में भेज रहा हूँ, उसे सुनिये॥६०॥
नगरीं त्वां गतं दृष्ट्वा जननी मे यवीयसी।
कैकेयी प्रत्ययं गच्छेदिति रामो वनं गतः॥६१॥
‘जब आप नगर को लौट जायँगे, तब आपको देखकर मेरी छोटी माता कैकेयी को यह विश्वास हो जायगा कि राम वन को चले गये॥ ६१॥
विपरीते तुष्टिहीना वनवासं गते मयि।
राजानं नातिशङ्केत मिथ्यावादीति धार्मिकम्॥ ६२॥
‘इसके विपरीत यदि आप नहीं गये तो उसे संतोष नहीं होगा। मेरे वनवासी हो जाने पर भी वह धर्मपरायण महाराज दशरथ के प्रति मिथ्यावादी होने का संदेह करे, ऐसा मैं नहीं चाहता॥६२॥
एष मे प्रथमः कल्पो यदम्बा मे यवीयसी।
भरतारक्षितं स्फीतं पुत्रराज्यमवाप्स्यते॥६३॥
‘आपको भेजने में मेरा मुख्य उद्देश्य यही है कि मेरी छोटी माता कैकेयी भरत द्वारा सुरक्षित समृद्धिशाली राज्य को हस्तगत कर ले॥६३॥
मम प्रियार्थं राज्ञश्च सुमन्त्र त्वं पुरीं व्रज।
संदिष्टश्चापि यानर्थांस्तांस्तान् ब्रूयास्तथा तथा॥ ६४॥
‘सुमन्त्रजी! मेरा तथा महाराज का प्रिय करने के लिये आप अयोध्यापुरी को अवश्य पधारिये और आपको जिनके लिये जो संदेश दिया गया है, वह सब वहाँ जाकर उन लोगों से कह दीजिये’॥ ६४॥
इत्युक्त्वा वचनं सूतं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः।
गुहं वचनमक्लीबो रामो हेतुमदब्रवीत्॥६५॥
ऐसा कहकर श्रीराम ने सुमन्त्र को बारंबार सान्त्वना दी। इसके बाद उन्होंने गुह से उत्साहपूर्वक यह युक्तियुक्त बात कही— ॥६५॥
नेदानीं गुह योग्योऽयं वासो मे सजने वने।
अवश्यमाश्रमे वासः कर्तव्यस्तद्गतो विधिः॥ ६६॥
‘निषादराज गुह! इस समय मेरे लिये ऐसे वन में रहना उचित नहीं है, जहाँ जनपद के लोगों का आनाजाना अधिक होता हो, अब अवश्य मुझे निर्जन वन के आश्रम में ही वास करना होगा। इसके लिये जटा धारण आदि आवश्यक विधि का मुझे पालन करना चाहिये॥
सोऽहं गृहीत्वा नियमं तपस्विजनभूषणम्।
हितकामः पितुर्भूयः सीताया लक्ष्मणस्य च॥ ६७॥
जटाः कृत्वा गमिष्यामि न्यग्रोधक्षीरमानय।
तत्क्षीरं राजपुत्राय गुहः क्षिप्रमुपाहरत्॥६८॥
‘अतः फल-मूल का आहार और पृथ्वी पर शयन आदि नियमों को ग्रहण करके मैं सीता और लक्ष्मण की अनुमति लेकर पिता का हित करने की इच्छा से सिर पर तपस्वी जनों के आभूषण रूप जटा धारण करके यहाँ से वन को जाऊँगा। मेरे केशों को जटा का रूप देने के लिये तुम बड़ का दूध ला दो।’ गुहने तुरंत ही बड़ का दूध लाकर श्रीराम को दिया। ६७-६८॥
लक्ष्मणस्यात्मनश्चैव रामस्तेनाकरोज्जटाः।
दीर्घबाहर्नरव्याघ्रो जटिलत्वमधारयत्॥६९॥
श्रीराम ने उसके द्वारा लक्ष्मण की तथा अपनी जटाएँ बनायीं महाबाहु पुरुषसिंह श्रीराम तत्काल जटाधारी हो गये॥ ६९॥
तौ तदा चीरसम्पन्नौ जटामण्डलधारिणौ।
अशोभेतामृषिसमौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥७०॥
उस समय वे दोनों भाई श्रीराम-लक्ष्मण वल्कल वस्त्र और जटामण्डल धारण करके ऋषियों के समान शोभा पाने लगे॥ ७० ॥
ततो वैखानसं मार्गमास्थितः सहलक्ष्मणः।
व्रतमादिष्टवान् रामः सहायं गुहमब्रवीत्॥७१॥
तदनन्तर वानप्रस्थमार्ग का आश्रय लेकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने वानप्रस्थोचित व्रत को ग्रहण किया। तत्पश्चात् वे अपने सहायक गुह से बोले—॥ ७१॥
अप्रमत्तो बले कोशे दुर्गे जनपदे तथा।
भवेथा गुह राज्यं हि दुरारक्षतमं मतम्॥७२॥
‘निषादराज! तुम सेना, खजाना, किला और राज्य के विषय में सदा सावधान रहना; क्योंकि राज्य की रक्षा का काम बड़ा कठिन माना गया है’। ७२॥
ततस्तं समनुज्ञाप्य गुहमिक्ष्वाकुनन्दनः।
जगाम तूर्णमव्यग्रः सभार्यः सहलक्ष्मणः॥७३॥
गुह को इस प्रकार आज्ञा देकर उससे विदा ले इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजी पत्नी और लक्ष्मण के साथ तुरंत ही वहाँ से चल दिये। उस समय उनके चित्त में तनिक भी व्यग्रता नहीं थी॥७३॥
स तु दृष्ट्वा नदीतीरे नावमिक्ष्वाकुनन्दनः।
तितीर्घः शीघ्रगां गङ्गामिदं वचनमब्रवीत्॥७४॥
नदी के तट पर लगी हुई नाव को देखकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम ने शीघ्रगामी गङ्गानदी के पार जाने की इच्छा से लक्ष्मण को सम्बोधित करके कहा – || ७४॥
आरोह त्वं नरव्याघ्र स्थितां नावमिमां शनैः।
सीतां चारोपयान्वक्षं परिगृह्य मनस्विनीम्॥७५॥
‘पुरुषसिंह! यह सामने नाव खड़ी है। तुम मनस्विनी सीता को पकड़कर धीरे से उस पर बिठा दो, फिर स्वयं भी नाव पर बैठ जाओ’ ॥ ७५ ॥
स भ्रातुः शासनं श्रुत्वा सर्वमप्रतिकूलयन्।
आरोप्य मैथिली पूर्वमारुरोहात्मवांस्ततः॥७६॥
भाई का यह आदेश सुनकर मन को वश में रखने वाले लक्ष्मण ने पूर्णतः उसके अनुकूल चलते हुए पहले मिथिलेशकुमारी श्रीसीता को नावपर बिठाया, फिर स्वयं भी उसपर आरूढ़ हुए॥ ७६ ॥
अथारुरोह तेजस्वी स्वयं लक्ष्मणपूर्वजः।
ततो निषादाधिपतिर्नुहो ज्ञातीनचोदयत्॥७७॥
सबके अन्त में लक्ष्मण के बड़े भाई तेजस्वी श्रीराम स्वयं नौका पर बैठे। तदनन्तर निषादराज गुह ने अपने भाई-बन्धुओं को नौका खेने का आदेश दिया॥ ७७॥
राघवोऽपि महातेजा नावमारुह्य तां ततः।
ब्रह्मवत्क्षत्रवच्चैव जजाप हितमात्मनः॥ ७८ ॥
महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी भी उस नाव पर आरूढ़ होने के पश्चात् अपने हित के उद्देश्य से ब्राह्मण और क्षत्रिय के जपने योग्य ‘दैवी नाव’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का जप करने लगे। ७८॥
आचम्य च यथाशास्त्रं नदीं तां सह सीतया।
प्रणमत्प्रीतिसंतुष्टो लक्ष्मणश्च महारथः॥७९॥
फिर शास्त्रविधि के अनुसार आचमन करके सीता के साथ उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर गङ्गाजी को प्रणाम किया महारथी लक्ष्मण ने भी उन्हें मस्तक झुकाया॥७९॥
अनुज्ञाय सुमन्त्रं च सबलं चैव तं गुहम्।
आस्थाय नावं रामस्तु चोदयामास नाविकान्॥ ८०॥
इसके बाद श्रीराम ने सुमन्त्र को तथा सेनासहित गुह को भी जाने की आज्ञा दे नाव पर भलीभाँति बैठकर मल्लाहों को उसे चलाने का आदेश दिया॥ ८०॥
ततस्तैश्चालिता नौका कर्णधारसमाहिता।
शुभस्फ्यवेगाभिहता शीघ्रं सलिलमत्यगात्॥ ८१॥
तदनन्तर मल्लाहों ने नाव चलायी। कर्णधार सावधान होकर उसका संचालन करता था। वेग से सुन्दर डाँड़ चलाने के कारण वह नाव बड़ी तेजी से पानीपर बढ़ने लगी॥ ८१॥
मध्यं तु समनुप्राप्य भागीरथ्यास्त्वनिन्दिता।
वैदेही प्राञ्जलिर्भूत्वा तां नदीमिदमब्रवीत्॥८२॥
भागीरथी की बीच धारा में पहुँचकर सती साध्वी विदेहनन्दिनी सीता ने हाथ जोड़कर गङ्गाजी से यह प्रार्थना की— ॥ ८२॥
पुत्रो दशरथस्यायं महाराजस्य धीमतः।
निदेशं पालयत्वेनं गले त्वदभिरक्षितः॥८३॥
‘देवि गङ्गे! ये परम बुद्धिमान् महाराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये वन में जा रहे हैं। ये आपसे सुरक्षित होकर पिता की इस आज्ञा का पालन कर सकें—ऐसी कृपा कीजिये॥ ८३॥
चतुर्दश हि वर्षाणि समग्राण्युष्य कानने।
भ्रात्रा सह मया चैव पुनः प्रत्यागमिष्यति॥८४॥
‘वन में पूरे चौदह वर्षों तक निवास करके ये मेरे तथा अपने भाई के साथ पुनः अयोध्यापुरी को लौटेंगे। ८४॥
ततस्त्वां देवि सुभगे क्षेमेण पुनरागता।
यक्ष्ये प्रमुदिता गङ्गे सर्वकामसमृद्धिनी॥८५॥
‘सौभाग्यशालिनी देवि गङ्गे ! उस समय वन से पुनः कुशलपूर्वक लौटने पर सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न हुई मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी पूजा करूँगी॥ ८५॥
त्वं हि त्रिपथगे देवि ब्रह्मलोकं समक्षसे।
भार्या चोदधिराजस्य लोकेऽस्मिन् सम्प्रदृश्यसे॥ ८६॥
‘स्वर्ग, भूतल और पाताल–तीनों मार्गो पर विचरनेवाली देवि! तुम यहाँ से ब्रह्मलोकतक फैली हुई हो और इस लोक में समुद्रराज की पत्नी के रूप में दिखायी देती हो। ८६॥
सा त्वां देवि नमस्यामि प्रशंसामि च शोभने।
प्राप्तराज्ये नरव्याघ्र शिवेन पुनरागते॥८७॥
‘शोभाशालिनी देवि! पुरुषसिंह श्रीराम जब पुनः वन से सकुशल लौटकर अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब मैं सीता पुनः आपको मस्तक झुकाऊँगी और आपकी स्तुति करूँगी॥ ८७॥
गवां शतसहस्रं च वस्त्राण्यन्नं च पेशलम्।
ब्राह्मणेभ्यः प्रदास्यामि तव प्रियचिकीर्षया॥ ८८॥
‘इतना ही नहीं, मैं आपका प्रिय करने की इच्छा से ब्राह्मणों को एक लाख गौएँ, बहुत-से वस्त्र तथा उत्तमोत्तम अन्न प्रदान करूँगी॥ ८८ ॥
सुराघटसहस्रेण मांसभूतौदनेन च।
यक्ष्ये त्वां प्रीयतां देवि पुरीं पुनरुपागता॥८९॥
‘देवि! पुनः अयोध्यापुरी में लौटने पर मैं सहस्रों देवदुर्लभ पदार्थों से तथा राजकीय भाग से रहित पृथ्वी, वस्त्र और अन्न के द्वारा भी आपकी पूजा करूँगी। आप मुझ पर प्रसन्न हों ॥ ८९॥
यानि त्वत्तीरवासीनि दैवतानि च सन्ति हि।
तानि सर्वाणि यक्ष्यामि तीर्थान्यायतनानि च॥ ९०॥
‘आपके किनारे जो-जो देवता, तीर्थ और मन्दिर हैं, उन सबका मैं पूजन करूँगी॥९० ॥
पुनरेव महाबाहुर्मया भ्रात्रा च संगतः।
अयोध्यां वनवासात् तु प्रविशत्वनघोऽनघे॥ ९१॥
‘निष्पाप गङ्गे! ये महाबाहु पापरहित मेरे पतिदेव मेरे तथा अपने भा ईके साथ वनवास से लौटकर पुनः अयोध्या नगरी में प्रवेश करें’॥ ९१॥
तथा सम्भाषमाणा सा सीता गङ्गामनिन्दिता।
दक्षिणा दक्षिणं तीरं क्षिप्रमेवाभ्युपागमत्॥ ९२॥
पति के अनुकूल रहने वाली सती-साध्वी सीता इस प्रकार गङ्गाजी से प्रार्थना करती हुई शीघ्र ही दक्षिण तट पर जा पहुँचीं॥ ९२॥
तीरं तु समनुप्राप्य नावं हित्वा नरर्षभः।
प्रातिष्ठत सह भ्रात्रा वैदेह्या च परंतपः॥९३॥
किनारे पहुँचकर शत्रुओं को संताप देने वाले नरश्रेष्ठ श्रीराम ने नाव छोड़ दी और भाई लक्ष्मण तथा विदेहनन्दिनी सीता के साथ आगे को प्रस्थान किया। ९३॥
अथाब्रवीन्महाबाहुः सुमित्रानन्दवर्धनम्।
भव संरक्षणार्थाय सजने विजनेऽपि वा ॥१४॥
अवश्यं रक्षणं कार्यं मद्विधैर्विजने वने।
अग्रतो गच्छ सौमित्रे सीता त्वामनुगच्छतु ॥९५॥
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सीतां त्वां चानुपालयन्।
अन्योन्यस्य हि नो रक्षा कर्तव्या पुरुषर्षभ॥९६॥
तदनन्तर महाबाहु श्रीराम सुमित्रानन्दन लक्ष्मण से बोले—’सुमित्राकुमार! अब तुम सजन या निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिये सावधान हो जाओ। हमजैसे लोगों को निर्जन वन में नारी की रक्षा अवश्य करनी चाहिये। अतः तुम आगे-आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे-पीछे चलें और मैं सीता की तथा तुम्हारी रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूँगा। पुरुषप्रवर ! हमलोगों को एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये॥ ९४-९६॥
न हि तावदतिक्रान्तासुकरा काचन क्रिया।
अद्य दुःखं तु वैदेही वनवासस्य वेत्स्यति॥९७॥
‘अबतक कोई भी दुष्कर कार्य समाप्त नहीं हुआ है—इस समय से ही कठिनाइयों का सामना आरम्भ हुआ है। आज विदेहकुमारी सीता को वनवास के वास्तविक कष्ट का अनुभव होगा॥९७॥
प्रणष्टजनसम्बाधं क्षेत्रारामविवर्जितम्।
विषमं च प्रपातं च वनमद्य प्रवेक्ष्यति॥९८॥
‘अब ये ऐसे वन में प्रवेश करेंगी, जहाँ मनुष्यों के आने-जाने का कोई चिह्न नहीं दिखायी देगा, न धान आदि के खेत होंगे, न टहलने के लिये बगीचे। जहाँ ऊँची-नीची भूमि होगी और गड्ढे मिलेंगे, जिसमें गिरने का भय रहेगा’ ॥ ९८॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं प्रतस्थे लक्ष्मणोऽग्रतः।
अनन्तरं च सीताया राघवो रघुनन्दनः॥९९॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मण आगे बढ़े। उनके पीछे सीता चलने लगीं तथा सीता के पीछे रघुकुलनन्दन श्रीराम थे॥ ९९॥
गतं तु गङ्गापरपारमाशु रामं सुमन्त्रः सततं निरीक्ष्य।
अध्वप्रकर्षाद् विनिवृत्तदृष्टिमुमोच बाष्पं व्यथितस्तपस्वी॥१००॥
श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र गङ्गाजी के उस पार पहुँचकर जबतक दिखायी दिये तब तक सुमन्त्र निरन्तर उन्हीं की ओर दृष्टि लगाये देखते रहे। जब वन के मार्ग में बहुत दूर निकल जाने के कारण वे दृष्टि से ओझल हो गये, तब तपस्वी सुमन्त्र के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। वे नेत्रों से आँसू बहाने लगे॥ १०० ॥
स लोकपालप्रतिमप्रभावस्तीर्वा महात्मा वरदो महानदीम्।
ततः समृद्धान् शुभसस्यमालिनः क्रमेण वत्सान् मुदितानुपागमत्॥१०१॥
लोकपालों के समान प्रभावशाली वरदायक महात्मा श्रीराम महानदी गङ्गा को पार करके क्रमशः समृद्धिशाली वत्सदेश (प्रयाग)-में जा पहुँचे, जो सुन्दर धन-धान्य से सम्पन्न था। वहाँ के लोग बड़े हृष्टपुष्ट थे॥ १०१॥
तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान् वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ – वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्॥१०२॥
वहाँ उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋष्य, पृषत् और महारुरु—इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिये (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये॥ १०२ ॥
सर्ग ५३
स तं वृक्षं समासाद्य संध्यामन्वास्य पश्चिमाम्।
रामो रमयतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम्॥१॥
उस वृक्ष के नीचे पहुँचकर आनन्द प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ श्रीराम ने सायंकाल की संध्योपासना करके लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ॥१॥
अद्येयं प्रथमा रात्रिर्याता जनपदाद् बहिः।
या समन्त्रेण रहिता तां नोत्कण्ठितुमर्हसि ॥२॥
‘सुमित्रानन्दन! आज हमें अपने जनपद से बाहर यह पहली रात प्राप्त हुई है। जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं। इस रात को पाकर तुम्हें नगर की सुख सुविधाओं के लिये उत्कण्ठित नहीं होना चाहिये॥२॥
जागर्तव्यमतन्द्रिभ्यामद्यप्रभृति रात्रिषु।
योगक्षेमौ हि सीताया वर्तेते लक्ष्मणावयोः॥३॥
“लक्ष्मण! आज से हम दोनों भाइयों को आलस्य छोड़कर रात में जागना होगा; क्योंकि सीता के योग क्षेम हम दोनों के ही अधीन हैं॥३॥
रात्रिं कथंचिदेवेमां सौमित्रे वर्तयामहे।
अपवर्तामहे भूमावास्तीर्य स्वयमर्जितैः॥४॥
‘सुमित्रानन्दन! यह रात हमलोग किसी तरह बितायँगे और स्वयं संग्रह करके लाये हुए तिनकों और पत्तों की शय्या बनाकर उसे भूमिपर बिछाकर उस पर किसी तरह सो लेंगे’॥ ४॥
स तु संविश्य मेदिन्यां महार्हशयनोचितः।
इमाः सौमित्रये रामो व्याजहार कथाः शुभाः॥
जो बहुमूल्य शय्यापर सोने के योग्य थे, वे श्रीराम भूमि पर ही बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से ये शुभ बातें कहने लगे— ॥ ५॥
ध्रुवमद्य महाराजो दुःखं स्वपिति लक्ष्मण।
कृतकामा तु कैकेयी तुष्टा भवितुमर्हति॥६॥
‘लक्ष्मण! आज महाराज निश्चय ही बड़े दुःख से सो रहे होंगे; परंतु कैकेयी सफल मनोरथ होने के कारण बहुत संतुष्ट होगी॥ ६॥
सा हि देवी महाराजं कैकेयी राज्यकारणात्।
अपि न च्यावयेत् प्राणान् दृष्ट्वा भरतमागतम्॥
‘कहीं ऐसा न हो कि रानी कैकेयी भरत को आया देख राज्य के लिये महाराज को प्राणों से भी वियुक्त कर दे॥७॥
अनाथश्च हि वृद्धश्च मया चैव विना कृतः।
किं करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतः॥ ८॥
‘महाराज का कोई रक्षक न होने के कारण वे इस समय अनाथ हैं, बूढ़े हैं और उन्हें मेरे वियोग का सामना करना पड़ा है। उनकी कामना मन में ही रह गयी तथा वे कैकेयी के वश में पड़ गये हैं; ऐसी दशा में वे बेचारे अपनी रक्षा के लिये क्या करेंगे? ॥ ८॥
इदं व्यसनमालोक्य राज्ञश्च मतिविभ्रमम्।
काम एवार्थधर्माभ्यां गरीयानिति मे मतिः॥९॥
‘अपने ऊपर आये हुए इस संकट को और राजा की मतिभ्रान्ति को देखकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि अर्थ और धर्म की अपेक्षा काम का ही गौरव अधिक है॥९॥
को ह्यविद्वानपि पुमान् प्रमदायाः कृते त्यजेत्।
छन्दानुवर्तिनं पुत्रं तातो मामिव लक्ष्मण ॥१०॥
‘लक्ष्मण ! पिताजी ने जिस तरह मुझे त्याग दिया है, उस प्रकार अत्यन्त अज्ञ होने पर भी कौन ऐसा पुरुष होगा, जो एक स्त्री के लिये अपने आज्ञाकारी पुत् का परित्याग कर दे?॥ १०॥
सुखी बत सुभार्यश्च भरतः केकयीसुतः।
मुदितान् कोसलानेको यो भोक्ष्यत्यधिराजवत्॥ ११॥
‘कैकेयीकुमार भरत ही सुखी और सौभाग्यवती स्त्री के पति हैं, जो अकेले ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरे हुए कोसल देश का सम्राट् की भाँति पालन करेंगे। ११॥
स हि राज्यस्य सर्वस्य सुखमेकं भविष्यति।
ताते तु वयसातीते मयि चारण्यमाश्रिते॥१२॥
‘पिताजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और मैं वन में चला आया हूँ, ऐसी दशा में केवल भरत ही समस्त राज्य के श्रेष्ठ सुख का उपभोग करेंगे॥ १२॥
अर्थधर्मी परित्यज्य यः काममनुवर्तते।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा॥१३॥
‘सच है, जो अर्थ और धर्म का परित्याग करके केवल काम का अनुसरण करता है, वह उसी प्रकार शीघ्र ही आपत्ति में पड़ जाता है, जैसे इस समय महाराज दशरथ पड़े हैं॥ १३॥
मन्ये दशरथान्ताय मम प्रव्राजनाय च।
कैकेयी सौम्य सम्प्राप्ता राज्याय भरतस्य च॥ १४॥
‘सौम्य! मैं समझता हूँ कि महाराज दशरथ के प्राणों का अन्त करने, मुझे देश निकाला देने और भरत को राज्य दिलाने के लिये ही कैकेयी इस राजभवन में आयी थी॥१४॥
अपीदानीं तु कैकेयी सौभाग्यमदमोहिता।
कौसल्यां च सुमित्रां च सा प्रबाधेत मत्कृते॥ १५॥
‘इस समय भी सौभाग्य के मद से मोहित हुई कैकेयी मेरे कारण कौसल्या और सुमित्रा को कष्ट पहुँचा सकती है॥ १५ ॥
मातास्मत्कारणाद् देवी सुमित्रा दुःखमावसेत्।
अयोध्यामित एव त्वं काले प्रविश लक्ष्मण॥ १६॥
‘हमलोगों के कारण तुम्हारी माता सुमित्रादेवी को बड़े दुःख के साथ वहाँ रहना पड़ेगा; अतः लक्ष्मण! तुम यहीं से कल प्रातःकाल अयोध्या को लौट जाओ। १६॥
अहमेको गमिष्यामि सीतया सह दण्डकान्।
अनाथाया हि नाथस्त्वं कौसल्याया भविष्यसि॥ १७॥
‘मैं अकेला ही सीता के साथ दण्डक वन को जाऊँगा। तुम वहाँ मेरी असहाय माता कौसल्या के सहायक हो जाओगे॥ १७॥
क्षुद्रकर्मा हि कैकेयी द्वेषादन्यायमाचरेत्।
परिदद्याद्धि धर्मज्ञ गरं ते मम मातरम्॥१८॥
‘धर्मज्ञ लक्ष्मण! कैकेयी के कर्म बड़े खोटे हैं। वह द्वेषवश अन्याय भी कर सकती है। तुम्हारी और मेरी माता को जहर भी दे सकती है॥ १८॥
नूनं जात्यन्तरे तात स्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः।
जनन्या मम सौमित्रे तदद्यैतदुपस्थितम्॥१९॥
“तात सुमित्राकुमार! निश्चय ही पूर्वजन्म में मेरी माता ने कुछ स्त्रियों का उनके पुत्रों से वियोग कराया होगा, उसी पाप का यह पुत्र-बिछोहरूप फल आज उन्हें प्राप्त हुआ है॥ १९॥
मया हि चिरपुष्टेन दुःखसंवर्धितेन च।
विप्रयुज्यत कौसल्या फलकाले धिगस्तु माम्॥ २०॥
‘मेरी माता ने चिरकाल तक मेरा पालन-पोषण किया और स्वयं दुःख सहकर मुझे बड़ा किया। अब जब पुत्र से प्राप्त होने वाले सुखरूपी फल के भोगने का अवसर आया, तब मैंने माता कौसल्या को अपने से बिलग कर दिया मुझे धिक्कार है !॥ २० ॥
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम्।
सौमित्रे योऽहमम्बाया दद्मि शोकमनन्तकम्॥
‘सुमित्रानन्दन! कोई भी सौभाग्यवती स्त्री कभी ऐसे पुत्र को जन्म न दे, जैसा मैं हूँ; क्योंकि मैं अपनी माता को अनन्त शोक दे रहा हूँ॥ २१॥
मन्ये प्रीतिविशिष्टा सा मत्तो लक्ष्मण सारिका।
यत्तस्याः श्रूयते वाक्यं शुक पादमरेर्दश ॥२२॥
‘लक्ष्मण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि माता कौसल्या में मुझसे अधिक प्रेम उनकी पाली हुई वह सारिका ही करती है; क्योंकि उसके मुख से माँ को सदा यह बात सुनायी देती है कि ‘ऐ तोते! तू शत्रु के पैर को काट खा’ (अर्थात् हमें पालने वाली माता कौसल्या के शत्रु के पाँव को चोंच मार दे। वह पक्षिणी होकर माता का इतना ध्यान रखती है और मैं उनका पुत्र होकर भी उनके लिये कुछ नहीं कर पाता)॥ २२॥
शोचन्त्याश्चाल्पभाग्याया न किंचिदुपकुर्वता।
पुत्रेण किमपुत्राया मया कार्यमरिंदम॥२३॥
‘शत्रुदमन! जो मेरे लिये शोकमग्न रहती है, मन्दभागिनी-सी हो रही है और पुत्र का कोई फल न पाने के कारण निपूती-सी हो गयी है, उस मेरी माता को कुछ भी उपकार न करने वाले मुझ-जैसे पुत्र से क्या प्रयोजन है ? ॥ २३॥
अल्पभाग्या हि मे माता कौसल्या रहिता मया।
शेते परमदुःखार्ता पतिता शोकसागरे॥२४॥
‘मुझसे बिछुड़ जाने के कारण माता कौसल्या वास्तव में मन्दभागिनी हो गयी है और शोक के समुद्र में पड़कर अत्यन्त दुःख से आतुर हो उसी में शयन करती है।
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम्॥२५॥
‘लक्ष्मण! यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो अपने बाणों द्वारा अकेला ही अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डल को निष्कण्टक बनाकर अपने अधिकार में कर लूँ; परंतु पारलौकिक हित-साधन में बल-पराक्रम कारण नहीं होता है (इसीलिये मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ।) ॥ २५ ॥
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये॥२६॥
‘निष्पाप लक्ष्मण ! मैं अधर्म और परलोक के डर से डरता हूँ; इसीलिये आज अयोध्या के राज्यपर अपना अभिषेक नहीं कराता हूँ॥२६॥
एतदन्यच्च करुणं विलप्य विजने बहु।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो निशि तूष्णीमुपाविशत्॥ २७॥
यह तथा और भी बहुत-सी बातें कहकर श्रीराम ने उस निर्जन वन में करुणाजनक विलाप किया। तत्पश्चात् वे उस रात में चुपचाप बैठ गये। उस समय उनके मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी और दीनता छा रही थी॥
विलापोपरतं रामं गतार्चिषमिवानलम्।
समुद्रमिव निर्वेगमाश्वासयत लक्ष्मणः॥२८॥
विलाप से निवृत्त होने पर श्रीराम ज्वालारहित अग्नि और वेगशून्य समुद्र के समान शान्त प्रतीत होते थे। उस समय लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा – ॥२८॥
ध्रुवमद्य पुरी राम अयोध्याऽऽयधिनां वर।
निष्प्रभा त्वयि निष्क्रान्ते गतचन्द्रेव शर्वरी॥ २९॥
‘अस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीराम! आपके निकल आने से निश्चय ही आज अयोध्यापुरी चन्द्रहीन रात्रि के समान निस्तेज हो गयी॥ २९॥
नैतदौपयिकं राम यदिदं परितप्यसे।
विषादयसि सीतां च मां चैव पुरुषर्षभ॥३०॥
‘पुरुषोत्तम श्रीराम! आप जो इस तरह संतप्त हो रहे हैं, यह आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आप ऐसा करके सीता को और मुझको भी खेद में डाल रहे हैं।॥ ३०॥
न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव।
मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविवोद्धृतौ॥ ३१॥
‘रघुनन्दन! आपके बिना सीता और मैं दोनों दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। ठीक उसी तरह, जैसे जल से निकाले हुए मत्स्य नहीं जीते हैं॥ ३१॥
नहि तातं न शत्रुघ्नं न सुमित्रां परंतप।
द्रष्टमिच्छेयमद्याहं स्वर्गं चापि त्वया विना॥३२॥
‘शत्रुओं को ताप देने वाले रघुवीर! आपके बिना आज मैं न तो पिताजी को, न भाई शत्रुघ्न को, न माता सुमित्रा को और न स्वर्गलोक को ही देखना चाहता।
ततस्तत्र समासीनौ नातिदूरे निरीक्ष्य ताम्।
न्यग्रोधे सुकृतां शय्यां भेजाते धर्मवत्सलौ॥३३॥
तदनन्तर वहाँ बैठे हुए धर्मवत्सल सीता और श्रीराम ने थोड़ी ही दूरपर वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा सुन्दर ढंग से निर्मित हुई शय्या देखकर उसीका आश्रय लिया (अर्थात् वे दोनों वहाँ जाकर सो गये।) ॥ ३३॥
स लक्ष्मणस्योत्तमपुष्कलं वचो निशम्य चैवं वनवासमादरात्।
समाः समस्ता विदधे परंतपः प्रपद्य धर्मं सुचिराय राघवः॥३४॥
शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनाथजी ने इस प्रकार वनवास के प्रति आदरपूर्वक कहे हुए लक्ष्मण के अत्यन्त उत्तम वचनों को सुनकर स्वयं भी दीर्घकाल के लिये वनवास रूप धर्म को स्वीकार करके सम्पूर्ण वर्षों तक लक्ष्मण को अपने साथ वन में रहने की अनुमति दे दी॥
ततस्तु तस्मिन् विजने महाबलौ महावने राघववंशवर्धनौ।
न तौ भयं सम्भ्रममभ्युपेयतुर्यथैव सिंहौ गिरिसानुगोचरौ॥ ३५॥
तदनन्तर उस महान् निर्जन वन में रघुवंश की वृद्धि करने वाले वे दोनों महाबली वीर पर्वतशिखर पर विचरने वाले दो सिंहों के समान कभी भय और उद्वेग को नहीं प्राप्त हुए।
सर्ग ५४
ते तु तस्मिन् महावृक्षे उषित्वा रजनी शुभाम्।
विमलेऽभ्युदिते सूर्ये तस्माद् देशात् प्रतस्थिरे॥
उस महान् वृक्ष के नीचे वह सुन्दर रात बिताकर वे सब लोग निर्मल सूर्योदयकाल में उस स्थान से आगे को प्रस्थित हुए॥१॥
यत्र भागीरथीं गङ्गां यमुनाभिप्रवर्तते।
जग्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्य सुमहद् वनम्॥२॥
जहाँ भागीरथी गङ्गा से यमुना मिलती हैं, उस स्थान पर जाने के लिये वे महान् वन के भीतर से होकर यात्रा करने लगे॥२॥
ते भूमिभागान् विविधान् देशांश्चापि मनोहरान्।
अदृष्टपूर्वान् पश्यन्तस्तत्र तत्र यशस्विनः॥३॥
वे तीनों यशस्वी यात्री मार्ग में जहाँ-तहाँ जो पहले कभी देखने में नहीं आये थे, ऐसे अनेक प्रकार के भूभाग तथा मनोहर प्रदेश देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। ३॥
यथा क्षेमेण सम्पश्यन् पुष्पितान् विविधान् दुमान्।
निर्वृत्तमात्रे दिवसे रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥४॥
सुखपूर्वक आराम से उठते-बैठते यात्रा करते हुए उन तीनों ने फूलों से सुशोभित भाँति-भाँति के वृक्षों का दर्शन किया। इस प्रकार जब दिन प्रायः समाप्त हो चला, तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- ॥४॥
प्रयागमभितः पश्य सौमित्रे धूममुत्तमम्।
अग्नेर्भगवतः केतुं मन्ये संनिहितो मुनिः॥५॥
‘सुमित्रानन्दन! वह देखो, प्रयाग के पास भगवान् अग्निदेव की ध्वजारूप उत्तम धूम उठ रहा है। मालूम होता है, मुनिवर भरद्वाज यहीं हैं।॥ ५॥
नूनं प्राप्ताः स्म सम्भेदं गङ्गायमुनयोर्वयम्।
तथाहि श्रूयते शब्दो वारिणोरिघर्षजः॥६॥
‘निश्चय ही हमलोग गङ्गा-यमुना के सङ्गम के पास आ पहुँचे हैं; क्योंकि दो नदियों के जलों के परस्पर टकराने से जो शब्द प्रकट होता है, वह सुनायी दे रहा है॥६॥
दारूणि परिभिन्नानि वनजैरुपजीविभिः ।
छिन्नाश्चाप्याश्रमे चैते दृश्यन्ते विविधा द्रुमाः॥ ७॥
‘वन में उत्पन्न हुए फल-मूल और काष्ठ आदि से जीविका चलाने वाले लोगों ने जो लकड़ियाँ काटी हैं, वे दिखायी देती हैं तथा जिनकी लकड़ियाँ काटी गयी हैं, वे नाना प्रकार के वृक्ष भी आश्रम के समीप दृष्टिगोचर हो रहे हैं’ ॥ ७॥
धन्विनौ तौ सुखं गत्वा लम्बमाने दिवाकरे।
गङ्गायमुनयोः संधौ प्रापतुर्निलयं मुनेः॥८॥
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों धनुर्धर वीर श्रीराम और लक्ष्मण सूर्यास्त होते-होते गङ्गा-यमुना के सङ्गम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम पर जा पहुँचे॥८॥
रामस्त्वाश्रममासाद्य त्रासयन् मृगपक्षिणः।
गत्वा मुहूर्तमध्वानं भरद्वाजमुपागमत्॥९॥
श्रीरामचन्द्रजी आश्रम की सीमा में पहुँचकर अपने धनुर्धर वेश के द्वारा वहाँ के पशु-पक्षियों को डराते हुएदो ही घड़ी में तै करने योग्य मार्ग से चलकर भरद्वाज मुनि के समीप जा पहुँचे॥९॥
ततस्त्वाश्रममासाद्य मुनेर्दर्शनकांक्षिणौ।
सीतयानुगतौ वीरौ दूरादेवावतस्थतुः॥१०॥
आश्रममें पहुँचकर महर्षिके दर्शनकी इच्छावाले सीतासहित वे दोनों वीर कुछ दूरपर ही खड़े हो गये।
स प्रविश्य महात्मानमृषि शिष्यगणैर्वृतम्।
संशितव्रतमेकाग्रं तपसा लब्धचक्षुषम्॥११॥
हुताग्निहोत्रं दृष्ट्वैव महाभागः कृताञ्जलिः।
रामः सौमित्रिणा सार्धं सीतया चाभ्यवादयत्॥ १२॥
(दूर खड़े हो महर्षि के शिष्य से अपने आगमन की सूचना दिलवाकर भीतर आने की अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद) पर्णशाला में प्रवेश करके उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने वाले एकाग्रचित्त तथा तीक्ष्ण व्रतधारी महात्मा भरद्वाज ऋषिका दर्शन किया, जो अग्निहोत्र करके शिष्यों से घिरे हुए आसन पर विराजमान थे। महर्षि को देखते ही लक्ष्मण और सीतासहित महाभाग श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम किया॥ ११-१२ ॥
न्यवेदयत चात्मानं तस्मै लक्ष्मणपूर्वजः।
पुत्रौ दशरथस्यावां भगवन् रामलक्ष्मणौ ॥१३॥
भार्या ममेयं कल्याणी वैदेही जनकात्मजा।
मां चानुयाता विजनं तपोवनमनिन्दिता॥१४॥
तत्पश्चात् लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीरघुनाथजी ने उनसे इस प्रकार अपना परिचय दिया—’भगवन् ! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। मेरा नाम राम और इनका लक्ष्मण है तथा ये विदेहराज जनक की पुत्री और मेरी कल्याणमयी पत्नी सती साध्वी सीता हैं, जो निर्जन तपोवन में भी मेरा साथ देने के लिये आयी हैं। १३-१४॥
पित्रा प्रव्राज्यमानं मां सौमित्रिरनुजः प्रियः।
अयमन्वगमद् भ्राता वनमेव धृतव्रतः॥१५॥
‘पिता की आज्ञा से मुझे वन की ओर आते देख ये । मेरे प्रिय अनुज भाई सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी वन में ही रहने का व्रत लेकर मेरे पीछे-पीछे चले आये हैं। १५॥
पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम्।
धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः॥१६॥
‘भगवन्! इस प्रकार पिता की आज्ञा से हम तीनों तपोवन में जायँगे और वहाँ फल-मूल का आहार करते हुए धर्म का ही आचरण करेंगे’ ।। १६ ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः।
उपानयत धर्मात्मा गामर्थ्यमुदकं ततः॥१७॥
परम बुद्धिमान् राजकुमार श्रीराम का वह वचन सुनकर धर्मात्मा भरद्वाज मुनि ने उनके लिये आतिथ्यसत्कार के रूप में एक गौ तथा अर्घ्य-जल समर्पित किये॥१७॥
नानाविधानन्नरसान् वन्यमूलफलाश्रयान्।
तेभ्यो ददौ तप्ततपा वासं चैवाभ्यकल्पयत्॥ १८॥
उन तपस्वी महात्माने उन सबको नाना प्रकार के अन्न, रस और जंगली फल-मूल प्रदान किये। साथ ही उनके ठहरने के लिये स्थान की भी व्यवस्था की॥ १८॥
मृगपक्षिभिरासीनो मुनिभिश्च समन्ततः।
राममागतमभ्यर्च्य स्वागतेनागतं मुनिः॥१९॥
प्रतिगृह्य तु ताम मुपविष्टं स राघवम्।
भरद्वाजोऽब्रवीद् वाक्यं धर्मयुक्तमिदं तदा ॥२०॥
महर्षि के चारों ओर मृग, पक्षी और ऋषि-मुनि बैठेथे और उनके बीच में वे विराजमान थे। उन्होंने अपने आश्रमपर अतिथि रूप में पधारे हुए श्रीराम का स्वागतपूर्वक सत्कार किया। उनके उस सत्कार को ग्रहण करके श्रीरामचन्द्रजी जब आसन पर विराजमान हुए, तब भरद्वाजजी ने उनसे यह धर्मयुक्त वचन कहा ॥
चिरस्य खलु काकुत्स्थ पश्याम्यहमुपागतम्।
श्रुतं तव मया चैव विवासनमकारणम्॥२१॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! मैं इस आश्रम पर दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । (आज मेरा मनोरथ सफल हुआ है)। मैंने यह भी सुना है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दे दिया गया है॥ २१॥
अवकाशो विविक्तोऽयं महानद्योः समागमे।
पुण्यश्च रमणीयश्च वसत्विह भवान् सुखम्॥ २२॥
‘गङ्गा और यमुना-इन दोनों महानदियों के संगम के पास का यह स्थान बड़ा ही पवित्र और एकान्त है। यहाँ की प्राकृतिक छटा भी मनोरम है, अतः तुम यहीं सुखपूर्वक निवास करो’ ॥ २२॥
एवमुक्तस्तु वचनं भरद्वाजेन राघवः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं रामः सर्वहिते रतः॥२३॥
भरद्वाज मुनि के ऐसा कहने पर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले रघुकुलनन्दन श्रीराम ने इन शुभ वचनों के द्वारा उन्हें उत्तर दिया- ॥२३॥
भगवन्नित आसन्नः पौरजानपदो जनः।
सुदर्शमिह मां प्रेक्ष्य मन्येऽहमिममाश्रमम्॥२४॥
आगमिष्यति वैदेहीं मां चापि प्रेक्षको जनः।
अनेन कारणेनाहमिह वासं न रोचये॥२५॥
‘भगवन्! मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ से बहुत निकट पड़ते हैं, अतः मैं समझता हूँ कि यहाँ मुझसे मिलना सुगम समझकर लोग इस आश्रम पर मुझे और सीता को देखने के लिये प्रायः आते-जाते रहेंगे; इस कारण यहाँ निवास करना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥
एकान्ते पश्य भगवन्नाश्रमस्थानमुत्तमम्।
रमते यत्र वैदेही सुखार्दा जनकात्मजा॥२६॥
‘भगवन! किसी एकान्त प्रदेश में आश्रम के योग्य उत्तम स्थान देखिये (सोचकर बताइये), जहाँ सुख भोगने के योग्य विदेहराजकुमारी जानकी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें’॥ २६॥
एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरद्वाजो महामुनिः।
राघवस्य तु तद् वाक्यमर्थग्राहकमब्रवीत्॥२७॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह शुभ वचन सुनकर महामुनि भरद्वाजजी ने उनके उक्त उद्देश्य की सिद्धि का बोध कराने वाली बात कही— ॥२७॥
दशक्रोश इतस्तात गिरिर्यस्मिन् निवत्स्यसि।
महर्षिसेवितः पुण्यः पर्वतः शुभदर्शनः॥ २८॥
‘तात! यहाँ से दस कोस (अन्य व्याख्या के अनुसार ३० कोस) की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, जिस पर तुम्हें निवास करना होगा॥ २८॥
गोलाङ्गलानुचरितो वानरर्भनिषेवितः।
चित्रकूट इति ख्यातो गन्धमादनसंनिभः॥२९॥
‘उस पर बहुत-से लंगूर विचरते रहते हैं। वहाँ वानर और रीछ भी निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है और गन्धमादन के समान मनोहरहै॥२९॥
यावता चित्रकूटस्य नरः शृङ्गाण्यवेक्षते।
कल्याणानि समाधत्ते न पापे कुरुते मनः॥३०॥
‘जब मनुष्य चित्रकूट के शिखरों का दर्शन कर लेता है, तब कल्याणकारी पुण्य कर्मों का फल पा लेता है और कभी पाप में मन नहीं लगाता है॥३०॥
ऋषयस्तत्र बहवो विहृत्य शरदां शतम्।
तपसा दिवमारूढाः कपालशिरसा सह ॥३१॥
वहाँ बहुत-से ऋषि, जिनके सिर के बाल वृद्धावस्था के कारण खोपड़ी की भाँति सफेद हो गये थे, तपस्या द्वारा सैकड़ों वर्षों तक क्रीड़ा करके स्वर्गलोक को चले गये हैं।
प्रविविक्तमहं मन्ये तं वासं भवतः सुखम्।
इह वा वनवासाय वस राम मया सह ॥ ३२॥
‘उसी पर्वत को मैं तुम्हारे लिये एकान्तवास के योग्य और सुखद मानता हूँ अथवा श्रीराम! तुम वनवास के उद्देश्य से मेरे साथ इस आश्रम पर ही रहो’ ॥ ३२ ॥
स रामं सर्वकामैस्तं भरद्वाजः प्रियातिथिम्।
सभार्यं सह च भ्रात्रा प्रतिजग्राह हर्षयन्॥३३॥
ऐसा कहकर भरद्वाजजी ने पत्नी और भ्रातासहित प्रिय अतिथि श्रीराम का हर्ष बढ़ाते हुए सब प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं द्वारा उन सबका आतिथ्य सत्कार किया॥ ३३॥
तस्य प्रयागे रामस्य तं महर्षिमुपेयुषः।
प्रपन्ना रजनी पुण्या चित्राः कथयतः कथाः॥ ३४॥
प्रयाग में श्रीरामचन्द्रजी महर्षि के पास बैठकर विचित्र बातें करते रहे, इतने में ही पुण्यमयी रात्रि का आगमन हुआ॥ ३४॥
सीतातृतीयः काकुत्स्थः परिश्रान्तः सुखोचितः।
भरद्वाजाश्रमे रम्ये तां रात्रिमवसत् सुखम्॥३५॥
वे सुख भोगने योग्य होने पर भी परिश्रम से बहुत थक गये थे, इसलिये भरद्वाज मुनि के उस मनोहर आश्रम में श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ सुखपूर्वक वह रात्रि व्यतीत की॥ ३५ ॥
प्रभातायां तु शर्वर्यां भरद्वाजमुपागमत्।
उवाच नरशार्दूलो मुनिं ज्वलिततेजसम्॥३६॥
तदनन्तर जब रात बीती और प्रातःकाल हुआ, तब पुरुषसिंह श्रीराम प्रज्वलित तेज वाले भरद्वाज मुनि के पास गये और बोले- ॥ ३६॥
शर्वरीं भगवन्नद्य सत्यशील तवाश्रमे।
उषिताः स्मोऽह वसतिमनुजानातु नो भवान्॥ ३७॥
‘भगवन्! आप स्वभावतः सत्य बोलने वाले हैं। आज हमलोगों ने आपके आश्रम में बड़े आराम से रात बितायी है, अब आप हमें आगे के गन्तव्य-स्थान पर जाने के लिये आज्ञा प्रदान करें’॥ ३७॥
रात्र्यां तु तस्यां व्युष्टायां भरद्वाजोऽब्रवीदिदम्।
मधुमूलफलोपेतं चित्रकूटं व्रजेति ह॥ ३८॥
वासमौपयिकं मन्ये तव राम महाबल।
रात बीतने और सबेरा होने पर श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर भरद्वाजजी ने कहा–’महाबली श्रीराम! तुम मधुर फल-मूल से सम्पन्न चित्रकूट पर्वत पर जाओ। मैं उसी को तुम्हारे लिये उपयुक्त निवास स्थान मानता हु॥
नानानगगणोपेतः किन्नरोरगसेवितः॥ ३९॥
मयूरनादाभिरतो गजराजनिषेवितः।।
गम्यतां भवता शैलश्चित्रकूटः स विश्रुतः॥ ४०॥
‘वह सुविख्यात चित्रकूट पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा है। वहाँ बहुत-से किन्नर और सर्प निवास करते हैं। मोरों के कलरवों से वह और भी रमणीय प्रतीत होता है। बहुत-से गजराज उस पर्वत का सेवन करते हैं तुम वहीं चले जाओ। ३९-४०॥
पुण्यश्च रमणीयश्च बहुमूलफलायुतः।
तत्र कुञ्जरयूथानि मृगयूथानि चैव हि ॥४१॥
विचरन्ति वनान्तेषु तानि द्रक्ष्यसि राघव।
सरित्प्रस्रवणप्रस्थान् दरीकन्दरनिर्झरान्।
चरतः सीतया सार्धं नन्दिष्यति मनस्तव॥४२॥
‘वह पर्वत परम पवित्र, रमणीय तथा बहुसंख्यक फल-मूलों से सम्पन्न है। वहाँ झुंड-के-झुंड हाथी और हिरन वन के भीतर विचरते रहते हैं। रघुनन्दन! तुम । उन सबको प्रत्यक्ष देखोगे। मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जलस्रोत, पर्वतशिखर, गुफा, कन्दरा और झरने भी तुम्हारे देख नेमें आयेंगे। वह पर्वत सीता के साथ विचरते हुए तुम्हारे मन को आनन्द प्रदान करेगा॥ ४१-४२॥
प्रहृष्टकोयष्टिभकोकिलस्वनैविनोदयन्तं च सुखं परं शिवम्।
मृगैश्च मत्तैर्बहुभिश्च कुञ्जरैः सुरम्यमासाद्य समावसाश्रयम्॥४३॥
‘हर्ष में भरे हुए टिट्टिभ और कोकिलों के कलरवों द्वारा वह पर्वत यात्रियों का मनोरञ्जन-सा करता है। वह परम सुखद एवं कल्याणकारी है, मदमत्त मृगों और बहुसंख्यक मतवाले हाथियों ने उसकी रमणीयता को और बढ़ा दिया है तुम उसी पर्वत पर जाकर डेरा डालो और उसमें निवास करो’ । ४३॥
सर्ग ५५
उषित्वा रजनीं तत्र राजपुत्रावरिंदमौ।
महर्षिमभिवाद्याथ जग्मतुस्तं गिरिं प्रति॥१॥
उस आश्रम में रातभर रहकर शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों राजकुमार महर्षि को प्रणाम करके चित्रकूट पर्वत पर जाने को उद्यत हुए॥१॥
तेषां स्वस्त्ययनं चैव महर्षिः स चकार ह।
प्रस्थितान् प्रेक्ष्य तांश्चैव पिता पुत्रानिवौरसान्॥ २॥
उन तीनों को प्रस्थान करते देख महर्षि ने उनके लिये उसी प्रकार स्वस्तिवाचन किया जैसे पिता अपने औरस पुत्रों को यात्रा करते देख उनके लिये मङ्गलसूचक आशीर्वाद देता है॥२॥
ततः प्रचक्रमे वक्तुं वचनं स महामुनिः।
भरद्वाजो महातेजा रामं सत्यपराक्रमम्॥३॥
तदनन्तर महातेजस्वी महामुनि भरद्वाज ने सत्य पराक्रमी श्रीराम से इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
गङ्गायमुनयोः संधिमासाद्य मनुजर्षभौ।
कालिन्दीमनुगच्छेतां नदी पश्चान्मुखाश्रिताम्॥ ४॥
‘नरश्रेष्ठ! तुम दोनों भाई गङ्गा और यमुना के संगम पर पहुँचकर जिनमें पश्चिममुखी होकर गङ्गा मिली हैं, उन महानदी यमुना के निकट जाना॥ ४॥
अथासाद्य तु कालिन्दी प्रतिस्रोतःसमागताम्।
तस्यास्तीर्थं प्रचरितं प्रकामं प्रेक्ष्य राघव।
तत्र यूयं प्लवं कृत्वा तरतांशुमती नदीम्॥५॥
‘रघुनन्दन! तदनन्तर गङ्गाजी के जल के वेग से अपने प्रवाह के प्रतिकूल दिशा में मुड़ी हुई यमुना के पास पहुँचकर लोगों के आने-जाने के कारण उनके पदचिह्नों से चिह्नित हुए अवतरण-प्रदेश (पार उतरने के लिये उपयोगी घाट) को अच्छी तरह देखभालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर उसी के द्वारा सूर्यकन्या यमुना के उस पार उतर जाना॥५॥
ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम्।
परीतं बहुभिर्वृक्षः श्यामं सिद्धोपसेवितम्॥६॥
तस्मिन् सीताञ्जलिं कृत्वा प्रयुञ्जीताशिषां क्रियाम्।
समासाद्य च तं वृक्षं वसेद् वातिक्रमेत वा॥५॥
‘तत्पश्चात् आगे जाने पर एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते हरे रंग के हैं। वह चारों ओर से बहुसंख्यक दूसरे वृक्षों द्वारा घिरा हुआ है। उस वृक्ष का नाम श्यामवट है। उसकी छाया के नीचे बहुत-से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहाँ पहुँचकर सीता दोनों हाथ जोड़कर उस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करें। यात्री की इच्छा हो तो उस वृक्ष के पास जाकर कुछ कालतक वहाँ निवास करे अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाय॥६-७॥
क्रोशमात्रं ततो गत्वा नीलं प्रेक्ष्य च काननम्।
सल्लकीबदरीमिश्रं रम्यं वंशैश्च यामुनैः॥८॥
‘श्यामवट से एक कोस दूर जाने पर तुम्हें नीलवन का दर्शन होगा; वहाँ सल्लकी (चीड़) और बेर के भी पेड़ मिले हुए हैं। यमुना के तट पर उत्पन्न हुए बाँसों के कारण वह और भी रमणीय दिखायी देता है॥ ८॥
स पन्थाश्चित्रकूटस्य गतस्य बहुशो मया।
रम्यो मार्दवयुक्तश्च दावैश्चैव विवर्जितः॥९॥
‘यह वही स्थान है जहाँ से चित्रकूट को रास्ता जाता है। मैं उस मार्ग से कई बार गया हूँ। वहाँ की भूमि कोमल और दृश्य रमणीय है। उधर कभी दावानल का भय नहीं होता है’॥९॥
इति पन्थानमादिश्य महर्षिः संन्यवर्तत।
अभिवाद्य तथेत्युक्त्वा रामेण विनिवर्तितः॥ १०॥
इस प्रकार मार्ग बताकर जब महर्षि भरद्वाज लौटने लगे, तब श्रीराम ने ‘तथास्तु’ कहकर उनके चरणों में प्रणाम किया और कहा–’अब आप आश्रम को लौट जाइये’॥ १०॥
उपावृत्ते मुनौ तस्मिन् रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
कृतपुण्याः स्म भद्रं ते मुनिर्यन्नोऽनुकम्पते॥११॥
उन महर्षि के लौट जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा —’सुमित्रानन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो। ये मुनि हमारे ऊपर जो इतनी कृपा रखते हैं, इससे जान पड़ता है कि हमलोगों ने पहले कभी महान् पुण्य किया है’।
इति तौ पुरुषव्याघ्रौ मन्त्रयित्वा मनस्विनौ।
सीतामेवाग्रतः कृत्वा कालिन्दी जग्मतुर्नदीम्॥ १२॥
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों मनस्वी पुरुषसिंह सीता को ही आगे करके यमुना नदी के तटपर गये॥ १२॥
अथासाद्य तु कालिन्दी शीघ्रस्रोतस्विनी नदीम।
चिन्तामापेदिरे सद्यो नदीजलतितीर्षवः॥१३॥
वहाँ कालिन्दी का स्रोत बड़ी तीव्रगति से प्रवाहित हो रहा था; वहाँ पहुँचकर वे इस चिन्ता में पड़े कि कैसे नदी को पार किया जाय; क्योंकि वे तुरंत ही यमुनाजी के जल को पार करना चाहते थे॥१३॥
तौ काष्ठसंघाटमथो चक्रतुः सुमहाप्लवम्।
शुष्कर्वंशैः समाकीर्णमुशीरैश्च समावृतम्॥१४॥
ततो वैतसशाखाश्च जम्बुशाखाश्च वीर्यवान्।
चकार लक्ष्मणश्छित्त्वा सीतायाः सुखमासनम्॥ १५॥
फिर उन दोनों भाइयों ने जंगल के सूखे काठ बटोरकर उन्हीं के द्वारा एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार किया। वह बेड़ा सूखे बाँसों से व्याप्त था और उसके ऊपर खस बिछाया गया था। तदनन्तर पराक्रमी लक्ष्मण ने बेंत और जामुन की टहनियों को काटकर सीता के बैठने के लिये एक सुखद आसन तैयार किया। १४-१५॥
तत्र श्रियमिवाचिन्त्यां रामो दाशरथिः प्रियाम्।
ईषत्स लज्जमानां तामध्यारोपयत प्लवम्॥१६॥
पार्श्वे तत्र च वैदेह्या वसने भूषणानि च।।
प्लवे कठिनकाजं च रामश्चक्रे समाहितः॥१७॥
दशरथनन्दन श्रीराम ने लक्ष्मी के समान अचिन्त्य ऐश्वर्यवाली अपनी प्रिया सीता को जो कुछ लज्जित सी हो रही थीं, उस बेड़े पर चढ़ा दिया और उनके बगल में वस्त्र एवं आभूषण रख दिये; फिर श्रीराम ने बड़ी सावधानी के साथ खन्ती (कुदारी) और बकरे के चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी को भी बेड़ेपर ही रखा। १६-१७॥
आरोप्य सीतां प्रथमं संघाटं परिगृह्य तौ।
ततः प्रतेरतुर्यत्तौ प्रीतौ दशरथात्मजौ॥१८॥
इस प्रकार पहले सीता को चढ़ाकर वे दोनों भाई दशरथकुमार श्रीराम और लक्ष्मण उस बेड़े को पकड़कर खेने लगे। उन्होंने बड़े प्रयत्न और प्रसन्नता के साथ नदी को पार करना आरम्भ किया। १८॥
कालिन्दीमध्यमायाता सीता त्वेनामवन्दत।
स्वस्ति देवि तरामि त्वां पारयेन्मे पतिव्रतम्॥ १९॥
यमुना की बीच धारा में आनेपर सीता ने उन्हें प्रणाम किया और कहा–’देवि! इस बेड़े द्वारा मैं आपके पार जा रही हूँ। आप ऐसी कृपा करें, जिससे हमलोग सकुशल पार हो जायँ और मेरे पतिदेव अपनी वनवासविषयक प्रतिज्ञा को निर्विघ्न पूर्ण करें॥ १९॥
यक्ष्ये त्वां गोसहस्रेण सुराघटशतेन च।
स्वस्ति प्रत्यागते रामे पुरीमिक्ष्वाकुपालिताम्॥ २०॥
‘इक्ष्वाकुवंशी वीरों द्वारा पालित अयोध्यापुरी में श्रीरघुनाथजी के सकुशल लौट आने पर मैं आपके किनारे एक सहस्र गौओं का दान करूँगी और सैकड़ों देवदुर्लभ पदार्थ अर्पित करके आपकी पूजा सम्पन्न करूँगी’ ॥२०॥
कालिन्दीमथ सीता तु याचमाना कृताञ्जलिः।
तीरमेवाभिसम्प्राप्ता दक्षिणं वरवर्णिनी॥२१॥
इस प्रकार सुन्दरी सीता हाथ जोड़कर यमुनाजी से प्रार्थना कर रही थीं, इतने ही में वे दक्षिण तटपर जा पहुँचीं।
ततः प्लवेनांशुमती शीघ्रगामूर्मिमालिनीम्।
तीरजैर्बहुभिर्वृक्षैः संतेरुर्यमुना नदीम्॥२२॥
इस तरह उन तीनों ने उसी बेड़े द्वारा बहुसंख्यक तटवर्ती वृक्षों से सुशोभित और तरङ्गमालाओं से अलंकृत शीघ्रगामिनी सूर्य-कन्या यमुना नदी को पार किया॥ २२॥
ते तीर्णाः प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात्।
श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम्॥२३॥
पार उतरकर उन्होंने बेड़े को तो वहीं तट पर छोड़ दिया और यमुना-तटवर्ती वन से प्रस्थान करके वे हरे हरे पत्तों से सुशोभित शीतल छाया वाले श्यामवट के पास जा पहुँचे।। २३॥
न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत।
नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम्॥२४॥
वट के समीप पहुँचकर विदेहनन्दिनी सीता ने उसे मस्तक झुकाया और इस प्रकार कहा—’महावृक्ष! आपको नमस्कार है। आप ऐसी कृपा करें, जिससे मेरे पतिदेव अपने वनवास-विषयक व्रत को पूर्ण करें॥ २४॥
कौसल्यां चैव पश्येम सुमित्रां च यशस्विनीम्।
इति सीताञ्जलिं कृत्वा पर्यगच्छन्मनस्विनी॥ २५॥
‘तथा हमलोग वन से सकुशल लौटकर माता कौसल्या तथा यशस्विनी सुमित्रा देवी का दर्शन कर सकें।’ इस प्रकार कहकर मनस्विनी सीता ने हाथ जोड़े हुए उस वृक्ष की परिक्रमा की॥ २५ ॥
अवलोक्य ततः सीतामायाचन्तीमनिन्दिताम्।
दयितां च विधेयां च रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ २६॥
सदा अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाली प्राणप्यारी सती-साध्वी सीता को श्यामवट से आशीर्वाद की याचना करती देख श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—॥ २६॥
सीतामादाय गच्छ त्वमग्रतो भरतानुज।
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सायुधो द्विपदां वर ॥२७॥
‘भरत के छोटे भाई नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! तुम सीता को साथ लेकर आगे-आगे चलो और मैं धनुष धारण किये पीछे से तुमलोगों की रक्षा करता हुआ चलूँगा। २७॥
यद् यत् फलं प्रार्थयते पुष्पं वा जनकात्मजा।
तत् तत् प्रयच्छ वैदेह्या यत्रास्या रमते मनः॥ २८॥
‘विदेहकुलनन्दिनी जनकदुलारी सीता जो-जो फल या फूल माँगें अथवा जिस वस्तु को पाकर इनका मन प्रसन्न रहे, वह सब इन्हें देते रहो’ ॥ २८॥
एकैकं पादपं गुल्मं लतां वा पुष्पशालिनीम्।
अदृष्टरूपां पश्यन्ती रामं पप्रच्छ साऽबला॥२९॥
अबला सीता एक-एक वृक्ष, झाड़ी अथवा पहले की न देखी हुई पुष्पशोभित लता को देखकर उसके विषय में श्रीरामचन्द्रजी से पूछती थीं॥ २९॥
रमणीयान् बहुविधान् पादपान् कुसुमोत्करान्।
सीतावचनसंरब्ध आनयामास लक्ष्मणः॥३०॥
तथा लक्ष्मण सीता के कथनानुसार तुरंत ही भाँतिभाँति के वृक्षों की मनोहर शाखाएँ और फूलों के गुच्छे ला-लाकर उन्हें देते थे॥३०॥
विचित्रवालुकजलां हंससारसनादिताम्।
रेमे जनकराजस्य सुता प्रेक्ष्य तदा नदीम्॥३१॥
उस समय जनकराजकिशोरी सीता विचित्र वालुका और जलराशि से सुशोभित तथा हंस और सारसों के कलनाद से मुखरित यमुना नदी को देखकर बहुत प्रसन्न होती थीं॥३१॥
क्रोशमात्रं ततो गत्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बहून् मेध्यान् मृगान् हत्वा चेरतुर्यमुनावने ॥३२॥
इस तरह एक कोस की यात्रा करके दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण (प्राणियों के हित के लिये) मार्ग में मिले हुए हिंसक पशुओं का वध करते हुए यमुनातटवर्ती वन में विचरने लगे॥ ३२॥
विहृत्य ते बर्हिणपूगनादिते शुभे वने वारणवानरायुते।
समं नदीवप्रमुपेत्य सत्वरं निवासमाजग्मुरदीनदर्शनाः॥३३॥
उदार दृष्टिवाले वे सीता, लक्ष्मण और श्रीराम मोरों के झुंडों की मीठी बोली से गूंजते तथा हाथियों और वानरों से भरे हुए उस सुन्दर वन में घूम-फिरकर शीघ्र ही यमुनानदी के समतल तटपर आ गये और रात में उन्होंने वहीं निवास किया॥ ३३॥
सर्ग ५६
अथ रात्र्यां व्यातीतायामवसुप्तमनन्तरम्।
प्रबोधयामास शनैर्लक्ष्मणं रघुपुङ्गवः॥१॥
तदनन्तर रात्रि व्यतीत होने पर रघुकुल-शिरोमणि श्रीराम ने अपने जागने के बाद वहाँ सोये हुए लक्ष्मण को धीरे से जगाया (और इस प्रकार कहा -)॥१॥
सौमित्रे शृणु वन्यानां वल्गु व्याहरतां स्वनम्।
सम्प्रतिष्ठामहे कालः प्रस्थानस्य परंतप॥२॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले सुमित्राकुमार! मीठी बोली बोलने वाले शुक-पिक आदि जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमलोग यहाँ से प्रस्थान करें; क्योंकि प्रस्थान के योग्य समय आ गया है’ ॥ २॥
प्रसुप्तस्तु ततो भ्रात्रा समये प्रतिबोधितः।
जहौ निद्रां च तन्द्रां च प्रसक्तं च परिश्रमम्॥३॥
सोये हुए लक्ष्मण ने अपने बड़े भाई द्वारा ठीक समय पर जगा दिये जाने पर निद्रा, आलस्य तथा राह चलने की थकावट को दूर कर दिया॥३॥
तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ट्वा नद्याः शिवं जलम्।
पन्थानमृषिभिर्जुष्टं चित्रकूटस्य तं ययुः॥४॥
फिर सब लोग उठे और यमुना नदी के शीतल जल में स्नान आदि करके ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित चित्रकूट के उस मार्ग पर चल दिये॥४॥
ततः सम्प्रस्थितः काले रामः सौमित्रिणा सह।
सीतां कमलपत्राक्षीमिदं वचनमब्रवीत्॥५॥
उस समय लक्ष्मण के साथ वहाँ से प्रस्थित हुए श्रीराम ने कमलनयनी सीता से इस प्रकार कहा-
आदीप्तानिव वैदेहि सर्वतः पुष्पितान् नगान्।
स्वैः पुष्पैः किंशुकान् पश्य मालिनः शिशिरात्यये॥६॥
‘विदेहराजनन्दिनी! इस वसन्त-ऋतु में सब ओर से खिले हुए इन पलाश-वृक्षों को तो देखो। ये अपने ही पुष्पों से पुष्पमालाधारी-से प्रतीत होते हैं और उन फूलों की अरुण प्रभा के कारण प्रज्वलित होते-से दिखायी देते हैं॥६॥
पश्य भल्लातकान् बिल्वान् नरैरनुपसेवितान्।
फलपुष्पैरवनतान् नूनं शक्ष्याम जीवितुम्॥७॥
‘देखो, ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों और फलों के भार से झुके हुए हैं। दूसरे मनुष्यों का यहाँ तक आना सम्भव न होने से ये उनके द्वारा उपयोग में नहीं लाये गये हैं; अतः निश्चय ही इन फलों से हम जीवन निर्वाह कर सकेंगे’ ॥७॥
पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण।
मधूनि मधुकारीभिः सम्भृतानि नगे नगे॥८॥
(फिर लक्ष्मण से कहा-) लक्ष्मण! देखो, यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों द्वारा लगाये और पुष्ट किये गये मधु के छत्ते कैसे लटक रहे हैं। इन सब में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु भरा हुआ है॥८॥
एष क्रोशति नत्यूहस्तं शिखी प्रतिकूजति।
रमणीये वनोद्देशे पुष्पसंस्तरसंकटे॥९॥
‘वन का यह भाग बड़ा ही रमणीय है, यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से आच्छादित दिखायी देती है। इस वनप्रान्त में यह चातक ‘पी कहाँ’ ‘पी कहाँ’ की रट लगा रहा है। उधर वह मोर बोल रहा है, मानो पपीहे की बात का उत्तर दे रहा हो॥९॥
मातङ्गयूथानुसृतं पक्षिसंघानुनादितम्।
चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम्॥१०॥
‘यह रहा चित्रकूट पर्वत—इसका शिखर बहुत ऊँचा है। झुंड-के-झुंड हाथी उसी ओर जा रहे हैं और वहाँ बहुत-से पक्षी चहक रहे हैं॥१०॥
समभूमितले रम्ये द्रुमैर्बहुभिरावृते।
पुण्ये रंस्यामहे तात चित्रकूटस्य कानने॥११॥
‘तात! जहाँ की भूमि समतल है और जो बहुत-से वृक्षों से भरा हुआ है, चित्रकूट के उस पवित्र कानन में हमलोग बड़े आनन्द से विचरेंगे’ ॥ ११॥
ततस्तौ पादचारेण गच्छन्तौ सह सीतया।
रम्यमासेदतुः शैलं चित्रकूटं मनोरमम्॥१२॥
सीता के साथ दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण पैदल ही यात्रा करते हुए यथासमय रमणीय एवं मनोरम पर्वत चित्रकूट पर जा पहुँचे॥ १२॥
तं तु पर्वतमासाद्य नानापक्षिगणायुतम्।
बहुमूलफलं रम्यं सम्पन्नसरसोदकम्॥१३॥
वह पर्वत नाना प्रकार के पक्षियों से परिपूर्ण था। वहाँ फल-मूलों की बहतायत थी और स्वादिष्ट जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता था। उस रमणीय शैल के समीप जाकर श्रीराम ने कहा- ॥१३॥
मनोज्ञोऽयं गिरिः सौम्य नानाद्रुमलतायुतः।
बहुमूलफलो रम्यः स्वाजीवः प्रतिभाति मे॥ १४॥
‘सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है नाना प्रकार के वृक्ष और लताएँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं। यहाँ फलमूल भी बहुत हैं; यह रमणीय तो है ही मुझे जान पड़ता है कि यहाँ बड़े सुख से जीवन-निर्वाह हो सकता है॥ १४॥
मुनयश्च महात्मानो वसन्त्यस्मिन् शिलोच्चये।
अयं वासो भवेत् तात वयमत्र वसेमहि ॥१५॥
‘इस पर्वत पर बहुत-से महात्मा मुनि निवास करते हैं। तात! यही हमारा वासस्थान होने योग्य है। हम यहीं निवास करेंगे’ ॥ १५ ॥
इति सीता च रामश्च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः।
अभिगम्याश्रमं सर्वे वाल्मीकिमभिवादयन्॥
ऐसा निश्चय करके सीता, श्रीराम और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया और सबने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। १६॥
तान् महर्षिः प्रमुदितः पूजयामास धर्मवित्।
आस्यतामिति चोवाच स्वागतं तं निवेद्य च। १७॥
धर्म को जानने वाले महर्षि उनके आगमन से बहुत प्रसन्न हुए और ‘आप लोगोंका स्वागत है आइये,बैठिये।’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका आदर सत्कार किया॥१७॥
ततोऽब्रवीन्महाबाहुर्लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः।
संनिवेद्य यथान्यायमात्मानमृषये प्रभुः॥१८॥
तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय दिया और लक्ष्मण से कहा – ॥१८॥
लक्ष्मणानय दारूणि दृढानि च वराणि च।
कुरुष्वावसथं सौम्य वासे मेऽभिरतं मनः॥१९॥
‘सौम्य लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिये एक कुटी तैयार करो। यहीं निवास करने को मेरा जी चाहता है’ ॥ १९॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सौमित्रिर्विविधान् द्रुमान्।
आजहार ततश्चक्रे पर्णशालामरिंदमः॥ २०॥
श्रीराम की यह बात सुनकर शत्रुदमन लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ काट लाये और उनके द्वारा एक पर्णशाला तैयार की॥ २० ॥
तां निष्ठितां बद्धकटां दृष्ट्वा रामः सुदर्शनाम्।
शुश्रूषमाणमेकाग्रमिदं वचनमब्रवीत्॥२१॥
वह कुटी बाहर-भीतर से लकड़ी की ही दीवार से सुस्थिर बनायी गयी थी और उसे ऊपरसे छा दिया गया था, जिससे वर्षा आदि का निवारण हो। वह देखने में बड़ी सुन्दर लगती थी। उसे तैयार हुई देखकर एकाग्रचित्त होकर अपनी बात सुनने वाले लक्ष्मण से श्रीराम ने इस प्रकार कहा— ॥२१॥
ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम्।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः॥२२॥
‘सुमित्राकुमार! हम गजकन्द का गूदा लेकर उसी से पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे; क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाले पुरुषों को वास्तुशान्ति अवश्य करनी चाहिये॥ २२ ॥
मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर ॥२३॥
‘कल्याणदर्शी लक्ष्मण! तुम ‘गजकन्द’ नामक कन्द को उखाड़कर या खोदकर शीघ्र यहाँ ले आओ; क्योंकि शास्त्रोक्त विधि का अनुष्ठान हमारे लिये अवश्य-कर्तव्य है। तुम धर्म का ही सदा चिन्तन किया करो’ ॥ २३॥
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय लक्ष्मणः परवीरहा।
चकार च यथोक्तं हि तं रामः पुनरब्रवीत्॥२४॥
भाई की इस बात को समझकर शत्रुवीरों का वध करने वाले लक्ष्मण ने उनके कथनानुसार कार्य किया। तब श्रीराम ने पुनः उनसे कहा- ॥२४॥
ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्।
त्वर सौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसो ह्ययम्॥ २५॥
‘लक्ष्मण! इस गजकन्द को पकाओ। हम पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे। जल्दी करो यह सौम्यमुहूर्त है और यह दिन भी ‘ध्रुव’ संज्ञक है (अतः इसी में यह शुभ कार्य होना चाहिये)’ ॥ २५॥
स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान्।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि ॥२६॥
प्रतापी सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने पवित्र और काले छिलके वाले गजकन्द को उखाड़कर प्रज्वलित आग में डाल दिया॥ २६॥
तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम्।
लक्ष्मणः पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत्॥२७॥
रक्तविकार का नाश करनेवाले उस गजकंद को भलीभाँति पका हुआ जानकर लक्ष्मण ने पुरुषसिंह श्रीरघुनाथजी से कहा- ॥२७॥
अयं सर्वः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया।
देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि॥२८॥
‘देवोपम तेजस्वी श्रीरघुनाथजी! यह काले छिलके वाला गजकन्द, जो बिगड़े हुए सभी अङ्गों को ठीक करनेवाला है, मेरे द्वारा सम्पूर्णतः पका दिया गया है। अब आप वास्तुदेवताओं का यजन कीजिये; क्योंकि आप इस कर्म में कुशल हैं।॥ २८॥
रामः स्नात्वा तु नियतो गुणवाञ्जपकोविदः।
संग्रहेणाकरोत् सर्वान् मन्त्रान् सत्रावसानिकान्॥ २९॥
सद्गुणसम्पन्न तथा जपकर्म के ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान करके शौच-संतोषादि नियमों के पालनपूर्वक संक्षेप से उन सभी मन्त्रों का पाठ एवं जप किया, जिनसे वास्तुयज्ञ की पूर्ति हो जाती है।॥ २९॥
इष्ट्वा देवगणान् सर्वान् विवेशावसथं शुचिः।
बभूव च मनोह्लादो रामस्यामिततेजसः ॥ ३०॥
समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से श्रीराम ने पर्णकुटी में प्रवेश किया। उस समय अमिततेजस्वी श्रीराम के मन में बड़ा आह्लाद हुआ॥ ३० ॥
वैश्वदेवबलिं कृत्वा रौद्रं वैष्णवमेव च।
वास्तुसंशमनीयानि मङ्गलानि प्रवर्तयन्॥३१॥
तत्पश्चात् बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके श्रीराम ने वास्तुदोष की शान्ति के लिये मङ्गलपाठ किया॥ ३१॥
जपं च न्यायतः कृत्वा स्नात्वा नद्यां यथाविधि।
पापसंशमनं रामश्चकार बलिमुत्तमम्॥३२॥
नदी में विधिपूर्वक स्नान करके न्यायतः गायत्री आदि मन्त्रों का जप करने के अनन्तर श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिये उत्तम बलिकर्म सम्पन्न किया॥ ३२॥
वेदिस्थलविधानानि चैत्यान्यायतनानि च।
आश्रमस्यानुरूपाणि स्थापयामास राघवः॥३३॥
रघुनाथजी ने अपनी छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही वेदिस्थलों (आठ दिक्पालों के लिये बलि-समर्पण के स्थानों), चैत्यों (गणेश आदि के स्थानों) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थानों) का निर्माण एवं स्थापना की॥ ३३॥
तां वृक्षपर्णच्छदनां मनोज्ञां यथाप्रदेशं सुकृतां निवाताम्।
वासाय सर्वे विविशुः समेताः सभां यथा देवगणाः सुधर्माम्॥३४॥
वह मनोहर कुटी उपयुक्त स्थान पर बनी थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और उसके भीतर प्रचण्ड वायु से बचने का पूरा प्रबन्ध था। सीता, लक्ष्मण और श्रीराम सबने एक साथ उसमें निवास के लिये प्रवेश किया। ठीक वैसे ही, जैसे देवतालोग सुधर्मा सभा में प्रवेश करते हैं। ३४॥
सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं नदीं च तां माल्यवती सुतीर्थाम्।
ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां जहौ च दुःखं पुरविप्रवासात्॥ ३५॥
चित्रकूट पर्वत बड़ा ही रमणीय था। वहाँ उत्तमतीर्थों (तीर्थस्थान, सीढ़ी और घाटों) से सुशोभित माल्यवती (मन्दाकिनी) नदी बह रही थी, जिसका बहुत-से पशुपक्षी सेवन करते थे। उस पर्वत और नदी का सांनिध्य पाकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा हर्ष और आनन्द हुआ। वे नगर से दूर वन में आने के कारण होने वाले कष्ट को भूल गये॥ ३५ ॥
सर्ग ५७
कथयित्वा तु दुःखार्तः सुमन्त्रेण चिरं सह।
रामे दक्षिणकूलस्थे जगाम स्वगृहं गुहः॥१॥
इधर, जब श्रीराम गङ्गा के दक्षिण तट पर उतर गये, तब गुह दुःख से व्याकुल हो सुमन्त्र के साथ बड़ी देरतक बातचीत करता रहा। इसके बाद वह सुमन्त्र को साथ ले अपने घर को चला गया॥१॥
भरद्वाजाभिगमनं प्रयागे च सभाजनम्।
आ गिरेर्गमनं तेषां तत्रस्थैरभिलक्षितम्॥२॥
श्रीरामचन्द्रजी का प्रयाग में भरद्वाज के आश्रम पर जाना, मुनि के द्वारा सत्कार पाना तथा चित्रकूट पर्वत पर पहुँचना—ये सब वृत्तान्त शृङ्गवेर के निवासी गुप्तचरों ने देखे और लौटकर गुह को इन बातों से अवगत कराया॥२॥
अनुज्ञातः सुमन्त्रोऽथ योजयित्वा हयोत्तमान्।
अयोध्यामेव नगरी प्रययौ गाढदुर्मनाः॥३॥
इन सब बातों को जानकर सुमन्त्र गुह से विदा ले अपने उत्तम घोड़ों को रथ में जोतकर अयोध्या की ओर ही लौट पड़े। उस समय उनके मन में बड़ा दुःख हो रहा था॥
स वनानि सुगन्धीनि सरितश्च सरांसि च।
पश्यन् यत्तो ययौ शीघ्रं ग्रामाणि नगराणि च॥ ४॥
वे मार्ग में सुगन्धित वनों, नदियों, सरोवरों, गाँवों और नगरों को देखते हुए बड़ी सावधानी के साथ शीघ्रतापूर्वक जा रहे थे॥४॥
ततः सायाह्नसमये द्वितीयेऽहनि सारथिः।
अयोध्यां समनुप्राप्य निरानन्दां ददर्श ह॥५॥
शृङ्गवेरपुर से लौटने के दूसरे दिन सायंकाल में अयोध्या पहुँचकर उन्होंने देखा, सारी पुरी आनन्दशून्य हो गयी है॥५॥
स शून्यामिव निःशब्दां दृष्ट्वा परमदुर्मनाः।
सुमन्त्रश्चिन्तयामास शोकवेगसमाहतः॥६॥
वहाँ कहीं एक शब्द भी सुनायी नहीं देता था। सारी पुरी ऐसी नीरव थी, मानो मनुष्यों से सूनी हो गयी हो। अयोध्या की ऐसी दशा देखकर सुमन्त्र के मन में बड़ा दुःख हुआ। वे शोक के वेग से पीड़ित हो इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ॥६॥
कच्चिन्न सगजा साश्वा सजना सजनाधिपा।
रामसंतापदुःखेन दग्धा शोकाग्निना पुरी॥७॥
‘कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि श्रीराम के विरहजनित संताप के दुःख से व्यथित हो हाथी, घोड़े, मनुष्य और महाराजसहित सारी अयोध्यापुरी शोकाग्नि से दग्ध हो गयी हो ॥ ७॥
इति चिन्तापरः सूतो वाजिभिः शीघ्रयायिभिः।
नगरद्वारमासाद्य त्वरितः प्रविवेश ह॥८॥
इसी चिन्ता में पड़े हुए सारथि सुमन्त्र ने शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा नगर द्वार पर पहुँचकर तुरंत ही पुरी के भीतर प्रवेश किया।॥ ८॥
सुमन्त्रमभिधावन्तः शतशोऽथ सहस्रशः।
क्व राम इति पृच्छन्तः सूतमभ्यद्रवन् नराः॥९॥
सुमन्त्र को देखकर सैकड़ों और हजारों पुरवासी मनुष्य दौड़े आये और ‘श्रीराम कहाँ हैं?’ यह पूछते हुए उनके रथ के साथ-साथ दौड़ने लगे॥९॥
तेषां शशंस गङ्गायामहमापृच्छ्य राघवम्।
अनुज्ञातो निवृत्तोऽस्मि धार्मिकेण महात्मना॥ १०॥
ते तीर्णा इति विज्ञाय बाष्पपूर्णमुखा नराः।
अहो धिगिति निःश्वस्य हा रामेति विचुक्रुशुः॥ ११॥
उस समय सुमन्त्र ने उन लोगों से कहा—’सज्जनो! मैं गङ्गाजी के किनारे तक श्रीरघुनाथजी के साथ गया था। वहाँ से उन धर्मनिष्ठ महात्मा ने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी। अतः मैं उनसे बिदा लेकर यहाँ लौट आया हूँ। वे तीनों व्यक्ति गङ्गा के उस पार चले गये’ यह जानकर सब लोगों के मुख पर आँसुओं की धाराएँ बह चलीं। ‘अहो! हमें धिक्कार है।’ ऐसा कहकर वे लंबी साँसें खींचते और ‘हा राम!’ की पुकार मचाते हुए जोर-जोर से करुणक्रन्दन करने लगे। १०-११॥
शुश्राव च वचस्तेषां वृन्दं वृन्दं च तिष्ठताम्।
हताः स्म खलु ये नेह पश्याम इति राघवम्॥ १२॥
सुमन्त्र ने उनकी बातें सुनीं। वे झुंड-के-झुंड खड़े होकर कह रहे थे—’हाय! निश्चय ही हमलोग मारे गये; क्योंकि अब हम यहाँ श्रीरामचन्द्रजी को नहीं देख पायेंगे॥ १२॥
दानयज्ञविवाहेषु समाजेषु महत्सु च।
न द्रक्ष्यामः पुनर्जातु धार्मिकं राममन्तरा॥१३॥
‘दान, यज्ञ, विवाह तथा बड़े-बड़े सामाजिक उत्सवों के समय अब हम कभी धर्मात्मा श्रीराम को अपने बीच में खड़ा हुआ नहीं देख सकेंगे॥ १३॥
किं समर्थं जनस्यास्य किं प्रियं किं सुखावहम्।
इति रामेण नगरं पित्रेव परिपालितम्॥१४॥
‘अमुक पुरुष के लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है? क्या करने से उसका प्रिय होगा? और कैसे किसकिस वस्तु से उसे सुख मिलेगा, इत्यादि बातों का विचार करते हुए श्रीरामचन्द्रजी पिता की भाँति इस नगर का पालन करते थे’॥ १४॥
वातायनगतानां च स्त्रीणामन्वन्तरापणम्।
राममेवाभितप्तानां शुश्राव परिदेवनाम्॥१५॥
बाजार के बीच से निकलते समय सारथि के कानों में स्त्रियों के रोने की आवाज सुनायी दी, जो महलों की खिड़कियों में बैठकर श्रीराम के लिये ही संतप्त हो विलाप कर रहीं थीं॥ १५॥
स राजमार्गमध्येन सुमन्त्रः पिहिताननः।
यत्र राजा दशरथस्तदेवोपययौ गृहम्॥१६॥
राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढक लिया। वे रथ लेकर उसी भवन की ओर गये, जहाँ राजा दशरथ मौजूद थे॥ १६ ॥
सोऽवतीर्य रथाच्छीघ्रं राजवेश्म प्रविश्य च।
कक्ष्याः सप्ताभिचक्राम महाजनसमाकुलाः॥ १७॥
राजमहल के पास पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर पड़े और भीतर प्रवेश करके बहुत-से मनुष्यों से भरी हुई सात ड्योढ़ियों को पार कर गये॥१७॥
हम्यैर्विमानैः प्रासादैरवेक्ष्याथ समागतम्।
हाहाकारकृता नार्यो रामादर्शनकर्शिताः॥१८॥
धनियों की अट्टालिकाओं, सतमंजिले मकानों तथा राजभवनों में बैठी हुईं स्त्रियाँ सुमन्त्र को लौटा हुआ देख श्रीराम के दर्शन से वञ्चित होने के दुःख से दुर्बल हो हाहाकर कर उठीं ॥ १८॥
आयतैर्विमलैनॆत्रैरश्रुवेगपरिप्लुतैः।
अन्योन्यमभिवीक्षन्तेऽव्यक्तमार्ततराः स्त्रियः॥ १९॥
उनके कज्जल आदि से रहित बड़े-बड़े नेत्र आँसुओं के वेग में डूबे हुए थे। वे स्त्रियाँ अत्यन्त आर्त होकर अव्यक्तभाव से एक-दूसरी की ओर देख रही थीं॥
ततो दशरथस्त्रीणां प्रासादेभ्यस्ततस्ततः।
रामशोकाभितप्तानां मन्दं शुश्राव जल्पितम्॥ २०॥
तदनन्तर राजमहलों में जहाँ-तहाँ से श्रीराम के शोक से संतप्त हुई राजा दशरथ की रानियों के मन्दस्वर में कहे गये वचन सुनायी पड़े॥ २० ॥
सह रामेण निर्यातो विना राममिहागतः।
सूतः किं नाम कौसल्यां क्रोशन्तीं प्रतिवक्ष्यति॥ २१॥
‘ये सारथि सुमन्त्र श्रीराम के साथ यहाँ से गये थे और उनके बिना ही यहाँ लौटे हैं, ऐसी दशा में करुण क्रन्दन करती हुई कौसल्या को ये क्या उत्तर देंगे? ॥ २१॥
यथा च मन्ये दुर्जीवमेवं न सुकरं ध्रुवम्।
आच्छिद्य पुत्रे निर्याते कौसल्या यत्र जीवति॥ २२॥
‘मैं समझती हूँ, जैसे जीवन दुःखजनित है, निश्चय ही उसी प्रकार इसका नाश भी सुकर नहीं है; तभी तो न्यायतः प्राप्त हुए अभिषेक को त्यागकर पुत् रके वन में चले जाने पर भी कौसल्या अभी तक जीवित हैं। २२॥
सत्यरूपं तु तद् वाक्यं राजस्त्रीणां निशामयन्।
प्रदीप्त इव शोकेन विवेश सहसा गृहम्॥ २३॥
रानियों की वह सच्ची बात सुनकर शोक से दग्ध से होते हुए सुमन्त्र ने सहसा राजभवन में प्रवेश किया॥२३॥
स प्रविश्याष्टमीं कक्ष्यां राजानं दीनमातुरम्।
पुत्रशोकपरियूनमपश्यत् पाण्डुरे गृहे ॥२४॥
आठवीं ड्योढ़ी में प्रवेश करके उन्होंने देखा, राजा एक श्वेत भवन में बैठे और पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर हो रहे हैं॥ २४॥
अभिगम्य तमासीनं राजानमभिवाद्य च।
सुमन्त्रो रामवचनं यथोक्तं प्रत्यवेदयत्॥२५॥
सुमन्त्र ने वहाँ बैठे हुए महाराज के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और उन्हें श्रीरामचन्द्रजी की कही हुई बातें ज्यों-की-त्यों सुना दीं॥ २५ ॥
स तूष्णीमेव तच्छ्रुत्वा राजा विद्रुतमानसः।
मूर्च्छितो न्यपतद् भूमौ रामशोकाभिपीडितः॥ २६॥
राजा ने चुपचाप ही वह सुन लिया, सुनकर उनका हृदय द्रवित (व्याकुल) हो गया। फिर वे श्रीराम के शोक से अत्यन्त पीड़ित हो मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥२६॥
ततोऽन्तःपुरमाविद्धं मूर्च्छिते पृथिवीपतौ।
उच्छ्रित्य बाहू चुक्रोश नृपतौ पतिते क्षितौ॥२७॥
महाराज के मूर्च्छित हो जाने पर सारा अन्तःपुर दुःख से व्यथित हो उठा। राजा के पृथ्वी पर गिरते ही सब लोग दोनों बाहें उठाकर जोर-जोर से चीत्कार करने लगे॥ २७॥
सुमित्रया तु सहिता कौसल्या पतितं पतिम्।
उत्थापयामास तदा वचनं चेदमब्रवीत्॥ २८॥
उस समय कौसल्या ने सुमित्रा की सहायता से अपने गिरे हुए पति को उठाया और इस प्रकार कहा-॥ २८॥
इमं तस्य महाभाग दूतं दुष्करकारिणः।
वनवासादनुप्राप्तं कस्मान्न प्रतिभाषसे॥२९॥
‘महाभाग! ये सुमन्त्रजी दुष्कर कर्म करने वाले श्रीराम के दूत होकर उनका संदेश लेकर वनवास से लौटे हैं आप इनसे बात क्यों नहीं करते हैं? ॥ २९ ॥
अद्येममनयं कृत्वा व्यपत्रपसि राघव।।
उत्तिष्ठ सुकृतं तेऽस्तु शोके न स्यात् सहायता॥ ३०॥
‘रघुनन्दन! पुत्रको वनवास दे देना अन्याय है। यह अन्याय करके आप लज्जित क्यों हो रहे हैं? उठिये, आपको अपने सत्य के पालन का पुण्य प्राप्त हो जब आप इस तरह शोक करेंगे, तब आपके सहायकों का समुदाय भी आपके साथ ही नष्ट हो जायगा॥ ३० ॥
देव यस्या भयाद् रामं नानुपृच्छसि सारथिम्।
नेह तिष्ठति कैकेयी विश्रब्धं प्रतिभाष्यताम्॥ ३१॥
‘देव! आप जिसके भय से सुमन्त्रजी से श्रीराम का समाचार नहीं पूछ रहे हैं, वह कैकेयी यहाँ मौजूद नहीं है; अतः निर्भय होकर बात कीजिये’ ॥ ३१॥
सा तथोक्त्वा महाराज कौसल्या शोकलालसा।
धरण्यां निपपाताशु बाष्पविप्लुतभाषिणी॥३२॥
महाराज से ऐसा कहकर कौसल्या का गला भर आया। आँसुओं के कारण उनसे बोला नहीं गया और वे शोक से व्याकुल होकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़ीं॥ ३२॥
विलपन्ती तथा दृष्ट्वा कौसल्यां पतितां भुवि।
पतिं चावेक्ष्य ताः सर्वाः समन्ताद् रुरुदुः स्त्रियः॥
इस प्रकार विलाप करती हुई कौसल्या को भूमिपर पड़ी देख और अपने पति की मूर्च्छित दशा पर दृष्टिपात करके सभी रानियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर रोने लगीं॥ ३३॥
ततस्तमन्तःपुरनादमुत्थितं समीक्ष्य वृद्धास्तरुणाश्च मानवाः।
स्त्रियश्च सर्वा रुरुदुः समन्ततः पुरं तदासीत् पुनरेव संकुलम्॥ ३४॥
अन्तःपुर से उठे हुए उस आर्तनाद को देख सुनकर नगर के बूढ़े और जवान पुरुष रो पड़े। सारी स्त्रियाँ भी रोने लगीं। वह सारा नगर उस समय सब ओर से पुनः शोक से व्याकुल हो उठा॥ ३४॥
सर्ग ५८
प्रत्याश्वस्तो यदा राजा मोहात् प्रत्यागतस्मृतिः।
तदाजुहाव तं सूतं रामवृत्तान्तकारणात्॥१॥
मूर्छा दूर होने पर जब राजा को चेत हुआ तब सुस्थिर चित्त होकर उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त सुनने के लिये सारथि सुमन्त्र को सामने बुलाया॥१॥
तदा सूतो महाराजं कृताञ्जलिरुपस्थितः।
राममेवानुशोचन्तं दुःखशोकसमन्वितम्॥२॥
उस समय सुमन्त्र श्रीराम के ही शोक और चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने वाले दुःख-शोक से व्याकुल महाराज दशरथ के पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥२॥
वृद्धं परमसंतप्तं नवग्रहमिव द्विपम्।
विनिःश्वसन्तं ध्यायन्तमस्वस्थमिव कुञ्जरम्॥ ३॥
राजा तु रजसा सूतं ध्वस्ताङ्गं समुपस्थितम्।
अश्रुपूर्णमुखं दीनमुवाच परमार्तवत्॥४॥
जैसे जंगल से तुरंत पकड़कर लाया हुआ हाथी अपने यूथपति गजराज का चिन्तन करके लंबी साँस खींचता और अत्यन्त संतप्त तथा अस्वस्थ हो जाता है, उसी प्रकार बूढ़े राजा दशरथ श्रीराम के लिये अत्यन्त संतप्त हो लंबी साँस खींचकर उन्हीं का ध्यान करते हुए अस्वस्थ-से हो गये थे। राजा ने देखा, सारथि का सारा शरीर धूल से भर गया है। यह सामने खड़ा है इसके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही है और यह अत्यन्त दीन दिखायी देता है। उस अवस्था में राजा ने अत्यन्त आर्त होकर उससे पूछा-॥
क्व नु वत्स्यति धर्मात्मा वृक्षमूलमुपाश्रितः।
सोऽत्यन्तसुखितः सूत किमशिष्यति राघवः॥
‘सूत! धर्मात्मा श्रीराम वृक्ष की जड़का सहारा ले कहाँ निवास करेंगे? जो अत्यन्त सुख में पले थे, वे मेरे लाडले राम वहाँ क्या खायेंगे? ॥ ५॥
दुःखस्यानुचितो दुःखं सुमन्त्र शयनोचितः।
भूमिपालात्मजो भूमौ शेते कथमनाथवत्॥६॥
‘सुमन्त्र! जो दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं, उन्हीं श्रीराम को भारी दुःख प्राप्त हुआ है। जो राजोचित शय्यापर शयन करने योग्य हैं, वे राजकुमार श्रीराम अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोते होंगे?॥६॥
यं यान्तमनुयान्ति स्म पदातिरथकुञ्जराः।
स वत्स्यति कथं रामो विजनं वनमाश्रितः॥७॥
‘जिनके यात्रा करते समय पीछे-पीछे पैदलों, रथियों और हाथी सवारों की सेना चलती थी, वे ही श्रीराम निर्जन वन में पहुँचकर वहाँ कैसे निवास करेंगे?॥
व्यालैर्मृगैराचरितं कृष्णसर्पनिषेवितम्।
कथं कुमारौ वैदेह्या सार्धं वनमुपाश्रितौ॥८॥
‘जहाँ अजगर और व्याघ्र-सिंह आदि हिंसक पशु विचरते हैं तथा काले सर्प जिसका सेवन करते हैं, उसी वनका आश्रय लेने वाले मेरे दोनों कुमार सीता के साथ वहाँ कैसे रहेंगे? ॥ ८॥
सुकुमार्या तपस्विन्या सुमन्त्र सह सीतया।
राजपुत्रौ कथं पादैरवरुह्य रथाद् गतौ॥९॥
‘सुमन्त्र! परम सुकुमारी तपस्विनी सीता के साथ वे दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण रथ से उतरकर पैदल कैसे गये होंगे?॥९॥
सिद्धार्थः खलु सूत त्वं येन दृष्टौ ममात्मजौ।
वनान्तं प्रविशन्तौ तावश्विनाविव मन्दरम्॥१०॥
‘सारथे! तुम कृतकृत्य हो गये; क्योंकि जैसे दोनों अश्विनीकुमार मन्दराचल के वन में जाते हैं, उसी प्रकार वन के भीतर प्रवेश करते हुए मेरे दोनों पुत्रों को तुमने अपनी आँखों से देखा है॥ १०॥
किमुवाच वचो रामः किमुवाच च लक्ष्मणः।
सुमन्त्र वनमासाद्य किमुवाच च मैथिली॥११॥
‘सुमन्त्र! वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने भी क्या कहा? तथा मिथिलेशकुमारी सीता ने क्या संदेश दिया? ॥११॥
आसितं शयितं भुक्तं सूत रामस्य कीर्तय।
जीविष्याम्ययमेतेन ययातिरिव साधुषु॥१२॥
‘सूत! तुम श्रीराम के बैठने, सोने और खाने-पीने से सम्बन्ध रखने वाली बातें बताओ। जैसे स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति सत्पुरुषों के बीच में उपस्थित होने पर सत्संग के प्रभाव से पुनः सुखी हो गये थे, उसी प्रकार तुम-जैसे साधुपुरुष के मुख से पुत्र का वृत्तान्त सुनने से मैं सुखपूर्वक जीवन धारण कर सकूँगा’ ॥ १२ ॥
इति सूतो नरेन्द्रेण चोदितः सज्जमानया।
उवाच वाचा राजानं स बाष्पपरिबद्धया॥१३॥
महाराज के इस प्रकार पूछने पर सारथि सुमन्त्र ने आँसुओं से रूंधी हुई गद्गद वाणी द्वारा उनसे कहा- ॥
अब्रवीन्मे महाराज धर्ममेवानुपालयन्।
अञ्जलिं राघवः कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य च॥ १४॥
सूत मद्वचनात् तस्य तातस्य विदितात्मनः।
शिरसा वन्दनीयस्य वन्द्यौ पादौ महात्मनः॥ १५॥
सर्वमन्तःपुरं वाच्यं सूत मद्रचनात् त्वया।
आरोग्यमविशेषेण यथार्हमभिवादनम्॥१६॥
‘महाराज! श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म का ही निरन्तर पालन करते हुए दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर कहा है—’सूत! तुम मेरी ओर से आत्मज्ञानी तथा वन्दनीय मेरे महात्मा पिता के दोनों चरणों में प्रणाम कहना तथा अन्तःपुर में सभी माताओं को मेरे आरोग्य का समाचार देते हुए उनसे विशेष रूप से मेरा यथोचित प्रणाम निवेदन करना॥ १४–१६ ॥
माता च मम कौसल्या कुशलं चाभिवादनम्।
अप्रमादं च वक्तव्या ब्रूयाश्चैनामिदं वचः॥१७॥
धर्मनित्या यथाकालमग्न्यगारपरा भव।
देवि देवस्य पादौ च देववत् परिपालय॥१८॥
‘इसके बाद मेरी माता कौसल्या से मेरा प्रणाम करके बताना कि ‘मैं कुशल से हूँ और धर्मपालन में सावधान रहता हूँ।’ फिर उनको मेरा यह संदेश सुनाना कि ‘माँ! तुम सदा धर्म में तत्पर रहकर यथा समय अग्निशाला के सेवन (अग्निहोत्र-कार्य) में संलग्न रहना। देवि! महाराज को देवता के समान मानकर उनके चरणों की सेवा करना।
अभिमानं च मानं च त्यक्त्वा वर्तस्व मातृषु।
अनुराजानमार्यां च कैकेयीमम्ब कारय॥१९॥
‘अभिमान’ और मान को त्यागकर सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना उनके साथ हिल-मिलकर रहना। अम्बे! जिसमें राजा का अनुराग है, उस कैकेयी को भी श्रेष्ठ मानकर उसका सत्कार करना।१९॥
कुमारे भरते वृत्तिर्वर्तितव्या च राजवत्।
अप्यज्येष्ठा हि राजानो राजधर्ममनुस्मर ॥२०॥
‘कुमार भरत के प्रति राजोचित बर्ताव करना। राजा छोटी उम्र के हों तो भी वे आदरणीय ही होते हैं इस राजधर्म को याद रखना’ ॥ २० ॥
भरतः कुशलं वाच्यो वाच्यो मद्रचनेन च।
सर्वास्वेव यथान्यायं वृत्तिं वर्तस्व मातृषु॥२१॥
‘कुमार भरत से भी मेरा कुशल-समाचार बताकर उनसे मेरी ओर से कहना—’भैया! तुम सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करते रहना॥ २१॥
वक्तव्यश्च महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः।
पितरं यौवराज्यस्थो राज्यस्थमनुपालय॥ २२॥
‘इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले महाबाहु भरत से यह भी कहना चाहिये कि युवराज पद पर अभिषिक्त होने के बाद भी तुम राज्यसिंहासन पर ।विराजमान पिताजी की रक्षा एवं सेवा में संलग्न रहना। २२॥
अतिक्रान्तवया राजा मा स्मैनं व्यपरोरुधः।
कुमारराज्ये जीवस्व तस्यैवाज्ञाप्रवर्तनात्॥२३॥
‘राजा बहुत बूढ़े हो गये हैं—ऐसा मानकर तुम उनका विरोध न करना-उन्हें राजसिंहासन से न उतारना। युवराज-पद पर ही प्रतिष्ठित रहकर उनकी आज्ञा का पालन करते हुए ही जीवन-निर्वाह करना॥ २३॥
अब्रवीच्चापि मां भूयो भृशमश्रूणि वर्तयन्।
मातेव मम माता ते द्रष्टव्या पुत्रगर्धिनी ॥ २४॥
इत्येवं मां महाबाहुब्रुवन्नेव महायशाः।
रामो राजीवपत्राक्षो भृशमश्रूण्यवर्तयत्॥२५॥
‘फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए मुझसे भरत से कहने के लिये ही यह संदेश दिया—’भरत! मेरी पुत्रवत्सला माता को अपनी ही माता के समान समझना।’ मुझसे इतना ही कहकर महाबाहु महायशस्वी कमलनयन श्रीराम बड़े वेग से आँसुओं की वर्षा करने लगे।
लक्ष्मणस्तु सुसंक्रुद्धो निःश्वसन् वाक्यमब्रवीत्।
केनायमपराधेन राजपुत्रो विवासितः॥२६॥
‘परंतु लक्ष्मण उस समय अत्यन्त कुपित हो लंबी साँस खींचते हुए बोले—’सुमन्त्रजी! किस अपराध के करण महाराज ने इन राजकुमार श्रीराम को देश निकाला दे दिया है ? ॥ २६ ॥
राज्ञा तु खलु कैकेय्या लघु चाश्रुत्य शासनम्।
कृतं कार्यमकार्यं वा वयं येनाभिपीडिताः॥२७॥
‘राजा ने कैकेयी का आदेश सुनकर झट से उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। उनका यह कार्य उचित हो या अनुचित, परंतु हमलोगों को उसके कारण कष्ट भोगना ही पड़ता है॥२७॥
यदि प्रताजितो रामो लोभकारणकारितम्।
वरदाननिमित्तं वा सर्वथा दुष्कृतं कृतम्॥२८॥
‘श्रीराम को वनवास देना कैकेयी के लोभ के कारण हुआ हो अथवा राजा के दिये हुए वरदान के कारण, मेरी दृष्टि में यह सर्वथा पाप ही किया गया है॥२८॥
इदं तावद् यथाकाममीश्वरस्य कृते कृतम्।
रामस्य तु परित्यागे न हेतुमुपलक्षये॥२९॥
‘यह श्रीराम को वनवास देने का कार्य राजा की स्वेच्छाचारिता के कारण किया गया हो अथवा ईश्वर की प्रेरणा से, परंतु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई समुचित कारण नहीं दिखायी देता है॥ २९॥
असमीक्ष्य समारब्धं विरुद्धं बुद्धिलाघवात्।
जनयिष्यति संक्रोशं राघवस्य विवासनम्॥३०॥
‘बुद्धि की कमी अथवा तुच्छता के कारण उचित अनुचित का विचार किये बिना ही जो यह राम वनवासरूपी शास्त्रविरुद्ध कार्य आरम्भ किया गया है, यह अवश्य ही निन्दा और दुःख का जनक होगा। ३०॥
अहं तावन्महाराजे पितत्वं नोपलक्षये।
भ्राता भर्ता च बन्धुश्च पिता च मम राघवः॥ ३१॥
‘मुझे इस समय महाराज में पिता का भाव नहीं दिखायी देता। अब तो रघुकुलनन्दन श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी, बन्धु-बान्धव तथा पिता हैं ॥ ३१॥
सर्वलोकप्रियं त्यक्त्वा सर्वलोकहिते रतम्।
सर्वलोकोऽनुरज्येत कथं चानेन कर्मणा॥३२॥
‘जो सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर होने के कारण सब लोगों के प्रिय हैं, उन श्रीराम का परित्याग करके राजा ने जो यह क्रूरतापूर्ण पापकृत्य किया है, इसके कारण अब सारा संसार उनमें कैसे अनुरक्त रह सकता है? (अब उनमें राजोचित गुण कहाँ रह गया है?) ॥ ३२॥
सर्वप्रजाभिरामं हि रामं प्रव्रज्य धार्मिकम्।
सर्वलोकविरोधेन कथं राजा भविष्यति॥३३॥
‘जिनमें समस्त प्रजाका मन रमता है, उन धर्मात्मा श्रीराम को देशनिकाला देकर समस्त लोकों का विरोध करने के कारण अब वे कैसे राजा हो सकेंगे? ॥ ३३॥
जानकी तु महाराज निःश्वसन्ती तपस्विनी।
भूतोपहतचित्तेव विष्ठिता विस्मृता स्थिता ॥ ३४॥
‘महाराज! तपस्विनी जनकनन्दिनी सीता तो लंबी साँस खींचती हुई इस प्रकार निश्चेष्ट खड़ी थीं, मानो उनमें किसी भूत का आवेश हो गया हो। वे भूली-सी जान पड़ती थीं॥ ३४॥
अदृष्टपूर्वव्यसना राजपुत्री यशस्विनी।
तेन दुःखेन रुदती नैव मां किंचिदब्रवीत्॥ ३५॥
“उन यशस्विनी राजकुमारी ने पहले कभी ऐसा संकट नहीं देखा था। वे पति के ही दुःख से दुःखी होकर रो रही थीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा॥ ३५॥
उदीक्षमाणा भर्तारं मुखेन परिशुष्यता।
मुमोच सहसा बाष्पं प्रयान्तमुपवीक्ष्य सा॥३६॥
‘मुझे इधर आने के लिये उद्यत देख वे सूखे मुंह से पति की ओर देखती हुई सहसा आँसू बहाने लगी थीं॥
तथैव रामोऽश्रुमुखः कृताञ्जलिः स्थितोऽब्रवील्लक्ष्मणबाहुपालितः।
तथैव सीता रुदती तपस्विनी निरीक्षते राजरथं तथैव माम्॥३७॥
‘इसी प्रकार लक्ष्मण की भुजाओं से सुरक्षित श्रीराम उस समय हाथ जोड़े खड़े थे। उनके मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी। मनस्विनी सीता भी रोती हुई कभी आपके इस रथ की ओर देखती थीं और कभी मेरी ओर’ ॥ ३७॥
सर्ग ५९
मम त्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वर्त्मनि।
उष्णमश्रु विमुञ्चन्तो रामे सम्प्रस्थिते वनम्॥१॥
उभाभ्यां राजपुत्राभ्यामथ कृत्वाहमञ्जलिम्।
प्रस्थितो रथमास्थाय तदुःखमपि धारयन्॥२॥
सुमन्त्र ने कहा-‘जब श्रीरामचन्द्रजी वन की ओर प्रस्थित हुए, तब मैंने उन दोनों राजकुमारों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके वियोग के दुःख को हृदय में धारण करके रथ पर आरूढ़ हो उधर से लौटा। लौटते समय मेरे घोड़े नेत्रों से गरम-गरम आँसू बहाने लगे रास्ता चलने में उनका मन नहीं लगता था। १-२॥
गुहेन सार्धं तत्रैव स्थितोऽस्मि दिवसान् बहून्।
आशया यदि मां रामः पुनः शब्दापयेदिति॥३॥
‘मैं गृह के साथ कई दिनों तक वहाँ इस आशा से ठहरा रहा कि सम्भव है, श्रीराम फिर मुझे बुला लें। ३॥
विषये ते महाराज महाव्यसनकर्शिताः।
अपि वृक्षाः परिम्लानाः सपुष्पाङ्करकोरकाः॥४॥
‘महाराज! आपके राज्य में वृक्ष भी इस महान् संकट से कृशकाय हो गये हैं, फूल, अंकुर और कलियों सहित मुरझा गये हैं॥ ४॥
उपतप्तोदका नद्यः पल्वलानि सरांसि च।
परिशुष्कपलाशानि वनान्युपवनानि च ॥५॥
‘नदियों, छोटे जलाशयों तथा बड़े सरोवरों के जल गरम हो गये हैं। वनों और उपवनों के पत्ते सूख गये हैं॥
न च सर्पन्ति सत्त्वानि व्याला न प्रचरन्ति च।
रामशोकाभिभूतं तन्निष्कूजमभवद् वनम्॥६॥
‘वन के जीव-जन्तु आहार के लिये भी कहीं नहीं जाते हैं। अजगर आदि सर्प भी जहाँ-के-तहाँ पड़े हैं, आगे नहीं बढ़ते हैं। श्रीराम के शोक से पीड़ित हुआ वह सारा वन नीरव-सा हो गया है॥६॥
लीनपुष्करपत्राश्च नद्यश्च कलुषोदकाः।
संतप्तपद्माः पद्मिन्यो लीनमीनविहंगमाः॥७॥
‘नदियों के जल मलिन हो गये हैं। उनमें फैले हुए कमलों के पत्ते गल गये हैं। सरोवरों के कमल भी सूख गये हैं। उनमें रहने वाले मत्स्य और पक्षी भी नष्टप्राय हो गये हैं॥ ७॥
जलजानि च पुष्पाणि माल्यानि स्थलजानि च।
नातिभान्त्यल्पगन्धीनि फलानि च यथापुरम्॥ ८॥
‘जल में उत्पन्न होने वाले पुष्प तथा स्थल से पैदा होने वाले फूल भी बहुत थोड़ी सुगन्ध से युक्त होने के कारण अधिक शोभा नहीं पाते हैं तथा फल भी पूर्ववत् नहीं दृष्टिगोचर होते हैं॥८॥
अत्रोद्यानानि शून्यानि प्रलीनविहगानि च।
न चाभिरामानारामान् पश्यामि मनुजर्षभ॥९॥
‘नरश्रेष्ठ! अयोध्या के उद्यान भी सूने हो गये हैं, उनमें रहने वाले पक्षी भी कहीं छिप गये हैं। यहाँ के बगीचे भी मुझे पहले की भाँति मनोहर नहीं दिखायी देते हैं॥९॥
प्रविशन्तमयोध्यायां न कश्चिदभिनन्दति।
नरा राममपश्यन्तो निःश्वसन्ति मुहुर्मुहुः ॥१०॥
‘अयोध्या में प्रवेश करते समय मुझसे किसी ने प्रसन्न होकर बात नहीं की। श्रीराम को न देखकर लोग बारंबार लंबी साँसें खींचने लगे॥१०॥
देव राजरथं दृष्ट्वा विना राममिहागतम्।
दूरादश्रुमुखः सर्वो राजमार्गे गतो जनः॥११॥
‘देव! सड़क पर आये हुए सब लोग राजा का रथ श्रीराम के बिना ही यहाँ लौट आया है, यह देखकर दूर से ही आँसू बहाने लगे थे॥ ११॥
हम्र्यैर्विमानैः प्रासादैरवेक्ष्य रथमागतम्।
हाहाकारकृता नार्यो रामादर्शनकर्शिताः॥१२॥
‘अट्टालिकाओं, विमानों और प्रासादों पर बैठी हुई स्त्रियाँ वहाँ से रथ को सूना ही लौटा देखकर श्रीराम को न देखने के कारण व्यथित हो उठीं और हाहाकार करने लगीं॥ १२॥
आयतैर्विमलैर्नेर श्रुवेगपरिप्लुतैः।
अन्योन्यमभिवीक्षन्तेऽव्यक्तमार्ततराः स्त्रियः॥ १३॥
‘उनके कज्जल आदि से रहित बड़े-बड़े नेत्र आँसुओंके वेग में डूबे हुए थे। वे स्त्रियाँ अत्यन्त आर्त होकर अव्यक्त भाव से एक-दूसरी की ओर देख रही थीं॥
नामित्राणां न मित्राणामदासीनजनस्य च।
अहमार्ततया कंचिद् विशेषं नोपलक्षये॥१४॥
‘शत्रुओं, मित्रों तथा उदासीन (मध्यस्थ) मनुष्यों को भी मैंने समान रूप से दुःखी देखा है। किसी के शोक में मुझे कुछ अन्तर नहीं दिखायी दिया है॥१४॥
अप्रहृष्टमनुष्या च दीननागतुरंगमा।
आर्तस्वरपरिम्लाना विनिःश्वसितनिःस्वना॥ १५॥
निरानन्दा महाराज रामप्रव्राजनातुरा।
कौसल्या पुत्रहीनेव अयोध्या प्रतिभाति मे॥
‘महाराज! अयोध्या के मनुष्यों का हर्ष छिन गया है। वहाँके घोड़े और हाथी भी बहुत दुःखी हैं। सारी पुरी आर्तनाद से मलिन दिखायी देती है। लोगों की लंबी-लंबी साँसें ही इस नगरी का उच्छ्वास बन गयी हैं। यह अयोध्यापुरी श्रीराम के वनवास से व्याकुल हुई पुत्रवियोगिनी कौसल्या की भाँति मुझे आनन्दशून्य प्रतीत हो रही है’ ॥ १५-१६॥
सूतस्य वचनं श्रुत्वा वाचा परमदीनया।
बाष्पोपहतया सूतमिदं वचनमब्रवीत्॥१७॥
सुमन्त्र के वचन सुनकर राजा ने उनसे अश्रु-गद्गद परम दीन वाणी में कहा- ॥ १७॥
कैकेय्या विनियुक्तेन पापाभिजनभावया।
मया न मन्त्रकुशलैर्वृद्धैः सह समर्थितम्॥१८॥
‘सूत! जो पापी कुल और पापपूर्ण देश में उत्पन्न हुई है तथा जिसके विचार भी पाप से भरे हैं, उस कैकेयी के कहने में आकर मैंने सलाह देने में कुशल वृद्ध पुरुषों के साथ बैठकर इस विषय में कोई परामर्श भी नहीं किया॥१८॥
न सुहृद्भिर्न चामात्यैर्मन्त्रयित्वा सनैगमैः।
मयायमर्थः सम्मोहात् स्त्रीहेतोः सहसा कृतः॥ १९॥
‘सुहृदों, मन्त्रियों और वेदवेत्ताओं से सलाह लिये बिना ही मैंने मोहवश केवल एक स्त्री की इच्छा पूर्ण करने के लिये सहसा यह अनर्थमय कार्य कर डाला॥ १९॥
भवितव्यतया नूनमिदं वा व्यसनं महत्।
कुलस्यास्य विनाशाय प्राप्तं सूत यदृच्छया॥ २०॥
‘सुमन्त्र! होनहारवश यह भारी विपत्ति निश्चय ही इस कुलका विनाश करने के लिये अकस्मात् आ पहुँची है॥२०॥
सूत यद्यस्ति ते किंचिन्मयापि सुकृतं कृतम्।
त्वं प्रापयाशु मां रामं प्राणाः संत्वरयन्ति माम्॥ २१॥
‘सारथे! यदि मैंने तुम्हारा कभी कुछ थोड़ा-सा भी उपकार किया हो तो तुम मुझे शीघ्र ही श्रीराम के पास पहँचा दो। मेरे प्राण मुझे श्रीराम के दर्शन के लिये शीघ्रता करने की प्रेरणा दे रहे हैं॥ २१॥
यद्यद्यापि ममैवाज्ञा निवर्तयतु राघवम्।
न शक्ष्यामि विना रामं मुहूर्तमपि जीवितुम्॥ २२॥
‘यदि आज भी इस राज्य में मेरी ही आज्ञा चलती हो तो तुम मेरे ही आदेश से जाकर श्रीराम को वन से लौटा ले आओ; क्योंकि अब मैं उनके बिना दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकूँगा॥ २२ ॥
अथवापि महाबाहुर्गतो दूरं भविष्यति।
मामेव रथमारोप्य शीघ्रं रामाय दर्शय॥ २३॥
‘अथवा महाबाहु श्रीराम तो अब दूर चले गये होंगे, इसलिये मुझे ही रथ पर बिठाकर ले चलो और । शीघ्र ही राम का दर्शन कराओ॥ २३॥
वृत्तदंष्ट्रो महेष्वासः क्वासौ लक्ष्मणपूर्वजः।
यदि जीवामि साध्वेनं पश्येयं सीतया सह ॥ २४॥
‘कुन्दकली के समान श्वेत दाँतोंवाले, लक्ष्मण के बड़े भाई महाधनुर्धर श्रीराम कहाँ हैं? यदि सीता के साथ भली-भाँति उनका दर्शन कर लूँ, तभी मैं जीवित रह सकता हूँ॥२४॥
लोहिताक्षं महाबाहुमामुक्तमणिकुण्डलम्।
रामं यदि न पश्येयं गमिष्यामि यमक्षयम्॥ २५॥
‘जिनके लाल नेत्र और बड़ी-बड़ी भुजाएँ हैं तथा जो मणियों के कुण्डल धारण करते हैं, उन श्रीराम को यदि मैं नहीं देखूगा तो अवश्य यमलोक को चला जाऊँगा॥२५॥
अतो नु किं दुःखतरं योऽहमिक्ष्वाकुनन्दनम्।
इमामवस्थामापन्नो नेह पश्यामि राघवम्॥२६॥
‘इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी कि मैं इस मरणासन्न अवस्था में पहुँचकर भी इक्ष्वाकुकुलनन्दन राघवेन्द्र श्रीराम को यहाँ नहीं देख रहा हूँ॥२६॥
हा राम रामानुज हा हा वैदेहि तपस्विनि।
न मां जानीत दुःखेन म्रियमाणमनाथवत्॥२७॥
‘हा राम! हा लक्ष्मण! हा विदेहराजकुमारी तपस्विनी सीते! तुम्हें पता नहीं होगा कि मैं किस प्रकार दुःख से अनाथकी भाँति मर रहा हूँ’॥२७॥
स तेन राजा दुःखेन भृशमर्पितचेतनः।
अवगाढः सुदुष्पारं शोकसागरमब्रवीत्॥२८॥
राजा उस दुःख से अत्यन्त अचेत हो रहे थे, अतः वे उस परम दुर्लङ्ग्य शोकसमुद्र में निमग्न होकर बोले -
रामशोकमहावेगः सीताविरहपारगः।
श्वसितोर्मिमहावर्तो बाष्पवेगजलाविलः॥२९॥
बाहविक्षेपमीनोऽसौ विक्रन्दितमहास्वनः।
प्रकीर्णकेशशैवालः कैकेयीवडवामुखः ॥३०॥
ममाश्रुवेगप्रभवः कुब्जावाक्यमहाग्रहः।
वरवेलो नृशंसाया रामप्रव्राजनायतः॥३१॥
यस्मिन् बत निमग्नोऽहं कौसल्ये राघवं विना।
दुस्तरो जीवता देवि मयायं शोकसागरः॥ ३२॥
‘देवि कौसल्ये! मैं श्रीराम के बिना जिस शोकसमुद्र में डूबा हुआ हूँ, उसे जीते-जी पार करना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है। श्रीराम का शोक ही उस समुद्र का महान् वेग है। सीता का बिछोह ही उसका दूसरा छोर है। लंबी-लंबी साँसें उसकी लहरें और बड़ी-बड़ी भँवरें हैं। आँसुओं का वेगपूर्वक उमड़ा हुआ प्रवाह ही उसका मलिन जल है। मेरा हाथ पटकना ही उसमें उछलती हुई मछलियों का विलास है। करुण-क्रन्दन ही उसकी महान् गर्जना है। ये बिखरे हुए केश ही उसमें उपलब्ध होने वाले सेवार हैं। कैकेयी बड़वानल है। वह शोक-समुद्र मेरी वेगपूर्वक होनेवाली अश्रुवर्षा की उत्पत्ति का मूल कारण है। मन्थरा के कुटिलतापूर्ण वचन ही उस समुद्र के बड़े-बड़े ग्राह हैं। क्रूर कैकेयी के माँगे हुए दो वर ही उसके दो तट हैं तथा श्रीराम का वनवास ही उस शोक-सागर का महान् विस्तार है॥ २९–३२॥
अशोभनं योऽहमिहाद्य राघवं दिदृक्षमाणो न लभे सलक्ष्मणम्।
इतीव राजा विलपन् महायशाः पपात तूर्णं शयने स मूर्च्छितः॥३३॥
‘मैं लक्ष्मणसहित श्रीराम को देखना चाहता हूँ, परंतु इस समय उन्हें यहाँ देख नहीं पाता हूँ—यह मेरे बहुत बड़े पाप का फल है।’ इस तरह विलाप करते हुए महायशस्वी राजा दशरथ तुरंत ही मूर्च्छित होकर शय्या पर गिर पड़े॥ ३३॥
इति विलपति पार्थिवे प्रणष्टे करुणतरं द्विगुणं च रामहेतोः।
वचनमनुनिशम्य तस्य देवी भयमगमत् पुनरेव राममाता॥३४॥
श्रीरामचन्द्रजी के लिये इस प्रकार विलाप करते हुए राजा दशरथ के मूर्च्छित हो जाने पर उनके उस अत्यन्त करुणाजनक वचन को सुनकर राममाता देवी कौसल्या को पुनः दुगुना भय हो गया॥३४॥
सर्ग ६०
ततो भूतोपसृष्टेव वेपमाना पुनः पुनः।
धरण्यां गतसत्त्वेव कौसल्या सूतमब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर जैसे उनमें भूत का आवेश हो गया हो, इस प्रकार कौसल्या देवी बारंबार काँपने लगीं और अचेत-सी होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उसी अवस्था में उन्होंने सारथि से कहा- ॥१॥
नय मां यत्र काकुत्स्थः सीता यत्र च लक्ष्मणः।
तान् विना क्षणमप्यद्य जीवितुं नोत्सहे ह्यहम्॥ २॥
‘सुमन्त्र! जहाँ श्रीराम हैं, जहाँ सीता और लक्ष्मण हैं, वहीं मुझे भी पहुँचा दो। मैं उनके बिना अब एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती॥२॥
निवर्तय रथं शीघ्रं दण्डकान् नय मामपि।
अथ तान् नानुगच्छामि गमिष्यामि यमक्षयम्॥ ३॥
‘जल्दी रथ लौटाओ और मुझे भी दण्डकारण्य में ले चलो। यदि मैं उनके पास न जा सकी तो यमलोक की यात्रा करूँगी’ ॥३॥
बाष्पवेगोपहतया स वाचा सज्जमानया।
इदमाश्वासयन् देवीं सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥४॥
देवी कौसल्या की बात सुनकर सारथि सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर उन्हें समझाते हुए आँसुओं के वेग से अवरुद्ध हुई गद्गदवाणी में कहा- ॥४॥
त्यज शोकं च मोहं च सम्भ्रमं दुःखजं तथा।
व्यवधूय च संतापं वने वत्स्यति राघवः॥५॥
‘महारानी! यह शोक, मोह और दुःखजनित व्याकुलता छोड़िये। श्रीरामचन्द्रजी इस समय सारा संताप भूलकर वन में निवास करते हैं॥५॥
लक्ष्मणश्चापि रामस्य पादौ परिचरन् वने।
आराधयति धर्मज्ञः परलोकं जितेन्द्रियः॥६॥
‘धर्मज्ञ एवं जितेन्द्रिय लक्ष्मण भी उस वन में श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की सेवा करते हुए अपना परलोक बना रहे हैं॥६॥
विजनेऽपि वने सीता वासं प्राप्य गृहेष्विव।
विस्रम्भं लभतेऽभीता रामे विन्यस्तमानसा॥७॥
‘सीता का मन भगवान् श्रीराम में ही लगा हुआ है। इसलिये निर्जन वन में रहकर भी घर की ही भाँति प्रेम एवं प्रसन्नता पाती तथा निर्भय रहती हैं॥ ७॥
नास्या दैन्यं कृतं किंचित् ससूक्ष्ममपि लक्ष्यते।
उचितेव प्रवासानां वैदेही प्रतिभाति मे॥८॥
‘वन में रहने के कारण उनके मन में कुछ थोड़ा-सा भी दुःख नहीं दिखायी देता। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो विदेहराजकुमारी सीता को परदेश में रहने का पहले से ही अभ्यास हो॥ ८॥
नगरोपवनं गत्वा यथा स्म रमते परा।
तथैव रमते सीता निर्जनेषु वनेष्वपि॥९॥
‘जैसे यहाँ नगर के उपवन में जाकर वे पहले घूमा करती थीं, उसी प्रकार निर्जन वन में भी सीता सानन्द विचरती हैं॥ ९॥
बालेव रमते सीताबालचन्द्रनिभानना।
रामा रामे ह्यदीनात्मा विजनेऽपि वने सती॥१०॥
‘पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली रमणीशिरोमणि उदारहृदया सती-साध्वी सीता उस निर्जन वन में भी श्रीराम के समीप बालिका के समान खेलती और प्रसन्न रहती हैं॥ १० ॥
तद्गतं हृदयं यस्यास्तदधीनं च जीवितम्।
अयोध्या हि भवेदस्या रामहीना तथा वनम्॥ ११॥
‘उनका हृदय श्रीराम में ही लगा हुआ है। उनका जीवन भी श्रीराम के ही अधीन है, अतः राम के बिना अयोध्या भी उनके लिये वन के समान ही होगी (और श्रीराम के साथ रहने पर वे वन में भी अयोध्या के समान ही सुख का अनुभव करेंगी) ॥ ११॥
परिपृच्छति वैदेही ग्रामांश्च नगराणि च।
गतिं दृष्ट्वा नदीनां च पादपान् विविधानपि॥ १२॥
‘विदेहनन्दिनी सीता मार्ग में मिलने वाले गाँवों, नगरों, नदियों के प्रवाहों और नाना प्रकार के वृक्षों को देखकर उनका परिचय पूछा करती हैं।॥ १२॥
रामं वा लक्ष्मणं वापि दृष्ट्वा जानाति जानकी।
अयोध्या क्रोशमात्रे तु विहारमिव साश्रिता॥ १३॥
‘श्रीराम और लक्ष्मण को अपने पास देखकर जानकी को यही जान पड़ता है कि मैं अयोध्या से एक कोस की दूरी पर मानो घूमने-फिरने के लिये ही आयी हैं॥ १३॥
इदमेव स्मराम्यस्याः सहसैवोपजल्पितम्।
कैकेयीसंश्रितं जल्पं नेदानी प्रतिभाति माम्॥ १४॥
‘सीता के सम्बन्ध में मुझे इतना ही स्मरण है। उन्होंने कैकेयी को लक्ष्य करके जो सहसा कोई बात कह दी थी, वह इस समय मुझे याद नहीं आ रही है’।
ध्वंसयित्वा तु तद् वाक्यं प्रमादात् पर्युपस्थितम्।
लादनं वचनं सूतो देव्या मधुरमब्रवीत्॥१५॥
इस प्रकार भूल से निकली हुई कैकेयी विषयक उस बात को पलटकर सारथि सुमन्त्र ने देवी कौसल्या के हृदय को आह्लाद प्रदान करने वाला मधुर वचन कहा – ॥१५॥
अध्वना वातवेगेन सम्भ्रमेणातपेन च।
न विगच्छति वैदेह्याश्चन्द्रांशुसदृशी प्रभा॥१६॥
‘मार्ग में चलने की थकावट, वायु के वेग, भयदायक वस्तुओं को देखने के कारण होने वाली घबराहट तथा धूप से भी विदेहराजकुमारीकी चन्द्रकिरणों के समान कमनीय कान्ति उनसे दूर नहीं होती है॥ १६ ॥
सदृशं शतपत्रस्य पूर्णचन्द्रोपमप्रभम्।
वदनं तद् वदान्याया वैदेह्या न विकम्पते॥१७॥
‘उदारहृदया सीता का विकसित कमल के समान सुन्दर तथा पूर्ण चन्द्रमा के समान आनन्ददायक कान्ति से युक्त मुख कभी मलिन नहीं होता है॥ १७॥
अलक्तरसरक्ताभावलक्तरसवर्जितौ।
अद्यापि चरणौ तस्याः पद्मकोशसमप्रभौ॥१८॥
‘जिनमें महावर के रंग नहीं लग रहे हैं, सीता के वे दोनों चरण आज भी महावर के समान ही लाल तथा कमलकोश के समान कान्तिमान् हैं।॥ १८॥
नूपुरोत्कृष्टलीलेव खेलं गच्छति भामिनी।
इदानीमपि वैदेही तद्रागान्यस्तभूषणा ॥१९॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के प्रति अनुराग के कारण उन्हीं की प्रसन्नता के लिये जिन्होंने आभूषणों का परित्याग नहीं किया है, वे विदेहराजकुमारी भामिनी सीता इस समय भी अपने नूपुरों की झनकार से हंसों के कलनाद का तिरस्कार-सा करती हुई लीलाविलासयुक्त गति से चलती हैं॥ १९॥
गजं वा वीक्ष्य सिंह वा व्याघ्रं वा वनमाश्रिता।
नाहारयति संत्रासं बाहू रामस्य संश्रिता॥२०॥
‘वे श्रीरामचन्द्रजी के बाहुबल का भरोसा करके वन में रहती हैं और हाथी, बाघ अथवा सिंह को भी देखकर कभी भय नहीं मानती हैं।॥ २० ॥
न शोच्यास्ते न चात्मा ते शोच्यो नापि जनाधिपः।
इदं हि चरितं लोके प्रतिष्ठास्यति शाश्वतम्॥ २१॥
‘अतः आप श्रीराम, लक्ष्मण अथवा सीता के लिये शोक न करें, अपने और महाराज के लिये भी चिन्ता छोड़ें। श्रीरामचन्द्रजी का यह पावन चरित्र संसार में सदा ही स्थिर रहेगा॥ २१॥
विधूय शोकं परिहृष्टमानसा महर्षियाते पथि सुव्यवस्थिताः।
वने रता वन्यफलाशनाः पितुः शुभां प्रतिज्ञा प्रतिपालयन्ति ते॥२२॥
‘वे तीनों ही शोक छोड़कर प्रसन्नचित्त हो महर्षियों के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक स्थित हैं और वन में रहकर फल-मूल का भोजन करते हुए पिता की उत्तम प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं’ ॥ २२ ॥
तथापि सूतेन सुयुक्तवादिना निवार्यमाणा सुतशोककर्शिता।
न चैव देवी विरराम कूजितात् प्रियेति पुत्रेति च राघवेति च॥२३॥
इस प्रकार युक्तियुक्त वचन कहकर सारथि सुमन्त्र ने पुत्रशोक से पीड़ित हुई कौसल्या को चिन्ता करने और रोने से रोका तो भी देवी कौसल्या विलाप से विरत न हुईं । वे ‘हा प्यारे !’ ‘हा पुत्र!’ और ‘हा रघुनन्दन!’ की रट लगाती हुई करुण क्रन्दन करती ही रहीं॥ २३॥
सर्ग ६१
वनं गते धर्मरते रामे रमयतां वरे।
कौसल्या रुदती चार्ता भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
प्रजाजनों को आनन्द प्रदान करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ धर्मपरायण श्रीराम के वन में चले जाने पर आर्त होकर रोती हुई कौसल्या ने अपने पति से इस प्रकार कहा – ॥१॥
यद्यपि त्रिषु लोकेषु प्रथितं ते महद् यशः।
सानुक्रोशो वदान्यश्च प्रियवादी च राघवः॥२॥
‘महाराज! यद्यपि तीनों लोकों में आपका महान् यश फैला हुआ है, सब लोग यही जानते हैं किरघुकुलनरेश दशरथ बड़े दयालु, उदार और प्रिय वचन बोलनेवाले हैं॥२॥
कथं नरवरश्रेष्ठ पुत्रौ तौ सह सीतया।
दुःखितौ सुखसंवृद्धौ वने दुःखं सहिष्यतः॥३॥
‘नरेशों में श्रेष्ठ आर्यपुत्र ! तथापि आपने इस बात का विचार नहीं किया कि सुख में पले हुए आपके वे दोनों पुत्र सीता के साथ वनवास का कष्ट कैसे सहन करेंगे॥३॥
सा नूनं तरुणी श्यामा सुकुमारी सुखोचिता।
कथमुष्णं च शीतं च मैथिली विसहिष्यते॥४॥
‘वह सोलह-अठारह वर्षों की सुकुमारी तरुणी मिथिलेशकुमारी सीता, जो सुख भोगने के ही योग्य है, वन में सर्दी-गरमी का दुःख कैसे सहेगी? ॥ ४॥
भुक्त्वाशनं विशालाक्षी सूपदंशान्वितं शुभम्।
वन्यं नैवारमाहारं कथं सीतोपभोक्ष्यते॥५॥
‘विशाललोचना सीता सुन्दर व्यञ्जनों से युक्त सुन्दर स्वादिष्ट अन्न भोजन किया करती थी, अब वह जंगल की तिन्नी के चावल का सूखा भात कैसे खायगी?॥
गीतवादित्रनिर्घोषं श्रुत्वा शुभसमन्विता।
कथं क्रव्यादसिंहानां शब्दं श्रोष्यत्यशोभनम्॥
‘जो माङ्गलिक वस्तुओं से सम्पन्न रहकर सदा गीत और वाद्य की मधुर ध्वनि सुना करती थी, वही जंगल में मांसभक्षी सिंहों का अशोभन (अमङ्गलकारी) शब्द कैसे सुन सकेगी? ॥ ६॥
महेन्द्रध्वजसंकाशः क्व नु शेते महाभुजः।
भुजं परिघसंकाशमुपाधाय महाबलः॥७॥
‘जो इन्द्रध्वज के समान समस्त लोकों के लिये उत्सव प्रदान करने वाले थे, वे महाबली, महाबाहु श्रीराम अपनी परिघ-जैसी मोटी बाँह का तकिया लगाकर कहाँ सोते होंगे? ॥ ७॥
पद्मवर्णं सुकेशान्तं पद्मनिःश्वासमुत्तमम्।
कदा द्रक्ष्यामि रामस्य वदनं पुष्करेक्षणम्॥८॥
‘जिसकी कान्ति कमल के समान है, जिसके ऊपर सुन्दर केश शोभा पाते हैं, जिसकी प्रत्येक साँस से कमल की-सी सुगन्ध निकलती है तथा जिसमें विकसित कमल के सदृश सुन्दर नेत्र सुशोभित होते हैं, श्रीराम के उस मनोहर मुख को मैं कब दे लूँगी? ॥ ८॥
वज्रसारमयं नूनं हृदयं मे न संशयः।
अपश्यन्त्या न तं यद् वै फलतीदं सहस्रधा॥९॥
‘मेरा हृदय निश्चय ही लोहे का बना हुआ है, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि श्रीराम को न देखने पर भी मेरे इस हृदय के सहस्रों टुकड़े नहीं हो जाते हैं॥९॥
यत् त्वया करुणं कर्म व्यपोह्य मम बान्धवाः।
निरस्ताः परिधावन्ति सुखार्हाः कृपणा वने॥ १०॥
‘आपने यह बड़ा ही निर्दयतापूर्ण कर्म किया है कि बिना कुछ सोच-विचार किये मेरे बान्धवों को (कैकेयी के कहने से) निकाल दिया है, जिसके कारण वे सुखभोगने के योग्य होने पर भी दीन होकर वन में दौड़ रहे हैं॥ १०॥
यदि पञ्चदशे वर्षे राघवः पुनरेष्यति।
जह्याद् राज्यं च कोशं च भरतो नोपलक्ष्यते॥ ११॥
‘यदि पंद्रहवें वर्ष में श्रीरामचन्द्र पुनः वन से लौटें तो भरत उनके लिये राज्य और खजाना छोड़ देंगे, ऐसी सम्भावना नहीं दिखायी देती॥ ११ ॥
भोजयन्ति किल श्राद्धे केचित् स्वानेव बान्धवान्।
ततः पश्चात् समीक्षन्ते कृतकार्या द्विजोत्तमान्॥ १२॥
तत्र ये गुणवन्तश्च विद्वांसश्च द्विजातयः।
न पश्चात् तेऽभिमन्यन्ते सुधामपि सुरोपमाः॥ १३॥
‘कहते हैं, कुछ लोग श्राद् धमें पहले अपने बान्धवों (दौहित्र आदि)-को ही भोजन करा देते हैं, उसके बाद कृतकृत्य होकर निमन्त्रित श्रेष्ठ ब्राह्मणों की ओर ध्यान देते हैं। परंतु वहाँ जो गुणवान् एवं विद्वान् देवतुल्य उत्तम ब्राह्मण होते हैं, वे पीछे अमृत भी परोसा गया हो तो उसको स्वीकार नहीं करते हैं। १२-१३॥
ब्राह्मणेष्वपि वृत्तेषु भुक्तशेषं द्विजोत्तमाः।
नाभ्युपेतुमलं प्राज्ञाः शृङ्गच्छेदमिवर्षभाः॥१४॥
‘यद्यपि पहली पंक्ति में भी ब्राह्मण ही भोजन करके उठे होते हैं, तथापि जो श्रेष्ठ और विद्वान् ब्राह्मण हैं,वे अपमान के भय से उस भुक्तशेष अन्न को उसी तरह ग्रहण नहीं कर पाते जैसे अच्छे बैल अपने सींग कटाने को नहीं तैयार होते हैं॥ १४ ॥
एवं कनीयसा भ्रात्रा भुक्तं राज्यं विशाम्पते।
भ्राता ज्येष्ठो वरिष्ठश्च किमर्थं नावमन्यते॥१५॥
‘महाराज! इसी प्रकार ज्येष्ठ और श्रेष्ठ भ्राता अपने छोटे भाईके भोगे हुए राज्यको कैसे ग्रहण करेंगे? वे उसका तिरस्कार (त्याग) क्यों नहीं कर देंगे? ॥ १५॥
न परेणाहृतं भक्ष्यं व्याघ्रः खादितुमिच्छति।
एवमेव नरव्याघ्रः परलीढं न मंस्यते॥१६॥
‘जैसे बाघ गीदड़ आदि दूसरे जन्तुओंके लाये या खाये हुए भक्ष्य पदार्थ (शिकार)-को खाना नहीं चाहता, इसी प्रकार पुरुषसिंह श्रीराम दूसरोंके चाटे (भोगे) हुए राज्य-भोगको नहीं स्वीकार करेंगे। १६॥
हविराज्यं पुरोडाशः कुशा यूपाश्च खादिराः।
नैतानि यातयामानि कुर्वन्ति पुनरध्वरे॥१७॥
‘हविष्य, घृत, पुरोडाश, कुश और खदिर (खैर)के यूप—ये एक यज्ञ के उपयोग में आ जानेपर ‘यातयाम’ (उपभुक्त) हो जाते हैं; इसलिये विद्वान् इनका फिर दूसरे यज्ञ में उपयोग नहीं करते हैं ।। १७॥
तथा ह्यात्तमिदं राज्यं हृतसारां सुरामिव।
नाभिमन्तुमलं रामो नष्टसोममिवाध्वरम्॥१८॥
‘इसी प्रकार निःसार सुरा और भुक्तावशिष्ट यज्ञसम्बन्धी सोमरस की भाँति इस भोगे हुए राज्य को श्रीराम नहीं ग्रहण कर सकते॥ १८ ॥
नैवंविधमसत्कारं राघवो मर्षयिष्यति।
बलवानिव शार्दूलो वालधेरभिमर्शनम्॥१९॥
‘जैसे बलवान् शेर किसी के द्वारा अपनी पूंछ का पकड़ा जाना नहीं सह सकता, उसी प्रकार श्रीराम ऐसे अपमान को नहीं सह सकेंगे॥ १९॥
नैतस्य सहिता लोका भयं कुर्युर्महामृधे।
अधर्मं त्विह धर्मात्मा लोकं धर्मेण योजयेत्॥ २०॥
‘समस्त लोक एक साथ होकर यदि महासमर में आ जायँ तो भी वे श्रीरामचन्द्रजी के मन में भय उत्पन्न नहीं कर सकते, तथापि इस तरह राज्य लेने में अधर्म मानकर उन्होंने इसपर अधिकार नहीं किया। जो धर्मात्मा समस्त जगत् को धर्म में लगाते हैं, वे स्वयं अधर्म कैसे कर सकते हैं? ॥ २० ॥
नन्वसौ काञ्चनैर्बाणैर्महावीर्यो महाभुजः।
युगान्त इव भूतानि सागरानपि निर्दहेत्॥२१॥
‘वे महापराक्रमी महाबाहु श्रीराम अपने सुवर्णभूषित बाणों द्वारा सारे समुद्रों को भी उसी प्रकार दग्ध कर सकते हैं, जैसे संवर्तक अग्निदेव प्रलयकाल में सम्पूर्ण प्राणियों को भस्म कर डालते हैं। २१॥
स तादृशः सिंहबलो वृषभाक्षो नरर्षभः।
स्वयमेव हतः पित्रा जलजेनात्मजो यथा॥२२॥
‘सिंह के समान बल और बैल के समान बड़े-बड़े नेत्रवाला वैसा नरश्रेष्ठ वीर पुत्र स्वयं अपने पिता के ही हाथों द्वारा मारा गया (राज्य से वञ्चित कर दिया गया)। ठीक उसी तरह, जैसे मत्स्य का बच्चा अपने पिता मत्स्य के द्वारा ही खा लिया जाता है।। २२॥
द्विजातिचरितो धर्मः शास्त्रे दृष्टः सनातनैः।
यदि ते धर्मनिरते त्वया पुत्रे विवासिते॥२३॥
‘आपके द्वारा धर्मपरायण पुत्र को देश निकाला दे दिया गया, अतः यह प्रश्न उठता है कि सनातन ऋषियों ने वेद में जिसका साक्षात्कार किया है तथाश्रेष्ठ द्विज जिसे अपने आचरण में लाये हैं, वह धर्म आपकी दृष्टि में सत्य है या नहीं॥ २३॥
गतिरेका पतिर्नार्या द्वितीया गतिरात्मजः।
तृतीया ज्ञातयो राजश्चतुर्थी नैव विद्यते॥२४॥
‘राजन्! नारी के लिये एक सहारा उसका पति है, दूसरा उसका पुत्र है तथा तीसरा सहारा उसके पिता भाई आदि बन्धु-बान्धव हैं, चौथा कोई सहारा उसके लिये नहीं है ॥२४॥
तत्र त्वं मम नैवासि रामश्च वनमाहितः।
न वनं गन्तुमिच्छामि सर्वथा हा हता त्वया॥ २५॥
‘इन सहारों में से आप तो मेरे हैं ही नहीं (क्योंकि आप सौत के अधीन हैं)। दूसरा सहारा श्रीराम हैं, जो वन में भेज दिये गये (और बन्धु-बान्धव भी दूर हैं। अतः तीसरा सहारा भी नहीं रहा)। आपकी सेवा छोड़कर मैं श्रीराम के पास वन में जाना नहीं चाहती हूँ, इसलिये सर्वथा आपके द्वारा मारी ही गयी॥२५॥
हतं त्वया राष्ट्रमिदं सराज्यं हताः स्म सर्वाः सह मन्त्रिभिश्च।
हता सपुत्रास्मि हताश्च पौराः सुतश्च भार्या च तव प्रहृष्टौ॥ २६॥
‘आपने श्रीराम को वन में भेजकर इस राष्ट्र का तथा आस-पास के अन्य राज्यों का भी नाश कर डाला, मन्त्रियों सहित सारी प्रजा का वध कर डाला। आपके द्वारा पुत्रसहित मैं भी मारी गयी और इस नगर के निवासी भी नष्टप्राय हो गये। केवल आपके पुत्र भरत और पत्नी कैकेयी दो ही प्रसन्न हुए हैं’ ॥ २६ ॥
इमां गिरं दारुणशब्दसंहितां निशम्य रामेति मुमोह दुःखितः।
ततः स शोकं प्रविवेश पार्थिवः स्वदुष्कृतं चापि पुनस्तथास्मरत्॥२७॥
कौसल्या की यह कठोर शब्दों से युक्त वाणी सुनकर राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा राम!’ कहकर मूर्च्छित हो गये। राजा शोक में डूब गये। फिर उसी समय उन्हें अपने एक पुराने दुष्कर्म का स्मरण हो आया, जिसके कारण उन्हें यह दुःख प्राप्त हुआ था॥ २७॥
सर्ग ६२
एवं तु क्रुद्धया राजा राममात्रा सशोकया।
श्रावितः परुषं वाक्यं चिन्तयामास दुःखितः॥
शोकमग्न हो कुपित हुई श्रीराम माता कौसल्या ने जब राजा दशरथ को इस प्रकार कठोर वचन सुनाया, तब वे दुःखित होकर बड़ी चिन्ता में पड़ गये॥१॥
चिन्तयित्वा स च नृपो मोहव्याकुलितेन्द्रियः।
अथ दीर्पण कालेन संज्ञामाप परंतपः॥२॥
चिन्तित होने के कारण राजा की सारी इन्द्रियाँ मोह से आच्छन्न हो गयीं। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् शत्रुओं को संताप देने वाले राजा दशरथ को चेत हुआ।२॥
स संज्ञामुपलभ्यैव दीर्घमुष्णं च निःश्वसन्।
कौसल्या पार्श्वतो दृष्ट्वा ततश्चिन्तामुपागमत्॥ ३॥
होश में आने पर उन्होंने गरम-गरम लंबी साँस ली और कौसल्या को बगल में बैठी हुई देख वे फिर चिन्ता में पड़ गये॥३॥
तस्य चिन्तयमानस्य प्रत्यभात् कर्म दुष्कृतम्।
यदनेन कृतं पूर्वमज्ञानाच्छब्दवेधिना॥४॥
चिन्ता में पड़े-पड़े ही उन्हें अपने एक दुष्कर्म का स्मरण हो आया, जो इन शब्दवेधी बाण चलाने वाले नरेश के द्वारा पहले अनजान में बन गया था॥४॥
अमनास्तेन शोकेन रामशोकेन च प्रभुः।
द्वाभ्यामपि महाराजः शोकाभ्यामभितप्यते॥५॥
उस शोक से तथा श्रीराम के शोक से भी राजा के मन में बड़ी वेदना हुई। उन दोनों ही शोकों से महाराज संतप्त होने लगे॥५॥
दह्यमानस्तु शोकाभ्यां कौसल्यामाह दुःखितः।
वेपमानोऽञ्जलिं कृत्वा प्रसादार्थमवाङ्मुखः॥६॥
उन दोनों शोकों से दग्ध होते हुए दुःखी राजा दशरथ नीचे मुँह किये थर-थर काँपने लगे और कौसल्या को मनाने के लिये हाथ जोड़कर बोले-॥
प्रसादये त्वां कौसल्ये रचितोऽयं मयाञ्जलिः।
वत्सला चानृशंसा च त्वं हि नित्यं परेष्वपि॥७॥
‘कौसल्ये! मैं तुमसे निहोरा करता हूँ, तुम प्रसन्न हो जाओ। देखो, मैंने ये दोनों हाथ जोड़ लिये हैं। तुम तो दूसरों पर भी सदा वात्सल्य और दया दिखानेवाली हो (फिर मेरे प्रति क्यों कठोर हो गयी?)॥७॥
भर्ता तु खलु नारीणां गुणवान् निर्गुणोऽपि वा।
धर्मं विमृशमानानां प्रत्यक्षं देवि दैवतम्॥८॥
‘देवि! पति गुणवान् हो या गुणहीन, धर्मका विचार करने वाली सती नारियों के लिये वह प्रत्यक्ष देवता है॥
सा त्वं धर्मपरा नित्यं दृष्टलोकपरावरा।
नाहसे विप्रियं वक्तुं दुःखितापि सुदुःखितम्॥९॥
‘तुम तो सदा धर्म में तत्पर रहनेवाली और लोक में भले-बुरे को समझने वाली हो। यद्यपि तुम भी दुःखित हो तथापि मैं भी महान् दुःख में पड़ा हुआ हूँ, अतः तुम्हें मुझसे कठोर वचन नहीं कहना चाहिये’ ॥९॥
तद् वाक्यं करुणं राज्ञः श्रुत्वा दीनस्य भाषितम्।
कौसल्या व्यसृजद् बाष्पं प्रणालीव नवोदकम्॥ १०॥
दुःखी हुए राजा दशरथ के मुख से कहे गये उस करुणाजनक वचन को सुनकर कौसल्या अपने नेत्रों सेआँसू बहाने लगीं, मानो छत की नाली से नूतन (वर्षा का) जल गिर रहा हो॥ १०॥
सा मूर्ध्नि बद्ध्वा रुदती राज्ञः पद्ममिवाञ्जलिम्।
सम्भ्रमादब्रवीत् त्रस्ता त्वरमाणाक्षरं वचः॥११॥
वे अधर्म के भय से रो पड़ी और राजा के जुड़े हुए कमलसदृश हाथों को अपने सिर से सटाकर घबराहट के कारण शीघ्रतापूर्वक एक-एक अक्षर का उच्चारण करती हुई बोलीं- ॥११॥
प्रसीद शिरसा याचे भूमौ निपतितास्मि ते।
याचितास्मि हता देव क्षन्तव्याहं नहि त्वया॥ १२॥
‘देव! मैं आपके सामने पृथ्वी पर पड़ी हूँ। आपके चरणों में मस्तक रखकर याचना करती हूँ, आप प्रसन्न हों। यदि आपने उलटे मुझसे ही याचना की, तब तो मैं मारी गयी। मुझसे अपराध हुआ हो तो भी मैं आपसे क्षमा पाने के योग्य हूँ, प्रहार पाने के नहीं॥ १२॥
नैषा हि सा स्त्री भवति श्लाघनीयेन धीमता।
उभयोर्लोकयोलॊके पत्या या सम्प्रसाद्यते॥१३॥
‘पति अपनी स्त्री के लिये इहलोक और परलोक में भी स्पृहणीय है। इस जगत् में जो स्त्री अपने बुद्धिमान् पति के द्वारा मनायी जाती है, वह कुल-स्त्री कहलाने के योग्य नहीं है॥ १३॥
जानामि धर्मं धर्मज्ञ त्वां जाने सत्यवादिनम्।
पुत्रशोकार्तया तत्तु मया किमपि भाषितम्॥ १४॥
‘धर्मज्ञ महाराज! मैं स्त्री-धर्म को जानती हूँ और । यह भी जानती हूँ कि आप सत्यवादी हैं। इस समय मैंने जो कुछ भी न कहने योग्य बात कह दी है, वह पुत्रशोक से पीड़ित होने के कारण मेरे मुख से निकल गयी है॥ १४॥
शोको नाशयते धैर्यं शोको नाशयते श्रुतम्।
शोको नाशयते सर्वं नास्ति शोकसमो रिपुः॥ १५॥
‘शोक धैर्य का नाश कर देता है। शोक शास्त्रज्ञान को भी लुप्त कर देता है तथा शोक सब कुछ नष्ट कर देता है; अतः शोक के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है।॥ १५ ॥
शक्यमापतितः सोढुं प्रहारो रिपुहस्ततः।
सोढुमापतितः शोकः सुसूक्ष्मोऽपि न शक्यते॥ १६॥
‘शत्रु के हाथ से अपने ऊपर पड़ा हुआ शस्त्रों का प्रहार सह लिया जा सकता है; परंतु दैववश प्राप्त हुआ थोड़ा-सा भी शोक नहीं सहा जा सकता॥ १६ ॥
वनवासाय रामस्य पञ्चरात्रोऽत्र गण्यते।
यः शोकहतहर्षायाः पञ्चवर्षोपमो मम॥१७॥
‘श्रीराम को वन में गये आज पाँच रातें बीत गयीं। मैं यही गिनती रहती हूँ। शोक ने मेरे हर्ष को नष्ट कर दिया है, अतः ये पाँच रात मेरे लिये पाँच वर्षों के समान प्रतीत हुई हैं॥ १७॥
तं हि चिन्तयमानायाः शोकोऽयं हृदि वर्धते।
नदीनामिव वेगेन समुद्रसलिलं महत्॥१८॥
‘श्रीराम का ही चिन्तन करने के कारण मेरे हृदय का यह शोक बढ़ता जा रहा है, जैसे नदियों के वेग से समुद्र का जल बहुत बढ़ जाता है’ ॥ १८॥
एवं हि कथयन्त्यास्तु कौसल्यायाः शुभं वचः।
मन्दरश्मिरभूत् सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत॥१९॥
अथ प्रह्लादितो वाक्यैर्देव्या कौसल्यया नृपः।
शोकेन च समाक्रान्तो निद्राया वशमेयिवान्॥ २०॥
कौसल्या इस प्रकार शुभ वचन कह ही रही थीं कि सूर्य की किरणें मन्द पड़ गयीं और रात्रिकाल आ पहँचा। देवी कौसल्या की इन बातों से राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही वे श्रीराम के शोक से भी पीड़ित थे इस हर्ष और शोक की अवस्था में उन्हें नींद आ गयी॥ १९-२०॥
सर्ग ६३
प्रतिबुद्धो मुहूर्तेन शोकोपहतचेतनः।
अथ राजा दशरथः स चिन्तामभ्यपद्यत॥१॥
राजा दशरथ दो ही घड़ी के बाद फिर जाग उठे। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल हो रहा था। वे मन-ही-मन चिन्ता करने लगे॥१॥
रामलक्ष्मणयोश्चैव विवासाद् वासवोपमम्।
आपेदे उपसर्गस्तं तमः सूर्यमिवासुरम्॥२॥
श्रीराम और लक्ष्मण के वन में चले जाने से इन इन्द्रतुल्य तेजस्वी महाराज दशरथ को शोक ने उसी प्रकार धर दबाया था, जैसे राहु का अन्धकार सूर्य को ढक देता है॥२॥
सभार्ये हि गते रामे कौसल्यां कोसलेश्वरः।
विवक्षुरसितापाङ्गी स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः॥३॥
पत्नीसहित श्रीराम के वन में चले जाने पर कोसलनरेश दशरथ ने अपने पुरातन पाप का स्मरण करके कजरारे नेत्रों वाली कौसल्या से कहने का विचार किया॥३॥
स राजा रजनी षष्ठी रामे प्रव्राजिते वनम्।
अर्धरात्रे दशरथः सोऽस्मरद दुष्कृतं कृतम्॥४॥
उस समय श्रीरामचन्द्रजी को वन में गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथ को उस पहले के किये हुए दुष्कर्म का स्मरण हुआ॥४॥
स राजा पुत्रशोकार्तः स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः।
कौसल्यां पुत्रशोकार्तामिदं वचनमब्रवीत्॥५॥
पुत्रशोक से पीड़ित हुए महाराज ने अपने उस दुष्कर्म को याद करके पुत्रशोक से व्याकुल हुई कौसल्या से इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥५॥
यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाशुभम्।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः॥६॥
‘कल्याणि! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, भद्रे! अपने उसी कर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ता को प्राप्त होते हैं॥ ६॥
गुरुलाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम्।
दोषं वा यो न जानाति स बाल इति होच्यते॥७॥
‘जो कर्मों का आरम्भ करते समय उनके फलों की गुरुता या लघुता को नहीं जानता, उनसे होने वाले लाभरूपी गुण अथवा हानिरूपी दोष को नहीं समझता, वह मनुष्य बालक (मूर्ख) कहा जाता है। ७॥
कश्चिदानवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे॥८॥
‘कोई मनुष्य पलाश का सुन्दर फूल देखकर मन ही-मन यह अनुमान करके कि इसका फल और भी मनोहर तथा सुस्वादु होगा, फल की अभिलाषा से आम के बगीचे को काटकर वहाँ पलाश के पौधे लगाता और सींचता है, वह फल लगने के समय पश्चात्ताप करता है (क्योंकि उससे अपनी आशा के अनुरूप फल वह नहीं पाता है) ॥८॥
अविज्ञाय फलं यो हि कर्म त्वेवानुधावति।
स शोचेत् फलवेलायां यथा किंशुकसेचकः॥ ९॥
‘जो क्रियमाण कर्म के फल का ज्ञान या विचार न करके केवल कर्म की ओर ही दौड़ता है, उसे उसका फल मिलने के समय उसी तरह शोक होता है, जैसा कि आम काटकर पलाश सींचने वाले को हुआ करता है॥९॥
सोऽहमाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च न्यषेचयम्।
रामं फलागमे त्यक्त्वा पश्चाच्छोचामि दुर्मतिः॥ १०॥
‘मैंने भी आम का वन काटकर पलाशों को ही सींचा है, इस कर्म के फल की प्राप्ति के समय अब श्रीराम को खोकर मैं पश्चात्ताप कर रहा हूँ। मेरी बुद्धि कैसी खोटी है?॥
लब्धशब्देन कौसल्ये कुमारेण धनुष्मता।
कुमारः शब्दवेधीति मया पापमिदं कृतम्॥११॥
‘कौसल्ये! पिता के जीवनकाल में जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धर के रूप में मेरी ख्याति फैल गयी थी। सब लोग यही कहते थे कि ‘राजकुमार दशरथ शब्द-वेधी बाण चलाना जानते हैं।’ इसी ख्याति में पड़कर मैंने यह एक पाप कर डाला था (जिसे अभी बताऊँगा) ॥ ११॥
पतितेनाम्भसाऽऽच्छन्नः पतमानेन चासकृत्।
आबभौ मत्तसारङ्गस्तोयराशिरिवाचलः॥१८॥
‘गिरे हुए और बारंबार गिरते हुए जल से आच्छादित हुआ मतवाला हाथी तरङ्गरहित प्रशान्त समुद्र तथा भीगे पर्वत के समान प्रतीत होता था। १८॥
पाण्डुरारुणवर्णानि स्रोतांसि विमलान्यपि।
सुस्रुवुर्गिरिधातुभ्यः सभस्मानि भुजंगवत्॥१९॥
‘पर्वतों से गिरने वाले स्रोत या झरने निर्मल होने पर भी पर्वतीय धातुओं के सम्पर्क से श्वेत, लाल और भस्मयुक्त होकर सो की भाँति कुटिल गति से बह रहे थे॥ १९॥
तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान् रथी।
व्यायामकृतसंकल्पः सरयूमन्वगां नदीम्॥२०॥
‘वर्षा ऋतु के उस अत्यन्त सुखद सुहावने समय में मैं धनुष-बाण लेकर रथपर सवार हो शिकार खेलने के लिये सरयू नदी के तटपर गया॥२०॥
निपाने महिषं रात्रौ गजं वाभ्यागतं मृगम्।
अन्यद् वा श्वापदं किंचिज्जिघांसुरजितेन्द्रियः॥ २१॥
मेरी इन्द्रियाँ मेरे वश में नहीं थीं। मैंने सोचा था कि पानी पीने के घाट पर रात के समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूँगा॥ २१॥
अथान्धकारे त्वौषं जले कुम्भस्य पूर्यतः।
अचक्षुर्विषये घोषं वारणस्येव नर्दतः॥२२॥
‘उस समय वहाँ सब ओर अन्धकार छा रहा था। मुझे अकस्मात् पानी में घड़ा भरने की आवाज सुनायी पड़ी। मेरी दृष्टि तो वहाँ तक पहुँचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथी के पानी पीते समय होने वाले शब्द के समान जान पड़ी॥ २२॥
ततोऽहं शरमुद्धृत्य दीप्तमाशीविषोपमम्।
शब्दं प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम्॥२३॥
‘तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूंड में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाण का निशाना बनेगा। तरकस से एक तीर निकाला और उस शब्द को लक्ष्य करके चला दिया। वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्प के समान भयंकर था॥ २३ ॥
अमुञ्चं निशितं बाणमहमाशीविषोपमम्।
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीद् वनौकसः॥ २४॥
हा हेति पततस्तोये बाणाद् व्यथितमर्मणः।
तस्मिन्निपतिते भूमौ वागभूत् तत्र मानुषी॥ २५॥
‘वह उषःकाल की वेला थी। विषैले सर्प के सदृश उस तीखे बाण को मैंने ज्यों ही छोड़ा, त्यों ही वहाँ पानी में गिरते हुए किसी वनवासी का हाहाकार मुझे स्पष्ट रूप से सुनायी दिया। मेरे बाण से उसके मर्म में बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस पुरुष के धराशायी हो जाने पर वहाँ यह मानव-वाणी प्रकट हुई—सुनायी देने लगी— ॥ २४-२५ ॥
कथमस्मद्विधे शस्त्रं निपतेच्च तपस्विनि।
प्रविविक्तां नदी रात्रावुदाहारोऽहमागतः॥२६॥
“आह! मेरे-जैसे तपस्वी पर शस्त्र का प्रहार कैसे सम्भव हुआ? मैं तो नदी के इस एकान्त तट पर रात में पानी लेने के लिये आया था॥ २६॥
इषुणाभिहतः केन कस्य वापकृतं मया।
ऋषेर्हि न्यस्तदण्डस्य वने वन्येन जीवतः॥२७॥
कथं नु शस्त्रेण वधो मद्विधस्य विधीयते।
जटाभारधरस्यैव वल्कलाजिनवाससः॥ २८॥
को वधेन ममार्थी स्यात् किं वास्यापकृतं मया।
एवं निष्फलमारब्धं केवलानर्थसंहितम्॥२९॥
“किसने मुझे बाण मारा है? मैंने किसका क्या बिगाड़ा था? मैं तो सभी जीवों को पीड़ा देने की वृत्ति का त्याग करके ऋषि-जीवन बिताता था, वन में रहकर जंगली फल-मूलों से ही जीविका चलाता था। मुझ-जैसे निरपराध मनुष्य का शस्त्र से वध क्यों किया जा रहा है? मैं वल्कल और मृगचर्म पहनने वाला जटाधारी तपस्वी हूँ। मेरा वध करने में किसने अपना क्या लाभ सोचा होगा? मैंने मारने वाले का क्या अपराध किया था? मेरी हत्या का प्रयत्न व्यर्थ ही किया गया ! इससे किसी को कुछ लाभ नहीं होगा, केवल अनर्थ ही हाथ लगेगा॥ २७–२९॥
न क्वचित् साधु मन्येत यथैव गुरुतल्पगम्।
नेमं तथानुशोचामि जीवितक्षयमात्मनः ॥ ३०॥
मातरं पितरं चोभावनुशोचामि मद्धे।
तदेतन्मिथुनं वृद्धं चिरकालभृतं मया॥३१॥
मयि पञ्चत्वमापन्ने कां वृत्तिं वर्तयिष्यति।
वृद्धौ च मातापितरावहं चैकेषुणा हतः॥ ३२॥
केन स्म निहताः सर्वे सुबालेनाकृतात्मना।
“इस हत्यारे को संसार में कहीं भी कोई उसी तरह अच्छा नहीं समझेगा, जैसे गुरुपत्नीगामी को मुझे अपने इस जीवन के नष्ट होने की उतनी चिन्ता नहीं है; मेरे मारे जाने से मेरे माता-पिता को जो कष्ट होगा, उसी के लिये मुझे बारंबार शोक हो रहा है। मैंने इन दोनों वृद्धों का बहुत समय से पालन-पोषण किया है; अब मेरे शरीर के न रहने पर ये किस प्रकार जीवन निर्वाह करेंगे? घातक ने एक ही बाण से मुझे और मेरे बूढ़े माता-पिता को भी मौ तके मुख में डाल दिया। किस विवेकहीन और अजितेन्द्रिय पुरुष ने हम सब लोगों का एक साथ ही वध कर डाला?’ ॥ ३०–३२ १/२॥
तां गिरं करुणं श्रुत्वा मम धर्मानुकांक्षिणः॥ ३३॥
कराभ्यां सशरं चापं व्यथितस्यापतद् भुवि।
‘ये करुणा भरे वचन सुनकर मेरे मन में बड़ी व्यथा हई। कहाँ तो मैं धर्म की अभिलाषा रखने वाला था और कहाँ यह अधर्म का कार्य बन गया। उस समय मेरे हाथों से धनुष और बाण छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥
तस्याहं करुणं श्रुत्वा ऋषेर्विलपतो निशि॥ ३४॥
सम्भ्रान्तः शोकवेगेन भृशमासं विचेतनः।
‘रात में विलाप करते हुए ऋषि का वह करुण वचन सुनकर मैं शोक के वेग से घबरा उठा। मेरी चेतना अत्यन्त विलुप्त-सी होने लगी॥ ३४ १/२॥
तं देशमहमागम्य दीनसत्त्वः सुदुर्मनाः ॥ ३५॥
अपश्यमिषुणा तीरे सरय्वास्तापसं हतम्।
अवकीर्णजटाभारं प्रविद्धकलशोदकम्॥३६॥
पांसुशोणितदिग्धाङ्गं शयानं शल्यवेधितम्।
स मामुद्रीक्ष्य नेत्राभ्यां त्रस्तमस्वस्थचेतनम्॥ ३७॥
इत्युवाच वचः क्रूरं दिधक्षन्निव तेजसा
‘मेरे हृदय में दीनता छा गयी, मन बहुत दुःखी हो गया। सरयू के किनारे उस स्थान पर जाकर मैंने देखा —एक तपस्वी बाण से घायल होकर पड़े हैं। उनकी जटाएँ बिखरी हुई हैं, घड़े का जल गिर गया है तथा सारा शरीर धूल और खून में सना हुआ है। वे बाण से बिंधे हुए पड़े थे। उनकी अवस्था देखकर मैं डर गया, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था। उन्होंने दोनों नेत्रों से मेरी ओर इस प्रकार देखा, मानो अपने तेज से मुझे भस्म कर देना चाहते हों। वे कठोर वाणीमें यों बोले- ॥ ३५-३७ १/२॥
किं तवापकृतं राजन् वने निवसता मया॥३८॥
जिहीर्षरम्भो गर्वर्थं यदहं ताडितस्त्वया।
“राजन्! वन में रहते हुए मैंने तुम्हारा कौन-सा अपराध किया था, जिससे तुमने मुझे बाण मारा? मैं तो माता-पिता के लिये पानी लेने की इच्छा से यहाँ आया था॥ ३८ १/२॥
एकेन खलु बाणेन मर्मण्यभिहते मयि॥३९॥
द्वावन्धौ निहतौ वृद्धौ माता जनयिता च मे।
“तुमने एक ही बाण से मेरा मर्म विदीर्ण करके मेरे दोनों अन्धे और बूढ़े माता-पिता को भी मार डाला। ३९ १/२॥
तौ नूनं दुर्बलावन्धौ मत्प्रतीक्षौ पिपासितौ॥४०॥
चिरमाशां कृतां कष्टां तृष्णां संधारयिष्यतः।
“वे दोनों बहुत दुबले और अन्धे हैं। निश्चय ही प्यास से पीड़ित होकर वे मेरी प्रतीक्षा में बैठे होंगे। वे देर तक मेरे आगमन की आशा लगाये दुःखदायिनी प्यास लिये बाट जोहते रहेंगे॥ ४० १/२ ॥
न नूनं तपसो वास्ति फलयोगः श्रुतस्य वा॥ ४१॥
पिता यन्मां न जानीते शयानं पतितं भुवि।
“अवश्य ही मेरी तपस्या अथवा शास्त्रज्ञान का कोई फल यहाँ प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि पिताजी को यह नहीं मालूम है कि मैं पृथ्वी पर गिरकर मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ हूँ॥ ४१ १/२॥
जानन्नपि च किं कुर्यादशक्तश्चापरिक्रमः॥ ४२॥
भिद्यमानमिवाशक्तस्त्रातुमन्यो नगो नगम्।
“यदि जान भी लें तो क्या कर सकते हैं; क्योंकि असमर्थ हैं और चल-फिर भी नहीं सकते हैं। जैसे वायु आदि के द्वारा तोड़े जाते हुए वृक्ष को कोई दूसरा वृक्ष नहीं बचा सकता, उसी प्रकार मेरे पिता भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते॥ ४२ १/२॥
पितुस्त्वमेव मे गत्वा शीघ्रमाचक्ष्व राघव॥४३॥
न त्वामनुदहेत् क्रुद्धो वनमग्निरिवैधितः।
“अतः रघुकुलनरेश! अब तुम्हीं जाकर शीघ्र ही मेरे पिता को यह समाचार सुना दो। (यदि स्वयं कह दोगे तो) जैसे प्रज्वलित अग्नि समूचे वन को जला डालती है, उस प्रकार वे क्रोध में भरकर तुमको भस्म नहीं करेंगे। ४३ १/२ ॥
इयमेकपदी राजन् यतो मे पितुराश्रमः॥४४॥
तं प्रसादय गत्वा त्वं न त्वा संकुपितः शपेत्।
“राजन् ! यह पगडंडी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पिता का आश्रम है। तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे कुपित होकर तुम्हें शाप न दें॥ ४४ १/२ ॥
विशल्यं कुरु मां राजन् मर्म मे निशितः शरः॥ ४५॥
रुणद्धि मृदु सोत्सेधं तीरमम्बुरयो यथा।
“राजन् ! मेरे शरीर से इस बाण को निकाल दो। यह तीखा बाण मेरे मर्मस्थान को उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदी के जल का वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँचे तट को छिन्न-भिन्न कर देता है’। ४५ १/२॥
सशल्यः क्लिश्यते प्राणैर्विशल्यो विनशिष्यति॥ ४६॥
इति मामविशच्चिन्ता तस्य शल्यापकर्षणे।
दुःखितस्य च दीनस्य मम शोकातुरस्य च॥ ४७॥
लक्षयामास स ऋषिश्चिन्तां मुनिसुतस्तदा।
‘मुनिकुमार की यह बात सुनकर मेरे मन में यह चिन्ता समायी कि यदि बाण नहीं निकालता हूँ तो इन्हें क्लेश होता है और निकाल देता हूँ तो ये अभी प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं। इस प्रकार बाण को निकालने के विषय में मुझ दीन-दुःखी और शोकाकुल दशरथ की इस चिन्ता को उस समय मुनिकुमार ने लक्ष्य किया॥ ४६-४७ १/२॥
ताम्यमानं स मां कृच्छ्रादुवाच परमार्थवित्॥ ४८॥
सीदमानो विवृत्ताङ्गोऽचेष्टमानो गतः क्षयम्।
संस्तभ्य शोकं धैर्येण स्थिरचित्तो भवाम्यहम्॥ ४९॥
‘यथार्थ बात को समझ लेने वाले उन महर्षि ने मुझे अत्यन्त ग्लानि में पड़ा हुआ देख बड़े कष्ट से कहा —’राजन् ! मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। मेरी आँखें चढ़ गयी हैं, अङ्ग-अङ्ग में तड़पन हो रही है। मुझसे कोई चेष्टा नहीं बन पाती। अब मैं मृत्यु के समीप पहुँच गया हूँ, फिर भी धैर्य के द्वारा शोक को रोककर अपने चित्त को स्थिर करता हूँ (अब मेरी बात सुनो) ॥ ४८-४९॥
ब्रह्महत्याकृतं तापं हृदयादपनीयताम्।
न द्विजातिरहं राजन् मा भूत् ते मनसो व्यथा॥ ५०॥
“मुझसे ब्रह्महत्या हो गयी—इस चिन्ता को अपने हृदय से निकाल दो। राजन्! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, इसलिये तुम्हारे मन में ब्राह्मण वध को लेकर कोई व्यथा नहीं होनी चाहिये॥५०॥
शूद्रायामस्मि वैश्येन जातो नरवराधिप।
इतीव वदतः कृच्छ्राद् बाणाभिहतमर्मणः॥५१॥
विघूर्णतो विचेष्टस्य वेपमानस्य भूतले।
तस्य त्वाताम्यमानस्य तं बाणमहमुद्धरम्।
स मामुद्रीक्ष्य संत्रस्तो जहौ प्राणांस्तपोधनः॥ ५२॥
“नरश्रेष्ठ! मैं वैश्य पिता द्वारा शूद्रजातीय माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ हूँ।’ बाण से मर्म में आघात पहुँचने के कारण वे बड़े कष्ट से इतना ही कह सके। उनकी आँखें घूम रही थीं। उनसे कोई चेष्टा नहीं बनती थी। वे पृथ्वी पर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे और अत्यन्त कष्ट का अनुभव करते थे। उस अवस्था में मैंने उनके शरीर से उस बाण को निकाल दिया। फिर तो अत्यन्त भयभीत हो उन तपोधन ने मेरी ओर देखकर अपने प्राण त्याग दिये॥
जलार्द्रगात्रं तु विलप्य कृच्छ्रे मर्मव्रणं संततमुच्छ्व सन्तम्।
ततः सरय्वां तमहं शयानं समीक्ष्य भद्रे सुभृशं विषण्णः॥५३॥
‘पानी में गिरने के कारण उनका सारा शरीर भीग गया था। मर्म में आघात लगने के कारण बड़े कष्ट से विलाप करके और बारंबार उच्छ्वास लेकर उन्होंने प्राणों का त्याग किया था। कल्याणी कौसल्ये! उस अवस्था में सरयू के तट पर मरे पड़े मुनिपुत्र को देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ’॥ ५३॥
सर्ग ६४
वधमप्रतिरूपं तु महर्षेस्तस्य राघवः।
विलपन्नेव धर्मात्मा कौसल्यामिदमब्रवीत्॥१॥
उन महिर् षके अनुचित वध का स्मरण करके धर्मात्मा रघुकुलनरेश ने अपने पुत्र के लिये विलाप करते हुए ही रानी कौसल्या से इस प्रकार कहा-॥ १ ॥
तदज्ञानान्महत्पापं कृत्वा संकुलितेन्द्रियः।
एकस्त्वचिन्तयं बुद्ध्या कथं नु सुकृतं भवेत्॥ २॥
‘देवि! अनजान में यह महान् पाप कर डालने के कारण मेरी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। मैं अकेला ही बुद्धि लगाकर सोचने लगा, अब किस उपाय से मेरा कल्याण हो? ॥२॥
ततस्तं घटमादाय पूर्णं परमवारिणा।
आश्रमं तमहं प्राप्य यथाख्यातपथं गतः॥३॥
‘तदनन्तर उस घड़े को उठाकर मैंने सरयू के उत्तम जल से भरा और उसे लेकर मुनिकुमार के बताये हुए मार्ग से उनके आश्रम पर गया॥३॥
तत्राहं दुर्बलावन्धौ वृद्धावपरिणायकौ।
अपश्यं तस्य पितरौ लूनपक्षाविव द्विजौ॥४॥
‘वहाँ पहुँचकर मैंने उनके दुबले, अन्धे और बूढ़े माता-पिता को देखा, जिनका दूसरा कोई सहायक नहीं था। उनकी अवस्था पंख कटे हुए दो पक्षियों के समान थी॥४॥
तन्निमित्ताभिरासीनौ कथाभिरपरिश्रमौ।
तामाशां मत्कृते हीनावुपासीनावनाथवत्॥५॥
‘वे अपने पुत्र की ही चर्चा करते हुए उसके आने की आशा लगाये बैठे थे। उस चर्चा के कारण उन्हें कुछ परिश्रम या थकावट का अनुभव नहीं होता था। यद्यपि मेरे कारण उनकी वह आशा धूल में मिल चुकी थी तो भी वे उसी के आसरे बैठे थे। अब वे दोनों सर्वथा अनाथ-से हो गये थे॥ ५॥
शोकोपहतचित्तश्च भयसंत्रस्तचेतनः।
तच्चाश्रमपदं गत्वा भूयः शोकमहं गतः॥६॥
‘मेरा हृदय पहले से ही शोक के कारण घबराया हुआ था। भय से मेरा होश ठिकाने नहीं था। मुनि के आश्रम पर पहुँचकर मेरा वह शोक और भी अधिक हो गया॥६॥
पदशब्दं तु मे श्रुत्वा मुनिर्वाक्यमभाषत।
किं चिरायसि मे पुत्र पानीयं क्षिप्रमानय॥७॥
‘मेरे पैरों की आहट सुनकर वे मुनि इस प्रकार बोले ‘बेटा! देर क्यों लगा रहे हो? शीघ्र पानी ले आओ॥७॥
यन्निमित्तमिदं तात सलिले क्रीडितं त्वया।
उत्कण्ठिता ते मातेयं प्रविश क्षिप्रमाश्रमम्॥८॥
“तात! जिस कारण से तुमने बड़ी देर तक जल में क्रीड़ा की है, उसी कारण को लेकर तुम्हारी यह माता तुम्हारे लिये उत्कण्ठित हो गयी है; अतः शीघ्र ही आश्रम के भीतर प्रवेश करो॥ ८॥
यद् व्यलीकं कृतं पुत्र मात्रा ते यदि वा मया।
न तन्मनसि कर्तव्यं त्वया तात तपस्विना॥९॥
“बेटा! तात! यदि तुम्हारी माता ने अथवा मैंने तुम्हारा कोई अप्रिय किया हो तो उसे तुम्हें अपने मन में नहीं लाना चाहिये; क्योंकि तुम तपस्वी हो॥ ९॥
त्वं गतिस्त्वगतीनां च चक्षुस्त्वं हीनचक्षुषाम्।
समासक्तास्त्वयि प्राणाः कथं त्वं नाभिभाषसे॥ १०॥
‘हम असहाय हैं, तुम्ही हमारे सहायक हो। हम अन्धे हैं, तुम्ही हमारे नेत्र हो। हम लोगों के प्राण तुम्हीं में अटके हुए हैं। बताओ, तुम बोलते क्यों नहीं हो?’ ॥ १०॥
मुनिमव्यक्तया वाचा तमहं सज्जमानया।
हीनव्यञ्जनया प्रेक्ष्य भीतचित्त इवाब्रुवम्॥११॥
‘मुनि को देखते ही मेरे मन में भय-सा समा गया। मेरी जबान लड़खड़ाने लगी। कितने अक्षरों का उच्चारण नहीं हो पाता था। इस प्रकार अस्पष्ट वाणी में मैंने बोलने का प्रयास किया॥११॥
मनसः कर्म चेष्टाभिरभिसंस्तभ्य वाग्बलम्।
आचचक्षे त्वहं तस्मै पुत्रव्यसनजं भयम्॥१२॥
‘मानसिक भय को बाहरी चेष्टाओं से दबाकर मैंने कुछ कहने की क्षमता प्राप्त की और मुनि पर पुत्र की मृत्यु से जो संकट आ पड़ा था, वह उन पर प्रकट करते हुए कहा— ॥१२॥
क्षत्रियोऽहं दशरथो नाहं पुत्रो महात्मनः।
सज्जनावमतं दुःखमिदं प्राप्तं स्वकर्मजम्॥१३॥
“महात्मन्! मैं आपका पुत्र नहीं, दशरथ नाम का एक क्षत्रिय हूँ। मैंने अपने कर्मवश यह ऐसा दुःख पाया है, जिसकी सत्पुरुषों ने सदा निन्दा की है॥ १३॥
भगवंश्चापहस्तोऽहं सरयूतीरमागतः।
जिघांसुः श्वापदं किंचिन्निपाने वागतं गजम्॥ १४॥
“भगवन्! मैं धनुष-बाण लेकर सरयू के तट पर आया था। मेरे आने का उद्देश्य यह था कि कोई जंगली हिंसक पशु अथवा हाथी घाट पर पानी पीने के लिये आवे तो मैं उसे मारूँ ॥१४॥
ततः श्रुतो मया शब्दो जले कुम्भस्य पूर्यतः।
द्विपोऽयमिति मत्वाहं बाणेनाभिहतो मया॥१५॥
“थोड़ी देर बाद मुझे जल में घड़ा भरने का शब्द सुनायी पड़ा। मैंने समझा कोई हाथी आकर पानी पी रहा है, इसलिये उस पर बाण चला दिया॥ १५ ॥
गत्वा तस्यास्ततस्तीरमपश्यमिषुणा हृदि।
विनिर्भिन्नं गतप्राणं शयानं भुवि तापसम्॥१६॥
“फिर सरयू के तट पर जाकर देखा कि मेरा बाण एक तपस्वी की छाती में लगा है और वे मृतप्राय होकर धरती पर पड़े हैं॥ १६॥
ततस्तस्यैव वचनादुपेत्य परितप्यतः।
स मया सहसा बाण उद्धृतो मर्मतस्तदा ॥१७॥
“उस बाण से उन्हें बड़ी पीड़ा हो रही थी, अतः उस समय उन्हीं के कहने से मैंने सहसा वह बाण उनके मर्म-स्थान से निकाल दिया॥१७॥
स चोद्धृतेन बाणेन सहसा स्वर्गमास्थितः।
भगवन्तावुभौ शोचन्नन्धाविति विलप्य च॥ १८॥
“बाण निकलने के साथ ही वे तत्काल स्वर्ग सिधार गये। मरते समय उन्होंने आप दोनों पूजनीय अंधे पिता-माता के लिये बड़ा शोक और विलाप किया था॥ १८॥
अज्ञानाद् भवतः पुत्रः सहसाभिहतो मया।
शेषमेवं गते यत् स्यात् तत् प्रसीदतु मे मुनिः॥ १९॥
“इस प्रकार अनजान में मेरे हाथ से आपके पुत्र का वध हो गया है। ऐसी अवस्था मे मेरे प्रति जो शाप या अनुग्रह शेष हो, उसे देने के लिये आप महर्षि मुझ पर प्रसन्न हों’ ॥ १९॥
स तच्छ्रुत्वा वचः क्रूरं मया तदघशंसिना।
नाशकत् तीव्रमायासं स का भगवानृषिः॥२०॥
‘मैंने अपने मुँह से अपना पाप प्रकट कर दिया था, इसलिये मेरी क्रूरता से भरी हुई वह बात सुनकर भी वे पूज्यपाद महर्षि मुझे कठोर दण्ड-भस्म हो जाने का शाप नहीं दे सके॥२०॥
स बाष्पपूर्णवदनो निःश्वसन् शोकमूर्च्छितः।
मामुवाच महातेजाः कृताञ्जलिमुपस्थितम्॥ २१॥
“उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली और वे शोक से मूर्च्छित होकर दीर्घ निःश्वास लेने लगे। मैं हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था। उस समय उन महातेजस्वी मुनि ने मुझसे कहा- ॥२१॥
यद्येतदशुभं कर्म न स्म मे कथयेः स्वयम्।
फलेन्मूर्धा स्म ते राजन् सद्यः शतसहस्रधा॥ २२॥
“राजन् ! यदि यह अपना पापकर्म तुम स्वयं यहाँ आकर न बताते तो शीघ्र ही तुम्हारे मस्तक के सैकड़ों-हजारों टुकड़े हो जाते॥ २२ ॥
क्षत्रियेण वधो राजन् वानप्रस्थे विशेषतः।
ज्ञानपूर्वं कृतः स्थानाच्च्यावयेदपि वज्रिणम॥ २३॥
“नरेश्वर! यदि क्षत्रिय जान-बूझकर विशेषतःकिसी वानप्रस्थीका वध कर डाले तो वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, वह उसे अपने स्थानसे भ्रष्ट कर देता है।
सप्तधा तु भवेन्मूर्धा मुनौ तपसि तिष्ठति।
ज्ञानाद् विसृजतः शस्त्रं तादृशे ब्रह्मवादिनि॥ २४॥
“तपस्या में लगे हुए वैसे ब्रह्मवादी मुनि पर जानबूझकर शस्त्र का प्रहार करने वाले पुरुष के मस्तक के सात टुकड़े हो जाते हैं॥ २४ ॥
अज्ञानाद्धि कृतं यस्मादिदं ते तेन जीवसे।
अपि ह्यकुशलं न स्याद् राघवाणां कुतो भवान्॥ २५॥
“तुमने अनजान में यह पाप किया है, इसीलिये अभीतक जीवित हो। यदि जान-बूझकर किया होता तो समस्त रघुवंशियों का कुल ही नष्ट हो जाता, अकेले तुम्हारी तो बात ही क्या है ?’ ॥ २५ ॥
नय नौ नृप तं देशमिति मां चाभ्यभाषत।
अद्य तं द्रष्टुमिच्छावः पुत्रं पश्चिमदर्शनम्॥२६॥
“उन्होंने मुझसे यह भी कहा—’नरेश्वर! तुम हम दोनों को उस स्थान पर ले चलो, जहाँ हमारा पुत्र मरा पड़ा है। इस समय हम उसे देखना चाहते हैं। यह हमारे लिये उसका अन्तिम दर्शन होगा’॥२६॥
रुधिरेणावसिक्ताङ्गं प्रकीर्णाजिनवाससम्।
शयानं भुवि निःसंज्ञं धर्मराजवशं गतम्॥२७॥
अथाहमेकस्तं देशं नीत्वा तौ भृशदुःखितौ।
अस्पर्शयमहं पुत्रं तं मुनिं सह भार्यया॥२८॥
‘तब मैं अकेला ही अत्यन्त दुःख में पड़े हुए उन दम्पति को उस स्थानपर ले गया, जहाँ उनका पुत्र काल के अधीन होकर पृथ्वी पर अचेत पड़ा था। उसके सारे अङ्ग खून से लथपथ हो रहे थे, मृगचर्म और वस्त्र बिखरे पड़े थे। मैंने पत्नीसहित मुनि को उनके पुत्र के शरीर का स्पर्श कराया॥ २७-२८॥
तौ पुत्रमात्मनः स्पृष्ट्वा तमासाद्य तपस्विनौ।
निपेततः शरीरेऽस्य पिता चैनमुवाच ह॥२९॥
‘वे दोनों तपस्वी अपने उस पुत्र का स्पर्श करके उसके अत्यन्त निकट जाकर उसके शरीर पर गिर पड़े। फिर पिता ने पुत्र को सम्बोधित करके उससे कहा- ॥२९॥
नाभिवादयसे माद्य न च मामभिभाषसे।
किं च शेषे तु भूमौ त्वं वत्स किं कुपितो ह्यसि॥ ३०॥
“बेटा ! आज तुम मुझे न तो प्रणाम करते हो और न मुझसे बोलते ही हो। तुम धरती पर क्यों सो रहे हो? क्या तुम हमसे रूठ गये हो? ॥ ३० ॥
नन्वहं तेऽप्रियः पुत्र मातरं पश्य धार्मिकीम्।
किं च नालिङ्गसे पुत्र सुकुमार वचो वद॥३१॥
“बेटा! यदि मैं तुम्हारा प्रिय नहीं हूँ तो तुम अपनी इस धर्मात्मा माता की ओर तो देखो। तुम इसके हृदय से क्यों नहीं लग जाते हो? वत्स! कुछ तो बोलो॥३१॥
कस्य वा पररात्रेऽहं श्रोष्यामि हृदयङ्गमम्।
अधीयानस्य मधुरं शास्त्रं वान्यद् विशेषतः॥ ३२॥
“अब पिछली रात में मधुर स्वर से शास्त्र या पुराण आदि अन्य किसी ग्रन्थ का विशेष रूप से स्वाध्याय करते हुए किसके मुँह से मैं मनोरम शास्त्रचर्चा सुनूँगा? ॥ ३२॥
को मां संध्यामुपास्यैव स्नात्वा हुतहुताशनः।
श्लाघयिष्यत्युपासीनः पुत्रशोकभर्यादितम्॥ ३३॥
“अब कौन स्नान, संध्योपासना तथा अग्निहोत्र करके मेरे पास बैठकर पुत्रशोक के भय से पीड़ित हुए मुझ बूढ़े को सान्त्वना देता हुआ मेरी सेवा करेगा?॥ ३३॥
कन्दमूलफलं हृत्वा यो मां प्रियमिवातिथिम्।
भोजयिष्यत्यकर्मण्यमप्रग्रहमनायकम्॥३४॥
“अब कौन ऐसा है, जो कन्द, मूल और फल लाकर मुझ अकर्मण्य, अन्नसंग्रह से रहित और अनाथ को प्रिय अतिथि की भाँति भोजन करायेगा॥ ३४॥
इमामन्धां च वृद्धां च मातरं ते तपस्विनीम्।
कथं पुत्र भरिष्यामि कृपणां पुत्रगर्धिनीम्॥३५॥
“बेटा! तुम्हारी यह तपस्विनी माता अन्धी, बूढ़ी, दीन तथा पुत्र के लिये उत्कण्ठित रहने वाली है। मैं (स्वयं अन्धा होकर) इसका भरण-पोषण कैसे करूँगा?॥
तिष्ठ मा मा गमः पुत्र यमस्य सदनं प्रति।
श्वो मया सह गन्तासि जनन्या च समेधितः॥ ३६॥
“पुत्र ! ठहरो, आज यमराज के घर न जाओ। कल मेरे और अपनी माता के साथ चलना॥३६॥
उभावपि च शोकार्तावनाथौ कृपणौ वने।
क्षिप्रमेव गमिष्यावस्त्वया हीनौ यमक्षयम्॥३७॥
“हम दोनों शोक से आर्त, अनाथ और दीन हैं। तुम्हारे न रहने पर हम शीघ्र ही यमलोक की राह लेंगे।
ततो वैवस्वतं दृष्ट्वा तं प्रवक्ष्यामि भारतीम्।
क्षमतां धर्मराजो मे बिभृयात् पितरावयम्॥३८॥
“तदनन्तर सूर्यपुत्र यमराज का दर्शन करके मैं उनसे यह बात कहूँगा-धर्मराज मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरे पुत्र को छोड़ दें, जिससे यह अपने माता-पिता का भरण-पोषण कर सके॥ ३८॥
दातुमर्हति धर्मात्मा लोकपालो महायशाः।
ईदृशस्य ममाक्षय्यामेकामभयदक्षिणाम्॥३९॥
“ये धर्मात्मा हैं, महायशस्वी लोकपाल हैं। मुझ जैसे अनाथ को वह एक बार अभय दान दे सकते हैं॥३९॥
अपापोऽसि यथा पुत्र निहतः पापकर्मणा।
तेन सत्येन गच्छाशु ये लोकास्त्वस्त्रयोधिनाम्॥ ४०॥
यां हि शूरा गतिं यान्ति संग्रामेष्वनिर्वितनः।
हतास्त्वभिमुखाः पुत्र गतिं तां परमां व्रज॥४१॥
“बेटा! तुम निष्पाप हो, किंतु एक पापकर्माक्षत्रिय ने तुम्हारा वध किया है, इस कारण मेरे सत्य के प्रभाव से तुम शीघ्र ही उन लोकों में जाओ, जो अस्त्रयोधी शूरवीरों को प्राप्त होते हैं। बेटा! युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीर सम्मुख युद्ध में मारे जाने पर जिस गति को प्राप्त होते हैं, उसी उत्तम गति को तुम भी जाओ॥ ४०-४१॥
यां गतिं सगरः शैब्यो दिलीपो जनमेजयः।
नहुषो धुन्धुमारश्च प्राप्तास्तां गच्छ पुत्रक॥४२॥
‘वत्स! राजा सगर, शैब्य, दिलीप, जनमेजय, नहुष और धुन्धुमार जिस गति को प्राप्त हुए हैं, वही तुम्हें भी मिले॥ ४२ ॥
या गतिः सर्वभूतानां स्वाध्यायात् तपसश्च या।
भूमिदस्याहिताग्नेश्च एकपत्नीव्रतस्य च॥४३॥
गोसहस्रप्रदातॄणां गुरुसेवाभृतामपि।
देहन्यासकृतां या च तां गतिं गच्छ पुत्रक॥४४॥
“स्वाध्याय और तपस्या से समस्त प्राणियों के आश्रयभूत जिस परब्रह्म की प्राप्ति होती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो। वत्स! भूमिदाता, अग्निहोत्री, एकपत्नीव्रती, एक हजार गौओं का दान करने वाले, गुरु की सेवा करने वाले तथा महाप्रस्थान आदि के द्वारा देहत्याग करने वाले पुरुषों को जो गति मिलती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो॥
नहि त्वस्मिन् कुले जातो गच्छत्यकुशलां गतिम्।
स तु यास्यति येन त्वं निहतो मम बान्धवः॥ ४५॥
“हम-जैसे तपस्वियों के इस कुल में पैदा हुआ कोई पुरुष बुरी गति को नहीं प्राप्त हो सकता। बुरी गति तो उसकी होगी, जिसने मेरे बान्धवरूप तुम्हें अकारण मारा है?’ ॥ ४५॥
एवं स कृपणं तत्र पर्यदेवयतासकृत्।
ततोऽस्मै कर्तुमुदकं प्रवृत्तः सह भार्यया॥४६॥
‘इस प्रकार वे दीनभाव से बारम्बार विलाप करने लगे। तत्पश्चात् अपनी पत्नी के साथ वे पुत्र को जलाञ्जलि देने के कार्य में प्रवृत्त हुए॥ ४६॥
स तु दिव्येन रूपेण मुनिपुत्रः स्वकर्मभिः।
स्वर्गमध्यारुहत् क्षिप्रं शक्रेण सह धर्मवित्॥ ४७॥
‘इसी समय वह धर्मज्ञ मुनिकुमार अपने पुण्यकर्मो के प्रभाव से दिव्य रूप धारण करके शीघ्र ही इन्द्र के साथ स्वर्ग को जाने लगा॥४७॥
आबभाषे च तौ वृद्धौ शक्रेण सह तापसः।
आश्वस्य च मुहूर्तं तु पितरं वाक्यमब्रवीत्॥ ४८॥
‘इन्द्रसहित उस तपस्वी ने अपने दोनों बूढ़े पिता माता को एक मुहूर्त तक आश्वासन देते हुए उनसे बातचीत की; फिर वह अपने पिता से बोला—॥ ४८॥
स्थानमस्मि महत् प्राप्तो भवतोः परिचारणात्।
भवन्तावपि च क्षिप्रं मम मूलमुपैष्यथः॥४९॥
“मैं आप दोनों की सेवा से महान् स्थान को प्राप्त हुआ हूँ, अब आप लोग भी शीघ्र ही मेरे पास आ जाइयेगा’ ॥ ४९॥
एवमुक्त्वा तु दिव्येन विमानेन वपुष्मता।
आरुरोह दिवं क्षिप्रं मुनिपुत्रो जितेन्द्रियः॥५०॥
‘यह कहकर वह जितेन्द्रिय मुनिकुमार उस सुन्दर आकार वाले दिव्य विमान से शीघ्र ही देवलोक को चला गया॥५०॥
स कृत्वाथोदकं तूर्णं तापसः सह भार्यया।
मामुवाच महातेजाः कृताञ्जलिमुपस्थितम्॥ ५१॥
‘तदनन्तर पत्नीसहित उन महातेजस्वी तपस्वी मुनि ने तुरंत ही पुत्र को जलाञ्जलि देकर हाथ जोड़े खड़े हुए मुझसे कहा- ॥५१॥
अद्यैव जहि मां राजन् मरणे नास्ति मे व्यथा।
यः शरेणैकपुत्रं मां त्वमकार्षीरपुत्रकम्॥५२॥
“राजन्! तुम आज ही मुझे भी मार डालो; अब मरने में मुझे कष्ट नहीं होगा। मेरे एक ही बेटा था, जिसे तुमने अपने बाण का निशाना बनाकर मुझे पुत्रहीन कर दिया॥५२॥
त्वयापि च यदज्ञानान्निहतो मे स बालकः।
तेन त्वामपि शप्स्येऽहं सुदुःखमतिदारुणम्॥ ५३॥
“तुमने अज्ञानवश जो मेरे बालक की हत्या की है, उसके कारण मैं तुम्हें भी अत्यन्त भयंकर एवं भलीभाँति दुःख देने वाला शाप दूंगा॥ ५३॥
पुत्रव्यसनजं दुःखं यदेतन्मम साम्प्रतम्।
एवं त्वं पुत्रशोकेन राजन् कालं करिष्यसि॥ ५४॥
‘राजन् ! इस समय पुत्र के वियोग से मुझे जैसा कष्ट हो रहा है, ऐसा ही तुम्हें भी होगा। तुम भी पुत्रशोक से ही काल के गाल में जाओगे॥ ५४॥
अज्ञानात्तु हतो यस्मात् क्षत्रियेण त्वया मुनिः।
तस्मात् त्वां नाविशत्याशु ब्रह्महत्या नराधिप॥
त्वामप्येतादृशो भावः क्षिप्रमेव गमिष्यति।
जीवितान्तकरो घोरो दातारमिव दक्षिणाम्॥ ५६॥
“नरेश्वर! क्षत्रिय होकर अनजान में तुमने वैश्यजातीय मुनि का वध किया है, इसलिये शीघ्र ही तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप तो नहीं लगेगा तथापि जल्दी ही तुम्हें भी ऐसी ही भयानक और प्राण लेने वाली अवस्था प्राप्त होगी। ठीक उसी तरह, जैसे दक्षिणा देने वाले दाता को उसके अनुरूप फल प्राप्त होता है, ॥ ५५-५६॥
एवं शापं मयि न्यस्य विलप्य करुणं बहु।
चितामारोप्य देहं तन्मिथुनं स्वर्गमभ्ययात्॥५७॥
‘इस प्रकार मुझे शाप देकर वे बहुत देर तक करुणाजनक विलाप करते रहे; फिर वे दोनों पति पत्नी अपने शरीरों को जलती हुई चिता में डालकर स्वर्ग को चले गये॥ ५७॥
तदेतच्चिन्तयानेन स्मृतं पापं मया स्वयम्।
तदा बाल्यात् कृतं देवि शब्दवेध्यनुकर्षिणा॥ ५८॥
‘देवि! इस प्रकार बालस्वभाव के कारण मैंने पहले शब्दवेधी बाण मारकर और फिर उस मुनि के शरीर से बाण को खींचकर जो उनका वधरूपी पाप किया था, वह आज इस पुत्रवियोग की चिन्ता में पड़े हुए मुझे स्वयं ही स्मरण हो आया है॥ ५८॥
तस्यायं कर्मणो देवि विपाकः समुपस्थितः।
अपथ्यैः सह सम्भूक्ते व्याधिरन्नरसे यथा॥५९॥
तस्मान्मामागतं भद्रे तस्योदारस्य तद् वचः।
‘देवि! अपथ्य वस्तुओं के साथ अन्नरस ग्रहण कर लेने पर जैसे शरीर में रोग पैदा हो जाता है, उसी प्रकार यह उस पापकर्म का फल उपस्थित हुआ है। अतः कल्याणि! उन उदार महात्माका शापरूपी वचन इस समय मेरे पास फल देने के लिये आ गया है’ ॥ ५९ १/२॥
इत्युक्त्वा स रुदंस्त्रस्तो भार्यामाह तु भूमिपः॥ ६०॥
यदहं पुत्रशोकेन संत्यजिष्यामि जीवितम्।
चक्षुर्त्यां त्वां न पश्यामि कौसल्ये त्वं हि मां स्पृश॥६१॥
ऐसा कहकर वे भूपाल मृत्यु के भय से त्रस्त हो अपनी पत्नी से रोते हुए बोले-‘कौसल्ये! अब मैं पुत्रशोक से अपने प्राणों का त्याग करूँगा। इस समय मैं तुम्हें अपनी आँखों से देख नहीं पाता हूँ; तुम मेरा स्पर्श करो॥ ६०-६१॥
यमक्षयमनुप्राप्ता द्रक्ष्यन्ति नहि मानवाः।
यदि मां संस्पृशेद् रामः सकृदन्वारभेत वा॥ ६२॥
धनं वा यौवराज्यं वा जीवेयमिति मे मतिः।
‘जो मनुष्य यमलोक में जाने वाले (मरणासन्न) होते हैं, वे अपने बान्धवजनों को नहीं देख पाते हैं।यदि श्रीराम आकर एक बार मेरा स्पर्श करें अथवा यह धन-वैभव और युवराज पद स्वीकार कर लें तो मेरा विश्वास है कि मैं जी सकता हूँ॥ ६२ १/२॥
न तन्मे सदृशं देवि यन्मया राघवे कृतम्॥६३॥
सदृशं तत्तु तस्यैव यदनेन कृतं मयि।
‘देवि! मैंने श्रीराम के साथ जो बर्ताव किया है, वह मेरे योग्य नहीं था; परंतु श्रीराम ने मेरे साथ जो व्यवहार किया है, वह सर्वथा उन्हीं के योग्य है॥ ६३ १/२॥
दुर्वृत्तमपि कः पुत्रं त्यजेद् भुवि विचक्षणः॥ ६४॥
कश्च प्रव्राज्यमानो वा नासूयेत् पितरं सुतः।
‘कौन बुद्धिमान् पुरुष इस भूतलपर अपने दुराचारी पुत्र का भी परित्याग कर सकता है ? (एक मैं हूँ, जिसने अपने धर्मात्मा पुत्र को त्याग दिया) तथा कौन ऐसा पुत्र है, जिसे घर से निकाल दिया जाय और वह पिता को कोसे तक नहीं? (परंतु श्रीराम चुपचाप चले गये उन्होंने मेरे विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा)। ६४ १/२॥
चक्षुषा त्वां न पश्यामि स्मृतिर्मम विलुप्यते॥ ६५॥
दूता वैवस्वतस्यैते कौसल्ये त्वरयन्ति माम्।
‘कौसल्ये! अब मेरी आँखें तुम्हें नहीं देख पाती हैं, स्मरण-शक्ति भी लुप्त होती जा रही है। उधर देखो, ये यमराज के दूत मुझे यहाँ से ले जाने के लिये उतावले हो उठे हैं॥ ६५ १/२॥
अतस्तु किं दुःखतरं यदहं जीवितक्षये॥६६॥
नहि पश्यामि धर्मज्ञं रामं सत्यपराक्रमम्।
‘इससे बढ़कर दुःख मेरे लिये और क्या हो सकता है कि मैं प्राणान्त के समय सत्यपराक्रमी धर्मज्ञ राम का दर्शन नहीं पा रहा हूँ॥६६ १/२॥
तस्यादर्शनजः शोकः सुतस्याप्रतिकर्मणः॥६७॥
उच्छोषयति वै प्राणान् वारि स्तोकमिवातपः।
‘जिनकी समता करने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं है, उन प्रिय पुत्र श्रीराम के न देखने का शोक मेरे प्राणों को उसी तरह सुखाये डालता है, जैसे धूप थोड़े-से जल को शीघ्र सुखा देती है॥६७ १/२ ॥
न ते मनुष्या देवास्ते ये चारुशुभकुण्डलम्॥ ६८॥
मुखं द्रक्ष्यन्ति रामस्य वर्षे पञ्चदशे पुनः।
‘वे मनुष्य नहीं देवता हैं, जो आपके पंद्रहवें वर्ष वन से लौटने पर श्रीराम का सुन्दर मनोहर कुण्डलों से अलंकृत मुख देखेंगे॥ ६८ १/२॥
पद्मपत्रेक्षणं सुभ्र सुदंष्ट्रं चारुनासिकम्॥६९॥
धन्या द्रक्ष्यन्ति रामस्य ताराधिपसमं मखम्।
‘जो कमल के समान नेत्र, सुन्दर भौहें, स्वच्छ दाँत और मनोहर नासिका से सुशोभित श्रीराम के चन्द्रोपम मुख का दर्शन करेंगे, वे धन्य हैं॥ ६९ १/२ ॥
सदृशं शारदस्येन्दोः फुल्लस्य कमलस्य च॥ ७०॥
सुगन्धि मम रामस्य धन्या द्रक्ष्यन्ति ये मुखम्।
निवृत्तवनवासं तमयोध्यां पुनरागतम्॥ ७१॥
द्रक्ष्यन्ति सुखिनो रामं शुक्रं मार्गगतं यथा।
‘जो मेरे श्रीरामके शरच्चन्द्रसदृश मनोहर और प्रफुल्ल कमलके समान सुवासित मुखका दर्शन करेंगे, वे धन्य हैं। जैसे मूढ़ता आदि अवस्थाओं को त्यागकर अपने उच्च मार्ग में स्थित शुक्र का दर्शन करके लोग सुखी होते हैं, उसी प्रकार वनवास की अवधि पूरी करके पुनः अयोध्या में लौटकर आये हुए श्रीराम को जो लोग देखेंगे वे ही सुखी होंगे॥ ७०-७१ १/२॥
कौसल्ये चित्तमोहेन हृदयं सीदतेतराम्॥७२॥
वेदये न च संयुक्तान् शब्दस्पर्शरसानहम्।
‘कौसल्ये! मेरे चित्त पर मोह छा रहा है, हृदयविदीर्ण-सा हो रहा है, इन्द्रियों से संयोग होने पर भी मुझे शब्द, स्पर्श और रस आदि विषयों का अनुभव नहीं हो रहा है।
चित्तनाशाद् विपद्यन्ते सर्वाण्येवेन्द्रियाणि हि।
क्षीणस्नेहस्य दीपस्य संरक्ता रश्मयो यथा॥ ७३॥
‘जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक की अरुण प्रभा विलीन हो जाती है, उसी प्रकार चेतना के नष्ट होने से मेरी सारी इन्द्रियाँ ही नष्ट हो चली हैं॥७३॥
अयमात्मभवः शोको मामनाथमचेतनम्।
संसाधयति वेगेन यथा कूलं नदीरयः॥७४॥
‘जिस प्रकार नदी का वेग अपने ही किनारे को काट गिराता है, उसी प्रकार मेरा अपना ही उत्पन्न किया हुआ शोक मुझे वेगपूर्वक अनाथ और अचेत किये दे रहा है। ७४॥
हा राघव महाबाहो हा ममायासनाशन।
हा पितृप्रिय मे नाथ हा ममासि गतः सुत॥७५॥
‘हा महाबाहु रघुनन्दन! हा मेरे कष्टों को दूर करने वाले श्रीराम ! हा पिता के प्रिय पुत्र! हा मेरे नाथ! हा मेरे बेटे ! तुम कहाँ चले गये? ॥ ७५ ॥
हा कौसल्ये न पश्यामि हा सुमित्रे तपस्विनि।
हा नृशंसे ममामित्रे कैकेयि कुलपांसनि॥७६॥
‘हा कौसल्ये! अब मुझे कुछ नहीं दिखायी देता। हा तपस्विनि सुमित्रे! अब मैं इस लोक से जा रहा हूँ।हा मेरी शत्रु, क्रूर, कुलाङ्गार कैकेयि! (तेरी कुटिल इच्छा पूरी हुई)’॥ ७६॥
इति मातुश्च रामस्य सुमित्रायाश्च संनिधौ।
राजा दशरथः शोचञ्जीवितान्तमुपागमत्॥७७॥
इस प्रकार श्रीराम-माता कौसल्या और सुमित्रा के निकट शोकपूर्ण विलाप करते हुए राजा दशरथ के जीवन का अन्त हो गया॥ ७७॥
तथा तु दीनः कथयन् नराधिपः प्रियस्य पुत्रस्य विवासनातुरः।
गतेऽर्धरात्रे भृशदुःखपीडितस्तदा जहौ प्राणमुदारदर्शनः ॥७८॥
अपने प्रिय पुत्र के वनवास से शोकाकुल हुए राजा दशरथ इस प्रकार दीनतापूर्ण वचन कहते हुए आधी रात बीतते-बीतते अत्यन्त दुःख से पीड़ित हो गये और उसी समय उन उदारदर्शी नरेश ने अपने प्राणों को त्याग दिया॥ ७८॥
सर्ग ६५
अथ रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरेवापरेऽहनि।
वन्दिनः पर्युपातिष्ठस्तत्पार्थिवनिवेशनम्॥१॥
तदनन्तर रात बीतने पर दूसरे दिन सबेरे ही वन्दीजन (महाराज की स्तुति करने के लिये) राजमहल में उपस्थित हुए॥१॥
सूताः परमसंस्कारा मागधाश्चोत्तमश्रुताः।
गायकाः श्रुतिशीलाश्च निगदन्तः पृथक्पृथक्॥ २॥
व्याकरण-ज्ञान से सम्पन्न (अथवा उत्तम अलङ्कारों से विभूषित) सूत, उत्तम रूप से वंशपरम्परा का श्रवण कराने वाले मागध और सङ्गीतशास्त्र का अनुशीलन करने वाले गायक अपने अपने मार्ग के अनुसार पृथक्-पृथक् यशोगान करते हुए वहाँ आये॥२॥
राजानं स्तुवतां तेषामुदात्ताभिहिताशिषाम्।
प्रासादाभोगविस्तीर्णः स्तुतिशब्दो ह्यवर्तत॥३॥
उच्चस्वर से आशीर्वाद देते हुए राजा की स्तुति करने वाले उन सूत-मागध आदि का शब्द राजमहलों के भीतरी भाग में फैलकर गूंजने लगा॥३॥
ततस्तु स्तुवतां तेषां सूतानां पाणिवादकाः।
अपदानान्युदाहृत्य पाणिवादान्यवादयन्॥४॥
वे सूतगण स्तुति कर रहे थे; इतने ही में पाणिवादक (हाथों से ताल देकर गाने वाले) वहाँ आये और राजाओं के बीते हुए अद्भुत कर्मों का बखान करते हुए तालगति के अनुसार तालियाँ बजाने लगे॥४॥
तेन शब्देन विहगाः प्रतिबुद्धाश्च सस्वनुः।
शाखास्थाः पञ्जरस्थाश्च ये राजकुलगोचराः॥
उस शब्द से वृक्षों की शाखाओं पर बैठे हुए तथा राजकुल में ही विचरने वाले पिंजड़े में बंद शुक आदि पक्षी जागकर चहचहाने लगे॥५॥
व्याहृताःपुण्यशब्दाश्च वीणानां चापि निःस्वनाः।
आशीर्गेयं च गाथानां पूरयामास वेश्म तत्॥६॥
शुक आदि पक्षियों तथा ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए पवित्र शब्द, वीणाओं के मधुर नाद तथा गाथाओं के आशीर्वादयुक्त गान से वह सारा भवन गूंज उठा॥६॥
ततः शुचिसमाचाराः पर्युपस्थानकोविदाः।
स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठा उपतस्थुर्यथापुरा॥७॥
तदनन्तर सदाचारी तथा परिचर्याकुशल सेवक, जिनमें स्त्रियों और खोजों की संख्या अधिक थी, पहले की भाँति उस दिन भी राजभवन में उपस्थित हुए॥७॥
हरिचन्दनसम्पृक्तमुदकं काञ्चनैर्घटैः।
आनिन्युः स्नानशिक्षाज्ञा यथाकालं यथाविधि॥ ८॥
स्नानविधि के ज्ञाता भृत्यजन विधि पूर्वक सोने के घड़ों में चन्दनमिश्रित जल लेकर ठीक समय पर आये॥ ८॥
मङ्गलालम्भनीयानि प्राशनीयान्युपस्करान्।
उपानिन्युस्तथा पुण्याः कुमारीबहुलाः स्त्रियः॥ ९॥
पवित्र आचार-विचार वाली स्त्रियाँ, जिनमें कुमारी कन्याओं की संख्या अधिक थी, मङ्गल के लिये स्पर्श करने योग्य गौ आदि, पीने योग्य गङ्गाजल आदि तथा अन्य उपकरण-दर्पण, आभूषण और वस्त्र आदि ले आयीं॥९॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं सर्वं विधिवदर्चितम्।
सर्वं सुगुणलक्ष्मीवत् तदभूदाभिहारिकम्॥१०॥
प्रातःकाल राजाओं के मङ्गल के लिये जो-जो वस्तुएँ लायी जाती हैं, उनका नाम आभिहारिक है। वहाँ लायी गयी सारी आभिहारिक सामग्री समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, विधि के अनुरूप, आदर और प्रशंसा के योग्य उत्तम गुण से युक्त तथा शोभायमान थी॥ १०॥
ततः सूर्योदयं यावत् सर्वं परिसमुत्सुकम्।
तस्थावनुपसम्प्राप्तं किंस्विदित्युपशङ्कितम्॥११॥
सूर्योदय होने तक राजा की सेवा के लिये उत्सुक हआ सारा परिजन वर्ग वहाँ आकर खड़ा हो गया। जब उस समय तक राजा बाहर नहीं निकले, तब सबके मन में यह शङ्का हो गयी कि महाराज के न आने का क्या कारण हो सकता है ? ॥ ११ ॥
अथ याः कोसलेन्द्रस्य शयनं प्रत्यनन्तराः।
ताः स्त्रियस्तु समागम्य भर्तारं प्रत्यबोधयन्॥ १२॥
तदनन्तर जो कोसलनरेश दशरथके समीप रहने वाली स्त्रियाँ थीं, वे उनकी शय्या के पास जाकर अपने स्वामी को जगाने लगीं ॥ १२ ॥
अथाप्युचितवृत्तास्ता विनयेन नयेन च।
नह्यस्य शयनं स्पृष्ट्वा किंचिदप्युपलेभिरे ॥१३॥
वे स्त्रियाँ उनका स्पर्श आदि करने के योग्य थीं; अतः विनीतभाव से युक्तिपूर्वक उन्होंने उनकी शय्या का स्पर्श किया। स्पर्श करके भी वे उनमें जीवन का कोई चिह्न नहीं पा सकीं॥ १३॥
ताः स्त्रियः स्वप्नशीलज्ञाश्चेष्टां संचलनादिषु।
ता वेपथुपरीताश्च राज्ञः प्राणेषु शङ्किताः॥१४॥
सोये हुए पुरुष की जैसी स्थिति होती है, उसको भी वे स्त्रियाँ अच्छी तरह समझती थीं; अतः उन्होंने हृदय एवं हाथ के मूलभाग में चलने वाली नाड़ियों की भी परीक्षा की, किंतु वहाँ भी कोई चेष्टा नहीं प्रतीत हुई फिर तो वे काँप उठीं। उनके मन में राजा के प्राणों के निकल जाने की आशङ्का हो गयी॥ १४॥
प्रतिस्रोतस्तृणाग्राणां सदृशं संचकाशिरे।
अथ संदेहमानानां स्त्रीणां दृष्ट्वा च पार्थिवम्।
यत् तदाशङ्कितं पापं तदा जज्ञे विनिश्चयः॥ १५॥
वे जल के प्रवाह के सम्मुख पड़े हुए तिनकों के अग्रभाग की भाँति काँपती हुई प्रतीत होने लगीं। संशय में पड़ी हुई उन स्त्रियों को राजा की ओर देखकर उनकी मृत्यु के विषय में जो शङ्का हुई थी, उसका उस समय उन्हें पूरा निश्चय हो गया।
कौसल्या च सुमित्रा च पुत्रशोकपराजिते।
प्रसुप्ते न प्रबुध्येते यथा कालसमन्विते॥१६॥
पुत्र शोक से आक्रान्त हुई कौसल्या और सुमित्रा उस समय मरी हुई के समान सो गयी थीं और उस समय तक उनकी नींद नहीं खुल पायी थी॥ १६॥
निष्प्रभासा विवर्णा च सन्ना शोकेन संनता।
न व्यराजत कौसल्या तारेव तिमिरावृता॥१७॥
सोयी हुई कौसल्या श्रीहीन हो गयी थीं। उनके शरीर का रंग बदल गया था। वे शोक से पराजित एवं पीड़ित हो अन्धकार से आच्छादित हुई तारिका के समान शोभा नहीं पा रही थीं॥ १७॥
कौसल्यानन्तरं राज्ञः सुमित्रा तदनन्तरम्।
न स्म विभ्राजते देवी शोकाश्रुलुलितानना॥ १८॥
राजा के पास कौसल्या थीं और कौसल्या के समीप देवी सुमित्रा थीं। दोनों ही निद्रामग्न हो जाने के कारण शोभाहीन प्रतीत होती थीं। उन दोनों के मुख पर शोक के आँसू फैले हुए थे॥ १८॥
ते च दृष्ट्वा तदा सुप्ते उभे देव्यौ च तं नृपम्।
सुप्तमेवोद्गतप्राणमन्तःपुरममन्यत॥१९॥
उस समय उन दोनों देवियों को निद्रामग्न देख अन्तःपुर की अन्य स्त्रियों ने यही समझा कि सोते अवस्था में ही महाराज के प्राण निकल गये हैं।॥ १९॥
ततः प्रचुक्रुशुर्दीनाः सस्वरं ता वराङ्गनाः।
करेणेव इवारण्ये स्थानप्रच्युतयूथपाः॥२०॥
फिर तो जैसे जंगल में यूथपति गजराज के अपने वासस्थान से अन्यत्र चले जाने पर हथिनियाँ करुणचीत्कार करने लगती हैं, उसी प्रकार वे अन्तःपुर की सुन्दरी रानियाँ अत्यन्त दुःखी हो उच्चस्वर से आर्तनाद करने लगीं॥ २०॥
तासामाक्रन्दशब्देन सहसोद्गतचेतने।
कौसल्या च सुमित्रा च त्यक्तनिद्रे बभूवतुः॥ २१॥
उनके रोने की आवाज से कौसल्या और सुमित्रा की भी नींद टूट गयी और वे दोनों सहसा जाग उठीं॥ २१॥
कौसल्या च सुमित्रा च दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च पार्थिवम्।
हा नाथेति परिक्रुश्य पेततुर्धरणीतले॥२२॥
कौसल्या और सुमित्रा ने राजा को देखा, उनके शरीर का स्पर्श किया और ‘हा नाथ!’ की पुकार मचाती हुई वे दोनों रानियाँ पृथ्वी पर गिर पड़ीं॥ २२॥
सा कोसलेन्द्रदुहिता चेष्टमाना महीतले।
न भ्राजते रजोध्वस्ता तारेव गगनच्युता॥२३॥
कोसलराजकुमारी कौसल्या धरती पर लोटने और छटपटाने लगीं। उनका धूलि-धूसरित शरीर शोभाहीन दिखायी देने लगा, मानो आकाश से टूटकर गिरी हुई कोई तारा धूल में लोट रही हो॥ २३॥
नृपे शान्तगुणे जाते कौसल्यां पतितां भुवि।
अपश्यंस्ताः स्त्रियः सर्वा हतां नागवधूमिव॥ २४॥
राजा दशरथके शरीरकी उष्णता शान्त हो गयी थी। इस प्रकार उनका जीवन शान्त हो जानेपर भूमिपर अचेत पड़ी हुई कौसल्याको अन्तःपुरकी उन सारी स्त्रियोंने मरी हुई नागिनके समान देखा ॥ २४॥
ततः सर्वा नरेन्द्रस्य कैकेयीप्रमुखाः स्त्रियः।
रुदन्त्यः शोकसंतप्ता निपेतुर्गतचेतनाः॥२५॥
तदनन्तर पीछे आयी हुई महाराज की कैकेयी आदि सारी रानियाँ शोक से संतप्त होकर रोने लगी औरअचेत होकर गिर पड़ीं॥ २५॥
ताभिः स बलवान् नादः क्रोशन्तीभिरनुद्रुतः।
येन स्फीतीकृतो भूयस्तद् गृहं समनादयत्॥२६॥
उन क्रन्दन करती हुई रानियों ने वहाँ पहले से होने वाले प्रबल आर्तनाद को और भी बढ़ा दिया। उस बढ़े हुए आर्तनाद से वह सारा राजमहल पुनः बड़े जोर से गूंज उठा॥
तत् परित्रस्तसम्भ्रान्तपर्युत्सुकजनाकुलम्।
सर्वतस्तुमुलाक्रन्दं परितापार्तबान्धवम्॥२७॥
सद्योनिपतितानन्दं दीनं विक्लवदर्शनम्।
बभूव नरदेवस्य सद्म दिष्टान्तमीयुषः॥ २८॥
कालधर्म को प्राप्त हुए राजा दशरथ का वह भवन डरे, घबराये और अत्यन्त उत्सुक हुए मनुष्यों से भर गया। सब ओर रोने-चिल्लाने का भयंकर शब्द होने लगा। वहाँ राजा के सभी बन्धु-बान्धव शोक-संताप से पीड़ित होकर जुट गये। वह सारा भवन तत्काल आनन्दशून्य हो दीन-दुःखी एवं व्याकुल दिखायी देने लगा।। २७-२८॥
अतीतमाज्ञाय तु पार्थिवर्षभं यशस्विनं तं परिवार्य पत्नयः।
भृशं रुदन्त्यः करुणं सुदुःखिताः प्रगृह्य बाहू व्यलपन्ननाथवत्॥२९॥
उन यशस्वी भूपालशिरोमणि को दिवङ्गत हुआ जान उनकी सारी पत्नियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर अत्यन्त दुःखी हो जोर-जोर से रोने लगी और उनकी दोनों बाँहें पकड़कर अनाथ की भाँति करुण-विलाप करने लगीं॥ २९॥
सर्ग ६६
तमग्निमिव संशान्तमम्बुहीनमिवार्णवम्।
गतप्रभमिवादित्यं स्वर्गस्थं प्रेक्ष्य भूमिपम्॥१॥
कौसल्या बाष्पपूर्णाक्षी विविधं शोककर्शिता।
उपगृह्य शिरो राज्ञः कैकेयीं प्रत्यभाषत॥२॥
बुझी हुई आग, जलहीन समुद्र तथा प्रभाहीन सूर्य की भाँति शोभाहीन हुए दिवङ्गत राजा का शव देखकर कौसल्या के नेत्रों में आँसू भर आये। वे अनेक प्रकार से शोकाकुल होकर राजा के मस्तक को गोद में ले कैकेयी से इस प्रकार बोलीं- ॥ १-२॥
सकामा भव कैकेयी भुक्ष्व राज्यमकण्टकम्।
त्यक्त्वा राजानमेकाना नृशंसे दुष्टचारिणि॥३॥
‘दुराचारिणी क्रूर कैकेयी! ले, तेरी कामना सफल हुई। अब राजा को भी त्यागकर एकाग्रचित्त हो अपना अकण्टक राज्य भोग॥३॥
विहाय मां गतो रामो भर्ता च स्वर्गतो मम।
विपथे सार्थहीनेव नाहं जीवितुमुत्सहे॥४॥
‘राम मुझे छोड़कर वन में चले गये और मेरे स्वामी स्वर्ग सिधारे। अब मैं दुर्गम मार्ग में साथियों से बिछुड़कर असहाय हुई अबला की भाँति जीवित नहीं रह सकती॥
भर्तारं तु परित्यज्य का स्त्री दैवतमात्मनः।
इच्छेज्जीवितुमन्यत्र कैकेय्यास्त्यक्तधर्मणः॥५॥
‘नारीधर्म को त्याग देने वाली कैकेयी के सिवा संसार में दूसरी कौन ऐसी स्त्री होगी जो अपने लिये आराध्य देवस्वरूप पति का परित्याग करके जीना चाहेगी? ॥ ५॥
न लुब्धो बुध्यते दोषान् किंपाकमिव भक्षयन्।
कुब्जानिमित्तं कैकेय्या राघवाणां कुलं हतम्॥
‘जैसे कोई धन का लोभी दूसरों को विष खिला देता है और उससे होने वाले हत्या के दोषों पर ध्यान नहीं देता, उसी प्रकार इस कैकेयी ने कुब्जा के कारण रघुवंशियों के इस कुल का नाश कर डाला॥ ६॥
अनियोगे नियुक्तेन राज्ञा रामं विवासितम्।
सभार्यं जनकः श्रुत्वा परितप्स्यत्यहं यथा॥७॥
‘कैकेयी ने महाराज को अयोग्य कार्य में लगाकर उनके द्वारा पत्नीसहित श्रीराम को वनवास दिलवा दिया। यह समाचार जब राजा जनक सुनेंगे, तब मेरे ही समान उनको भी बड़ा कष्ट होगा।॥ ७॥
स मामनाथां विधवां नाद्य जानाति धार्मिकः।
रामः कमलपत्राक्षो जीवन्नाशमितो गतः॥८॥
‘मैं अनाथ और विधवा हो गयी—यह बात मेरे धर्मात्मा पुत्र कमलनयन श्रीराम को नहीं मालूम है। वे तो यहाँ से जीते-जी अदृश्य हो गये हैं॥८॥
विदेहराजस्य सुता तथा चारुतपस्विनी।
दुःखस्यानुचिता दुःखं वने पर्युद्धिजिष्यति॥९॥
‘पति-सेवारूप मनोहर तप करने वाली विदेहराजकुमारी सीता दुःख भोगने के योग्य नहीं है। वह वन में दुःखका अनुभव करके उद्विग्न हो उठेगी॥ ९॥
नदतां भीमघोषाणां निशासु मृगपक्षिणाम्।
निशम्यमाना संत्रस्ता राघवं संश्रयिष्यति॥१०॥
‘रात के समय भयानक शब्द करने वाले पशुपक्षियों की बोली सुनकर भयभीत हो सीता श्रीराम की ही शरण लेगी- उन्हीं की गोद में जाकर छिपेगी॥ १०॥
वृद्धश्चैवाल्पपुत्रश्च वैदेहीमनुचिन्तयन्।
सोऽपि शोकसमाविष्टो नूनं त्यक्ष्यति जीवितम्॥ ११॥
‘जो बूढ़े हो गये हैं, कन्याएँ मात्र ही जिनकी संतति हैं, वे राजा जनक भी सीता की ही बारम्बार चिन्ता करते हुए शोक में डूबकर अवश्य ही अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ ११ ॥
साहमयैव दिष्टान्तं गमिष्यामि पतिव्रता।
इदं शरीरमालिङ्ग्य प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्॥१२॥
‘मैं भी आज ही मृत्यु का वरण करूँगी। एक पतिव्रता की भाँति पति के शरीर का आलिङ्गन करके चिता की आग में प्रवेश कर जाऊँगी’ ॥ १२ ॥
तां ततः सम्परिष्वज्य विलपन्तीं तपस्विनीम्।
व्यपनिन्युः सुदुःखार्ता कौसल्यां व्यावहारिकाः॥ १३॥
पति के शरीर को हृदय से लगाकर अत्यन्त दुःख से आर्त हो करुण विलाप करती हुई तपस्विनी कौसल्या को राजकाज देखने वाले मन्त्रियों ने दूसरी स्त्रियों द्वारा वहाँ से हटवा दिया॥ १३ ॥
तैलद्रोण्यां तदामात्याः संवेश्य जगतीपतिम्।
राज्ञः सर्वाण्यथादिष्टाश्चक्रुः कर्माण्यनन्तरम्॥ १४॥
फिर उन्होंने महाराज के शरीर को तेल से भरी हुई नाव में रखकर वसिष्ठ आदि की आज्ञा के अनुसार शव की रक्षा आदि अन्य सब राजकीय कार्यों की सँभाल आरम्भ कर दी॥१४॥
न तु संकालनं राज्ञो विना पुत्रेण मन्त्रिणः।
सर्वज्ञाः कर्तुमीषुस्ते ततो रक्षन्ति भूमिपम्॥१५॥
वे सर्वज्ञ मन्त्री पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार न कर सके, इसलिये उनके शव की रक्षा करने लगे।
तैलद्रोण्यां शायितं तं सचिवैस्तु नराधिपम्।
हा मृतोऽयमिति ज्ञात्वा स्त्रियस्ताः पर्यदेवयन्॥ १६॥
जब मन्त्रियों ने राजा के शव को तैल की नाव में सुलाया, तब यह जानकर सारी रानियाँ ‘हाय! येमहाराज परलोकवासी हो गये’ ऐसा कहती हुई पुनः विलाप करने लगीं॥ १६॥
बाहूनुच्छ्रित्य कृपणा नेत्रप्रस्रवणैर्मुखैः।
रुदत्यः शोकसंतप्ताः कृपणं पर्यदेवयन्॥१७॥
उनके मुखपर नेत्रों से आँसुओं के झरने झर रहे थे। वे अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर दीनभाव से रोने और शोकसंतप्त हो दयनीय विलाप करने लगीं। १७॥
हा महाराज रामेण सततं प्रियवादिना।
विहीनाः सत्यसंधेन किमर्थं विजहासि नः॥१८॥
वे बोलीं—’हा महाराज! हम सत्यप्रतिज्ञ एवं सदा प्रिय बोलने वाले अपने पुत्र श्रीराम से तो बिछुड़ी ही थीं, अब आप भी क्यों हमारा परित्याग कर रहे हैं?॥ १८॥
कैकेय्या दुष्टभावाया राघवेण विवर्जिताः।
कथं सपत्न्या वत्स्यामः समीपे विधवा वयम्॥ १९॥
‘श्रीराम से बिछुड़कर हम सब विधवाएँ इस दुष्ट विचार वाली सौत कैकेयी के समीप कैसे रहेंगी?॥ १९॥
स हि नाथः स चास्माकं तव च प्रभुरात्मवान्।
वनं रामो गतः श्रीमान् विहाय नृपतिश्रियम्॥ २०॥
‘जो हमारे और आपके भी रक्षक और प्रभु थे,वे मनस्वी श्रीरामचन्द्र राजलक्ष्मी को छोड़कर वन चले गये॥
त्वया तेन च वीरेण विना व्यसनमोहिताः।
कथं वयं निवत्स्यामः कैकेय्या च विदूषिताः॥ २१॥
‘वीरवर श्रीराम और आपके भी न रहने से हमारे ऊपर बड़ा भारी संकट आ गया, जिससे हम मोहित हो रही हैं। अब सौत कैकेयी के द्वारा तिरस्कृत हो हम यहाँ कैसे रह सकेंगी? ॥ २१॥
यया च राजा रामश्च लक्ष्मणश्च महाबलः।
सीतया सह संत्यक्ताः सा कमन्यं न हास्यति॥ २२॥
‘जिसने राजा का तथा सीतासहित श्रीराम और महाबली लक्ष्मण का भी परित्याग कर दिया, वह दूसरे किसका त्याग नहीं करेगी? ॥ २२ ॥
ता बाष्पेण च संवीताः शोकेन विपुलेन च।
व्यचेष्टन्त निरानन्दा राघवस्य वरस्त्रियः॥२३॥
रघुकुलनरेश दशरथ की वे सुन्दरी रानियाँ महान् शोक से ग्रस्त हो आँसू बहाती हुई नाना प्रकार की चेष्टाएँ और विलाप कर रही थीं। उनका आनन्द लुट गया था।
निशा नक्षत्रहीनेव स्त्रीव भर्तृविवर्जिता।
पुरी नाराजतायोध्या हीना राज्ञा महात्मना ॥२४॥
महामना राजा दशरथ से हीन हुई वह अयोध्यापुरी नक्षत्रहीन रात्रि और पतिविहीना नारी की भाँति श्रीहीन हो गयी थी॥ २४॥
बाष्पपर्याकुलजना हाहाभूतकुलाङ्गना।
शून्यचत्वरवेश्मान्ता न बभ्राज यथापुरम्॥ २५॥
नगर के सभी मनुष्य आँसू बहा रहे थे। कुलवती स्त्रियाँ हाहाकार कर रही थीं। चौराहे तथा घरों के द्वार सूने दिखायी देते थे। (वहाँ झाड-बुहार, लीपने-पोतने तथा बलि अर्पण करने आदि की क्रियाएँ नहीं होती थीं।) इस प्रकार वह पुरी पहले की भाँति शोभा नहीं पाती थी॥
गते तु शोकात् त्रिदिवं नराधिपे महीतलस्थासु नृपाङ्गनासु च।
निवृत्तचारः सहसा गतो रविः प्रवृत्तचारा रजनी ह्युपस्थिता ॥२६॥
राजा दशरथ शोक वश स्वर्ग सिधारे और उनकी रानियाँ शोक से ही भूतल पर लोटती रहीं। इस शोक में ही सहसा सूर्य की किरणों का प्रचार बंद हो गया और सूर्यदेव अस्त हो गये। तत्पश्चात् अन्धकार का प्रचार करती हुई रात्रि उपस्थित हुई॥ २६ ॥
ऋते तु पुत्राद् दहनं महीपते रोचयंस्ते सुहृदः समागताः।
इतीव तस्मिन् शयने न्यवेशयन् विचिन्त्य राजानमचिन्त्यदर्शनम्॥२७॥
वहाँ पधारे हुए सुहृदों ने किसी भी पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार होना नहीं पसंद किया। अब राजा का दर्शन अचिन्त्य हो गया, यह सोचते हुए उन सबने उस तैलपूर्ण कड़ाह में उनके शव को सुरक्षित रख दिया॥२७॥
गतप्रभा द्यौरिव भास्करं विना व्यपेतनक्षत्रगणेव शर्वरी।
पुरी बभासे रहिता महात्मना कण्ठास्रकण्ठाकुलमार्गचत्वरा ॥२८॥
सूर्य के बिना प्रभाहीन आकाश तथा नक्षत्रों के बिना शोभाहीन रात्रि की भाँति अयोध्यापुरी महात्मा राजा दशरथ से रहित हो श्रीहीन प्रतीत होती थी। उसकी सड़कों और चौराहों पर आँसुओं से अवरुद्ध कण्ठवाले मनुष्यों की भीड़ एकत्र हो गयी थी॥ २८॥
नराश्च नार्यश्च समेत्य संघशो विगर्हमाणा भरतस्य मातरम्।
तदा नगर्यां नरदेवसंक्षये बभूवुरार्ता न च शर्म लेभिरे॥२९॥
झुंड-के-झुंड स्त्री और पुरुष एक साथ खड़े होकर भरत-माता कैकेयी की निन्दा करने लगे। उस समय महाराज की मृत्यु से अयोध्यापुरी में रहने वाले सभी लोग शोकाकुल हो रहे थे। कोई भी शान्ति नहीं पाता था। २९॥
सर्ग ६७
आक्रन्दिता निरानन्दा सास्रकण्ठजनाविला।
अयोध्यायामवतता सा व्यतीयाय शर्वरी॥१॥
अयोध्या में लोगों की वह रात रोते-कलपते ही बीती। उसमें आनन्द का नाम भी नहीं था। आँसुओं से सब लोगों के कण्ठ भरे हुए थे। दुःख के कारण वह रात सबको बड़ी लम्बी प्रतीत हुई थी॥१॥
व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये ततः।
समेत्य राजकर्तारः सभामीयुर्द्विजातयः॥२॥
जब रात बीत गयी और सूर्योदय हुआ, तब राज्य का प्रबन्ध करने वाले ब्राह्मणलोग एकत्र हो दरबार में आये॥२॥
मार्कण्डेयोऽथ मौद्गल्यो वामदेवश्च कश्यपः।
कात्यायनो गौतमश्च जाबालिश्च महायशाः॥
एते द्विजाः सहामात्यैः पृथग्वाचमुदीरयन्।
वसिष्ठमेवाभिमुखाः श्रेष्ठं राजपुरोहितम्॥४॥
मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और महायशस्वी जाबालि—ये सभी ब्राह्मणश्रेष्ठ राजपुरोहित वसिष्ठजी के सामने बैठकर मन्त्रियों के साथ अपनी अलग-अलग राय देने लगे॥३-४॥
अतीता शर्वरी दुःखं या नो वर्षशतोपमा।
अस्मिन् पञ्चत्वमापन्ने पुत्रशोकेन पार्थिवे॥५॥
वे बोले—’पुत्रशोक से इन महाराज के स्वर्गवासी होने के कारण यह रात बड़े दुःख से बीती है, जो हमारे लिये सौ वर्षों के समान प्रतीत हुई थी॥५॥
स्वर्गस्थश्च महाराजो रामश्चारण्यमाश्रितः।
लक्ष्मणश्चापि तेजस्वी रामेणैव गतः सह॥६॥
‘महाराज दशरथ स्वर्ग सिधारे, श्रीरामचन्द्रजी वन में रहने लगे और तेजस्वी लक्ष्मण भी श्रीराम के साथ ही चले गये॥६॥
उभौ भरतशत्रुघ्नौ केकयेषु परंतपौ।
पुरे राजगृहे रम्ये मातामहनिवेशने॥७॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न केकयदेश के रमणीय राजगृह में नाना के घर में निवास करते हैं ॥ ७॥
इक्ष्वाकूणामिहाचैव कश्चिद् राजा विधीयताम्।
अराजकं हि नो राष्ट्रं विनाशं समवाप्नुयात्॥८॥
‘इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों में से किसी को आज ही यहाँ का राजा बनाया जाय; क्योंकि राजा के बिना हमारे इस राज्य का नाश हो जायगा॥ ८॥
नाराजके जनपदे विद्युन्माली महास्वनः।
अभिवर्षति पर्जन्यो महीं दिव्येन वारिणा॥९॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, ऐसे जनपद में विद्युन्मालाओं से अलंकृत महान् गर्जन करने वाला मेघ पृथ्वी पर दिव्य जल की वर्षा नहीं करता है॥९॥
नाराजके जनपदे बीजमुष्टिः प्रकीर्यते।
नाराजके पितुः पुत्रो भार्या वा वर्तते वशे॥१०॥
‘जिस जनपद में कोई राजा नहीं, वहाँ के खेतों में मुट्ठी-के-मुट्ठी बीज नहीं बिखेरे जाते। राजा से रहित देश में पुत्र पिता और स्त्री पति के वश में नहीं रहती॥ १०॥
अराजके धनं नास्ति नास्ति भार्याप्यराजके।
इदमत्याहितं चान्यत् कुतः सत्यमराजके॥११॥
‘राजहीन देश में धन अपना नहीं होता है। बिना राजा के राज्य में पत्नी भी अपनी नहीं रह पाती है। राजारहित देश में यह महान् भय बना रहता है। (जब वहाँ पति-पत्नी आदि का सत्य सम्बन्ध नहीं रह सकता,) तब फिर दूसरा कोई सत्य कैसे रह सकता है? ॥ ११॥
नाराजके जनपदे कारयन्ति सभां नराः।
उद्यानानि च रम्याणि हृष्टाः पुण्यगृहाणि च॥ १२॥
‘बिना राजा के राज्य में मनुष्य कोई पञ्चायत-भवन नहीं बनवाते, रमणीय उद्यान का भी निर्माण नहीं करवाते तथा हर्ष और उत्साह के साथ पुण्यगृह (धर्मशाला, मन्दिर आदि) भी नहीं बनवाते हैं। १२ ॥
नाराजके जनपदे यज्ञशीला द्विजातयः।
सत्राण्यन्वासते दान्ता ब्राह्मणः संशितव्रताः॥ १३॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं, उस जनपद में स्वभावतः यज्ञ करने वाले द्विज और कठोर व्रत का पालन करने वाले जितेन्द्रिय ब्राह्मण उन बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान नहीं करते, जिनमें सभी ऋत्विज् और सभी यजमान होते हैं।
नाराजके जनपदे महायज्ञेषु यज्वनः।
ब्राह्मणा वसुसम्पूर्णा विसृजन्त्याप्तदक्षिणाः॥ १४॥
‘राजारहित जनपद में कदाचित् महायज्ञों का आरम्भ हो भी तो उनमें धनसम्पन्न ब्राह्मण भी ऋत्विजों को पर्याप्त दक्षिणा नहीं देते (उन्हें भय रहता है कि लोग हमें धनी समझकर लूट न लें)॥१४॥
नाराजके जनपदे प्रहृष्टनटनर्तकाः।
उत्सवाश्च समाजाश्च वर्धन्ते राष्ट्रवर्धनाः ॥१५॥
‘अराजक देश में राष्ट्र को उन्नतिशील बनाने वाले उत्सव, जिनमें नट और नर्तक हर्ष में भरकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, बढ़ने नहीं पाते हैं तथा दूसरे-दूसरे राष्ट्रहितकारी संघ भी नहीं पनपने पाते हैं। १५॥
नाराजके जनपदे सिद्धार्था व्यवहारिणः।
कथाभिरभिरज्यन्ते कथाशीलाः कथाप्रियैः॥ १६॥
‘बिना राजा के राज्य में वादी और प्रतिवादी के विवाद का संतोषजनक निपटारा नहीं हो पाता अथवा व्यापारियों को लाभ नहीं होता। कथा सुनने की इच्छा वाले लोग कथावाचक पौराणिकों की कथाओं से प्रसन्न नहीं होते॥
नाराजके जनपदे तूद्यानानि समागताः।
सायाह्ने क्रीडितुं यान्ति कुमार्यो हेमभूषिताः॥ १७॥
‘राजारहित जनपद में सोने के आभूषणों से विभूषित हुई कुमारियाँ एक साथ मिलकर संध्या के समय उद्यानों में क्रीड़ा करने के लिये नहीं जाती हैं॥ १७॥
नाराजके जनपदे धनवन्तः सुरक्षिताः।
शेरते विवृतद्वाराः कृषिगोरक्षजीविनः॥१८॥
‘बिना राजा के राज्य में धनीलोग सुरक्षित नहीं रह पाते तथा कृषि और गोरक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले वैश्य भी दरवाजा खोलकर नहीं सो पाते हैं।॥ १८॥
नाराजके जनपदे वाहनैः शीघ्रवाहिभिः।
नरा निर्यान्त्यरण्यानि नारीभिः सह कामिनः॥ १९॥
‘राजा से रहित जनपद में कामी मनुष्य नारियों के साथ शीघ्रगामी वाहनों द्वारा वनविहार के लिये नहीं निकलते हैं॥ १९॥
नाराजके जनपदे बद्धघण्टा विषाणिनः।
अटन्ति राजमार्गेषु कुञ्जराः षष्टिहायनाः॥२०॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, उस जनपद में साठ वर्ष के दन्तार हाथी घंटे बाँधकर सड़कों पर नहीं घूमते हैं।॥ २०॥
नाराजके जनपदे शरान् संततमस्यताम्।
श्रूयते तलनिर्घोष इष्वस्त्राणामुपासने॥२१॥
‘बिना राजा के राज्य में धनुर्विद्या के अभ्यासकाल में निरन्तर लक्ष्य की ओर बाण चलाने वाले वीरों की प्रत्यञ्चा तथा करतल का शब्द नहीं सुनायी देता है। २१॥
नाराजके जनपदे वणिजो दूरगामिनः।
गच्छन्ति क्षेममध्वानं बहुपण्यसमाचिताः॥२२॥
‘राजा से रहित जनपद में दूर जाकर व्यापार करने वाले वणिक् बेचने की बहुत-सी वस्तुएँ साथ लेकर कुशलपूर्वक मार्ग तै नहीं कर सकते॥ २२ ॥
नाराजके जनपदे चरत्येकचरो वशी।
भावयन्नात्मनाऽऽत्मानं यत्र सायं गृहो मुनिः॥ २३॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, उस जनपद में जहाँ संध्या हो वहीं डेरा डाल देने वाला, अपने अन्तःकरण के द्वारा परमात्मा का ध्यान करनेवाला और अकेला ही विचरने वाला जितेन्द्रिय मुनि नहीं घूमता-फिरता है (क्योंकि उसे कोई भोजन देने वाला नहीं होता) ॥ २३॥
नाराजके जनपदे योगक्षेमः प्रवर्तते।
न चाप्यराजके सेना शत्रून् विषहते युधि॥ २४॥
‘अराजक देश में लोगों को अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा नहीं हो पाती। राजा के न रहने पर सेना भी युद्ध में शत्रुओं का सामना नहीं करती॥ २४॥
नाराजके जनपदे हृष्टैः परमवाजिभिः।
नराः संयान्ति सहसा रथैश्च प्रतिमण्डिताः॥ २५॥
‘बिना राजा के राज्य में लोग वस्त्राभूषणों से विभूषित हो हृष्ट-पुष्ट उत्तम घोड़ों तथा रथों द्वारा सहसा यात्रा नहीं करते हैं (क्योंकि उन्हें लुटेरों का भय बना रहता हैं )॥
नाराजके जनपदे नराः शास्त्रविशारदाः।
संवदन्तोपतिष्ठन्ते वनेषूपवनेषु वा ॥२६॥
‘राजा से रहित राज्य में शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान् मनुष्य वनों और उपवनों में शास्त्रों की व्याख्या करते हुए नहीं ठहर पाते हैं ॥ २६॥
नाराजके जनपदे माल्यमोदकदक्षिणाः।
देवताभ्यर्चनार्थाय कल्प्यन्ते नियतैर्जनैः॥२७॥
‘जहाँ अराजकता फैल जाती है, उस जनपद में मन को वश में रखने वाले लोग देवताओं की पूजा के लिये फूल, मिठाई और दक्षिणा की व्यवस्था नहीं करते हैं ॥ २७॥
नाराजके जनपदे चन्दनागुरुरूषिताः।
राजपुत्रा विराजन्ते वसन्ते इव शाखिनः॥ २८॥
‘जिस जनपद में कोई राजा नहीं होता है, वहाँचन्दन और अगुरु का लेप लगाये हुए राजकुमार वसन्त-ऋतु के खिले हुए वृक्षों की भाँति शोभा नहीं पाते हैं॥२८॥
यथा ह्यनुदका नद्यो यथा वाप्यतृणं वनम्।
अगोपाला यथा गावस्तथा राष्ट्रमराजकम्॥२९॥
‘जैसे जल के बिना नदियाँ, घास के बिना वन और ग्वालों के बिना गौओं की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार राजा के बिना राज्य शोभा नहीं पाता है॥ २९॥
ध्वजो रथस्य प्रज्ञानं धूमो ज्ञानं विभावसोः।
तेषां यो नो ध्वजो राजा स देवत्वमितो गतः॥ ३०॥
‘जैसे ध्वज रथ का ज्ञान कराता है और धूम अग्नि का बोधक होता है, उसी प्रकार राजकाज देखने वाले हमलोगों के अधिकार को प्रकाशित करने वाले जो महाराज थे, वे यहाँ से देवलोक को चले गये॥३०॥
नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित।
मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति परस्परम्॥ ३१॥
‘राजा के न रहने पर राज्य में किसी भी मनुष्य की कोई भी वस्तु अपनी नहीं रह जाती। जैसे मत्स्य एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अराजक देश के लोग सदा एक-दूसरे को खाते-लूटते-खसोटते रहते हैं॥३१॥
ये हि सम्भिन्नमर्यादा नास्तिकाश्छिन्नसंशयाः।
तेऽपि भावाय कल्पन्ते राजदण्डनिपीडिताः॥ ३२॥
‘जो वेद-शास्त्रों की तथा अपनी-अपनी जाति के लिये नियत वर्णाश्रम की मर्यादा को भङ्ग करने वाले नास्तिक मनुष्य पहले राजदण्ड से पीड़ित होकर दबे रहते थे, वे भी अब राजा के न रहने से निःशङ्क होकर अपना प्रभुत्व प्रकट करेंगे॥ ३२॥
यथा दृष्टिः शरीरस्य नित्यमेव प्रवर्तते।
तथा नरेन्द्रो राष्ट्रस्य प्रभवः सत्यधर्मयोः॥३३॥
‘जैसे दृष्टि सदा ही शरीर के हित में प्रवृत्त रहती है, उसी प्रकार राजा राज्य के भीतर सत्य और धर्म का प्रवर्तक होता है॥ ३३॥
राजा सत्यं च धर्मश्च राजा कुलवतां कुलम्।
राजा माता पिता चैव राजा हितकरो नृणाम्॥ ३४॥
‘राजा ही सत्य और धर्म है। राजा ही कुलवानों का कुल है। राजा ही माता और पिता है तथा राजा ही मनुष्यों का हित करने वाला है॥३४॥
यमो वैश्रवणः शक्रो वरुणश्च महाबलः।
विशिष्यन्ते नरेन्द्रेण वृत्तेन महता ततः॥ ३५॥
‘राजा अपने महान् चरित्र के द्वारा यम, कुबेर, इन्द्र और महाबली वरुण से भी बढ़ जाते हैं (यमराज केवल दण्ड देते हैं, कुबेर केवल धन देते हैं, इन्द्र केवल पालन करते हैं और वरुण केवल सदाचार में नियन्त्रित करते हैं; परंतु एक श्रेष्ठ राजा में ये चारों गुण मौजूद होते हैं। अतः वह इनसे बढ़ जाता है) ॥ ३५ ॥
अहो तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किंचन।
राजा चेन्न भवेल्लोके विभजन् साध्वसाधुनी॥ ३६॥
‘यदि संसारमें भले-बुरे का विभाग करने वाला राजा न हो तो यह सारा जगत् अन्धकार से आच्छन्न-सा हो जाय, कुछ भी सूझ न पड़े॥ ३६॥
जीवत्यपि महाराजे तवैव वचनं वयम्।
नातिक्रमामहे सर्वे बेलां प्राप्येव सागरः॥ ३७॥
‘वसिष्ठजी! जैसे उमड़ता हुआ समुद्र अपनी तटभूमि तक पहुँचकर उससे आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार हम सब लोग महाराज के जीवनकाल में भी केवल आपकी ही बात का उल्लङ्घन नहीं करते थे। ३७॥
स नः समीक्ष्य द्विजवर्य वृत्तं नृपं विना राष्ट्रमरण्यभूतम्।
कुमारमिक्ष्वाकुसुतं तथान्यं त्वमेव राजानमिहाभिषेचय॥ ३८॥
‘अतः विप्रवर! इस समय हमारे व्यवहार को देखकर तथा राजा के अभाव में जंगल बने हुए इस देशपर दृष्टिपात करके आप ही किसी इक्ष्वाकुवंशी राजकुमार को अथवा दूसरे किसी योग्य पुरुष को राजा के पदपर अभिषिक्त कीजिये’॥ ३८॥
सर्ग ६८
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
मित्रामात्यजनान् सर्वान् ब्राह्मणांस्तानिदं वचः॥
मार्कण्डेय आदि के ऐसे वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठ ने मित्रों, मन्त्रियों और उन समस्त ब्राह्मणों को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥
यदसौ मातुलकुले दत्तराज्यः परं सुखी।
भरतो वसति भ्रात्रा शत्रुघ्नेन मुदान्वितः॥२॥
‘राजा दशरथ ने जिनको राज्य दिया है, वे भरत इस समय अपने भाई शत्रुघ्न के साथ मामा के यहाँ बड़े सुख और प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं ॥२॥
तच्छीघ्रं जवना दूता गच्छन्तु त्वरितं हयैः।
आनेतुं भ्रातरौ वीरौ किं समीक्षामहे वयम्॥३॥
उन दोनों वीर बन्धुओं को बुलाने के लिये शीघ्र ही तेज चलने वाले दूत घोड़ों पर सवार होकर यहाँ से जायँ, इसके सिवा हमलोग और क्या विचार कर सकते हैं?’ ॥३॥
गच्छन्त्विति ततः सर्वे वसिष्ठं वाक्यमब्रुवन्।
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥ ४॥
इस पर सबने वसिष्ठजी से कहा—’हाँ, दूत अवश्य भेजे जायँ।’ उनका वह कथन सुनकर वसिष्ठजी ने दूतों को सम्बोधित करके कहा— ॥ ४॥
एहि सिद्धार्थ विजय जयन्ताशोकनन्दन।
श्रयतामितिकर्तव्यं सर्वानेव ब्रवीमि वः॥५॥
‘सिद्धार्थ! विजय! जयन्त! अशोक ! और नन्दन ! । तुम सब यहाँ आओ और तुम्हें जो काम करना है,उसे सुनो। मैं तुम सब लोगोंसे ही कहता हूँ॥ ५॥
पुरं राजगृहं गत्वा शीघ्रं शीघ्रजवैर्हयैः।
त्यक्तशोकैरिदं वाच्यः शासनाद् भरतो मम॥६॥
‘तुमलोग शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर तुरंत ही राजगृह नगर को जाओ और शोक का भाव न प्रकट करते हुए मेरी आज्ञा के अनुसार भरत से इस प्रकार कहो॥६॥
पुरोहितस्त्वां कुशलं प्राह सर्वे च मन्त्रिणः।
त्वरमाणश्च निर्याहि कृत्यमात्ययिकं त्वया॥७॥
‘कुमार! पुरोहित जी तथा समस्त मन्त्रियों ने आपसे कुशल-मङ्गल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र ही चलिये। अयोध्या में आपसे अत्यन्त आवश्यक कार्य है।
मा चास्मै प्रोषितं रामं मा चास्मै पितरं मृतम्।
भवन्तः शंसिषुर्गत्वा राघवाणामितः क्षयम्॥८॥
‘भरत को श्रीरामचन्द्र के वनवास और पिता की मृत्यु का हाल मत बतलाना और इन परिस्थितियों के कारण रघुवंशियों के यहाँ जो कुहराम मचा हुआ है, इसकी चर्चा भी न करना॥ ८॥
कौशेयानि च वस्त्राणि भूषणानि वराणि च।
क्षिप्रमादाय राज्ञश्च भरतस्य च गच्छत॥९॥
‘केकयराज तथा भरत को भेंट देने के लिये रेशमीवस्त्र और उत्तम आभूषण लेकर तुमलोग यहाँ से शीघ्र चल दो’।
दत्तपथ्यशना दूता जग्मुः स्वं स्वं निवेशनम्।
केकयांस्ते गमिष्यन्तो हयानारुह्य सम्मतान्॥ १०॥
केकय देश को जाने वाले वे दूत रास्ते का खर्च ले अच्छे घोड़ों पर सवार हो अपने-अपने घर को गये। १०॥
ततः प्रास्थानिकं कृत्वा कार्यशेषमनन्तरम्।
वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञाता दूताः संत्वरितं ययुः॥११॥
तदनन्तर यात्रा सम्बन्धी शेष तैयारी पूरी करके वसिष्ठजी की आज्ञा ले सभी दूत तुरंत वहाँ से प्रस्थित हो गये॥११॥
न्यन्तेनापरतालस्य प्रलम्बस्योत्तरं प्रति।
निषेवमाणास्ते जग्मुर्नदीं मध्येन मालिनीम्॥ १२॥
अपरताल नामक पर्वत के अन्तिम छोर अर्थात दक्षिण भाग और प्रलम्बगिरि के उत्तरभाग में दोनों पर्वतों के बीच से बहने वाली मालिनी नदी के तटपर होते हुए वे दूत आगे बढ़े॥ १२ ॥
ते हास्तिनपुरे गङ्गां तीर्वा प्रत्यङ्मुखा ययुः।
पाञ्चालदेशमासाद्य मध्येन कुरुजाङ्गलम्॥१३॥
हस्तिनापुर में गङ्गा को पार करके वे पश्चिम की ओर गये और पाञ्चाल देश में पहुँचकर कुरुजाङ्गल प्रदेश के बीच से होते हुए आगे बढ़ गये॥१३॥
सरांसि च सुफुल्लानि नदीश्च विमलोदकाः।
निरीक्षमाणा जग्मुस्ते दूताः कार्यवशाद्रुतम्॥ १४॥
मार्ग में सुन्दर फूलों से सुशोभित सरोवरों तथा निर्मल जलवाली नदियों का दर्शन करते हुए वे दूत कार्यवश तीव्र-गति से आगे बढ़ते गये॥१४॥
ते प्रसन्नोदकां दिव्यां नानाविहगसेविताम्।
उपातिजग्मुर्वेगेन शरदण्डां जलाकुलाम्॥१५॥
तदनन्तर वे स्वच्छ जल से सुशोभित, पानी से भरी हुई और भाँति-भाँति के पक्षियों से सेवित दिव्य नदी शरदण्डा के तट पर पहुँचकर उसे वेगपूर्वक लाँघ गये॥ १५॥
निकूलवृक्षमासाद्य दिव्यं सत्योपयाचनम्।
अभिगम्याभिवाद्यं तं कुलिङ्गां प्राविशन् पुरीम्॥ १६॥
शरदण्डा के पश्चिम तट पर एक दिव्य वृक्ष था, जिसपर किसी देवता का आवास था; इसीलिये वहाँ जो याचना की जाती थी, वह सत्य (सफल) होती थी, अतः उसका नाम सत्योपयाचन हो गया था। उस वन्दनीय वृक्ष के निकट पहुँचकर दूतों ने उसकी परिक्रमा की और वहाँ से आगे जाकर उन्होंने कुलिङ्गा नामक पुरी में प्रवेश किया॥
अभिकालं ततः प्राप्य तेजोऽभिभवनाच्च्युताः।
पितृपैतामहीं पुण्यां तेरुरिक्षुमती नदीम्॥१७॥
वहाँसे तेजोऽभिभवन नामक गाँव को पार करते हुए वे अभिकाल नामक गाँव में पहुँचे और वहाँ से आगे बढ़ने पर उन्होंने राजा दशरथ के पिता-पितामहों द्वारा सेवित पुण्यसलिला इक्षुमती नदी को पार किया॥ १७॥
अवेक्ष्याञ्जलिपानांश्च ब्राह्मणान् वेदपारगान्।
ययुर्मध्येन बालीकान् सुदामानं च पर्वतम्॥ १८॥
वहाँ केवल अञ्जलि भर जल पीकर तपस्या करने वाले वेदों के पारगामी ब्राह्मणों का दर्शन करके वे दत बालीक देश के मध्यभाग में स्थित सुदामा नामक पर्वत के पास जा पहुँचे॥ १८ ॥
विष्णोः पदं प्रेक्ष्यमाणा विपाशां चापि शाल्मलीम्।
नदीर्वापीतटाकानि पल्वलानि सरांसि च॥१९॥
पश्यन्तो विविधांश्चापि सिंहान् व्याघ्रान् मृगान् द्विपान्।
ययुः पथातिमहता शासनं भर्तुरीप्सवः॥२०॥
उस पर्वत के शिखर पर स्थित भगवान् विष्णु के चरणचिह्न का दर्शन करके वे विपाशा (व्यास) नदी और उसके तटवर्ती शाल्मली वृक्ष के निकट गये।वहाँ से आगे बढ़ने पर बहुत-सी नदियों, बावड़ियों, पोखरों, छोटे-तालाबों, सरोवरों तथा भाँति-भाँति के वन जन्तुओं—सिंह, व्याघ्र,मृग और हाथियों का दर्शन करते हुए वे दूत अत्यन्त विशाल मार्ग के द्वारा आगे बढ़ने लगे। वे अपने स्वामी की आज्ञा का शीघ्र पालन करनेकी इच्छा रखते थे॥ १९-२० ॥
ते श्रान्तवाहना दूता विकृष्टेन सता पथा।
गिरिव्रजं पुरवरं शीघ्रमासेदुरञ्जसा॥२१॥
उन दूतों के वाहन (घोड़े) चलते-चलते थक गये । थे। वह मार्ग बड़ी दूर का होने पर उपद्रव से रहित था।उसे तै करके सारे दूत शीघ्र ही बिना किसी कष्ट के श्रेष्ठ नगर गिरिव्रज में जा पहुँचे॥ २१॥
भर्तुः प्रियार्थं कुलरक्षणार्थं भर्तुश्च वंशस्य परिग्रहार्थम्।
अहेडमानास्त्वरया स्म दूता रात्र्यां तु ते तत्पुरमेव याताः॥ २२॥
अपने स्वामी (आज्ञा देनेवाले वसिष्ठजी) का प्रिय और प्रजावर्ग की रक्षा करने तथा महाराज दशरथ के वंशपरम्परागत राज्य को भरतजी से स्वीकार कराने के लिये सादर तत्पर हुए वे दूत बड़ी उतावली के साथ चलकर रात में ही उस नगर में जा पहुँचे॥ २२॥
सर्ग ६९
यामेव रात्रिं ते दताः प्रविशन्ति स्म तां पुरीम्।
भरतेनापि तां रात्रिं स्वप्नो दृष्टोऽयमप्रियः॥१॥
जिस रात में दूतों ने उस नगर में प्रवेश किया था, उससे पहली रात में भरत ने भी एक अप्रिय स्वप्न देखा था॥
व्युष्टामेव तु तां रात्रिं दृष्ट्वा तं स्वप्नमप्रियम्।
पुत्रो राजाधिराजस्य सुभृशं पर्यतप्यत॥२॥
रात बीतकर प्रायः सबेरा हो चला था तभी उस अप्रिय स्वप्न को देखकर राजाधिराज दशरथ के पुत्र भरत मन-ही-मन बहुत संतप्त हुए॥२॥
तप्यमानं तमाज्ञाय वयस्याः प्रियवादिनः।
आयासं विनयिष्यन्तः सभायां चक्रिरे कथाः॥
उन्हें चिन्तित जान उनके अनेक प्रियवादी मित्रों ने उनका मानसिक क्लेश दूर करने की इच्छा से एक गोष्ठी की और उसमें अनेक प्रकार की बातें करने लगे॥३॥
वादयन्ति तदा शान्तिं लासयन्त्यपि चापरे।
नाटकान्यपरे स्माहुर्हास्यानि विविधानि च॥४॥
कुछ लोग वीणा आदि बजाने लगे। दूसरे लोग उनके खेद की शान्ति के लिये नृत्य कराने लगे। दूसरे मित्रों ने नाना प्रकार के नाटकों का आयोजन किया, जिनमें हास्य रस की प्रधानता थी॥ ४॥
स तैर्महात्मा भरतः सखिभिः प्रियवादिभिः।
गोष्ठीहास्यानि कुर्वद्भिर्न प्राहृष्यत राघवः॥५॥
किंतु रघुकुलभूषण महात्मा भरत उन प्रियवादी मित्रों की गोष्ठी में हास्यविनोद करने पर भी प्रसन्न नहीं हुए॥५॥
तमब्रवीत् प्रियसखो भरतं सखिभिर्वृतम्।
सुहृद्भिः पर्युपासीनः किं सखे नानुमोदसे॥६॥
” तब सुहृदों से घिरकर बैठे हुए एक प्रिय मित्र ने मित्रों के बीच में विराजमान भरत से पूछा-‘सखे! तुम आज प्रसन्न क्यों नहीं होते हो?’॥ ६॥
एवं ब्रुवाणं सुहृदं भरतः प्रत्युवाच ह।
शृणु त्वं यन्निमित्तं मे दैन्यमेतदुपागतम्॥७॥
स्वप्ने पितरमद्राक्षं मलिनं मुक्तमूर्धजम्।
पतन्तमद्रिशिखरात् कलुषे गोमये ह्रदे॥८॥
– इस प्रकार पूछते हुए सुहृद् को भरत ने इस प्रकार उत्तर दिया—’मित्र! जिस कारण से मेरे मन में यह दैन्य आया है, वह बताता हूँ, सुनो। मैंने आज स्वप्न में अपने पिताजी को देखा है। उनका मुख मलिन था; बाल खुले हुए थे और वे पर्वत की चोटी से एक ऐसे गंदे गढे में गिर पड़े थे, जिसमें गोबर भरा हुआ था। ७-८॥
प्लवमानश्च मे दृष्टः स तस्मिन् गोमये ह्रदे।
पिबन्नञ्जलिना तैलं हसन्निव मुहुर्मुहुः॥९॥
‘मैंने उस गोबर के कुण्ड में उन्हें तैरते देखा था। वे अञ्जलि में तेल लेकर पी रहे थे और बारम्बार हँसते हुए-से प्रतीत होते थे॥९॥
ततस्तिलोदनं भुक्त्वा पुनः पुनरधःशिराः।
तैलेनाभ्यक्तसर्वाङ्गस्तैलमेवान्वगाहत॥१०॥
‘फिर उन्होंने तिल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीर में तेल लगाया गया और फिर वे सिर नीचे किये तैल में ही गोते लगाने लगे॥१०॥
स्वप्नेऽपि सागरं शुष्कं चन्द्रं च पतितं भुवि।
उपरुद्धां च जगतीं तमसेव समावृताम्॥११॥
‘स्वप्न में ही मैंने यह भी देखा है कि समुद्र सूख गया, चन्द्रमा पृथ्वी पर गिर पड़े हैं, सारी पृथ्वी उपद्रव से ग्रस्त और अन्धकार से आच्छादित-सी हो गयी है।॥ ११॥
औपवाह्यस्य नागस्य विषाणं शकलीकृतम्।
सहसा चापि संशान्ता ज्वलिता जातवेदसः॥ १२॥
‘महाराज की सवारी के काम में आने वाले हाथी का दाँत टूक-टूक हो गया है और पहले से प्रज्वलित होती हुई आग सहसा बुझ गयी है॥ १२॥
अवदीर्णां च पृथिवीं शुष्कांश्च विविधान् द्रुमान्।
अहं पश्यामि विध्वस्तान् सधूमांश्चैव पर्वतान्॥
‘मैंने यह भी देखा है कि पृथ्वी फट गयी है, नाना प्रकार के वृक्ष सूख गये हैं तथा पर्वत ढह गये हैं और उनसे धुआँ निकल रहा है॥ १३॥
पीठे कार्णायसे चैव निषष्ण्णं कृष्णवाससम्।
प्रहरन्ति स्म राजानं प्रमदाः कृष्णपिङ्गलाः॥ १४॥
‘काले लोहे की चौकी पर महाराज दशरथ बैठे हैं। उन्होंने काला ही वस्त्र पहन रखा है और काले एवं पिङ्गलवर्ण की स्त्रियाँ उनके ऊपर प्रहार करती हैं। १४॥
त्वरमाणश्च धर्मात्मा रक्तमाल्यानुलेपनः।
रथेन खरयुक्तेन प्रयातो दक्षिणामुखः॥१५॥
‘धर्मात्मा राजा दशरथ लाल रंग के फूलों की माला पहने और लाल चन्दन लगाये गधे जुते हुए रथ पर बैठकर बड़ी तेजी के साथ दक्षिण दिशाकी ओर गये।
प्रहसन्तीव राजानं प्रमदा रक्तवासिनी।
प्रकर्षन्ती मया दृष्टा राक्षसी विकृतानना॥१६॥
‘लाल वस्त्र धारण करने वाली एक स्त्री, जो विकराल मुखवाली राक्षसी प्रतीत होती थी, महाराज को हँसती हई-सी खींचकर लिये जा रही थी। यह दृश्य भी मेरे देखने में आया॥१६॥
एवमेतन्मया दृष्टमिमां रात्रिं भयावहाम्।
अहं रामोऽथवा राजा लक्ष्मणो वा मरिष्यति॥ १७॥
‘इस प्रकार इस भयंकर रात्रि के समय मैंने यह स्वप्न देखा है। इसका फल यह होगा कि मैं, श्रीराम, राजा दशरथ अथवा लक्ष्मण—इनमें से किसी एक की अवश्य मृत्यु होगी॥ १७॥
नरो यानेन यः स्वप्ने खरयुक्तेन याति हि।
अचिरात्तस्य धूम्राग्रं चितायां सम्प्रदृश्यते॥१८॥
एतन्निमित्तं दीनोऽहं न वचः प्रतिपूजये।
शुष्यतीव च मे कण्ठो न स्वस्थमिव मे मनः॥ १९॥
‘जो मनुष्य स्वप्न में गधे जुते हुए रथ से यात्रा करता दिखायी देता है, उसकी चिता का धुआँ शीघ्र ही देखने में आता है। यही कारण है कि मैं दुःखी हो रहा हूँ और आपलोगों की बातों का आदर नहीं करता हूँ। मेरा गला सूखा-सा जा रहा है और मन अस्वस्थ-सा हो चला है॥
न पश्यामि भयस्थानं भयं चैवोपधारये।
भ्रष्टश्च स्वरयोगो मे छाया चापगता मम।
जुगुप्सु इव चात्मानं न च पश्यामि कारणम्॥ २०॥
‘मैं भय का कोई कारण नहीं देखता तो भी भय को प्राप्त हो रहा हूँ। मेरा स्वर बदल गया है तथा मेरी कान्ति भी फीकी पड़ गयी है। मैं अपने-आप से घृणा सी करने लगा हूँ, परंतु इसका कारण क्या है, यह मेरी समझ में नहीं आता ॥ २० ॥
इमां च दुःस्वप्नगतिं निशम्य हि त्वनेकरूपामवितर्कितां पुरा।
भयं महत् तुद् हृदयान्न याति में विचिन्त्य राजानमचिन्त्यदर्शनम्॥२१॥
‘जिनके विषय में मैंने पहले कभी सोचा तक नहीं था, ऐसे अनेक प्रकार के दुःस्वप्नों को देखकर तथा महाराज का दर्शन इस रूप में क्यों हुआ, जिसकी मेरे मन में कोई कल्पना नहीं थी—यह सोचकर मेरे हृदय से महान् भय दूर नहीं हो रहा है’ ॥ २१॥
सर्ग ७०
भरते ब्रुवति स्वप्नं दूतास्ते क्लान्तवाहनाः।
प्रविश्यासह्यपरिखं रम्यं राजगृहं पुरम्॥१॥
इस प्रकार भरत जब अपने मित्रों को स्वप्न का वृत्तान्त बता रहे थे, उसी समय थके हुए वाहनों वाले वे दूत उस रमणीय राजगृहपुर में प्रविष्ट हुए, जिसकी खाई को लाँघने का कष्ट शत्रुओं के लिये असह्य था॥ १॥
समागम्य च राज्ञा ते राजपुत्रेण चार्चिताः।
राज्ञः पादौ गृहीत्वा च तमूचुर्भरतं वचः॥२॥
नगर में आकर वे दूत केकयदेश के राजा और राजकुमार से मिले तथा उन दोनों ने भी उनका सत्कार किया। फिर वे भावी राजा भरत के चरणों का स्पर्श करके उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २॥
पुरोहितस्त्वां कुशलं प्राह सर्वे च मन्त्रिणः।
त्वरमाणश्च निर्याहि कृत्यमात्ययिकं त्वया॥३॥
‘कुमार! पुरोहितजी तथा समस्त मन्त्रियों ने आपसे कुशल-मङ्गल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिये। अयोध्या में आपसे अत्यन्त आवश्यक कार्य है॥३॥
इमानि च महार्हाणि वस्त्राण्याभरणानि च।
प्रतिगृह्य विशालाक्ष मातुलस्य च दापय॥४॥
‘विशाल नेत्रों वाले राजकुमार! ये बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण आप स्वयं भी ग्रहण कीजिये और अपने मामा को भी दीजिये॥४॥
अत्र विंशतिकोट्यस्तु नृपतेर्मातुलस्य ते।
दशकोट्यस्तु सम्पूर्णास्तथैव च नृपात्मज॥५॥
‘राजकुमार! यहाँ जो बहुमूल्य सामग्री लायी गयी है, इसमें बीस करोड़ की लागत का सामान आपके नाना केकेयनरेश के लिये है और पूरे दस करोड़ की लागत का सामान आपके मामा के लिये है’॥ ५ ॥
प्रतिगृह्य तु तत् सर्वं स्वनुरक्तः सुहृज्जने।
दूतानुवाच भरतः कामैः सम्प्रतिपूज्य तान्॥६॥
वे सारी वस्तुएँ लेकर मामा आदि सुहृदों में अनुराग रखने वाले भरत ने उन्हें भेंट कर दीं। तत्पश्चात् इच्छानुसार वस्तुएँ देकर दूतों का सत्कार करने के अनन्तर उनसे इस प्रकार कहा- ॥६॥
कच्चित् स कुशली राजा पिता दशरथो मम।
कच्चिदारोग्यता रामे लक्ष्मणे च महात्मनि॥७॥
‘मेरे पिता महाराज दशरथ सकुशल तो हैं न? महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण नीरोग तो हैं न? ॥ ७॥
आर्या च धर्मनिरता धर्मज्ञा धर्मवादिनी।
अरोगा चापि कौसल्या माता रामस्य धीमतः॥ ८॥
‘धर्म को जानने और धर्म की ही चर्चा करने वाली बुद्धिमान् श्रीराम की माता धर्मपरायणा आर्या कौसल्या को तो कोई रोग या कष्ट नहीं है ? ॥ ८॥
कच्चित् सुमित्रा धर्मज्ञा जननी लक्ष्मणस्य या।
शत्रुघ्नस्य च वीरस्य अरोगा चापि मध्यमा॥९॥
‘क्या वीर लक्ष्मण और शत्रुघ्न की जननी मेरी मझली माता धर्मज्ञा सुमित्रा स्वस्थ और सुखी हैं ?॥ ९॥
आत्मकामा सदा चण्डी क्रोधना प्राज्ञमानिनी।
अरोगा चापि मे माता कैकेयी किमुवाच ह॥ १०॥
‘जो सदा अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहती और अपने को बड़ी बुद्धिमती समझती है, उस उग्र स्वभाव वाली कोपशीला मेरी माता कैकेयी को तो कोई कष्ट नहीं है? उसने क्या कहा है?’ ॥ १० ॥
एवमुक्तास्तु ते दूता भरतेन महात्मना।
ऊचुः सम्प्रश्रितं वाक्यमिदं तं भरतं तदा ॥११॥
महात्मा भरत के इस प्रकार पूछने पर उस समय दूतों ने विनयपूर्वक उनसे यह बात कही- ॥११॥
कुशलास्ते नरव्याघ्र येषां कुशलमिच्छसि।
श्रीश्च त्वां वृणुते पद्मा युज्यतां चापि ते रथः॥ १२॥
‘पुरुषसिंह! आपको जिनका कुशल-मङ्गल अभिप्रेत है, वे सकुशल हैं। हाथ में कमल लिये रहने वाली लक्ष्मी (शोभा) आपका वरण कर रही है। अब यात्रा के लिये शीघ्र ही आपका रथ जुतकर तैयार हो जाना चाहिये’॥ १२ ॥
भरतश्चापि तान् दूतानेवमुक्तोऽभ्यभाषत।
आपृच्छेऽहं महाराजं दूताः संत्वरयन्ति माम्॥ १३॥
उन दूतों के ऐसा कहने पर भरत ने उनसे कहा —’अच्छा मैं महाराज से पूछता हूँ कि दूत मुझसे शीघ्र अयोध्या चलने के लिये कह रहे हैं। आपकी क्या आज्ञा है?’ ॥ १३॥
एवमुक्त्वा तु तान् दूतान् भरतः पार्थिवात्मजः।
दूतैः संचोदितो वाक्यं मातामहमुवाच ह॥१४॥
दूतों से ऐसा कहकर राजकुमार भरत उनसे प्रेरित हो नाना के पास जाकर बोले- ॥ १४ ॥
राजन् पितुर्गमिष्यामि सकाशं दूतचोदितः।
पुनरप्यहमेष्यामि यदा मे त्वं स्मरिष्यसि॥१५॥
‘राजन्! मैं दूतों के कहने से इस समय पिताजी के पास जा रहा हूँ। पुनः जब आप मुझे याद करेंगे, यहाँ आ जाऊँगा’।
भरतेनैवमुक्तस्तु नृपो मातामहस्तदा।
तमुवाच शुभं वाक्यं शिरस्याघ्राय राघवम्॥ १६॥
भरत के ऐसा कहने पर नाना केकयनरेश ने उस समय उन रघुकुलभूषण भरत का मस्तक सूंघकर यह शुभ वचन कहा— ॥ १६॥
गच्छ तातानुजाने त्वां कैकेयी सुप्रजास्त्वया।
मातरं कुशलं ब्रूयाः पितरं च परंतप॥१७॥
‘तात! जाओ, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम्हें पाकर कैकेयी उत्तम संतानवाली हो गयी। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम अपनी माता और पिता से यहाँ का कुशल-समाचार कहना॥ १७॥
पुरोहितं च कुशलं ये चान्ये द्विजसत्तमाः।
तौ च तात महेष्वासौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ १८॥
‘तात! अपने पुरोहितजी से तथा अन्य जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उनसे भी मेरा कुशल-मङ्गल कहना। उन महाधनुर्धर दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से भी यहाँ का कुशल-समाचार सुना देना’ ॥ १८॥
तस्मै हस्त्युत्तमांश्चित्रान् कम्बलानजिनानि च।
सत्कृत्य केकयो राजा भरताय ददौ धनम्॥ १९॥
ऐसा कहकर केकयनरेश ने भरत का सत्कार करके उन्हें बहुत-से उत्तम हाथी, विचित्र कालीन, मृगचर्म और बहुत-सा धन दिये॥ १९॥
अन्तःपुरेऽतिसंवृद्धान् व्याघ्रवीर्यबलोपमान्।
दंष्ट्रायुक्तान् महाकायान् शुनश्चोपायनं ददौ॥ २०॥
जो अन्तःपुर में पाल-पोसकर बड़े किये गये थे, बल और पराक्रम में बाघों के समान थे, जिनकी दाढ़ें बड़ी-बड़ी और काया विशाल थी, ऐसे बहुत-से कुत्ते भी केकयनरेश ने भरत को भेट में दिये॥२०॥
रुक्मनिष्कसहस्रे द्वे षोडशाश्वशतानि च।
सत्कृत्य केकयीपुत्रं केकयो धनमादिशत्॥२१॥
दो हजार सोने की मोहरें और सोलह सौ घोड़े भी दिये। इस प्रकार केकयनरेश ने केकयीकुमार भरत को सत्कारपूर्वक बहुत-सा धन दिया॥ २१॥
तदामात्यानभिप्रेतान् विश्वास्यांश्च गुणान्वितान्।
ददावश्वपतिः शीघ्रं भरतायानुयायिनः॥२२॥
उस समय केकयनरेश अश्वपति ने अपने अभीष्ट, विश्वासपात्र और गुणवान् मन्त्रियों को भरत के साथ जाने के लिये शीघ्र आज्ञा दी॥ २२ ॥
ऐरावतानैन्द्रशिरान् नागान् वै प्रियदर्शनान्।
खरान् शीघ्रान् सुसंयुक्तान् मातुलोऽस्मै धनं ददौ॥ २३॥
भरत के मामा ने उन्हें उपहार में दिये जाने वाले फल के रूप में इरावान् पर्वत और इन्द्रशिर नामक स्थान के आस-पास उत्पन्न होने वाले बहुत-से सुन्दरसुन्दर हाथी तथा तेज चलने वाले सुशिक्षित खच्चर दिये॥२३॥
स दत्तं केकयेन्द्रेण धनं तन्नाभ्यनन्दत।
भरतः केकयीपुत्रो गमनत्वरया तदा॥२४॥
उस समय जाने की जल्दी होने के कारण केकयीपुत्र भरत ने केकयराज के दिये हुए उस धन का अभिनन्दन नहीं किया॥२४॥
बभूव ह्यस्य हृदये चिन्ता सुमहती तदा।
त्वरया चापि दूतानां स्वप्नस्यापि च दर्शनात्॥ २५॥
उस अवसर पर उनके हृदय में बड़ी भारी चिन्ता हो रही थी। इसके दो कारण थे, एक तो दूत वहाँ से चलने की जल्दी मचा रहे थे, दूसरे उन्हें दुःस्वप्न का दर्शन भी हुआ था।
स स्ववेश्माभ्यतिक्रम्य नरनागाश्वसंकुलम्।
प्रपेदे सुमहच्छ्रीमान् राजमार्गमनुत्तमम्॥ २६॥
वे यात्रा की तैयारी के लिये पहले अपने आवास स्थान पर गये। फिर वहाँ से निकलकर मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों से भरे हुए परम उत्तम राजमार्ग पर गये। उस समय भरतजी के पास बहुत बड़ी सम्पत्ति जुट गयी थी॥
अभ्यतीत्य ततोऽपश्यदन्तःपुरमनुत्तमम्।
ततस्तद् भरतः श्रीमानाविवेशानिवारितः॥२७॥
सड़क को पार करके श्रीमान् भरत ने राजभवन के परम उत्तम अन्तःपुर का दर्शन किया और उसमें वे बेरोक-टोक घुस गये॥ २७॥
स मातामहमापृच्छ्य मातुलं च युधाजितम्।
रथमारुह्य भरतः शत्रुघ्नसहितो ययौ॥ २८॥
वहाँ नाना, नानी, मामा युधाजित् और मामी से विदा ले शत्रुघ्न सहित रथ पर सवार हो भरत ने यात्रा आरम्भ की॥ २८॥
रथान् मण्डलचक्रांश्च योजयित्वा परः शतम्।
उष्टगोऽश्वखरैर्भृत्या भरतं यान्तमन्वयुः॥ २९॥
गोलाकार पहिये वाले सौ से भी अधिक रथों में ऊँट, बैल, घोड़े और खच्चर जोतकर सेवकों ने जाते हुए भरत का अनुसरण किया॥ २९॥
बलेन गुप्तो भरतो महात्मा सहार्यकस्यात्मसमैरमात्यैः।
आदाय शत्रुघ्नमपेतशत्रुहाद् ययौ सिद्ध इवेन्द्रलोकात्॥३०॥
शत्रुहीन महामना भरत अपनी और मामा की सेना से सुरक्षित हो शत्रुघ्न को अपने साथ रथ पर लेकर नाना के अपने ही समान माननीय मन्त्रियों के साथ मामा के घर से चले; मानो कोई सिद्ध पुरुष इन्द्रलोक से किसी अन्य स्थान के लिये प्रस्थित हुआ हो॥३०॥
सर्ग ७१
स प्राङ्मुखो राजगृहादभिनिर्याय वीर्यवान्।
ततः सुदामां द्युतिमान् संतीर्यावेक्ष्य तां नदीम्॥ १॥
ह्रादिनीं दूरपारां च प्रत्यक्स्रोतस्तरङ्गिणीम्।
शतद्रुमतरच्छ्रीमान् नदीमिक्ष्वाकुनन्दनः॥२॥
राजगृह से निकलकर पराक्रमी भरत पूर्वदिशा की ओर चले। उन तेजस्वी राजकुमार ने मार्ग में सुदामा नदी का दर्शन करके उसे पार किया। तत्पश्चात् इक्ष्वाकुनन्दन श्रीमान् भरत ने, जिसका पाट दूर तक फैला हुआ था, उस ह्रादिनी नदी को लाँघकर पश्चिमाभिमुख बहने वाली शतगु नदी (सतलज) को पार किया॥१-२॥
ऐलधाने नदीं तीप्राप्य चापरपर्वतान्।
शिलामाकुर्वतीं ती आग्नेयं शल्यकर्षणम्॥
वहाँ से ऐलधान नामक गाँव में जाकर वहाँ बहने वाली नदी को पार किया। तत्पश्चात् वे अपरपर्वत नामक जनपद में गये। वहाँ शिला नाम की नदी बहती थी, जो अपने भीतर पड़ी हुई वस्तु को शिलास्वरूप बना देती थी। उसे पार करके भरत वहाँ से आग्नेय कोण में स्थित शल्यकर्षण नामक देश में गये, जहाँ शरीर से काँटे को निकालने में सहायता करने वाली ओषधि उपलब्ध होती थी॥३॥
सत्यसंधः शुचिर्भूत्वा प्रेक्षमाणः शिलावहाम्।
अभ्यगात् स महाशैलान् वनं चैत्ररथं प्रति॥४॥
तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ भरत ने पवित्र होकर शिलावहा नामक नदी का दर्शन किया (जो अपनी प्रखर धारा से शिलाखण्डों-बड़ी-बड़ी चट्टानों को भी बहा ले जाने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध थी)। उस नदी का दर्शन करके वे आगे बढ़ गये और बड़े-बड़े पर्वतों को लाँघते हुए चैत्ररथ नामक वन में जा पहुँचे॥ ४॥
सरस्वतीं च गङ्गां च युग्मेन प्रतिपद्य च।
उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारुण्डं प्राविशद् वनम्॥
तत्पश्चात् पश्चिमवाहिनी सरस्वती तथा गङ्गा की धारा-विशेष के सङ्गम से होते हुए उन्होंने वीरमत्स्य देश के उत्तरवर्ती देशों में पदार्पण किया और वहाँ से आगे बढ़कर वे भारुण्ड वन के भीतर गये॥ ५ ॥
वेगिनीं च कुलिङ्गाख्यां ह्रादिनीं पर्वतावृताम्।
यमुनां प्राप्य संतीर्णो बलमाश्वासयत् तदा॥६॥
फिर अत्यन्त वेग से बहने वाली तथा पर्वतों से घिरी होने के कारण अपने प्रखर प्रवाह के द्वारा कलकल नाद करने वाली कुलिङ्गा नदी को पार करके यमुना के तटपर पहुँचकर उन्होंने सेना को विश्राम कराया॥६॥
शीतीकृत्य तु गात्राणि क्लान्तानाश्वास्य वाजिनः।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायादादाय चोदकम्॥ ७॥
राजपुत्रो महारण्यमनभीक्ष्णोपसेवितम्।
भद्रो भद्रेण यानेन मारुतः खमिवात्यगात्॥८॥
थके हुए घोड़ों को नहलाकर उनके अङ्गों को शीतलता प्रदान करके उन्हें छाया में घास आदि देकर आराम करने का अवसर दे राजकुमार भरत स्वयं भी स्नान और जलपान करके रास्ते के लिये जल साथ ले आगे बढ़े। मङ्गलाचार से युक्त हो माङ्गलिक रथ के द्वारा उन्होंने, जिसमें मनुष्यों का बहुधा आना-जाना या रहना नहीं होता था, उस विशाल वन को उसी प्रकार वेगपूर्वक पार किया, जैसे वायु आकाश को लाँघ जाती है । ७-८॥
भागीरथीं दुष्प्रतरां सोंऽशुधाने महानदीम्।
उपायाद् राघवस्तूर्णं प्राग्वटे विश्रुते पुरे॥९॥
तत्पश्चात् अंशुधान नामक ग्राम के पास महानदी भागीरथी गङ्गा को दुस्तर जानकर रघुनन्दन भरत तुरंत ही प्राग्वट नाम से विख्यात नगर में आ गये॥९॥
स गङ्गां प्राग्वटे तीर्वा समायात् कुटिकोष्टिकाम्।
सबलस्तां स तीथि समगाद् धर्मवर्धनम्॥१०॥
प्राग्वट नगर में गङ्गा को पार करके वे कुटिकोष्टिका नाम वाली नदी के तटपर आये और सेनासहित उसको भी पार करके धर्मवर्धन नामक ग्राम में जा पहुँचे॥ १०॥
तोरणं दक्षिणार्धेन जम्बूप्रस्थं समागमत्।
वरूथं च ययौ रम्यं ग्रामं दशरथात्मजः॥११॥
वहाँ से तोरण ग्राम के दक्षिणार्ध भाग में होते हुए जम्बूप्रस्थ में गये। तदनन्तर दशरथकुमार भरत एक रमणीय ग्राम में गये, जो वरूथ के नाम से विख्यात था॥
तत्र रम्ये वने वासं कृत्वासौ प्राङ्मुखो ययौ।
उद्यानमज्जिहानायाः प्रियका यत्र पादपाः॥ १२॥
वहाँ एक रमणीय वन में निवास करके वे प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर गये। जाते-जाते उज्जिहाना नगरी के उद्यान में पहुँच गये, जहाँ कदम्ब नाम वाले वृक्षों की बहुतायत थी॥ १२॥
स तांस्तु प्रियकान् प्राप्य शीघ्रानास्थाय वाजिनः।
अनुज्ञाप्याथ भरतो वाहिनीं त्वरितो ययौ॥१३॥
उन कदम्बों के उद्यान में पहुँचकर अपने रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतकर सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा दे भरत तीव्रगति से चल दिये॥ १३॥
वासं कृत्वा सर्वतीर्थे तीर्वा चोत्तानिकां नदीम्।
अन्या नदीश्च विविधैः पार्वतीयैस्तुरङ्गमैः॥१४॥
हस्तिपृष्ठकमासाद्य कुटिकामप्यवर्तत।
ततार च नरव्याघ्रो लोहित्ये च कपीवतीम्॥
तत्पश्चात् सर्वतीर्थ नामक ग्राम में एक रात रहकर उत्तानिका नदी तथा अन्य नदियों को भी नाना प्रकार के पर्वतीय घोड़ों द्वारा जुते हुए रथ से पार करके नरश्रेष्ठ भरत जी हस्तिपृष्ठक नामक ग्राम में जा पहुंचे। वहाँ से आगे जाने पर उन्होंने कुटिका नदी पार की। फिर लोहित्य नामक ग्राम में पहुँचकर कपीवती नामक नदी को पार किया॥१४-१५॥
एकसाले स्थाणुमती विनते गोमती नदीम्।
कलिङ्गनगरे चापि प्राप्य सालवनं तदा ॥१६॥
फिर एकसाल नगर के पास स्थाणुमती और विनतग्राम के निकट गोमती नदी को पार करके वे तुरंत ही कलिङ्गनगर के पास सालवन में जा पहुँचे॥ १६॥
भरतः क्षिप्रमागच्छत् सुपरिश्रान्तवाहनः।
वनं च समतीत्याशु शर्वर्यामरुणोदये॥१७॥
अयोध्यां मनुना राज्ञा निर्मितां स ददर्श ह।
तां पुरी पुरुषव्याघ्रः सप्तरात्रोषितः पथि॥१८॥
वहाँ जाते-जाते भरत के घोड़े थक गये। तब उन्हें विश्राम देकर वे रातों-रात शीघ्र ही सालवन को लाँघ गये और अरुणोदयकाल में राजा मनु की बसायी हुई अयोध्यापुरी का उन्होंने दर्शन किया। पुरुषसिंह भरत मार्ग में सात रातें व्यतीत करके आठवें दिन अयोध्यापुरी का दर्शन कर सके थे॥ १७-१८॥
अयोध्यामग्रतो दृष्ट्वा सारथिं चेदमब्रवीत्।
एषा नातिप्रतीता मे पुण्योद्याना यशस्विनी॥ १९॥
अयोध्या दृश्यते दूरात् सारथे पाण्डुमृत्तिका।
यज्विभिर्गणसम्पन्नैाह्मणैर्वेदपारगैः॥ २०॥
भूयिष्ठमृद्धैराकीर्णा राजर्षिवरपालिता।
सामने अयोध्यापुरी को देखकर वे अपने सारथि से इस प्रकार बोले-‘सूत! पवित्र उद्यानों से सुशोभित यह यशस्विनी नगरी आज मुझे अधिक प्रसन्न नहीं दिखायी देती है। यह वही नगरी है, जहाँ निरन्तर यज्ञ-याग करने वाले गुणवान् और वेदों के पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण निवास करते हैं, जहाँ बहुत-से धनियों की भी बस्ती है तथा राजर्षियों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ जिसका पालन करते हैं, वही अयोध्या इस समय दूर से सफेद मिट्टी के ढूह की भाँति दीख रही है। १९-२० १/२ ॥
अयोध्यायां पुरा शब्दः श्रूयते तुमुलो महान्॥ २१॥
समन्तान्नरनारीणां तमद्य न शृणोम्यहम्।
‘पहले अयोध्या में चारों ओर नर-नारियों का महान् तुमुलनाद सुनायी पड़ता था; परंतु आज मैं उसे नहीं सुन रहा हूँ॥ २१ १/२ ॥
उद्यानानि हि सायाह्ने क्रीडित्वोपरतैनरैः॥२२॥
समन्ताद् विप्रधावद्भिः प्रकाशन्ते ममान्यथा।
तान्यद्यानुरुदन्तीव परित्यक्तानि कामिभिः॥ २३॥
‘सायंकाल के समय लोग उद्यानों में प्रवेश करके वहाँ क्रीड़ा करते और उस क्रीड़ा से निवृत्त होकर सब ओर से अपने घरों की ओर दौड़ते थे, अतः उस समय इन उद्यानों की अपूर्व शोभा होती थी, परंतु आज ये मुझे कुछ और ही प्रकार के दिखायी देते हैं। वे ही उद्यान आज कामीजनों से परित्यक्त होकर रोते हुए-से प्रतीत होते हैं।॥ २२-२३॥
अरण्यभूतेव पुरी सारथे प्रतिभाति माम्।
नह्यत्र यानैदृश्यन्ते न गजै च वाजिभिः।
निर्यान्तो वाभियान्तो वा नरमुख्या यथा पुरा॥ २४॥
‘सारथे! यह पुरी मुझे जंगल-सी जान पड़ती है। अब यहाँ पहले की भाँति घोड़ों, हाथियों तथा दूसरी दुसरी सवारियों से आते-जाते हुए श्रेष्ठ मनुष्य नहीं दिखायी दे रहे हैं।॥ २४॥
उद्यानानि पुरा भान्ति मत्तप्रमुदितानि च।
जनानां रतिसंयोगेष्वत्यन्तगुणवन्ति च ॥२५॥
तान्येतान्यद्य पश्यामि निरानन्दानि सर्वशः।
स्रस्तपर्णैरनपथं विक्रोशद्भिरिव द्रमैः॥२६॥
‘जो उद्यान पहले मदमत्त एवं आनन्दमग्न भ्रमरों, कोकिलों और नर-नारियों से भरे प्रतीत होते थे तथा लोगों के प्रेम-मिलन के लिये अत्यन्त गुणकारी (अनुकूल सुविधाओं से सम्पन्न) थे, उन्हीं को आज मैं सर्वथा आनन्द शून्य देख रहा हूँ। वहाँ माग पर वृक्षों के जो पत्ते गिर रहे हैं, उनके द्वारा मानो वे वृक्ष करुण क्रन्दन कर रहे हैं (और उनसे उपलक्षित होने के कारण वे उद्यान आनन्दहीन प्रतीत होते हैं)॥ २५-२६॥
नाद्यापि श्रूयते शब्दो मत्तानां मृगपक्षिणाम्।
सरक्तां मधुरां वाणी कलं व्याहरतां बहु॥२७॥
‘रागयुक्त मधुर कलरव करने वाले मतवाले मृगों और पक्षियों का तुमुल शब्द अभी तक सुनायी नहीं पड़ रहा है।॥ २७॥
चन्दनागुरुसम्पृक्तो धूपसम्मूर्च्छितोऽमलः।
प्रवाति पवनः श्रीमान् किं नु नाद्य यथा पुरा॥ २८॥
‘चन्दन और अगुरु की सुगन्ध से मिश्रित तथा धूप की मनोहर गन्ध से व्याप्त निर्मल मनोरम समीर आज पहले की भाँति क्यों नहीं प्रवाहित हो रहा है? ॥ २८॥
भेरीमृदङ्गवीणानां कोणसंघट्टितः पुनः।
किमद्य शब्दो विरतः सदादीनगतिः पुरा॥२९॥
‘वादनदण्डद्वारा बजायी जानेवाली भेरी, मृदङ्ग और वीणाका जो आघातजनित शब्द होता है, वह पहले अयोध्यामें सदा होता रहता था, कभी उसकी गति अवरुद्ध नहीं होती थी; परंतु आज वह शब्द न जाने क्यों बंद हो गया है ? ॥ २९॥
अनिष्टानि च पापानि पश्यामि विविधानि च।
निमित्तान्यमनोज्ञानि तेन सीदति मे मनः॥३०॥
‘मुझे अनेक प्रकारके अनिष्टकारी, क्रूर और अशुभसूचक अपशकुन दिखायी दे रहे हैं, जिससे मेरा मन खिन्न हो रहा है॥ ३०॥
सर्वथा कुशलं सूत दुर्लभं मम बन्धुषु।
तथा ह्यसति सम्मोहे हृदयं सीदतीव मे॥३१॥
‘सारथे! इससे प्रतीत होता है कि इस समय मेरे बान्धवों को कुशल-मङ्गल सर्वथा दुर्लभ है, तभी तो मोह का कोई कारण न होने पर भी मेरा हृदय बैठा जा रहा है’॥३१॥
विषण्णः श्रान्तहृदयस्त्रस्तः संलुलितेन्द्रियः।
भरतः प्रविवेशाशु पुरीमिक्ष्वाकुपालिताम्॥३२॥
भरत मन-ही-मन बहुत खिन्न थे। उनका हृदय शिथिल हो रहा था। वे डरे हुए थे और उनकी सारी इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो उठी थीं, इसी अवस्था में उन्होंने शीघ्रतापूर्वक इक्ष्वाकुवंशी राजाओं द्वारा पालित अयोध्यापुरी में प्रवेश किया॥३२॥
द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशच्छ्रान्तवाहनः।
द्वाःस्थैरुत्थाय विजयमुक्तस्तैः सहितो ययौ॥ ३३॥
पुरी के द्वार पर सदा वैजयन्ती पताका फहराने के कारण उस द्वार का नाम वैजयन्त रखा गया था। (यहपुरी के पश्चिम भाग में था।) उस वैजयन्त द्वार से भरत पुरी के भीतर प्रविष्ट हुए। उस समय उनके रथ के घोड़े बहुत थके हुए थे। द्वारपालों ने उठकर कहा —’महाराज की जय हो!’ फिर वे उनके साथ आगे बढ़े॥३३॥
स त्वनेकाग्रहृदयो द्वाःस्थं प्रत्यर्च्य तं जनम्।
सूतमश्वपतेः क्लान्तमब्रवीत् तत्र राघवः ॥ ३४॥
भरत का हृदय एकाग्र नहीं था—वे घबराये हुए थे। अतः उन रघुकुलनन्दन भरत ने साथ आये हुए द्वारपालों को सत्कारपूर्वक लौटा दिया और केकयराज अश्वपति के थके-माँदे सारथि से वहाँ इस प्रकार कहा- ॥ ३४॥
किमहं त्वरयाऽऽनीतः कारणेन विनानघ।
अशुभाशङ्कि हृदयं शीलं च पततीव मे॥ ३५॥
‘निष्पाप सूत! मैं बिना कारण ही इतनी उतावली के साथ क्यों बुलाया गया? इस बात का विचार करके मेरे हृदय में अशुभ की आशङ्का होती है। मेरा दीनतारहित स्वभाव भी अपनी स्थिति से भ्रष्ट-सा हो रहा है॥ ३५॥
श्रुता नु यादृशाः पूर्वं नृपतीनां विनाशने।
आकारांस्तानहं सर्वानिह पश्यामि सारथे॥३६॥
‘सारथे! अबसे पहले मैंने राजाओं के विनाश के जैसे-जैसे लक्षण सुन रखे हैं, उन सभी लक्षणों को आज मैं यहाँ देख रहा हूँ॥ ३६॥
सम्मार्जनविहीनानि परुषाण्युपलक्षये।
असंयतकवाटानि श्रीविहीनानि सर्वशः॥३७॥
बलिकर्मविहीनानि धूपसम्मोदनेन च।
अनाशितकुटुम्बानि प्रभाहीनजनानि च ॥३८॥
अलक्ष्मीकानि पश्यामि कुटुम्बिभवनान्यहम्।
‘मैं देखता हूँ—गृहस्थों के घरों में झाड़ नहीं लगी है। वे रूखे और श्रीहीन दिखायी देते हैं इनकी किवाड़ें खुली हैं। इन घरों में बलिवैश्व देवकर्म नहीं हो रहे हैं। ये धूप की सुगन्ध से वञ्चित हैं। इनमें रहने वाले कुटुम्बीजनों को भोजन नहीं प्राप्त हुआ है तथा ये सारे गृह प्रभाहीन (उदास) दिखायी देते हैं। जान पड़ता है —इनमें लक्ष्मी का निवास नहीं है॥ ३७-३८ १/२॥
अपेतमाल्यशोभानि असम्मृष्टाजिराणि च॥३९॥
देवागाराणि शून्यानि न भान्तीह यथा पुरा।
‘देवमन्दिर फूलों से सजे हुए नहीं दिखायी देते। इनके आँगन झाड़े-बुहारे नहीं गये हैं। ये मनुष्यों से सूने हो रहे हैं, अतएव इनकी पहले-जैसी शोभा नहीं हो रही है। ३९ १/२॥
देवतार्चाः प्रविद्धाश्च यज्ञगोष्ठास्तथैव च ॥४०॥
माल्यापणेषु राजन्ते नाद्य पण्यानि वा तथा।
दृश्यन्ते वणिजोऽप्यद्य न यथापूर्वमत्र वै॥४१॥
ध्यानसंविग्नहृदया नष्टव्यापारयन्त्रिताः।
‘देव प्रतिमाओं की पूजा बंद हो गयी है। यज्ञशालाओं में यज्ञ नहीं हो रहे हैं। फूलों और मालाओं के बाजार में आज बिकने की कोई वस्तुएँ नहीं शोभित हो रही हैं। यहाँ पहले के समान बनिये भी आज नहीं दिखायी देते हैं। चिन्ता से उनका हृदय उद्विग्न जान पड़ता है और अपना व्यापार नष्ट हो जाने के कारण वे संकुचित हो रहे हैं। ४०-४१ १/२॥
देवायतनचैत्येषु दीनाः पक्षिमृगास्तथा ॥४२॥
मलिनं चाश्रुपूर्णाक्षं दीनं ध्यानपरं कृशम्।
सस्त्रीपुंसं च पश्यामि जनमुत्कण्ठितं पुरे॥४३॥
‘देवालयों तथा चैत्य (देव) वृक्षों पर जिनका निवास है, वे पशु-पक्षी दीन दिखायी दे रहे हैं। मैं देखता हूँ, नगर के सभी स्त्री-पुरुषों का मुख मलिन है, उनकी आँखों में आँसू भरे हैं और वे सब-के-सब दीन, चिन्तित, दुर्बल तथा उत्कण्ठित हैं’। ४२-४३॥
इत्येवमुक्त्वा भरतः सूतं तं दीनमानसः।
तान्यनिष्टान्ययोध्यायां प्रेक्ष्य राजगृहं ययौ॥४४॥
सारथि से ऐसा कहकर अयोध्या में होने वाले उन अनिष्टसूचक चिह्नों को देखते हुए भरत मन-ही-मन दुःखी हो राजमहल में गये।। ४४ ॥
तां शून्यशृङ्गाटकवेश्मरथ्यां रजोरुणद्वारकवाटयन्त्राम्।
दृष्ट्वा पुरीमिन्द्रपुरीप्रकाशां दुःखेन सम्पूर्णतरो बभूव॥४५॥
जो अयोध्यापुरी कभी देवराज इन्द्रकी नगरी के समान शोभा पाती थी; उसी के चौराहे, घर और सड़कें आज सूनी दिखायी देती थीं तथा दरवाजों की किवाड़ें धूलि-धूसर हो रही थीं, उसकी ऐसी दुर्दशा देख भरत पूर्णतः दुःख में निमग्न हो गये॥ ४५ ॥
बभूव पश्यन् मनसोऽप्रियाणि यान्यन्यदा नास्य पुरे बभूवुः।
अवाक्शिरा दीनमना न हृष्टः पितुर्महात्मा प्रविवेश वेश्म॥४६॥
उस नगर में जो पहले कभी नहीं हुई थीं, ऐसी अप्रिय बातों को देखकर महात्मा भरत ने अपना मस्तक नीचे को झुका लिया, उनका हर्ष छिन गया और उन्होंने दीन-हृदयसे पिता के भवन में प्रवेश किया॥ ४६॥
सर्ग ७२
अपश्यंस्तु ततस्तत्र पितरं पितरालये।
जगाम भरतो द्रष्टुं मातरं मातुरालये॥१॥
तदनन्तर पिता के घर में पिता को न देखकर भरत माता का दर्शन करने के लिये अपनी माता के महल में गये॥१॥
अनुप्राप्तं तु तं दृष्ट्वा कैकेयी प्रोषितं सुतम्।
उत्पपात तदा हृष्टा त्यक्त्वा सौवर्णमासनम्॥२॥
अपने परदेश गये हुए पुत्र को घर आया देख उस समय कैकेयी हर्ष से भर गयी और अपने सुवर्णमय आसन को छोड़ उछलकर खड़ी हो गयी॥२॥
स प्रविश्यैव धर्मात्मा स्वगृहं श्रीविवर्जितम्।
भरतः प्रेक्ष्य जग्राह जनन्याश्चरणौ शुभौ॥३॥
धर्मात्मा भरत ने अपने उस घर में प्रवेश करके देखा कि सारा घर श्रीहीन हो रहा है, फिर उन्होंने माता के शुभ चरणों का स्पर्श किया॥३॥
तं मूर्ध्नि समुपाघ्राय परिष्वज्य यशस्विनम्।
अङ्के भरतमारोप्य प्रष्टुं समुपचक्रमे॥४॥
अपने यशस्वी पुत्र भरत को छाती से लगाकर कैकेयी ने उनका मस्तक सँघा और उन्हें गोद में बिठाकर पूछना आरम्भ किया— ॥ ४॥
अद्य ते कतिचिद् रात्र्यश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः।
अपि नाध्वश्रमः शीघ्रं रथेनापततस्तव॥५॥
‘बेटा ! तुम्हें अपने नाना के घर से चले आज कितनी रातें व्यतीत हो गयीं? तुम रथ के द्वारा बड़ी शीघ्रता के साथ आये हो। रास्ते में तुम्हें अधिक थकावट तो नहीं हुई? ॥ ५॥
आर्यकस्ते सुकुशली युधाजिन्मातुलस्तव।
प्रवासाच्च सुखं पुत्र सर्वं मे वक्तुमर्हसि॥६॥
‘तुम्हारे नाना सकुशल तो हैं न? तुम्हारे मामा युधाजित् तो कुशल से हैं? बेटा ! जब तुम यहाँ से गये थे, तबसे लेकर अबतक सुख से रहे हो न? ये सारी बातें मुझे बताओ’॥६॥
एवं पृष्टस्तु कैकेय्या प्रियं पार्थिवनन्दनः।
आचष्ट भरतः सर्वं मात्रे राजीवलोचनः॥७॥
कैकेयी के इस प्रकार प्रिय वाणी में पूछने पर दशरथनन्दन कमलनयन भरत ने माता को सब बातें बतायीं ॥ ७॥
अद्य मे सप्तमी रात्रिश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः।
अम्बायाः कुशली तातो युधाजिन्मातुलश्च मे॥८॥
(वे बोले-) ‘मा! नाना के घर से चले मेरी यह सातवीं रात बीती है। मेरे नानाजी और मामा युधाजित् भी कुशल से हैं॥ ८॥
यन्मे धनं च रत्नं च ददौ राजा परंतपः।
परिश्रान्तं पथ्यभवत् ततोऽहं पूर्वमागतः॥९॥
राजवाक्यहरैर्दूतैस्त्वर्यमाणोऽहमागतः।
यदहं प्रष्टुमिच्छामि तदम्बा वक्तुमर्हति॥१०॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले केकयनरेश ने मुझे जो धन-रत्न प्रदान किये हैं, उनके भार से मार्ग में सब वाहन थक गये थे, इसलिये मैं राजकीय संदेश लेकर गये हुए दूतों के जल्दी मचाने से यहाँ पहले ही चला आया हूँ। अच्छा माँ, अब मैं जो कुछ पूछता हूँ, उसे तुम बताओ’ ॥ ९-१०॥
शून्योऽयं शयनीयस्ते पर्यङ्को हेमभूषितः।
न चायमिक्ष्वाकुजनः प्रहृष्टः प्रतिभाति मे॥११॥
‘यह तुम्हारी शय्या सुवर्णभूषित पलंग इस समय सूना है, इसका क्या कारण है (आज यहाँ महाराज उपस्थित क्यों नहीं हैं)? ये महाराज के परिजन आज प्रसन्न क्यों नहीं जान पड़ते हैं? ॥ ११॥
राजा भवति भूयिष्ठमहाम्बाया निवेशने।
तमहं नाद्य पश्यामि द्रष्टुमिच्छन्निहागतः॥१२॥
‘महाराज (पिताजी) प्रायः माताजी के ही महल में रहा करते थे, किंतु आज मैं उन्हें यहाँ नहीं देख रहा हूँ। मैं उन्हीं का दर्शन करने की इच्छासे यहाँ आया।
पितुर्ग्रहीष्ये पादौ च तं ममाख्याहि पृच्छतः।
आहोस्विदम्बाज्येष्ठायाः कौसल्याया निवेशने॥ १३॥
‘मैं पूछता हूँ, बताओ, पिताजी कहाँ हैं? मैं उनके पैर पकगा। अथवा बड़ी माता कौसल्याके घरमें तो वे नहीं हैं?’ ॥ १३॥
तं प्रत्युवाच कैकेयी प्रियवद घोरमप्रियम्।
अजानन्तं प्रजानन्ती राज्यलोभेन मोहिता॥१४॥
कैकेयी राज्य के लोभ से मोहित हो रही थी। वह राजा का वृत्तान्त न जानने वाले भरत से उस घोर अप्रिय समाचार को प्रिय-सा समझती हुई इस प्रकार बताने लगी- ॥१४॥
या गतिः सर्वभूतानां तां गतिं ते पिता गतः।
राजा महात्मा तेजस्वी यायजूकः सतां गतिः॥ १५॥
‘बेटा ! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ बड़े महात्मा, तेजस्वी, यज्ञशील और सत्पुरुषों के आश्रयदाता थे। एक दिन समस्त प्राणियों की जो गति होती है, उसी गति को वे भी प्राप्त हुए हैं’ ॥ १५ ॥
तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं धर्माभिजनवाञ्छुचिः।
पपात सहसा भूमौ पितृशोकबलार्दितः॥१६॥
हा हतोऽस्मीति कृपणां दीनां वाचमुदीरयन्।
निपपात महाबाहुर्बाहू विक्षिप्य वीर्यवान्॥१७॥
भरत धार्मिक कुल में उत्पन्न हुए थे और उनका हृदय शुद्ध था। माता की बात सुनकर वे पितृशोक से अत्यन्त पीड़ित हो सहसा पृथ्वी पर गिर पड़े और ‘हाय, मैं मारा गया!’ इस प्रकार अत्यन्त दीन और दुःखमय वचन कहकर रोने लगे। पराक्रमी महाबाहु भरत अपनी भुजाओं को बारम्बार पृथ्वी पर पटककर गिरने और लोटने लगे॥ १६-१७ ॥
ततः शोकेन संवीतः पितुर्मरणदुःखितः।
विललाप महातेजा भ्रान्ताकुलितचेतनः॥१८॥
उन महातेजस्वी राजकुमार की चेतना भ्रान्त और व्याकुल हो गयी। वे पिता की मृत्यु से दुःखी और शोक से व्याकुलचित्त होकर विलाप करने लगे—॥ १८॥
एतत् सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयनं पुरा।
शशिनेवामलं रात्रौ गगनं तोयदात्यये॥१९॥
तदिदं न विभात्यद्य विहीनं तेन धीमता।
व्योमेव शशिना हीनमप्शुष्क इव सागरः॥२०॥
‘हाय! मेरे पिताजी की जो यह अत्यन्त सुन्दर शय्या पहले शरत्काल की रात में चन्द्रमा से सुशोभित होने वाले निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी, वही यह आज उन्हीं बुद्धिमान् महाराज से रहित होकर चन्द्रमा से हीन आकाश और सूखे हुए समुद्र के समान श्रीहीन प्रतीत होती है’॥ १९-२० ॥
बाष्पमुत्सृज्य कण्ठेन स्वात्मना परिपीडितः।
प्रच्छाद्य वदनं श्रीमद् वस्त्रेण जयतां वरः॥२१॥
विजयी वीरों में श्रेष्ठ भरत अपने सुन्दर मुख वस्त्र से ढककर अपने कण्ठस्वर के साथ आँसू गिराकर मन ही-मन अत्यन्त पीड़ित हो पृथ्वी पर पड़कर विलाप करने लगे॥ २१॥
तमार्तं देवसंकाशं समीक्ष्य पतितं भुवि।
निकृत्तमिव सालस्य स्कन्धं परशुना वने॥२२॥
माता मातङ्गसंकाशं चन्द्रार्कसदृशं सुतम्।
उत्थापयित्वा शोकार्तं वचनं चेदमब्रवीत्॥२३॥
देवतुल्य भरत शो कसे व्याकुल हो वन में फरसे से काटे गये साखू के तने की भाँति पृथ्वी पर पड़े थे, मतवाले हाथी के समान पुष्ट तथा चन्द्रमा या सूर्य के समान तेजस्वी अपने शोकाकुल पुत्र को इस तरह भूमि पर पड़ा देख माता कैकेयी ने उन्हें उठाया और इस प्रकार कहा— ॥ २२-२३॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे राजन्नत्र महायशः।
त्वद्विधा नहि शोचन्ति सन्तः सदसि सम्मताः॥ २४॥
‘राजन् ! उठो! उठो! महायशस्वी कुमार! तुम इस तरह यहाँ धरती पर क्यों पड़े हो? तुम्हारे-जैसे सभाओं में सम्मानित होने वाले सत्पुरुष शोक नहीं किया करते हैं।॥ २४॥
दानयज्ञाधिकारा हि शीलश्रुतितपोनुगा।
बुद्धिस्ते बुद्धिसम्पन्न प्रभेवार्कस्य मन्दिरे॥२५॥
‘बुद्धिसम्पन्न पुत्र! जैसे सूर्यमण्डल में प्रभा निश्चल रूप से रहती है, उसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि सुस्थिर है। वह दान और यज्ञ में लगने की अधिकारिणी है; क्योंकि सदाचार और वेदवाक्यों का अनुसरण करने वाली है’॥ २५॥
सरुदित्वा चिरं कालं भूमौ परिविवृत्य च।
जननीं प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहुभिरावृतः॥२६॥
भरत पृथ्वी पर लोटते-पोटते बहुत देर तक रोते रहे। तत्पश्चात् अधिकाधिक शोक से आकुल होकर वे माता से इस प्रकार बोले- ॥ २६ ॥
अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते।
इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्॥ २७॥
‘मैंने तो यह सोचा था कि महाराज श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और स्वयं यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे —यही सोचकर मैंने बड़े हर् षके साथ वहाँ से यात्रा की थी॥२७॥
तदिदं ह्यन्यथाभूतं व्यवदीर्णं मनो मम।
पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम्॥ २८॥
‘किंतु यहाँ आने पर सारी बातें मेरी आशा के विपरीत हो गयीं। मेरा हृदय फटा जा रहा है; क्योंकि सदा अपने प्रिय और हित में लगे रहने वाले पिताजी को मैं नहीं देख रहा हूँ॥२८॥
अम्ब केनात्यगाद् राजा व्याधिना मय्यनागते।
धन्या रामादयः सर्वे यैः पिता संस्कृतः स्वयम्॥२९॥
‘मा! महाराज को ऐसा कौन-सा रोग हो गया था, जिससे वे मेरे आने के पहले ही चल बसे? श्रीराम आदि सब भाई धन्य हैं, जिन्होंने स्वयं उपस्थित रहकर पिताजी का अन्त्येष्टि-संस्कार किया॥२९॥
न नूनं मां महाराजः प्राप्तं जानाति कीर्तिमान्।
उपजिभ्रेत् तु मां मूर्ध्नि तातः संनाम्य सत्वरम्॥ ३०॥
निश्चय ही मेरे पूज्य पिता यशस्वी महाराज को मेरे यहाँ आने का कुछ पता नहीं है, अन्यथा वे शीघ्र ही मेरे मस्तक को झुकाकर उसे प्यार से सूंघते॥ ३० ॥
क्व स पाणिः सुखस्पर्शस्तातस्याक्लिष्टकर्मणः।
यो हि मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमार्जति॥ ३१॥
‘हा! अनायास ही महान् कर्म करने वाले मेरे पिता का वह कोमल हाथ कहाँ है, जिसका स्पर्श मेरे लिये बहुत ही सुखदायक था? वे उसी हाथ से मेरे धूलिधूसर शरीर को बारंबार पोंछा करते थे॥ ३१ ॥
यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि सम्मतः।
तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्टकर्मणः॥ ३२॥
‘अब जो मेरे भाई, पिता और बन्धु हैं तथा जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले उन श्रीरामचन्द्रजी को तुम शीघ्र ही मेरे आने की सूचना दो॥ ३२॥
पिता हि भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः।
तस्य पादौ ग्रहीष्यामि स हीदानीं गतिर्मम॥३३॥
‘धर्म के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष के लिये बड़ा भाई पिता के समान होता है। मैं उनके चरणों में प्रणाम करूँगा। अब वे ही मेरे आश्रय हैं॥ ३३॥
धर्मविद् धर्मशीलश्च महाभागो दृढव्रतः।
आर्ये किमब्रवीद राजा पिता मे सत्यविक्रमः॥ ३४॥
पश्चिमं साधुसंदेशमिच्छामि श्रोतुमात्मनः।
‘आर्ये! धर्म का आचरण जिनका स्वभाव बन गया था तथा जो बड़ी दृढ़ता के साथ उत्तम व्रत का पालन करते थे, वे मेरे सत्यपराक्रमी और धर्मज्ञ पिता महाराज दशरथ अन्तिम समय में क्या कह गये थे? मेरे लिये जो उनका अन्तिम संदेश हो उसे मैं सुनना चाहता हूँ’॥ ३४ १/२॥
इति पृष्टा यथातत्त्वं कैकेयी वाक्यमब्रवीत्॥ ३५॥
रामेति राजा विलपन् हा सीते लक्ष्मणेति च।
स महात्मा परं लोकं गतो मतिमतां वरः॥ ३६॥
भरत के इस प्रकार पूछने पर कैकेयी ने सब बात ठीक-ठीक बता दी। वह कहने लगी—’बेटा! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तुम्हारे महात्मा पिता महाराजने ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ इस प्रकार विलाप करते हुए परलोक की यात्रा की थी॥ ३५-३६ ॥
इतीमा पश्चिमां वाचं व्याजहार पिता तव।
कालधर्मं परिक्षिप्तः पाशैरिव महागजः॥ ३७॥
‘जैसे पाशों से बँधा हुआ महान् गज विवश हो जाता है, उसी प्रकार कालधर्म के वशीभूत हुए तुम्हारे पिता ने अन्तिम वचन इस प्रकार कहा था- ॥ ३७॥
सिद्धार्थास्तु नरा राममागतं सह सीतया।
लक्ष्मणं च महाबाहुं द्रक्ष्यन्ति पुनरागतम्॥३८॥
‘जो लोग सीता के साथ पुनः लौटकर आये हुए महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मण को देखेंगे, वे ही कृतार्थ होंगे।
तच्छ्रुत्वा विषसादैव द्वितीयाप्रियशंसनात्।
विषण्णवदनो भूत्वा भूयः पप्रच्छ मातरम्॥ ३९॥
माता के द्वारा यह दूसरी अप्रिय बात कही जाने पर भरत और भी दुःखी ही हुए। उनके मुखपर विषाद छा गया और उन्होंने पुनः माता से पूछा- ॥३९॥
क्व चेदानीं स धर्मात्मा कौसल्यानन्दवर्धनः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया च समागतः॥४०॥
मा! माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी इस अवसर पर भाई लक्ष्मण और सीता के साथ कहाँ चले गये हैं?’ ॥ ४० ॥
तथा पृष्टा यथान्यायमाख्यातुमुपचक्रमे।
मातास्य युगपद्वाक्यं विप्रियं प्रियशंसया॥४१॥
इस प्रकार पूछने पर उनकी माता कैकेयी ने एक साथ ही प्रिय बुद्धि से वह अप्रिय संवाद यथोचित रीति से सुनाना आरम्भ किया— ॥४१॥
स हि राजसुतः पुत्र चीरवासा महावनम्।
दण्डकान् सह वैदेह्या लक्ष्मणानुचरो गतः॥ ४२॥
‘बेटा! राजकुमार श्रीराम वल्कल-वस्त्र धारण करके सीता के साथ दण्डक वन में चले गये हैं। लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया है’ । ४२॥
तच्छ्रुत्वा भरतस्त्रस्तो भ्रातुश्चारित्रशङ्कया।
स्वस्य वंशस्य माहात्म्यात् प्रष्टं समुपचक्रमे॥ ४३॥
यह सुनकर भरत डर गये, उन्हें अपने भाई के चरित्र पर शङ्का हो आयी। (वे सोचने लगे—श्रीराम कहीं धर्म से गिर तो नहीं गये?) अपने वंश की महत्ता (धर्मपरायणता) का स्मरण करके वे कैकेयी से इस प्रकार पूछने लगे- ॥ ४३॥
कच्चिन्न ब्राह्मणधनं हृतं रामेण कस्यचित्।
कच्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः॥ ४४॥
‘मा! श्रीराम ने किसी कारण वश ब्राह्मण का धन तो नहीं हर लिया था? किसी निष्पाप धनी या दरिद्र की हत्या तो नहीं कर डाली थी? ॥ ४४ ॥
कच्चिन्न परदारान् वा राजपुत्रोऽभिमन्यते।
कस्मात् स दण्डकारण्ये भ्राता रामो विवासितः॥ ४५॥
‘राजकुमार श्रीराम का मन किसी परायी स्त्री की ओर तो नहीं चला गया? किस अपराध के कारण भैया श्रीराम को दण्डकारण्य में जाने के लिये निर्वासित कर दिया गया है?’॥ ४५ ॥
अथास्य चपला माता तत् स्वकर्म यथातथम्।
तेनैव स्त्रीस्वभावेन व्याहर्तुमुपचक्रमे॥ ४६॥
तब चपल स्वभाववाली भरत की माता कैकेयी ने उस विवेकशून्य चञ्चल नारी स्वभाव के कारण ही अपनी करतूत को ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया। ४६॥
एवमुक्ता तु कैकेयी भरतेन महात्मना।
उवाच वचनं हृष्टा वृथापण्डितमानिनी॥४७॥
महात्मा भरत के पूर्वोक्त रूप से पूछने पर व्यर्थ ही अपने को बड़ी विदुषी मानने वाली कैकेयी ने बडे हर् षमें भरकर कहा- ॥ ४७॥
न ब्राह्मणधनं किंचिद्धृतं रामेण कस्यचित्।
कश्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः।
न रामः परदारान् स चक्षुामपि पश्यति॥ ४८॥
‘बेटा! श्रीराम ने किसी कारण वश किञ्चिन्मात्र भी ब्राह्मण के धन का अपहरण नहीं किया है। किसी निरपराध धनी या दरिद्र की हत्या भी उन्होंने नहीं की है। श्रीराम कभी किसी परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं डालते हैं। ४८॥
मया तु पुत्र श्रुत्वैव रामस्येहाभिषेचनम्।
याचितस्ते पिता राज्यं रामस्य च विवासनम्॥ ४९॥
बेटा! (उनके वन में जाने का कारण इस प्रकार है)—मैंने सुना था कि अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा है, तब मैंने तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिये राज्य और श्रीराम के लिये वनवास की प्रार्थना की॥ ४९॥
स स्ववृत्तिं समास्थाय पिता ते तत् तथाकरोत्।
रामस्त सहसौमित्रिः प्रेषितः सह सीतया॥५०॥
तमपश्यन् प्रियं पुत्रं महीपालो महायशाः।
पुत्रशोकपरिघुनः पञ्चत्वमुपपेदिवान्॥५१॥
‘उन्होंने अपने सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के अनुसार मेरी माँग पूरी की। श्रीराम लक्ष्मण और सीता के साथ वन को भेज दिये गये, फिर अपने प्रिय पुत्र श्रीराम को न देखकर वे महायशस्वी महाराज पुत्रशोक से पीड़ित हो परलोकवासी हो गये। ५०-५१॥
त्वया त्विदानीं धर्मज्ञ राजत्वमवलम्ब्यताम्।
त्वत्कृते हि मया सर्वमिदमेवंविधं कृतम्॥५२॥
‘धर्मज्ञ! अब तुम राजपद स्वीकार करो। तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकार से यह सब कुछ किया है। ५२॥
मा शोकं मा च संतापं धैर्यमाश्रय पुत्रक।
त्वदधीना हि नगरी राज्यं चैतदनामयम्॥५३॥
‘बेटा! शोक और संताप न करो, धैर्य का आश्रय लो। अब यह नगर और निष्कण्टक राज्य तुम्हारे ही अधीन है॥
तत् पुत्र शीघ्रं विधिना विधिज्ञैर्वसिष्ठमुख्यैः सहितो द्विजेन्द्रैः।
संकाल्य राजानमदीनसत्त्वमात्मानमुामभिषेचयस्व॥५४॥
‘अतः वत्स! अब विधि-विधान के ज्ञाता वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों के साथ तुम उदार हृदय वाले महाराज का अन्त्येष्टि-संस्कार करके इस पृथ्वी के राज्य पर अपना अभिषेक कराओ’ ॥ ५४॥
सर्ग ७३
श्रुत्वा च स पितुर्वृत्तं भ्रातरौ च विवासितौ।
भरतो दुःखसंतप्त इदं वचनमब्रवीत्॥१॥
पिता के परलोकवास और दोनों भाइयों के वनवास का समाचार सुनकर भरत दुःख से संतप्त हो उठे और इस प्रकार बोले- ॥१॥
किं नु कार्यं हतस्येह मम राज्येन शोचतः।
विहीनस्याथ पित्रा च भ्रात्रा पितृसमेन च॥२॥
‘हाय! तूने मुझे मार डाला। मैं पिता से सदा के लिये बिछुड़ गया और पितृतुल्य बड़े भाई से भी बिलग हो गया। अब तो मैं शोक में डूब रहा हूँ, मुझे यहाँ राज्य लेकर क्या करना है? ॥ २॥
दुःखे मे दुःखमकरोणे क्षारमिवाददाः।
राजानं प्रेतभावस्थं कृत्वा रामं च तापसम्॥३॥
‘तूने राजा को परलोकवासी तथा श्रीराम को तपस्वी बनाकर मुझे दुःख-पर-दुःख दिया है, घाव पर नमक सा छिड़क दिया है॥३॥
कुलस्य त्वमभावाय कालरात्रिरिवागता।
अङ्गारमुपगृह्य स्म पिता मे नावबुद्धवान्॥४॥
‘तू इस कुल का विनाश करने के लिये कालरात्रि बनकर आयी थी। मेरे पिता ने तुझे अपनी पत्नी क्या बनाया, दहकते हुए अङ्गार को हृदय से लगा लिया था; किंतु उस समय यह बात उनकी समझ में नहीं आयी थी॥ ४॥
मृत्युमापादितो राजा त्वया मे पापदर्शिनि।
सुखं परिहृतं मोहात् कुलेऽस्मिन् कुलपांसनि॥
‘पाप पर ही दृष्टि रखनेवाली! कुलकलङ्किनी! तूने मेरे महाराज को काल के गाल में डाल दिया और मोहवश इस कुल का सुख सदा के लिये छीन लिया। ५॥
त्वां प्राप्य हि पिता मेऽद्य सत्यसंधो महायशाः।
तीव्रदुःखाभिसंतप्तो वृत्तो दशरथो नृपः॥६॥
‘तुझे पाकर मेरे सत्यप्रतिज्ञ महायशस्वी पिता महाराज दशरथ इन दिनों दुःसह दुःख से संतप्त होकर प्राण त्यागने को विवश हुए हैं॥ ६॥
विनाशितो महाराजः पिता मे धर्मवत्सलः।
कस्मात् प्रव्राजितो रामः कस्मादेव वनं गतः॥ ७॥
‘बता, तूने मेरे धर्मवत्सल पिता महाराज दशरथ का विनाश क्यों किया? मेरे बड़े भाई श्रीराम को क्यों घर से निकाला और वे भी क्यों (तेरे ही कहने से) वन को चले गये? ॥ ७॥
कौसल्या च सुमित्रा च पुत्रशोकाभिपीडिते।
दुष्करं यदि जीवेतां प्राप्य त्वां जननीं मम॥८॥
‘कौसल्या और सुमित्रा भी मेरी माता कहलाने वाली तुझ कैकेयी को पाकर पुत्रशोक से पीड़ित हो गयीं। अब उनका जीवित रहना अत्यन्त कठिन है॥८॥
नन्वार्योऽपि च धर्मात्मा त्वयि वृत्तिमनुत्तमाम्।
वर्तते गुरुवृत्तिज्ञो यथा मातरि वर्तते॥९॥
‘बड़े भैया श्रीराम धर्मात्मा हैं; गुरुजनों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये—इसे वे अच्छी तरह जानते हैं, इसलिये उनका अपनी माता के प्रति जैसा बर्ताव था, वैसा ही उत्तम व्यवहार वे तेरे साथ भी करते थे॥९॥
तथा ज्येष्ठा हि मे माता कौसल्या दीर्घदर्शिनी।
त्वयि धर्मं समास्थाय भगिन्यामिव वर्तते॥१०॥
‘मेरी बड़ी माता कौसल्या भी बड़ी दूरदर्शिनी हैं। वे धर्म का ही आश्रय लेकर तेरे साथ बहिन का-सा बर्ताव करती हैं ॥ १०॥
तस्याः पुत्रं महात्मानं चीरवल्कलवाससम्।
प्रस्थाप्य वनवासाय कथं पापे न शोचसे॥११॥
‘पापिनि! उनके महात्मा पुत्र को चीर और वल्कल पहनाकर तूने वन में रहने के लिये भेज दिया। फिर भी तुझे शोक क्यों नहीं हो रहा है।॥ ११॥
अपापदर्शिनं शूरं कृतात्मानं यशस्विनम्।
प्रव्राज्य चीरवसनं किं नु पश्यसि कारणम्॥ १२॥
‘श्रीराम किसी की बुराई नहीं देखते। वे शूरवीर, पवित्रात्मा और यशस्वी हैं। उन्हें चीर पहनाकर वनवास दे देने में तू कौन-सा लाभ देख रही है ? ॥ १२॥
लुब्धाया विदितो मन्ये न तेऽहं राघवं यथा।
तथा ह्यनर्थो राज्यार्थं त्वयाऽऽनीतो महानयम्॥ १३॥
‘तू लोभिन है। मैं समझता हूँ, इसीलिये तुझे यह पता नहीं है कि मेरा श्रीरामचन्द्रजी के प्रति कैसा भावहै, तभी तूने राज्य के लिये यह महान् अनर्थ कर डाला है॥ १३॥
अहं हि पुरुषव्याघ्रावपश्यन् रामलक्ष्मणौ।
केन शक्तिप्रभावेण राज्यं रक्षितमुत्सहे॥१४॥
‘मैं पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण को न देखकर किस शक्ति के प्रभाव से इस राज्य की रक्षा कर सकता हूँ ? (मेरे बल तो मेरे भाई ही हैं)॥ १४ ॥
तं हि नित्यं महाराजो बलवन्तं महौजसम्।
उपाश्रितोऽभूद् धर्मात्मा मेरुर्मेरुवनं यथा॥१५॥
‘मेरे धर्मात्मा पिता महाराज दशरथ भी सदा उनमहातेजस्वी बलवान् श्रीराम का ही आश्रय लेते थे । (उन्हीं से अपने लोक-परलोक की सिद्धि की आशा रखते थे), ठीक उसी तरह जैसे मेरु पर्वत अपनी रक्षा के लिये अपने ऊपर उत्पन्न हुए गहन वन का ही आश्रय लेता है (यदि वह दुर्गम वन से घिरा हुआ न हो तो दूसरे लोग निश्चय ही उस पर आक्रमण कर सकते हैं)॥ १५॥
सोऽहं कथमिमं भारं महाधुर्यसमुद्यतम्।
दम्यो धुरमिवासाद्य सहेयं केन चौजसा॥१६॥
‘यह राज्य का भार, जिसे किसी महाधुरंधर ने धारण किया था, मैं कैसे, किस बल से धारण कर सकताहूँ? जैसे कोई छोटा-सा बछड़ा बड़े-बड़े बैलों द्वारा ढोये जाने योग्य महान् भार को नहीं खींच सकता, उसी प्रकार यह राज्य का महान् भार मेरे लिये असह्य है। १६॥
अथवा मे भवेच्छक्तिर्योगैर्बुद्धिबलेन वा।
सकामां न करिष्यामि त्वामहं पुत्रगर्द्धिनीम्॥ १७॥
‘अथवा नाना प्रकार के उपायों तथा बुद्धिबल से मुझमें राज्य के भरण-पोषण की शक्ति हो तो भी केवल अपने बेटे के लिये राज्य चाहने वाली तुझ कैकेयी की मनःकामना पूरी नहीं होने दूंगा॥ १७॥
न मे विकांक्षा जायेत त्यक्तुं त्वां पापनिश्चयाम्।
यदि रामस्य नावेक्षा त्वयि स्यान्मातृवत् सदा॥ १८॥
‘यदि श्रीराम तुझे सदा अपनी माता के समान नहीं देखते होते तो तेरी-जैसी पापपूर्ण विचारवाली माता का त्याग करने में मुझे तनिक भी हिचक नहीं होती। १८॥
उत्पन्ना तु कथं बुद्धिस्तवेयं पापदर्शिनी।
साधुचारित्रविभ्रष्टे पूर्वेषां नो विगर्हिता॥१९॥
‘उत्तम चरित्र से गिरी हुई पापिनि! मेरे पूर्वजों ने जिसकी सदा निन्दा की है, वह पापपर ही दृष्टि रखने वाली बुद्धि तुझमें कैसे उत्पन्न हो गयी? ॥ १९॥
अस्मिन् कुले हि सर्वेषां ज्येष्ठो राज्येऽभिषिच्यते।
अपरे भ्रातरस्तस्मिन् प्रवर्तन्ते समाहिताः॥२०॥
‘इस कुल में जो सबसे बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक होता है; दूसरे भाई सावधानी के साथ बड़े की आज्ञा के अधीन रहकर कार्य करते हैं॥ २० ॥
न हि मन्ये नृशंसे त्वं राजधर्ममवेक्षसे।
गतिं वा न विजानासि राजवृत्तस्य शाश्वतीम्॥ २१॥
‘क्रूर स्वभाववाली कैकेयि! मेरी समझ में तू राजधर्म पर दृष्टि नहीं रखती है अथवा उसे बिलकुल नहीं जानती। राजाओं के बर्ताव का जो सनातन स्वरूप है, उसका भी तुझे ज्ञान नहीं है ॥२१॥
सततं राजपुत्रेषु ज्येष्ठो राजाभिषिच्यते।
राज्ञामेतत् समं तत् स्यादिक्ष्वाकूणां विशेषतः॥ २२॥
‘राजकुमारों में जो ज्येष्ठ होता है, सदा उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाता है। सभी राजाओं के यहाँ समान रूप से इस नियम का पालन होता है। इक्ष्वाकुवंशी नरेशों के कुल में इसका विशेष आदर है॥ २२॥
तेषां धर्मैकरक्षाणां कुलचारित्रशोभिनाम्।
अद्य चारित्रशौटीर्यं त्वां प्राप्य विनिवर्तितम्॥ २३॥
‘जिनकी एकमात्र धर्म से ही रक्षा होती आयी है तथा जो कुलोचित सदाचार के पालन से ही सुशोभितहुए हैं, उनका यह चरित्रविषयक अभियान आज तुझे पाकर तेरे सम्बन्ध के कारण दूर हो गया॥ २३॥
तवापि सुमहाभागे जनेन्द्रकुलपूर्वके।
बुद्धिमोहः कथमयं सम्भूतस्त्वयि गर्हितः॥ २४॥
‘महाभागे! तेरा जन्म भी तो महाराज केकयके कुलमें हुआ है, फिर तेरे हृदयमें यह निन्दित बुद्धिमोह कैसे उत्पन्न हो गया? ॥ २४ ॥
न तु कामं करिष्यामि तवाहं पापनिश्चये।
यया व्यसनमारब्धं जीवितान्तकरं मम॥२५॥
‘अरी! तेरा विचार बडा ही पापपूर्ण है। मैं तेरी इच्छा कदापि नहीं पूर्ण करूँगा। तूने मेरे लिये उस विपत् तिकी नींव डाल दी है, जो मेरे प्राण तक ले सकती है॥ २५॥
एष त्विदानीमेवाहमप्रियार्थं तवानघम्।
निवर्तयिष्यामि वनाद भ्रातरं स्वजनप्रियम्॥२६॥
‘यह ले, मैं अभी तेरा अप्रिय करने के लिये तुल गया हूँ। मैं वन से निष्पाप भ्राता श्रीराम को, जो स्वजनों के प्रिय हैं, लौटा लाऊँगा॥ २६॥
निवर्तयित्वा रामं च तस्याहं दीप्ततेजसः।
दासभूतो भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना ॥२७॥
श्रीराम को लौटा लाकर उद्दीप्त तेज वाले उन्हीं महापुरुष का दास बनकर स्वस्थचित्त से जीवन व्यतीत करूँगा’॥ २७॥
इत्येवमुक्त्वा भरतो महात्मा प्रियेतरैर्वाक्यगणैस्तुदंस्ताम्।
शोकार्दितश्चापि ननाद भूयः सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः॥२८॥
ऐसा कहकर महात्मा भरत शोक से पीड़ित हो पुनः जली-कटी बातों से कैकेयी को व्यथित करते हुए उसे जोर-जोरसे फटकारने लगे, मानो मन्दराचल की गुहा में बैठा हुआ सिंह गरज रहा हो॥२८॥
सर्ग ७४
तां तथा गर्हयित्वा तु मातरं भरतस्तदा।
रोषेण महताविष्टः पुनरेवाब्रवीद् वचः॥१॥
इस प्रकार माता की निन्दा करके भरत उस समय महान् रोषावेश से भर गये और फिर कठोर वाणी में कहने लगे- ॥१॥
राज्याद भ्रंशस्व कैकेयि नृशंसे दुष्टचारिणि।
परित्यक्तासि धर्मेण मा मृतं रुदती भव॥२॥
‘दृष्टतापूर्ण बर्ताव करने वाली क्रूरहृदया कैकेयि! तू राज्य से भ्रष्ट हो जा। धर्म ने तेरा परित्याग कर दिया है, अतः अब तू मरे हुए महाराज के लिये रोना मत, (क्योंकि तू पत्नीधर्म से गिर चुकी है) अथवा मुझे मरा हुआ समझकर तू जन्मभर पुत्र के लिये रोया कर॥२॥
किं नु तेऽदूषयद् रामो राजा वा भृशधार्मिकः।
ययोर्मृत्युर्विवासश्च त्वत्कृते तुल्यमागतौ॥ ३॥
‘श्रीराम ने अथवा अत्यन्त धर्मात्मा महाराज (पिताजी) ने तेरा क्या बिगाड़ा था, जिससे एक साथ ही उन्हें तुम्हारे कारण वनवास और मृत्यु का कष्ट भोगना पड़ा? ॥३॥
भ्रूणहत्यामसि प्राप्ता कुलस्यास्य विनाशनात्।
कैकेयि नरकं गच्छ मा च तातसलोकताम्॥४॥
कैकेयि! तूने इस कुल का विनाश करने के कारण भ्रूणहत्या का पाप अपने सिर पर लिया है, इसलिये तू नरक में जा और पिताजी का लोक तुझे न मिले ॥४॥
यत्त्वया हीदृशं पापं कृतं घोरेण कर्मणा।
सर्वलोकप्रियं हित्वा ममाप्यापादितं भयम्॥५॥
‘तूने इस घोर कर्म के द्वारा समस्त लोकों के प्रिय श्रीराम को देशनिकाला देकर जो ऐसा बड़ा पापकिया है, उसने मेरे लिये भी भय उपस्थित कर दिया है॥५॥
त्वत्कृते मे पिता वृत्तो रामश्चारण्यमाश्रितः।
अयशो जीवलोके च त्वयाहं प्रतिपादितः॥६॥
‘तेरे कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई, श्रीराम को वन का आश्रय लेना पड़ा और मुझे भी तूने इस जीवजगत् में अपयश का भागी बना दिया॥६॥
मातृरूपे ममामित्रे नृशंसे राज्यकामुके।
न तेऽहमभिभाष्योऽस्मि दुर्वृत्ते पतिघातिनि॥७॥
‘राज्य के लोभ में पड़कर क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाली दुराचारिणी पतिघातिनि! तू माता के रूप में मेरी शत्रु है। तुझे मुझसे बात नहीं करनी चाहिये॥७॥
कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या मम मातरः।
दुःखेन महताविष्टास्त्वां प्राप्य कुलदूषिणीम्॥ ८॥
‘कौसल्या, सुमित्रा तथा जो अन्य मेरी माताएँ हैं, वे सब तुझ कुलकलङ्किनी के कारण महान् दुःख में पड़ गयी हैं॥८॥
न त्वमश्वपतेः कन्या धर्मराजस्य धीमतः।
राक्षसी तत्र जातासि कुलप्रध्वंसिनी पितुः॥९॥
‘तू बुद्धिमान् धर्मराज अश्वपति की कन्या नहीं है। तू उनके कुल में कोई राक्षसी पैदा हो गयी है, जो पिता के वंश का विध्वंस करने वाली है॥९॥
यत् त्वया धार्मिको रामो नित्यं सत्यपरायणः।
वनं प्रस्थापितो वीरः पितापि त्रिदिवं गतः॥ १०॥
यत् प्रधानासि तत् पापं मयि पित्रा विना कृते।
भ्रातृभ्यां च परित्यक्ते सर्वलोकस्य चाप्रिये॥
‘तूने सदा सत्य में तत्पर रहने वाले धर्मात्मा वीर श्रीराम को जो वन में भेज दिया और तेरे कारण जो मेरे पिता स्वर्गवासी हो गये, इन सब कुकृत्यों द्वारा तूने प्रधान रूप से जिस पाप का अर्जन किया है, वह पाप मुझमें आकर अपना फल दिखा रहा है; इसलिये मैं पितृहीन हो गया, अपने दो भाइयों से बिछुड़ गया और समस्त जगत् के लोगों के लिये अप्रिय बन गया॥ १०-११॥
कौसल्यां धर्मसंयुक्तां वियुक्तां पापनिश्चये।
कृत्वा कं प्राप्स्यसे ह्यद्य लोकं निरयगामिनि॥ १२॥
‘पापपूर्ण विचार रखने वाली नरकगामिनी कैकेयि ! धर्मपरायणा माता कौसल्या को पति और पुत्र से वञ्चित करके अब तू किस लोक में जायगी? ॥ १२ ॥
किं नावबुध्यसे क्रूरे नियतं बन्धुसंश्रयम्।
ज्येष्ठं पितृसमं रामं कौसल्यायात्मसम्भवम्॥ १३॥
‘क्रूरहृदये! कौसल्यापुत्र श्रीराम मेरे बड़े भाई और पिता के तुल्य हैं। वे जितेन्द्रिय और बन्धुओं के आश्रयदाता हैं। क्या तू उन्हें इस रूप में नहीं जानती है? ॥ १३॥
अङ्गप्रत्यङ्गजः पुत्रो हृदयाच्चाभिजायते।
तस्मात् प्रियतरो मातुः प्रिया एव तु बान्धवाः॥ १४॥
‘पुत्र माता के अङ्ग-प्रत्यङ्ग और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये वह माता को अधिक प्रिय होता है।अन्य भाई-बन्धु केवल प्रिय ही होते हैं (किंतु पुत्र प्रियतर होता है) ॥ १४॥
अन्यदा किल धर्मज्ञा सुरभिः सुरसम्मता।
वहमानौ ददर्शोर्त्यां पुत्रौ विगतचेतसौ॥१५॥
‘एक समय की बात है कि धर्म को जानने वाली देव-सम्मानित सुरभि (कामधेनु) ने पृथ्वी पर अपने दो पुत्रों को देखा, जो हल जोतते-जोतते अचेत हो गये थे॥ १५॥
तावर्धदिवसं श्रान्तौ दृष्ट्वा पुत्रौ महीतले।
रुरोद पुत्रशोकेन बाष्पपर्याकुलेक्षणम्॥१६॥
‘मध्याह्न का समय होने तक लगातार हल जोतने से वे बहुत थक गये थे। पृथ्वी पर अपने उन दोनों पुत्रों को ऐसी दुर्दशा में पड़ा देख सुरभि पुत्रशोक से रोने लगी। उसके नेत्रों में आँसू उमड़ आये॥१६॥
अधस्ताद् व्रजतस्तस्याः सुरराज्ञो महात्मनः।
बिन्दवः पतिता गात्रे सूक्ष्माः सुरभिगन्धिनः॥ १७॥
‘उसी समय महात्मा देवराज इन्द्र सुरभि के नीचे से होकर कहीं जा रहे थे। उनके शरीर पर कामधेनु के दो बूंद सुगन्धित आँसू गिर पड़े॥१७॥
निरीक्षमाणस्तां शक्रो ददर्श सुरभिं स्थिताम्।
आकाशे विष्ठितां दीनां रुदतीं भृशदुःखिताम्॥१८॥
‘जब इन्द्र ने ऊपर दृष्टि डाली, तब देखा आकाश में सुरभि खड़ी हैं और अत्यन्त दुःखी हो दीनभाव से रो रही हैं॥ १८॥
तां दृष्ट्वा शोकसंतप्तां वज्रपाणिर्यशस्विनीम्।
इन्द्रः प्राञ्जलिरुद्विग्नः सुरराजोऽब्रवीद् वचः॥ १९॥
‘यशस्विनी सुरभि को शोक से संतप्त हुई देख वज्रधारी देवराज इन्द्र उद्विग्न हो उठे और हाथ जोड़कर बोले- ॥ १९॥
भयं कच्चिन्न चास्मासु कुतश्चिद विद्यते महत्।
कुतोनिमित्तः शोकस्ते ब्रूहि सर्वहितैषिणि॥२०॥
‘सबका हित चाहने वाली देवि! हमलोगों पर कहीं से कोई महान् भय तो नहीं उपस्थित हआ है? बताओ, किस कारण से तुम्हें यह शोक प्राप्त हुआ है ? ॥ २० ॥
एवमुक्ता तु सुरभिः सुरराजेन धीमता।
प्रत्युवाच ततो धीरा वाक्यं वाक्यविशारदा॥ २१॥
‘बुद्धिमान् देवराज इन्द्र के इस प्रकार पूछने पर बोलने में चतुर और धीर स्वभाव वाली सुरभि ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२१॥
शान्तं पापं न वः किंचित् कुतश्चिदमराधिप।
अहं तु मग्नौ शोचामि स्व पत्रौ विषमे स्थितौ॥ २२॥
‘देवेश्वर! पाप शान्त हो। तुमलोगों पर कहीं से कोई भय नहीं है। मैं तो अपने इन दोनों पुत्रों को विषम अवस्था (घोर सङ्कट) में मग्न हुआ देख शोक कर रही हूँ॥ २२ ॥
एतौ दृष्ट्वा कृशौ दीनौ सूर्यरश्मिप्रतापितौ।
वध्यमानौ बलीवर्दी कर्षकेण दरात्मना॥२३॥
‘ये दोनों बैल अत्यन्त दुर्बल और दुःखी हैं, सूर्य की किरणों से बहुत तप गये हैं और ऊपर से वह दुष्ट किसान इन्हें पीट रहा है ॥ २३॥
मम कायात् प्रसूतौ हि दुःखितौ भारपीडितौ।
यौ दृष्ट्वा परितप्येऽहं नास्ति पुत्रसमः प्रियः॥ २४॥
‘मेरे शरीर से इनकी उत्पत्ति हुई है। ये दोनों भार से पीड़ित और दुःखी हैं, इसीलिये इन्हें देखकर मैं शोक से संतप्त हो रही हूँ; क्योंकि पुत्र के समान प्रिय दूसरा कोई नहीं है’॥ २४॥
यस्याः पुत्रसहस्रेस्तु कृत्स्नं व्याप्तमिदं जगत्।
तां दृष्ट्वा रुदतीं शक्रो न सुतान् मन्यते परम्॥ २५॥
‘जिनके सहस्रों पुत्रों से यह सारा जगत् भरा हुआ है, उन्हीं कामधेनु को इस तरह रोती देख इन्द्र ने यह माना कि पुत्र से बढ़कर और कोई नहीं है।॥ २५ ॥
इन्द्रो ह्यश्रुनिपातं तं स्वगात्रे पुण्यगन्धिनम्।
सुरभिं मन्यते दृष्ट्वा भूयसी तामिहेश्वरः॥२६॥
‘देवेश्वर इन्द्र ने अपने शरीर पर उस पवित्र गन्धवाले अश्रुपात को देखकर देवी सुरभि को इस जगत् में सबसे श्रेष्ठ माना॥ २६॥
समाप्रतिमवृत्ताया लोकधारणकाम्यया।
श्रीमत्या गुणमुख्यायाः स्वभावपरिचेष्टया॥२७॥
यस्याः पुत्रसहस्राणि सापि शोचति कामधुक।
किं पुनर्या विना रामं कौसल्या वर्तयिष्यति॥ २८॥
‘जिनका चरित्र समस्त प्राणियों के लिये समान रूप से हितकर और अनुपम है, जो अभीष्ट दान रूप ऐश्वर्यशक्ति से सम्पन्न, सत्यरूप प्रधान गुण से युक्त तथा लोकरक्षा की कामना से कार्य में प्रवृत्त होने वाली हैं और जिनके सहस्रों पुत्र हैं, वे कामधेनु भी जब अपने दो पुत्रों के लिये उनके स्वाभाविक चेष्टा में रत होने पर भी कष्ट पाने के कारण शोक करती हैं तब जिनके एक ही पुत्र है, वे माता कौसल्या श्रीराम के बिना कैसे जीवित रहेंगी? ॥ २७-२८॥
एकपुत्रा च साध्वी च विवत्सेयं त्वया कृता।
तस्मात् त्वं सततं दुःखं प्रेत्य चेह च लप्स्यसे॥ २९॥
‘इकलौते बेटेवाली इन सती-साध्वी कौसल्या का तूने उनके पुत्र से बिछोह करा दिया है, इसलिये तू सदा ही इस लोक और परलोक में भी दुःख ही पायेगी॥ २९॥
अहं त्वपचितिं भ्रातुः पितुश्च सकलामिमाम।
वर्धनं यशसश्चापि करिष्यामि न संशयः॥३०॥
‘मैं तो यह राज्य लौटाकर भाई की पूजा करूँगा और यह सारा अन्त्येष्टिसंस्कार आदि करके पिता का भी पूर्णरूप से पूजन करूँगा तथा निःसंदेह मैं वही कर्म करूँगा, जो (तेरे दिये हुए कलङ्क को मिटाने वाला और) मेरे यश को बढ़ाने वाला हो॥३०॥
आनाय्य च महाबाहुं कोसलेन्द्रं महाबलम्।
स्वयमेव प्रवेक्ष्यामि वनं मुनिनिषेवितम्॥ ३१॥
‘महाबली महाबाहु कोसलनरेश श्रीराम को यहाँ लौटा लाकर मैं स्वयं ही मुनिजनसेवित वन में प्रवेश करूँगा॥
नह्यहं पापसंकल्पे पापे पापं त्वया कृतम्।
शक्तो धारयितुं पौरैरश्रुकण्ठैर्निरीक्षितः॥३२॥
‘पापपूर्ण संकल्प करने वाली पापिनि! पुरवासी मनुष्य आँसू बहाते हुए अवरुद्धकण्ठ हो मुझे देखें और मैं तेरे किये हुए इस पाप का बोझ ढोता रहूँ यह मुझसे नहीं हो सकता ॥ ३२ ॥
सा त्वमग्निं प्रविश वा स्वयं वा विश दण्डकान्।
रज्जुं बद्ध्वाथवा कण्ठे नहि तेऽन्यत् परायणम्॥ ३३॥
‘अब तू जलती आग में प्रवेश कर जा, या स्वयं दण्डकारण्य में चली जा अथवा गले में रस्सी बाँधकर प्राण दे दे, इसके सिवा तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है॥३३॥
अहमप्यवनीं प्राप्ते रामे सत्यपराक्रमे।
कृतकृत्यो भविष्यामि विप्रवासितकल्मषः॥ ३४॥
‘सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी जब अयोध्या की भूमि पर पदार्पण करेंगे, तभी मेरा कलङ्क दूर होगा और तभी मैं कृतकृत्य होऊँगा’॥ ३४ ॥
इति नाग इवारण्ये तोमराङ्कशतोदितः।
पपात भुवि संक्रुद्धो निःश्वसन्निव पन्नगः॥ ३५॥
यह कहकर भरत वन में तोमर और अंकुश द्वारा पीडित किये गये हाथी की भाँति मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और क्रोध में भरकर फुफकारते हुए साँप की भाँति लम्बी साँस खींचने लगे॥ ३५ ॥
संरक्तनेत्रः शिथिलाम्बरस्तथा विधूतसर्वाभरणः परंतपः।
बभूव भूमौ पतितो नृपात्मजः शचीपतेः केतुरिवोत्सवक्षये॥ ३६॥
शत्रुओं को तपाने वाले राजकुमार भरत उत्सव समाप्त होने पर नीचे गिराये गये शचीपति इन्द्र के ध्वज की भाँति उस समय पृथ्वी पर पड़े थे, उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे, वस्त्र ढीले पड़ गये थे और सारे आभूषण टूटकर बिखर गये थे॥ ३६॥
सर्ग ७५
दीर्घकालात् समुत्थाय संज्ञां लब्ध्वा स वीर्यवान्।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां दीनामुद्रीक्ष्य मातरम्॥१॥
सोऽमात्यमध्ये भरतो जननीमभ्यकुत्सयत्।
बहुत देर के बाद होश में आने पर जब पराक्रमी भरत उठे, तब आँसू भरे नेत्रों से दीन बनी बैठी हुई माता की ओर देखकर मन्त्रियों के बीच में उसकी निन्दा करते हुए बोले- ॥११/२॥
राज्यं न कामये जातु मन्त्रये नापि मातरम्॥२॥
अभिषेकं न जानामि योऽभूद् राज्ञा समीक्षितः।
विप्रकृष्ट ह्यहं देशे शत्रुघ्नसहितोऽभवम्॥३॥
‘मन्त्रिवरो! मैं राज्य नहीं चाहता और न मैंने कभी माता से इसके लिये बातचीत ही की है। महाराज ने जिस अभिषेक का निश्चय किया था, उसका भी मुझे पता नहीं था; क्योंकि उस समय मैं शत्रुघ्न के साथ दूर देश में था॥२-३॥
वनवासं न जानामि रामस्याहं महात्मनः।
विवासनं च सौमित्रेः सीतायाश्च यथाभवत्॥ ४ ॥
‘महात्मा श्रीराम के वनवास और सीता तथा लक्ष्मण के निर्वासन का भी मुझे ज्ञान नहीं है कि वह कब और कैसे हुआ?’॥४॥
तथैव क्रोशतस्तस्य भरतस्य महात्मनः।
कौसल्या शब्दमाज्ञाय सुमित्रां चेदमब्रवीत्॥५॥
महात्मा भरत जब इस प्रकार अपनी माता को कोस रहे थे, उस समय उनकी आवाज को पहचानकर कौसल्या ने सुमित्रा से इस प्रकार कहा— ॥५॥
आगतः क्रूरकार्यायाः कैकेय्या भरतः सुतः।
तमहं द्रष्टमिच्छामि भरतं दीर्घदर्शिनम्॥६॥
‘क्रूर कर्म करने वाली कैकेयी के पुत्र भरत आ गये हैं। वे बड़े दूरदर्शी हैं, अतः मैं उन्हें देखना चाहती॥६॥
एवमुक्त्वा सुमित्रां तां विवर्णवदना कृशा।
प्रतस्थे भरतो यत्र वेपमाना विचेतना॥७॥
सुमित्रा से ऐसा कहकर उदास मुखवाली, दुर्बल और अचेत-सी हुई कौसल्या जहाँ भरत थे, उस स्थान पर जाने के लिये काँपती हुई चलीं॥ ७॥
स तु राजात्मजश्चापि शत्रुघ्नसहितस्तदा।
प्रतस्थे भरतो येन कौसल्याया निवेशनम्॥८॥
उसी समय उधर से राजकुमार भरत भी शत्रुघ्न को साथ लिये उसी मार्ग से चले आ रहे थे, जिससे कौसल्या के भवन में आना-जाना होता था॥ ८॥
ततः शत्रुघ्नभरतौ कौसल्या प्रेक्ष्य दुःखितौ।
पर्यष्वजेतां दुःखार्ता पतितां नष्टचेतनाम्॥९॥
रुदन्तौ रुदती दुःखात् समेत्यार्या मनस्विनी।
भरतं प्रत्युवाचेदं कौसल्या भृशदुःखिता॥१०॥
तदनन्तर शत्रुघ्न और भरत ने दूर से ही देखा कि माता कौसल्या दुःख से व्याकुल और अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं। यह देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे दौड़कर उनकी गोदी से लग गये तथा फूट-फूटकर रोने लगे। आर्या मनस्विनी कौसल्या भी दुःख से रो पड़ीं और उन्हें छाती से लगाकर अत्यन्त दुःखित हो भरत से इस प्रकार बोलीं- ॥९-१०॥
इदं ते राज्यकामस्य राज्यं प्राप्तमकण्टकम्।
सम्प्राप्तं बत कैकेय्या शीघ्रं क्रूरेण कर्मणा॥ ११॥
“बेटा ! तुम राज्य चाहते थे न? सो यह निष्कण्टक राज्य तुम्हें प्राप्त हो गया; किंतु खेद यही है कि कैकेयी ने जल्दी के कारण बड़े क्रूर कर्म के द्वारा इसे पाया है।
प्रस्थाप्य चीरवसनं पुत्रं मे वनवासिनम्।
कैकेयी कं गुणं तत्र पश्यति क्रूरदर्शिनी॥१२॥
‘क्रूरतापूर्ण दृष्टि रखनेवाली कैकेयी न जाने इसमें कौन-सा लाभ देखती थी कि उसने मेरे बेटे को चीर वस्त्र पहनाकर वन में भेज दिया और उसे वनवासी बना दिया॥१२॥
क्षिप्रं मामपि कैकेयी प्रस्थापयितुमर्हति।
हिरण्यनाभो यत्रास्ते सुतो मे सुमहायशाः॥१३॥
‘अब कैकेयी को चाहिये कि मुझे भी शीघ्र ही उसी स्थान पर भेज दे, जहाँ इस समय सुवर्णमयी नाभि से सुशोभित मेरे महायशस्वी पुत्र श्रीराम हैं।॥ १३॥
अथवा स्वयमेवाहं सुमित्रानुचरा सुखम्।
अग्निहोत्रं पुरस्कृत्य प्रस्थास्ये यत्र राघवः॥१४॥
‘अथवा सुमित्रा को साथ लेकर और अग्निहोत्र को आगे करके मैं स्वयं ही सुखपूर्वक उस स्थान को प्रस्थान करूँगी, जहाँ श्रीराम निवास करते हैं ॥ १४ ॥
कामं वा स्वयमेवाद्य तत्र मां नेतुमर्हसि।
यत्रासौ पुरुषव्याघ्रस्तप्यते मे सुतस्तपः॥ १५॥
‘अथवा तुम स्वयं ही अपनी इच्छा के अनुसार अब मुझे वहीं पहुँचा दो, जहाँ मेरे पुत्र पुरुषसिंह श्रीराम तप करते हैं॥ १५॥
इदं हि तव विस्तीर्णं धनधान्यसमाचितम्।
हस्त्यश्वरथसम्पूर्ण राज्यं निर्यातितं तया॥१६॥
‘यह धन-धान्य से सम्पन्न तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से भरा-पूरा विस्तृत राज्य कैकेयी ने (श्रीराम से छीनकर) तुम्हें दिलाया है’ ॥ १६ ॥
इत्यादिबहुभिर्वाक्यैः क्रूरैः सम्भर्त्तितोऽनघः।
विव्यथे भरतोऽतीव व्रणे तुद्येव सूचिना॥१७॥
इस तरह की बहुत-सी कठोर बातें कहकर जब कौसल्या ने निरपराध भरत की भर्त्सना की, तब उनको बड़ी पीड़ा हुई; मानो किसी ने घाव में सूई चुभो दी हो॥ १७॥
पपात चरणौ तस्यास्तदा सम्भ्रान्तचेतनः।
विलप्य बहुधासंज्ञो लब्धसंज्ञस्तदाभवत्॥१८॥
वे कौसल्या के चरणों में गिर पड़े, उस समय उनके चित्त में बड़ी घबराहट थी। वे बारम्बार विलाप करके अचेत हो गये। थोड़ी देर बाद उन्हें फिर चेत हुआ॥ १८॥
एवं विलपमानां तां प्राञ्जलिर्भरतस्तदा।
कौसल्या प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहभिरावृताम्॥१९॥
तब भरत अनेक प्रकार के शोकों से घिरी हुई और पूर्वोक्त रूप से विलाप करती हुई माता कौसल्या से हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले- ॥१९॥
आर्ये कस्मादजानन्तं गर्हसे मामकल्मषम्।
विपुलां च मम प्रीतिं स्थितां जानासि राघवे॥ २०॥
‘आर्ये! यहाँ जो कुछ हुआ है, इसकी मुझे बिलकुल जानकारी नहीं थी। मैं सर्वथा निरपराध हूँ, । तो भी आप क्यों मुझे दोष दे रही हैं? आप तो जानती हैं कि श्रीरघुनाथजी में मेरा कितना प्रगाढ़ प्रेम है॥२०॥
कृतशास्त्रानुगा बुद्धिर्मा भूत् तस्य कदाचन।
सत्यसंधः सतां श्रेष्ठो यस्यार्योऽनुमते गतः॥२१॥
‘जिसकी अनुमति से सत्पुरुषों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, आर्य श्रीरामजी वन में गये हों, उस पापी की बुद्धि कभी गुरु से सीखे हुए शास्त्रों में बताये गये मार्ग का अनुसरण करने वाली न हो॥ २१ ॥
प्रैष्यं पापीयसां यातु सूर्यं च प्रति मेहतु।
हन्तु पादेन गाः सुप्ता यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २२॥
‘जिसकी सलाह से बड़े भाई श्रीराम को वन में जाना पड़ा हो, वह अत्यन्त पापियों-हीन जातियों का सेवक हो। सूर्य की ओर मुँह करके मल-मूत्र का त्याग करे और सोयी हुई गौओं को लात से मारे (अर्थात् वह इन पापकर्मो के दुष्परिणाम का भागी हो) ॥ २२ ॥
कारयित्वा महत् कर्म भर्ता भृत्यमनर्थकम्।
अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २३॥
‘जिसकी सम्मति से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया हो, उसको वही पाप लगे, जो सेवक से भारी काम कराकर उसे समुचित वेतन न देने वाले स्वामी को लगता है॥ २३॥
परिपालयमानस्य राज्ञो भूतानि पुत्रवत्।
ततस्तु द्रुह्यतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः॥२४॥
‘जिसके कहने से आर्य श्रीराम को वन में भेजा गया हो, उसको वही पाप लगे, जो समस्त प्राणियों का पुत्र की भाँति पालन करने वाले राजा से द्रोह करने वाले लोगों को लगता है॥ २४॥
बलिषड्भागमुद्धृत्य नृपस्यारक्षितुः प्रजाः।
अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २५॥
‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह उसी अधर्म का भागी हो, जो प्रजा से उसकी आय का छठा भाग लेकर भी प्रजा वर्ग की रक्षा न करने वाले राजा को प्राप्त होता है॥ २५॥
संश्रुत्य च तपस्विभ्यः सत्रे वै यज्ञदक्षिणाम्।
तां चापलपतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः॥२६॥
‘जिसकी सलाह से भैया श्रीराम को वन में जाना पड़ा हो, उसे वही पाप लगे, जो यज्ञ में कष्ट सहने वाले ऋत्विजों को दक्षिणा देने की प्रतिज्ञा करके पीछे इनकार कर देने वाले लोगों को लगता है।॥ २६ ॥
हस्त्यश्वरथसम्बाधे युद्धे शस्त्रसमाकुले।
मा स्म कार्षीत् सतां धर्मं यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २७॥
‘हाथी, घोड़े और रथों से भरे एवं अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा से व्याप्त संग्राम में सत्पुरुषों के धर्म का पालन न करने वाले योद्धाओं को जो पाप लगता है, वही उस मनुष्य को भी प्राप्त हो, जिसकी सम्मति से आर्य श्रीरामजी को वन में भेजा गया हो॥२७॥
उपदिष्टं सुसूक्ष्मार्थं शास्त्रं यत्नेन धीमता।
स नाशयतु दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २८॥
‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम को वन में प्रस्थान करना पड़ा है, वह दुष्टात्मा बुद्धिमान् गुरु के द्वारा यत्नपूर्वक प्राप्त हुआ शास्त्र के सूक्ष्म विषय का उपदेश भुला दे॥ २८॥
मा च तं व्यूढबाह्नसं चन्द्रभास्करतेजसम्।
द्राक्षीद् राज्यस्थमासीनं यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २९॥
‘जिसकी सलाह से बड़े भैया श्रीराम को वन में भेजा गया हो, वह चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी तथा विशाल भुजाओं और कंधों से सुशोभित श्रीरामचन्द्रजी को राज्यसिंहासन पर विराजमान न देख सके—वह राजा श्रीराम के दर्शन से वञ्चित रह जाय॥ २९॥
पायसं कृसरं छागं वृथा सोऽश्नातु निघृणः।
गुरूंश्चाप्यवजानातु यस्यार्योऽनुमते गतः॥३०॥
‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीरामचन्द्रजी वन में गये हों, वह निर्दय मनुष्य खीर, खिचड़ी और बकरी के दूध को देवताओं, पितरों एवं भगवान् को निवेदन किये बिना व्यर्थ करके खाय॥ ३०॥
गाश्च स्पृशतु पादेन गुरून् परिवदेत च।
मित्रे द्रुह्येत सोऽत्यर्थं यस्यार्योऽनुमते गतः॥३१॥
‘जिसकी सम्मति से श्रीरामचन्द्रजी को वन में जाना पड़ा हो, वह पापी मनुष्य गौओं के शरीर का पैर से स्पर्श, गुरुजनों की निन्दा तथा मित्र के प्रति अत्यन्त द्रोह करे॥३१॥
विश्वासात् कथितं किंचित् परिवादं मिथः क्वचित्।
विवृणोतु स दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥३२॥
‘जिसके कहने से बड़े भैया श्रीराम वन में गये हों, वह दुष्टात्मा गुप्त रखने के विश्वास पर एकान्त में कहे हुए किसी के दोष को दूसरों पर प्रकट कर दे (अर्थात् उसे विश्वासघात करने का पाप लगे) ॥ ३२॥
अकर्ता चाकृतज्ञश्च त्यक्तात्मा निरपत्रपः।
लोके भवतु विद्रिष्टो यस्यार्योऽनुमते गतः॥३३॥
‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह मनुष्य उपकार न करनेवाला, कृतघ्न, सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त, निर्लज्ज और जगत् में सबके द्वेष का पात्र हो॥
पुत्रैर्दासैश्च भृत्यैश्च स्वगृहे परिवारितः।
स एको मृष्टमश्नातु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३४॥
‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह अपने घर में पुत्रों, दासों और भृत्यों से घिरा रहकर भी अकेले ही मिष्टान्न भोजन करने के पाप का भागी हो॥
अप्राप्य सदृशान् दाराननपत्यः प्रमीयताम्।
अनवाप्य क्रियां धां यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३५॥
‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह अपने अनुरूप पत्नी को न पाकर अग्निहोत्रआदि धार्मिक कर्मो का अनुष्ठान किये बिना संतान हीन अवस्था में ही मर जाय॥ ३५॥
माऽऽत्मनः संततिं द्राक्षीत् स्वेषु दारेषु दुःखितः।
आयुःसमग्रमप्राप्य यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३६॥
जिसकी सम्मति से मेरे बड़े भाई श्रीराम वन में गये हों, वह सदा दुःखी रहकर अपनी धर्मपत्नी से होने वाली संतान का मुँह न देखे तथा सम्पूर्ण आयु का उपभोग किये बिना ही मर जाय॥३६॥
राजस्त्रीबालवृद्धानां वधे यत् पापमुच्यते।
भृत्यत्यागे च यत् पापं तत् पापं प्रतिपद्यताम्॥ ३७॥
‘राजा, स्त्री, बालक और वृद्धों का वध करने तथा भृत्यों को त्याग देने में जो पाप होता है, वही पाप उसे भी लगे॥३७॥
लाक्षया मधुमांसेन लोहेन च विषेण च।
सदैव बिभृयाद् भृत्यान् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३८॥
‘जिसकी सम्मति से श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह सदैव लाह, मधु, मांस, लोहा और विष आदि निषिद्ध वस्तुओं को बेचकर कमाये हुए धन से अपने भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों का पालन करे॥३८॥
संग्रामे समुपोढे च शत्रुपक्षभयंकरे।
पलायमानो वध्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३९॥
जिसकी राय से श्रीराम वन में जाने को विवश हुए हों, वह शत्रुपक्ष को भय देने वाले युद्ध के प्राप्त होने पर उसमें पीठ दिखाकर भागता हुआ मारा जाय॥ ३९॥
कपालपाणिः पृथिवीमटतां चीरसंवृतः।
भिक्षमाणो यथोन्मत्तो यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४०॥
‘जिसकी सम्मति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह फटे-पुराने, मैले-कुचैले वस्त्र से अपने शरीर को ढककर हाथ में खप्पर ले भीख माँगता हुआ उन्मत्त की भाँति पृथ्वी पर घूमता फिरे॥ ४०॥
मद्यप्रसक्तो भवतु स्त्रीष्वक्षेषु च नित्यशः।
कामक्रोधाभिभूतश्च यस्यार्योऽनुमते गतः॥४१॥
‘जिसकी सलाह से श्रीरामचन्द्रजी को वन में जाना पड़ा हो, वह काम-क्रोध के वशीभूत होकर सदा ही मद्यपान, स्त्रीसमागम और द्यूतक्रीड़ा में आसक्त रहे।४१॥
मास्य धर्मे मनो भूयादधर्मं स निषेवताम्।
अपात्रवर्षी भवतु यस्यार्योऽनुमते गतः॥४२॥
‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, उसका मन कभी धर्म में न लगे, वह अधर्म का ही सेवन करे और अपात्र को धन दान करे॥ ४२ ॥
संचितान्यस्य वित्तानि विविधानि सहस्रशः।
दस्युभिर्विप्रलुप्यन्तां यस्यार्योऽनुमते गतः॥४३॥
‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम का वन-गमन हुआ हो, उसके द्वारा सहस्रों की संख्या में संचित किये गये नाना प्रकार के धन-वैभवों को लुटेरे लूट ले जायँ। ४३॥
उभे संध्ये शयानस्य यत् पापं परिकल्प्यते।
तच्च पापं भवेत् तस्य यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४४॥
यदग्निदायके पापं यत् पापं गुरुतल्पगे।
मित्रद्रोहे च यत् पापं तत् पापं प्रतिपद्यताम्॥ ४५॥
‘जिसके कहने से भैया श्रीराम को वन में भेजा गया हो, उसे वही पाप लगे, जो दोनों संध्याओं के समय सोये हुए पुरुष को प्राप्त होता है। आग लगाने वाले मनुष्य को जो पाप लगता है, गुरुपत्नीगामी को जिस पाप की प्राप्ति होती है तथा मित्रद्रोह करने से जो पाप प्राप्त होता है, वही पाप उसे भी लगे॥ ४४-४५ ॥
देवतानां पितॄणां च मातापित्रोस्तथैव च।
मा स्म कार्षीत् स शुश्रूषां यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४६॥
“जिसकी सम्मतिसे आर्य श्रीरामको वनमें जाना पड़ा है, वह देवताओं, पितरों और माता-पिताकी सेवा कभी न करे (अर्थात् उनकी सेवाके पुण्यसे वञ्चित रह जाय) ॥ ४६॥
सतां लोकात् सतां कीर्त्याः सज्जुष्टात् कर्मणस्तथा।
भ्रश्यतु क्षिप्रमद्यैव यस्यार्योऽनुमते गतः॥४७॥
‘जिसकी अनुमति से विवश होकर भैया श्रीराम ने वन में पदार्पण किया है, वह पापी आज ही सत्पुरुषों के लोक से, सत्पुरुषों की कीर्ति से तथा सत्पुरुषों द्वारा सेवित कर्म से शीघ्र भ्रष्ट हो जाय॥ ४७॥
अपास्य मातृशुश्रूषामनर्थे सोऽवतिष्ठताम्।
दीर्घबाहर्महावक्षा यस्यार्योऽनुमते गतः॥४८॥
‘जिसकी सम्मति से बड़ी-बड़ी बाँह और विशाल वक्ष वाले आर्य श्रीराम को वन में जाना पड़ा है, वह माता की सेवा छोड़कर अनर्थ के पथ में स्थित रहे। ४८॥
बहुभृत्यो दरिद्रश्च ज्वररोगसमन्वितः।
समायात् सततं क्लेशं यस्यार्योनुमते गतः॥४९॥
‘जिसकी सलाह से श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह दरिद्र हो, उसके यहाँ भरण-पोषण पाने के योग्य पुत्र आदि की संख्या बहुत अधिक हो तथा वह ज्वररोग से पीड़ित होकर सदा क्लेश भोगता रहे ॥ ४९॥
आशामाशंसमानानां दीनानामूर्ध्वचक्षुषाम्।
अर्थिनां वितथां कुर्याद् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५०॥
‘जिसकी अनुमति पाकर आर्य श्रीराम वन में गये हों,वह आशा लगाये ऊपर की ओर आँख उठाकर दाता के मुँह की ओर देखने वाले दीन याचकों की आशा को निष्फल कर दे॥५०॥
मायया रमतां नित्यं पुरुषः पिशुनोऽशुचिः।
राज्ञो भीतस्त्वधर्मात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५१॥
‘जिसके कहने से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया हो, वह पापात्मा पुरुष चुगला, अपवित्र तथा राजा से भयभीत रहकर सदा छल-कपट में ही रचापचा रहे ॥ ५१॥
ऋतुस्नातां सती भार्यामृतुकालानुरोधिनीम्।
अतिवर्तेत दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥५२॥
‘जिसके परामर्श से आर्य का वनमगन हुआ हो, वह दुष्टात्मा ऋतु-स्नानकाल प्राप्त होने के कारण अपने पास आयी हुई सती-साध्वी ऋतुस्नाता पत्नी को ठुकरा दे (उसकी इच्छा न पूर्ण करने के पाप का भागी हो) । ५२॥
विप्रलुप्तप्रजातस्य दुष्कृतं ब्राह्मणस्य यत्।
तदेतत् प्रतिपद्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥५३॥
‘जिसकी सलाह से मेरे बड़े भाई को वन में जाना पड़ा हो, उसको वही पाप लगे, जो (अन्न आदि का दान न करने अथवा स्त्री से द्वेष रखने के कारण) नष्ट हुई संतान वाले ब्राह्मण को प्राप्त होता है॥ ५३॥
ब्राह्मणायोद्यतां पूजां विहन्तु कलुषेन्द्रियः।
बालवत्सां च गां दोग्धु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५४॥
‘जिसकी राय से आर्य ने वन में पदार्पण किया हो, वह मलिन इन्द्रियवाला पुरुष ब्राह्मण के लिये की जाती हुई पूजा में विघ्न डाल दे और छोटे बछड़े वाली (दस दिन के भीतर की ब्यायी हुई) गाय का दूध दुहे॥ ५४॥
धर्मदारान् परित्यज्य परदारान् निषेवताम्।
त्यक्तधर्मरतिर्मूढो यस्यार्योऽनुमते गतः॥५५॥
‘जिसने आर्य श्रीराम के वनमगन की अनुमति दी हो, वह मूढ़ धर्मपत्नी को छोड़कर परस्त्री का सेवन करे तथा धर्मविषयक अनुराग को त्याग दे॥५५॥
पानीयदूषके पापं तथैव विषदायके।
यत्तदेकः स लभतां यस्यार्योऽनुमते गतः॥५६॥
‘पानी को गन्दा करने वाले तथा दूसरों को जहर देने वाले मनुष्य को जो पाप लगता है, वह सारा पाप अकेला वही प्राप्त करे, जिसकी अनुमति से विवश होकर आर्य श्रीराम को वन में जाना पड़ा है॥५६॥
तृषार्तं सति पानीये विप्रलम्भेन योजयन्।
यत् पापं लभते तत् स्याद् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५७॥
‘जिसकी सम्मति से आर्य का वनगमन हुआ हो, उसे वही पाप प्राप्त हो, जो पानी होते हुए भी प्यासे को उससे वञ्चित कर देने वाले मनुष्य को लगता है॥ ५७॥
भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यतः।
तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥५८॥
‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह उस पाप का भागी हो, जो परस्पर झगड़ते हुए मनुष्यों में से किसी एक के प्रति पक्षपात रखकर मार्ग में खड़ा हो उनका झगड़ा देखने वाले कलहप्रिय मनुष्य को प्राप्त होता है’ ॥ ५८॥
एवमाश्वासयन्नेव दुःखार्तोऽनुपपात ह।
विहीनां पतिपुत्राभ्यां कौसल्या पार्थिवात्मजः॥ ५९॥
इस प्रकार पति और पुत्र से बिछुड़ी हुई कौसल्या को शपथ के द्वारा आश्वासन देते हुए ही राजकुमार भरत दुःख से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ५९॥
तदा तं शपथैः कष्टैः शपमानमचेतनम्।
भरतं शोकसंतप्तं कौसल्या वाक्यमब्रवीत्॥ ६०॥
उस समय दुष्कर शपथों द्वारा अपनी सफाई देते हुए शोकसंतप्त एवं अचेत भरत से कौसल्या ने इस प्रकार कहा- ॥६०॥
मम दुःखमिदं पुत्र भूयः समुपजायते।
शपथैः शपमानो हि प्राणानुपरुणत्सि मे॥६१॥
‘बेटा! तुम अनेकानेक शपथ खाकर जो मेरे प्राणों को पीड़ा दे रहे हो, इससे मेरा यह दुःख और भी बढ़ता जा रहा है॥ ६१॥
दिष्ट्या न चलितो धर्मादात्मा ते सहलक्षणः।
वत्स सत्यप्रतिज्ञो हि सतां लोकानवाप्स्यसि॥ ६२॥
‘वत्स! सौभाग्य की बात है कि शुभ लक्षणों से सम्पन्न तुम्हारा चित्त धर्म से विचलित नहीं हुआ है। तुम सत्यप्रतिज्ञ हो, इसलिये तुम्हें सत्पुरुषों के लोक प्राप्त होंगे’ ॥ ६२॥
इत्युक्त्वा चाङ्कमानीय भरतं भ्रातृवत्सलम्।
परिष्वज्य महाबाहुं रुरोद भृशदुःखिता॥६३॥
ऐसा कहकर कौसल्या ने भ्रातृभक्त महाबाहु भरत को गोद में खींच लिया और अत्यन्त दुःखी हो उन्हें गले से लगाकर वे फूट-फूटकर रोने लगीं। ६३॥
एवं विलपमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः।
मोहाच्च शोकसंरम्भाद् बभूव लुलितं मनः॥ ६४॥
महात्मा भरत भी दुःख से आर्त होकर विलाप कर रहे थे। उनका मन मोह और शोक के वेग से व्याकुल हो गया था॥ ६४॥
लालप्यमानस्य विचेतनस्य प्रणष्टबुद्धेः पतितस्य भूमौ।
मुहुर्मुहुर्निःश्वसतश्च दीर्घ सा तस्य शोकेन जगाम रात्रिः॥६५॥
पृथ्वी पर पड़े हुए भरत की बुद्धि (विवेकशक्ति) नष्ट हो गयी थी। वे अचेत-से होकर विलाप करते और बारंबार लंबी साँस खींचते थे। इस तरह शोक में ही उनकी वह रात बीत गयी॥६५॥
सर्ग ७६
तमेवं शोकसंतप्तं भरतं कैकयीसुतम्।
उवाच वदतां श्रेष्ठो वसिष्ठः श्रेष्ठवागृषिः॥१॥
इस प्रकार शोक से संतप्त हुए केकयी कुमार भरत से वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ ने उत्तम वाणी में कहा॥१॥
अलं शोकेन भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
प्राप्तकालं नरपतेः कुरु संयानमुत्तमम्॥२॥
‘महायशस्वी राजकुमार ! तुम्हारा कल्याण हो। यह शोक छोड़ो, क्योंकि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। अब समयोचित कर्तव्य पर ध्यान दो। राजा दशरथ के शव को दाहसंस्कार के लिये ले चलने का उत्तम प्रबन्ध करो’ ॥ २॥
वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा भरतो धरणीं गतः।
प्रेतकृत्यानि सर्वाणि कारयामास धर्मवित्॥३॥
वसिष्ठजी का वचन सुनकर धर्मज्ञ भरत ने पृथ्वी पर पड़कर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और मन्त्रियों द्वारा पिता के सम्पूर्ण प्रेतकर्म का प्रबन्ध करवाया॥३॥
उद्धृत्य तैलसंसेकात् स तु भूमौ निवेशितम्।
आपीतवर्णवदनं प्रसुप्तमिव भूमिपम्॥४॥
राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाह से निकालकर भूमि पर रखा गया। अधिक समय तक तेल में पड़े रहने से उनका मुख कुछ पीला हो गया। उसे देखने से ऐसा जान पड़ता था, मानो भूमिपाल दशरथ सो रहे हों॥४॥
संवेश्य शयने चाग्रये नानारत्नपरिष्कृते।
ततो दशरथं पुत्रो विललाप सदःखितः॥५॥
तदनन्तर मृत राजा दशरथ को धो-पोंछकर नानाप्रकार के रत्नों से विभूषित उत्तम शय्या (विमान) पर सुलाकर उनके पुत्र भरत अत्यन्त दुःखी हो विलाप करने लगे— ॥५॥
किं ते व्यवसितं राजन् प्रोषिते मय्यनागते।
विवास्य रामं धर्मज्ञं लक्ष्मणं च महाबलम्॥६॥
‘राजन् ! मैं परदेश में था और आपके पास पहुँचने भी नहीं पाया था, तब तक ही धर्मज्ञ श्रीराम और महाबली लक्ष्मण को वन में भेजकर आपने इस तरह स्वर्ग में जाने का निश्चय कैसे कर लिया?॥६॥
क्व यास्यसि महाराज हित्वेमं दुःखितं जनम्।
हीनं पुरुषसिंहेन रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥७॥
‘महाराज! अनायास ही महान् कर्म करने वाले पुरुषसिंह श्रीराम से हीन इस दुःखी सेवक को छोड़ आप कहाँ चले जायेंगे? ॥ ७॥
योगक्षेमं तु तेऽव्यग्रं कोऽस्मिन् कल्पयिता पुरे।
त्वयि प्रयाते स्वस्तात रामे च वनमाश्रिते॥८॥
“तात! आप स्वर्ग को चल दिये और श्रीराम ने वन का आश्रय लिया-ऐसी दशा में आपके इस नगर में निश्चिन्तता-पूर्वक प्रजा के योगक्षेम की व्यवस्था कौन करेगा? ॥ ८॥
विधवा पृथिवी राजंस्त्वया हीना न राजते।
हीनचन्द्रेव रजनी नगरी प्रतिभाति माम्॥९॥
‘राजन् ! आपके बिना यह पृथ्वी विधवा के समान हो गयी है, अतः इसकी शोभा नहीं हो रही है। यह पुरी भी मुझे चन्द्रहीन रात्रि के समान श्रीहीन प्रतीत होती है’।
एवं विलपमानं तं भरतं दीनमानसम्।
अब्रवीद् वचनं भूयो वसिष्ठस्तु महामुनिः॥१०॥
इस प्रकार दीनचित्त होकर विलाप करते हुए भरत से महामुनि वसिष्ठ ने फिर कहा- ॥ १० ॥
प्रेतकार्याणि यान्यस्य कर्तव्यानि विशाम्पतेः।
तान्यव्यग्रं महाबाहो क्रियतामविचारितम्॥११॥
‘महाबाहो! इन महाराज के लिये जो कुछ भी प्रेतकर्म करने हैं, उन्हें बिना विचारे शान्तचित्त होकर करो’ ॥ ११॥
तथेति भरतो वाक्यं वसिष्ठस्याभिपूज्य तत्।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यांस्त्वरयामास सर्वशः॥१२॥
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर भरत ने वसिष्ठजी की आज्ञा शिरोधार्य की तथा ऋत्विक्, पुरोहित और आचार्य—सबको इस कार्य के लिये जल्दी करने को कहा—
ये त्वग्नयो नरेन्द्रस्य अग्न्यगाराद् बहिष्कृताः।
ऋत्विग्भिर्याजकैश्चैव ते हूयन्ते यथाविधि॥ १३॥
राजा की अग्निशाला से जो अग्नियाँ बाहर निकाली गयी थीं, उनमें ऋत्विजों और याजकों द्वारा विधिपूर्वक हवन किया गया॥ १३॥
शिबिकायामथारोप्य राजानं गतचेतनम्।
बाष्पकण्ठा विमनसस्तमूहः परिचारकाः॥१४॥
तत्पश्चात् महाराज दशरथ के प्राणहीन शरीर को पालकी में बिठाकर परिचारकगण उन्हें श्मशानभूमि को ले चले। उस समय आँसुओं से उनका गला रुंध गया था और मन-ही-मन उन्हें बड़ा दुःख हो रहा था॥१४॥
हिरण्यं च सुवर्णं च वासांसि विविधानि च।
प्रकिरन्तो जना मार्गे नृपतेरग्रतो ययुः ॥१५॥
मार्ग में राजकीय पुरुष राजा के शव के आगे-आगे सोने, चाँदी तथा भाँति-भाँति के वस्त्र लुटाते चलते थे॥
चन्दनागुरुनिर्यासान् सरलं पद्मकं तथा।
देवदारूणि चाहृत्य क्षेपयन्ति तथापरे॥१६॥
गन्धानुच्चावचांश्चान्यांस्तत्र गत्वाथ भूमिपम्।
तत्र संवेशयामासुश्चितामध्ये तमृत्विजः॥१७॥
श्मशानभूमि में पहुँचकर चिता तैयार की जाने लगी, किसी ने चन्दन लाकर रखा तो किसी ने अगर कोई कोई गुग्गुल तथा कोई सरल, पद्मक और देवदारु की लकड़ियाँ ला-लाकर चिता में डालने लगे। कुछ लोगों ने तरह-तरह के सुगन्धित पदार्थ लाकर छोड़े। इसके बाद ऋत्विजों ने राजा के शव को चितापर रखा।
तदा हुताशनं हुत्वा जेपुस्तस्य तदृत्विजः।
जगुश्च ते यथाशास्त्रं तत्र सामानि सामगाः॥ १८॥
उस समय अग्नि में आहुति देकर उनके ऋत्विजों ने वेदोक्त मन्त्रों का जप किया। सामगान करने वाले विद्वान् शास्त्रीय पद्धति के अनुसार साम-श्रुतियों का गायन करने लगे॥१८॥
शिबिकाभिश्च यानैश्च यथार्ह तस्य योषितः।
नगरान्निर्ययुस्तत्र वृद्धैः परिवृतास्तथा॥१९॥
प्रसव्यं चापि तं चक्रुर्ऋत्विजोऽग्निचितं नृपम्।
स्त्रियश्च शोकसंतप्ताः कौसल्याप्रमुखास्तदा। २०॥
(इसके बाद चिता में आग लगायी गयी) तदनन्तर राजा दशरथ की कौसल्या आदि रानियाँ बूढ़े रक्षकों से घिरी हुई यथायोग्य शिबिकाओं तथा रथों पर आरूढ़ होकर नगर से निकलीं तथा शोक से संतप्त हो श्मशानभूमि में आकर अश्वमेधान्त यज्ञों के अनुष्ठाता राजा दशरथ के शव की परिक्रमा करने लगीं। साथ ही ऋत्विजों ने भी उस शव की परिक्रमा की। १९-२० ॥
क्रौञ्चीनामिव नारीणां निनादस्तत्र शुश्रुवे।
आर्तानां करुणं काले क्रोशन्तीनां सहस्रशः॥ २१॥
उस समय वहाँ करुण क्रन्दन करती हुई सहस्रों शोकात रानियों का आर्तनाद कुररियों के चीत्कार के समान सुनायी देता था॥ २१॥
ततो रुदन्त्यो विवशा विलप्य च पुनः पुनः।
यानेभ्यः सरयूतीरमवतेरुनृपाङ्गनाः॥२२॥
दाहकर्म के पश्चात् विवश होकर रोती हुई वे राजरानियाँ बारंबार विलाप करके सवारियों से ही सरयू के तट पर जाकर उतरीं ॥ २२॥
कृत्वोदकं ते भरतेन सार्धं नृपाङ्गना मन्त्रिपुरोहिताश्च।
पुरं प्रविश्याश्रुपरीतनेत्रा भूमौ दशाहं व्यनयन्त दुःखम्॥२३॥
भरत के साथ रानियों, मन्त्रियों और पुरोहितों ने भी राजा के लिये जलाञ्जलि दी, फिर सब-के-सब नेत्रों से आँसू बहाते हुए नगर में आये और दस दिनों तक भूमि पर शयन करते हुए उन्होंने बड़े दुःख से अपना समय व्यतीत किया॥ २३॥
सर्ग ७७
ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मजः।
द्वादशेऽहनि सम्प्राप्ते श्राद्धकर्माण्यकारयत्॥१॥
तदनन्तर दशाह व्यतीत हो जाने पर राजकुमार भरत ने ग्यारहवें दिन आत्मशुद्धि के लिये स्नान और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया, फिर बारहवाँ दिन आने पर उन्होंने अन्य श्राद्ध कर्म (मासिक और सपिण्डीकरण श्राद्ध) किये॥१॥
ब्राह्मणेभ्यो धनं रत्नं ददावन्नं च पुष्कलम्।
वासांसि च महार्हाणि रत्नानि विविधानि च।
वास्तिकं बहु शुक्लं च गाश्चापि बहुशस्तदा॥ २॥
उसमें भरत ने ब्राह्मणों को धन, रत्न, प्रचुर अन्न, बहुमूल्य वस्त्र, नाना प्रकार के रत्न, बहुत-से बकरे, चाँदी और बहुतेरी गौएँ दान कीं॥२॥
दासीर्दासांश्च यानानि वेश्मानि सुमहान्ति च।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुत्रो राज्ञस्तस्यौदेहिकम्॥ ३॥
राजपुत्र भरत ने राजा के पारलौकिक हित के लिये बहुत-से दास, दासियाँ, सवारियाँ तथा बड़े-बड़े घर भी ब्राह्मणों को दिये॥३॥
ततः प्रभातसमये दिवसे च त्रयोदशे।
विललाप महाबाहुर्भरतः शोकमूर्च्छितः॥४॥
तदनन्तर तेरहवें दिन प्रातःकाल महाबाहु भरत शोक से मूर्च्छित होकर विलाप करने लगे॥४॥
शब्दापिहितकण्ठश्च शोधनार्थमुपागतः।
चितामूले पितुर्वाक्यमिदमाह सुदुःखितः॥५॥
तात यस्मिन् निसृष्टोऽहं त्वया भ्रातरि राघवे।
तस्मिन् वनं प्रव्रजिते शून्ये त्यक्तोऽस्म्यहं त्वया॥ ६॥
उस समय रोने से उनका गला भर आया था, वे पिता के चितास्थान पर अस्थिसंचय के लिये आये और अत्यन्त दुःखी होकर इस प्रकार कहने लगे—’तात !आपने मुझे जिन ज्येष्ठ भ्राता श्रीरघुनाथजी के हाथ में सौंपा था, उनके वन में चले जाने पर आपने मुझे सूने में ही छोड़ दिया (इस समय मेरा कोई सहारा नहीं)॥ ५-६॥
यस्या गतिरनाथायाः पुत्रः प्रव्राजितो वनम्।
तामम्बां तात कौसल्यां त्यक्त्वा त्वं क्व गतो नृप॥७॥
‘तात ! नरेश्वर! जिन अनाथ हुई देवीके एकमात्र आधार पुत्रको आपने वनमें भेज दिया, उन माता कौसल्याको छोड़कर आप कहाँ चले गये?’॥७॥
दृष्ट्वा भस्मारुणं तच्च दग्धास्थि स्थानमण्डलम्।
पितुः शरीरनिर्वाणं निष्टनन् विषसाद ह॥८॥
पिता की चिता का वह स्थानमण्डल भस्म से भरा हुआ था, अत्यन्त दाह के कारण कुछ लाल दिखायी देता था। वहाँ पिता की जली हुई हड्डियाँ बिखरी हुई थीं। पिता के शरीर के निर्वाण का वह स्थान देखकर भरत अत्यन्त विलाप करते हुए शोक में डूब गये॥ ८॥
स तु दृष्ट्वा रुदन् दीनः पपात धरणीतले।
उत्थाप्यमानः शक्रस्य यन्त्रध्वज इवोच्छ्रितः॥९॥
उस स्थान को देखते ही वे दीनभाव से रोकर पृथ्वीपर गिर पड़े। जैसे इन्द्र का यन्त्रबद्ध ऊँचा ध्वजऊपर को उठाये जाते समय खिसककर गिर पड़ा हो॥ ९॥
अभिपेतुस्ततः सर्वे तस्यामात्याः शुचिव्रतम्।
अन्तकाले निपतितं ययातिमृषयो यथा॥१०॥
तब उनके सारे मन्त्री उन पवित्र व्रत वाले भरत के पास आ पहुँचे, जैसे पुण्यों का अन्त होने पर स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति के पास अष्टक आदि राजर्षि आ गये थे॥
शत्रुघ्नश्चापि भरतं दृष्ट्वा शोकपरिप्लुतम्।
विसंज्ञो न्यपतद् भूमौ भूमिपालमनुस्मरन्॥११॥
भरत को शोक में डूबा हुआ देख शत्रुघ्न भी अपने पिता महाराज दशरथका बारंबार स्मरण करते हुए अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥११॥
उन्मत्त इव निश्चित्तो विललाप सुदुःखितः।
स्मृत्वा पितुर्गुणाङ्गानि तानि तानि तदा तदा॥ १२॥
वे समय-समयपर अनुभव में आये हुए पिता के लालन-पालनसम्बन्धी उन-उन गुणों का स्मरण करके अत्यन्त दुःखी हो सुध-बुध खोकर उन्मत्त के समान विलाप करने लगे।
मन्थराप्रभवस्तीव्र कैकेयीग्राहसंकुलः।
वरदानमयोऽक्षोभ्योऽमज्जयच्छोकसागरः॥१३॥
हाय! मन्थरा से जिसका प्राकट्य हुआ है, कैकेयीरूपी ग्राह से जो व्याप्त है तथा जो किसी प्रकार भी मिटाया नहीं जा सकता, उस वरदानमय शोकरूपी उग्र समुद्र ने हम सब लोगों को अपने भीतर निमग्न कर दिया है।
सुकुमारं च बालं च सततं लालितं त्वया।
क्व तात भरतं हित्वा विलपन्तं गतो भवान्॥ १४॥
‘तात! आपने जिनका सदा लाड़-प्यार किया है तथा जो सुकुमार और बालक हैं, उन रोते-बिलखते हुए भरत को छोड़कर आप कहाँ चले गये? ॥ १४ ॥
ननु भोज्येषु पानेषु वस्त्रेष्वाभरणेषु च।
प्रवारयति सर्वान् नस्तन्नः कोऽद्य करिष्यति॥ १५॥
‘भोजन, पान, वस्त्र और आभूषण-इन सबको अधिक संख्या में एकत्र करके आप हम सब लोगों से अपनी रुचिकी वस्तुएँ ग्रहण करने को कहते थे। अब कौन हमारे लिये ऐसी व्यवस्था करेगा? ॥ १५ ॥
अवदारणकाले तु पृथिवी नावदीर्यते।
विहीना या त्वया राज्ञा धर्मज्ञेन महात्मना॥१६॥
‘आप-जैसे धर्मज्ञ महात्मा राजा से रहित होने पर पृथ्वी को फट जाना चाहिये। इस फटने के अवसर पर भी जो यह फट नहीं रही है, यह आश्चर्यकी बात है। १६॥
पितरि स्वर्गमापन्ने रामे चारण्यमाश्रिते।
किं मे जीवितसामर्थ्य प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्॥ १७॥
‘पिता स्वर्गवासी हो गये और श्रीराम वन में चले गये। अब मुझमें जीवित रहने की क्या शक्ति है ? अब तो मैं अग्नि में ही प्रवेश करूँगा॥ १७॥
हीनो भ्रात्रा च पित्रा च शून्यामिक्ष्वाकुपालिताम्।
अयोध्यां न प्रवेक्ष्यामि प्रवेक्ष्यामि तपोवनम्॥ १८॥
‘बड़े भाई और पिता से हीन होकर इक्ष्वाकुवंशी नरेशों-द्वारा पालित इस सूनी अयोध्या में प्रवेश नहीं करूँगा; तपोवन को ही चला जाऊँगा’ ॥ १८॥
तयोर्विलपितं श्रुत्वा व्यसनं चाप्यवेक्ष्य तत्।
भृशमार्ततरा भूयः सर्व एवानुगामिनः॥१९॥
उन दोनों का विलाप सुनकर और उस संकट को देखकर समस्त अनुचर-वर्ग के लोग पुनः अत्यन्त शोक से व्याकुल हो उठे॥ १९॥
ततो विषण्णौ श्रान्तौ च शत्रुघ्नभरतावुभौ।
धरायां स्म व्यचेष्टेतां भग्नशृङ्गाविवर्षभौ॥२०॥
उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई विषादग्रस्त और थकित होकर टूटे सींगों वाले दो बैलों के समान पृथ्वी पर लोट रहे थे॥२०॥
ततः प्रकृतिमान् वैद्यः पितुरेषां पुरोहितः।
वसिष्ठो भरतं वाक्यमुत्थाप्य तमुवाच ह॥२१॥
तदनन्तर दैवी प्रकृति से युक्त और सर्वज्ञ वसिष्ठजी, जो इन श्रीराम आदि के पिता के पुरोहित थे, भरत को उठाकर उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २१॥
त्रयोदशोऽयं दिवसः पितुर्वृत्तस्य ते विभो।
सावशेषास्थिनिचये किमिह त्वं विलम्बसे॥ २२॥
‘प्रभो! तुम्हारे पिता के दाह संस्कार हुए यह तेरहवाँ दिन है; अब अस्थिसंचय का जो शेष कार्य है, उसके करने में तुम यहाँ विलम्ब क्यों लगा रहे हो? ॥ २२ ॥
त्रीणि द्वन्द्वानि भूतेषु प्रवृत्तान्यविशेषतः।
तेषु चापरिहार्येषु नैवं भवितुमर्हसि ॥२३॥
‘भूख-प्यास, शोक-मोह तथा जरा-मृत्यु—ये तीन द्वन्द्व सभी प्राणियों में समानरूप से उपलब्ध होते हैं। इन्हें रोकना सर्वथा असम्भव है—ऐसी स्थिति में तुम्हें इस तरह शोकाकुल नहीं होना चाहिये’ ॥ २३॥
सुमन्त्रश्चापि शत्रुघ्नमुत्थाप्याभिप्रसाद्य च।
श्रावयामास तत्त्वज्ञः सर्वभूतभवाभवौ॥२४॥
तत्त्वज्ञ सुमन्त्र ने भी शत्रुघ्न को उठाकर उनके चित्त को शान्त किया तथा समस्त प्राणियों के जन्म और मरण की अनिवार्यता का उपदेश सुनाया॥ २४ ॥
उत्थितौ तौ नरव्याघ्रौ प्रकाशेते यशस्विनौ।
वर्षातपपरिग्लानौ पृथगिन्द्रध्वजाविव॥ २५॥
उस समय उठे हुए वे दोनों यशस्वी नरश्रेष्ठ वर्षा और धूप से मलिन हुए दो अलग-अलग इन्द्रध्वजों के समान प्रकाशित हो रहे थे॥ २५ ॥
अश्रूणि परिमृद्नन्तौ रक्ताक्षौ दीनभाषिणौ।
अमात्यास्त्वरयन्ति स्म तनयौ चापराः क्रियाः॥ २६॥
वे आँसू पोंछते हुए दीनतापूर्ण वाणी में बोलते थे। उन दोनों की आँखें लाल हो गयी थीं तथा मन्त्रीलोग उन दोनों राजकुमारों को दूसरी-दूसरी क्रियाएँ शीघ्र करने के लिये प्रेरित कर रहे थे॥२६॥
सर्ग ७८
अथ यात्रां समीहन्तं शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः।
भरतं शोकसंतप्तमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
तेरहवें दिन का कार्य पूर्ण करके श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने का विचार करते हुए शोकसंतप्त भरत से लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने इस प्रकार कहा-॥ १॥
गतिर्यः सर्वभूतानां दुःखे किं पुनरात्मनः।
स रामः सत्त्वसम्पन्नः स्त्रिया प्रव्राजितो वनम्॥ २॥
‘भैया! जो दुःख के समय अपने तथा आत्मीयजनों के लिये तो बात ही क्या है, समस्त प्राणियों को भी सहारा देनेवाले हैं, वे सत्त्वगुणसम्पन्न श्रीराम एक स्त्री के द्वारा वन में भेज दिये गये (यह कितने खेदकी बात है) ॥ २॥
बलवान् वीर्यसम्पन्नो लक्ष्मणो नाम योऽप्यसौ।
किं न मोचयते रामं कृत्वापि पितृनिग्रहम्॥३॥
‘तथा वे जो बल और पराक्रम से सम्पन्न लक्ष्मण नामधारी शूरवीर हैं, उन्होंने भी कुछ नहीं किया। मैं पूछता हूँ कि उन्होंने पिता को कैद करके भी श्रीराम को इस संकट से क्यों नहीं छुड़ाया? ॥ ३॥
पूर्वमेव तु विग्राह्यः समवेक्ष्य नयानयो।
उत्पथं यः समारूढो नार्या राजा वशं गतः॥४॥
‘जब राजा एक नारी के वश में होकर बुरे मार्ग पर आरूढ़ हो चुके थे, तब न्याय और अन्याय का विचार करके उन्हें पहले ही कैद कर लेना चाहिये था’॥ ४॥
इति सम्भाषमाणे तु शत्रुघ्ने लक्ष्मणानुजे।
प्रारद्वारेऽभूत् तदा कुब्जा सर्वाभरणभूषिता॥५॥
लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न जब इस प्रकार रोष में भरकर बोल रहे थे, उसी समय कुब्जा समस्त आभूषणों से विभूषित हो उस राजभवन के पूर्व द्वार पर आकर खड़ी हो गयी॥ ५॥
लिप्ता चन्दनसारेण राजवस्त्राणि बिभ्रती।
विविधं विविधैस्तैस्तैर्भूषणैश्च विभूषिता॥६॥
उसके अङ्गों में उत्तमोत्तम चन्दन का लेप लगा हुआ था तथा वह राजरानियों के पहनने योग्य विविध वस्त्र धारण करके भाँति-भाँति के आभूषणों से सज-धजकर वहाँ आयी थी॥६॥
मेखलादामभिश्चित्रैरन्यैश्च वरभूषणैः।
बभासे बहुभिर्बद्धा रज्जुबवेव वानरी॥७॥
करधनी की विचित्र लड़ियों तथा अन्य बहुसंख्यक सुन्दर अलंकारों से अलंकृत हो वह बहुत-सी रस्सियों में बँधी हुई वानरी के समान जान पड़ती थी॥ ७॥
तां समीक्ष्य तदा द्वाःस्थो भृशं पापस्य कारिणीम्।
गृहीत्वाकरुणं कुब्जां शत्रुघ्नाय न्यवेदयत्॥८॥
वही सारी बुराइयों की जड़ थी। वही श्रीराम के वनवासरूपी पाप का मूल कारण थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और बड़ी निर्दयता के साथ घसीट लाकर शत्रुघ्न के हाथ में देते हुए कहा- ॥८॥
यस्याः कृते वने रामो न्यस्तदेहश्च वः पिता।
सेयं पापा नृशंसा च तस्याः कुरु यथामति॥९॥
‘राजकुमार! जिसके कारण श्रीराम को वन में निवास करना पड़ा है और आपलोगों के पिता ने शरीर का परित्याग किया है, वह क्रूर कर्म करने वाली पापिनी यही है। आप इसके साथ जैसा बर्ताव उचित समझें करें॥
शत्रुजश्च तदाज्ञाय वचनं भृशदुःखितः।
अन्तःपुरचरान् सर्वानित्युवाच धृतव्रतः॥१०॥
द्वारपाल की बात पर विचार करके शत्रुघ्न का दुःख और बढ़ गया। उन्होंने अपने कर्तव्य का निश्चय किया और अन्तःपुर में रहने वाले सब लोगों को सुनाकर इस प्रकार कहा- ॥१०॥
तीव्रमुत्पादितं दुःखं भ्रातृणां मे तथा पितुः
यथा सेयं नृशंसस्य कर्मणः फलमश्नुताम्॥ ११॥
‘इस पापिनी ने मेरे भाइयों तथा पिता को जैसा दुःसह दुःख पहुँचाया है, अपने उस क्रूर कर्म का वैसा ही फल यह भी भोगे’ ॥ ११ ॥
एवमुक्त्वा च तेनाशु सखीजनसमावृता।
गृहीता बलवत् कुब्जा सा तद् गृहमनादयत्॥ १२॥
ऐसा कहकर शत्रुघ्न ने सखियों से घिरी हुई कुब्जा को तुरंत ही बलपूर्वक पकड़ लिया। वह डर के मारे ऐसा चीखने-चिल्लाने लगी कि वह सारा महल गूंज उठा॥१२॥
ततः सुभृशसंतप्तस्तस्याः सर्वः सखीजनः।
क्रुद्धमाज्ञाय शत्रुघ्नं व्यपलायत सर्वशः॥१३॥
फिर तो उसकी सारी सखियाँ अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शत्रुघ्न को कुपित जानकर सब ओर भाग चलीं ॥ १३॥
अमन्त्रयत कृत्स्नश्च तस्याः सर्वः सखीजनः।
यथायं समुपक्रान्तो निःशेषं नः करिष्यति॥१४॥
उसकी सम्पूर्ण सखियों ने एक जगह एकत्र होकर आपस में सलाह की कि ‘जिस प्रकार इन्होंने बलपूर्वक कुब्जा को पकड़ा है, उससे जान पड़ता है, ये हम लोगों में से किसी को जीवित नहीं छोड़ेंगे॥१४॥
सानुक्रोशां वदान्यां च धर्मज्ञां च यशस्विनीम्।
कौसल्यां शरणं यामः सा हि नोऽस्ति ध्रुवा गतिः ॥१५॥
‘अतः हमलोग परम दयालु, उदार, धर्मज्ञ और यशस्विनी महारानी कौसल्या की शरण में चलें। इस समय वे ही हमारी निश्चल गति हैं’॥ १५ ॥
स च रोषेण संवीतः शत्रुघ्नः शत्रुशासनः।
विचकर्ष तदा कुब्जां क्रोशन्तीं पृथिवीतले॥ १६॥
शत्रुओं का दमन करने वाले शत्रुघ्न रोष में भरकर कुब्जा को जमीन पर घसीटने लगे। उस समय वह जोर-जोर से चीत्कार कर रही थी॥१६॥
तस्यां ह्याकृष्यमाणायां मन्थरायां ततस्ततः।
चित्रं बहुविधं भाण्डं पृथिव्यां तद्व्यशीर्यत॥ १७॥
जब मन्थरा घसीटी जा रही थी, उस समय उसके नाना प्रकार के विचित्र आभूषण टूट-टूटकर पृथ्वी पर इधर-उधर विखरे जाते थे॥ १७॥
तेन भाण्डेन विस्तीर्णं श्रीमद् राजनिवेशनम्।
अशोभत तदा भूयः शारदं गगनं यथा॥१८॥
आभूषणों के उन टुकड़ों से वह शोभाशाली विशाल राजभवन नक्षत्रमालाओं से अलंकृत शरत्काल के आकाश की भाँति अधिक सुशोभित हो रहा था॥ १८॥
स बली बलवत् क्रोधाद् गृहीत्वा पुरुषर्षभः।
कैकेयीमभिनिर्भय॑ बभाषे परुषं वचः॥१९॥
बलवान् नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न जिस समय रोषपूर्वक मन्थरा को जोर से पकड़कर घसीट रहे थे, उस समय उसे छुड़ाने के लिये कैकेयी उनके पास आयी। तब उन्होंने उसे धिक्कारते हुए उसके प्रति बड़ी कठोर बातें कहीं-उसे रोषपूर्वक फटकारा॥ १९ ॥
तैर्वाक्यैः परुषैर्दुःखैः कैकेयी भृशदुःखिता।
शत्रुघ्नभयसंत्रस्ता पुत्रं शरणमागता॥२०॥
शत्रुघ्न के वे कठोर वचन बड़े ही दुःखदायी थे। उन्हें सुनकर कैकेयी को बहुत दुःख हुआ। वह शत्रुघ्न के भय से थर्रा उठी और अपने पुत्र की शरण में आयी॥२०॥
तं प्रेक्ष्य भरतः क्रुद्धं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्।
अवध्याः सर्वभूतानां प्रमदाः क्षम्यतामिति ॥२१॥
शत्रुघ्न को क्रोध में भरा हुआ देख भरत ने उनसे कहा—’सुमित्राकुमार! क्षमा करो स्त्रियाँ सभी प्राणियों के लिये अवध्य होती हैं ॥ २१॥
हन्यामहमिमां पापां कैकेयीं दुष्टचारिणीम्।
यदि मां धार्मिको रामो नासूयेन्मातृघातकम्॥ २२॥
‘यदि मुझे यह भय न होता कि धर्मात्मा श्रीराम मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करने लगेंगे तो मैं भी इस दुष्ट आचरण करने वाली पापिनी कैकेयी को मार डालता॥ २२॥
इमामपि हतां कुब्जां यदि जानाति राघवः।
त्वां च मां चैव धर्मात्मा नाभिभाषिष्यते ध्रुवम्॥ २३॥
‘धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी तो इस कुब्जा के भी मारे जाने का समाचार यदि जान लें तो वे निश्चय ही तुमसे और मुझसे बोलना भी छोड़ देंगे’ ॥ २३॥
भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः।
न्यवर्तत ततो दोषात् तां मुमोच च मूर्च्छिताम्॥ २४॥
भरतजी की यह बात सुनकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न मन्थरा के वधरूपी दोष से निवृत्त हो गये और उसे मूर्च्छित अवस्था में ही छोड़ दिया॥ २४ ॥
सा पादमूले कैकेय्या मन्थरा निपपात ह।
निःश्वसन्ती सुदुःखार्ता कृपणं विललाप ह॥ २५॥
मन्थरा कैकेयी के चरणों में गिर पड़ी और लंबी साँस खींचती हुई अत्यन्त दुःख से आर्त हो करुण विलाप करने लगी॥२५॥
शत्रुघ्नविक्षेपविमूढसंज्ञां समीक्ष्य कुब्जां भरतस्य माता।
शनैः समाश्वासयदार्तरूपां क्रौञ्ची विलग्नामिव वीक्षमाणाम्॥ २६॥
शत्रुघ्न के पटकने और घसीटने से आर्त एवं अचेत हुई कुब्जा को देखकर भरत की माता कैकेयी धीरे-धीरे उसे आश्वासन देने होश में लाने की चेष्टा करने लगी। उस समय कुब्जा पिंजड़ें में बँधी हुई क्रौञ्ची की भाँति कातर दृष्टि से उसकी ओर देख रही थी॥ २६ ॥
सर्ग ७९
ततः प्रभातसमये दिवसेऽथ चतुर्दशे।
समेत्य राजकर्तारो भरतं वाक्यमब्रुवन्॥१॥
तदनन्तर चौदहवें दिन प्रातःकाल समस्त राजकर्मचारी मिलकर भरत से इस प्रकार बोले-॥ १॥
गतो दशरथः स्वर्ग यो नो गुरुतरो गुरुः।
रामं प्रव्राज्य वै ज्येष्ठं लक्ष्मणं च महाबलम्॥२॥
त्वमद्य भव नो राजा राजपुत्रो महायशः।
संगत्या नापराध्नोति राज्यमेतदनायकम्॥३॥
‘महायशस्वी राजकुमार ! जो हमारे सर्वश्रेष्ठ गुरु थे, वे महाराज दशरथ तो अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण को वन में भेजकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गये, अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है; इसलिये अब आप ही हमारे राजा हों। आपके बड़े भाई को स्वयं महाराज ने वनवास की आज्ञा दी और आपको यह राज्य प्रदान किया ! अतः आपका राजा होना न्यायसङ्गत है। इस सङ्गति के कारण ही आप राज्य को अपने अधिकार में लेकर किसी के प्रति कोई अपराध नहीं कर रहे हैं ॥ २-३॥
आभिषेचनिकं सर्वमिदमादाय राघव।
प्रतीक्षते त्वां स्वजनः श्रेणयश्च नृपात्मज॥४॥
‘राजकुमार रघुनन्दन! ये मन्त्री आदि स्वजन, पुरवासी तथा सेठलोग अभिषेक की सब सामग्री लेकर आपकी राह देखते हैं॥४॥
राज्यं गृहाण भरत पितृपैतामहं ध्रुवम्।
अभिषेचय चात्मानं पाहि चास्मान् नरर्षभ॥५॥
‘भरतजी! आप अपने माता-पितामहों के इस राज्य को अवश्य ग्रहण कीजिये। नरश्रेष्ठ! राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये और हमलोगों की रक्षा कीजिये।
आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा सर्वं प्रदक्षिणम्।
भरतस्तं जनं सर्वं प्रत्युवाच धृतव्रतः॥६॥
यह सुनकर उत्तम व्रत को धारण करने वाले भरत ने अभिषेक के लिये रखी हुई कलश आदि सब सामग्री की प्रदक्षिणा की और वहाँ उपस्थित हुए सब लोगों को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥६॥
ज्येष्ठस्य राजता नित्यमुचिता हि कुलस्य नः।
नैवं भवन्तो मां वक्तुमर्हन्ति कुशला जनाः॥७॥
‘सज्जनो! आपलोग बुद्धिमान् हैं, आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। हमारे कुल में सदा ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता आया है और यही उचित भी है॥ ७॥
रामः पूर्वो हि नो भ्राता भविष्यति महीपतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि वर्षाणि नव पञ्च च॥ ८॥
‘श्रीरामचन्द्रजी हमलोगों के बड़े भाई हैं, अतः वे ही राजा होंगे। उनके बदले मैं ही चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा॥८॥
युज्यतां महती सेना चतुरङ्गमहाबला।
आनयिष्याम्यहं ज्येष्ठं भ्रातरं राघवं वनात्॥९॥
‘आपलोग विशाल चतुरङ्गिणी सेना, जो सब प्रकार से सबल हो, तैयार कीजिये। मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी को वन से लौटा लाऊँगा॥९॥
आभिषेचनिकं चैव सर्वमेतदुपस्कृतम्।
पुरस्कृत्य गमिष्यामि रामहेतोर्वनं प्रति॥१०॥
तत्रैव तं नरव्याघ्रमभिषिच्य पुरस्कृतम्।
आनयिष्यामि वै रामं हव्यवाहमिवाध्वरात्॥ ११॥
‘अभिषेक के लिये संचित हुई इस सारी सामग्री को आगे करके मैं श्रीराम से मिलने के लिये वन में चलूँगा और उन नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी का वहीं अभिषेक करके यज्ञ से लायी जाने वाली अग्नि के समान उन्हें आगे करके अयोध्या में ले आऊँगा॥ १०-११॥
न सकामां करिष्यामि स्वामिमां मातृगन्धिनीम्।
वने वत्स्याम्यहं दुर्गे रामो राजा भविष्यति॥१२॥
‘परंतु जिसमें लेशमात्र मातृभाव शेष है, अपनी माता कहलाने वाली इस कैकेयी को मैं कदापि सफल मनोरथ नहीं होने दूंगा। श्रीराम यहाँ के राजा होंगे और मैं दुर्गम वन में निवास करूँगा॥ १२ ॥
क्रियतां शिल्पिभिः पन्थाः समानि विषमाणि च।
रक्षिणश्चानुसंयान्तु पथि दुर्गविचारकाः॥१३॥
‘कारीगर आगे जाकर रास्ता बनायें, ऊँची-नीची भूमि को बराबर करें तथा मार्ग में दुर्गम स्थानों की जानकारी रखने वाले रक्षक भी साथ-साथ चलें’। १३॥
एवं सम्भाषमाणं तं रामहेतोर्नृपात्मजम्।
प्रत्युवाच जनः सर्वः श्रीमद् वाक्यमनुत्तमम्॥ १४॥
श्रीरामचन्द्रजी के लिये ऐसी बातें कहते हुए राजकुमार भरत से वहाँ आये हुए सब लोगों ने इस प्रकार सुन्दर एवं परम उत्तम बात कही- ॥१४॥
एवं ते भाषमाणस्य पद्मा श्रीरुपतिष्ठताम्।
यस्त्वं ज्येष्ठे नृपसुते पृथिवीं दातुमिच्छसि॥१५॥
‘भरतजी! ऐसे उत्तम वचन कहने वाले आपके पास कमलवन में निवास करने वाली लक्ष्मी अवस्थित हों क्योंकि आप राजा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको स्वयं ही इस पृथिवीका राज्य लौटा देना चाहते हैं’॥ १५॥
अनुत्तमं तद्वचनं नृपात्मजः प्रभाषितं संश्रवणे निशम्य च।
प्रहर्षजास्तं प्रति बाष्पबिन्दवो निपेतुरार्यानननेत्रसम्भवाः॥१६॥
उन लोगों का कहा हुआ वह परम उत्तम आशीर्वचन जब कान में पड़ा, तब उसे सुनकर राजकुमार भरत को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सबकी ओर देखकर भरत के मुखमण्डल में सुशोभित होने वाले नेत्रों से हर्षजनित आँसुओं की बूंदें गिरने लगीं। १६॥
ऊचुस्ते वचनमिदं निशम्य हृष्टाः सामात्याः सपरिषदो वियातशोकाः।
पन्थानं नरवरभक्तिमान् जनश्च व्यादिष्टस्तव वचनाच्च शिल्पिवर्गः॥१७॥
भरत के मुख से श्रीराम को ले आने की बात सुनकर उस सभा के सभी सदस्यों और मन्त्रियों सहित समस्त राजकर्मचारी हर्ष से खिल उठे। उनका सारा शोक दूर हो गया और वे भरत से बोले—’नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञा के अनुसार राजपरिवार के प्रति भक्तिभाव रखने वाले कारीगरों और रक्षकों को मार्ग ठीक करने के लिये भेज दिया गया है’॥
सर्ग ८०
अथ भूमिप्रदेशज्ञाः सूत्रकर्मविशारदाः।
स्वकर्माभिरताः शूराः खनका यन्त्रकास्तथा॥ १॥
कान्तिकाः स्थपतयः पुरुषा यन्त्रकोविदाः।
तथा वर्धकयश्चैव मार्गिणो वृक्षतक्षकाः॥२॥
सूपकाराः सुधाकारा वंशचर्मकृतस्तथा।
समर्था ये च द्रष्टारः पुरतश्च प्रतस्थिरे॥३॥
तत्पश्चात् ऊँची-नीची एवं सजल-निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, सूत्रकर्म (छावनी आदि बनाने के लिये सूत धारण करने) में कुशल, मार्ग की रक्षा आदि अपने कर्म में सदा सावधान रहने वाले शूर-वीर, भूमि खोदने या सुरङ्ग आदि बनाने वाले, नदी आदि पार करने के लिये तुरंत साधन उपस्थित करनेवाले अथवा जल के प्रवाह को रोकने वाले वेतन भोगी कारीगर, थवई, रथ और यन्त्र आदि बनाने वाले पुरुष, बढ़ई, मार्गरक्षक, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूनेसे पोतने आदि का काम करने वाले, बाँस की चटाई और सूप आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजामा आदि बनाने वाले तथा रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले सामर्थ्यशाली पुरुषों ने पहले प्रस्थान किया॥१-३॥
स तु हर्षात् तमुद्देशं जनौघो विपुलः प्रयान्।
अशोभत महावेगः सागरस्येव पर्वणि॥४॥
उस समय मार्ग ठीक करने के लिये एक विशाल जनसमुदाय बड़े हर्ष के साथ वनप्रदेश की ओर अग्रसर हुआ, जो पूर्णिमा के दिन उमड़े हुए समुद्र के महान् वेग की भाँति शोभा पा रहा था॥ ४ ॥
ते स्ववारं समास्थाय वर्मकर्मणि कोविदाः।
करणैर्विविधोपेतैः पुरस्तात् सम्प्रतस्थिरे॥५॥
वे मार्ग-निर्माण में निपुण कारीगर अपना-अपना दल साथ लेकर अनेक प्रकार के औजारों के साथ आगे चल दिये॥५॥
लता वल्लीश्च गुल्मांश्च स्थाणूनश्मन एव च।
जनास्ते चक्रिरे मार्ग छिन्दन्तो विविधान् द्रुमान्॥
वे लोग लताएँ, बेलें, झाड़ियाँ, ठूठे वृक्ष तथा पत्थरों को हटाते और नाना प्रकार के वृक्षों को काटते हुए मार्ग तैयार करने लगे॥६॥
अवृक्षेषु च देशेषु केचिद् वृक्षानरोपयन्।
केचित् कुठारैष्टकैश्च दात्रैश्छिन्दन् क्वचित् क्वचित्॥७॥
जिन स्थानों में वृक्ष नहीं थे, वहाँ कुछ लोगों ने वृक्ष भी लगाये। कुछ कारीगरों ने कुल्हाड़ों, टंकों (पत्थर तोड़ने के औजारों) तथा हँसियों से कहीं-कहीं वृक्षों और घासों को काट-काटकर रास्ता साफ किया।॥ ७॥
अपरे वीरणस्तम्बान् बलिनो बलवत्तराः।
विधमन्ति स्म दुर्गाणि स्थलानि च ततस्ततः॥ ८॥
अपरेऽपूरयन् कूपान् पांसुभिः श्वभ्रमायतम्।
निम्नभागांस्तथैवाशु समांश्चक्रुः समन्ततः॥९॥
अन्य प्रबल मनुष्यों ने जिनकी जड़ें नीचेतक जमी हुई थीं, उन कुश, कास आदि के झुरमुटों को हाथों से ही उखाड़ फेंका। वे जहाँ-तहाँ ऊँचे-नीचे दुर्गम स्थानों को खोद-खोदकर बराबर कर देते थे। दूसरे लोग कुओं और लंबे-चौड़े गड्ढों को धूलों से ही पाट देते थे। जो स्थान नीचे होते, वहाँ सब ओर से मिट्टी डालकर वे उन्हें शीघ्र ही बराबर कर देते थे। ८-९॥
बबन्धर्बन्धनीयांश्च क्षोद्यान् संचुक्षुदुस्तथा।
बिभिदुर्भेदनीयांश्च तांस्तान् देशान् नरास्तदा॥ १०॥
उन्होंने जहाँ पुल बाँधने के योग्य पानी देखा, वहाँ पुल बाँध दिये। जहाँ कँकरीली जमीन दिखायी दी, वहाँ उसे ठोक-पीटकर मुलायम कर दिया और जहाँ पानी बहने के लिये मार्ग बनाना आवश्यक समझा,वहाँ बाँध काट दिया। इस प्रकार विभिन्न देशों में वहाँ की आवश्यकता के अनुसार कार्य किया॥१०॥
अचिरेण तु कालेन परिवाहान् बहूदकान्।
चक्रुर्बहुविधाकारान् सागरप्रतिमान् बहून्॥११॥
छोटे-छोटे सोतो को, जिनका पानी सब ओर बह जाया करता था, चारों ओर से बाँधकर शीघ्र ही अधिक जलवाला बना दिया। इस तरह थोड़े ही समय में उन्होंने भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के बहुत-से सरोवर तैयार कर दिये, जो अगाध जल से भरे होने के कारण समुद्र के समान जान पड़ते थे॥११॥
निर्जलेषु च देशेषु खानयामासुरुत्तमान्।
उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान्॥ १२॥
निर्जल स्थानों में नाना प्रकार के अच्छे-अच्छे कुएँ और बावड़ी आदि बनवा दिये, जो आस-पास बनी हुई वेदिकाओं से अलंकृत थे॥ १२ ॥
ससुधाकुट्टिमतलः प्रपुष्पितमहीरुहः।
मत्तो ष्टद्विजगणः पताकाभिरलंकृतः॥१३॥
चन्दनोदकसंसिक्तो नानाकुसुमभूषितः।
बह्वशोभत सेनायाः पन्थाः सुरपथोपमः॥१४॥
इस प्रकार सेना का वह मार्ग देवताओं के मार्ग की भाँति अधिक शोभा पाने लगा। उसकी भूमिपर चूनासुर्थी और कंकरीट बिछाकर उसे कूट-पीटकर पक्का कर दिया गया था। उसके किनारे-किनारे फूलों से सुशोभित वृक्ष लगाये गये थे। वहाँ के वृक्षों पर मतवाले पक्षी चहक रहे थे। सारे मार्ग को पताकाओं से सजा दिया गया था, उसपर चन्दनमिश्रित जल का छिड़काव किया गया था तथा अनेक प्रकार के फूलों से वह सड़क सजायी गयी थी॥
आज्ञाप्याथ यथाज्ञप्ति युक्तास्तेऽधिकृता नराः।
रमणीयेषु देशेषु बहुस्वादुफलेषु च॥१५॥
यो निवेशस्त्वभिप्रेतो भरतस्य महात्मनः।
भूयस्तं शोभयामासुभूषाभिभूषणोपमम्॥१६॥
मार्ग बन जाने पर जहाँ-तहाँ छावनी आदि बनाने के लिये जिन्हें अधिकार दिया गया था, कार्य में दत्त-चित्त रहने वाले उन लोगों ने भरत की आज्ञा के अनुसार सेवकों को काम करने का आदेश देकर जहाँ स्वादिष्ट फलों की अधिकता थी उन सुन्दर प्रदेशों में छावनियाँ बनवायीं और जो भरत को अभीष्ट था, मार्ग के भूषणरूप उस शिविर को नाना प्रकार के अलंकारों से और भी सजा दिया॥ १५-१६॥
नक्षत्रेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु च तद्विदः।
निवेशान् स्थापयामासुर्भरतस्य महात्मनः॥१७॥
वास्तु-कर्म के ज्ञाता विद्वानों ने उत्तम नक्षत्रों और मुहूर्तों में महात्मा भरत के ठहरने के लिये जो-जो स्थान बने थे, उनकी प्रतिष्ठा करवायी॥ १७ ॥
बहुपांसुचयाश्चापि परिखाः परिवारिताः।
तत्रेन्द्रनीलप्रतिमाः प्रतोलीवरशोभिताः॥१८॥
प्रासादमालासंयुक्ताः सौधप्राकारसंवृताः।
पताकाशोभिताः सर्वे सुनिर्मितमहापथाः॥१९॥
विसर्पद्भिरिवाकाशे विटङ्काग्रविमानकैः।
समच्छितैर्निवेशास्ते बभः शक्रपुरोपमाः॥२०॥
मार्ग में बने हए वे निवेश (विश्राम-स्थान) इन्द्रपुरी के समान शोभा पाते थे। उनके चारों ओर खाइयाँ खोदी गयी थीं, धूल-मिट्टी के ऊँचे ढेर लगाये गये थे। खेमों के भीतर इन्द्रनीलमणि की बनी हुई प्रतिमाएँ सजायी गयी थीं। गलियों और सड़कों से उनकी विशेष शोभा होती थी। राजकीय गृहों और देवस्थानों से युक्त वे शिविर चूने पुते हुए प्राकारों (चहारदीवारियों)से घिरे थे। सभी विश्रामस्थान पताकाओं से सुशोभित थे। सर्वत्र बड़ी-बड़ी सड़कों का सुन्दर ढंग से निर्माण किया गया था। विटङ्कों (कबूतरों के रहने के स्थानों-कावकों) और ऊँचे-ऊँचे श्रेष्ठ विमानों के कारण उन सभी शिविरों की बड़ी शोभा हो रही थी॥ १८-२०॥
जाह्नवीं तु समासाद्य विविधद्रुमकाननाम्।
शीतलामलपानीयां महामीनसमाकुलाम्॥२१॥
सचन्द्रतारागणमण्डितं यथा नभः क्षपायाममलं विराजते।
नरेन्द्रमार्गः स तदा व्यराजत क्रमेण रम्यः शुभशिल्पिनिर्मितः॥ २२॥
नाना प्रकार के वृक्षों और वनों से सुशोभित, शीतल निर्मल जल से भरी हुई और बड़े-बड़े मत्स्यों से व्याप्त गङ्गा के किनारे तक बना हुआ वह रमणीय राजमार्ग उस समय बड़ी शोभा पा रहा था। अच्छे कारीगरों ने उसका निर्माण किया था। रात्रि के समय वह चन्द्रमा और तारागणों से मण्डित निर्मल आकाश के समान सुशोभित होता था॥२१-२२॥
सर्ग ८१
ततो नान्दीमुखीं रात्रिं भरतं सूतमागधाः।
तुष्टुवुः सविशेषज्ञाः स्तवैर्मङ्गलसंस्तवैः॥१॥
इधर अयोध्या में उस अभ्युदयसूचक रात्रि का थोड़ा-सा ही भाग अवशिष्ट देख स्तुति-कलाके विशेषज्ञ सूत और मागधों ने मङ्गलमयी स्तुतियों द्वारा भरत का स्तवन आरम्भ किया॥१॥
सुवर्णकोणाभिहतः प्राणदद्यामदुन्दुभिः।
दध्मुः शङ्खांश्च शतशो वाद्यांश्चोच्चावचस्वरान्॥ २॥
प्रहरकी समाप्ति को सूचित करने वाली दुन्दुभि सोने के डंडे से आहत होकर बज उठी। बाजे बजाने वालों ने शङ्ख तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकार के सैकड़ों बाजे बजाये॥२॥
स तूर्यघोषः सुमहान् दिवमापूरयन्निव।
भरतं शोकसंतप्तं भूयः शोकैररन्धयत्॥३॥
वाद्यों का वह महान् तुमुल घोष समस्त आकाश को व्याप्त करता हुआ-सा गूंज उठा और शोकसंतप्त भरत को पुनः शोकाग्नि की आँच से राँध ने लगा॥३॥
ततः प्रबुद्धो भरतस्तं घोषं संनिवर्त्य च।
नाहं राजेति चोक्त्वा तं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्॥४॥
वाद्यों की उस ध्वनि से भरत की नींद खुल गयी; वे जाग उठे और ‘मैं राजा नहीं हूँ’ ऐसा कहकर उन्होंने उन बाजों का बजना बंद करा दिया। तत्पश्चात् वे शत्रुघ्न से बोले -
पश्य शत्रुघ्न कैकेय्या लोकस्यापकृतं महत्।
विसृज्य मयि दुःखानि राजा दशरथो गतः॥५॥
‘शत्रुघ्न! देखो तो सही, कैकेयी ने जगत् का कितना महान् अपकार किया है। महाराज दशरथ मुझ पर बहुत-से दुःखों का बोझ डालकर स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
तस्यैषा धर्मराजस्य धर्ममूला महात्मनः।
परिभ्रमति राजश्रीनौरिवाकर्णिका जले॥६॥
‘आज उन धर्मराज महामना नरेश की यह धर्ममूला राजलक्ष्मी जल में पड़ी हुई बिना नाविक की नौका के समान इधर-उधर डगमगा रही है॥६॥
यो हि नः सुमहान् नाथः सोऽपि प्रव्राजितो वने।
अनया धर्ममुत्सृज्य मात्रा मे राघवः स्वयम्॥७॥
‘जो हमलोगों के सबसे बड़े स्वामी और संरक्षक हैं, उन श्रीरघुनाथजी को भी स्वयं मेरी इस माता ने धर्म को तिलाञ्जलि देकर वन में भेज दिया’ ॥ ७॥
इत्येवं भरतं वीक्ष्य विलपन्तमचेतनम्।
कृपणा रुरुदुः सर्वाः सुस्वरं योषितस्तदा ॥८॥
उस समय भरत को इस प्रकार अचेत हो-होकर विलाप करते देख रनिवास की सारी स्त्रियाँ दीनभाव से फूट-फूटकर रोने लगीं॥ ८॥
तथा तस्मिन् विलपति वसिष्ठो राजधर्मवित्।
सभामिक्ष्वाकुनाथस्य प्रविवेश महायशाः॥९॥
जब भरत इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय राजधर्म के ज्ञाता महायशस्वी महर्षि वसिष्ठ ने इक्ष्वाकुनाथ राजा दशरथ के सभाभवन में प्रवेश किया॥९॥
शातकुम्भमयीं रम्यां मणिहेमसमाकुलाम्।
सुधर्मामिव धर्मात्मा सगणः प्रत्यपद्यत॥१०॥
स काञ्चनमयं पीठं स्वस्त्यास्तरणसंवृतम्।
अध्यास्त सर्ववेदज्ञो दूताननुशशास च॥११॥
वह सभाभवन अधिकांश सुवर्ण का बना हुआ था। उसमें सोने के खम्भे लगे थे। वह रमणीय सभा देवताओं की सुधर्मा सभा के समान शोभा पाती थी। सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता धर्मात्मा वसिष्ठ ने अपने शिष्यगण के साथ उस सभा में पदार्पण किया और सुवर्णमय पीठ पर जो स्वस्तिका कार बिछौने से ढका हुआ था, वे विराजमान हुए। आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने दूतों को आज्ञा दी— ॥ १०-११॥
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् योधानमात्यान् गणवल्लभान्।
क्षिप्रमानयताव्यग्राः कृत्यमात्ययिकं हि नः॥ १२॥
सराजपुत्रं शत्रुघ्नं भरतं च यशस्विनम्।
युधाजितं सुमन्त्रं च ये च तत्र हिता जनाः॥ १३॥
‘तुमलोग शान्तभाव से जाकर ब्राह्मणों, क्षत्रियों, योद्धाओं, अमात्यों और सेनापतियों को शीघ्र बुला लाओ। अन्य राजकुमारों के साथ यशस्वी भरत और शत्रुघ्न को, मन्त्री युधाजित् और सुमन्त्र को तथा और भी जो हितैषी पुरुष वहाँ हों उन सबको शीघ्र बुलाओ। हमें उनसे बहुत ही आवश्यक कार्य है’। १२-१३॥
ततो हलहलाशब्दो महान् समुदपद्यत।
रथैरश्वैर्गजैश्चापि जनानामुपगच्छताम्॥१४॥
तदनन्तर घोड़े, हाथी और रथों से आने वाले लोगों का महान् कोलाहल आरम्भ हुआ॥१४॥
ततो भरतमायान्तं शतक्रतुमिवामराः।
प्रत्यनन्दन् प्रकृतयो यथा दशरथं तथा॥१५॥
तत्पश्चात् जैसे देवता इन्द्र का अभिनन्दन करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रकृतियों (मन्त्री-प्रजा आदि) ने आते हुए भरत का राजा दशरथ की ही भाँति अभिनन्दन किया॥
ह्रद इव तिमिनागसंवृतः स्तिमितजलो मणिशङ्खशर्करः।
दशरथसुतशोभिता सभा सदशरथेव बभूव सा पुरा॥१६॥
तिमि नामक महान् मत्स्य और जलहस्ती से युक्त, स्थिर जलवाले तथा मुक्ता आदि मणियों से युक्त शङ्खऔर बालुका वाले समुद्र के जलाशय की भाँति वह सभा दशरथ पुत्र भरत से सुशोभित होकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे पूर्वकाल में राजा दशरथ की उपस्थिति से शोभा पाती थी॥ १६॥
सर्ग ८२
तामार्यगणसम्पूर्णां भरतः प्रग्रहां सभाम्।
ददर्श बुद्धिसम्पन्नः पूर्णचन्द्रां निशामिव॥१॥
बुद्धिमान् भरत ने उत्तम ग्रह-नक्षत्रों से सुशोभित और पूर्ण चन्द्रमण्डल से प्रकाशित रात्रि की भाँति उस सभा को देखा। वह श्रेष्ठ पुरुषों की मण्डली से भरी-पूरी तथा वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ मुनियों की उपस्थिति से शोभायमान थी॥१॥
आसनानि यथान्यायमार्याणां विशतां तदा।
वस्त्राङ्गरागप्रभया द्योतिता सा सभोत्तमा॥२॥
उस समय यथायोग्य आसनों पर बैठे हुए आर्य पुरुषों के वस्त्रों तथा अङ्गरागों की प्रभा से वह उत्तम सभा अधिक दीप्तिमती हो उठी थी॥२॥
सा विद्वज्जनसम्पूर्णा सभा सुरुचिरा तथा।
अदृश्यत घनापाये पूर्णचन्द्रेव शर्वरी॥३॥
जैसे वर्षाकाल व्यतीत होने पर शरद्-ऋतु की पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्रमण्डल से अलंकृत रजनी बड़ी मनोहर दिखायी देती है, उसी प्रकार विद्वानों के समुदाय से भरी हुई वह सभा बड़ी सुन्दर दिखायी देती थी॥३॥
राज्ञस्तु प्रकृतीः सर्वाः स सम्प्रेक्ष्य च धर्मवित् ।
इदं पुरोहितो वाक्यं भरतं मृदु चाब्रवीत्॥४॥
उस समय धर्म के ज्ञाता पुरोहित वसिष्ठजी ने राजा की सम्पूर्ण प्रकृतियों को उपस्थित देख भरत से यह मधुर वचन कहा— ॥४॥
तात राजा दशरथः स्वर्गतो धर्ममाचरन्।
धनधान्यवतीं स्फीतां प्रदाय पृथिवीं तव॥५॥
‘तात! राजा दशरथ यह धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धिशालिनी पृथिवी तुम्हें देकर स्वयं धर्म का आचरण करते हुए स्वर्गवासी हुए हैं ॥ ५ ॥
रामस्तथा सत्यवृत्तिः सतां धर्ममनुस्मरन्।
नाजहात् पितुरादेशं शशी ज्योत्स्नामिवोदितः॥ ६॥
‘सत्यपूर्ण बर्ताव करने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने सत्पुरुषों के धर्म का विचार करके पिताकी आज्ञा का उसी प्रकार उल्लङ्घन नहीं किया, जैसे उदित चन्द्रमा अपनी चाँदनी को नहीं छोड़ता है॥६॥
पित्रा भ्रात्रा च ते दत्तं राज्यं निहतकण्टकम्।
तद् भुक्ष्व मुदितामात्यः क्षिप्रमेवाभिषेचय॥ ७॥
उदीच्याश्च प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च केवलाः।
कोट्यापरान्ताः सामुद्रा रत्नान्युपहरन्तु ते॥८॥
‘इस प्रकार पिता और ज्येष्ठ भ्राता—दोनों ने ही तुम्हें यह अकण्टक राज्य प्रदान किया है। अतः तुम मन्त्रियों को प्रसन्न रखते हुए इसका पालन करो और शीघ्र ही अपना अभिषेक करा लो। जिससे उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व और अपरान्त देश के निवासी राजा तथा समुद्र में जहाजों द्वारा व्यापार करने वाले व्यवसायी तुम्हें असंख्य रत्न प्रदान करें। ७-८॥
तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं शोकेनाभिपरिप्लुतः।
जगाम मनसा रामं धर्मज्ञो धर्मकांक्षया॥९॥
यह बात सुनकर धर्मज्ञ भरत शोक में डूब गये और धर्मपालन की इच्छा से उन्होंने मन-ही-मन श्रीराम की शरण ली॥ ९॥
सबाष्पकलया वाचा कलहंसस्वरो युवा।
विललाप सभामध्ये जगहें च पुरोहितम्॥१०॥
नवयुवक भरत उस भरी सभा में आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी द्वारा कलहंस के समान मधुर स्वर से विलाप करने और पुरोहितजी को उपालम्भ देने लगे – ॥१०॥
चरितब्रह्मचर्यस्य विद्यास्नातस्य धीमतः।
धर्मे प्रयतमानस्य को राज्यं मद्विधो हरेत्॥११॥
‘गुरुदेव! जिन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात हुए तथा जो सदा ही धर्म के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, उन बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजी के राज्य का मेरे-जैसा कौन मनुष्य अपहरण कर सकता है ? ॥ ११॥
कथं दशरथाज्जातो भवेद् राज्यापहारकः।
राज्यं चाहं च रामस्य धर्मं वक्तुमिहार्हसि ॥१२॥
‘महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र बड़े भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? यह राज्य और मैं दोनों ही श्रीराम के हैं; यह समझकर आपको इस सभा में धर्मसंगत बात कहनी चाहिये (अन्याययुक्त नहीं)॥
ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च धर्मात्मा दिलीपनहुषोपमः।
लब्धुमर्हति काकुत्स्थो राज्यं दशरथो यथा॥ १३॥
‘धर्मात्मा श्रीराम मुझसे अवस्था में बड़े और गुणों में भी श्रेष्ठ हैं। वे दिलीप और नहुष के समान तेजस्वी हैं; अतः महाराज दशरथ की भाँति वे ही इस राज्य को पाने के अधिकारी हैं॥ १३॥
अनार्यजुष्टमस्वयं कुर्यां पापमहं यदि।
इक्ष्वाकूणामहं लोके भवेयं कुलपांसनः॥१४॥
‘पाप का आचरण तो नीच पुरुष करते हैं। वह मनुष्य को निश्चय ही नरक में डालने वाला है। यदि श्रीरामचन्द्रजी का राज्य लेकर मैं भी पापाचरण करूँ तो संसार में इक्ष्वाकुकुल का कलंक समझा जाऊँगा॥ १४॥
यद्धि मात्रा कृतं पापं नाहं तदपि रोचये।
इहस्थो वनदुर्गस्थं नमस्यामि कृताञ्जलिः॥१५॥
‘मेरी माता ने जो पाप किया है, उसे मैं कभी पसंद नहीं करता; इसीलिये यहाँ रहकर भी मैं दुर्गम वन में निवास करने वाले श्रीरामचन्द्रजी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥ १५ ॥
राममेवानुगच्छामि स राजा द्विपदां वरः।
त्रयाणामपि लोकानां राघवो राज्यमर्हति॥१६॥
‘मैं श्रीराम का ही अनुसरण करूँगा। मनुष्यों में श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजी ही इस राज्य के राजा हैं। वे तीनों ही लोकों के राजा होने योग्य हैं ॥ १६॥
तद्वाक्यं धर्मसंयुक्तं श्रुत्वा सर्वे सभासदः।
हर्षान्मुमुचुरश्रूणि रामे निहितचेतसः॥ १७॥
भरत का वह धर्मयुक्त वचन सुनकर सभी सभासद् श्रीराम में चित्त लगाकर हर्ष के आँसू बहाने लगे। १७॥
यदि त्वार्यं न शक्ष्यामि विनिवर्तयितुं वनात्।
वने तत्रैव वत्स्यामि यथार्यो लक्ष्मणस्तथा॥१८॥
भरत ने फिर कहा—’यदि मैं आर्य श्रीराम को वन से न लौटा सकूँगा तो स्वयं भी नरश्रेष्ठ लक्ष्मण की भाँति वहीं निवास करूँगा॥ १८॥
सर्वोपायं तु वर्तिष्ये विनिवर्तयितुं बलात्।
समक्षमार्यमिश्राणां साधूनां गुणवर्तिनाम्॥१९॥
‘मैं आप सभी सद्गुणयुक्त बर्ताव करने वाले पूजनीय श्रेष्ठ सभासदों के समक्ष श्रीरामचन्द्रजी को बलपूर्वक लौटा लाने के लिये सारे उपायों से चेष्टा करूँगा॥ १९॥
विष्टिकान्तिकाः सर्वे मार्गशोधकदक्षकाः।
प्रस्थापिता मया पूर्वं यात्रा च मम रोचते॥२०॥
‘मैंने मार्गशोधन में कुशल सभी अवैतनिक तथा वेतनभोगी कार्यकर्ताओं को पहले ही यहाँ से भेज दिया है। अतः मुझे श्रीरामचन्द्रजी के पास चलना ही अच्छा जान पड़ता है’ ॥ २०॥
एवमुक्त्वा तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः।
समीपस्थमुवाचेदं सुमन्त्रं मन्त्रकोविदम्॥२१॥
सभासदों से ऐसा कहकर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा भरत पास बैठे हुए मन्त्रवेत्ता सुमन्त्र से इस प्रकार बोले-॥
तूर्णमुत्थाय गच्छ त्वं सुमन्त्र मम शासनात्।
यात्रामाज्ञापय क्षिप्रं बलं चैव समानय॥२२॥
‘सुमन्त्रजी! आप जल्दी उठकर जाइये और मेरी आज्ञा से सबको वन में चलने का आदेश सूचित कर दीजिये और सेना को भी शीघ्र ही बुला भेजिये’। २२॥
एवमुक्तः सुमन्त्रस्तु भरतेन महात्मना।
प्रहृष्टः सोऽदिशत् सर्वं यथासंदिष्टमिष्टवत्॥२३॥
महात्मा भरत के ऐसा कहने पर सुमन्त्र ने बड़े हर्ष के साथ सबको उनके कथनानुसार वह प्रिय संदेश सुना दिया॥ २३॥
ताः प्रहृष्टाः प्रकृतयो बलाध्यक्षा बलस्य च।
श्रुत्वा यात्रां समाज्ञप्तां राघवस्य निवर्तने॥२४॥
‘श्रीरामचन्द्रजी को लौटा लाने के लिये भरत जायँगे और उनके साथ जाने के लिये सेना को भी आदेश प्राप्त हुआ है’ यह समाचार सुनकर वे सभी प्रजाजन तथा सेनापतिगण बहुत प्रसन्न हुए॥२४॥
ततो योधाङ्गनाः सर्वा भर्तृन् सर्वान् गृहे गृहे।
यात्रागमनमाज्ञाय त्वरयन्ति स्म हर्षिताः॥२५॥
तदनन्तर उस यात्रा का समाचार पाकर सैनिकों की सभी स्त्रियाँ घर-घर में हर्ष से खिल उठीं और अपने पतियों को जल्दी तैयार होने के लिये प्रेरित करने लगीं।
ते हयैर्गोरथैः शीघ्रं स्यन्दनैश्च मनोजवैः।
सह योषिद्बलाध्यक्षा बलं सर्वमचोदयन्॥२६॥
सेनापतियों ने घोड़ों, बैलगाड़ियों तथा मन के समान वेगशाली रथों सहित सम्पूर्ण सेना को स्त्रियों सहित यात्रा के लिये शीघ्र तैयार होने की आज्ञा दी॥२६॥
सज्जं तु तद् बलं दृष्ट्वा भरतो गुरुसंनिधौ।
रथं मे त्वरयस्वेति सुमन्त्रं पार्श्वतोऽब्रवीत्॥२७॥
सेना को कूँच के लिये उद्यत देख भरत ने गुरु के समीप ही बगल में खड़े हुए सुमन्त्र से कहा—’आप मेरे रथ को शीघ्र तैयार करके लाइये’ ॥ २७॥
भरतस्य तु तस्याज्ञां परिगृह्य प्रहर्षितः।
रथं गृहीत्वोपययौ युक्तं परमवाजिभिः ॥ २८॥
भरत की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके सुमन्त्र बड़े हर्ष के साथ गये और उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ लेकर लौट आये॥२८॥
स राघवः सत्यधृतिः प्रतापवान् ब्रुवन् सुयुक्तं दृढसत्यविक्रमः।
गुरुं महारण्यगतं यशस्विनं प्रसादयिष्यन् भरतोऽब्रवीत् तदा ॥ २९॥
तब सुदृढ़ एवं सत्य पराक्रम वाले सत्यपरायण प्रतापी भरत विशाल वन में गये हुए अपने बड़े भाई यशस्वी श्रीराम को लौटा लाने के निमित्त राजी करने के लिये यात्रा के उद्देश्य से उस समय इस प्रकार बोले – ॥ २९॥
तूर्णं त्वमुत्थाय सुमन्त्र गच्छ बलस्य योगाय बलप्रधानान्।
आनेतुमिच्छामि हि तं वनस्थं प्रसाद्य रामं जगतो हिताय॥३०॥
‘सुमन्त्रजी! आप शीघ्र उठकर सेनापतियों के पास जाइये और उनसे कहकर सेना को कल फॅच करने के लिये तैयार होने का प्रबन्ध कीजिये; क्योंकि मैं सारे जगत् का कल्याण करने के लिये उन वनवासी श्रीराम को प्रसन्न करके यहाँ ले आना चाहता हूँ’॥ ३०॥
स सूतपुत्रो भरतेन सम्यगाज्ञापितः सम्परिपूर्णकामः।
शशास सर्वान् प्रकृतिप्रधानान् बलस्य मुख्यांश्च सुहृज्जनं च॥३१॥
भरत की यह उत्तम आज्ञा पाकर सूतपुत्र सुमन्त्र ने अपना मनोरथ सफल हुआ समझा और उन्होंने प्रजावर्ग के सभी प्रधान व्यक्तियों, सेनापतियों तथा सुहृदों को भरत का आदेश सुना दिया॥३१॥
ततः समुत्थाय कुले कुले ते राजन्यवैश्या वृषलाश्च विप्राः।
अयूयुजन्नुष्ट्ररथान् खरांश्च नागान् हयांश्चैव कुलप्रसूतान्॥३२॥
तब प्रत्येक घर के लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उठ-उठकर अच्छी जाति के घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे तथा रथों को जोतने लगे॥ ३२ ॥
सर्ग ८३
ततः समुत्थितः कल्यमास्थाय स्यन्दनोत्तमम्।
प्रययौ भरतः शीघ्रं रामदर्शनकाम्यया॥१॥
तदनन्तर प्रातःकाल उठकर भरत ने उत्तम रथपर आरूढ़ हो श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान किया॥१॥
अग्रतः प्रययुस्तस्य सर्वे मन्त्रिपुरोहिताः।
अधिरुह्य हयैर्युक्तान् रथान् सूर्यरथोपमान्॥२॥
उनके आगे-आगे सभी मन्त्री और पुरोहित घोड़े जुते हुए रथों पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। वे रथ सूर्यदेव के रथ के समान तेजस्वी दिखायी देते थे॥२॥
नवनागसहस्राणि कल्पितानि यथाविधि।
अन्वयुर्भरतं यान्तमिक्ष्वाकुकुलनन्दनम्॥३॥
यात्रा करते हुए इक्ष्वाकुकुलनन्दन भरत के पीछे पीछे विधिपूर्वक सजाये गये नौ हजार हाथी चल रहे थे॥
षष्ठी रथसहस्राणि धन्विनो विविधायुधाः।
अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम्॥४॥
यात्रापरायण यशस्वी राजकुमार भरत के पीछे साठ हजार रथ और नाना प्रकार के आयुध धारण करने वाले धनुर्धर योद्धा भी जा रहे थे॥ ४॥
शतं सहस्राण्यश्वानां समारूढानि राघवम्।
अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम्॥५॥
उसी प्रकार एक लाख घुड़सवार भी उन यशस्वी रघुकुलनन्दन राजकुमार भरत की यात्रा के समय उनका अनुसरण कर रहे थे॥५॥
कैकेयी च सुमित्रा च कौसल्या च यशस्विनी।
रामानयनसंतुष्टा ययुर्यानेन भास्वता॥६॥
कैकेयी, सुमित्रा और यशस्विनी कौसल्या देवी भी श्रीरामचन्द्रजी को लौटा लाने के लिये की जाने वाली उस यात्रा से संतुष्ट हो तेजस्वी रथ के द्वारा प्रस्थान की।
प्रयाताश्चार्यसंघाता रामं द्रष्टुं सलक्ष्मणम्।
तस्यैव च कथाश्चित्राः कुर्वाणा हृष्टमानसाः॥ ७॥
ब्राह्मण आदि आर्यों (त्रैवर्णिकों) के समूह मन में अत्यन्त हर्ष लेकर लक्ष्मणसहित श्रीराम का दर्शन करने के लिये उन्हीं के सम्बन्ध में विचित्र बातें कहते सुनते हुए यात्रा कर रहे थे॥७॥
मेघश्यामं महाबाहुं स्थिरसत्त्वं दृढव्रतम्।
कदा द्रक्ष्यामहे रामं जगतः शोकनाशनम्॥८॥
(वे आपस में कहते थे—) ‘हमलोग दृढ़ता के साथ उत्तम व्रत का पालन करने वाले तथा संसार का दुःख दूर करने वाले, स्थितप्रज्ञ, श्यामवर्ण महाबाहु श्रीराम का कब दर्शन करेंगे? ॥ ८॥
दृष्ट एव हि नः शोकमपनेष्यति राघवः।
तमः सर्वस्य लोकस्य समुद्यन्निव भास्करः॥९॥
‘जैसे सूर्यदेव उदय लेते ही सारे जगत् का अन्धकार हर लेते हैं, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी हमारी आँखों के सामने पड़ते ही हमलोगों का सारा शोक संताप दूर कर देंगे’॥ ९॥
इत्येवं कथयन्तस्ते सम्प्रहृष्टाः कथाः शुभाः।
परिष्वजानाश्चान्योन्यं ययुर्नागरिकास्तदा॥१०॥
इस प्रकार की बातें कहते और अत्यन्त हर्ष से भरकर एक-दूसरे का आलिङ्गन करते हुए अयोध्या के नागरिक उस समय यात्रा कर रहे थे॥ १० ॥
ये च तत्रापरे सर्वे सम्मता ये च नैगमाः।
रामं प्रतिययुर्हृष्टाः सर्वाः प्रकृतयः शुभाः॥११॥
उस नगर में जो दूसरे सम्मानित पुरुष थे, वे सब लोग तथा व्यापारी और शुभ विचार वाले प्रजाजन भी बड़े हर्ष के साथ श्रीराम से मिलने के लिये प्रस्थित हुए ॥ ११॥
मणिकाराश्च ये केचित् कुम्भकाराश्च शोभनाः।
सूत्रकर्मविशेषज्ञा ये च शस्त्रोपजीविनः॥१२॥
मायूरकाः क्राकचिका वेधका रोचकास्तथा।
दन्तकाराः सुधाकारा ये च गन्धोपजीविनः॥ १३॥
सुवर्णकाराः प्रख्यातास्तथा कम्बलकारकाः।
स्नापकोष्णोदका वैद्या धूपकाः शौण्डिकास्तथा॥१४॥
रजकास्तुन्नवायाश्च ग्रामघोषमहत्तराः।
शैलूषाश्च सह स्त्रीभिर्यान्ति कैवर्तकास्तथा॥ १५॥
समाहिता वेदविदो ब्राह्मणा वृत्तसम्मताः।
गोरथैर्भरतं यान्तमनुजग्मुः सहस्रशः॥१६॥
जो कोई मणिकार (मणियों को सान पर चढ़ाकर चमका देने वाले), अच्छे कुम्भकार, सूत का ताना बाना करके वस्त्र बनाने की कला के विशेषज्ञ, शस्त्र निर्माण करके जीविका चलाने वाले, मायूरक (मोर की पाँखों से छत्र-व्यजन आदि बनाने वाले), आरे से चन्दन आदि की लकड़ी चीरने वाले, मणि-मोती आदि में छेद करने वाले, रोचक (दीवारों और वेदी आदि में शोभा का सम्पादन करने वाले), दन्तकार (हाथी के दाँत आदि से नाना प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करने वाले), सुधाकार (चूना बनाने वाले), गन्धी, प्रसिद्ध सोनार, कम्बल और कालीन बनाने वाले, गरम जल से नहलाने का काम करने वाले, वैद्य, धूपक (धूपन-क्रिया द्वारा जीविका चलाने वाले), शौण्डिक (मद्यविक्रेता), धोबी, दर्जी, गाँवों तथा गोशालाओं के महतो, स्त्रियोंसहित नट, केवट तथा समाहितचित्त सदाचारी वेदवेत्ता सहस्रों ब्राह्मण बैलगाड़ियों पर चढ़कर वन की यात्रा करने वाले भरत के पीछे-पीछे गये॥ १२–१६ ॥
सुवेषाः शुद्धवसनास्ताम्रमृष्टानुलेपिनः।
सर्वे ते विविधैर्यानैः शनैर्भरतमन्वयुः ॥१७॥
सबके वेश सुन्दर थे। सबने शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे तथा सबके अङ्गों में ताँबे के समान लाल रंग का अङ्गराग लगा था। वे सब-के-सब नाना प्रकार के वाहनों द्वारा धीरे-धीरे भरत का अनुसरण कर रहे थे॥ १७॥
प्रहृष्टमुदिता सेना सान्वयात् कैकयीसुतम्।
भ्रातुरानयने यातं भरतं भ्रातृवत्सलम्॥१८॥
हर्ष और आनन्द में भरी हुई वह सेना भाई को बुलाने के लिये प्रस्थित हुए कैकेयी कुमार भ्रातृवत्सल भरत के पीछे-पीछे चलने लगी॥ १८॥
ते गत्वा दूरमध्वानं रथयानाश्वकुञ्जरैः।
समासेदुस्ततो गङ्गां शृङ्गवेरपुरं प्रति॥ १९॥
इस प्रकार रथ, पालकी, घोड़े और हाथियों के द्वारा बहुत दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद वे सब लोग शृङ्गवेरपुर में गङ्गाजी के तट पर जा पहुँचे॥ १९ ॥
यत्र रामसखा वीरो गुहो ज्ञातिगणैर्वृतः।
निवसत्यप्रमादेन देशं तं परिपालयन्॥२०॥
जहाँ श्रीरामचन्द्रजी का सखा वीर निषादराज गुह सावधानी के साथ उस देश की रक्षा करता हुआ अपने भाई-बन्धुओं के साथ निवास करता था॥ २० ॥
उपेत्य तीरं गङ्गायाश्चक्रवाकैरलंकृतम्।
व्यवतिष्ठत सा सेना भरतस्यानुयायिनी॥२१॥
चक्रवाकों से अलंकृत गङ्गा तट पर पहुँचकर भरत का अनुसरण करने वाली वह सेना ठहर गयी॥ २१ ॥
निरीक्ष्यानुत्थितां सेनां तां च गङ्गां शिवोदकाम्।
भरतः सचिवान् सर्वानब्रवीद् वाक्यकोविदः॥ २२॥
पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन करके अपनी उस सेना को शिथिल हुई देख बातचीत करने की कला में कुशल भरत ने समस्त सचिवों से कहा— ॥ २२ ॥
निवेशयत मे सैन्यमभिप्रायेण सर्वतः।
विश्रान्ताः प्रतरिष्यामः श्व इमां सागरङ्गमाम्॥ २३॥
‘आपलोग मेरे सैनिकों को उनकी इच्छा के अनुसार यहाँ सब ओर ठहरा दीजिये। आज रात में विश्राम कर लेने के बाद हम सब लोग कल सबेरे इन सागर गामिनी नदी गङ्गाजी को पार करेंगे॥ २३ ॥
दातुं च तावदिच्छामि स्वर्गतस्य महीपतेः।
और्ध्वदेहनिमित्तार्थमवतीर्योदकं नदीम्॥ २४॥
‘यहाँ ठहरने का एक और प्रयोजन है—मैं चाहता हूँ कि गङ्गाजी में उतरकर स्वर्गीय महाराज के पारलौकिक कल्याण के लिये जलाञ्जलि दे दूं’। २४॥
तस्यैवं ब्रुवतोऽमात्यास्तथेत्युक्त्वा समाहिताः।
न्यवेशयंस्तांश्छन्देन स्वेन स्वेन पृथक् पृथक्॥ २५॥
उनके इस प्रकार कहने पर सभी मन्त्रियों ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और समस्त सैनिकों को उनकी इच्छा के अनुसार भिन्नभिन्न स्थानों पर ठहरा दिया॥ २५ ॥
निवेश्य गङ्गामनु तां महानदी चमं विधानैः परिबर्हशोभिनीम।
उवास रामस्य तदा महात्मनो विचिन्तमानो भरतो निवर्तनम्॥२६॥
महानदी गङ्गा के तटपर खेमे आदि से सुशोभित होने वाली उस सेना को व्यवस्थापूर्वक ठहराकर भरत ने महात्मा श्रीराम के लौटने के विषय में विचार करते हुए उस समय वहीं निवास किया॥ २६ ॥
सर्ग ८४
ततो निविष्टां ध्वजिनीं गङ्गामन्वाश्रितां नदीम्।
निषादराजो दृष्ट्वैव ज्ञातीन् स परितोऽब्रवीत्॥
उधर निषादराज गुह ने गङ्गा नदी के तटपर ठहरी हुई भरत की सेना को देखकर सब ओर बैठे हुए अपने भाई-बन्धुओं से कहा- ॥१॥
महतीयमितः सेना सागराभा प्रदृश्यते।
नास्यान्तमवगच्छामि मनसापि विचिन्तयन्॥२॥
‘भाइयो! इस ओर जो यह विशाल सेना ठहरी हुई है समुद्र के समान अपार दिखायी देती है; मैं मन से बहुत सोचने पर भी इसका पार नहीं पाता हूँ॥२॥
यदा नु खलु दुर्बुद्धिर्भरतः स्वयमागतः।
स एष हि महाकायः कोविदारध्वजो रथे॥३॥
‘निश्चय ही इसमें स्वयं दुर्बुद्धि भरत भी आया हआ है; यह कोविदार के चिह्मवाली विशाल ध्वजा उसी के रथ पर फहरा रही है॥३॥
बन्धयिष्यति वा पाशैरथ वास्मान् वधिष्यति।
अनु दाशरथिं रामं पित्रा राज्याद् विवासितम्॥ ४॥
‘मैं समझता हूँ कि यह अपने मन्त्रियों द्वारा पहले हमलोगों को पाशों से बँधवायेगा अथवा हमारा वध कर डालेगा; तत्पश्चात् जिन्हें पिता ने राज्य से निकाल दिया है, उन दशरथनन्दन श्रीराम को भी मार डालेगा॥४॥
सम्पन्नां श्रियमन्विच्छंस्तस्य राज्ञः सुदुर्लभाम्।
भरतः कैकयीपुत्रो हन्तुं समधिगच्छति॥५॥
‘कैकेयी का पुत्र भरत राजा दशरथ की सम्पन्न एवं सुदुर्लभ राजलक्ष्मी को अकेला ही हड़प लेना चाहता है, इसीलिये वह श्रीरामचन्द्रजी को वन में मार डालने के लिये जा रहा है।॥ ५॥
भर्ता चैव सखा चैव रामो दाशरथिर्मम।
तस्यार्थकामाः संनद्धा गङ्गानूपेऽत्र तिष्ठत॥६॥
‘परंतु दशरथकुमार श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं, इसलिये उनके हित की कामना रखकर तुमलोग अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो यहाँ गङ्गा के तटपर मौजूद रहो॥
तिष्ठन्तु सर्वदाशाश्च गङ्गामन्वाश्रिता नदीम्।
बलयुक्ता नदीरक्षा मांसमूलफलाशनाः॥७॥
‘सभी मल्लाह सेनाके साथ नदीकी रक्षा करते हुए गङ्गाके तटपर ही खड़े रहें और नावपर रखे हुए फल-मूल आदिका आहार करके ही आजकी रात बितावें॥ ७॥
नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम्।
संनद्धानां तथा यूनां तिष्ठन्त्वत्यभ्यचोदयत्॥८॥
‘हमारे पास पाँच सौ नावें हैं, उनमेंसे एक-एक नावपर मल्लाहोंके सौ-सौ जवान युद्ध-सामग्रीसे लैस होकर बैठे रहें।’ इस प्रकार गुहने उन सबको आदेश दिया॥ ८॥
यदि तुष्टस्तु भरतो रामस्येह भविष्यति।
इयं स्वस्तिमती सेना गङ्गामद्य तरिष्यति॥९॥
उसने फिर कहा कि ‘यदि यहाँ भरत का भाव श्रीराम के प्रति संतोषजनक होगा, तभी उनकी यह सेना आज कुशलपूर्वक गङ्गा के पार जा सकेगी’। ९॥
इत्युक्त्वोपायनं गृह्य मत्स्यमांसमधूनि च।
अभिचक्राम भरतं निषादाधिपतिर्मुहः॥१०॥
यों कहकर निषादराज गुह मत्स्यण्डी (मिश्री), फल के गूदे और मधु आदि भेंट की सामग्री लेकर भरत के पास गया॥१०॥
तमायान्तं तु सम्प्रेक्ष्य सूतपुत्रः प्रतापवान्।
भरतायाचचक्षेऽथ समयज्ञो विनीतवत्॥११॥
उसे आते देख समयोचित कर्तव्यको समझनेवाले प्रतापी सूतपुत्र सुमन्त्रने विनीतकी भाँति भरतसे कहा – ॥११॥
एष ज्ञातिसहस्रेण स्थपतिः परिवारितः।
कुशलो दण्डकारण्ये वृद्धो भ्रातुश्च ते सखा॥ १२॥
तस्मात् पश्यतु काकुत्स्थं त्वां निषादाधिपो गुहः।
असंशयं विजानीते यत्र तौ रामलक्ष्मणौ ॥१३॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण! यह बूढ़ा निषादराज गुह अपने सहस्रों भाई-बन्धुओं के साथ यहाँ निवास करता है। यह तुम्हारे बड़े भाई श्रीराम का सखा है। इसे दण्डकारण्य के मार्ग की विशेष जानकारी है। निश्चय ही इसे पता होगा कि दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण कहाँ हैं, अतः निषादराज गुह यहाँ आकर तुमसे मिलें, इसके लिये अवसर दो’ ॥ १२-१३॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा सुमन्त्राद् भरतः शुभम्।
उवाच वचनं शीघ्रं गुहः पश्यतु मामिति ॥१४॥
सुमन्त्र के मुख से यह शुभ वचन सुनकर भरत ने कहा—’निषादराज गुह मुझसे शीघ्र मिलें इसकी व्यवस्था की जाय’ ॥ १४॥
लब्ध्वानुज्ञां सम्प्रहृष्टो ज्ञातिभिः परिवारितः।
आगम्य भरतं प्रह्वो गुहो वचनमब्रवीत्॥१५॥
मिलने की अनुमति पाकर गुह अपने भाई बन्धुओं के साथ वहाँ प्रसन्नतापूर्वक आया और भरत से मिलकर बड़ी नम्रता के साथ बोला- ॥१५॥
निष्कुटश्चैव देशोऽयं वञ्चिताश्चापि ते वयम्।
निवेदयाम ते सर्वं स्वके दाशगृहे वस॥१६॥
‘यह वन-प्रदेश आपके लिये घर में लगे हुए बगीचे के समान है। आपने अपने आगमन की सूचना न देकर हमें धोखे में रख दिया—हम आपके स्वागत की कोई तैयारी न कर सके। हमारे पास जो कुछ है, वह सब आपकी सेवा में अर्पित है। यह निषादों का घर आपका ही है, आप यहाँ सुखपूर्वक निवास करें॥१६॥
अस्ति मूलफलं चैतन्निषादैः स्वयमर्जितम्।
आर्द्र शुष्कं तथा मांसं वन्यं चोच्चावचं तथा॥ १७॥
‘यह फल-मूल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। इसे निषाद लोग स्वयं तोड़कर लाये हैं। इनमें से कुछ फल तो अभी हरे ताजे हैं और कुछ सूख गये हैं।इनके साथ तैयार किया हुआ फल का गूदा भी है। इन सबके सिवा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे वन्य पदार्थ भी हैं। इन सबको ग्रहण करें॥ १७॥
आशंसे स्वाशिता सेना वत्स्यत्येनां विभावरीम्।
अर्चितो विविधैः कामैः श्वः ससैन्यो गमिष्यसि॥ १८॥
‘हम आशा करते हैं कि यह सेना आज की रात यहीं ठहरेगी और हमारा दिया हुआ भोजन स्वीकार करेगी। नाना प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं से आज हम सेनासहित आपका सत्कार करेंगे, फिर कल सबेरे आप अपने सैनिकों के साथ यहाँ से अन्यत्र जाइयेगा’ ॥ १८॥
सर्ग ८५
एवमुक्तस्तु भरतो निषादाधिपतिं गुहम्।
प्रत्युवाच महाप्राज्ञो वाक्यं हेत्वर्थसंहितम्॥१॥
निषादराज गुह के ऐसा कहने पर महाबुद्धिमान् भरत ने युक्ति और प्रयोजनयुक्त वचनों में उसे इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥
ऊर्जितः खलु ते कामः कृतो मम गुरोः सखे।
यो मे त्वमीदृशीं सेनामभ्यर्चयितुमिच्छसि॥२॥
‘भैया ! तुम मेरे बड़े भाई श्रीराम के सखा हो। मेरी इतनी बड़ी सेना का सत्कार करना चाहते हो, यह तुम्हारा मनोरथ बहुत ही ऊँचा है। तुम उसे पूर्ण ही समझो तुम्हारी श्रद्धा से ही हम सब लोगों का सत्कार हो गया’ ॥ २॥
इत्युक्त्वा स महातेजा गुहं वचनमुत्तमम्।
अब्रवीद् भरतः श्रीमान् पन्थानं दर्शयन् पुनः॥ ३॥
यह कहकर महातेजस्वी श्रीमान् भरत ने गन्तव्य मार्ग को हाथ के संकेत से दिखाते हुए पुनः गुह से उत्तम वाणी में पूछा- ॥३॥
कतरेण गमिष्यामि भरद्वाजाश्रमं यथा।
गहनोऽयं भृशं देशो गङ्गानूपो दुरत्ययः॥४॥
‘निषादराज! इन दो मार्गों में से किसके द्वारा मुझे भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाना होगा? गङ्गा के किनारे का यह प्रदेश तो बड़ा गहन मालूम होता है। इसे लाँघकर आगे बढ़ना कठिन है’ ॥ ४ ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्भूत्वा गुहो गहनगोचरः॥५॥
बुद्धिमान् राजकुमार भरत का यह वचन सुनकर वन में विचरने वाले गुह ने हाथ जोड़कर कहा— ॥५॥
दाशास्त्वनुगमिष्यन्ति देशज्ञाः सुसमाहिताः।
अहं चानुगमिष्यामि राजपुत्र महाबल॥६॥
‘महाबली राजकुमार! आपके साथ बहत-से मल्लाह जायँगे, जो इस प्रदेश से पूर्ण परिचित तथा भलीभाँति सावधान रहने वाले हैं। इनके सिवा मैं भी आपके साथ चलूँगा॥६॥
कच्चिन्न दुष्टो व्रजसि रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
इयं ते महती सेना शङ्कां जनयतीव मे॥७॥
‘परन्तु एक बात बताइये, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के प्रति आप कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं जा रहे हैं? आपकी यह विशाल सेना मेरे मन में शङ्का-सी उत्पन्न कर रही है’ ॥ ७॥
तमेवमभिभाषन्तमाकाश इव निर्मलः।
भरतः श्लक्ष्णया वाचा गुहं वचनमब्रवीत्॥८॥
ऐसी बात कहते हुए गुह से आकाश के समान निर्मल भरत ने मधुर वाणी में कहा— ॥८॥
मा भूत् स कालो यत् कष्टं न मां शङ्कितुमर्हसि।
राघवः स हि मे भ्राता ज्येष्ठः पितृसमो मतः॥९॥
‘निषादराज! ऐसा समय कभी न आये। तुम्हारी बात सुनकर मुझे बड़ा कष्ट हुआ। तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये। श्रीरघुनाथजी मेरे बड़े भाई हैं। मैं उन्हें पिता के समान मानता हूँ॥९॥
तं निवर्तयितुं यामि काकुत्स्थं वनवासिनम्।
बुद्धिरन्या न मे कार्या गृह सत्यं ब्रवीमि ते॥ १०॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम वन में निवास करते हैं, अतः उन्हें लौटा लाने के लिये जा रहा हूँ। गुह ! मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हें मेरे विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’ ॥ १० ॥
स तु संहृष्टवदनः श्रुत्वा भरतभाषितम्।
पुनरेवाब्रवीद वाक्यं भरतं प्रति हर्षितः॥११॥
भरत की बात सुनकर निषादराज का मुँह प्रसन्नता से खिल उठा। वह हर्ष से भरकर पुनः भरत से बोला- ॥ ११॥
धन्यस्त्वं न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले।
अयत्नादागतं राज्यं यस्त्वं त्यक्तुमिहेच्छसि॥ १२॥
‘आप धन्य हैं, जो बिना प्रयत्न के हाथ में आये हुए राज्य को त्याग देना चाहते हैं। आपके समान धर्मात्मा मुझे इस भूमण्डल में कोई नहीं दिखायी देता ॥ १२ ॥
शाश्वती खलु ते र्कीतिर्लोकाननु चरिष्यति।
यस्त्वं कृच्छ्रगतं रामं प्रत्यानयितुमिच्छसि ॥१३॥
‘कष्टप्रद वन में निवास करने वाले श्रीराम को जो आप लौटा लाना चाहते हैं, इससे समस्त लोकों में आपकी अक्षय कीर्ति का प्रसार होगा’ ॥ १३ ॥
एवं सम्भाषमाणस्य गुहस्य भरतं तदा।
बभौ नष्टप्रभः सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत॥१४॥
जब गुह भरत से इस प्रकार की बातें कह रहा था, उसी समय सूर्यदेव की प्रभा अदृश्य हो गयी और रात का अन्धकार सब ओर फैल गया॥१४॥
संनिवेश्य स तां सेनां गुहेन परितोषितः।
शत्रुजेन समं श्रीमाञ्छयनं पुनरागमत्॥१५॥
गुहके बर्ताव से श्रीमान् भरत को बड़ा संतोष हुआ और वे सेना को विश्राम करने की आज्ञा दे शत्रुघ्न के साथ शयन करने के लिये गये॥ १५ ॥
रामचिन्तामयः शोको भरतस्य महात्मनः।
उपस्थितो ह्यनर्हस्य धर्मप्रेक्षस्य तादृशः॥१६॥
धर्मपर दृष्टि रखने वाले महात्मा भरत शोक के योग्य नहीं थे तथापि उनके मन में श्रीरामचन्द्रजी के लिये चिन्ता के कारण ऐसा शोक उत्पन्न हुआ, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥ १६ ॥
अन्तर्दाहेन दहनः संतापयति राघवम्।
वनदाहाग्निसंतप्तं गूढोऽग्निरिव पादपम्॥१७॥
जैसे वन में फैले हुए दावानल से संतप्त हुए वृक्ष को उसके खोखले में छिपी हुई आग और भी अधिक जलाती है, उसी प्रकार दशरथ-मरणजन्य चिन्ता की आग से संतप्त हुए रघुकुलनन्दन भरत को वह रामवियोग से उत्पन्न हुई शोकाग्नि और भी जलाने लगी॥ १७॥
प्रसृतः सर्वगात्रेभ्यः स्वेदं शोकाग्निसम्भवम्।
यथा सूर्यांशुसंतप्तो हिमवान् प्रसृतो हिमम्॥ १८॥
जैसे सूर्य की किरणों से तपा हुआ हिमालय अपनी पिघली हुई बर्फ को बहाने लगता है, उसी प्रकार भरत शोकाग्निसे संतप्त होने के कारण अपने सम्पूर्ण अङ्गों से पसीना बहाने लगे॥ १८॥
ध्याननिर्दरशैलेन विनिःश्वसितधातुना।
दैन्यपादपसंघेन शोकायासाधिशृङ्गिणा॥१९॥
प्रमोहानन्तसत्त्वेन संतापौषधिवेणुना।
आक्रान्तो दुःखशैलेन महता कैकयीसुतः॥२०॥
उस समय कैकेयीकुमार भरत दुःख के विशाल पर्वत से आक्रान्त हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान ही उसमें छिद्ररहित शिलाओं का समूह था। दुःखपूर्ण उच्छ्वास ही गैरिक आदि धातु का स्थान ले रहा था। दीनता(इन्द्रियों की अपने विषयों से विमुखता) ही वृक्षसमूहों के रूप में प्रतीत होती थी। शोकजनित आयास ही उस दुःखरूपी पर्वत के ऊँचे शिखर थे। अतिशय मोह ही उसमें अनन्त प्राणी थे। बाहरभीतर की इन्द्रियों में होने वाले संताप ही उस पर्वत की ओषधियाँ तथा बाँस के वृक्ष थे॥ १९-२० ॥
विनिःश्वसन् वै भृशदुर्मनास्ततः प्रमूढसंज्ञः परमापदं गतः।
शमं न लेभे हृदयज्वरार्दितो नरर्षभो यूथहतो यथर्षभः॥२१॥
उनका मन बहुत दुःखी था। वे लंबी साँस खींचते हुए सहसा अपनी सुध-बुध खोकर बड़ी भारी आपत्ति में पड़ गये। मानसिक चिन्ता से पीड़ित होने के कारण नरश्रेष्ठ भरत को शान्ति नहीं मिलती थी। उनकी दशा अपने झुंड से बिछुड़े हुए वृषभ की-सी हो रही थी॥ २१॥
गुहेन सार्धं भरतः समागतो महानुभावः सजनः समाहितः।
सुदुर्मनास्तं भरतं तदा पुनगुहः समाश्वासयदग्रज प्रति॥२२॥
परिवार सहित एकाग्रचित्त महानुभाव भरत जब गुह से मिले, उस समय उनके मन में बड़ा दुःख था। वे अपने बड़े भाई के लिये चिन्तित थे, अतः गुह ने उन्हें पुनः आश्वासन दिया॥ २२ ॥
सर्ग ८६
आचचक्षेऽथ सद्भावं लक्ष्मणस्य महात्मनः।
भरतायाप्रमेयाय गुहो गहनगोचरः॥१॥
वनचारी गुह ने अप्रमेय शक्तिशाली भरत से महात्मा लक्ष्मण के सद्भाव का इस प्रकार वर्णन किया— ॥१॥
तं जाग्रतं गुणैर्युक्तं वरचापेषुधारिणम्।
भ्रातृगुप्त्यर्थमत्यन्तमहं लक्ष्मणमब्रुवम्॥२॥
‘लक्ष्मण अपने भाई की रक्षा के लिये श्रेष्ठ धनुष और बाण धारण किये अधिक कालतक जागते रहे। उस समय उन सद्गुणशाली लक्ष्मण से मैंने इस प्रकार कहा— ॥२॥
इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता।
प्रत्याश्वसिहि शेष्वास्यां सुखं राघवनन्दन॥३॥
उचितोऽयं जनः सर्वो दुःखानां त्वं सुखोचितः।
धर्मात्मस्तस्य गुप्त्यर्थं जागरिष्यामहे वयम्॥४॥
‘तात रघुकुलनन्दन! मैंने तुम्हारे लिये यह सुखदायिनी शय्या तैयार की है। तुम इसपर सुखपूर्वक सोओ और भलीभाँति विश्राम करो। यह (मैं) सेवक तथा इसके साथ के सब लोग वनवासी होने के कारण दुःख सहन करने के योग्य हैं (क्योंकि हम सबको कष्ट सहने का अभ्यास है); परंतु तुम सुख में ही पले होने के कारण उसी के योग्य हो। धर्मात्मन्! हमलोग श्रीरामचन्द्रजी की रक्षा के लिये रातभर जागते रहेंगे॥ ३-४॥
नहि रामात् प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चन।
मोत्सुको भूर्ब्रवीम्येतदथ सत्यं तवाग्रतः॥५॥
‘मैं तुम्हारे सामने सत्य कहता हूँ कि इस भूमण्डल में मुझे श्रीराम से बढ़कर प्रिय दूसरा कोई नहीं है; अतः तुम इनकी रक्षा के लिये उत्सुक न होओ॥५॥
अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन् सुमहद्यशः।
धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थकामौ च केवलौ॥६॥
‘इन श्रीरघुनाथजी के प्रसाद से ही मैं इस लोक में महान् यश, प्रचुर धर्मलाभ तथा विशुद्ध अर्थ एवं भोग्य वस्तु पाने की आशा करता हूँ॥६॥
सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया।
रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वैः स्वैातिभिः सह॥ ७॥
‘अतः मैं अपने समस्त बन्धु-बान्धवों के साथ हाथ में धनुष लेकर सीता के साथ सोये प्रिय सखा श्रीराम की (सब प्रकार से) रक्षा करूँगा॥ ७ ॥
नहि मेऽविदितं किंचिद् वनेऽस्मिंश्चरतः सदा।
चतुरङ ह्यपि बलं प्रसहेम वयं युधि॥८॥
“इस वन में सदा विचरते रहने के कारण मुझसे यहाँ की कोई बात छिपी नहीं है। हमलोग यहाँ युद्ध में शत्रु की चतुरङ्गिणी सेना का भी अच्छी तरह सामना कर सकते हैं’॥ ८॥
एवमस्माभिरुक्तेन लक्ष्मणेन महात्मना।
अनुनीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता॥९॥
‘हमारे इस प्रकार कहने पर धर्म पर ही दृष्टि रखने वाले महात्मा लक्ष्मण ने हम सब लोगों से अनुनयपूर्वक कहा- ॥९॥
कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया।
शक्या निद्रा मया लब्धं जीवितानि सुखानि वा॥ १०॥
‘निषादराज ! जब दशरथनन्दन श्रीराम देवी सीता के साथ भूमिपर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिये उत्तम शय्या पर सोकर नींद लेना, जीवन-धारण के लिये स्वादिष्ट अन्न खाना अथवा दूसरे-दूसरे सुखों को भोगना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥ १० ॥
यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि।
तं पश्य गुह संविष्टं तृणेषु सह सीतया॥११॥
‘गुह ! देखो, सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में जिनके वेग को नहीं सह सकते, वे ही श्रीराम इस समय सीता के साथ तिनकों पर सो रहे हैं॥ ११॥
महता तपसा लब्धो विविधैश्च परिश्रमैः।
एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः॥१२॥
अस्मिन् प्रव्राजिते राजा न चिरं वर्तयिष्यति।
विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति॥१३॥
‘महान् तप और नाना प्रकार के परिश्रमसाध्य उपायों द्वारा जो यह महाराज दशरथ को अपने समान उत्तम लक्षणों से युक्त ज्येष्ठ पुत्र के रूप में प्राप्त हुए हैं, उन्हीं इन श्रीराम के वन में आ जाने से राजा दशरथ अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकेंगे जान पड़ता है निश्चय ही यह पृथ्वी अब शीघ्र विधवा हो जायगी॥ १२-१३॥
विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः।
निर्घोषो विरतो नूनमद्य राजनिवेशने॥१४॥
‘अवश्य ही अब रनिवास की स्त्रियाँ बड़े जोर से आर्तनाद करके अधिक श्रम के कारण अब चुप हो गयी होंगी और राजमहल का वह हाहाकार इस समय शान्त हो गया होगा॥१४॥
कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम।
नाशंसे यदि ते स जीवेयुः शर्वरीमिमाम्॥१५॥
‘महारानी कौसल्या, राजा दशरथ तथा मेरी माता सुमित्रा—ये सब लोग आज की इस रात तक जीवित रह सकेंगे या नहीं यह मैं नहीं कह सकता॥ १५ ॥
जीवेदपि च मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया।
दुःखिता या हि कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति॥ १६॥
‘शत्रुघ्न की बाट देखने के कारण सम्भव है, मेरी माता सुमित्रा जीवित रह जायँ; परंतु पुत्र के विरह से दुःख में डूबी हुई वीर-जननी कौसल्या अवश्य नष्ट हो जायँगी॥ १६ ॥
अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम्।
राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति॥ १७॥
(महाराज की इच्छा थी कि श्रीराम को राज्य पर अभिषिक्त करूँ) अपने उस मनोरथ को न पाकर श्रीराम को राज्यपर स्थापित किये बिना ही ‘हाय! मेरा सब कुछ नष्ट हो गया! नष्ट हो गया !!’ ऐसा कहते हुए मेरे पिताजी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे। १७॥
सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन् काले ह्युपस्थिते।
प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति भूमिपम्॥१८॥
‘उनकी उस मृत्यु का समय उपस्थित होने पर जो लोग वहाँ रहेंगे और मेरे मरे हुए पिता महाराज दशरथ का सभी प्रेतकार्यों में संस्कार करेंगे, वे ही सफल मनोरथ और भाग्यशाली हैं॥ १८ ॥
रम्यचत्वरसंस्थानां सुविभक्तमहापथाम्।
हर्म्यप्रासादसम्पन्नां सर्वरत्नविभूषिताम्॥१९॥
गजाश्वरथसम्बाधां तूर्यनादविनादिताम्।
सर्वकल्याणसम्पूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम्॥२०॥
आरामोद्यानसम्पूर्णां समाजोत्सवशालिनीम्।
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानी पितुर्मम॥२१॥
‘(यदि पिताजी जीवित रहे तो) रमणीय चबूतरों और चौराहों के सुन्दर स्थानों से युक्त, पृथक्-पृथक् बने हुए विशाल राजमार्गों से अलंकृत, धनिकों की अट्टालिकाओं और देवमन्दिरों एवं राजभवनों से सम्पन्न, सब प्रकार के रत्नों से विभूषित, हाथियों,घोड़ों और रथों के आवागमन से भरी हुई, विविध वाद्यों की ध्वनियों से निनादित, समस्त कल्याणकारी वस्तुओं से भरपूर, हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से व्याप्त, पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से परिपूर्ण तथा सामाजिक उत्सवों से सुशोभित हुई मेरे पिता की राजधानी अयोध्यापुरी में जो लोग विचरेंगे, वास्तव में वे ही सुखी हैं॥ १९–२१॥
अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम्।
निवृत्ते समये ह्यस्मिन् सुखिताः प्रविशेमहि॥ २२॥
‘क्या वनवास की इस अवधि के समाप्त होने पर सकुशल लौटे हुए सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम के साथ हमलोग अयोध्यापुरी में प्रवेश कर सकेंगे’ ॥ २२ ॥
परिदेवयमानस्य तस्यैवं हि महात्मनः।
तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत॥२३॥
‘इस प्रकार विलाप करते हुए महामनस्वी राजकुमार लक्ष्मण की वह सारी रात जागते ही बीती॥ २३॥
प्रभाते विमले सूर्ये कारयित्वा जटा उभौ।
अस्मिन् भागीरथीतीरे सुखं संतारितौ मया॥ २४॥
‘प्रातःकाल निर्मल सूर्योदय होने पर मैंने भागीरथी के तट पर (वट के दूध से) उन दोनों के केशों को जटा का रूप दिलवाया और उन्हें सुखपूर्वक पार उतारा॥ २४॥
जटाधरौ तौ द्रुमचीरवाससौ महाबलौ कुञ्जरयूथपोपमौ।
वरेषुधीचापधरौ परंतपौ व्यपेक्षमाणौ सह सीतया गतौ॥२५॥
‘सिरपर जटा धारण करके वल्कल एवं चीर-वस्त्र पहने हुए, महाबली, शत्रुसंतापी श्रीराम और लक्ष्मण दो गजयूथपतियों के समान शोभा पाते थे। वे सुन्दर तरकस और धनुष धारण किये इधर-उधर देखते हुए सीता के साथ चले गये’ ॥ २५ ॥
सर्ग ८७
गुहस्य वचनं श्रुत्वा भरतो भृशमप्रियम्।
ध्यानं जगाम तत्रैव यत्र तच्छ्रुतमप्रियम्॥१॥
गुह का श्रीराम के जटाधारण आदि से सम्बन्ध रखने वाला अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर भरत चिन्तामग्न हो गये। जिन श्रीराम के विषय में उन्होंने अप्रिय बात सुनी थी, उन्हीं का वे चिन्तन करने लगे (उन्हें यह चिन्ता हो गयी कि अब मेरा मनोरथ पूर्ण न हो सकेगा। श्रीराम ने जब जटा धारण कर ली, तब वे शायद ही लौटें)॥१॥
सुकुमारो महासत्त्वः सिंहस्कन्धो महाभुजः।
पुण्डरीकविशालाक्षस्तरुणः प्रियदर्शनः॥२॥
प्रत्याश्वस्य मुहूर्तं तु कालं परमदुर्मनाः।
ससाद सहसा तोत्रैर्हदि विद्ध इव द्विपः॥३॥
भरत सुकुमार होने के साथ ही महान् बलशाली थे, उनके कंधे सिंह के समान थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और नेत्र विकसित कमल के सदृश सुन्दर थे। उनकी अवस्था तरुण थी और वे देखने में बड़े मनोरम थे। उन्होंने गुह की बात सुनकर दो घड़ी तक किसी प्रकार धैर्य धारण किया, फिर उनके मन में बड़ा दुःख हुआ। वे अंकुश से विद्ध हुए हाथी के समान अत्यन्त व्यथित होकर सहसा दुःख से शिथिल एवं मूर्च्छित हो गये। २-३॥
भरतं मूर्च्छितं दृष्ट्वा विवर्णवदनो गुहः।
बभूव व्यथितस्तत्र भूमिकम्पे यथा द्रुमः॥४॥
भरत को मूर्छित हुआ देख गुह के चेहरे का रंग उड़ गया। वह भूकम्प के समय मथित हुए वृक्ष की भाँति वहाँ व्यथित हो उठा॥ ४॥
तदवस्थं तु भरतं शत्रुघ्नोऽनन्तरस्थितः।
परिष्वज्य रोदोच्चैर्विसंज्ञः शोककर्शितः॥५॥
शत्रुघ्न भरत के पास ही बैठे थे। वे उनकी वैसी अवस्था देख उन्हें हृदय से लगाकर जोर-जोर से रोने लगे और शोक से पीड़ित हो अपनी सुध-बुध खो बैठे॥५॥
ततः सर्वाः समापेतुर्मातरो भरतस्य ताः।
उपवासकृशा दीना भर्तृव्यसनकर्शिताः॥६॥
तदनन्तर भरत की सभी माताएँ वहाँ आ पहुँचीं। वे पति वियोग के दुःखसे दुःखी, उपवास कर नेके कारण दुर्बल और दीन हो रही थीं॥६॥
ताश्च तं पतितं भूमौ रुदत्यः पर्यवारयन्।
कौसल्या त्वनुसृत्यैनं दुर्मनाः परिषस्वजे॥७॥
भूमि पर पड़े हुए भरत को उन्होंने चारों ओर से घेर लिया और सब-की-सब रोने लगीं। कौसल्या का हृदय तो दुःख से और भी कातर हो उठा। उन्होंने भरत के पास जाकर उन्हें अपनी गोद में चिपका लिया॥७॥
वत्सला स्वं यथा वत्समुपगुह्य तपस्विनी।
परिपप्रच्छ भरतं रुदती शोकलालसा॥८॥
जैसे वत्सला गौ अपने बछड़े को गले से लगाकर चाटती है, उसी तरह शोक से व्याकुल हुई तपस्विनी कौसल्या ने भरत को गोद में लेकर रोते-रोते पूछा- ॥
पुत्र व्याधिर्न ते कच्चिच्छरीरं प्रति बाधते।
अस्य राजकुलस्याद्य त्वदधीनं हि जीवितम्॥९॥
‘बेटा! तुम्हारे शरीर को कोई रोग तो कष्ट नहीं पहुँचा रहा है ? अब इस राजवंश का जीवन तुम्हारे ही अधीन है॥९॥
त्वां दृष्ट्वा पुत्र जीवामि रामे सभ्रातृके गते।
वृत्ते दशरथे राज्ञि नाथ एकस्त्वमद्य नः॥१०॥
‘वत्स! मैं तुम्हींको देखकर जी रही हूँ। श्रीराम लक्ष्मणके साथ वनमें चले गये और महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये; अब एकमात्र तुम्हीं हमलोगोंके रक्षक हो॥१०॥
कच्चिन्न लक्ष्मणे पुत्र श्रुतं ते किंचिदप्रियम्।
पुत्रे वा ह्येकपुत्रायाः सहभार्ये वनं गते॥११॥
‘बेटा! सच बताओ, तुमने लक्ष्मण के सम्बन्ध में अथवा मुझ एक ही पुत्रवाली मा के बेटे वन में सीतासहित गये हुए श्रीराम के विषय में कोई अप्रिय बात तो नहीं सुनी है?’ ॥ ११॥
स मुहूर्तं समाश्वस्य रुदन्नेव महायशाः।
कौसल्यां परिसान्त्व्येदं गुहं वचनमब्रवीत्॥१२॥
दो ही घड़ी में जब महायशस्वी भरत का चित्त स्वस्थ हुआ, तब उन्होंने रोते-रोते ही कौसल्या को सान्त्वना दी (और कहा—’मा! घबराओ मत, मैंने कोई अप्रिय बात नहीं सुनी है’)। फिर निषादराज गुह से इस प्रकार पूछा- ॥ १२॥
भ्राता मे क्वावसद् रात्रौ क्व सीता क्व च लक्ष्मणः।
अस्वपच्छयने कस्मिन् किं भुक्त्वा गुह शंस मे॥
‘गुह ! उस दिन रात में मेरे भाई श्रीराम कहाँ ठहरे थे? सीता कहाँ थीं? और लक्ष्मण कहाँ रहे? उन्होंने क्या भोजन करके कैसे बिछौने पर शयन किया था? ये सब बातें मुझे बताओ’ ॥ १३॥
सोऽब्रवीद् भरतं हृष्टो निषादाधिपतिर्मुहः।
यद्विधं प्रतिपेदे च रामे प्रियहितेऽतिथौ॥१४॥
ये प्रश्न सुनकर निषादराज गुह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपने प्रिय एवं हितकारी अतिथि श्रीराम के आने पर उनके प्रति जैसा बर्ताव किया था, वह सब बताते हुए भरत से कहा- ॥१४॥
अन्नमुच्चावचं भक्ष्याः फलानि विविधानि च।
रामायाभ्यवहारार्थं बहुशोऽपहृतं मया॥१५॥
‘मैंने भाँति-भाँति के अन्न, अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ और कई तरह के फल श्रीरामचन्द्रजी के पास भोजन के लिये प्रचुर मात्रा में पहुँचाये॥ १५॥
तत् सर्वं प्रत्यनुज्ञासीद् रामः सत्यपराक्रमः।
न हि तत् प्रत्यगृह्णात् स क्षत्रधर्ममनुस्मरन्॥ १६॥
‘सत्यपराक्रमी श्रीराम ने मेरी दी हुई सब वस्तुएँ स्वीकार तो कीं किंतु क्षत्रियधर्म का स्मरण करते हुए उनको ग्रहण नहीं किया—मुझे आदरपूर्वक लौटा दिया॥
नह्यस्माभिः प्रतिग्राह्यं सखे देयं तु सर्वदा।
इति तेन वयं सर्वे अनुनीता महात्मना॥१७॥
‘फिर उन महात्मा ने हम सब लोगों को समझाते हुए कहा—’सखे! हम-जैसे क्षत्रियों को किसी से कुछ लेना नहीं चाहिये; अपितु सदा देना ही चाहिये। १७॥
लक्ष्मणेन यदानीतं पीतं वारि महात्मना।
औपवास्यं तदाकार्षीद् राघवः सह सीतया॥ १८॥
‘सीतासहित श्रीराम ने उस रात में उपवास ही किया। लक्ष्मण जो जल ले आये थे, केवल उसी को उन महात्मा ने पीया॥१८॥
ततस्तु जलशेषेण लक्ष्मणोऽप्यकरोत् तदा।
वाग्यतास्ते त्रयः संध्यां समुपासन्त संहिताः॥ १९॥
‘उनके पीने से बचा हुआ जल लक्ष्मण ने ग्रहण किया। (जलपान के पहले) उन तीनों ने मौन एवं एकाग्रचित्त होकर संध्योपासना की थी॥१९॥
सौमित्रिस्तु ततः पश्चादकरोत् स्वास्तरं शुभम्।
स्वयमानीय बहींषि क्षिप्रं राघवकारणात्॥२०॥
‘तदनन्तर लक्ष्मण ने स्वयं कुश लाकर श्रीरामचन्द्रजी के लिये शीघ्र ही सुन्दर बिछौना बिछाया॥२०॥
तस्मिन् समाविशद् रामः स्वास्तरे सह सीतया।
प्रक्षाल्य च तयोः पादौ व्यपाक्रामत् स लक्ष्मणः॥ २१॥
‘उस सुन्दर बिस्तर पर जब सीता के साथ श्रीराम विराजमान हुए, तब लक्ष्मण उन दोनों के चरण पखारकर वहाँ से दूर हट आये॥ २१॥
एतत् तदिङ्गुदीमूलमिदमेव च तत् तृणम्।
यस्मिन् रामश्च सीता च रात्रिं तां शयितावुभौ॥ २२॥
‘यही वह इङ्गुदी-वृक्ष की जड़ है और यही वह तृण है, जहाँ श्रीराम और सीता—दोनों ने रात्रि में शयन किया था॥ २२॥
नियम्य पृष्ठे तु तलाङ्गलित्रवान् शरैः सुपूर्णाविषुधी परंतपः।
महद्धनुः सज्जमुपोह्य लक्ष्मणो निशामतिष्ठत् परितोऽस्य केवलम्॥ २३॥
‘शत्रुसंतापी लक्ष्मण अपनी पीठ पर बाणों से भरे दो तरकस बाँधे, दोनों हाथों की अंगुलियों में दस्ताने पहने और महान् धनुष चढ़ाये श्रीराम के चारों ओर घूमकर केवल पहरा देते हुए रात भर खड़े रहे ॥ २३॥
ततस्त्वहं चोत्तमबाणचापभृत् स्थितोऽभवं तत्र स यत्र लक्ष्मणः।
अतन्द्रितैातिभिरात्तकार्मुकैमहेन्द्रकल्पं परिपालयंस्तदा ॥ २४॥
‘तदनन्तर मैं भी उत्तम बाण और धनुष लेकर वहीं आ खड़ा हुआ, जहाँ लक्ष्मण थे। उस समय अपने बन्धु-बान्धवों के साथ, जो निद्रा और आलस्य का त्याग करके धनुष-बाण लिये सदा सावधान रहे, मैं देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी श्रीराम की रक्षा करता रहा’ ॥ २४॥
सर्ग ८८
तच्छ्रुत्वा निपुणं सर्वं भरतः सह मन्त्रिभिः।
इङ्गदीमूलमागम्य रामशय्यामवैक्षत॥१॥
निषादराज की सारी बातें ध्यान से सुनकर मन्त्रियों सहित भरत ने इंगुदी-वृक्ष की जड़ के पास आकर श्रीरामचन्द्रजी की शय्या का निरीक्षण किया। १॥
अब्रवीज्जननीः सर्वा इह तस्य महात्मनः।
शर्वरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम्॥२॥
फिर उन्होंने समस्त माताओं से कहा—’यहीं महात्मा श्रीराम ने भूमि पर शयन करके रात्रि व्यतीत की थी। यही वह कुशसमूह है, जो उनके अङ्गों से विमर्दित हुआ था॥
महाराजकुलीनेन महाभागेन धीमता।
जातो दशरथेनोवा॒ न रामः स्वप्तमर्हति॥३॥
‘महाराजों के कुल में उत्पन्न हुए परम बुद्धिमान् महाभाग राजा दशरथ ने जिन्हें जन्म दिया है, वे श्रीराम इस तरह भूमि पर शयन करने के योग्य नहीं हैं॥३॥
अजिनोत्तरसंस्तीर्णे वरास्तरणसंचये।
शयित्वा पुरुषव्याघ्रः कथं शेते महीतले॥४॥
‘जो पुरुषसिंह श्रीराम मुलायम मृगचर्म की विशेष चादर से ढके हुए तथा अच्छे-अच्छे बिछौनों के समूह से सजे हुए पलंग पर सदा सोते आये हैं, वे इस समय पृथ्वी पर कैसे शयन करते होंगे? ॥ ४॥
प्रासादाग्रविमानेषु वलभीषु च सर्वदा।
हैमराजतभौमेषु वरास्तरणशालिषु॥५॥
पुष्पसंचयचित्रेषु चन्दनागुरुगन्धिषु।
पाण्डुराभ्रप्रकाशेषु शुकसंघरुतेषु च॥६॥
प्रासादवरवर्येषु शीतवत्सु सुगन्धिषु।
उषित्वा मेरुकल्पेषु कृतकाञ्चनभित्तिषु॥७॥
‘जो सदा विमानाकार प्रासादों के श्रेष्ठ भवनों और अट्टालिकाओं में सोते आये हैं तथा जिनकी फर्श सोने और चाँदी की बनी हई है, जो अच्छे बिछौनों से सुशोभित हैं, पुष्पराशि से विभूषित होने के कारण जिनकी विचित्र शोभा होती है, जिनमें चन्दन और अगुरु की सुगन्ध फैली रहती है, जो श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल कान्ति धारण करते हैं, जिनमें शुकसमूहों का कलरव होता रहता है, जो शीतल हैं एवं कपूर आदि की सुगन्ध से व्याप्त होते हैं, जिनकी दीवारों पर सुवर्ण का काम किया गया है तथा जो ऊँचाई में मेरु पर्वत के समान जान पड़ते हैं, ऐसे सर्वोत्तम राजमहलों में जो निवास कर चुके हैं, वे श्रीराम वन में पृथ्वी पर कैसे सोते होंगे? ॥ ५–७॥
गीतवादित्रनिर्घोषैर्वराभरणनिःस्वनैः।
मृदङ्गवरशब्दैश्च सततं प्रतिबोधितः॥८॥
बन्दिभिर्वन्दितः काले बहुभिः सूतमागधैः।
गाथाभिरनुरूपाभिः स्तुतिभिश्च परंतपः॥९॥
‘जो गीतों और वाद्यों की ध्वनियों से, श्रेष्ठ आभूषणों की झनकारों से तथा मृदङ्गों के उत्तम शब्दों से सदा जगाये जाते थे, बहुत-से वन्दीगण समय-समय पर जिनकी वन्दना करते थे, सूत और मागध अनुरूप गाथाओं और स्तुतियों से जिनको जगाते थे, वे शत्रुसंतापी श्रीराम अब भूमि पर कैसे शयन करते होंगे? ॥ ८-९॥
अश्रद्धेयमिदं लोके न सत्यं प्रतिभाति मा।
मुह्यते खलु मे भावः स्वप्नोऽयमिति मे मतिः॥ १०॥
‘यह बात जगत् में विश्वास के योग्य नहीं है मुझे यह सत्य नहीं प्रतीत होती। मेरा अन्तःकरण अवश्य ही मोहित हो रहा है। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि यह कोई स्वप्न है॥ १०॥
न नूनं दैवतं किंचित् कालेन बलवत्तरम्।
यत्र दाशरथी रामो भूमावेवमशेत सः॥११॥
‘निश्चय ही काल के समान प्रबल कोई दूसरा देवता नहीं है, जिसके प्रभाव से दशरथनन्दन श्रीराम को भी इस प्रकार भूमि पर सोना पड़ा ॥ ११ ॥
यस्मिन् विदेहराजस्य सुता च प्रियदर्शना।
दयिता शयिता भूमौ स्नुषा दशरथस्य च ॥१२॥
‘उस काल के ही प्रभाव से विदेहराज की परम सुन्दरी पुत्री और महाराज दशरथ की प्यारी पुत्रवधू सीता भी पृथ्वी पर शयन करती हैं॥ १२॥
इयं शय्या मम भ्रातुरिदमावर्तितं शुभम्।
स्थण्डिले कठिने सर्वं गात्रैर्विमृदितं तृणम्॥ १३॥
‘यही मेरे बड़े भाई की शय्या है। यहीं उन्होंने करवटें बदली थीं। इस कठोर वेदी पर उनका शुभ शयन हुआ था, जहाँ उनके अङ्गों से कुचला गया सारा तृण अभी तक पड़ा है॥ १३॥
मन्ये साभरणा सुप्ता सीतास्मिन्शयने शुभा।
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते सक्ताः कनकबिन्दवः॥ १४॥
‘जान पड़ता है, शुभलक्षणा सीता शय्यापर आभूषण पहने ही सोयी थीं; क्योंकि यहाँ यत्र-तत्र सुवर्ण के कण सटे दिखायी देते हैं ॥ १४॥
उत्तरीयमिहासक्तं सुव्यक्तं सीतया तदा।
तथा ह्येते प्रकाशन्ते सक्ताः कौशेयतन्तवः॥ १५॥
‘यहाँ उस समय सीता की चादर उलझ गयी थी, यह साफ दिखायी दे रहा है; क्योंकि यहाँ सटे हुए ये रेशम के तागे चमक रहे हैं॥ १५ ॥
मन्ये भर्तुः सुखा शय्या येन बाला तपस्विनी।
सुकुमारी सती दुःखं न विजानाति मैथिली॥
‘मैं समझता हूँ कि पति की शय्या कोमल हो या कठोर, साध्वी स्त्रियों के लिये वही सुखदायिनी होती है, तभी तो वह तपस्विनी एवं सुकुमारी बाला सतीसाध्वी मिथिलेशकुमारी सीता यहाँ दुःख का अनुभव नहीं कर रही हैं॥ १६॥
हा हतोऽस्मि नृशंसोऽस्मि यत् सभार्यः कृते मम।
ईदृशीं राघवः शय्यामधिशेते ह्यनाथवत्॥१७॥
‘हाय! मैं मर गया—मेरा जीवन व्यर्थ है। मैं बड़ा क्रूर हूँ, जिसके कारण सीतासहित श्रीराम को अनाथ की भाँति ऐसी शय्या पर सोना पड़ता है॥ १७ ॥
सार्वभौमकुले जातः सर्वलोकसुखावहः।।
सर्वप्रियकरस्त्यक्त्वा राज्यं प्रियमनुत्तमम्॥१८॥
कथमिन्दीवरश्यामो रक्ताक्षः प्रियदर्शनः।
सुखभागी न दुःखार्हः शयितो भुवि राघवः॥ १९॥
‘जो चक्रवर्ती सम्राट् के कुल में उत्पन्न हुए हैं, समस्त लोकों को सुख देने वाले हैं तथा सबका प्रिय करने में तत्पर रहते हैं, जिनका शरीर नीले कमल के समान श्याम, आँखें लाल और दर्शन सबको प्रिय लगने वाला है तथा जो सुख भोगने के ही योग्य हैं, दुःख भोगने के कदापि योग्य नहीं हैं, वे ही श्रीरघुनाथ जी परम उत्तम प्रिय राज्य का परित्याग करके इस समय पृथ्वी पर शयन करते हैं ॥ १८-१९ ॥
धन्यः खलु महाभागो लक्ष्मणः शुभलक्षणः।
भ्रातरं विषमे काले यो राममनुवर्तते ॥२०॥
‘उत्तम लक्षणों वाले लक्ष्मण ही धन्य एवं बड़भागी हैं, जो संकट के समय बड़े भाई श्रीराम के साथ रहकर उनकी सेवा करते हैं। २०॥
सिद्धार्था खलु वैदेही पतिं यानुगता वनम्।
वयं संशयिताः सर्वे हीनास्तेन महात्मना ॥ २१॥
‘निश्चय ही विदेहनन्दिनी सीता भी कृतार्थ हो गयीं, जिन्होंने पति के साथ वन का अनुसरण किया है। हम सब लोग उन महात्मा श्रीराम से बिछुड़कर संशय में पड़ गये हैं (हमें यह संदेह होने लगा है कि श्रीराम हमारी सेवा स्वीकार करेंगे या नहीं) ॥ २१॥
अकर्णधारा पृथिवी शून्येव प्रतिभाति मे।
गते दशरथे स्वर्गं रामे चारण्यमाश्रिते॥२२॥
‘महाराज दशरथ स्वर्गलोक को गये और श्रीराम वनवासी हो गये, ऐसी दशा में यह पृथ्वी बिना नाविक की नौका के समान मुझे सूनी-सी प्रतीत हो रही है॥ २२॥
न च प्रार्थयते कश्चिन्मनसापि वसुंधराम्।
वने निवसतस्तस्य बाहवीर्याभिरक्षिताम्॥२३॥
‘वन में निवास करने पर भी उन्हीं श्रीराम के बाहुबल से सुरक्षित हुई इस वसुन्धरा को कोई शत्रु मन से भी नहीं लेना चाहता है॥ २३ ॥
शून्यसंवरणारक्षामयन्त्रितहयद्विपाम्।
अनावृतपुरद्वारां राजधानीमरक्षिताम्॥२४॥
अप्रहृष्टबलां शून्यां विषमस्थामनावृताम्।
शत्रवो नाभिमन्यन्ते भक्ष्यान् विषकृतानिव॥ २५॥
‘इस समय अयोध्या की चहारदीवारी की सब ओर से रक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं है, हाथी और घोड़े बँधे नहीं रहते हैं—खुले विचरते हैं, नगर द्वार का फाटक खुला ही रहता है, सारी राजधानी अरक्षित है, सेना में हर्ष और उत्साह का अभाव है, समस्त नगरी रक्षकों से सूनी-सी जान पड़ती है, सङ्कट में पड़ी हुई है, रक्षकों के अभाव से आवरणरहित हो गयी है. तो भी शत्रु विषमिश्रित भोजन की भाँति इसे ग्रहण करने की इच्छा नहीं करते हैं। श्रीराम के बाहुबल से ही इसकी रक्षा हो रही है॥ २४-२५ ॥
अद्यप्रभृति भूमौ तु शयिष्येऽहं तृणेषु वा।
फलमूलाशनो नित्यं जटाचीराणि धारयन्॥ २६॥
‘आज से मैं भी पृथ्वी पर अथवा तिनकों पर ही सोऊँगा, फल-मूल का ही भोजन करूँगा और सदा वल्कल वस्त्र तथा जटा धारण किये रहूँगा॥ २६ ॥
तस्याहमुत्तरं कालं निवत्स्यामि सुखं वने।
तत् प्रतिश्रुतमार्यस्य नैव मिथ्या भविष्यति॥ २७॥
‘वनवास के जितने दिन बाकी हैं, उतने दिनों तक मैं ही वहाँ सुखपूर्वक निवास करूँगा, ऐसा होने से आर्य श्रीराम की की हुई प्रतिज्ञा झूठी नहीं होगी॥२७॥
वसन्तं भ्रातुरर्थाय शत्रुनो मानुवत्स्यति।
लक्ष्मणेन सहायोध्यामार्यो मे पालयिष्यति॥ २८॥
‘भाई के लिये वन में निवास करते समय शत्रुघ्न मेरे साथ रहेंगे और मेरे बड़े भाई श्रीराम लक्ष्मण को साथ लेकर अयोध्या का पालन करेंगे॥२८॥
अभिषेक्ष्यन्ति काकुत्स्थमयोध्यायां द्विजातयः।
अपि मे देवताः कुर्युरिमं सत्यं मनोरथम्॥२९॥
‘अयोध्या में ब्राह्मणलोग ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम का अभिषेक करेंगे। क्या देवता मेरे इस मनोरथ को सत्य (सफल) करेंगे? ॥ २९॥
प्रसाद्यमानः शिरसा मया स्वयं बहुप्रकारं यदि न प्रपत्स्यते।
ततोऽनुवत्स्यामि चिराय राघवं वनेचरं नार्हति मामुपेक्षितुम्॥३०॥
‘मैं उनके चरणों पर मस्तक रखकर उन्हें मनाने की चेष्टा करूँगा। यदि मेरे बहुत कहने पर भी वे लौटने को राजी न होंगे तो उन वनवासी श्रीराम के साथ मैं भी दीर्घकाल तक वहीं निवास करूँगा वे मेरी उपेक्षा नहीं करेंगे’ ॥ ३०॥
सर्ग ८९
व्युष्य रात्रिं तु तत्रैव गङ्गाकूले स राघवः।
काल्यमुत्थाय शत्रुघ्नमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
शृङ्गवेरपुर में ही गङ्गा के तटपर रात्रि बिताकर रघुकुलनन्दन भरत प्रातःकाल उठे और शत्रुघ्न से इस प्रकार बोले- ॥१॥
शत्रुघ्नोत्तिष्ठ किं शेषे निषादाधिपतिं गुहम्।
शीघ्रमानय भद्रं ते तारयिष्यति वाहिनीम्॥२॥
‘शत्रुघ्न ! उठो, क्या सो रहे हो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम निषादराज गुह को शीघ्र बुला लाओ, वही हमें गङ्गा के पार उतारेगा’ ॥ २॥
जागर्मि नाहं स्वपिमि तथैवार्यं विचिन्तयन्।
इत्येवमब्रवीद् भ्राता शत्रुनो विप्रचोदितः॥३॥
उनसे इस प्रकार प्रेरित होने पर शत्रुघ्न ने कहा – ‘भैया! मैं भी आपकी ही भाँति आर्य श्रीराम का चिन्तन करता हुआ जाग रहा हूँ, सोता नहीं हूँ’॥३॥
इति संवदतोरेवमन्योन्यं नरसिंहयोः।
आगम्य प्राञ्जलिः काले गुहो वचनमब्रवीत्॥४॥
वे दोनों पुरुषसिंह जब इस प्रकार परस्पर बातचीत कर रहे थे, उसी समय गुह उपयुक्त वेला में आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला— ॥ ४॥
कच्चित् सुखं नदीतीरेऽवात्सीः काकुत्स्थ शर्वरीम्।
कच्चिच्च सहसैन्यस्य तव नित्यमनामयम्॥५॥
‘ककुत्स्थ कूलभूषण भरतजी! इस नदी के तट पर आप रात में सुख से रहे हैं न? सेनासहित आपको यहाँ कोई कष्ट तो नहीं हुआ है? आप सर्वथा नीरोग हैं न?’॥
गुहस्य तत् तु वचनं श्रुत्वा स्नेहादुदीरितम्।
रामस्यानुवशो वाक्यं भरतोऽपीदमब्रवीत्॥६॥
गुह के स्नेहपूर्वक कहे गये इस वचन को सुनकर श्रीराम के अधीन रहने वाले भरत ने यों कहा- ॥६॥
सुखा नः शर्वरी धीमन् पूजिताश्चापि ते वयम्।
गङ्गां तु नौभिर्बह्वीभिर्दाशाः संतारयन्तु नः॥७॥
‘बुद्धिमान् निषादराज! हम सब लोगों की रात बड़े सुख से बीती है। तुमने हमारा बड़ा सत्कार किया। अब ऐसी व्यवस्था करो, जिससे तुम्हारे मल्लाह बहुत-सी नौकाओं द्वारा हमें गङ्गा के पार उतार दें’।७॥
ततो गुहः संत्वरितः श्रुत्वा भरतशासनम्।
प्रतिप्रविश्य नगरं तं ज्ञातिजनमब्रवीत्॥८॥
भरत का यह आदेश सुनकर गुह तुरंत अपने नगर में गया और भाई-बन्धुओं से बोला— ॥८॥
उत्तिष्ठत प्रबुध्यध्वं भद्रमस्तु हि वः सदा।
नावः समुपकर्षध्वं तारयिष्यामि वाहिनीम्॥९॥
‘उठो, जागो, सदा तुम्हारा कल्याण हो नौकाओं को खींचकर घाटपर ले आओ। भरत की सेना को गङ्गाजी के पार उतारूँगा’॥९॥
ते तथोक्ताः समुत्थाय त्वरिता राजशासनात्।
पञ्च नावां शतान्येव समानिन्युः समन्ततः॥ १०॥
गुह के इस प्रकार कहने पर अपने राजा की आज्ञा से सभी मल्लाह शीघ्र ही उठ खड़े हुए और चारों ओर से पाँच सौ नौकाएँ एकत्र कर लाये॥ १० ॥
अन्याः स्वस्तिकविज्ञेया महाघण्टाधरावराः।
शोभमानाः पताकिन्यो युक्तवाहाः सुसंहताः॥ ११॥
इन सबके अतिरिक्त कुछ स्वस्तिक नाम से प्रसिद्ध नौकाएँ थीं; जो स्वस्तिकके चिह्नों से अलंकृत होने के कारण उन्हीं चिह्नों से पहचानी जाती थीं। उनपर ऐसी पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनमें बड़ी-बड़ी घण्टियाँ लटक रही थीं। स्वर्ण आदि के बने हुए चित्रों से उन नौकाओं की विशेष शोभा हो रही थी। उनमें नौका खेने के लिये बहुत-से डाँड़ लगे हुए थे तथा चतुर नाविक उन्हें चलाने के लिये तैयार बैठे थे। वे सभी नौकाएँ बड़ी मजबूत बनी थीं॥ ११॥
ततः स्वस्तिकविज्ञेयां पाण्डुकम्बलसंवृताम्।
सनन्दिघोषां कल्याणी गुहो नावमुपाहरत्॥१२॥
उन्हीं में से एक कल्याणमयी नाव गुह स्वयं लेकर आया, जिसमें श्वेत कालीन बिछे हुए थे तथा उस स्वस्तिक नामवाली नाव पर माङ्गलिक शब्द हो रहा था॥ १२॥
तामारुरोह भरतः शत्रुघ्नश्च महाबलः।
कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या राजयोषितः॥
पुरोहितश्च तत् पूर्वं गुरवो ब्राह्मणाश्च ये।
अनन्तरं राजदारास्तथैव शकटापणाः॥१४॥
उस पर सबसे पहले पुरोहित, गुरु और ब्राह्मण बैठे। तत्पश्चात् उस पर भरत, महाबली शत्रुघ्न, कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी तथा राजा दशरथ की जो अन्य रानियाँ थीं, वे सब सवार हुईं। तदनन्तर राजपरिवार की दूसरी स्त्रियाँ बैठीं। गाड़ियाँ तथा क्रय विक्रय की सामग्रियाँ दूसरी-दूसरी नावों पर लादी गयीं॥ १३-१४॥
आवासमादीपयतां तीर्थं चाप्यवगाहताम्।
भाण्डानि चाददानानां घोषस्तु दिवमस्पृशत्॥
कुछ सैनिक बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर अपने खेमों में छूटी हुई वस्तुओं को सँभालने लगे। कुछ लोग शीघ्रतापूर्वक घाट पर उतरने लगे तथा बहुत-से सैनिक अपने-अपने सामान को ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ इस तरह पहचानकर उठाने लगे। उस समय जो महान् कोलाहल मचा, वह आकाश में गूंज उठा।। १५ ॥
पताकिन्यस्तु ता नावः स्वयं दाशैरधिष्ठिताः।
वहन्त्यो जनमारूढं तदा सम्पेतुराशुगाः॥१६॥
उन सभी नावों पर पताकाएँ फहरा रही थीं। सबके ऊपर खेने वाले कई मल्लाह बैठे थे। वे सब नौकाएँ उस समय चढ़े हुए मनुष्यों को तीव्रगति से पार ले जाने लगीं॥ १६॥
नारीणामभिपूर्णास्तु काश्चित् काश्चित् तु वाजिनाम्।
काश्चित् तत्र वहन्ति स्म यानयुग्यं महाधनम्॥ १७॥
कितनी ही नौकाएँ केवल स्त्रियों से भरी थीं, कुछ नावों पर घोड़े थे तथा कुछ नौकाएँ गाड़ियों, उनमें जोते जाने वाले घोडे, खच्चर. बैल आदि वाहनों तथा बहुमूल्य रत्न आदि को ढो रही थीं॥ १७॥
तास्तु गत्वा परं तीरमवरोप्य च तं जनम्।
निवृत्ता काण्डचित्राणि क्रियन्ते दाशबन्धुभिः॥ १८॥
वे दूसरे तट पर पहुँचकर वहाँ लोगों को उतारकर जब लौटीं, उस समय मल्लाहबन्धु जल में उनकी विचित्र गतियों का प्रदर्शन करने लगे॥ १८ ॥
सवैजयन्तास्तु गजा गजारोहैः प्रचोदिताः।
तरन्तः स्म प्रकाशन्ते सपक्षा इव पर्वताः ॥१९॥
वैजयन्ती पताकाओं से सुशोभित होने वाले हाथी महावतों से प्रेरित होकर स्वयं ही नदी पार करने लगे। उस समय वे पंखधारी पर्वतों के समान प्रतीत होते थे॥
नावश्चारुरुहुस्त्वन्ये प्लवैस्तेरुस्तथापरे।
अन्ये कुम्भघटैस्तेरुरन्ये तेरुश्च बाहुभिः॥२०॥
कितने ही मनुष्य नावों पर बैठे थे और कितने ही बाँस तथा तिनकोंसे बने हुए बेड़ों पर सवार थे। कुछ लोग बड़े-बड़े कलशों, कुछ छोटे घड़ों और कुछ अपनी बाहुओं से ही तैरकर पार हो रहे थे॥ २० ॥
सा पुण्या ध्वजिनी गङ्गां दाशैः संतारिता स्वयम्।
मैत्रे मुहूर्ते प्रययौ प्रयागवनमुत्तमम्॥२१॥
इस प्रकार मल्लाहों की सहायता से वह सारी पवित्र सेना गङ्गा के पार उतारी गयी। फिर वह स्वयं मैत्र नामक मुहूर्त में उत्तम प्रयाग वन की ओर प्रस्थित हो गयी॥ २१॥
रौद्रः सार्पस्तथा मैत्रः पैत्रो वासव एव च।
आप्यो वैश्वस्तथा ब्राह्मः प्राजेशैन्द्रास्तथैव च।
ऐन्द्राग्नो नैर्ऋतश्चैव वारुणार्यमणो भगी।
एतेऽह्नि क्रमशो ज्ञेया मुहूर्ता दश पश्च च॥
आश्वासयित्वा च चमं महात्मा निवेशयित्वा च यथोपजोषम्।
द्रष्टुं भरद्वाजमृषिप्रवर्यमृत्विक्सदस्यैर्भरतः प्रतस्थे॥२२॥
वहाँ पहुँचकर महात्मा भरत सेना को सुखपूर्वक विश्राम की आज्ञा दे उसे प्रयाग वन में ठहराकर स्वयंऋत्विजों तथा राजसभा के सदस्यों के साथ ऋषिश्रेष्ठ भरद्वाज का दर्शन करने के लिये गये॥ २२ ॥
स ब्राह्मणस्याश्रममभ्युपेत्य महात्मनो देवपुरोहितस्य।
ददर्श रम्योटजवृक्षदेशं महदनं विप्रवरस्य रम्यम्॥ २३॥
देवपुरोहित महात्मा ब्राह्मण भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर भरत ने उन विप्रशिरोमणि के रमणीय एवं विशाल वन को देखा, जो मनोहर पर्णशालाओं तथा वृक्षावलियों से सुशोभित था॥ २३॥
सर्ग ९०
भरद्वाजाश्रमं गत्वा क्रोशादेव नरर्षभः।
जनं सर्वमवस्थाप्य जगाम सह मन्त्रिभिः॥१॥
पद्भ्यामेव तु धर्मज्ञो न्यस्तशस्त्रपरिच्छदः।
वसानो वाससी क्षौमे पुरोधाय पुरोहितम्॥२॥
धर्म के ज्ञाता नरश्रेष्ठ भरत ने भरद्वाज-आश्रम के पास पहुँचकर अपने साथ के सब लोगों को आश्रम से एक कोस इधर ही ठहरा दिया था और अपने भी अस्त्रशस्त्र तथा राजोचित वस्त्र उतारकर वहीं रख दिये थे। केवल दो रेशमी वस्त्र धारण करके पुरोहित को आगे किये वे मन्त्रियों के साथ पैदल ही वहाँ गये॥ १-२॥
ततः संदर्शने तस्य भरद्वाजस्य राघवः।
मन्त्रिणस्तानवस्थाप्य जगामानुपुरोहितम्॥३॥
आश्रम में प्रवेश करके जहाँ दूर से ही मुनिवर भरद्वाज का दर्शन होने लगा। वहीं उन्होंने उन मन्त्रियों को खड़ा कर दिया और पुरोहित वसिष्ठजी को आगे करके वे पीछे-पीछे ऋषिके पास गये॥३॥
वसिष्ठमथ दृष्ट्वैव भरद्वाजो महातपाः।
संचचालासनात् तूर्णं शिष्यानय॑मिति ब्रुवन्॥ ४॥
महर्षि वसिष्ठ को देखते ही महातपस्वी भरद्वाज आसन से उठ खड़े हुए और शिष्यों से शीघ्रतापूर्वक अर्घ्य ले आने को कहा॥४॥
समागम्य वसिष्ठेन भरतेनाभिवादितः।
अबुध्यत महातेजाः सुतं दशरथस्य तम्॥५॥
फिर वे वसिष्ठ से मिले। तत्पश्चात् भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। महातेजस्वी भरद्वाज समझ गये कि ये राजा दशरथ के पुत्र हैं॥ ५ ॥
ताभ्यामर्थ्य च पाद्यं च दत्त्वा पश्चात् फलानि च।
आनुपूर्व्याच्च धर्मज्ञः पप्रच्छ कुशलं कुले॥६॥
धर्मज्ञ ऋषि ने क्रमशः वसिष्ठ और भरत को अर्घ्य, पाद्य तथा फल आदि निवेदन करके उन दोनों के कुल का कुशल-समाचार पूछा ॥ ६॥
अयोध्यायां बले कोशे मित्रेष्वपि च मन्त्रिप।
जानन् दशरथं वृत्तं न राजानमुदाहरत्॥७॥
इसके बाद अयोध्या, सेना, खजाना, मित्रवर्ग तथा मन्त्रिमण्डल का हाल पूछा। राजा दशरथ की मृत्यु का वृत्तान्त वे जानते थे; इसलिये उनके विषय में उन्होंने कुछ नहीं पूछा ॥ ७॥
वसिष्ठो भरतश्चैनं पप्रच्छतुरनामयम्।
शरीरेऽग्निषु शिष्येषु वृक्षेषु मृगपक्षिषु॥८॥
वसिष्ठ और भरत ने भी महर्षि के शरीर, अग्निहोत्र, शिष्यवर्ग, पेड़-पत्ते तथा मृग-पक्षी आदि का कुशल समाचार पूछा ॥ ८॥
तथेति तु प्रतिज्ञाय भरद्वाजो महायशाः।
भरतं प्रत्युवाचेदं राघवस्नेहबन्धनात्॥९॥
महायशस्वी भरद्वाज ‘सब ठीक है’ ऐसा कहकर श्रीराम के प्रति स्नेह होने के कारण भरत से इस प्रकार बोले- ॥९॥
किमिहागमने कार्यं तव राज्यं प्रशासतः।
एतदाचक्ष्व सर्वं मे न हि मे शुध्यते मनः॥१०॥
‘तुम तो राज्य कर रहे हो न? तुम्हें यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? यह सब मुझे बताओ, क्योंकि मेरा मन तुम्हारी ओर से शुद्ध नहीं हो रहा है —मेरा विश्वास तुम पर नहीं जमता है॥ १० ॥
सुषुवे यममित्रघ्नं कौसल्याऽऽनन्दवर्धनम्।
भ्रात्रा सह सभार्यो यश्चिरं प्रव्राजितो वनम्॥ ११॥
नियुक्तः स्त्रीनिमित्तेन पित्रा योऽसौ महायशाः।
वनवासी भवेतीह समाः किल चतुर्दश॥१२॥
कच्चिन्न तस्यापापस्य पापं कर्तुमिहेच्छसि।
अकण्टकं भोक्तुमना राज्यं तस्यानुजस्य च॥ १३॥
‘जो शत्रुओं का नाश करने वाला है, जिस आनन्दवर्धक पुत्र को कौसल्या ने जन्म दिया है तथा तुम्हारे पिता ने स्त्री के कारण जिस महायशस्वी पुत्र को चौदह वर्षों तक वन में रहने की आज्ञा देकर उसे भाई और पत्नी के साथ दीर्घकाल के लिये वन में भेज दिया है, उस निरपराध श्रीराम और उसके छोटे भाई लक्ष्मण का तुम अकण्टक राज्य भोगने की इच्छा से कोई अनिष्ट तो नहीं करना चाहते हो?’ ॥ ११–१३॥
एवमुक्तो भरद्वाजं भरतः प्रत्युवाच ह।
पर्यश्रुनयनो दुःखाद् वाचा संसज्जमानया॥१४॥
भरद्वाजजी के ऐसा कहने पर दुःख के कारण भरत की आँखें डबडबा आयीं। वे लड़खड़ाती हुई वाणी में उनसे इस प्रकार बोले- ॥ १४ ॥
हतोऽस्मि यदि मामेवं भगवानपि मन्यते।
मत्तो न दोषमाशङ्के मैवं मामनुशाधि हि॥१५॥
‘भगवन् ! यदि आप पूज्यपाद महर्षि भी मुझे ऐसा समझते हैं, तब तो मैं हर तरह से मारा गया। यह मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि श्रीराम के वनवास में मेरी ओर से कोई अपराध नहीं हुआ है, अतः आप मुझसे ऐसी कठोर बात न कहें॥ १५ ॥
न चैतदिष्टं माता मे यदवोचन्मदन्तरे।
नाहमेतेन तुष्टश्च न तद्वचनमाददे॥१६॥
‘मेरी आड़ लेकर मेरी माता ने जो कुछ कहा या किया है, यह मुझे अभीष्ट नहीं है। मैं इससे संतुष्ट नहीं हूँ और न माता की उस बात को स्वीकार ही करता।
अहं तु तं नरव्याघ्रमुपयातः प्रसादकः।
रतिनेतुमयोध्यायां पादौ चास्याभिवन्दितुम्॥ १७॥
‘मैं तो उन पुरुषसिंह श्रीराम को प्रसन्न करके अयोध्या में लौटा लाने और उनके चरणों की वन्दना करने के लिये जा रहा हूँ॥ १७॥
तं मामेवंगतं मत्वा प्रसादं कर्तुमर्हसि।
शंस मे भगवन् रामः क्व सम्प्रति महीपतिः॥ १८॥
‘इसी उद्देश्यसे मैं यहाँ आया हूँ। ऐसा समझकर आपको मुझपर कृपा करनी चाहिये। भगवन् ! आप मुझे बताइये कि इस समय महाराज श्रीराम कहाँ हैं?’ ॥ १८॥
वसिष्ठादिभिर्ऋत्विग्भिर्याचितो भगवांस्ततः।
उवाच तं भरद्वाजः प्रसादाद् भरतं वचः॥१९॥
इसके बाद वसिष्ठ आदि ऋत्विजों ने भी यह प्रार्थना की कि भरत का कोई अपराध नहीं है। आप इन पर प्रसन्न हों। तब भगवान् भरद्वाज ने प्रसन्न होकर भरत से कहा- ॥ १९॥
त्वय्येतत् पुरुषव्याघ्र युक्तं राघववंशजे।
गुरुवृत्तिर्दमश्चैव साधूनां चानुयायिता॥ २०॥
‘पुरुषसिंह ! तुम रघुकुल में उत्पन्न हुए हो। तुममें गुरुजनों की सेवा, इन्द्रियसंयम तथा श्रेष्ठ पुरुषों के अनुसरण का भाव होना उचित ही है॥ २० ॥
जाने चैतन्मनःस्थं ते दृढीकरणमस्त्विति।
अपृच्छं त्वां तवात्यर्थं कीर्तिं समभिवर्धयन्॥ २१॥
‘तुम्हारे मन में जो बात है, उसे मैं जानता हूँ; तथापि मैंने इसलिये पूछा है कि तुम्हारा यह भाव और भी दृढ़ हो जाय तथा तुम्हारी कीर्ति का अधिकाधिक विस्तार हो॥ २१॥
जाने च रामं धर्मज्ञं ससीतं सहलक्ष्मणम्।
अयं वसति ते भ्राता चित्रकूटे महागिरौ॥२२॥
‘मैं सीता और लक्ष्मणसहित धर्मज्ञ श्रीराम का पता जानता हूँ। ये तुम्हारे भ्राता श्रीरामचन्द्र महापर्वत चित्रकूट पर निवास करते हैं॥ २२॥
श्वस्तु गन्तासि तं देशं वसाद्य सह मन्त्रिभिः।
एतं मे कुरु सुप्राज्ञ कामं कामार्थकोविद ॥२३॥
‘अब कल तुम उस स्थान की यात्रा करना। आज अपने मन्त्रियों के साथ इस आश्रम में ही रहो। महाबुद्धिमान् भरत! तुम मेरी इस अभीष्ट वस्तु को देने में समर्थ हो, अतः मेरी यह अभिलाषा पूर्ण करो’ ॥२३॥
ततस्तथेत्येवमुदारदर्शनः प्रतीतरूपो भरतोऽब्रवीद् वचः।
चकार बुद्धिं च तदाश्रमे तदा निशानिवासाय नराधिपात्मजः॥२४॥
तब जिनके स्वरूप एवं स्वभाव का परिचय मिल गया था, उन उदार दृष्टिवाले भरत ने ‘तथास्तु’ कहकर मुनि की आज्ञा शिरोधार्य की तथा उन राजकुमार ने उस समय रात को उस आश्रम में ही निवास करनेका विचार किया॥२४॥
सर्ग ९१
कृतबुद्धिं निवासाय तत्रैव स मुनिस्तदा।
भरतं केकयीपुत्रमातिथ्येन न्यमन्त्रयत्॥१॥
जब भरत ने उस आश्रम में ही निवास का दृढ़निश्चय कर लिया, तब मुनि ने कैकेयीकुमार भरत को अपना आतिथ्य ग्रहण करने के लिये न्यौता दिया॥१॥
अब्रवीद् भरतस्त्वेनं नन्विदं भवता कृतम्।
पाद्यमय॑मथातिथ्यं वने यदुपपद्यते॥२॥
यह सुनकर भरत ने उनसे कहा—’मुने! वन में जैसा आतिथ्य-सत्कार सम्भव है, वह तो आप पाद्य, अर्घ्य और फल-मूल आदि देकर कर ही चुके’ ॥ २॥
अथोवाच भरद्वाजो भरतं प्रहसन्निव।
जाने त्वां प्रीतिसंयुक्तं तष्येस्त्वं येन केनचित्॥
उनके ऐसा कहने पर भरद्वाजजी भरत से हँसते हुए से बोले—’भरत ! मैं जानता हूँ, मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम है; अतः मैं तुम्हें जो कुछ दूंगा, उसी से तुम संतुष्ट हो जाओगे॥३॥
सेनायास्तु तवैवास्याः कर्तुमिच्छामि भोजनम्।
मम प्रीतिर्यथारूपा त्वम मनुजर्षभ॥४॥
‘किंतु इस समय मैं तुम्हारी सेना को भोजन कराना चाहता हूँ। नरश्रेष्ठ! इससे मुझे प्रसन्नता होगी और जिस तरह मुझे प्रसन्नता हो, वैसा कार्य तुम्हें अवश्य करना चाहिये॥ ४॥
किमर्थं चापि निक्षिप्य दूरे बलमिहागतः।
कस्मान्नेहोपयातोऽसि सबलः पुरुषर्षभ॥५॥
‘पुरुषप्रवर! तुम अपनी सेना को किसलिये इतनी दूर छोड़कर यहाँ आये हो, सेनासहित यहाँ क्यों नहींआये?’ ॥ ५॥
भरतः प्रत्युवाचेदं प्राञ्जलिस्तं तपोधनम्।
न सैन्येनोपयातोऽस्मि भगवन् भगवद्भयात्॥६॥
तब भरत ने हाथ जोड़कर उन तपोधन मुनि को उत्तर दिया—’भगवन् ! मैं आपके ही भय से सेना के साथ यहाँ नहीं आया॥६॥
राज्ञा हि भगवन् नित्यं राजपुत्रेण वा तथा।
यत्नतः परिहर्तव्या विषयेषु तपस्विनः॥७॥
‘प्रभो! राजा और राजपुत्र को चाहिये कि वे सभी देशों में प्रयत्नपूर्वक तपस्वीजनों को दूर छोड़कर रहें(क्योंकि उनके द्वारा उन्हें कष्ट पहुँचने की सम्भावना रहती है)॥
वाजिमुख्या मनुष्याश्च मत्ताश्च वरवारणाः।
प्रच्छाद्य भगवन् भूमिं महतीमनुयान्ति माम्॥८॥
‘भगवन्! मेरे साथ बहुत-से अच्छे-अच्छे घोड़े, मनुष्य और मतवाले गजराज हैं, जो बहुत बड़े भूभाग को ढककर मेरे पीछे-पीछे चलते हैं॥ ८॥
ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा।
न हिंस्युरिति तेनाहमेक एवागतस्ततः॥९॥
‘वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुँचायें, इसलिये मैं यहाँ अकेला ही आया हूँ॥
आनीयतामितः सेनेत्याज्ञप्तः परमर्षिणा।
तथानुचक्रे भरतः सेनायाः समुपागमम्॥१०॥
तदनन्तर उन महर्षि ने आज्ञा दी कि ‘सेना को यहीं ले आओ’ तब भरत ने सेना को वहीं बुलवा लिया॥ १०॥
अग्निशालां प्रविश्याथ पीत्वापः परिमृज्य च।
आतिथ्यस्य क्रियाहेतोर्विश्वकर्माणमाह्वयत्॥
इसके बाद मुनिवर भरद्वाज ने अग्निशाला में प्रवेश करके जल का आचमन किया और ओठ पोंछकर भरत के आतिथ्य-सत्कार के लिये विश्वकर्मा आदि का आवाहन किया॥११॥
आह्वये विश्वकर्माणमहं त्वष्टारमेव च।
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम्॥ १२॥
वे बोले—’मैं विश्वकर्मा त्वष्टा देवता का आवाहन करता हूँ। मेरे मन में सेनासहित भरत का आतिथ्यसत्कार करने की इच्छा हुई है। इसमें मेरे लिये वे आवश्यक प्रबन्ध करें॥ १२॥
आह्वये लोकपालांस्त्रीन् देवान् शक्रपुरोगमान्।
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम्॥
‘जिनके अगुआ इन्द्र हैं, उन तीन लोकपालों का (अर्थात् इन्द्रसहित यम, वरुण और कुबेर नामक देवताओं का) मैं आवाहन करता हूँ। इस समय भरत का आतिथ्य-सत्कार करना चाहता हूँ, इसमें मेरे लिये वे लोग आवश्यक प्रबन्ध करें॥ १३॥
प्राक्स्रोतसश्च या नद्यस्तिर्यक्स्रोतस एव च।
पृथिव्यामन्तरिक्षे च समायान्त्वद्य सर्वशः॥१४॥
‘पृथिवी और आकाश में जो पूर्व एवं पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं, उनका भी मैं आवाहन करता हूँ; वे सब आज यहाँ पधारें॥ १४ ॥
अन्याः सवन्तु मैरेयं सुरामन्याः सुनिष्ठिताम्।
अपराश्चोदकं शीतमिक्षुकाण्डरसोपमम्॥ १५॥
‘कुछ नदियाँ मैरेय प्रस्तुत करें। दूसरी अच्छी तरह तैयार की हुई सुरा ले आवें तथा अन्य नदियाँ ईंख के पोरुओं में होने वाले रस की भाँति मधुर एवं शीतल जल तैयार करके रखें॥ १५॥
आह्वये देवगन्धर्वान् विश्वावसुहहाहुहुन्।
तथैवाप्सरसो देवगन्धर्वैश्चापि सर्वशः॥१६॥
‘मैं विश्वावसु, हाहा और हूहू आदि देव-गन्धर्वो का तथा उनके साथ समस्त अप्सराओं का भी आवाहन करता हूँ।
घृताचीमथ विश्वाची मिश्रकेशीमलम्बुषाम्।
नागदत्तां च हेमां च सोमामद्रिकृतस्थलीम्॥ १७॥
‘घृताची, विश्वाची, मिश्रकेशी, अलम्बुषा नागदत्ता, हेमा, सोमा तथा अद्रिकृतस्थली (अथवा पर्वत पर निवास करने वाली सोमा) का भी मैं आवाहन करता हूँ॥ १७॥
शक्रं याश्चोपतिष्ठन्ति ब्रह्माणं याश्च भामिनीः।
सर्वास्तुम्बुरुणा सार्धमाह्वये सपरिच्छदाः॥१८॥
‘जो अप्सराएँ इन्द्र की सभा में उपस्थित होती हैं तथा जो देवाङ्गनाएँ ब्रह्माजी की सेवा में जाया करती हैं, उन सबका मैं तुम्बुरु के साथ आवाहन करता हूँ। । वे अलङ्कारों तथा नृत्यगीत के लिये अपेक्षित अन्यान्य उपकरणों के साथ यहाँ पधारें॥ १८ ॥
वनं कुरुषु यद् दिव्यं वासोभूषणपत्रवत्।
दिव्यनारीफलं शश्वत् तत्कौबेरमिहैव तु॥१९॥
‘उत्तर कुरुवर्ष में जो दिव्य चैत्ररथ नामक वन है, जिसमें दिव्य वस्त्र और आभूषण ही वृक्षों के पत्ते हैं और दिव्य नारियाँ ही फल हैं, कुबेर का वह सनातन दिव्य वन यहीं आ जाय॥ १९ ॥
इह मे भगवान् सोमो विधत्तामन्नमुत्तमम्।
भक्ष्यं भोज्यं च चोष्यं च लेह्यं च विविधं बहु॥ २०॥
‘यहाँ भगवान् सोम मेरे अतिथियों के लिये उत्तम अन्न, नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य की प्रचुर मात्रामें व्यवस्था करें॥ २० ॥
विचित्राणि च माल्यानि पादपप्रच्युतानि च।
सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च॥ २१॥
‘वृक्षों से तुरंत चुने गये नाना प्रकार के पुष्प, मधु आदि पेय पदार्थ तथा नाना प्रकार के फलों के गूदे भी भगवान् सोम यहाँ प्रस्तुत करें’॥ २१॥
एवं समाधिना युक्तस्तेजसाप्रतिमेन च।
शिक्षास्वरसमायुक्तं सुव्रतश्चाब्रवीन्मुनिः॥२२॥
इस प्रकार उत्तम व्रत का पालन करने वाले भरद्वाज मुनि ने एकाग्रचित्त और अनुपम तेज से सम्पन्न हो शिक्षा (शिक्षाशास्त्र में बतायी गयी उच्चारणविधि) और (व्याकरणशास्त्रोक्त प्रकृति-प्रत्यय सम्बन्धी)स्वर से युक्त वाणी में उन सबका आवाहन किया॥ २२॥
मनसा ध्यायतस्तस्य प्राङ्मुखस्य कृताञ्जलेः।
आजग्मुस्तानि सर्वाणि दैवतानि पृथक् पृथक्॥ २३॥
इस तरह आवाहन करके मुनि पूर्वाभिमुख हो हाथ जोड़े मन-ही-मन ध्यान करने लगे। उनके स्मरण करते ही वे सभी देवता एक-एक करके वहाँ आ पहुँचे॥ २३॥
मलयं दर्दुरं चैव ततः स्वेदनदोऽनिलः।
उपस्पृश्य ववौ युक्त्या सुप्रियात्मा सुखं शिवः॥ २४॥
फिर तो वहाँ मलय और दर्दर नामक पर्वतोंका स्पर्श करके बहनेवाली अत्यन्त प्रिय और सुखदायिनी हवा धीरे-धीरे चलने लगी, जो स्पर्शमात्रसे शरीरके पसीनेको सुखा देनेवाली थी॥ २४॥
ततोऽभ्यवर्षन्त घना दिव्याः कुसुमवृष्टयः।
देवदुन्दुभिघोषश्च दिक्षु सर्वासु शुश्रुवे॥२५॥
तत्पश्चात् मेघगण दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं में देवताओं की दुन्दुभियों का मधुर शब्द सुनायी देने लगा॥ २५ ॥
प्रववुश्चोत्तमा वाता ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
प्रजगुर्देवगन्धर्वा वीणाः प्रमुमुचुः स्वरान्॥ २६॥
उत्तम वायु चलने लगी। अप्सराओं के समुदायों का नृत्य होने लगा। देवगन्धर्व गाने लगे और सब ओर वीणाओं की स्वरलहरियाँ फैल गयीं ॥ २६ ॥
स शब्दो द्यां च भूमिं च प्राणिनां श्रवणानि च।
विवेशोच्चावचः श्लक्ष्णः समो लयगुणान्वितः॥ २७॥
संगीत का वह शब्द पृथ्वी, आकाश तथा प्राणियों के कर्णकुहरों में प्रविष्ट होकर गूंजने लगा।आरोह-अवरोह से युक्त वह शब्द कोमल एवं मधुर था, समताल से विशिष्ट और लयगुण से सम्पन्न था॥ २७॥
तस्मिन्नेवंगते शब्दे दिव्ये श्रोत्रसुखे नृणाम्।
ददर्श भारतं सैन्यं विधानं विश्वकर्मणः ॥२८॥
इस प्रकार मनुष्यों के कानों को सुख देने वाला वह दिव्य शब्द हो ही रहा था कि भरत की सेना को विश्वकर्मा का निर्माण कौशल दिखायी पड़ा ॥ २८॥
बभूव हि समा भूमिः समन्तात् पञ्चयोजनम्।
शादलैर्बहुभिश्छन्ना नीलवैदूर्यसंनिभैः ॥ २९॥
चारों ओर पाँच योजनतक की भूमि समतल हो गयी। उस पर नीलम और वैदूर्य मणि के समान नाना प्रकार की घनी घास छा रही थी॥ २९॥
तस्मिन् बिल्वाः कपित्थाश्च पनसा बीजपूरकाः।
आमलक्यो बभूवुश्च चूताश्च फलभूषिताः॥ ३०॥
स्थान-स्थान पर बेल, कैथ, कटहल, आँवला, बिजौरा तथा आम के वृक्ष लगे थे, जो फलों से सुशोभित हो रहे थे॥ ३०॥
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च वनं दिव्योपभोगवत्।
आजगाम नदी सौम्या तीरजैर्बहभिर्वृता॥३१॥
उत्तर कुरुवर्ष से दिव्य भोग-सामग्रियों से सम्पन्न चैत्ररथ नामक वन वहाँ आ गया। साथ ही वहाँ की रमणीय नदियाँ भी आ पहुँचीं, जो बहुसंख्यक तटवर्ती वृक्षों से घिरी हुई थीं॥३१॥
चतुःशालानि शुभ्राणि शालाश्च गजवाजिनाम्।
हर्म्यप्रासादसंयुक्ततोरणानि शुभानि च ॥ ३२॥
उज्ज्व ल, चार-चार कमरों से युक्त गृह (अथवा गृहयुक्त चबूतरे) तैयार हो गये। हाथी और घोड़ोंके रहनेके लिये शालाएँ बन गयीं। अट्टालिकाओं तथा सतमंजिले महलों से युक्त सुन्दर नगरद्वार भी निर्मित हो गये॥३२॥
सितमेघनिभं चापि राजवेश्म सुतोरणम्।
शुक्लमाल्यकृताकारं दिव्यगन्धसमुक्षितम्॥ ३३॥
राजपरिवार के लिये बना हुआ सुन्दर द्वार से युक्त दिव्य भवन श्वेत बादलों के समान शोभा पा रहा था।उसे सफेद फूलों की मालाओं से सजाया और दिव्य सुगन्धित जल से सींचा गया था॥ ३३॥
चतुरस्रमसम्बाधं शयनासनयानवत्।
दिव्यैः सर्वरसैर्युक्तं दिव्यभोजनवस्त्रवत्॥ ३४॥
वह महल चौकोना तथा बहुत बड़ा था उसमें संकीर्णता का अनुभव नहीं होता था। उसमें सोने, बैठने और सवारियों के रहने के लिये अलग-अलग स्थान थे।वहाँ सब प्रकार के दिव्य रस, दिव्य भोजन और दिव्य वस्त्र प्रस्तुत थे॥ ३४॥
उपकल्पितसर्वान्नं धौतनिर्मलभाजनम्।
क्लृप्तसर्वासनं श्रीमत्स्वास्तीर्णशयनोत्तमम्॥ ३५॥
सब तरहके अन्न और धुले हुए स्वच्छ पात्र रखे गये थे। उस सुन्दर भवन में कहीं बैठने के लिये सब प्रकार के आसन उपस्थित थे और कहीं सोने के लिये सुन्दर शय्याएँ बिछी थीं॥ ३५॥
प्रविवेश महाबाहुरनुज्ञातो महर्षिणा।
वेश्म तद रत्नसम्पूर्ण भरतः कैकयीसुतः॥३६॥
अनुजग्मुश्च ते सर्वे मन्त्रिणः सपुरोहिताः।
बभूवुश्च मुदा युक्तास्तं दृष्ट्वा वेश्मसंविधिम्॥ ३७॥
महर्षि भरद्वाज की आज्ञा से कैकेयी पुत्र महाबाहु भरत ने नाना प्रकार के रत्नों से भरे हुए उस महल में प्रवेश किया। उनके साथ-साथ पुरोहित और मन्त्री भी उसमें गये। उस भवन का निर्माण कौशल देखकर उन सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। ३६-३७॥
तत्र राजासनं दिव्यं व्यजनं छत्रमेव च।
भरतो मन्त्रिभिः सार्धमभ्यवर्तत राजवत्॥ ३८॥
उस भवन में भरत ने दिव्य राजसिंहासन, चँवर और छत्र भी देखे तथा वहाँ राजा श्रीराम की भावना करके मन्त्रियों के साथ उन समस्त राजभोग्य वस्तुओं की प्रदक्षिणा की।
आसनं पूजयामास रामायाभिप्रणम्य च।
वालव्यजनमादाय न्यषीदत् सचिवासने॥३९॥
सिंहासन पर श्रीरामचन्द्रजी महाराज विराजमान हैं, ऐसी धारणा बनाकर उन्होंने श्रीराम को प्रणाम किया और उस सिंहासन की भी पूजा की फिर अपने हाथ में चँवर ले, वे मन्त्री के आसन पर जा बैठे॥ ३९ ॥
आनुपूर्व्यान्निषेदुश्च सर्वे मन्त्रिपुरोहिताः।
ततः सेनापतिः पश्चात् प्रशास्ता च न्यषीदत॥ ४०॥
तत्पश्चात् पुरोहित और मन्त्री भी क्रमशः अपने योग्य आसनों पर बैठे फिर सेनापति और प्रशास्ता (छावनी की रक्षा करने वाले) भी बैठ गये॥ ४०॥
ततस्तत्र मुहूर्तेन नद्यः पायसकर्दमाः।
उपातिष्ठन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनात्॥४१॥
तदनन्तर वहाँ दो ही घड़ी में भरद्वाज मुनि की आज्ञा से भरत की सेवा में नदियाँ उपस्थित हुईं, जिनमें कीच के स्थान में खीर भरी थी॥ ४१॥
आसामुभयतःकूलं पाण्डुमृत्तिकलेपनाः।
रम्याश्चावसथा दिव्या ब्राह्मणस्य प्रसादजाः॥ ४२॥
उन नदियों के दोनों तटों पर ब्रह्मर्षि भरद्वाज की कृपा से दिव्य एवं रमणीय भवन प्रकट हो गये थे, जो चूने से पुते हुए थे॥ ४२॥
तेनैव च मुहूर्तेन दिव्याभरणभूषिताः।
आगुर्विंशतिसाहस्राः ब्रह्मणा प्रहिताः स्त्रियः॥ ४३॥
उसी मुहूर्त में ब्रह्माजी की भेजी हुई दिव्य आभूषणों से विभूषित बीस हजार दिव्याङ्गनाएँ वहाँ आयीं॥४३॥
सुवर्णमणिमुक्तेन प्रवालेन च शोभिताः।
आगुर्विंशतिसाहस्राः कुबेरप्रहिताः स्त्रियः॥४४॥
याभिर्गृहीतः पुरुषः सोन्माद इव लक्ष्यते।
इसी तरह सुवर्ण, मणि, मुक्ता और मूंगों के आभूषणों से सुशोभित, कुबेर की भेजी हुई बीस हजार दिव्य महिलाएँ भी वहाँ उपस्थित हईं, जिनका स्पर्श पाकर पुरुष उन्मादग्रस्त-सा दिखायी देता है॥ ४४ १/२॥
आगुर्विंशतिसाहस्रा नन्दनादप्सरोगणाः॥४५॥
नारदस्तुम्बुरुर्गोपः प्रभया सूर्यवर्चसः।
एते गन्धर्वराजानो भरतस्याग्रतो जगुः ॥ ४६॥
इनके सिवा नन्दनवन से बीस हजार अप्सराएँ भी आयीं। नारद, तुम्बुरु और गोप अपनी कान्ति से सूर्य के समान प्रकाशित होते थे। ये तीनों गन्धर्वराज भरत के सामने गीत गाने लगे॥ ४५-४६ ॥
अलम्बुषा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ वामना।
उपानृत्यन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनात्॥४७॥
अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरी का और वामना—ये चार अप्सराएँ भरद्वाज मुनि की आज्ञा से भरत के समीप नृत्य करने लगीं॥४७॥
यानि माल्यानि देवेषु यानि चैत्ररथे वने।
प्रयागे तान्यदृश्यन्त भरद्वाजस्य तेजसा॥४८॥
जो फूल देवताओं के उद्यानों में और जो चैत्ररथ वन में हुआ करते हैं, वे महर्षि भरद्वाज के प्रताप से प्रयाग में दिखायी देने लगे॥४८॥
बिल्वा मार्दङ्गिका आसन् शम्याग्राहा बिभीतकाः।
अश्वत्था नर्तकाश्चासन् भरद्वाजस्य तेजसा॥ ४९॥
भरद्वाज मुनि के तेज से बेल के वृक्ष मृदङ्ग बजाते, बहेड़े के पेड़ शम्या नामक ताल देते और पीपल के वृक्ष वहाँ नृत्य करते थे। ४९॥
ततः सरलतालाश्च तिलकाः सतमालकाः।
प्रहृष्टास्तत्र सम्पेतुः कुब्जा भूत्वाथ वामनाः॥ ५०॥
तदनन्तर देवदारु, ताल, तिलक और तमाल नामक वृक्ष कुबड़े और बौने बनकर बड़े हर्ष के साथ भरत की सेवा में उपस्थित हुए॥५०॥
शिंशपाऽऽमलकी जम्बूर्याश्चान्याः कानने लताः।
मालती मल्लिका जातियश्चान्याः कानने लताः।
प्रमदाविग्रहं कृत्वा भरद्वाजाश्रमेऽवसन्॥५१॥
शिंशपा, आमल की और जम्बू आदि स्त्रीलिङ्गवृक्ष तथा मालती, मल्लिका और जाति आदि वन की लताएँ नारी का रूप धारण करके भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ बसीं॥५१॥
सुरां सुरापाः पिबत पायसं च बुभुक्षिताः।
मांसानि च सुमेध्यानि भक्ष्यन्तां यो यदिच्छति॥ ५२॥
(वे भरतके सैनिकों को पुकार-पुकारकर कहती थीं -) ‘मधु का पान करने वाले लोगो! लो, यह मधु पान कर लो। तुममें से जिन्हें भूख लगी हो, वे सब लोग यह खीर खाओ और परम पवित्र फलों के गूदे भी प्रस्तुत हैं, इनका आस्वादन करो। जिसकी जो इच्छा हो, वही भोजन करो’ ॥ ५२॥
उच्छोद्य स्नापयन्ति स्म नदीतीरेषु वल्गुषु।
अप्येकमेकं पुरुषं प्रमदाः सप्त चाष्ट च॥५३॥
सात-आठ तरुणी स्त्रियाँ मिलकर एक-एक पुरुष को नदी के मनोहर तटोंपर उबटन लगा-लगाकर नहलाती थीं॥
संवाहन्त्यः समापेतुर्नार्यो विपुललोचनाः।
परिमृज्य तदान्योन्यं पाययन्ति वराङ्गनाः॥५४॥
बड़े-बड़े नेत्रोंवाली सुन्दरी रमणियाँ अतिथियों का पैर दबाने के लिये आयी थीं। वे उनके भीगे हुए अङ्गों को वस्त्रों से पोंछकर शुद्ध वस्त्र धारण कराकर उन्हें स्वादिष्ट पेय (दूध आदि) पिलाती थीं॥ ५४॥
हयान् गजान् खरानुष्ट्रांस्तथैव सुरभेः सुतान्।
अभोजयन् वाहनपास्तेषां भोज्यं यथाविधि॥
तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न वाहनों की रक्षा में नियुक्त मनुष्यों ने हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट और बैलों को भलीभाँति दाना-घास आदि का भोजन कराया॥ ५५ ॥
इखूश्च मधुलाजांश्च भोजयन्ति स्म वाहनान्।
इक्ष्वाकुवरयोधानां चोदयन्तो महाबलाः॥५६॥
इक्ष्वाकुकुलके श्रेष्ठ योद्धाओं की सवारी में आने वाले वाहनों को वे महाबली वाहन-रक्षक (जिन्हें महर्षि ने सेवा के लिये नियुक्त किया था) प्रेरणा दे-देकर गन्ने के टुकड़े और मधुमिश्रित लावे खिलाते थे। ५६॥
नाश्वबन्धोऽश्वमाजानान्न गजं कुञ्जरग्रहः।
मत्तप्रमत्तमुदिता सा चमूस्तत्र सम्बभौ ॥५७॥
घोड़े बाँधने वाले सईस को अपने घोड़े का और हाथीवान को अपने हाथी का कुछ पता नहीं था। सारी सेना वहाँ मत्त-प्रमत्त और आनन्दमग्न प्रतीत होती थी॥५७॥
तर्पिताः सर्वकामैश्च रक्तचन्दनरूषिताः।
अप्सरोगणसंयुक्ताः सैन्या वाचमुदीरयन्॥५८॥
सम्पूर्ण मनोवाञ्छित पदार्थों से तृप्त होकर लाल चन्दन से चर्चित हुए सैनिक अप्सराओं का संयोग पाकर निम्नाङ्कित बातें कहने लगे- ॥ ५८॥
नैवायोध्यां गमिष्यामो न गमिष्याम दण्डकान्।
कुशलं भरतस्यास्तु रामस्यास्तु तथा सुखम्॥ ५९॥
‘अब हम अयोध्या नहीं जायेंगे, दण्डकारण्य में भी नहीं जायेंगे। भरत सकुशल रहें (जिनके कारण हमें इस भूतल पर स्वर्गका सुख मिला) तथा श्रीरामचन्द्रजी भी सुखी रहें (जिनके दर्शन के लिये आने पर हमें इस दिव्य सुख की प्राप्ति हुई)’ ॥ ५९॥
इति पादातयोधाश्च हस्त्यश्वारोहबन्धकाः।
अनाथास्तं विधिं लब्ध्वा वाचमेतामुदीरयन्॥ ६०॥
इस प्रकार पैदल सैनिक तथा हाथीसवार, घुड़सवार, सईस और महावत आदि उस सत्कार को पाकर स्वच्छन्द हो उपर्युक्त बातें कहने लगे॥ ६० ॥
सम्प्रहृष्टा विनेदुस्ते नरास्तत्र सहस्रशः।
भरतस्यानुयातारः स्वर्गोऽयमिति चाब्रुवन्॥६१॥
भरत के साथ आये हुए हजारों मनुष्य वहाँ का वैभव देखकर हर्ष के मारे फूले नहीं समाते थे और जोर जोर से कहते थे—यह स्थान स्वर्ग है॥ ६१॥
नृत्यन्तश्च हसन्तश्च गायन्तश्चैव सैनिकाः।
समन्तात् परिधावन्तो माल्योपेताः सहस्रशः॥ ६२॥
सहस्रों सैनिक फूलों के हार पहनकर नाचते, हँसते और गाते हुए सब ओर दौड़ते फिरते थे॥६२॥
ततो भुक्तवतां तेषां तदन्नममृतोपमम्।
दिव्यानुवीक्ष्य भक्ष्यांस्तानभवद् भक्षणे मतिः॥ ६३॥
उस अमृत के समान स्वादिष्ट अन्न का भोजन कर चुकने पर भी उन दिव्य भक्ष्य पदार्थों को देखकर उन्हें पुनः भोजन करने की इच्छा हो जाती थी॥ ६३॥
प्रेष्याश्चेट्यश्च वध्वश्च बलस्थाश्चापि सर्वशः।
बभूवुस्ते भृशं प्रीताः सर्वे चाहतवाससः॥६४॥
दास-दासियाँ, सैनिकों की स्त्रियाँ और सैनिक सबके-सब नूतन वस्त्र धारण करके सब प्रकार से अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे॥६४॥
कुञ्जराश्च खरोष्ट्राश्च गोऽश्वाश्च मृगपक्षिणः।
बभूवुः सुभृतास्तत्र नातो ह्यन्यमकल्पयत्॥६५॥
हाथी, घोड़े, गदहे, ऊँट, बैल, मृग तथा पक्षी भी वहाँ पूर्ण तृप्त हो गये थे; अतः कोई दूसरी किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता था॥६५॥
नाशुक्लवासास्तत्रासीत् क्षुधितो मलिनोऽपि वा।
रजसा ध्वस्तकेशो वा नरः कश्चिददृश्यत॥ ६६॥
उस समय वहाँ कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके कपड़े सफेद न हों, जो भूखा या मलिन रह गया हो, अथवा जिसके केश धूल से धूसरित हो गये हों॥६६॥
आजैश्चापि च वाराहैर्निष्ठानवरसंचयैः।
फलनिर्वृहसंसिद्धैः सूपैर्गन्धरसान्वितैः॥६७॥
पुष्पध्वजवतीः पूर्णाः शुक्लस्यान्नस्य चाभितः।
ददृशुर्विस्मितास्तत्र नरा लौहीः सहस्रशः॥ ६८॥
अजवाइन मिलाकर बनाये गये, वराही कन्द से तैयार किये गये तथा आम आदि फलों के गरम किये हुए रस में पकाये गये उत्तमोत्तम व्यञ्जनों के संग्रहों, सुगन्धयुक्त रसवाली दालों तथा श्वेत रंग के भातों से भरे हुए सहस्रों सुवर्ण आदि के पात्र वहाँ सब ओर रखे हुए थे, जिन्हें फूलों की ध्वजाओं से सजाया गया था। भरत के साथ आये हुए सब लोगों ने उन पात्रों को आश्चर्यचकित होकर देखा ॥ ६७-६८ ॥
बभूवुर्वनपार्श्वेषु कूपाः पायसकर्दमाः।
ताश्च कामदुघा गावो द्रुमाश्चासन् मधुच्युतः॥ ६९॥
वन के आस-पास जितने कुएँ थे, उन सबमें गाढ़ी स्वादिष्ट खीर भरी हुई थी। वहाँ की गौएँ कामधेनु (सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाली) हो गयी थीं और उस दिव्य वन के वृक्ष मधु की वर्षा करते थे॥ ६९॥
वाप्यो मैरेयपूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृताः।
प्रतप्तपिठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटैः॥७०॥
भरत की सेना में आये हए निषाद आदि निम्न वर्ग के लोगों की तृप्ति के लिये वहाँ मधु से भरी हुई बावड़ियाँ प्रकट हो गयी थीं तथा उनके तटों पर तपे हुए पिठर (कुण्ड) में पकाये गये मृग, मोर और मुर्गों के स्वच्छ मांस भी ढेर-के-ढेर रख दिये गये थे।॥ ७० ॥
पात्रीणां च सहस्राणि स्थालीनां नियुतानि च।
न्यर्बुदानि च पात्राणि शातकुम्भमयानि च॥ ७१॥
वहाँ सहस्रों सोने के अन्नपात्र, लाखों व्यञ्जनपात्र और लगभग एक अरब थालियाँ संगृहीत थीं॥ ७१॥
स्थाल्यः कुम्भ्यः करम्भ्यश्च दधिपूर्णाः सुसंस्कृताः।
यौवनस्थस्य गौरस्य कपित्थस्य सुगन्धिनः॥ ७२॥
ह्रदाः पूर्णा रसालस्य दध्नः श्वेतस्य चापरे।
बभूवुः पायसस्यान्ये शर्कराणां च संचयाः॥ ७३॥
पिठर, छोटे-छोटे घड़े तथा मटके दही से भरे हुए थे और उनमें दही को सुस्वादु बनाने वाले सोंठ आदि मसाले पड़े हुए थे। एक पहर पहले के तैयार किये हुए केसर मिश्रित पीतवर्ण वाले सुगन्धित तक्र के कई तालाब भरे हुए थे। जीरा आदि मिलाये हुए तक्र (रसाल), सफेद दही तथा दूध के भी कई कुण्ड पृथक्-पृथक् भरे हुए थे शक्करों के कई ढेर लगे थे। ७२-७३॥
कल्कांश्चूर्णकषायांश्च स्नानानि विविधानि च।
ददृश जनस्थानि तीर्थेष सरितां नराः॥७४॥
स्नान करने वाले मनुष्यों को नदी के घाटोंपर भिन्नभिन्न पात्रों में पीसे हुए आँवले, सुगन्धित चूर्ण तथाऔर भी नाना प्रकार के स्नानोपयोगी पदार्थ दिखायी देते थे॥ ७४॥
शुक्लानंशुमतश्चापि दन्तधावनसंचयान्।
शुक्लांश्चन्दनकल्कांश्च समुद्रेष्ववतिष्ठतः॥ ७५॥
साथ ही ढेर-के-ढेर दाँतन, जो सफेद कूँचे वाले थे, वहाँ रखे हए थे। सम्पुटों में घिसे हए सफेद चन्दन विद्यमान थे। इन सब वस्तुओं को लोगों ने देखा। ७५॥
दर्पणान् परिमृष्टांश्च वाससां चापि संचयान्।
पादुकोपानहं चैव युग्मान्यत्र सहस्रशः॥७६॥
इतना ही नहीं, वहाँ बहुत-से स्वच्छ दर्पण, ढेर-केढेर वस्त्र और हजारों जोड़े खड़ाऊँ और जूते भी दिखायी देते थे॥ ७६॥
आञ्जनीः कङ्कतान् कूर्चाश्छत्राणि च धनूंषि च।
मर्मत्राणानि चित्राणि शयनान्यासनानि च॥ ७७॥
काजलों सहित कजरौटे, कंघे, कूर्च (थकरी या ब्रश), छत्र, धनुष, मर्मस्थानों की रक्षा करने वाले कवच आदि तथा विचित्र शय्या और आसन भी वहाँ दृष्टिगोचर होते थे॥ ७७॥
प्रतिपानह्रदान् पूर्णान् खरोष्ट्रगजवाजिनाम्।
अवगाह्यसुतीर्थांश्च ह्रदान् सोत्पलपुष्करान्।
आकाशवर्णप्रतिमान् स्वच्छतोयान् सुखाप्लवान्॥७८॥
गधे, ऊँट, हाथी और घोड़ों के पानी पीने के लिये कई जलाशय भरे थे, जिनके घाट बड़े सुन्दर और सुखपूर्वक उतरने योग्य थे। उन जलाशयों में कमल और उत्पल शोभा पा रहे थे। उनका जल आकाश के समान स्वच्छ था तथा उनमें सुखपूर्वक तैरा जा सकता था।
नीलवैदूर्यवर्णाश्च मृदून् यवससंचयान्।
निर्वापार्थं पशूनां ते ददृशुस्तत्र सर्वशः॥७९॥
पशुओं के खाने के लिये वहाँ सब ओर नील वैदूर्यमणि के समान रंगवाली हरी एवं कोमल घास की ढेरियाँ लगी थीं। उन सब लोगों ने वे सारी वस्तुएँ देखीं॥ ७९॥
व्यस्मयन्त मनुष्यास्ते स्वप्नकल्पं तदद्भुतम्।
दृष्ट्वाऽऽतिथ्यं कृतं तादृग् भरतस्य महर्षिणा॥ ८०॥
महर्षि भरद्वाज के द्वारा सेनासहित भरत का किया हुआ वह अनिर्वचनीय आतिथ्य-सत्कार अद्भुत और स्वप्न के समान था। उसे देखकर वे सब मनुष्य आश्चर्यचकित हो उठे। ८० ॥
इत्येवं रममाणानां देवानामिव नन्दने।
भरद्वाजाश्रमे रम्ये सा रात्रिय॑त्यवर्तत॥८१॥
जैसे देवता नन्दनवन में विहार करते हैं, उसी प्रकार भरद्वाज मुनि के रमणीय आश्रम में यथेष्ट क्रीडा विहार करते हुए उन लोगों की वह रात्रि बड़े सुख से बीती।
प्रतिजग्मुश्च ता नद्यो गन्धर्वाश्च यथागतम्।
भरद्वाजमनुज्ञाप्य ताश्च सर्वा वराङ्गनाः॥८२॥
तत्पश्चात् वे नदियाँ, गन्धर्व और समस्त सुन्दरी अप्सराएँ भरद्वाजजी की आज्ञा ले जैसे आयी थीं, उसी प्रकार लौट गयीं। ८२॥
तथैव मत्ता मदिरोत्कटा नरास्तथैव दिव्यागुरुचन्दनोक्षिताः।
तथैव दिव्या विविधाः स्रगुत्तमाःपृथग्विकीर्णा मनुजैः प्रमर्दिताः॥ ८३॥
सबेरा हो जाने पर भी लोग उसी प्रकार मधुपान से मत्त एवं उन्मत्त दिखायी देते थे। उनके अङ्गों पर दिव्य अगुरुयुक्त चन्दन का लेप ज्यों-का-त्यों दृष्टिगोचर हो रहा था। मनुष्यों के उपभोग में लाये गये नाना प्रकार के दिव्य उत्तम पुष्पहार भी उसी अवस्था में पृथक्-पृथक् बिखरे पड़े थे॥ ८३॥
सर्ग ९२
ततस्तां रजनीं व्यष्य भरतः सपरिच्छदः।
कृतातिथ्यो भरद्वाजं कामादभिजगाम ह॥१॥
परिवार सहित भरत इच्छानुसार मुनि का आतिथ्य ग्रहण करके रात भर आश्रम में ही रहे। फिर सबेरे जाने की आज्ञा लेने के लिये वे महर्षि भरद्वाज के पास गये॥१॥
तमृषिः पुरुषव्याघ्र प्रेक्ष्य प्राञ्जलिमागतम्।
हताग्निहोत्रो भरतं भरद्वाजोऽभ्यभाषत॥२॥
पुरुषसिंह भरत को हाथ जोड़े अपने पास आया देख भरद्वाजजी अग्निहोत्र का कार्य करके उनसे बोले – ॥२॥
कच्चिदत्र सुखा रात्रिस्तवास्मद्विषये गता।
समग्रस्ते जनः कच्चिदातिथ्ये शंस मेऽनघ॥३॥
‘निष्पाप भरत! क्या हमारे इस आश्रम में तुम्हारी यह रात सुख से बीती है? क्या तुम्हारे साथ आये हुए सब लोग इस आतिथ्य से संतुष्ट हुए हैं? यह बताओ’॥
तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा भरतोऽभिप्रणम्य च।
आश्रमादुपनिष्क्रान्तमृषिमुत्तमतेजसम्॥४॥
तब भरत ने आश्रम से बाहर निकले हुए उन उत्तम तेजस्वी महर्षि को प्रणाम करके उनसे हाथ जोड़कर कहा- ॥४॥
सुखोषितोऽस्मि भगवन् समग्रबलवाहनः।
बलवत्तर्पितश्चाहं बलवान् भगवंस्त्वया॥५॥
‘भगवन् ! मैं सम्पूर्ण सेना और सवारी के साथ यहाँ सुखपूर्वक रहा हूँ तथा सैनिकोंसहित मुझे पूर्ण रूप से तृप्त किया गया है॥५॥
अपेतक्लमसंतापाः सुभिक्षाः सुप्रतिश्रयाः।
अपि प्रेष्यानुपादाय सर्वे स्म सुसुखोषिताः॥६॥
‘सेवकों सहित हम सब लोग ग्लानि और संताप से रहित हो उत्तम अन्न-पान ग्रहण करके सुन्दर गृहों का आश्रय ले बड़े सुख से यहाँ रात भर रहे हैं॥६॥
आमन्त्रयेऽहं भगवन् कामं त्वामृषिसत्तम।
समीपं प्रस्थितं भ्रातुमैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा॥७॥
‘भगवन्! मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अपनी इच्छा के अनुसार आपसे आज्ञा लेने आया हूँ और अपने भाई के समीप प्रस्थान कर रहा हूँ; आप मुझे स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखिये॥
आश्रमं तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः।
आचक्ष्व कतमो मार्गः कियानिति च शंस मे॥ ८॥
‘धर्मज्ञ मुनीश्वर! बताइये, धर्मपरायण महात्मा श्रीराम का आश्रम कहाँ है ? कितनी दूर है ? और वहाँ पहुँचने के लिये कौन-सा मार्ग है ? इसका भी मुझसे स्पष्ट रूप से वर्णन कीजिये’ ॥ ८॥
इति पृष्टस्तु भरतं भ्रातुर्दर्शनलालसम्।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः॥९॥
इस प्रकार पूछे जाने पर महातपस्वी, महातेजस्वी भरद्वाज मुनि ने भाई के दर्शन की लालसा वाले भरत को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥९॥
भरतार्धतृतीयेषु योजनेष्वजने वने।
चित्रकूटगिरिस्तत्र रम्यनिर्झरकाननः॥१०॥
‘भरत! यहाँसे ढाई योजन (दस कोस) की दूरी पर एक निर्जन वन में चित्रकूट नामक पर्वत है, जहाँ के झरने और वन बड़े ही रमणीय हैं (प्रयाग से चित्रकूट की आधुनिक दूरी लगभग २८ कोस है)। १०॥
उत्तरं पार्श्वमासाद्य तस्य मन्दाकिनी नदी।
पुष्पितद्रुमसंछन्ना रम्यपुष्पितकानना॥११॥
अनन्तरं तत्सरितश्चित्रकूटं च पर्वतम्। ।
तयोः पर्णकुटीं तात तत्र तौ वसतो ध्रुवम्॥१२॥
“उसके उत्तरी किनारे से मन्दाकिनी नदी बहती है, जो फूलों से लदे सघन वृक्षों से आच्छादित रहती है, उसके आस-पास का वन बड़ा ही रमणीय और नाना प्रकार के पुष्पों से सुशोभित है। उस नदी के उस पार चित्रकूट पर्वत है। तात! वहाँ पहुँचकर तुम नदी और पर्वत के बीच में श्रीराम की पर्णकुटी देखोगे। वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण निश्चय ही उसी में निवास करते हैं। ११-१२ ॥
दक्षिणेन च मार्गेण सव्यदक्षिणमेव च।
गजवाजिसमाकीर्णां वाहिनीं वाहिनीपते॥१३॥
वाहयस्व महाभाग ततो द्रक्ष्यसि राघवम्।
‘सेनापते ! तुम यहाँ से हाथी-घोड़ों से भरी हुई अपनी सेना लेकर पहले यमुना के दक्षिणी किनारे से जो मार्ग गया है, उससे जाओ आगे जाकर दो रास्ते मिलेंगे, उनमें से जो रास्ता बायें दाबकर दक्षिण दिशा की ओर गया है, उसी से सेना को ले जाना। महाभाग! उस मार्ग से चलकर तुम शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन पा जाओगे’॥
प्रयाणमिति च श्रुत्वा राजराजस्य योषितः॥ १४॥
हित्वा यानानि यानार्हा ब्राह्मणं पर्यवारयन्।
‘अब यहाँ से प्रस्थान करना है’ यह सुनकर महाराज दशरथ की स्त्रियाँ, जो सवारी पर ही रहने योग्य थीं, सवारियों को छोड़कर ब्रह्मर्षि भरद्वाज को प्रणाम करने के लिये उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं॥
वेपमाना कृशा दीना सह देव्या सुमित्रया॥१५॥
कौसल्या तत्र जग्राह कराभ्यां चरणौ मुनेः।
उपवास के कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दीन हुई देवी कौसल्या ने, जो काँप रही थीं, सुमित्रा देवी के साथ अपने दोनों हाथों से भरद्वाज मुनि के पैर पकड़ लिये।
असमृद्धेन कामेन सर्वलोकस्य गर्हिता॥१६॥
कैकेयी तत्र जग्राह चरणौ सव्यपत्रपा।।
तं प्रदक्षिणमागम्य भगवन्तं महामुनिम्॥१७॥
अदूराद् भरतस्यैव तस्थौ दीनमनास्तदा।
तत्पश्चात् जो अपनी असफल कामना के कारण सब लोगों के लिये निन्दित हो गयी थी, उस कैकेयी ने लज्जित होकर वहाँ मुनि के चरणों का स्पर्श किया और उन महामुनि भगवान् भरद्वाज की परिक्रमा करके वह दीनचित्त हो उस समय भरत के ही पास आकर खड़ी हो गयी। १६-१७ १/२ ॥
तत्र पप्रच्छ भरतं भरद्वाजो महामुनिः॥१८॥
विशेषं ज्ञातुमिच्छामि मातृणां तव राघव।
तब महामुनि भरद्वाज ने वहाँ भरत से पूछा —’रघुनन्दन! तुम्हारी इन माताओं का विशेष परिचय क्या है ? यह मैं जानना चाहता हूँ’ ॥ १८ १/२ ॥
एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धार्मिकः॥१९॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा वाक्यं वचनकोविदः।
भरद्वाज के इस प्रकार पूछने पर बोलने की कला में कुशल धर्मात्मा भरत ने हाथ जोड़कर कहा- ॥ १९ १/२॥
यामिमां भगवन् दीनां शोकानशनकर्शिताम्॥ २०॥
पितुर्हि महिषीं देवी देवतामिव पश्यसि।
एषां तं पुरुषव्याघ्रं सिंहविक्रान्तगामिनम्॥२१॥
कौसल्या सुषुवे रामं धातारमदितिर्यथा।
‘भगवन्! आप जिन्हें शोक और उपवास के कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दुःखी देख रहे हैं, जो देवी-सी दृष्टिगोचर हो रही हैं’ ये मेरे पिता की सबसे बड़ी महारानी कौसल्या हैं। जैसे अदिति ने धाता नामक आदित्य को उत्पन्न किया था, उसी प्रकार इन कौसल्या देवी ने सिंह के समान पराक्रमसूचक गति से चलने वाले पुरुषसिंह श्रीराम को जन्म दिया है। २०-२१ १/२ ॥
अस्या वामभुजं श्लिष्टा या सा तिष्ठति दुर्मनाः॥ २२॥
इयं सुमित्रा दुःखार्ता देवी राज्ञश्च मध्यमा।
कर्णिकारस्य शाखेव शीर्णपुष्पा वनान्तरे॥२३॥
एतस्यास्तौ सुतौ देव्याः कुमारौ देववर्णिनौ।
उभौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ वीरौ सत्यपराक्रमौ॥ २४॥
‘इनकी बायीं बाँह से सटकर जो उदास मन से खड़ी हैं तथा दुःख से आतुर हो रही हैं और आभूषण शून्य होने से वनके भीतर झड़े हुए पुष्पवाले कनेर की डाल के समान दिखायी देती हैं, ये महाराज की मझली रानी देवी सुमित्रा हैं। सत्यपराक्रमी वीर तथा देवताओं के तुल्य कान्तिमान् वे दोनों भाई राजकुमार लक्ष्मण और शत्रुघ्न इन्हीं सुमित्रा देवी के पुत्र हैं॥ २२ -२४॥
यस्याः कृते नरव्याघ्रौ जीवनाशमितो गतौ।
राजा पुत्रविहीनश्च स्वर्गं दशरथो गतः॥ २५ ॥
क्रोधनामकृतप्रज्ञां दृप्तां सुभगमानिनीम्।
ऐश्वर्यकामां कैकेयीमनार्यामार्यरूपिणीम्॥२६॥
ममैतां मातरं विद्धि नृशंसां पापनिश्चयाम्।
यतोमूलं हि पश्यामि व्यसनं महदात्मनः॥२७॥
‘और जिसके कारण पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ से प्राण-सङ्कट की अवस्था (वनवास) में जा पहुँचे हैं तथा राजा दशरथ पुत्रवियोग का कष्ट पाकर स्वर्गवासी हुए हैं, जो स्वभाव से ही क्रोध करने वाली, अशिक्षित बुद्धिवाली, गर्वीली, अपने आपको सबसे अधिक सुन्दरी और भाग्यवती समझने वाली तथा राज्य का लोभ रखने वाली है, जो शक्ल-सूरत से आर्या होने पर भी वास्तव में अनार्या है, इस कैकेयी को मेरी माता समझिये। यह बड़ी ही क्रूर और पापपूर्ण विचार रखने वाली है। मैं अपने ऊपर जो महान् संकट आया हुआ देख रहा हूँ, इसका मूल कारण यही है’ ॥ २५–२७॥
इत्युक्त्वा नरशार्दूलो बाष्पगद्गदया गिरा।
विनिःश्वस्य स ताम्राक्षः क्रुद्धो नाग इव श्वसन्॥ २८॥
अश्रुगद्गद वाणी से इस प्रकार कहकर लाल आँखें किये पुरुषसिंह भरत रोष से भरकर फुफकारते हुए सर्प की भाँति लंबी साँस खींचने लगे॥ २८॥
भरद्वाजो महर्षिस्तं ब्रुवन्तं भरतं तदा।
प्रत्युवाच महाबुद्धिरिदं वचनमर्थवित्॥२९॥
उस समय ऐसी बातें कहते हुए भरत से श्रीरामावतार के प्रयोजन को जानने वाले महाबुद्धिमान् महर्षि भरद्वाज ने उनसे यह बात कही- ॥ २९॥
न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया।
रामप्रव्राजनं ह्येतत् सुखोदकं भविष्यति॥३०॥
‘भरत! तुम कैकेयी के प्रति दोष-दृष्टि न करो। श्रीराम का यह वनवास भविष्य में बड़ा ही सुखद होगा॥
देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम्।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह ॥३१॥
‘श्रीराम के वन में जाने से देवताओं, दानवों तथा परमात्मा का चिन्तन करने वाले महर्षियों का इस जगत् में हित ही होने वाला है’ ॥ ३१॥
अभिवाद्य तु संसिद्धः कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम्।
आमन्त्र्य भरतः सैन्यं युज्यतामिति चाब्रवीत्॥ ३२॥
श्रीराम का पता जानकर और मुनि का आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य हुए भरत ने मुनि को मस्तक झुका उनकी प्रदक्षिणा करके जाने की आज्ञा ले सेना को कूच के लिये तैयार होने का आदेश दिया॥ ३२॥
ततो वाजिरथान् युक्त्वा दिव्यान् हेमविभूषितान्।
अध्यारोहत् प्रयाणार्थं बहून् बहुविधो जनः॥ ३३॥
तदनन्तर अनेक प्रकार की वेश-भूषावाले लोग बहुत-से दिव्य घोड़ों और दिव्य रथों को, जो सुवर्ण से विभूषित थे, जोतकर यात्रा के लिये उनपर सवार हुए॥
गजकन्या गजाश्चैव हेमकक्ष्याः पताकिनः।
जीमूता इव घर्मान्ते सघोषाः सम्प्रतस्थिरे ॥ ३४॥
बहुत-सी हथिनियाँ और हाथी, जो सुनहरे रस्सों से कसे गये थे और जिनके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं, वर्षा-काल के गरजते हुए मेघों के समान घण्टानाद करते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए।॥ ३४॥
विविधान्यपि यानानि महान्ति च लघूनि च।
प्रययुः सुमहार्हाणि पादैरपि पदातयः॥ ३५॥
नाना प्रकार के छोटे-बड़े बहुमूल्य वाहनों पर सवार हो उनके अधिकारी चले और पैदल सैनिक अपने पैरों से ही यात्रा करने लगे॥ ३५॥
अथ यानप्रवेकैस्तु कौसल्याप्रमुखाः स्त्रियः।
रामदर्शनकांक्षिण्यः प्रययुर्मुदितास्तदा ॥ ३६॥
तत्पश्चात् कौसल्या आदि रानियाँ उत्तम सवारियों पर बैठकर श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की अभिलाषा से प्रसन्नतापूर्वक चलीं॥ ३६॥
चन्द्रार्कतरुणाभासां नियुक्तां शिबिकां शुभाम्।
आस्थाय प्रययौ श्रीमान् भरतः सपरिच्छदः॥ ३७॥
इसी प्रकार श्रीमान् भरत नवोदित चन्द्रमा और सूर्य के समान कान्तिमती शिविका में बैठकर आवश्यक सामग्रियों के साथ प्रस्थित हुए। उस शिविका को कहाँरों ने अपने कंधों पर उठा रखा था। ३७॥
सा प्रयाता महासेना गजवाजिसमाकुला।
दक्षिणां दिशमावृत्य महामेघ इवोत्थितः॥३८॥
हाथी-घोड़ों से भरी हुई वह विशाल वाहिनी दक्षिण दिशा को घेरकर उमड़ी हुई महामेघों की घटा के समान चल पड़ी॥ ३८॥
वनानि च व्यतिक्रम्य जुष्टानि मृगपक्षिभिः।
गङ्गायाः परवेलायां गिरिष्वथ नदीष्वपि॥ ३९॥
गङ्गा के उस पार पर्वतों तथा नदियों के निकटवर्ती वनों को, जो मृगों और पक्षियों से सेवित थे, लाँघकर वह आगे बढ़ गयी॥ ३९॥
सा सम्प्रहृष्टद्विपवाजियूथा वित्रासयन्ती मृगपक्षिसंघान्।
महदनं तत् प्रविगाहमाना रराज सेना भरतस्य तत्र॥४०॥
उस सेना के हाथी और घोड़ों के समुदाय बड़े प्रसन्न थे। जंगल के मृगों और पक्षिसमूहों को भयभीत करती हुई भरत की वह सेना उस विशाल वन में प्रवेश करके वहाँ बड़ी शोभा पा रही थी॥ ४० ॥
सर्ग ९३
तया महत्या यायिन्या ध्वजिन्या वनवासिनः।
अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाः सम्प्रदुद्रुवुः ॥१॥
यात्रा करने वाली उस विशाल वाहिनी से पीड़ित हो वनवासी यूथपति मतवाले हाथी आदि अपने यूथों के साथ भाग चले॥१॥
ऋक्षाः पृषतमुख्याश्च रुरवश्च समन्ततः।
दृश्यन्ते वनवाटेषु गिरिष्वपि नदीषु च॥२॥
रीछ, चितकबरे मृग तथा रुरु नामक मृग वन प्रदेशों में, पर्वतों में और नदियों के तटों पर चारों ओर उस सेना से पीड़ित दिखायी देते थे॥२॥
स सम्प्रतस्थे धर्मात्मा प्रीतो दशरथात्मजः।
वृतो महत्या नादिन्या सेनया चतुरङ्गया॥३॥
महान् कोलाहल करने वाली उस विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए धर्मात्मा दशरथनन्दन भरत बड़ी प्रसन्नता के साथ यात्रा कर रहे थे॥३॥
सागरौघनिभा सेना भरतस्य महात्मनः।
महीं संछादयामास प्रावृषि द्यामिवाम्बुदः॥४॥
जैसे वर्षा ऋतु में मेघों की घटा आकाश को ढकलेती है, उसी प्रकार महात्मा भरत की समुद्र-जैसी उस विशाल सेना ने दूर तक के भूभाग को आच्छादित कर लिया था॥
तुरंगौघैरवतता वारणैश्च महाबलैः।
अनालक्ष्या चिरं कालं तस्मिन् काले बभूव सा॥
घोड़ों के समूहों तथा महाबली हाथियों से भरी और दूर तक फैली हुई वह सेना उस समय बहुत देर तक दृष्टि में ही नहीं आती थी॥ ५॥
स गत्वा दूरमध्वानं सम्परिश्रान्तवाहनः।
उवाच वचनं श्रीमान् वसिष्ठं मन्त्रिणां वरम्॥६॥
दूर तक का रास्ता तै कर लेने पर जब भरत की सवारियाँ बहुत थक गयीं, तब श्रीमान् भरत ने मन्त्रियों में श्रेष्ठ वसिष्ठजी से कहा- ॥६॥
यादृशं लक्ष्यते रूपं यथा चैव मया श्रुतम्।
व्यक्तं प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत्॥ ७॥
‘ब्रह्मन् ! मैंने जैसा सुन रखा था और जैसा इस देश का स्वरूप दिखायी देता है, इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि भरद्वाजजी ने जहाँ पहुँचने का आदेश दिया था, उस देश में हम लोग आ पहुँचे हैं॥७॥
अयं गिरिश्चित्रकूटस्तथा मन्दाकिनी नदी।
एतत् प्रकाशते दूरान्नीलमेघनिभं वनम्॥८॥
‘जान पड़ता है यही चित्रकूट पर्वत है तथा वह मन्दाकिनी नदी बह रही है। यह पर्वतके आसपासका वन दूरसे नील मेघके समान प्रकाशित हो रहा है॥८॥
गिरेः सानूनि रम्याणि चित्रकूटस्य सम्प्रति।
वारणैरवमृद्यन्ते मामकैः पर्वतोपमैः॥९॥
‘इस समय मेरे पर्वताकार हाथी चित्रकूट के रमणीय शिखरों का अवमर्दन कर रहे हैं॥९॥
मुञ्चन्ति कुसुमान्येते नगाः पर्वतसानुषु।
नीला इवातपापाये तोयं तोयधरा घनाः॥१०॥
‘ये वृक्ष पर्वत शिखरों पर उसी प्रकार फूलों की वर्षा कर रहे हैं, जैसे वर्षाकाल में नील जलधर मेघ उन पर जल की वृष्टि करते हैं’॥१०॥
किंनराचरितं देशं पश्य शत्रुघ्न पर्वते।
हयैः समन्तादाकीर्णं मकरैरिव सागरम्॥११॥
(इसके बाद भरत शत्रुघ्न से कहने लगे-) ‘शत्रुघ्न ! देखो, इस पर्वत की उपत्यका में जो देश है, जहाँ पर किन्नर विचरा करते हैं, वही प्रदेश हमारी सेना के घोड़ों से व्याप्त होकर मगरों से भरे हुए समुद्र के समान प्रतीत होता है।
एते मृगगणा भान्ति शीघ्रवेगाः प्रचोदिताः।
वायुप्रविद्धाः शरदि मेघजाला इवाम्बरे॥१२॥
‘सैनिकों के खदेड़े हुए ये मृगों के झुंड तीव्र वेग से भागते हुए वैसी ही शोभा पा रहे हैं, जैसे शरत्काल के आकाश में हवा से उड़ाये गये बादलों के समूह सुशोभित होते हैं।॥ १२॥
कुर्वन्ति कुसुमापीडान् शिरःसु सुरभीनमी।
मेघप्रकाशैः फलकैर्दाक्षिणात्या नरा यथा॥ १३॥
‘ये सैनिक अथवा वृक्ष मेघ के समान कान्तिवाली ढालों से उपलक्षित होने वाले दक्षिण भारतीय मनुष्यों के समान अपने मस्तकों अथवा शाखाओं पर सुगन्धित पुष्प गुच्छमय आभूषणों को धारण करते हैं॥ १३॥
निष्कूजमिव भूत्वेदं वनं घोरप्रदर्शनम्।
अयोध्येव जनाकीर्णा सम्प्रति प्रतिभाति मे॥ १४॥
‘यह वन जो पहले जनरव-शून्य होने के कारण अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था, वही इस समय हमारे साथ आये हुए लोगों से व्याप्त होने के कारण मुझे अयोध्यापुरी के समान प्रतीत होता है॥ १४ ॥
खरैरुदीरितो रेणर्दिवं प्रच्छाद्य तिष्ठति।
तं वहत्यनिलः शीघ्रं कुर्वन्निव मम प्रियम्॥१५॥
‘घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल आकाश को आच्छादित करके स्थित होती है, परंतु उसे हवा मेरा प्रिय करती हुई-सी शीघ्र ही अन्यत्र उड़ा ले जाती है।
स्यन्दनांस्तुरगोपेतान् सूतमुख्यैरधिष्ठितान्।
एतान् सम्पततः शीघ्रं पश्य शत्रुघ्न कानने॥
‘शत्रुघ्न ! देखो, इस वन में घोड़ों से जुते हुए और श्रेष्ठ सारथियों द्वारा संचालित हुए ये रथ कितनी शीघ्रता से आगे बढ़ रहे हैं। १६ ॥
एतान् वित्रासितान् पश्य बहिणः प्रियदर्शनान्।
एवमापततः शैलमधिवासं पतत्त्रिणः॥१७॥
‘जो देखने में बड़े प्यारे लगते हैं उन मोरों को तो देखो। ये हमारे सैनिकों के भय से कितने डरे हुए हैं। इसी प्रकार अपने आवास-स्थान पर्वत की ओर उड़ते हुए अन्य पक्षियों पर भी दृष्टिपात करो॥ १७॥
अतिमात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मे।
तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्गपथोऽनघ॥ १८॥
‘निष्पाप शत्रुघ्न ! यह देश मुझे बड़ा ही मनोहर प्रतीत होता है। तपस्वी जनों का यह निवास स्थान वास्तव में स्वर्गीय पथ है॥ १८॥
मृगा मृगीभिः सहिता बहवः पृषता वने।
मनोज्ञरूपा लक्ष्यन्ते कुसुमैरिव चित्रिताः॥१९॥
‘इस वन में मृगियों के साथ विचरने वाले बहुत-से चितकबरे मृग ऐसे मनोहर दिखायी देते हैं, मानो इन्हें फूलों से चित्रित—सुसज्जित किया गया हो ॥ १९॥
साधु सैन्याः प्रतिष्ठन्तां विचन्वन्तु च काननम्।
यथा तौ पुरुषव्याघ्रौ दृश्येते रामलक्ष्मणौ ॥२०॥
‘मेरे सैनिक यथोचित रूप से आगे बढ़ें और वन में सब ओर खोजें, जिससे उन दोनों पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण का पता लग जाय’ ॥ २० ॥
भरतस्य वचः श्रुत्वा पुरुषाः शस्त्रपाणयः।
विविशुस्तद्वनं शूरा धूमाग्रं ददृशुस्ततः॥२१॥
भरत का यह वचन सुनकर बहुत-से शूरवीर पुरुषों ने हाथों में हथियार लेकर उस वन में प्रवेश किया। तदनन्तर आगे जाने पर उन्हें कुछ दूरपर ऊपर को धुआँ उठता दिखायी दिया॥ २१॥
ते समालोक्य धूमाग्रमूचुर्भरतमागताः।
नामनुष्ये भवत्यग्निर्व्यक्तमत्रैव राघवौ॥२२॥
उस धूमशिखा को देखकर वे लौट आये और भरत से बोले—’प्रभो! जहाँ कोई मनुष्य नहीं होता, वहाँ आग नहीं होती। अतः श्रीराम और लक्ष्मण अवश्य यहीं होंगे॥
अथ नात्र नरव्याघ्रौ राजपुत्रौ परंतपौ।
अन्ये रामोपमाः सन्ति व्यक्तमत्र तपस्विनः॥ २३॥
‘यदि शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ न हों तो भी श्रीराम-जैसे तेजस्वी दूसरे कोई तपस्वी तो अवश्य ही होंगे’॥ २३॥
तच्छ्रुत्वा भरतस्तेषां वचनं साधुसम्मतम्।
सैन्यानुवाच सर्वांस्तानमित्रबलमर्दनः॥२४॥
उनकी बातें श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा मानने योग्य थीं, उन्हें सुनकर शत्रुसेना का मर्दन करने वाले भरत ने उन समस्त सैनिकों से कहा- ॥ २४॥
यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु नेतो गन्तव्यमग्रतः।
अहमेव गमिष्यामि सुमन्त्रो धृतिरेव च ॥२५॥
‘तुम सब लोग सावधान होकर यहीं ठहरो! यहाँ से आगे न जाना। अब मैं ही वहाँ जाऊँगा। मेरे साथ सुमन्त्र और धृति भी रहेंगे’ ॥ २५ ॥
एवमुक्तास्ततः सैन्यास्तत्र तस्थुः समन्ततः।
भरतो यत्र धूमाग्रं तत्र दृष्टिं समादधत्॥२६॥
उनकी ऐसी आज्ञा पाकर समस्त सैनिक वहीं सब ओर फैलकर खड़े हो गये और भरत ने जहाँ धुआँ उठ रहा था, उस ओर अपनी दृष्टि स्थिर की॥ २६॥
व्यवस्थिता या भरतेन सा चमूनिरीक्षमाणापि च भूमिमग्रतः।
बभूव हृष्टा नचिरेण जानती प्रियस्य रामस्य समागमं तदा ॥२७॥
भरत के द्वारा वहाँ ठहरायी गयी वह सेना आगे की भूमिका निरीक्षण करती हुई भी वहाँ हर्षपूर्वक खड़ी रही; क्योंकि उस समय उसे मालूम हो गया था कि अब शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी से मिलने का अवसर आनेवाला है॥ १७॥
सर्ग ९४
दीर्घकालोषितस्तस्मिन् गिरौ गिरिवरप्रियः।
वैदेह्याः प्रियमाकांक्षन् स्वं च चित्तं विलोभयन्॥
अथ दाशरथिश्चित्रं चित्रकूटमदर्शयत्।
भार्याममरसंकाशः शचीमिव पुरंदरः॥२॥
गिरिवर चित्रकूट श्रीराम को बहुत ही प्रिय लगता था। वे उस पर्वत पर बहुत दिनों से रह रहे थे। एक दिन अमरतुल्य तेजस्वी दशरथनन्दन श्रीराम विदेहराजकुमारी सीता का प्रिय करने की इच्छा से तथा अपने मन को भी बहलाने के लिये अपनी भार्या को विचित्र चित्रकूट की शोभा का दर्शन कराने लगे, मानो देवराज इन्द्र अपनी पत्नी शची को पर्वतीय सुषमा का दर्शन करा रहे हों।
न राज्यभ्रंशनं भद्रे न सुहृद्भिर्विनाभवः।
मनो मे बाधते दृष्ट्वा रमणीयमिमं गिरिम्॥३॥
(वे बोले-) ‘भद्रे! यद्यपि मैं राज्य से भ्रष्ट हो गया हँ तथा मुझे अपने हितैषी सुहृदों से विलग होकर रहना पड़ता है, तथापि जब मैं इस रमणीय पर्वत की ओर देखता हूँ, तब मेरा सारा दुःख दूर हो जाता है राज्य का न मिलना और सुहृदों का विछोह होना भी मेरे मन को व्यथित नहीं कर पाता है॥३॥
पश्येममचलं भद्रे नानाद्विजगणायुतम्।
शिखरैः खमिवोद्विद्वैर्धातुमद्भिर्विभूषितम्॥४॥
‘कल्याणि! इस पर्वत पर दृष्टिपात तो करो, नाना प्रकार के असंख्य पक्षी यहाँ कलरव कर रहे हैं। नाना प्रकार के धातुओं से मण्डित इसके गगन-चुम्बी शिखर मानो आकाश को बेध रहे हैं। इन शिखरों से विभूषित हुआ यह चित्रकूट कैसी शोभा पा रहा है !॥ ४॥
केचिद् रजतसंकाशाः केचित् क्षतजसंनिभाः।
पीतमाञ्जिष्ठवर्णाश्च केचिन्मणिवरप्रभाः॥५॥
पुष्पार्ककेतकाभाश्च केचिज्ज्योतीरसप्रभाः।
विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशा धातुविभूषिताः॥६॥
‘विभिन्न धातुओं से अलंकृत अचलराज चित्रकूट के प्रदेश कितने सुन्दर लगते हैं! इनमें से कोई तो चाँदी के समान चमक रहे हैं। कोई लोहू की लाल आभा का विस्तार करते हैं। किन्हीं प्रदेशों के रंग पीले और मंजिष्ठ वर्ण के हैं। कोई श्रेष्ठ मणियों के समान उद्भासित होते हैं। कोई पुखराज के समान, कोई स्फटिक के सदृश और कोई केवड़े के फूल के समान कान्ति वाले हैं तथा कुछ प्रदेश नक्षत्रों और पारे के समान प्रकाशित होते हैं ॥ ५-६॥
नानामृगगणैर्दीपितरक्ष्वृक्षगणैर्वृतः।
अदुष्टैर्भात्ययं शैलो बहुपक्षिसमाकुलः॥७॥
‘यह पर्वत बहुसंख्यक पक्षियों से व्याप्त है तथा नाना प्रकार के मृगों, बड़े-बड़े व्याघ्रों, चीतों और रीछों से भरा हुआ है। वे व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु अपने दुष्टभाव का परित्याग करके यहाँ रहते हैं और इस पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं॥७॥
आम्रजम्ब्वसनैलॊधैः प्रियालैः पनसैर्धवैः ।
अङ्कोलैर्भव्यतिनिशैर्बिल्वतिन्दुकवेणुभिः॥८॥
काश्मर्यारिष्टवरणैर्मधूकैस्तिलकैरपि।
बदर्यामलकैर्नीपैत्रधन्वनबीजकैः॥९॥
पुष्पवद्भिः फलोपेतैश्छायावद्भिर्मनोरमैः।
एवमादिभिराकीर्णः श्रियं पुष्यत्ययं गिरिः॥ १०॥
‘आम, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी (मधुपर्णिका), अरिष्ट (नीम), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इन्द्रजौ), बीजक (अनार) आदि घनी छाया वाले वृक्षों से, जो फूलों और फलों से लदे होने के कारण मनोरम प्रतीत होते थे, व्याप्त हुआ यह पर्वत अनुपम शोभा का पोषण एवं विस्तार कर रहा है।८-१०॥
शैलप्रस्थेषु रम्येषु पश्येमान् कामहर्षणान्।
किंनरान् द्वन्दशो भद्रे रममाणान् मनस्विनः॥
‘इन रमणीय शैलशिखरों पर उन प्रदेशों को देखो, जो प्रेम-मिलन की भावना का उद्दीपन करके आन्तरिक हर्ष को बढ़ाने वाले हैं। वहाँ मनस्वी किन्नर दो-दो एक साथ होकर टहल रहे हैं।११॥
शाखावसक्तान् खड्गांश्च प्रवराण्यम्बराणि च।
पश्य विद्याधरस्त्रीणां क्रीडोद्देशान् मनोरमान्॥ १२॥
‘इन किन्नरों के खड्ग पेड़ों की डालियों में लटक रहे हैं। इधर विद्याधरों की स्त्रियों के मनोरम क्रीड़ा स्थलों तथा वृक्षों की शाखाओं पर रखे हुए उनके सुन्दर वस्त्रों की ओर भी देखो॥ १२॥
जलप्रपातैरुद्भेदैनिष्पन्दैश्च क्वचित् क्वचित्।
स्रवद्भिर्भात्ययं शैलः स्रवन्मद इव द्विपः॥१३॥
‘इसके ऊपर कहीं ऊँचेसे झरने गिर रहे हैं, कहीं जमीन के भीतर से सोते निकले हैं और कहीं-कहीं छोटे-छोटे स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं। इन सबके द्वारा यह पर्वत मद की धारा बहाने वाले हाथी के समान शोभा पाता है॥ १३॥
गुहासमीरणो गन्धान् नानापुष्पभवान् बहून्।
घ्राणतर्पणमभ्येत्य कं नरं न प्रहर्षयेत्॥१४॥
‘गुफाओं से निकली हुई वायु नाना प्रकार के पुष्पों की प्रचुर गन्ध लेकर नासिका को तृप्त करती हुई किस पुरुष के पास आकर उसका हर्ष नहीं बढ़ा रही है॥१४॥
यदीह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते।
लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधर्षति॥ १५॥
‘सती-साध्वी सीते! यदि तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ मैं यहाँ अनेक वर्षां तक रहूँ तो भी नगरत्याग का शोक मुझे कदापि पीड़ित नहीं करेगा॥ १५ ॥
बहपुष्पफले रम्ये नानाद्विजगणायते।
विचित्रशिखरे ह्यस्मिन् रतवानस्मि भामिनि॥ १६॥
‘भामिनि! बहुतेरे फूलों और फलों से युक्त तथा नाना प्रकार के पक्षियों से सेवित इस विचित्र शिखर वाले रमणीय पर्वत पर मेरा मन बहुत लगता है॥ १६॥
अनेन वनवासेन मम प्राप्तं फलद्वयम्।
पितुश्चानृण्यता धर्मे भरतस्य प्रियं तथा॥१७॥
‘प्रिये ! इस वनवास से मुझे दो फल प्राप्त हुए हैं दो लाभ हुए हैं—एक तो धर्मानुसार पिता की आज्ञा का पालन रूप ऋण चुक गया और दूसरा भाई भरत का प्रिय हुआ॥१७॥
वैदेहि रमसे कच्चिच्चित्रकूटे मया सह।
पश्यन्ती विविधान् भावान् मनोवाक्कायसम्मतान्॥ १८॥
‘विदेहकुमारी! क्या चित्रकूट पर्वत पर मेरे साथ मन, वाणी और शरीर को प्रिय लगने वाले भाँति भाँति के पदार्थों को देखकर तुम्हें आनन्द प्राप्त होता है? ॥ १८॥
इदमेवामृतं प्राहू राज्ञि राजर्षयः परे।
वनवासं भवार्थाय प्रेत्य मे प्रपितामहाः॥१९॥
‘रानी! मेरे प्रपितामह मनु आदि उत्कृष्ट राजर्षियों ने नियमपूर्वक किये गये इन वनवास को ही अमृत बतलाया है इससे शरीर त्याग के पश्चात् परम कल्याण की प्राप्ति होती है॥ १९ ॥
शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः।
बहुला बहुलैर्वर्णैर्नीलपीतसितारुणैः ॥२०॥
‘चारों ओर इस पर्वत की सैकड़ों विशाल शिलाएँ शोभा पा रही हैं, जो नीले, पीले, सफेद और लाल आदि विविध रंगों से अनेक प्रकार की दिखायी देती हैं॥ २०॥
निशि भान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशनशिखा इव।
ओषध्यः स्वप्रभालक्ष्म्या भ्राजमानाः सहस्रशः॥ २१॥
‘रात में इस पर्वतराज के ऊपर लगी हुई सहस्रों ओषधियाँ अपनी प्रभासम्पत्ति से प्रकाशित होती हुई अग्निशिखा के समान उद्भासित होती हैं।॥ २१॥
केचित् क्षयनिभा देशाः केचिदुद्यानसंनिभाः।
केचिदेकशिला भान्ति पर्वतस्यास्य भामिनि॥ २२॥
‘भामिनि! इस पर्वत के कई स्थान घर की भाँति दिखायी देते हैं (क्योंकि वे वृक्षों की घनी छाया से आच्छादित हैं) और कई स्थान चम्पा, मालती आदि फूलों की अधिकता के कारण उद्यान के समान सुशोभित होते हैं तथा कितने ही स्थान ऐसे हैं जहाँ बहुत दूरतक एक ही शिला फैली हुई है। इन सबकी बड़ी शोभा होती है॥ २२॥
भित्त्वेव वसुधां भाति चित्रकूटः समुत्थितः।
चित्रकूटस्य कूटोऽयं दृश्यते सर्वतः शुभः॥ २३॥
‘ऐसा जान पड़ता है कि यह चित्रकूट पर्वत पृथ्वी को फाड़कर ऊपर उठ आया है। चित्रकूट का यह शिखर सब ओर से सुन्दर दिखायी देता है॥ २३॥
कुष्ठस्थगरपुंनागभूर्जपत्रोत्तरच्छदान्।
कामिनां स्वास्तरान् पश्य कुशेशयदलायुतान्॥ २४॥
‘प्रिये! देखो, ये विलासियों के बिस्तर हैं, जिनपर उत्पल, पुत्रजीवक, पुन्नाग और भोजपत्र–इनके पत्ते ही चादर का काम देते हैं तथा इनके ऊपर सब ओर से कमलों के पत्ते बिछे हुए हैं।॥ २४ ॥
मृदिताश्चापविद्धाश्च दृश्यन्ते कमलस्रजः।
कामिभिर्वनिते पश्य फलानि विविधानि च॥
‘प्रियतमे! ये कमलों की मालाएँ दिखायी देती हैं, जो विलासियों द्वारा मसलकर फेंक दी गयी हैं। उधर देखो, वृक्षों में नाना प्रकार के फल लगे हुए हैं।॥ २५ ॥
वस्वौकसारां नलिनीमतीत्यैवोत्तरान् कुरून्।
पर्वतश्चित्रकूटोऽसौ बहुमूलफलोदकः॥२६॥
‘बहुत-से फल, मूल और जल से सम्पन्न यह चित्रकूट पर्वत कुबेर-नगरी वस्वौकसारा (अलका), इन्द्रपुरी नलिनी (अमरावती अथवा नलिनी नाम से प्रसिद्ध कुबेर की सौगन्धिक कमलों से युक्त पुष्करिणी) तथा उत्तर कुरु को भी अपनी शोभा से तिरस्कृत कर रहा है॥ २६ ॥
इमं तु कालं वनिते विजहिवांस्त्वया च सीते सह लक्ष्मणेन।
रतिं प्रपत्स्ये कुलधर्मवर्धिनी सतां पथि स्वैर्नियमैः परैः स्थितः॥२७॥
‘प्राणवल्लभे सीते! अपने उत्तम नियमों को पालन करते हुए सन्मार्ग पर स्थित रहकर यदि तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ यह चौदह वर्षों का समय मैं सानन्द व्यतीत कर लूँगा तो मुझे वह सुख प्राप्त होगा जो कुल धर्म को बढ़ाने वाला है’ ॥ २७॥
सर्ग ९५
अथ शैलाद् विनिष्क्रम्य मैथिली कोसलेश्वरः।
अदर्शयच्छुभजलां रम्यां मन्दाकिनी नदीम्॥१॥
तदनन्तर उस पर्वत से निकलकर कोसल नरेश श्रीरामचन्द्रजी ने मिथिलेशकुमारी सीता को पुण्यसलिला रमणीय मन्दाकिनी नदी का दर्शन कराया ॥१॥
अब्रवीच्च वरारोहां चन्द्रचारुनिभाननाम्।
विदेहराजस्य सुतां रामो राजीवलोचनः॥२॥
और उस समय कमलनयन श्रीराम ने चन्द्रमा के समान मनोहर मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहराजनन्दिनी सीता से इस प्रकार कहा- ॥२॥
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम्।
कुसुमैरुपसम्पन्नां पश्य मन्दाकिनी नदीम्॥३॥
‘प्रिये! अब मन्दाकिनी नदी की शोभा देखो, हंस और सारसों से सेवित होने के कारण यह कितनी सुन्दर जान पड़ती है। इसका किनारा बड़ा ही विचित्र है। नाना प्रकार के पुष्प इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं॥३॥
नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः।
राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः॥४॥
‘फल और फूलों के भार से लदे हुए नाना प्रकार के तटवर्ती वृक्षों से घिरी हुई यह मन्दाकिनी कुबेर के सौगन्धिक सरोवर की भाँति सब ओर से सुशोभित हो रही है॥४॥
मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम्।
तीर्थानि रमणीयानि रतिं संजनयन्ति मे॥५॥
‘हरिनों के झुंड पानी पीकर इस समय यद्यपि यहाँ का जल गेंदला कर गये हैं तथापि इसके रमणीय घाट मेरे मन को बड़ा आनन्द दे रहे हैं॥५॥
जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः।
ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये॥६॥
‘प्रिये! वह देखो, जटा, मृगचर्म और वल्कल का उत्तरीय धारण करने वाले महर्षि उपयुक्त समय में आकर इस मन्दाकिनी नदी में स्नान कर रहे हैं॥६॥
आदित्यमुपतिष्ठन्ते नियमादूर्ध्वबाहवः।
एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः॥७॥
‘विशाललोचने! ये दूसरे मुनि, जो कठोर व्रत का पालन करने वाले हैं, नैत्यिक नियम के कारण दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सूर्यदेव का उपस्थान कर रहे हैं।
मारुतोद्धृतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः।
पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम्॥८॥
‘हवा के झोंके से जिनकी शिखाएँ झूम रही हैं, अतएव जो मन्दाकिनी नदी के उभय तटों पर फूल और पत्ते बिखेर रहे हैं, उन वृक्षों से उपलक्षित हुआ यह पर्वत मानो नृत्य-सा करने लगा है॥८॥
क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित् पुलिनशालिनीम्।
क्वचित् सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनी नदीम्॥९॥
‘देखो! मन्दाकिनी नदी की कैसी शोभा है; कहीं तो इसमें मोतियों के समान स्वच्छ जल बहता दिखायी देता है, कहीं यह ऊँचे कगारों से ही शोभा पाती है । (वहाँ का जल कगारों में छिप जाने के कारण दिखायी नहीं देता है) और कहीं सिद्धजन इसमें अवगाहन कर रहे हैं तथा यह उनसे व्याप्त दिखायी देती है।
निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसंचयान्।
पोप्लूयमानानपरान् पश्य त्वं तनुमध्यमे॥१०॥
‘सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली सुन्दरि ! देखो, वायु के द्वारा उड़ाकर लाये हुए ये ढेर-के-ढेर फूल किस तरह मन्दाकिनी के दोनों तटों पर फैले हुए हैं और वे दूसरे पुष्पसमूह कैसे पानी पर तैर रहे हैं॥ १० ॥
पश्यैतदल्गुवचसो रथाङ्गाह्वयना द्विजाः।
अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः॥
‘कल्याणि! देखो तो सही, ये मीठी बोली बोलने वाले चक्रवाक पक्षी सुन्दर कलरव करते हुए किस तरह नदी के तटों पर आरूढ़ हो रहे हैं॥ ११॥
दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने।
अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात्॥१२॥
‘शोभने! यहाँ जो प्रतिदिन चित्रकूट और मन्दाकिनी का दर्शन होता है, वह नित्य-निरन्तर तुम्हारा दर्शन होने के कारण अयोध्या निवास की अपेक्षा भी अधिक सुखदजान पड़ता है। १२ ॥
विधूतकल्मषैः सिद्वैस्तपोदमशमान्वितैः।
नित्यविक्षोभितजलां विगाहस्व मया सह ॥१३॥
‘इस नदी में प्रतिदिन तपस्या, इन्द्रिय संयम और मनोनिग्रह से सम्पन्न निष्पाप सिद्ध महात्माओं के अवगाहन करने से इसका जल विक्षुब्ध होता रहता है। चलो, तुम भी मेरे साथ इसमें स्नान करो॥ १३॥
सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनी नदीम्।
कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च भामिनि॥ १४॥
‘भामिनि सीते! एक सखी दूसरी सखी के साथ जैसे क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार तुम मन्दाकिनी नदी में उतरकर इसके लाल और श्वेत कमलों को जल में डुबोती हुई इसमें स्नान-क्रीड़ा करो॥ १४ ॥
त्वं पौरजनवद् व्यालानयोध्यामिव पर्वतम्।
मन्यस्व वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीम्॥१५॥
‘प्रिये! तुम इस वन के निवासियों को पुरवासी मनुष्यों के समान समझो, चित्रकूट पर्वत को अयोध्या के तुल्य मानो और इस मन्दाकिनी नदी को सरयू के सदृश जानो॥ १५ ॥
लक्ष्मणश्चैव धर्मात्मा मन्निदेशे व्यवस्थितः।
त्वं चानुकूला वैदेहि प्रीतिं जनयती मम॥१६॥
‘विदेहनन्दिनि! धर्मात्मा लक्ष्मण सदा मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं और तुम भी मेरे मन के अनुकूल ही चलती हो; इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है॥ १६ ॥
उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः।
नायोध्यायै न राज्याय स्पृहये च त्वया सह॥ १७॥
‘प्रिये! तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके मधुर फल-मूल का आहार करता हुआ मैं न तो अयोध्या जाने की इच्छा रखता हूँ और न राज्य पाने की ही॥ १७॥
इमां हि रम्यां गजयूथलोडितां निपीततोयां गजसिंहवानरैः।
सुपुष्पितां पुष्पभरैरलंकृतां न सोऽस्ति यः स्यान्न गतक्लमः सखी॥१८॥
‘जिसे हाथियों के समूह मथे डालते हैं तथा सिंह और वानर जिसका जल पिया करते हैं, जिसके तट पर सुन्दर पुष्पों से लदे वृक्ष शोभा पाते हैं तथा जो पुष्प समूहों से अलंकृत है, ऐसी इस रमणीय मन्दाकिनी नदी में स्नान करके जो ग्लानिरहित और सुखी न हो जाय—ऐसा मनुष्य इस संसार में नहीं है’ ॥ १८॥
इतीव रामो बहुसंगतं वचः प्रियासहायः सरितं प्रति ब्रुवन्।
चचार रम्यं नयनाञ्जनप्रभं स चित्रकूटं रघुवंशवर्धनः॥१९॥
रघुवंश की वृद्धि करने वाले श्रीरामचन्द्रजी मन्दाकिनी नदी के प्रति ऐसी अनेक प्रकार की सुसंगत बातें कहते हुए नील-कान्तिवाले रमणीय चित्रकूट पर्वत पर अपनी प्रिया पत्नी सीता के साथ विचरने लगे॥१९॥
सर्ग ९६
तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम्।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन्॥१॥
इस प्रकार मिथिलेशकुमारी सीता को मन्दाकिनी नदी का दर्शन कराकर उस समय श्रीरामचन्द्रजी पर्वत के समतल प्रदेश में उनके साथ बैठ गये और तपस्वी-जनों के उपभोग में आने योग्य फल-मूल के गूदे से उनकी मानसिक प्रसन्नता को बढ़ाने—उनका लालन करने लगे।
इदं मेध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिदमग्निना।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः॥२॥
धर्मात्मा रघुनन्दन सीताजी के साथ इस प्रकार की बातें कर रहे थे—’प्रिये! यह फल परम पवित्र है। यह बहुत स्वादिष्ट है तथा इस कन्द को अच्छी तरह आग पर सेका गया है’ ॥ २॥
तथा तत्रासतस्तस्य भरतस्योपयायिनः।
सैन्यरेणुश्च शब्दश्च प्रादुरास्तां नभस्पृशौ॥३॥
इस प्रकार वे उस पर्वतीय प्रदेश में बैठे हुए ही थे कि उनके पास आने वाली भरत की सेना की धूल और कोलाहल दोनों एक साथ प्रकट हुए और आकाश में फैलने लगे॥३॥
एतस्मिन्नन्तरे त्रस्ताः शब्देन महता ततः।
अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाद् दुद्रुवुर्दिशः॥४॥
इसी बीच में सेना के महान् कोलाहल से भयभीत एवं पीड़ित हो हाथियों के कितने ही मतवाले यूथपति अपने यूथों के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भागने लगे। ४॥
तांश्च विप्रद्रुतान् सर्वान् यूथपानन्ववैक्षत॥५॥
श्रीरामचन्द्रजी ने सेना से प्रकट हुए उस महान् कोलाहल को सुना तथा भागे जाते हुए उन समस्त यूथपतियों को भी देखा ॥ ५ ॥
तांश्च विप्रद्रुतान् दृष्ट्वा तं च श्रुत्वा महास्वनम्।
उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं दीप्ततेजसम्॥६॥
उन भागे हुए हाथियों को देखकर और उस महाभयंकर शब्द को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी उद्दीप्त तेज वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बोले—॥६॥
हन्त लक्ष्मण पश्येह सुमित्रा सुप्रजास्त्वया।
भीमस्तनितगम्भीरं तुमुलः श्रूयते स्वनः॥७॥
‘लक्ष्मण ! इस जगत् में तुमसे ही माता सुमित्रा श्रेष्ठ पुत्र वाली हुई हैं। देखो तो सही—यह भयंकर गर्जना के साथ कैसा गम्भीर तुमुल नाद सुनायी देता है।॥ ७॥
गजयथानि वारण्ये महिषा वा महावने।
वित्रासिता मृगाः सिंहैः सहसा प्रद्रता दिशः॥८॥
राजा वा राजपुत्रो वा मृगयामटते वने।
अन्यद्वा श्वापदं किंचित् सौमित्रे ज्ञातुमर्हसि॥९॥
‘सुमित्रानन्दन! पता तो लगाओ, इस विशाल वन में ये जो हाथियों के झुंड अथवा भैंसे या मृग जो सहसासम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले हैं, इसका क्या कारण है ? इन्हें सिंहों ने तो नहीं डरा दिया है अथवा कोई राजा या राजकुमार इस वन में आकर शिकार तो नहीं खेल रहा है या दूसरा कोई हिंसक जन्तु तो नहीं प्रकट हो गया है ? ॥ ८-९॥
सुदुश्चरो गिरिश्चायं पक्षिणामपि लक्ष्मण।
सर्वमेतद् यथातत्त्वमभिज्ञातुमिहार्हसि॥१०॥
‘लक्ष्मण! इस पर्वत पर अपरिचित पक्षियों का आना-जाना भी अत्यन्त कठिन है (फिर यहाँ किसी हिंसक जन्तु वा राजा का आक्रमण कैसे सम्भव है)। अतः इन सारी बातों की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करो’ ॥ १०॥
स लक्ष्मणः संत्वरितः सालमारुह्य पुष्पितम्।
प्रेक्षमाणो दिशः सर्वाः पूर्वां दिशमवैक्षत ॥११॥
भगवान् श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण तुरंत ही फूलों से भरे हुए एक शाल-वृक्ष पर चढ़ गये और सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए उन्होंने पूर्व दिशा की ओर दृष्टिपात किया॥११॥
उदङ्मुखः प्रेक्षमाणो ददर्श महतीं चमूम्।
गजाश्वरथसम्बाधां यत्तैर्युक्तां पदातिभिः॥१२॥
तत्पश्चात् उत्तर की ओर मँह करके देखने पर उन्हें एक विशाल सेना दिखायी दी, जो हाथी, घोड़े और रथों से परिपूर्ण तथा प्रयत्नशील पैदल सैनिकों से संयुक्त थी॥
तामश्वरथसम्पूर्णां रथध्वजविभूषिताम्।
शशंस सेनां रामाय वचनं चेदमब्रवीत्॥१३॥
घोड़ों और रथों से भरी हई तथा रथ की ध्वजा से विभूषित उस सेना की सूचना उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को दी और यह बात कही— ॥ १३॥
अग्निं संशमयत्वार्यः सीता च भजतां गुहाम्।
सज्यं कुरुष्व चापं च शरांश्च कवचं तथा॥ १४॥
‘आर्य! अब आप आग बुझा दें (अन्यथा धुआँ देखकर यह सेना यहीं चली आयगी) देवी सीता गुफा में जा बैठें। आप अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा लें और बाण तथा कवच धारण कर लें ॥१४॥
तं रामः पुरुषव्याघ्रो लक्ष्मणं प्रत्युवाच ह।
अङ्गावेक्षस्व सौमित्रे कस्येमां मन्यसे चमूम्॥ १५॥
यह सुनकर पुरुषसिंह श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा —’प्रिय सुमित्राकुमार! अच्छी तरह देखो तो सही, तुम्हारी समझ में यह किसकी सेना हो सकती है ?’॥ १५॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
दिधक्षन्निव तां सेनां रुषितः पावको यथा॥ १६॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर लक्ष्मण रोष से प्रज्वलित हुए अग्निदेव की भाँति उस सेना की ओर इस तरह देखने लगे, मानो उसे जलाकर भस्म कर देना चाहते हों और इस प्रकार बोले- ॥१६॥
सम्पन्नं राज्यमिच्छंस्तु व्यक्तं प्राप्याभिषेचनम्।
आवां हन्तुं समभ्येति कैकेय्या भरतः सुतः॥ १७॥
‘भैया! निश्चय ही यह कैकेयी का पुत्र भरत है, जो अयोध्या में अभिषिक्त होकर अपने राज्य को निष्कण्टक बनाने की इच्छा से हम दोनों को मार डालने के लिये यहाँ आ रहा है॥ १७ ॥
एष वै सुमहान् श्रीमान् विटपी सम्प्रकाशते।
विराजत्युज्ज्वलस्कन्धः कोविदारध्वजो रथे॥ १८॥
‘सामने की ओर यह जो बहुत बड़ा शोभासम्पन्न वृक्ष दिखायी देता है, उसके समीप जो रथ है, उसपरउज्ज्वल तने से युक्त कोविदार वृक्ष से चिह्नित ध्वज शोभा पा रहा है॥ १८॥
भजन्त्येते यथाकाममश्वानारुह्य शीघ्रगान्।
एते भ्राजन्ति संहृष्टा गजानारुह्य सादिनः ॥१९॥
‘ये घुड़सवार सैनिक इच्छानुसार शीघ्रगामी घोड़ों पर आरूढ़ हो इधर ही आ रहे हैं और ये हाथीसवार भी बड़े हर्ष से हाथियों पर चढ़कर आते हए प्रकाशित हो रहे हैं।
गृहीतधनुषावावां गिरिं वीर श्रयावहे।
अथवेहैव तिष्ठावः संनद्धावुद्यतायुधौ॥२०॥
‘वीर! हम दोनों को धनुष लेकर पर्वत के शिखर पर चलना चाहिये अथवा कवच बाँधकर अस्त्रशस्त्रधारण किये यहीं डटे रहना चाहिये।॥ २० ॥
अपि नौ वशमागच्छेत् कोविदारध्वजो रणे।
अपि द्रक्ष्यामि भरतं यत्कृते व्यसनं महत्॥२१॥
त्वया राघव सम्प्राप्तं सीतया च मया तथा।
यन्निमित्तं भवान् राज्याच्च्युतो राघव शाश्वतात्॥
‘रघुनन्दन! आज यह कोविदार के चिह्न से युक्त ध्वजवाला रथ रणभूमि में हम दोनों के अधिकार में आ जायगा और आज मैं अपनी इच्छा के अनुसार उस भरत को भी सामने देखेंगा कि जिसके कारण आपको, सीता को और मुझे भी महान् संकट का सामना करना पड़ा है तथा जिसके कारण आप अपने सनातन राज्याधिकार से वञ्चित किये गये हैं।॥ २२॥
सम्प्राप्तोऽयमरिर्वीर भरतो वध्य एव हि।
भरतस्य वधे दोषं नाहं पश्यामि राघव॥२३॥
‘वीर रघुनाथजी! यह भरत हमारा शत्रु है और सामने आ गया है; अतः वध के ही योग्य है। भरत का वध करने में मुझे कोई दोष नहीं दिखायी देता ॥ २३ ॥
पूर्वापकारिणं हत्वा न ह्यधर्मेण युज्यते।
पूर्वापकारी भरतस्त्यागेऽधर्मश्च राघव॥२४॥
‘रघुनन्दन! जो पहले का अपकारी रहा हो, उसको मारकर कोई अधर्म का भागी नहीं होता है। भरत ने पहले हम लोगों का अपकार किया है, अतः उसे मारने में नहीं, जीवित छोड़ देने में ही अधर्म है। २४ ॥
एतस्मिन् निहते कृत्स्नामनुशाधि वसुंधराम्।
अद्य पुत्रं हतं संख्ये कैकेयी राज्यकामुका॥ २५॥
मया पश्येत् सुदुःखार्ता हस्तिभिन्नमिव द्रुमम्।
‘इस भरत के मारे जाने पर आप समस्त वसुधा का शासन करें। जैसे हाथी किसी वृक्ष को तोड़ डालता है, उसी प्रकार राज्य का लोभ करने वाली कैकेयी आज अत्यन्त दुःखसे आर्त हो इसे मेरे द्वारा युद्ध में मारा गया देखे ॥ २५ १/२॥
कैकेयीं च वधिष्यामि सानुबन्धां सबान्धवाम्॥ २६॥
कलुषेणाद्य महता मेदिनी परिमुच्यताम्।
‘मैं कैकेयी का भी उसके सगे-सम्बन्धियों एवं बन्धु-बान्धवों सहित वध कर डालूँगा। आज यह पृथ्वी कैकेयी रूप महान् पाप से मुक्त हो जाय॥ २६ १/२॥
अद्येमं संयतं क्रोधमसत्कारं च मानद ॥२७॥
मोक्ष्यामि शत्रुसैन्येषु कक्षेष्विव हुताशनम्।
‘मानद! आज मैं अपने रोके हुए क्रोध और तिरस्कार को शत्रु की सेनाओं पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे सूखे घास-फूस के ढेर में आग लगा दी जाय॥ २७ १/२॥
अद्यैव चित्रकूटस्य काननं निशितैः शरैः॥ २८॥
छिन्दन शत्रशरीराणि करिष्ये शोणितोक्षितम्।
‘अपने तीखे बाणों से शत्रुओं के शरीरों के टुकड़े-टुकड़े करके मैं अभी चित्रकूट के इस वन को रक्त से सींच दूंगा॥ २८ १/२॥
शरैर्निभिन्नहृदयान् कुञ्जरांस्तुरगांस्तथा ॥२९॥
श्वापदाः परिकर्षन्तु नरांश्च निहतान् मया।
‘मेरे बाणों से विदीर्ण हुए हृदय वाले हाथियों और घोड़ों को तथा मेरे हाथ से मारे गये मनुष्यों को भीगीदड़ आदि मांसभक्षी जन्तु इधर-उधर घसीटें॥ २९ १/२॥
शराणां धनुषश्चाहमनृणोऽस्मिन् महावने।
ससैन्यं भरतं हत्वा भविष्यामि न संशयः॥३०॥
‘इस महान् वन में सेनासहित भरत का वध करके मैं धनुष और बाण के ऋण से उऋण हो जाऊँगा—इसमें संशय नहीं है’ ॥ ३० ॥
सर्ग ९७
सुसंरब्धं तु भरतं लक्ष्मणं क्रोधमूर्च्छितम्।
रामस्तु परिसान्त्व्याथ वचनं चेदमब्रवीत्॥१॥
लक्ष्मण भरत के प्रति रोषावेश के कारण क्रोधवश अपना विवेक खो बैठे थे, उस अवस्था में श्रीराम ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और इस प्रकार कहा—
किमत्र धनुषा कार्यमसिना वा सचर्मणा।
महाबले महोत्साहे भरते स्वयमागते॥२॥
‘लक्ष्मण! महाबली और महान् उत्साही भरत जब स्वयं यहाँ आ गये हैं, तब इस समय यहाँ धनुष अथवा ढाल-तलवार से क्या काम है ? ॥ २॥
पितुः सत्यं प्रतिश्रुत्य हत्वा भरतमाहवे।
किं करिष्यामि राज्येन सापवादेन लक्ष्मण॥३॥
‘लक्ष्मण! पिता के सत्य की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा करके यदि मैं युद्ध में भरत को मारकर उनका राज्य छीन लूँ तो संसार में मेरी कितनी निन्दा होगी, फिर उस कलंकित राज्य को लेकर मैं क्या करूँगा? ॥ ३॥
यद् द्रव्यं बान्धवानां वा मित्राणां वा क्षये भवेत्।
नाहं तत् प्रतिगृह्णीयां भक्ष्यान् विषकृतानिव॥ ४॥
‘अपने बन्धु-बान्धवों या मित्रों का विनाश करके जिस धन की प्राप्ति होती हो, वह तो विषमिश्रित भोजन के समान सर्वथा त्याग देने योग्य है; उसे मैं कदापि ग्रहण नहीं करूँगा॥ ४॥
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिशृणोमि ते॥५॥
‘लक्ष्मण! मैं तुमसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि धर्म, अर्थ, काम और पृथ्वी का राज्य भी मैं तुम्हीं लोगों के लिये चाहता हूँ॥ ५॥
भ्रातॄणां संग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे॥६॥
सुमित्राकुमार! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्य की भी इच्छा करता हूँ और इस बात की सच्चाई के लिये मैं अपना धनुष छूकर शपथ खाता हूँ॥
नेयं मम मही सौम्य दुर्लभा सागराम्बरा।
नहीच्छेयमधर्मेण शक्रत्वमपि लक्ष्मण ॥७॥
‘सौम्य लक्ष्मण! समुद्र से घिरी हई यह पृथिवी मेरे लिये दुर्लभ नहीं है, परंतु मैं अधर्म से इन्द्र का पद पाने की भी इच्छा नहीं कर सकता॥ ७॥
यद् विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं वापि मानद।
भवेन्मम सुखं किंचिद् भस्म तत् कुरुतां शिखी॥ ८॥
‘मानद! भरत को, तुमको और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई सुख मिलता हो तो उसे अग्निदेव जलाकर भस्म कर डालें॥८॥
मन्येऽहमागतोऽयोध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः।
मम प्राणैः प्रियतरः कुलधर्ममनुस्मरन्॥९॥
श्रुत्वा प्रव्राजितं मां हि जटावल्कलधारिणम्।
जानक्या सहितं वीर त्वया च पुरुषोत्तम॥१०॥
स्नेहेनाक्रान्तहृदयः शोकेनाकुलितेन्द्रियः।
द्रष्टमभ्यागतो ह्येष भरतो नान्यथाऽऽगतः॥११॥
‘वीर! पुरुषप्रवर! भरत बड़े भ्रातृभक्त हैं। वे मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, भरत ने अयोध्या में आने पर जब सुना है कि मैं तुम्हारे और जानकी के साथ जटा-वल्कल धारण करके वन में आ गया हूँ, तब उनकी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठी हैं और वे कुलधर्म का विचार करके स्नेहयुक्त हृदय से हमलोगों से मिलने आये हैं। इन भरत के आगमन का इसके सिवा दूसरा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता॥९–११॥
अम्बां च केकयीं रुष्य भरतश्चाप्रियं वदन्।
प्रसाद्य पितरं श्रीमान् राज्यं मे दातुमागतः॥१२॥
‘माता कैकेयी के प्रति कुपित हो, उन्हें कठोर वचन सुनाकर और पिताजी को प्रसन्न करके श्रीमान् भरत मुझे राज्य देने के लिये आये हैं ॥ १२॥
प्राप्तकालं यथैषोऽस्मान् भरतो द्रष्टमर्हति।
अस्मासु मनसाप्येष नाहितं किंचिदाचरेत्॥१३॥
‘भरत का हम लोगों से मिलने के लिये आना सर्वथा समयोचित है वे हमसे मिलने के योग्य हैं। हमलोगों का कोई अहित करने का विचार तो वे कभी मन में भी नहीं ला सकते॥१३॥
विप्रियं कृतपूर्वं ते भरतेन कदा नु किम्।
ईदृशं वा भयं तेऽद्य भरतं यद् विशङ्कसे॥१४॥
‘भरत ने तुम्हारे प्रति पहले कब कौन-सा अप्रिय बर्ताव किया है, जिससे आज तुम्हें उनसे ऐसा भय लग रहा है और तुम उनके विषय में इस तरह की आशङ्का कर रहे हो? ॥ १४॥
नहि ते निष्ठरं वाच्यो भरतो नाप्रियं वचः।
अहं ह्यप्रियमुक्तः स्यां भरतस्याप्रिये कृते॥१५॥
‘भरत के आने पर तुम उनसे कोई कठोर या अप्रिय वचन न बोलना। यदि तुमने उनसे कोई प्रतिकूल बात कही तो वह मेरे ही प्रति कही हुई समझी जायगी॥ १५॥
कथं नु पुत्राः पितरं हन्युः कस्यांचिदापदि।
भ्राता वा भ्रातरं हन्यात् सौमित्रे प्राणमात्मनः॥ १६॥
‘सुमित्रानन्दन ! कितनी ही बड़ी आपत्ति क्यों न आ जाय, पुत्र अपने पिता को कैसे मार सकते हैं? अथवा भाई अपने प्राणों के समान प्रिय भाई की हत्या कैसे कर सकता है ? ॥ १६॥
यदि राज्यस्य हेतोस्त्वमिमां वाचं प्रभाषसे।
वक्ष्यामि भरतं दृष्ट्वा राज्यमस्मै प्रदीयताम्॥ १७॥
‘यदि तुम राज्य के लिये ऐसी कठोर बात कहते हो तो मैं भरत से मिलने पर उन्हें कह दूँगा कि तुम यह राज्य लक्ष्मण को दे दो॥ १७॥
उच्यमानो हि भरतो मया लक्ष्मण तद्वचः।
राज्यमस्मै प्रयच्छेति बाढमित्येव मंस्यते॥१८॥
‘लक्ष्मण ! यदि मैं भरत से यह कहूँ कि ‘तुम राज्य इन्हें दे दो’ तो वे बहुत अच्छा’ कहकर अवश्य मेरी बात मान लेंगे’ ॥ १८॥
तथोक्तो धर्मशीलेन भ्रात्रा तस्य हिते रतः।
लक्ष्मणः प्रविवेशेव स्वानि गात्राणि लज्जया॥ १९॥
अपने धर्मपरायण भाई के ऐसा कहने पर उन्हीं के हित में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण लज्जावश मानो अपने अङ्गों में ही समा गये—लाज से गड़ गये॥ १९ ॥
तद्वाक्यं लक्ष्मणः श्रुत्वा व्रीडितः प्रत्युवाच ह।
त्वां मन्ये द्रष्टमायातः पिता दशरथः स्वयम्॥ २०॥
श्रीराम का पूर्वोक्त वचन सुनकर लज्जित हुए लक्ष्मण ने कहा—’भैया! मैं समझता हूँ, हमारे पिता महाराज दशरथ स्वयं ही आपसे मिलने आये हैं’। २०॥
व्रीडितं लक्ष्मणं दृष्ट्वा राघवः प्रत्युवाच ह।
एष मन्ये महाबाहुरिहास्मान् द्रष्टमागतः॥२१॥
लक्ष्मण को लज्जित हुआ देख श्रीराम ने उत्तर दिया —’मैं भी ऐसा ही मानता हूँ कि हमारे महाबाहु पिताजी ही हमलोगों से मिलने आये हैं ॥ २१॥
अथवा नौ ध्रुवं मन्ये मन्यमानः सुखोचितौ।
वनवासमनुध्याय गृहाय प्रतिनेष्यति॥२२॥
‘अथवा मैं ऐसा समझता हूँ कि हमें सुख भोगने के योग्य मानते हुए पिताजी वनवास के कष्ट का विचार करके हम दोनों को निश्चय ही घर लौटा ले जायेंगे। २२॥
इमां चाप्येष वैदेहीमत्यन्तसुखसेविनीम्।
पिता मे राघवः श्रीमान् वनादादाय यास्यति॥ २३॥
‘मेरे पिता रघुकुलतिलक श्रीमान् महाराज दशरथ अत्यन्त सुख का सेवन करने वाली इन विदेहराजनन्दिनी सीता को भी वन से साथ लेकर ही घर को लौटेंगे॥ २३॥
एतौ तौ सम्प्रकाशेते गोत्रवन्तौ मनोरमौ।
वायुवेगसमौ वीरौ जवनौ तुरगोत्तमौ॥ २४॥
‘अच्छे घोड़ोंके कुलमें उत्पन्न हुए ये ही वे दोनों वायुके समान वेगशाली, शीघ्रगामी, वीर एवं मनोरम अपने उत्तम घोड़े चमक रहे हैं।॥ २४ ॥
स एष सुमहाकायः कम्पते वाहिनीमुखे।
नागः शत्रुजयो नाम वृद्धस्तातस्य धीमतः॥२५॥
‘परम बुद्धिमान् पिताजी की सवारी में रहने वाला यह वही विशालकाय शत्रुजय नामक बूढ़ा गजराज है, जो सेना के मुहाने पर झूमता हुआ चल रहा है ॥ २५ ॥
न तु पश्यामि तच्छत्रं पाण्डुरं लोकविश्रुतम्।
पितुर्दिव्यं महाभाग संशयो भवतीह मे ॥ २६॥
‘महाभाग! परंतु इसके ऊपर पिताजी का वह विश्वविख्यात दिव्य श्वेतछत्र मुझे नहीं दिखायी देता है—इससे मेरे मन में संशय उत्पन्न होता है॥२६॥
वृक्षायादवरोह त्वं कुरु लक्ष्मण मद्वचः।
इतीव रामो धर्मात्मा सौमित्रिं तमुवाच ह॥२७॥
अवतीर्य तु सालानात् तस्मात् स समितिंजयः।
लक्ष्मणः प्राञ्जलिर्भूत्वा तस्थौ रामस्य पार्श्वतः॥ २८॥
‘लक्ष्मण! अब मेरी बात मानो और पेड़ से नीचे उतर आओ।’ धर्मात्मा श्रीराम ने सुमित्राकुमार लक्ष्मण से जब ऐसी बात कही, तब युद्ध में विजय पाने वाले लक्ष्मण उस शाल वृक्ष के अग्रभाग से उतरे और श्रीराम के पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये। २७-२८॥
भरतेनाथ संदिष्टा सम्मर्दो न भवेदिति।
समन्तात् तस्य शैलस्य सेना वासमकल्पयत्॥ २९॥
उधर भरत ने सेना को आज्ञा दी कि ‘यहाँ किसी को हमलोगों के द्वारा बाधा नहीं पहुँचनी चाहिये।’ उनका यह आदेश पाकर समस्त सैनिक पर्वत के चारों ओर नीचे ही ठहर गये॥ २९॥
अध्यर्धमिक्ष्वाकुचमूर्योजनं पर्वतस्य ह।
पार्वे न्यविशदावृत्य गजवाजिनराकुला॥३०॥
उस समय हाथी, घोड़े और मनुष्यों से भरी हुई इक्ष्वाकुवंशी नरेश की वह सेना पर्वत के आस-पास की डेढ़ योजन (छः कोस) भूमि घेरकर पड़ाव डाले हुए थी॥
सा चित्रकूटे भरतेन सेना धर्मं पुरस्कृत्य विध्य दर्पम्।
प्रसादनार्थं रघुनन्दनस्य विरोचते नीतिमता प्रणीता॥३१॥
नीतिज्ञ भरत धर्म को सामने रखते हुए गर्व को त्यागकर रघुकुलनन्दन श्रीराम को प्रसन्न करने के लिये जिसे अपने साथ ले आये थे, वह सेना चित्रकूट पर्वत के समीप बड़ी शोभा पा रही थी॥३१॥
सर्ग ९८
निवेश्य सेनां तु विभुः पद्भ्यां पादवतां वरः।
अभिगन्तुं स काकुत्स्थमियेष गुरुवर्तकम्॥१॥
निविष्टमात्रे सैन्ये तु यथोद्देशं विनीतवत्।
भरतो भ्रातरं वाक्यं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्॥२॥९८
इस प्रकार सेना को ठहराकर जंगम प्राणियों में श्रेष्ठ एवं प्रभावशाली भरत ने गुरुसेवापरायण (एवं पिता के आज्ञा पालक) श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने का विचार किया। जब सारी सेना विनीत भाव से यथास्थान ठहर गयी, तब भरत ने अपने भाई शत्रुघ्न से इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥
क्षिप्रं वनमिदं सौम्य नरसंधैः समन्ततः।
लुब्धैश्च सहितैरेभिस्त्वमन्वेषितुमर्हसि ॥३॥
‘सौम्य! बहुत-से मनुष्यों के साथ इन निषादों को भी साथ लेकर तुम्हें शीघ्र ही इस वन में चारों ओर श्रीरामचन्द्रजी की खोज करनी चाहिये॥३॥
गुहो ज्ञातिसहस्रेण शरचापासिपाणिना।
समन्वेषतु काकुत्स्थावस्मिन् परिवृतः स्वयम्॥ ४॥
‘निषादराज गुह स्वयं भी धनुष-बाण और तलवार धारण करने वाले अपने सहस्रों बन्धु-बान्धवों से घिरे हुए जायँ और इस वन में ककुत्स्थवंशी श्रीराम और लक्ष्मण का अन्वेषण करें॥४॥
अमात्यैः सह पौरैश्च गुरुभिश्च द्विजातिभिः।
सह सर्वं चरिष्यामि पद्भ्यां परिवृतः स्वयम्॥
‘मैं स्वयं भी मन्त्रियों, पुरवासियों, गुरुजनों तथा ब्राह्मणों के साथ उन सबसे घिरा रहकर पैदल ही सारे वन में विचरण करूँगा॥ ५॥
यावन्न रामं द्रक्ष्यामि लक्ष्मणं वा महाबलम्।
वैदेहीं वा महाभागां न मे शान्तिर्भविष्यति॥६॥
‘जबतक श्रीराम, महाबली लक्ष्मण अथवा महाभागा विदेहराजकुमारी सीता को न देख लूँगा, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी॥६॥
यावन्न चन्द्रसंकाशं तद् द्रक्ष्यामि शुभाननम्।
भ्रातः पद्मविशालाक्षं न मे शान्तिर्भविष्यति॥ ७॥
‘जब तक अपने पूज्य भ्राता श्रीराम के कमलदल के सदृश विशाल नेत्रों वाले सुन्दर मुखचन्द्र का दर्शन न कर लूँगा, तब तक मेरे मन को शान्ति नहीं प्राप्त होगी॥ ७॥
सिद्धार्थः खलु सौमित्रिर्यश्चन्द्रविमलोपमम्।
मुखं पश्यति रामस्य राजीवाक्षं महाद्युतिम्॥८॥
‘निश्चय ही सुमित्राकुमार लक्ष्मण कृतार्थ हो गये, जो श्रीरामचन्द्रजी के उस कमलसदृश नेत्र वाले महातेजस्वी मुख का निरन्तर दर्शन करते हैं, जो चन्द्रमा के समान निर्मल एवं आह्लाद प्रदान करने वाला है॥८॥
यावन्न चरणौ भ्रातुः पार्थिवव्यञ्जनान्वितौ।
शिरसा प्रग्रहीष्यामि न मे शान्तिर्भविष्यति॥९॥
‘जबतक भाई श्रीराम के राजोचित लक्षणों से युक्त चरणारविन्दों को अपने सिर पर नहीं रखुंगा, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी॥९॥
यावन्न राज्ये राज्याहः पितृपैतामहे स्थितः।
अभिषिक्तो जलक्लिन्नो न मे शान्तिर्भविष्यति॥ १०॥
‘जब तक राज्य के सच्चे अधिकारी आर्य श्रीराम पिता-पितामहों के राज्य पर प्रतिष्ठित हो अभिषेक के जल से आर्द्र नहीं हो जायँगे, तबतक मेरे मन को शान्ति नहीं प्राप्त होगी॥ १०॥
कृतकृत्या महाभागा वैदेही जनकात्मजा।
भर्तारं सागरान्तायाः पृथिव्या यानुगच्छति॥ ११॥
‘जो समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी अपने पतिदेव श्रीरामचन्द्रजी का अनुसरण करती हैं, वे जनककिशोरी विदेहराजनन्दिनी महाभागा सीता अपने इस सत्कर्म से कृतार्थ हो गयीं॥ ११॥
सुशुभश्चित्रकूटोऽसौ गिरिराजसमो गिरिः।
यस्मिन् वसति काकुत्स्थः कुबेर इव नन्दने॥ १२॥
‘जैसे नन्दनवन में कुबेर निवास करते हैं, उसी प्रकार जिसके वन में ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी विराज रहे हैं, वह चित्रकूट परममङ्गलकारी तथा गिरिराज हिमालय एवं वेंकटाचल के समान श्रेष्ठ पर्वत है॥ १२॥
कृतकार्यमिदं दुर्गवनं व्यालनिषेवितम्।
यदध्यास्ते महाराजो रामः शस्त्रभृतां वरः॥१३॥
‘यह सर्पसेवित दुर्गम वन भी कृतार्थ हो गया, जहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाराज श्रीराम निवास करते हैं’।
एवमुक्त्वा महाबाहुर्भरतः पुरुषर्षभः।
पद्भ्यामेव महातेजाः प्रविवेश महद् वनम्॥ १४॥
ऐसा कहकर महातेजस्वी पुरुषप्रवर महाबाहु भरत ने उस विशाल वन में पैदल ही प्रवेश किया। १४॥
स तानि द्रुमजालानि जातानि गिरिसानुषु।
पुष्पिताग्राणि मध्येन जगाम वदतां वरः॥१५॥
वक्ताओं में श्रेष्ठ भरत पर्वतशिखरों पर उत्पन्न हुए वृक्षसमूहों के, जिनकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से भरे थे, बीच से निकले॥ १५ ॥
स गिरेश्चित्रकूटस्य सालमारुह्य सत्वरम्।
रामाश्रमगतस्याग्नेर्ददर्श ध्वजमुच्छ्रितम्॥१६॥
आगे जाकर वे बड़ी तेजी से चित्रकूट पर्वत के एक शाल-वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम पर सुलगती हुई आग का ऊपर उठता हुआ धुआँ देखा ॥ १६॥
तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान् मुमोद सहबान्धवः।
अत्र राम इति ज्ञात्वा गतः पारमिवाम्भसः ॥ १७॥
उस धूम को देखकर श्रीमान् भरत को अपने भाई शत्रुघ्न-सहित बड़ी प्रसन्नता हुई और ‘यहीं श्रीराम हैं’ यह जानकर उन्हें अथाह जल से पार हो जाने के समान संतोष प्राप्त हआ॥ १७॥
स चित्रकूटे तु गिरौ निशम्य रामाश्रमं पुण्यजनोपपन्नम्।
गुहेन सार्धं त्वरितो जगाम पुनर्निवेश्यैव चमूं महात्मा॥१८॥
इस प्रकार चित्रकूट पर्वत पर पुण्यात्मा महर्षियों से युक्त श्रीरामचन्द्रजी का आश्रम देखकर महात्मा भरत ने ढूँढ़ने के लिये आयी हुई सेना को पुनः पूर्व स्थान पर ठहरा दिया और वे स्वयं गुह के साथ शीघ्रतापूर्वक आश्रम की ओर चल दिये॥ १८ ॥
सर्ग ९९
निविष्टायां तु सेनायामुत्सुको भरतस्ततः।
जगाम भ्रातरं द्रष्टं शत्रुघ्नमनुदर्शयन्॥१॥
सेना के ठहर जाने पर भाई के दर्शन के लिये उत्कण्ठित होकर भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न को आश्रम के चिह्न दिखाते हुए उसकी ओर चले॥१॥
ऋषिं वसिष्ठं संदिश्य मातृमें शीघ्रमानय।
इति त्वरितमग्रे स जगाम गुरुवत्सलः॥२॥
गुरुभक्त भरत महर्षि वसिष्ठ को यह संदेश देकर कि आप मेरी माताओं को साथ लेकर शीघ्र ही आइये, तुरंत आगे बढ़ गये॥२॥
सुमन्त्रस्त्वपि शत्रुघ्नमदूरादन्वपद्यत।
रामदर्शनजस्त! भरतस्येव तस्य च ॥३॥
सुमन्त्र भी शत्रुघ्न के समीप ही पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्हें भी भरत के समान ही श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की तीव्र अभिलाषा थी॥३॥
गच्छन्नेवाथ भरतस्तापसालयसंस्थिताम्।
भ्रातुः पर्णकुटी श्रीमानुटजं च ददर्श ह॥४॥
चलते-चलते ही श्रीमान् भरत ने तपस्वीजनों के आश्रमों के समान प्रतिष्ठित हुई भाई की पर्णकुटी और झोंपड़ी देखी॥ ४॥
शालायास्त्वग्रतस्तस्या ददर्श भरतस्तदा।
काष्ठानि चावभग्नानि पुष्पाण्यपचितानि च॥५॥
उस पर्णशाला के सामने भरत ने उस समय बहुत-से कटे हुए काष्ठ के टुकड़े देखे, जो होम के लिये संगृहीत थे। साथ ही वहाँ पूजा के लिये संचित किये हुए फूल भी दृष्टिगोचर हुए॥ ५ ॥
स लक्ष्मणस्य रामस्य ददर्शाश्रममीयुषः।
कृतं वृक्षेष्वभिज्ञानं कुशचीरैः क्वचित् क्वचित्॥
आश्रमपर आने-जाने वाले श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा निर्मित मार्गबोधक चिह्न भी उन्हें वृक्षों में लगे दिखायी दिये, जो कशों और चीरों द्वारा तैयार करके कहीं-कहीं वृक्षों की शाखाओं में लटका दिये गये थे। ६॥
ददर्श च वने तस्मिन् महतः संचयान् कृतान्।
मृगाणां महिषाणां च करीषैः शीतकारणात्॥
उस वन में शीत-निवारण के लिये मृगों की लेंडी और भैंसों के सूखे हुए गोबर के ढेर एकत्र करके रखे गये थे, जिन्हें भरत ने अपनी आँखों देखा ॥ ७॥
गच्छन्नेव महाबाहुर्युतिमान् भरतस्तदा।
शत्रुघ्नं चाब्रवीद् हृष्टस्तानमात्यांश्च सर्वशः॥८॥
उस समय चलते-चलते ही परम कान्तिमान् महाबाहु भरत ने शत्रुघ्न तथा सम्पूर्ण मन्त्रियों से अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा- ॥८॥
मन्ये प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत्।
नातिदूरे हि मन्येऽहं नदीं मन्दाकिनीमितः॥९॥
‘जान पड़ता है कि महर्षि भरद्वाज ने जिस स्थान का पता बताया था, वहाँ हमलोग आ गये हैं। मैं समझता हूँ मन्दाकिनी नदी यहाँ से अधिक दूर नहीं है॥९॥
उच्चैर्बद्धानि चीराणि लक्ष्मणेन भवेदयम्।
अभिज्ञानकृतः पन्था विकाले गन्तुमिच्छता॥१०॥
‘वृक्षों में ऊँचे बँधे हए ये चीर दिखायी दे रहे हैं।अतः समय-बे समय जल आदि लाने के निमित्त बाहर जाने की इच्छा वाले लक्ष्मण ने जिसकी पहचान के लिये यह चिह्न बनाया है, वह आश्रम को जाने वाला मार्ग यही हो सकता है॥ १० ॥
इतश्चोदात्तदन्तानां कुञ्जराणां तरस्विनाम्।
शैलपाइँ परिक्रान्तमन्योन्यमभिगर्जताम् ॥११॥
‘इधर से बड़े-बड़े दाँत वाले वेगशाली हाथी निकलकर एक-दूसरे के प्रति गर्जना करते हुए इस पर्वत के पार्श्वभाग में चक्कर लगाते रहते हैं (अतः उधर जाने से रोकने के लिये लक्ष्मण ने ये चिह्न बनाये होंगे) ॥ ११॥
यमेवाधातुमिच्छन्ति तापसाः सततं वने।
तस्यासौ दृश्यते धूमः संकुलः कृष्णवर्त्मनः॥ १२॥
‘वन में तपस्वी मुनि सदा जिनका आधान करना चाहते हैं, उन अग्निदेव का यह अति सघन धूम दृष्टिगोचर हो रहा है।॥ १२॥
अत्राहं पुरुषव्याघ्रं गुरुसत्कारकारिणम्।
आर्य द्रक्ष्यामि संहृष्टं महर्षिमिव राघवम्॥१३॥
‘यहाँ मैं गुरुजनों का सत्कार करने वाले पुरुषसिंह आर्य रघुनन्दन का सदा आनन्दमग्न रहने वाले महर्षि की भाँति दर्शन करूँगा’ ॥ १३॥
अथ गत्वा मुहूर्तं तु चित्रकूटं स राघवः।
मन्दाकिनीमनुप्राप्तस्तं जनं चेदमब्रवीत्॥१४॥
तदनन्तर रघुकुलभूषण भरत दो ही घडी में मन्दाकिनी के तट पर विराजमान चित्रकूट के पास जा पहुँचे और अपने साथ वाले लोगों से इस प्रकार बोले –॥
जगत्यां पुरुषव्याघ्र आस्ते वीरासने रतः।
जनेन्द्रो निर्जनं प्राप्य धिने जन्म सजीवितम्॥ १५॥
‘अहो! मेरे ही कारण पुरुषसिंह महाराज श्रीरामचन्द्र इस निर्जन वन में आकर खुली पृथ्वी के ऊपर वीरासन से बैठते हैं; अतः मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है॥ १५ ॥
मत्कृते व्यसनं प्राप्तो लोकनाथो महाद्युतिः।
सर्वान् कामान् परित्यज्य वने वसति राघवः॥ १६॥
‘मेरे ही कारण महातेजस्वी लोकनाथ रघुनाथ भारी संकट में पड़कर समस्त कामनाओं का परित्याग करके वन में निवास करते हैं।॥ १६॥
इति लोकसमाक्रुष्टः पादेष्वद्य प्रसादयन्।
रामं तस्य पतिष्यामि सीताया लक्ष्मणस्य च॥ १७॥
‘इसलिये मैं सब लोगों के द्वारा निन्दित हूँ, अतः मेरे जन्म को धिक्कार है! आज मैं श्रीराम को प्रसन्न करने के लिये उनके चरणों में गिर जाऊँगा। सीता और लक्ष्मण के भी पैरों पढूंगा’ ॥ १७॥
एवं स विलपंस्तस्मिन् वने दशरथात्मजः।
ददर्श महतीं पुण्यां पर्णशालां मनोरमाम्॥१८॥
इस तरह विलाप करते हुए दशरथकुमार भरत ने उस वन में एक बड़ी पर्णशाला देखी, जो परम पवित्र और मनोरम थी॥ १८॥
सालतालाश्वकर्णानां पर्णैर्बहुभिरावृताम्।
विशालां मृदुभिस्तीर्णां कुशैर्वेदिमिवाध्वरे॥ १९॥
वह शाल, ताल और अश्वकर्ण नामक वृक्षों के बहुत-से पत्तों द्वारा छायी हुई थी; अतः यज्ञशाला में जिस पर कोमल कुश बिछाये गये हों, उस लंबीचौड़ी वेदी के समान शोभा पा रही थी॥ १९॥
शक्रायुधनिकाशैश्च कार्मुकै रसाधनैः।
रुक्मपृष्ठैर्महासारैः शोभितां शत्रुबाधकैः॥२०॥
वहाँ इन्द्रधनुष के समान बहुत-से धनुष रखे गये थे, जो गुरुतर कार्य-साधन में समर्थ थे। जिनके पृष्ठभाग सोने से मढ़े गये थे और जो बहुत ही प्रबल तथा शत्रुओं को पीड़ा देने वाले थे। उनसे उस पर्णकुटी की बड़ी शोभा हो रही थी॥२०॥
अर्करश्मिप्रतीकाशैोरैस्तूणगतैः शरैः।
शोभितां दीप्तवदनैः सर्भोगवतीमिव॥२१॥
वहाँ तरकसों में बहुत-से बाण भरे थे, जो सूर्य की किरणों के समान चमकीले और भयङ्कर थे। उन बाणों से वह पर्णशाला उसी प्रकार सुशोभित होती थी, जैसे दीप्तिमान् मुख वाले सोसे भोगवती पुरी शोभित होती है॥२१॥
महारजतवासोभ्यामसिभ्यां च विराजिताम्।
रुक्मबिन्दुविचित्राभ्यां चर्मभ्यां चापि शोभिताम्॥२२॥
सोने की म्यानों में रखी हुई दो तलवारें और स्वर्णमय बिन्दुओं से विभूषित दो विचित्र ढालें भी उस आश्रम की शोभा बढ़ा रही थीं॥ २२॥
गोधाङ्गलिरासक्तैश्चित्रकाञ्चनभूषितैः।
अरिसंधैरनाधृष्यां मृगैः सिंहगुहामिव ॥२३॥
वहाँ गोह के चमड़े के बने हुए बहुत-से सुवर्णजटित दस्ताने भी टॅगे हुए थे। जैसे मृग सिंह की गुफा पर आक्रमण नहीं कर सकते, उसी प्रकार वह पर्णशाला शत्रुसमूहों के लिये अगम्य एवं अजेय थी॥ २३॥
प्रागुदक्प्रवणां वेदिं विशालां दीप्तपावकाम्।
ददर्श भरतस्तत्र पुण्यां रामनिवेशने॥२४॥
श्रीराम के उस निवास स्थान में भरत ने एक पवित्र एवं विशाल वेदी भी देखी, जो ईशान कोण की ओर कुछ नीची थी। उसपर अग्नि प्रज्वलित हो रही थी॥ २४॥
निरीक्ष्य स मुहूर्तं तु ददर्श भरतो गुरुम्।
उटजे राममासीनं जटामण्डलधारिणम्॥२५॥
कृष्णाजिनधरं तं तु चीरवल्कलवाससम्।
ददर्श राममासीनमभितः पावकोपमम्॥२६॥
पर्णशाला की ओर थोड़ी देरतक देखकर भरत ने कुटिया में बैठे हुए अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम को देखा, जो सिर पर जटामण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने अपने अङ्गों में कृष्णमृगचर्म तथा चीर एवं वल्कल वस्त्र धारण कर रखे थे। भरत को दिखायी दिया कि श्रीराम पास ही बैठे हैं और प्रज्वलित अग्नि के समान अपनी दिव्य प्रभा फैला रहे हैं। २५-२६॥
सिंहस्कन्धं महाबाहुं पुण्डरीकनिभेक्षणम्।
पृथिव्याः सागरान्ताया भर्तारं धर्मचारिणम्॥ २७॥
उपविष्टं महाबाहं ब्रह्माणमिव शाश्वतम्।
स्थण्डिले दर्भसंस्तीर्णे सीतया लक्ष्मणेन च॥२८॥
समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी, धर्मात्मा, महाबाहु श्रीराम सनातन ब्रह्मा की भाँति कुश बिछी हुई वेदीपर बैठे थे। उनके कंधे सिंह के समान, भुजाएँ बड़ी-बड़ीऔर नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान थे। उस वेदी पर वे सीता और लक्ष्मण के साथ विराजमान थे॥ २७-२८॥
तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान् शोकमोहपरिप्लुतः।
अभ्यधावत धर्मात्मा भरतः केकयीसुतः॥ २९॥
उन्हें इस अवस्था में देख धर्मात्मा श्रीमान् कैकेयीकुमार भरत शोक और मोह में डूब गये तथा बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े॥२९॥
दृष्ट्वैव विललापा” बाष्पसंदिग्धया गिरा।
अशक्नुवन् वारयितुं धैर्याद् वचनमब्रुवन्॥३०॥
भाई की ओर दृष्टि पड़ते ही भरत आर्तभाव से विलाप करने लगे। वे अपने शोक के आवेग को धैर्य से रोक न सके और आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले- ॥३०॥
यः संसदि प्रकृतिभिर्भवेद् युक्त उपासितुम्।
वन्यैर्मृगैरुपासीनः सोऽयमास्ते ममाग्रजः॥ ३१॥
‘हाय! जो राजसभा में बैठकर प्रजा और मन्त्रिवर्ग के द्वारा सेवा तथा सम्मान पाने के योग्य हैं, वे ही ये मेरे बड़े भ्राता श्रीराम यहाँ जंगली पशुओं से घिरे हुए बैठे हैं।
वासोभिर्बहुसाहस्रों महात्मा पुरोचितः।
मृगाजिने सोऽयमिह प्रवस्ते धर्ममाचरन्॥३२॥
‘जो महात्मा पहले कई सहस्र वस्त्रों का उपयोग करते थे, वे अब धर्माचरण करते हुए यहाँ केवल दो मृगचर्म धारण करते हैं॥३२॥
अधारयद् यो विविधाश्चित्राः सुमनसः सदा।
सोऽयं जटाभारमिमं सहते राघवः कथम्॥३३॥
‘जो सदा नाना प्रकार के विचित्र फूलों को अपने सिर पर धारण करते थे, वे ही ये श्रीरघुनाथजी इस समय इस जटाभार को कैसे सहन करते हैं? ॥ ३३॥
यस्य यज्ञैर्यथादिष्टैर्युक्तो धर्मस्य संचयः।
शरीरक्लेशसम्भूतं स धर्म परिमार्गते॥३४॥
‘जिनके लिये शास्त्रोक्त यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा धर्म का संग्रह करना उचित है, वे इस समय शरीर को कष्ट देनेसे प्राप्त होने वाले धर्म का अनुसंधान कर रहे हैं।॥ ३४॥
चन्दनेन महार्हेण यस्याङ्गमुपसेवितम्।
मलेन तस्याङ्गमिदं कथमार्यस्य सेव्यते॥ ३५॥
‘जिनके अङ्गों की बहुमूल्य चन्दन से सेवा होती थी, उन्हीं मेरे पूज्य भ्राता का यह शरीर कैसे मल से सेवित हो रहा है॥ ३५॥
मन्निमित्तमिदं दुःखं प्राप्तो रामः सुखोचितः।
धिग्जीवितं नृशंसस्य मम लोकविगर्हितम्॥३६॥
‘हाय! जो सर्वथा सुख भोगने के योग्य हैं, वे श्रीराम मेरे ही कारण ऐसे दुःख में पड़ गये हैं। ओह! मैं कितना क्रूर हूँ? मेरे इस लोकनिन्दित जीवन को धिक्कार है!’ ॥ ३६॥
इत्येवं विलपन् दीनः प्रस्विन्नमुखपङ्कजः।
पादावप्राप्य रामस्य पपात भरतो रुदन्॥३७॥
इस प्रकार विलाप करते-करते भरत अत्यन्त दुःखी हो गये। उनके मुखारविन्दपर पसीने की बूंदें दिखायी देने लगीं। वे श्रीरामचन्द्रजी के चरणों तक पहँचने के पहले ही पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३७॥
दुःखाभितप्तो भरतो राजपुत्रो महाबलः।
उक्त्वाऽऽर्येति सकृद् दीनं पुनर्नोवाच किंचन॥ ३८॥
अत्यन्त दुःख से संतप्त होकर महाबली राजकुमार भरत ने एक बार दीनवाणी में ‘आर्य’ कहकर पुकारा फिर वे कुछ न बोल सके॥ ३८॥
बाष्पैः पिहितकण्ठश्च प्रेक्ष्य रामं यशस्विनम्।
आर्येत्येवाभिसंक्रुश्य व्याहर्तुं नाशकत् ततः॥ ३९॥
आँसुओं से उनका गला रुंध गया था। यशस्वी श्रीराम की ओर देख वे ‘हा! आर्य’ कहकर चीख उठे। इससे आगे उनसे कुछ बोला न जा सका। ३९॥
शत्रुघ्नश्चापि रामस्य ववन्दे चरणौ रुदन्।
तावुभौ च समालिङ्य रामोऽप्यश्रूण्यवर्तयत्॥ ४०॥
फिर शत्रुघ्न ने भी रोते-रोते श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम ने उन दोनों को उठाकर छाती से लगा लिया। फिर वे भी नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाने लगे॥ ४०॥
ततः सुमन्त्रेण गुहेन चैव समीयतू राजसुतावरण्ये।
दिवाकरश्चैव निशाकरश्च यथाम्बरे शुक्रबृहस्पतिभ्याम्॥४१॥
तत्पश्चात् राजकुमार श्रीराम तथा लक्ष्मण उस वन में सुमन्त्र और निषादराज गुह से मिले, मानो आकाश में सूर्य और चन्द्रमा, शुक्र और बृहस्पति से मिल रहे हों।
तान् पार्थिवान् वारणयूथपार्हान् समागतांस्तत्र महत्यरण्ये।
वनौकसस्तेऽभिसमीक्ष्य सर्वे त्वश्रूण्यमुञ्चन् प्रविहाय हर्षम्॥४२॥
यूथपति गजराज पर बैठकर यात्रा करने योग्य उन चारों राजकुमारों को उस विशाल वन में आया देख समस्त वनवासी हर्ष छोड़कर शोक के आँसू बहाने लगे॥४२॥
सर्ग १००
जटिलं चीरवसनं प्राञ्जलिं पतितं भुवि।
ददर्श रामो दुर्दर्श युगान्ते भास्करं यथा॥१॥
कथंचिदभिविज्ञाय विवर्णवदनं कृशम्।
भ्रातरं भरतं रामः परिजग्राह पाणिना॥२॥
आघ्राय रामस्तं मूर्ध्नि परिष्वज्य च राघवम्।
अङ्के भरतमारोप्य पर्यपृच्छत सादरम्॥३॥
जटा और चीर-वस्त्र धारण किये भरत हाथ जोड़कर पृथ्वी पर पड़े थे, मानो प्रलयकाल में सूर्यदेव धरती पर गिर गये हों। उनको उस अवस्था में देखना किसी भी स्नेही सुहृद् के लिये अत्यन्त कठिन था। श्रीराम ने उन्हें देखा और जैसे-तैसे किसी तरह पहचाना। उनका मुख उदास हो गया था। वे बहुत दुर्बल हो गये थे। श्रीराम ने भाई भरत को अपने हाथ से पकड़कर उठाया और उनका मस्तक सूंघकर उन्हें हृदय से लगा लिया। इसके बाद रघुकुलभूषण भरत को गोद में बिठाकर श्रीराम ने बड़े आदर से पूछा – ॥१-३॥
क्व नु तेऽभूत् पिता तात यदरण्यं त्वमागतः।
न हि त्वं जीवतस्तस्य वनमागन्तुमर्हसि ॥४॥
‘तात! पिताजी कहाँ थे कि तुम इस वन में आये हो? उनके जीते-जी तो तुम वन में नहीं आ सकते थे॥
चिरस्य बत पश्यामि दूराद् भरतमागतम्।
दुष्प्रतीकमरण्येऽस्मिन् किं तात वनमागतः॥५॥
‘मैं दीर्घकाल के बाद दूर से (नाना के घर से) आये हुए भरत को आज इस वन में देख रहा हूँ; परंतु इनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है। तात! तुम क्यों वन में आये हो? ॥ ५॥
कच्चिन्नु धरते तात राजा यत् त्वमिहागतः।
कच्चिन्न दीनः सहसा राजा लोकान्तरं गतः॥
‘भाई! महाराज जीवित हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे अत्यन्त दुःखी होकर सहसा परलोकवासी हो गये हों और इसीलिये तुम्हें स्वयं यहाँ आना पड़ा हो?॥
कच्चित् सौम्य न ते राज्यं भ्रष्टं बालस्य शाश्वतम्।
कच्चिच्छुश्रूषसे तात पितुः सत्यपराक्रम॥७॥
‘सौम्य! तुम अभी बालक हो, इसलिये परम्परा से चला आता हुआ तुम्हारा राज्य नष्ट तो नहीं हो गया? सत्यपराक्रमी तात भरत! तुम पिताजी की सेवा-शुश्रूषा तो करते हो न? ॥ ७॥
कच्चिद् दशरथो राजा कुशली सत्यसंगरः।
राजसूयाश्वमेधानामाहर्ता धर्मनिश्चितः॥८॥
‘जो धर्म पर अटल रहने वाले हैं तथा जिन्होंने राजसूय एवं अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया है, वे सत्यप्रतिज्ञ महाराज दशरथ सकुशल तो हैं न? ॥ ८॥
स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते॥९॥
‘तात! क्या तुम सदा धर्म में तत्पर रहनेवाले, विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता और इक्ष्वाकुकुल के आचार्य महातेजस्वी वसिष्ठजी की यथावत् पूजा करते हो? ॥ ९॥
तात कच्चिच्च कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी॥ १०॥
‘भाई! क्या माता कौसल्या सुख से हैं? उत्तम संतानवाली सुमित्रा प्रसन्न हैं और आर्या कैकेयी देवी भी आनन्दित हैं? ॥ १०॥
कच्चिद् विनयसम्पन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः।
अनसूयुरनुद्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः॥११॥
‘जो उत्तम कुल में उत्पन्न, विनयसम्पन्न, बहुश्रुत, किसी के दोष न देखने वाले तथा शास्त्रोक्त धर्मो पर निरन्तर दृष्टि रखने वाले हैं, उन पुरोहितजी का तुमने पूर्णतः सत्कार किया है ? ॥ ११॥
कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः।
हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा॥१२॥
‘हवनविधि के ज्ञाता, बुद्धिमान् और सरल स्वभाव वाले जिन ब्राह्मण देवता को तुमने अग्निहोत्रकार्य के लिये नियुक्त किया है, वे सदा ठीक समयपर आकर क्या तुम्हें यह सूचित करते हैं कि इस समय अग्नि में आहुति दे दी गयी और अब अमुक समय में हवन करना है?॥
कच्चिद् देवान् पितॄन् भृत्यान् गुरून् पितृसमानपि।
वृद्धाश्च तात वैद्यांश्च ब्राह्मणांश्चाभिमन्यसे॥ १३॥
‘तात! क्या तुम देवताओं, पितरों, भृत्यों, गुरुजनों, पिता के समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सम्मान करते हो? ॥ १३॥
इष्वस्त्रवरसम्पन्नमर्थशास्त्रविशारदम्।
सुधन्वानमुपाध्यायं कच्चित् त्वं तात मन्यसे॥ १४॥
‘भाई! जो मन्त्ररहित श्रेष्ठ बाणों के प्रयोग तथा मन्त्रसहित उत्तम अस्त्रों के प्रयोग के ज्ञान से सम्पन्न और अर्थशास्त्र (राजनीति) के अच्छे पण्डित हैं, उन आचार्य सुधन्वा का क्या तुम समादर करते हो? ॥ १४॥
कच्चिदात्मसमाः शूराः श्रुतवन्तो जितेन्द्रियाः।
कुलीनाश्चेङ्गितज्ञाश्च कृतास्ते तात मन्त्रिणः॥ १५॥
‘तात! क्या तुमने अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रिय, कुलीन तथा बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मन्त्री बनाया है ? ॥ १५ ॥
मन्त्रो विजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव।
सुसंवृतो मन्त्रिधुरैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः॥१६॥
‘रघुनन्दन! अच्छी मन्त्रणा ही राजाओं की विजय का मूल कारण है। वह भी तभी सफल होती है, जब नीति-शास्त्रनिपुण मन्त्रिशिरोमणि अमात्य उसे सर्वथा गुप्त रखें॥ १६॥
कच्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित् कालेऽवबुध्यसे।
कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम्॥१७॥
‘भरत! तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जाग जाते हो न? रात के पिछले पहर में अर्थसिद्धि के उपायपर विचार करते हो न?॥ १७॥
कच्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह।
कच्चित् ते मन्त्रितो मन्त्रो राष्ट्रं न परिधावति॥ १८॥
‘(कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है; छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है,अतः मैं पूछता हूँ-) तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते? अथवा बहुत लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो?॥१८॥
कच्चिदर्थं विनिश्चित्य लघुमूलं महोदयम्।
क्षिप्रमारभसे कर्म न दीर्घयसि राघव॥१९॥
‘रघुनन्दन! जिसका साधन बहुत छोटा और फल बहुत बड़ा हो, ऐसे कार्य का निश्चय करने के बाद तुम उसे शीघ्र प्रारम्भ कर देते हो न? उसमें विलम्ब तो नहीं करते? ॥ १९॥
कच्चिन्नु सुकृतान्येव कृतरूपाणि वा पुनः।
विदस्ते सर्वकार्याणि न कर्तव्यानि पार्थिवाः॥ २०॥
‘तुम्हारे सब कार्य पूर्ण हो जानेपर अथवा पूरे होनेके समीप पहुँचनेपर ही दूसरे राजाओंको ज्ञात होते हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारे भावी कार्यक्रमको वे पहले ही जान लेते हों? ॥ २० ॥
कच्चिन्न तर्कैर्युक्त्या वा ये चाप्यपरिकीर्तिताः।
त्वया वा तव वामात्यैर्बुध्यते तात मन्त्रितम्॥ २१॥
‘तात! तुम्हारे निश्चित किये हुए विचारों को तुम्हारे या मन्त्रियों के प्रकट न करने पर भी दूसरे लोग तर्क और युक्तियों के द्वारा जान तो नहीं लेते हैं? (तथा तुमको और तुम्हारे अमात्यों को दूसरों के गुप्त विचारों का पता लगता रहता है न?) ॥ २१॥
कच्चित् सहस्रैर्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम्।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत्॥ २२॥
‘क्या तुम सहस्रों मूल् के बदले एक पण्डित को ही अपने पास रखने की इच्छा रखते हो? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थसंकट के समय महान् कल्याण कर सकता है॥ २२॥
सहस्राण्यपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः।
अथवाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता॥२३॥
‘यदि राजा हजार या दस हजार मूल् को अपने पास रख ले तो भी उनसे अवसर पर कोई अच्छी सहायता नहीं मिलती॥ २३॥
एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्षो विचक्षणः।
राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम्॥२४॥
‘यदि एक मन्त्री भी मेधावी, शूर-वीर, चतुर एवं नीतिज्ञ हो तो वह राजा या राजकुमार को बहुत बड़ी सम्पत्ति की प्राप्ति करा सकता है॥ २४॥
कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः।
जघन्याश्च जघन्येषु भृत्यास्ते तात योजिताः॥ २५॥
‘तात! तुमने प्रधान व्यक्तियों को प्रधान, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मध्यम और छोटी श्रेणी के लोगों को छोटे ही कामों में नियुक्त किया है न? ॥ २५॥
अमात्यानुपधातीतान् पितृपैतामहान् शुचीन्।
श्रेष्ठान् श्रेष्ठेषु कच्चित् त्वं नियोजयसि कर्मसु॥ २६॥
‘जो घूस न लेते हों अथवा निश्छल हों, बापदादों के समय से ही काम करते आ रहे हों तथा बाहर-भीतर से पवित्र एवं श्रेष्ठ हों, ऐसे अमात्यों को ही तुम उत्तम कार्यों में नियुक्त करते हो न? ॥ २६॥
कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्रेजिताः प्रजाः।
राष्ट्र तवावजानन्ति मन्त्रिणः कैकयीसुत॥२७॥
‘कैकेयीकुमार! तुम्हारे राज्य की प्रजा कठोर दण्ड से अत्यन्त उद्विग्न होकर तुम्हारे मन्त्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती? ॥ २७॥
कच्चित् त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा।
उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः॥२८॥
‘जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का तथा स्त्रियाँ कामचारी पुरुष का तिरस्कार कर देती हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती? ॥ २८॥
उपायकुशलं वैद्यं भृत्यसंदूषणे रतम्।
शूरमैश्वर्यकामं च यो हन्ति न स हन्यते॥२९॥
‘जो साम-दाम आदि उपायों के प्रयोग में कुशल, राजनीतिशास्त्र का विद्वान्, विश्वासी भृत्यों को फोड़ने में लगा हुआ, शूर (मरने से न डरने वाला) तथा राजा के राज्य को हड़प लेने की इच्छा रखने वाला है—ऐसे पुरुष को जो राजा नहीं मार डालता है, वह स्वयं उसके हाथ से मारा जाता है॥ २९ ॥
कच्चिद् धृष्टश्च शूरश्च धृतिमान् मतिमान् शुचिः ।
कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिः कृतः॥ ३०॥
‘क्या तुमने सदा संतुष्ट रहने वाले, शूरवीर, धैर्यवान्, बुद्धिमान्, पवित्र, कुलीन एवं अपने में अनुराग रखने वाले, रणकर्मदक्ष पुरुष को ही सेनापति बनाया है? ॥ ३०॥
बलवन्तश्च कच्चित् ते मुख्या युद्धविशारदाः।
दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः॥ ३१॥
‘तुम्हारे प्रधान-प्रधान योद्धा (सेनापति) बलवान्, युद्धकुशल और पराक्रमी तो हैं न? क्या तुमने उनके शौर्य की परीक्षा कर ली है? तथा क्या वे तुम्हारे द्वारा सत्कारपूर्वक सम्मान पाते रहते हैं ? ॥ ३१॥
कच्चिद बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम्।
सम्प्राप्तकालं दातव्यं ददासि न विलम्बसे॥ ३२॥
‘सैनिकों को देने के लिये नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर दे देते हो न? देने में विलम्ब तो नहीं करते? ॥ ३२॥
कालातिक्रमणे ह्येव भक्तवेतनयो ताः।
भर्तुरप्यतिकुप्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान् कृतः॥ ३३॥
‘यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिये जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामी पर भी अत्यन्त कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ घटित हो जाता है।
कच्चित् सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः।
कच्चित् प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति समाहिताः॥ ३४॥
‘क्या उत्तम कुल में उत्पन्न मन्त्री आदि समस्त प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं? क्या वे तुम्हारे लिये एकचित्त होकर अपने प्राणों का त्याग करने के लिये उद्यत रहते हैं? ॥ ३४॥
कच्चिज्जानपदो विद्वान् दक्षिणः प्रतिभानवान्।
यथोक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः॥ ३५॥
‘भरत! तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है, वह पुरुष अपने ही देश का निवासी, विद्वान्, कुशल, प्रतिभाशाली और जैसा कहा जाय, वैसी ही बात दूसरे के सामने कहने वाला और सदसद्विवेकयुक्त है न? ॥ ३५ ॥
कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च।
त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैत्सि तीर्थानि चारकैः॥ ३६॥
‘क्या तुम शत्रुपक्ष के अठारह’ और अपने पक्ष के पंद्रह तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा देखभाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो? ॥ ३६ ॥
कच्चिद व्यपास्तानहितान् प्रतियातांश्च सर्वदा।
दुर्बलाननवज्ञाय वर्तसे रिपुसूदन॥ ३७॥
‘शत्रुसूदन ! जिन शत्रुओं को तुमने राज्य से निकाल दिया है, वे यदि फिर लौटकर आते हैं तो तुम उन्हें दुर्बल समझकर उनकी उपेक्षा तो नहीं करते? ॥ ३७॥
कच्चिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे।
अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः॥ ३८॥
‘तात ! तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते हो? क्योंकि वे बुद्धि को परमार्थ की ओर से विचलित करने में कुशल होते हैं तथा वास्तव में अज्ञानी होते हुए भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं॥ ३८॥
धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः।
बद्धिमान्वीक्षिकी प्राप्य निरर्थं प्रवदन्ति ते॥ ३९॥
‘उनका ज्ञान वेद के विरुद्ध होने के कारण दूषित होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान-प्रधान धर्मशास्त्रों के होते हुए भी तार्किक बुद्धि का आश्रय लेकर व्यर्थ बकवाद किया करते हैं॥ ३९॥
वीरैरध्युषितां पूर्वमस्माकं तात पूर्वकैः।
सत्यनामां दृढद्वारा हस्त्यश्वरथसंकुलाम्॥४०॥
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः स्वकर्मनिरतैः सदा।
जितेन्द्रियैर्महोत्साहैर्वृतामार्यैः सहस्रशः॥४१॥
प्रासादैर्विविधाकारैर्वृतां वैद्यजनाकुलाम्।
कच्चित् समुदितां स्फीतामयोध्यां परिरक्षसे॥ ४२॥
‘तात! अयोध्या हमारे वीर पूर्वजों की निवास भूमि है; उसका जैसा नाम है, वैसा ही गुण है। उसके दरवाजे सब ओर से सुदृढ़ हैं। वह हाथी, घोड़े और रथों से परिपूर्ण है। अपने-अपने कर्मों में लगे हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सहस्रों की संख्या में वहाँ सदा निवास करते हैं। वे सब-के-सब महान् उत्साही, जितेन्द्रिय और श्रेष्ठ हैं। नाना प्रकार के राजभवन और मन्दिर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगरी बहुसंख्यक विद्वानों से भरी है। ऐसी अभ्युदयशील और समृद्धिशालिनी नगरी अयोध्या की तुम भलीभाँति रक्षा तो करते हो न? ॥ ४०-४२॥
कच्चिच्चैत्यशतैर्जुष्टः सुनिविष्टजनाकुलः।
देवस्थानैः प्रपाभिश्च तटाकैश्चोपशोभितः॥ ४३॥
प्रहृष्टनरनारीकः समाजोत्सवशोभितः।
सुकृष्टसीमापशुमान् हिंसाभिरभिवर्जितः॥४४॥
अदेवमातृको रम्यः श्वापदैः परिवर्जितः।
परित्यक्तो भयैः सर्वैः खनिभिश्चोपशोभितः॥ ४५॥
विवर्जितो नरैः पापैर्मम पूर्वैः सुरक्षितः।
कच्चिज्जनपदः स्फीतः सुखं वसति राघव॥ ४६॥
‘रघुनन्दन भरत! जहाँ नाना प्रकार के अश्वमेध आदि महायज्ञों के बहुत-से चयन-प्रदेश (अनुष्ठानस्थल) शोभा पाते हैं, जिसमें प्रतिष्ठित मनुष्य अधिक संख्या में निवास करते हैं, अनेकानेक देवस्थान, पौंसले और तालाब जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जहाँ के स्त्री-पुरुष सदा प्रसन्न रहते हैं, जो सामाजिक उत्सवों के कारण सदा शोभासम्पन्न दिखायी देता है, जहाँ खेत जोतने में समर्थ पशुओं की अधिकता है, जहाँ किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती, जहाँ खेती के लिये वर्षा के जल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता (नदियों के जल से ही सिंचाई हो जाती है), जो बहुत ही सुन्दर और हिंसक पशुओं से रहित है, जहाँ किसी तरह का भय नहीं है, नाना प्रकार की खाने जिसकी शोभा बढ़ाती हैं, जहाँ पापी मनुष्यों का सर्वथा अभाव है तथा हमारे पूर्वजों ने जिसकी भलीभाँति रक्षा की है, वह अपना कोसल देश धन-धान्य से सम्पन्न और सुखपूर्वक बसा हुआ है न? ॥ ४३–४६॥
कच्चित् ते दयिताः सर्वे कृषिगोरक्षजीविनः।
वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सखमेधते॥४७॥
‘तात! कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न? क्योंकि कृषि और व्यापार आदि में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उन्नतिशील होता है।। ४७॥
तेषां गुप्तिपरीहारैः कच्चित् ते भरणं कृतम्।
रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिनः॥४८॥
‘उन वैश्यों को इष्ट की प्राप्ति कराकर और उनके अनिष्ट का निवारण करके तुम उन सब लोगों का भरण-पोषण तो करते हो न? क्योंकि राजा को अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों का धर्मानुसार पालन करना चाहिये॥४८॥
कच्चित् स्त्रियः सान्त्वयसे कच्चित् तास्ते सुरक्षिताः।
कच्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद् गुह्यं न भाषसे॥ ४९॥
‘क्या तुम अपनी स्त्रियों को संतुष्ट रखते हो? क्या वे तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सुरक्षित रहती हैं? तुम उनपर अधिक विश्वास तो नहीं करते? उन्हें अपनी गुप्त बात तो नहीं कह देते? ॥ ४९ ॥
कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुञ्जराणां च तृप्यसि॥ ५०॥
‘जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गौएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? ॥ ५० ॥
कच्चिद् दर्शयसे नित्यं मानुषाणां विभूषितम्।
उत्थायोत्थाय पूर्वाणे राजपुत्र महापथे॥५१॥
‘राजकुमार! क्या तुम प्रतिदिन पूर्वाह्नकाल में वस्त्राभूषणों से विभूषित हो प्रधान सड़क पर जा-जाकर नगरवासी मनुष्यों को दर्शन देते हो? ॥ ५१॥
कच्चिन्न सर्वे कर्मान्ताः प्रत्यक्षास्तेऽविशङ्कया।
सर्वे वा पुनरुत्सृष्टा मध्यमेवात्र कारणम्॥५२॥
‘काम-काज में लगे हुए सभी मनुष्य निडर होकर तुम्हारे सामने तो नहीं आते? अथवा वे सब सदा तुमसे दूर तो नहीं रहते? क्योंकि कर्मचारियों के विषय में मध्यम स्थिति का अवलम्बन करना ही अर्थसिद्धि का कारण होता है॥५२॥
कच्चिद् दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः।
यन्त्रैश्च प्रतिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः॥५३॥
‘क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्रशस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी तथा धनुर्धर सैनिकोंसे भरे-पूरे रहते हैं? ॥ ५३॥
आयस्ते विपुलः कच्चित् कच्चिदल्पतरो व्ययः।
अपात्रेषु न ते कच्चित् कोषो गच्छति राघव॥ ५४॥
‘रघुनन्दन ! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता? ॥ ५४॥
देवतार्थे च पित्रर्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च।
योधेषु मित्रवर्गेषु कच्चिद् गच्छति ते व्ययः॥
‘देवता, पितर, ब्राह्मण, अभ्यागत, योद्धा तथा मित्रों के लिये ही तो तुम्हारा धन खर्च होता है न? ॥ ५५॥
कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापकर्मणा।
अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः॥
‘कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ, निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानो द्वारा उसके विषय में विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो? ॥५६॥
गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः।
कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ॥५७॥
‘नरश्रेष्ठ ! जो चोरी में पकड़ा गया हो, जिसे किसी ने चोरी करते समय देखा हो, पूछताछ से भी जिसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो तथा जिसके विरुद्ध (चोरी का माल बरामद होना आदि) और भी बहुत से कारण (सबूत) हों, ऐसे चोर को भी तुम्हारे राज्य में धन के लालच से छोड़ तो नहीं दिया जाता है? ॥ ५७॥
व्यसने कच्चिदाढ्यस्य दुर्बलस्य च राघव।
अर्थं विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः॥ ५८॥
‘रघुकुलभूषण! यदि धनी और गरीब में कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिये आया हो तो तुम्हारे बहुज्ञ मन्त्री धन आदि के लोभ को छोड़कर उस मामले पर विचार करते हैं न? ॥ ५८॥
यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघव।
तानि पुत्रपशून् जन्ति प्रीत्यर्थमनुशासतः॥५९॥
‘रघुनन्दन ! निरपराध होने पर भी जिन्हें मिथ्या दोष लगाकर दण्ड दिया जाता है, उन मनुष्यों की आँखों से जो आँसू गिरते हैं, वे पक्षपातपूर्ण शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर डालते हैं। ५९॥
कच्चिद् वृद्धांश्च बालांश्च वैद्यान् मुख्यांश्च
राघव। दानेन मनसा वाचा त्रिभिरेतैर्बुभूषसे॥६०॥
‘राघव! क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों और प्रधान प्रधान वैद्यों का आन्तरिक अनुराग, मधुर वचन और धनदान-इन तीनों के द्वारा सम्मान करते हो? ॥ ६०॥
कच्चिद् गुरूंश्च वृद्धाश्च तापसान् देवतातिथीन्।
चैत्यांश्च सर्वान् सिद्धार्थान् ब्राह्मणांश्च नमस्यसि॥६१॥
‘गुरुजनों, वृद्धों, तपस्वियों, देवताओं, अतिथियों, चैत्य वृक्षों और समस्त पूर्णकाम ब्राह्मणों को नमस्कार करते हो न? ॥ ६१॥
कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थं धर्मेण वा पुनः।
उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे॥६२॥
‘तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुँचाते? अथवा आसक्ति और लोभ रूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों में बाधा तो नहीं आने देते?॥
कच्चिदर्थं च कामं च धर्मं च जयतां वर।
विभज्य काले कालज्ञ सर्वान् वरद सेवसे॥ ६३॥
‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ, समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देने में समर्थ भरत! क्या तुम समय का विभाग करके धर्म, अर्थ और काम का योग्य समय में सेवन करते हो? ॥ ६३॥
कच्चित् ते ब्राह्मणाः शर्म सर्वशास्त्रार्थकोविदाः।
आशंसन्ते महाप्राज्ञ पौरजानपदैः सह ॥६४॥
‘महाप्राज्ञ! सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ को जानने वाले ब्राह्मण पुरवासी और जनपदवासी मनुष्यों के साथ तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं न? ॥ ६४॥
नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।
अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम्॥६५॥
एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणम्।
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्॥६६॥
मङ्गलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।
कच्चित् त्वं वर्जयस्येतान् राजदोषांश्चतुर्दश॥ ६७॥
‘नास्तिकता, असत्य-भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषों का संग न करना, आलस्य, नेत्र आदि पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत होना, राजकार्यों के विषय में अकेले ही विचार करना, प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूल् से सलाह लेना, निश्चित किये हुए कार्यों का शीघ्र प्रारम्भ न करना,गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना, माङ्गलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ चढ़ाई कर देना—ये राजा के चौदह दोष हैं। तुम इन दोषों का सदा परित्याग करते हो न?॥ ६५-६७॥
दशपञ्चचतुर्वर्गान् सप्तवर्गं च तत्त्वतः।
अष्टवर्गं त्रिवर्गं च विद्यास्तिस्रश्च राघव॥ ६८॥
इन्द्रियाणां जयं बुद्ध्वा षाड्गुण्यं दैवमानुषम्।
कृत्यं विंशतिवर्गं च तथा प्रकृतिमण्डलम्॥६९॥
यात्रादण्डविधानं च द्वियोनी संधिविग्रहौ।
कच्चिदेतान् महाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे॥७०॥
‘महाप्राज्ञ भरत! दशवर्ग,’ पञ्चवर्ग, चतुर्वर्ग, सप्तवर्ग, अष्टवर्ग, त्रिवर्ग, तीन विद्या, बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को जीतना, छः गुण, दैवी और मानुषी बाधाएँ, राजा के नीतिपूर्ण कार्य, विंशतिवर्ग, प्रकृतिमण्डल, यात्रा (शत्रु पर आक्रमण), दण्डविधान (व्यूहरचना) तथा दो-दो गुणों की योनिभूत संधि और विग्रह–इन सबकी ओर तुम यथार्थ रूप से ध्यान देते हो न? इनमें से त्यागने योग्य दोषों को त्यागकर ग्रहण करने योग्य गुणों को ग्रहण करते हो न?॥ ६८-७० ॥
मन्त्रिभिस्त्वं यथोद्दिष्टं चतुर्भिस्त्रिभिरेव वा।
कच्चित् समस्तैर्व्यस्तैश्च मन्त्रं मन्त्रयसे बुध॥ ७१॥
‘विद्वन् ! क्या तुम नीतिशास्त्र की आज्ञा के अनुसार चार या तीन मन्त्रियों के साथ—सबको एकत्र करके अथवा सबसे अलग-अलग मिलकर सलाह करते हो? ॥ ७१॥
कच्चित् ते सफला वेदाः कच्चित् ते सफलाः कियाः।
कच्चित् ते सफला दाराः कच्चित् ते सफलं श्रुतम्॥७२॥
‘क्या तुम वेदों की आज्ञा के अनुसार काम करके उन्हें सफल करते हो? क्या तुम्हारी क्रियाएँ सफल (उद्देश्य की सिद्धि करने वाली) हैं? क्या तुम्हारी स्त्रियाँ भी सफल (संतानवती) हैं? और क्या तुम्हारा शास्त्रज्ञान भी विनय आदि गुणों का उत्पादक होकर सफल हुआ है ? ॥ ७२॥
कच्चिदेषैव ते बुद्धिर्यथोक्ता मम राघव।
आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थसंहिता॥ ७३॥
‘रघुनन्दन ! मैंने जो कुछ कहा है, तुम्हारी बुद्धि का भी ऐसा ही निश्चय है न? क्योंकि यह विचार आयु और यश को बढ़ाने वाला तथा धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि करने वाला है॥७३॥
यां वृत्तिं वर्तते तातो यां च नः प्रपितामहः।
तां वृत्तिं वर्तसे कच्चिद् या च सत्पथगा शुभा॥ ७४॥
‘हमारे पिताजी जिस वृत्ति का आश्रय लेते हैं, हमारे प्रपितामहों ने जिस आचरण का पालन किया है, सत्पुरुष भी जिसका सेवन करते हैं और जो कल्याण का मूल है, उसीका तुम पालन करते हो न? ॥ ७४॥
कच्चित् स्वादुकृतं भोज्यमेको नाश्नासि राघव।
कच्चिदाशंसमानेभ्यो मित्रेभ्यः सम्प्रयच्छसि॥ ७५॥
‘रघुनन्दन ! तुम स्वादिष्ट अन्न अकेले ही तो नहीं खा जाते? उसकी आशा रखने वाले मित्रों को भी देते हो न?॥ ७५॥
राजा तु धर्मेण हि पालयित्वा महीपतिर्दण्डधरः प्रजानाम्।
अवाप्य कृत्स्नां वसुधां यथावदितश्च्युतः स्वर्गमुपैति विद्वान्॥७६॥
‘इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करने वाला विद्वान् राजा प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को यथावत् रूप से अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात् स्वर्गलोक में जाता है’॥ ७६॥
सर्ग १०१
तं तु रामः समाज्ञाय भ्रातरं गुरुवत्सलम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा प्रष्टुं समुपचक्रमे॥१॥
लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी ने अपने गुरुभक्त भाई भरत को अच्छी तरह समझाकर अथवा उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर उनसे इस प्रकार पूछना आरम्भ किया— ॥१॥
किमेतदिच्छेयमहं श्रोतुं प्रव्याहृतं त्वया।
यन्निमित्तमिमं देशं कृष्णाजिनजटाधरः॥
हित्वा राज्यं प्रविष्टस्त्वं तत् सर्वं वक्तुमर्हसि ॥३॥
‘भाई! तुम राज्य छोड़कर वल्कल, कृष्णमृगचर्म और जटा धारण करके जो इस देश में आये हो, इसका क्या कारण है? जिस निमित्त से इस वन में तुम्हारा प्रवेश हुआ है, यह मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ। तुम्हें सब कुछ साफ-साफ बताना चाहिये’ ॥ २-३॥
इत्युक्तः केकयीपुत्रः काकुत्स्थेन महात्मना।
प्रगृह्य बलवद् भूयः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥४॥
ककुत्स्थवंशी महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर भरत ने बलपूर्वक आन्तरिक शोक को दबा पुनः हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा- ॥४॥
आर्य तातः परित्यज्य कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
गतः स्वर्गं महाबाहः पुत्रशोकाभिपीडितः॥५॥
‘आर्य! हमारे महाबाहु पिता अत्यन्त दुष्कर कर्म करके पुत्रशोक से पीड़ित हो हमें छोड़कर स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
स्त्रिया नियुक्तः कैकेय्या मम मात्रा परन्तप।
चकार सा महत्पापमिदमात्मयशोहरम्॥६॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनन्दन! अपनी स्त्री एवं मेरी माता कैकेयी की प्रेरणा से ही विवश हो । पिताजी ने ऐसा कठोर कार्य किया था। मेरी माँ ने अपने सुयश को नष्ट करने वाला यह बड़ा भारी पाप किया है॥६॥
सा राज्यफलमप्राप्य विधवा शोककर्शिता।
पतिष्यति महाघोरे नरके जननी मम॥७॥
‘अतः वह राज्यरूपी फल न पाकर विधवा हो गयी। अब मेरी माता शोक से दुर्बल हो महाघोर नरक में पड़ेगी॥७॥
तस्य मे दासभूतस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि।
अभिषिञ्चस्व चाद्यैव राज्येन मघवानिव॥८॥
‘अब आप अपने दासस्वरूप मुझ भरत पर कृपा कीजिये और इन्द्र की भाँति आज ही राज्य ग्रहण करने के लिये अपना अभिषेक कराइये॥८॥
इमाः प्रकृतयः सर्वा विधवा मातरश्च याः।
त्वत्सकाशमनुप्राप्ताः प्रसादं कर्तुमर्हसि॥९॥
‘ये सारी प्रकृतियाँ (प्रजा आदि) और सभी विधवा माताएँ आपके पास आयी हैं। आप इन सबपर कृपा करें॥९॥
तथानुपूर्व्या युक्तश्च युक्तं चात्मनि मानद।
राज्यं प्राप्नुहि धर्मेण सकामान् सुहृदः कुरु॥ १०॥
‘दूसरों को मान देने वाले रघुवीर! आप ज्येष्ठ होने के नाते राज्य-प्राप्ति के क्रमिक अधिकार से युक्त हैं, न्यायतः आपको ही राज्य मिलना उचित है; अतः आप धर्मानुसार राज्य ग्रहण करें और अपने सुहृदों को सफल-मनोरथ बनावें॥ १०॥
भवत्वविधवा भूमिः समग्रा पतिना त्वया।
शशिना विमलेनेव शारदी रजनी यथा॥११॥
‘आप-जैसे पति से युक्त हो यह सारी वसुधा वैधव्यरहित हो जाय और निर्मल चन्द्रमा से सनाथ हुई शरत्काल की रात्रि के समान शोभा पाने लगे॥ ११॥
एभिश्च सचिवैः सार्धं शिरसा याचितो मया।
भ्रातुः शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१२॥
‘मैं इन समस्त सचिवों के साथ आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आप राज्य ग्रहण करें। मैं आपका भाई, शिष्य और दास हूँ आप मुझपर कृपा करें॥ १२ ॥
तदिदं शाश्वतं पित्र्यं सर्वं सचिवमण्डलम्।
पूजितं पुरुषव्याघ्र नातिक्रमितुमर्हसि ॥१३॥
‘पुरुषसिंह! यह सारा मन्त्रिमण्डल अपने यहाँ कुलपरम्परा से चला आ रहा है। ये सभी सचिव पिताजी के समय में भी थे। हम सदा से इनका सम्मान करते आये हैं, अतः आप इनकी प्रार्थना न ठुकरायें’ ॥ १३॥
एवमुक्त्वा महाबाहुः सबाष्पः कैकयीसुतः।
रामस्य शिरसा पादौ जग्राह भरतः पुनः॥१४॥
ऐसा कहकर कैकेयी पुत्र महाबाहु भरत ने नेत्रों से आँसू बहाते हुए पुनः श्रीरामचन्द्रजी के चरणों से माथा टेक दिया॥१४॥
तं मत्तमिव मातङ्गं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
भ्रातरं भरतं रामः परिष्वज्येदमब्रवीत्॥१५॥
उस समय वे मतवाले हाथी के समान बारंबार लंबी साँस खींचने लगे, तब श्रीराम ने भाई भरत को उठाकर हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा- ॥१५॥
कुलीनः सत्त्वसम्पन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः।
राज्यहेतोः कथं पापमाचरेन्मद्विधो जनः॥१६॥
‘भाई! तुम्हीं बताओ। उत्तम कुल में उत्पन्न, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी और श्रेष्ठ व्रतों का पालन करने वाला मेरे-जैसा मनुष्य राज्य के लिये पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन रूप पाप कैसे कर सकता है?॥ १६॥
न दोषं त्वयि पश्यामि सूक्ष्ममप्यरिसूदन।
न चापि जननीं बाल्यात् त्वं विगर्हितमर्हसि॥ १७॥
‘शत्रुसूदन ! मैं तुम्हारे अंदर थोड़ा-सा भी दोष नहीं देखता। अज्ञानवश तुम्हें अपनी माताकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये॥ १७॥
कामकारो महाप्राज्ञ गुरूणां सर्वदानघ।
उपपन्नेषु दारेषु पुत्रेषु च विधीयते॥१८॥
‘निष्पाप महाप्राज्ञ! गुरुजनों का अपनी अभीष्ट स्त्रियों और प्रिय पुत्रों पर सदा पूर्ण अधिकार होता है। वे उन्हें चाहे जैसी आज्ञा दे सकते हैं॥ १८ ॥
वयमस्य यथा लोके संख्याताः सौम्य साधुभिः।
भार्याः पुत्राश्च शिष्याश्च त्वमपि ज्ञातुमर्हसि॥
‘सौम्य! माताओंसहित हम भी इस लोक में श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा महाराज के स्त्री-पुत्र और शिष्य कहे गये हैं, अतः हमें भी उनको सब तरह की आज्ञा देने का अधिकार था। इस बात को तुम भी समझने योग्य हो।
वने वा चीरवसनं सौम्य कृष्णाजिनाम्बरम्।
राज्ये वापि महाराजो मां वासयितुमीश्वरः॥ २०॥
‘सौम्य! महाराज मुझे वल्कल वस्त्र और मृगचर्म धारण कराकर वन में ठहरावें अथवा राज्य पर बिठावें -इन दोनों बातों के लिये वे सर्वथा समर्थ थे॥ २० ॥
यावत् पितरि धर्मज्ञ गौरवं लोकसत्कृते।
तावद् धर्मकृतां श्रेष्ठ जनन्यामपि गौरवम्॥२१॥
‘धर्मज्ञ! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भरत! मनुष्य की विश्ववन्द्य पिता में जितनी गौरव-बुद्धि होती है, उतनी ही माता में भी होनी चाहिये॥२१॥
एताभ्यां धर्मशीलाभ्यां वनं गच्छेति राघव।
मातापितृभ्यामुक्तोऽहं कथमन्यत् समाचरे॥२२॥
‘रघुनन्दन! इन धर्मशील माता और पिता दोनों ने जब मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दी है, तब मैं उनकी आज्ञा के विपरीत दूसरा कोई बर्ताव कैसे कर सकता हूँ? ॥ २२॥
त्वया राज्यमयोध्यायां प्राप्तव्यं लोकसत्कृतम्।
वस्तव्यं दण्डकारण्ये मया वल्कलवाससा॥ २३॥
‘तुम्हें अयोध्या में रहकर समस्त जगत् के लिये आदरणीय राज्य प्राप्त करना चाहिये और मुझे वल्कल वस्त्र धारण करके दण्डकारण्य में रहना चाहिये॥ २३॥
एवमुक्त्वा महाराजो विभागं लोकसंनिधौ।
व्यादिश्य च महाराजो दिवं दशरथो गतः॥२४॥
‘क्योंकि महाराज दशरथ बहुत लोगों के सामने हम दोनों के लिये इस प्रकार पृथक्-पृथक् दो आज्ञाएँ देकर स्वर्ग को सिधारे हैं॥ २४ ॥
स च प्रमाणं धर्मात्मा राजा लोकगुरुस्तव।
पित्रा दत्तं यथाभागमुपभोक्तुं त्वमर्हसि ॥२५॥
‘इस विषय में लोकगुरु धर्मात्मा राजा ही तुम्हारे लिये प्रमाणभूत हैं उन्हीं की आज्ञा तुम्हें माननी चाहिये और पिता ने तुम्हारे हिस्से में जो कुछ दिया है, उसीका तुम्हें यथावत् रूप से उपभोग करना चाहिये। २५॥
चतुर्दश समाः सौम्य दण्डकारण्यमाश्रितः।
उपभोक्ष्ये त्वहं दत्तं भागं पित्रा महात्मना॥ २६॥
‘सौम्य! चौदह वर्षोंतक दण्डकारण्य में रहने के बाद ही महात्मा पिता के दिये हुए राज्य-भाग का मैं उपभोग करूँगा॥ २६॥
यदब्रवीन्मां नरलोकसत्कृतः पिता महात्मा विबुधाधिपोपमः।
तदेव मन्ये परमात्मनो हितं न सर्वलोकेश्वरभावमव्ययम्॥२७॥
‘मनुष्यलोक में सम्मानित और देवराज इन्द्र के तुल्य तेजस्वी मेरे महात्मा पिता ने मुझे जो वनवास की आज्ञा दी है, उसीको मैं अपने लिये परम हितकारी समझता हूँ। उनकी आज्ञा के विरुद्ध सर्वलोकेश्वर ब्रह्मा का अविनाशी पद भी मेरे लिये श्रेयस्कर नहीं है’ ॥ २७॥
सर्ग १०२
रामस्य वचनं श्रुत्वा भरतः प्रत्युवाच ह।
किं मे धर्माद विहीनस्य राजधर्मः करिष्यति॥
श्रीरामचन्द्रजी की बात सुनकर भरत ने इस प्रकार उत्तर दिया— भैया! मैं राज्य का अधिकारी न होने के कारण उस राजधर्म के अधिकार से रहित हूँ, अतः मेरे लिये यह राजधर्म का उपदेश किस काम आयगा? ॥ १॥
शाश्वतोऽयं सदा धर्मः स्थितोऽस्मासु नरर्षभ।
ज्येष्ठ पुत्रे स्थिते राजा न कनीयान् भवेन्नृपः॥ २॥
‘नरश्रेष्ठ ! हमारे यहाँ सदा से ही इस शाश्वत धर्म का पालन होता आया है कि ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए छोटा पुत्र राजा नहीं हो सकता॥२॥
स समृद्धां मया सार्धमयोध्यां गच्छ राघव।
अभिषेचय चात्मानं कुलस्यास्य भवाय नः॥३॥
‘अतः रघुनन्दन! आप मेरे साथ समृद्धिशालिनी अयोध्यापुरी को चलिये और हमारे कुल के अभ्युदय के लिये राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये॥३॥
राजानं मानुषं प्राहुर्देवत्वे सम्मतो मम।
यस्य धर्मार्थसहितं वृत्तमाहुरमानुषम्॥४॥
‘यद्यपि सब लोग राजा को मनुष्य कहते हैं, तथापि मेरी राय में वह देवत्वपर प्रतिष्ठित है; क्योंकि उसके धर्म और अर्थयुक्त आचार को साधारण मनुष्य के लिये असम्भावित बताया गया है॥ ४॥
केकयस्थे च मयि तु त्वयि चारण्यमाश्रिते।
धीमान् स्वर्गं गतो राजा यायजूकः सतां मतः॥
‘जब मैं केकयदेश में था और आप वन में चले आये थे, तब अश्वमेध आदि यज्ञों के कर्ता और सत्पुरुषों द्वारा सम्मानित बुद्धिमान् महाराज दशरथ स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
निष्क्रान्तमात्रे भवति सहसीते सलक्ष्मणे।
दुःखशोकाभिभूतस्तु राजा त्रिदिवमभ्यगात्॥ ६॥
‘सीता और लक्ष्मण के साथ आपके राज्य से निकलते ही दुःख-शोक से पीड़ित हुए महाराज स्वर्गलोक को चल दिये॥६॥
उत्तिष्ठ पुरुषव्याघ्र क्रियतामुदकं पितुः।
अहं चायं च शत्रुघ्नः पूर्वमेव कृतोदकौ॥७॥
‘पुरुषसिंह ! उठिये और पिता को जलाञ्जलि दान कीजिये। मैं और यह शत्रुघ्न—दोनों पहले ही उनके लिये जलाञ्जलि दे चुके हैं॥७॥
प्रियेण किल दत्तं हि पितृलोकेषु राघव।
अक्षयं भवतीत्याहर्भवांश्चैव पितुः प्रियः॥८॥
‘रघुनन्दन! कहते हैं, प्रिय पुत्र का दिया हुआ जल आदि पितृलोक में अक्षय होता है और आप पिता के परम प्रिय पुत्र हैं॥८॥
त्वामेव शोचंस्तव दर्शनेप्सुस्त्वय्येव सक्तामनिवर्त्य बुद्धिम्।
त्वया विहीनस्तव शोकरुग्णस्त्वां संस्मरन्नेव गतः पिता ते॥९॥
‘आपके पिता आप से विलग होते ही शोक के कारण रुग्ण हो गये और आपके ही शोक में मग्न हो, आपको ही देखने की इच्छा रखकर, आपमें ही लगी हुई बुद्धि को आपकी ओर से न हटाकर, आपका ही स्मरण करते हुए स्वर्ग को चले गये’ ॥९॥
सर्ग १०३
तां श्रुत्वा करुणां वाचं पितुर्मरणसंहिताम्।
राघवो भरतेनोक्तां बभूव गतचेतनः॥१॥
भरत की कही हुई पिता की मृत्यु से सम्बन्ध रखने वाली करुणाजनक बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी दुःख के कारण अचेत हो गये॥१॥
तं तु वज्रमिवोत्सृष्टमाहवे दानवारिणा।
वाग्वजं भरतेनोक्तममनोज्ञं परंतपः॥२॥
प्रगृह्य रामो बाहू वै पुष्पिताङ्ग इव द्रुमः।
वने परशुना कृत्तस्तथा भुवि पपात ह॥३॥
भरत के मुख से निकला हुआ वह वचन वज्र-सा लगा, मानो दानवशत्रु इन्द्र ने युद्धस्थल में वज्र का प्रहार-सा कर दिया हो। मन को प्रिय न लगने वाले उस वाग्-वज्र को सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर जिसकी डालियाँ खिली हुई हों, वन में कुल्हाड़ी से कटे हुए उस वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े (भरत के दर्शन से श्रीराम को हर्ष हुआ था, पिताकी मृत्यु के संवाद से दुःख; अतः उन्हें खिले और कटे हुए पेड़ की उपमा दी गयी है) ॥२-३॥
तथा हि पतितं रामं जगत्यां जगतीपतिम्।
कूलघातपरिश्रान्तं प्रसुप्तमिव कुञ्जरम्॥४॥
भ्रातरस्ते महेष्वासं सर्वतः शोककर्शितम्।
रुदन्तः सह वैदेह्या सिषिचुः सलिलेन वै॥५॥
पृथ्वीपति श्रीराम इस प्रकार पृथ्वी पर गिरकर नदी के तटको दाँतों से विदीर्ण करने के परिश्रम से थककर सोये हुए हाथी के समान प्रतीत होते थे। शोक के कारण दुर्बल हुए उन महाधनुर्धर श्रीराम को सब ओर से घेरकर सीतासहित रोते हुए वे तीनों भाई आँसुओं के जलसे भिगोने लगे॥ ४-५ ॥
स तु संज्ञां पुनर्लब्ध्वा नेत्राभ्यामश्रुमुत्सृजन्।
उपाक्रामत काकुत्स्थः कृपणं बहु भाषितुम्॥६॥
थोड़ी देर बाद पुनः होश में आने पर नेत्रों से अश्रुवर्षा करते हुए ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अत्यन्त दीन वाणी में विलाप आरम्भ किया।॥ ६॥
स रामः स्वर्गतं श्रुत्वा पितरं पृथिवीपतिम्।
उवाच भरतं वाक्यं धर्मात्मा धर्मसंहितम्॥७॥
पृथ्वीपति महाराज दशरथ को स्वर्गगामी हुआ सुनकर धर्मात्मा श्रीराम ने भरत से यह धर्मयुक्त बात कही-
किं करिष्याम्ययोध्यायां ताते दिष्टां गतिं गते।
कस्तां राजवराद्धीनामयोध्यां पालयिष्यति॥८॥
‘भैया! जब पिताजी परलोकवासी हो गये, तब अयोध्या में चलकर अब मैं क्या करूँगा? उन राजशिरोमणि पिता से हीन हुई उस अयोध्या का अब कौन पालन करेगा? ॥ ८॥
किं नु तस्य मया कार्यं दुर्जातेन महात्मनः।
यो मृतो मम शोकेन स मया न च संस्कृतः॥९॥
‘हाय! जो पिताजी मेरे ही शोक से मृत्यु को प्राप्त हुए, उन्हीं का मैं दाह-संस्कार तक न कर सका। मुझ जैसे व्यर्थ जन्म लेने वाले पुत्र से उन महात्मा पिता का कौन-सा कार्य सिद्ध हुआ?॥ ९॥
अहो भरत सिद्धार्थो येन राजा त्वयानघ।
शत्रुजेन च सर्वेषु प्रेतकृत्येषु सत्कृतः॥१०॥
‘निष्पाप भरत ! तुम्हीं कृतार्थ हो, तुम्हारा अहोभाग्य है, जिससे तुमने और शत्रुघ्न ने सभी प्रेतकार्यों (पारलौकिककृत्यों) में संस्कार-कर्म के द्वारा महाराज का पूजन किया है।॥ १० ॥
निष्प्रधानामनेकानां नरेन्द्रेण विना कृताम्।
निवृत्तवनवासोऽपि नायोध्यां गन्तुमुत्सहे॥११॥
‘महाराज दशरथ से हीन हुई अयोध्या अब प्रधान शासक से रहित हो अस्वस्थ एवं आकुल हो उठी है; अतः वनवास से लौटने पर भी मेरे मन में अयोध्या जाने का उत्साह नहीं रह गया है। ११॥
समाप्तवनवासं मामयोध्यायां परंतप।
कोऽनुशासिष्यति पुनस्ताते लोकान्तरं गते॥ १२॥
‘परंतप भरत! वनवास की अवधि समाप्त करके यदि मैं अयोध्या में जाऊँ तो फिर कौन मुझे कर्तव्य का उपदेश देगा; क्योंकि पिताजी तो परलोकवासी हो गये॥ १२॥
पुरा प्रेक्ष्य सुवृत्तं मां पिता यान्याह सान्त्वयन्।
वाक्यानि तानि श्रोष्यामि कुतः कर्णसुखान्यहम्॥१३॥
‘पहले जब मैं उनकी किसी आज्ञा का पालन करता था, तब वे मेरे सद्व्यवहार को देखकर मेरा उत्साह बढ़ाने के लिये जो-जो बातें कहा करते थे, कानों को सुख पहुँचाने वाली उन बातों को अब मैं किसके मुख से सुनूँगा’॥
एवमुक्त्वाथ भरतं भार्यामभ्येत्य राघवः।
उवाच शोकसंतप्तः पूर्णचन्द्रनिभाननाम्॥१४॥
भरत से ऐसा कहकर शोकसंतप्त श्रीरामचन्द्रजी पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली अपनी पत्नी के पास आकर बोले- ॥१४॥
सीते मृतस्ते श्वशुरः पितृहीनोऽसि लक्ष्मण।
भरतो दःखमाचष्टे स्वर्गतिं पृथिवीपतेः॥१५॥
‘सीते! तुम्हारे श्वशुर चल बसे। लक्ष्मण! तुम पितृहीन हो गये। भरत पृथ्वीपति महाराज दशरथ के स्वर्गवास का दुःखदायी समाचार सुना रहे हैं’॥ १५ ॥
ततो बहुगुणं तेषां बाष्पं नेत्रेष्वजायत।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे कुमाराणां यशस्विनाम्॥ १६॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर उन सभी यशस्वी कुमारों के नेत्रों में बहुत अधिक आँसू उमड़ आये॥१६॥
ततस्ते भ्रातरः सर्वे भृशमाश्वास्य दुःखितम्।
अब्रुवञ्जगतीभर्तुः क्रियतामुदकं पितुः ॥१७॥
तदनन्तर सभी भाइयों ने दुःखी हुए श्रीरामचन्द्रजी को सान्त्वना देते हुए कहा—’भैया! अब पृथ्वीपति पिताजी के लिये जलाञ्जलि दान कीजिये’ ॥ १७ ॥
सा सीता स्वर्गतं श्रुत्वा श्वशुरं तं महानृपम्।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां न शशाकेक्षितुं प्रियम्॥ १८॥
अपने श्वशुर महाराज दशरथ के स्वर्गवास का समाचार सुनकर सीता के नेत्रों में आँसू भर आये। वे अपने प्रियतम श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख न सकीं। १८॥
सान्त्वयित्वा तु तां रामो रुदतीं जनकात्मजाम्।
उवाच लक्ष्मणं तत्र दुःखितो दुःखितं वचः॥ १९॥
तदनन्तर रोती हुई जनककुमारी को सान्त्वना देकर दुःखमग्न श्रीराम ने अत्यन्त दुःखी हुए लक्ष्मण से कहा॥
आनयेङ्गुदिपिण्याकं चीरमाहर चोत्तरम्।
जलक्रियार्थं तातस्य गमिष्यामि महात्मनः॥२०॥
‘भाई! तुम इङ्गदी का पिसा हुआ फल और चीर एवं उत्तरीय ले आओ। मैं महात्मा पिता को जलदान देने के लिये चलूँगा।।२०॥
सीता पुरस्ताद् व्रजतु त्वमेनामभितो व्रज।
अहं पश्चाद् गमिष्यामि गतिञ्जूषा सुदारुणा॥ २१॥
‘सीता आगे-आगे चलें। इनके पीछे तुम चलो और तुम्हारे पीछे मैं चलूँगा। शोक के समय की यही परिपाटी है, जो अत्यन्त दारुण होती है’ ॥२१॥
ततो नित्यानुगस्तेषां विदितात्मा महामतिः।
मृदुर्दान्तश्च कान्तश्च रामे च दृढभक्तिमान्॥ २२॥
सुमन्त्रस्तैर्नृपसुतैः सार्धमाश्वास्य राघवम्।
अवतारयदालम्ब्य नदीं मन्दाकिनीं शिवाम्॥ २३॥
तत्पश्चात् उनके कुल के परम्परागत सेवक, आत्मज्ञानी, परम बुद्धिमान्, कोमल स्वभाव वाले, जितेन्द्रिय, तेजस्वी और श्रीराम के सुदृढ़ भक्त सुमन्त्र समस्त राजकुमारों के साथ श्रीराम को धैर्य बँधाकर उन्हें हाथ का सहारा दे कल्याणमयी मन्दाकिनी के तट पर ले गये। २२-२३॥
ते सुतीर्थां ततः कृच्छ्रादुपगम्य यशस्विनः।
नदीं मन्दाकिनी रम्यां सदा पुष्पितकाननाम्॥ २४॥
शीघ्रस्रोतसमासाद्य तीर्थं शिवमकर्दमम्।
सिषिचुस्तूदकं राज्ञे तत एतद् भवत्विति ॥२५॥
वे यशस्वी राजकुमार सदा पुष्पित कानन से सुशोभित, शीघ्र गति से प्रवाहित होने वाली और उत्तम घाटवाली रमणीय नदी मन्दाकिनी के तट पर कठिनाई से पहुँचे तथा उसके पङ्करहित, कल्याणप्रद, तीर्थभूत जल को लेकर उन्होंने राजा के लिये जल दिया। उस समय वे बोले—’पिताजी! यह जल आपकी सेवा में उपस्थित हो’।
प्रगृह्य तु महीपालो जलापूरितमञ्जलिम्।
दिशं याम्यामभिमुखो रुदन् वचनमब्रवीत्॥ २६॥
एतत् ते राजशार्दूल विमलं तोयमक्षयम्।
पितृलोकगतस्याद्य मद्दत्तमुपतिष्ठतु ॥२७॥
पृथ्वीपालक श्रीराम ने जल से भरी हुई अञ्जलि ले दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके रोते हुए इस प्रकार कहा—’मेरे पूज्य पिता राजशिरोमणि महाराज दशरथ! आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल पितृलोक में गये हुए आपको अक्षय रूप से प्राप्त हो’॥ २६-२७॥
ततो मन्दाकिनीतीरं प्रत्युत्तीर्य स राघवः।
पितुश्चकार तेजस्वी निर्वापं भ्रातृभिः सह॥ २८॥
इसके बाद मन्दाकिनीके जल से निकलकर किनारे पर आकर तेजस्वी श्रीरघुनाथजी ने अपने भाइयों के साथ मिलकर पिताके लिये पिण्डदान किया॥२८॥
ऐङ्गदं बदरैर्मिश्रं पिण्याकं दर्भसंस्तरे।
न्यस्य रामः सुदुःखा? रुदन् वचनमब्रवीत्॥ २९॥
उन्होंने इङ्गदी के गूदे में बेर मिलाकर उसका पिण्ड तैयार किया और बिछे हुए कुशों पर उसे रखकर अत्यन्त दुःख से आर्त हो रोते हुए यह बात कही— ॥ २९॥
इदं भुक्ष्व महाराज प्रीतो यदशना वयम्।
यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः॥ ३०॥
‘महाराज! प्रसन्नतापूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिये; क्योंकि आजकल यही हम लोगों का आहार है। मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है, वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं’॥ ३०॥
ततस्तेनैव मार्गेण प्रत्युत्तीर्य सरित्तटात्।
आरुरोह नरव्याघ्रो रम्यसानुं महीधरम्॥३१॥
ततः पर्णकुटीद्वारमासाद्य जगतीपतिः।
परिजग्राह पाणिभ्यामुभौ भरतलक्ष्मणौ ॥३२॥
इसके बाद उसी मार्ग से मन्दाकिनी तट के ऊपर आकर पृथ्वीपालक पुरुषसिंह श्रीराम सुन्दर शिखर वाले चित्रकूट पर्वत पर चढ़े और पर्णकुटी के द्वार पर आकर भरत और लक्ष्मण दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर रोने लगे॥ ३१-३२ ॥
तेषां तु रुदतां शब्दात् प्रतिशब्दोऽभवद् गिरौ।
भ्रातॄणां सह वैदेह्या सिंहानां नर्दतामिव॥३३॥
सीतासहित रोते हुए उन चारों भाइयों के रुदन शब्द से उस पर्वत पर गरजते हुए सिंहों के दहाड़ने के समान प्रतिध्वनि होने लगी।॥ ३३॥
महाबलानां रुदतां कुर्वतामुदकं पितुः।
विज्ञाय तुमुलं शब्दं त्रस्ता भरतसैनिकाः॥३४॥
अब्रुवंश्चापि रामेण भरतः संगतो ध्रुवम्।
तेषामेव महान् शब्दः शोचतां पितरं मृतम्॥ ३५॥
पिताको जलाञ्जलि देकर रोते हुए उन महाबली भाइयों के रोदन का तुमुल नाद सुनकर भरत के सैनिक किसी भय की आशङ्का से डर गये। फिर उसे पहचानकर वे एक-दूसरे से बोले—’निश्चय ही भरत श्रीरामचन्द्रजी से मिले हैं। अपने परलोकवासी पिता के लिये शोक करने वाले उन चारों भाइयों के रोने का ही यह महान् शब्द है’ ॥ ३४-३५ ॥
अथ वाहान् परित्यज्य तं सर्वेऽभिमुखाः स्वनम्।
अप्येकमनसो जग्मुर्यथास्थानं प्रधाविताः॥ ३६॥
यों कहकर उन सबने अपनी सवारियों को तो वहीं छोड़ दिया और जिस स्थान से वह आवाज आ रही थी, उसी ओर मुँह किये एकचित्त होकर वे दौड़ पड़े॥
हयैरन्ये गजैरन्ये रथैरन्ये स्वलंकृतैः।
सुकुमारास्तथैवान्ये पद्भिरेव नरा ययुः ॥ ३७॥
उनसे भिन्न जो सुकुमार मनुष्य थे, उनमें से कुछ लोग घोड़ों से, कुछ हाथियों से और कुछ सजे-सजाये रथों से ही आगे बढ़े। कितने ही मनुष्य पैदल ही चल दिये॥ ३७॥
अचिरप्रोषितं रामं चिरविप्रोषितं यथा।
द्रष्टकामो जनः सर्वो जगाम सहसाश्रमम्॥३८॥
यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी को परदेश में आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे, तथापि लोगों को ऐसा जान पड़ता था कि मानो वे दीर्घकाल से परदेश में रह रहे हैं; अतः सब लोग उनके दर्शन की इच्छा से सहसा आश्रम की ओर चल दिये॥ ३८॥
भ्रातृणां त्वरितास्ते तु द्रष्टुकामाः समागमम्।
ययुर्बहुविधैर्यानैः खुरनेमिसमाकुलैः॥३९॥
वे लोग चारों भाइयों का मिलन देखने की इच्छा से खुरों एवं पहियों से युक्त नाना प्रकार की सवारियों द्वारा बड़ी उतावली के साथ चले ॥ ३९॥
सा भूमिर्बहुभिर्यानै रथनेमिसमाहता।
मुमोच तुमुलं शब्दं द्यौरिवाभ्रसमागमे॥४०॥
अनेक प्रकार की सवारियों तथा रथ की पहियों से आक्रान्त हुई वह भूमि भयंकर शब्द करने लगी; ठीक उसी तरह जैसे मेघों की घटा घिर आने पर आकाश में गड़गड़ाहट होने लगती है॥ ४० ॥
तेन वित्रासिता नागाः करेणुपरिवारिताः।
आवासयन्तो गन्धेन जग्मुरन्यदनं ततः॥४१॥
उस तुमुल नाद से भयभीत हुए हाथी हथिनियों से घिरकर मद की गन्ध से उस स्थान को सुवासित करते हुए वहाँ से दूसरे वन में भाग गये। ४१॥
वराहवृकसिंहाश्च महिषाः सृमरास्तथा।
व्याघ्रगोकर्णगवया वित्रेसुः पृषतैः सह ॥४२॥
वराह, भेड़िये, सिंह, भैंसे, सृमर (मृगविशेष), व्याघ्र, गोकर्ण (मृगविशेष) और गवय (नीलगाय), चितकबरे हरिणों सहित संत्रस्त हो उठे॥ ४२ ॥
रथाह्वहंसानत्यूहाः प्लवाः कारण्डवाः परे।
तथा पुंस्कोकिलाः क्रौञ्चा विसंज्ञा भेजिरे दिशः॥४३॥
चक्रवाक, हंस, जलकुक्कुट, वक, कारण्डव, नरकोकिल और क्रौञ्च पक्षी होश-हवाश खोकर विभिन्न दिशाओं में उड़ गये॥ ४३॥
तेन शब्देन वित्रस्तैराकाशं पक्षिभिर्वृतम्।
मनुष्यैरावृता भूमिरुभयं प्रबभौ तदा॥४४॥
उस शब्द से डरे हुए पक्षी आकाश में छा गये और नीचे की भूमि मनुष्यों से भर गयी। इस प्रकार उन दोनों की समानरूप से शोभा होने लगी॥४४॥
ततस्तं पुरुषव्याघ्रं यशस्विनमकल्मषम्।
आसीनं स्थण्डिले रामं ददर्श सहसा जनः॥ ४५॥
लोगों ने सहसा पहुँचकर देखा—यशस्वी, पापरहित, पुरुषसिंह श्रीराम वेदी पर बैठे हैं॥ ४५ ॥
विगर्हमाणः कैकेयीं मन्थरासहितामपि।
अभिगम्य जनो रामं बाष्पपूर्णमुखोऽभवत्॥ ४६॥
श्रीराम के पास जाने पर सबके मुख आँसुओं से भीग गये और सब लोग मन्थरासहित कैकेयी की निन्दा करने लगे॥ ४६॥
तान् नरान् बाष्पपूर्णाक्षान् समीक्ष्याथ सुदुःखितान्।
पर्यष्वजत धर्मज्ञः पितृवन्मातृवच्च सः॥४७॥
उन सब लोगों के नेत्र आँसुओं से भरे हुए थे और वे सब-के-सब अत्यन्त दुःखी हो रहे थे। धर्मज्ञ श्रीराम ने उन्हें देखकर पिता-माताकी भाँति हृदय से लगाया।
स तत्र कांश्चित् परिषस्वजे नरान् नराश्च केचित्तु तमभ्यवादयन्।
चकार सर्वान् सवयस्यबान्धवान् यथार्हमासाद्य तदा नृपात्मजः॥४८॥
श्रीराम ने कुछ मनुष्यों को वहाँ छाती से लगाया तथा कुछ लोगों ने पहुँचकर वहाँ उनके चरणों में प्रणाम किया। राजकुमार श्रीराम ने उस समय वहाँ आये हुए सभी मित्रों और बन्धु-बान्धवों का यथायोग्य सम्मान किया॥४८॥
ततः स तेषां रुदतां महात्मनां भुवं च खं चानुविनादयन् स्वनः।
गुहा गिरीणां च दिशश्च संततं मृदङ्गघोषप्रतिमो विशुश्रुवे॥४९॥
उस समय वहाँ रोते हुए उन महात्माओं का वह रोदन-शब्द पृथ्वी, आकाश, पर्वतों की गुफा और सम्पूर्ण दिशाओं को निरन्तर प्रतिध्वनित करता हुआ मृदङ्गकी ध्वनि के समान सुनायी पड़ता था॥ ४९॥
सर्ग १०४
वसिष्ठः पुरतः कृत्वा दारान् दशरथस्य च।
अभिचक्राम तं देशं रामदर्शनतर्षितः॥१॥
महर्षि वसिष्ठजी महाराज दशरथ की रानियों को आगे करके श्रीरामचन्द्रजी को देखने की अभिलाषा लिये उस स्थान की ओर चले, जहाँ उनका आश्रम था॥ १॥
राजपत्न्यश्च गच्छन्त्यो मन्दं मन्दाकिनी प्रति।
ददृशुस्तत्र तत् तीर्थं रामलक्ष्मणसेवितम्॥२॥
राजरानियाँ मन्द गति से चलती हुई जब मन्दाकिनी के तट पर पहुँची, तब उन्होंने वहाँ श्रीराम और लक्ष्मण के स्नान करने का घाट देखा॥२॥
कौसल्या बाष्पपूर्णेन मुखेन परिशुष्यता।
सुमित्रामब्रवीद् दीनां याश्चान्या राजयोषितः॥
इस समय कौसल्या के मुँह पर आँसुओं की धारा बह चली। उन्होंने सूखे एवं उदास मुख से दीन सुमित्रा तथा अन्य राजरानियों से कहा- ॥३॥
इदं तेषामनाथानां क्लिष्टमक्लिष्टकर्मणाम्।
वने प्राक्कलनं तीर्थं ये ते निर्विषयीकृताः॥४॥
‘जो राज्य से निकाल दिये गये हैं तथा जो दूसरों को क्लेश न देने वाले कार्य ही करते हैं, उन मेरे अनाथ बच्चों का यह वन में दुर्गम तीर्थ है, जिसे इन्होंने पहले पहल स्वीकार किया है॥४॥
इतः सुमित्रे पुत्रस्ते सदा जलमतन्द्रितः।
स्वयं हरति सौमित्रिर्मम पुत्रस्य कारणात्॥५॥
‘सुमित्रे! आलस्यरहित तुम्हारे पुत्र लक्ष्मण स्वयं आकर सदा यहीं से मेरे पुत्र के लिये जल ले जाया करते हैं॥ ५॥
जघन्यमपि ते पुत्रः कृतवान् न तु गर्हितः।
भ्रातुर्यदर्थरहितं सर्वं तद् गर्हितं गुणैः॥६॥
‘यद्यपि तुम्हारे पुत्र ने छोटे-से-छोटा सेवा-कार्य भी स्वीकार किया है, तथापि इससे वे निन्दित नहीं हुए हैं; क्योंकि सद्गुणों से युक्त ज्येष्ठ भाई के प्रयोजन से रहित जो कार्य होते हैं, वे ही सब निन्दित माने गये हैं॥ ६॥
अद्यायमपि ते पुत्रः क्लेशानामतथोचितः।
नीचानर्थसमाचारं सज्जं कर्म प्रमुञ्चतु॥७॥
‘तुम्हारा यह पुत्र भी उन क्लेशों के योग्य नहीं है, जिन्हें आजकल वह सहन करता है। अब श्रीराम लौट चलें और निम्न श्रेणी के पुरुषों के योग्य जो दुःखजनक कार्य उसके सामने प्रस्तुत है, उसे वह छोड़ दे—उसे करने का अवसर ही उसके लिये न रह जाय’॥ ७॥
दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु सा दर्दश महीतले।
पितुरिङ्गदिपिण्याकं न्यस्तमायतलोचना॥८॥
आगे जाकर विशाललोचना कौसल्या ने देखा कि श्रीराम ने पृथ्वी पर बिछे हुए दक्षिणाग्र कुशों के ऊपर अपने पिता के लिये पिसे हुए इङ्गदी के फल का पिण्ड रख छोड़ा है॥ ८॥
तं भूमौ पितुरार्तेन न्यस्तं रामेण वीक्ष्य सा।
उवाच देवी कौसल्या सर्वा दशरथस्त्रियः॥९॥
दुःखी राम के द्वारा पिता के लिये भूमि पर रखे हुए उस पिण्ड को देखकर देवी कौसल्या ने दशरथ की सब रानियों से कहा- ॥९॥
इदमिक्ष्वाकुनाथस्य राघवस्य महात्मनः।
राघवेण पितुर्दत्तं पश्यतैतद् यथाविधि॥१०॥
‘बहनो! देखो, श्रीराम ने इक्ष्वाकुकुल के स्वामी रघुकुलभूषण महात्मा पिता के लिये यह विधिपूर्वक पिण्डदान किया है॥१०॥
तस्य देवसमानस्य पार्थिवस्य महात्मनः।
नैतदौपयिकं मन्ये भुक्तभोगस्य भोजनम्॥११॥
‘देवता के समान तेजस्वी वे महामना भूपाल नाना प्रकार के उत्तम भोग भोग चुके हैं। उनके लिये यह भोजन मैं उचित नहीं मानती॥ ११ ॥
चतुरन्तां महीं भुक्त्वा महेन्द्रसदृशो भुवि।
कथमिङ्गदिपिण्याकं स भुङ्क्ते वसुधाधिपः॥ १२॥
‘जो चारों समुद्रों तक की पृथ्वी का राज्य भोगकर भूतल पर देवराज इन्द्र के समान प्रतापी थे, वे भूपाल महाराज दशरथ पिसे हुए इङ्गुदी-फल का पिण्ड कैसे खा रहे होंगे? ॥ १२॥
अतो दुःखतरं लोके न किंचित् प्रतिभाति मे।
यत्र रामः पितुर्दद्यादिङ्गदीक्षोदमृद्धिमान्॥१३॥
‘संसार में इससे बढ़कर महान् दुःख मुझे और कोई नहीं प्रतीत होता है, जिसके अधीन होकर श्रीराम समृद्धिशाली होते हुए भी अपने पिता को इङ्गुदी के पिसे हुए फल का पिण्ड दें॥ १३॥
रामेणेङ्गदिपिण्याकं पितुर्दत्तं समीक्ष्य मे।
कथं दुःखेन हृदयं न स्फोटति सहस्रधा॥१४॥
‘श्रीराम ने अपने पिता को इङ्गुदी का पिण्याक (पिसा हुआ फल) प्रदान किया है—यह देखकर दुःख से मेरे हृदय के सहस्रों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते हैं ? ॥ १४॥
श्रुतिस्तु खल्वियं सत्या लौकिकी प्रतिभाति मे।
यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः॥
‘यह लौकिकी श्रुति (लोकविख्यात कहावत)निश्चय ही मुझे सत्य प्रतीत हो रही है कि मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है, उसके देवता भी उसी अन्न को ग्रहण करते हैं’।
एवमा सपत्न्यस्ता जग्मुराश्वास्य तां तदा।
ददृशुश्चाश्रमे रामं स्वर्गच्युतमिवामरम्॥१६॥
इस प्रकार शोक से आर्त हुई कौसल्या को उस समय उनकी सौतें समझा-बुझाकर उन्हें आगे ले गयीं। आश्रम पर पहुँचकर उन सबने श्रीराम को देखा, जो स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान जान पड़ते थे॥ १६॥
तं भोगैः सम्परित्यक्तं रामं सम्प्रेक्ष्य मातरः।
आर्ता मुमुचुरश्रूणि सस्वरं शोककर्शिताः॥१७॥
भोगों का परित्याग करके तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले श्रीराम को देखकर उनकी माताएँ शोक से कातर हो गयी और आर्तभाव से फूट-फूटकर रोती हुई आँसू बहाने लगीं॥ १७॥
तासां रामः समुत्थाय जग्राह चरणाम्बुजान्।
मातृणां मनुजव्याघ्रः सर्वासां सत्यसंगरः॥१८॥
सत्यप्रतिज्ञ नरश्रेष्ठ श्रीराम माताओं को देखते ही उठकर खड़े हो गये और बारी-बारी से उन सबके चरणारविन्दों का स्पर्श किया।॥ १८॥
ताः पाणिभिः सुखस्पर्शेर्मुद्रङ्गलितलैः शुभैः।
प्रममा रजः पृष्ठाद् रामस्यायतलोचनाः॥१९॥
विशाल नेत्रों वाली माताएँ स्नेहवश जिनकी अंगुलियाँ कोमल और स्पर्श सुखद था, उन सुन्दर हाथों से श्रीराम की पीठ से धूल पोंछने लगीं॥ १९ ॥
सौमित्रिरपि ताः सर्वा मातृः सम्प्रेक्ष्य दुःखितः।
अभ्यवादयदासक्तं शनै रामादनन्तरम्॥२०॥
श्रीराम के बाद लक्ष्मण भी उन सभी दुःखिया माताओं को देखकर दुःखी हो गये और उन्होंने स्नेहपूर्वक धीरे-धीरे उनके चरणों में प्रणाम किया। २०॥
यथा रामे तथा तस्मिन् सर्वा ववृतिरे स्त्रियः।
वृत्तिं दशरथाज्जाते लक्ष्मणे शुभलक्षणे॥२१॥
उन सब माताओं ने श्रीराम के साथ जैसा बर्ताव किया था, वैसे ही उत्तम लक्षणों से युक्त दशरथनन्दन लक्ष्मण के साथ भी किया॥ २१॥
सीतापि चरणांस्तासामुपसंगृह्य दुःखिता।
श्वश्रूणामश्रुपूर्णाक्षी सम्बभूवाग्रतः स्थिता॥ २२॥
तदनन्तर आँसूभरे नेत्रोंवाली दुःखिनी सीता भी सभी सासुओं के चरणों में प्रणाम करके उनके आगे खड़ी हो गयी॥ २२॥
तां परिष्वज्य दुःखार्ता माता दुहितरं यथा।
वनवासकृतां दीनां कौसल्या वाक्यमब्रतीत्॥ २३॥
तब दुःख से पीड़ित हई कौसल्या ने जैसे माता अपनी बेटी को हृदय से लगा लेती है, उसी प्रकार वनवास के कारण दीन (दुर्बल) हुई सीता को छाती से चिपका लिया और इस प्रकार कहा- ॥ २३ ॥
वैदेहराजन्यसुता स्नुषा दशरथस्य च।
रामपत्नी कथं दुःखं सम्प्राप्ता विजने वने ॥ २४॥
‘विदेहराज जनक की पुत्री, राजा दशरथ की पुत्रवधू तथा श्रीराम की पत्नी इस निर्जन वन में क्यों दुःख भोग रही है ? ॥ २४॥
पद्ममातपसंतप्तं परिक्लिष्टमिवोत्पलम्।
काञ्चनं रजसा ध्वस्तं क्लिष्टं चन्द्रमिवाम्बुदैः॥ २५॥
‘बेटी! तुम्हारा मुख धूप से तपे हुए कमल, कुचले हुए उत्पल, धूल से ध्वस्त हुए सुवर्ण और बादलों से ढके हुए चन्द्रमा की भाँति श्रीहीन हो रहा है।॥ २५ ॥
मुखं ते प्रेक्ष्य मां शोको दहत्यग्निरिवाश्रयम्।
भृशं मनसि वैदेहि व्यसनारणिसम्भवः॥२६॥
‘विदेहनन्दिनि! जैसे आग अपने उत्पत्ति स्थान काष्ठ को दग्ध कर देती है, उसी प्रकार तुम्हारे इस मुख को देखकर मेरे मन में संकटरूपी अरणि से उत्पन्न हुआ यह शोकानल मुझे जलाये देता है’। २६॥
ब्रुवन्त्यामेवमार्तायां जनन्यां भरताग्रजः।
पादावासाद्य जग्राह वसिष्ठस्य च राघवः॥२७॥
शोकाकुल हुई माता जब इस प्रकार विलाप कर रही थी, उसी समय भरत के बड़े भाई श्रीराम ने वसिष्ठजी के चरणों में पड़कर उन्हें दोनों हाथों से पकड़ लिया॥ २७॥
पुरोहितस्याग्निसमस्य तस्य वै बृहस्पतेरिन्द्र इवामराधिपः।
प्रगृह्य पादौ सुसमृद्धतेजसः सहैव तेनोपविवेश राघवः ॥ २८॥
जैसे देवराज इन्द्र बृहस्पति के चरणों का स्पर्श करते हैं, उसी प्रकार अग्नि के समान बढ़े हुए तेजवाले पुरोहित वसिष्ठजी के दोनों पैर पकड़कर श्रीरामचन्द्रजी उनके साथ ही पृथ्वीपर बैठ गये॥ २८॥
ततो जघन्यं सहितैः स्वमन्त्रिभिः पुरप्रधानैश्च तथैव सैनिकैः।
जनेन धर्मज्ञतमेन धर्मवानुपोपविष्टो भरतस्तदाग्रजम्॥२९॥
तदनन्तर धर्मात्मा भरत एक साथ आये हुए अपने सभी मन्त्रियों, प्रधान-प्रधान पुरवासियों, सैनिकों तथा परम धर्मज्ञ पुरुषों के साथ अपने बड़े भाई के पास उनके पीछे जा बैठे ॥ २९॥
उपोपविष्टस्तु तदातिवीर्यवांस्तपस्विवेषेण समीक्ष्य राघवम्।
श्रिया ज्वलन्तं भरतः कृताञ्जलिर्यथा महेन्द्रः प्रयतः प्रजापतिम्॥३०॥
उस समय श्रीराम के आसन के समीप बैठे हुए अत्यन्त पराक्रमी भरत ने दिव्य दीप्ति से प्रकाशित होने वाले श्रीरघुनाथजी को तपस्वी के वेश में देखकर उनके प्रति उसी प्रकार हाथ जोड़ लिये जैसे देवराज इन्द्र प्रजापति ब्रह्माके समक्ष विनीतभाव से हाथ जोड़ते हैं।॥ ३०॥
किमेष वाक्यं भरतोऽद्य राघवं प्रणम्य सत्कृत्य च साधु वक्ष्यति।
इतीव तस्यार्यजनस्य तत्त्वतो बभूव कौतूहलमुत्तमं तदा॥३१॥
उस समय वहाँ बैठे हुए श्रेष्ठ पुरुषों के हृदय में यथार्थ रूप से यह उत्तम कौतूहल-सा जाग उठा कि देखें ये भरतजी श्रीरामचन्द्रजी को सत्कारपूर्वक प्रणाम करके आज उत्तम रीति से उनके समक्ष क्या कहते हैं? ॥ ३१॥
स राघवः सत्यधृतिश्च लक्ष्मणो महानुभावो भरतश्च धार्मिकः।
वृताः सुहृद्भिश्च विरेजिरेऽध्वरे यथा सदस्यैः सहितास्त्रयोऽग्नयः॥३२॥
वे सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम, महानुभाव लक्ष्मण तथा धर्मात्मा भरत—ये तीनों भाई अपने सुहृदों से घिरकर यज्ञशाला में सदस्यों द्वारा घिरे हुए त्रिविध अग्नियों के समान शोभा पा रहे थे॥ ३२॥
सर्ग १०५
ततः पुरुषसिंहानां वृतानां तैः सुहृद्गणैः।
शोचतामेव रजनी दुःखेन व्यत्यवर्तत॥१॥
रजन्यां सुप्रभातायां भ्रातरस्ते सुहृवृताः।
मन्दाकिन्यां हुतं जप्यं कृत्वा राममुपागमन्॥२॥
अपने सुहृदों से घिरकर बैठे हुए पुरुषसिंह श्रीराम आदि भाइयों की वह रात्रि पिताकी मृत्यु के दुःख से शोक करते हुए ही व्यतीत हुई। सबेरा होने पर भरत आदि तीनों भाई सुहृदों के साथ ही मन्दाकिनी के तटपर गये और स्नान, होम एवं जप आदि करके पुनः श्रीराम के पास लौट आये॥ १-२ ॥
तूष्णीं ते समुपासीना न कश्चित् किंचिदब्रवीत्।
भरतस्तु सुहृन्मध्ये रामं वचनमब्रवीत्॥३॥
वहाँ आकर सभी चुपचाप बैठ गये। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। तब सुहृदों के बीच में बैठे हुए भरत ने श्रीराम से इस प्रकार कहा— ॥३॥
सान्त्विता मामिका माता दत्तं राज्यमिदं मम।
तद् ददामि तवैवाहं भुक्ष्व राज्यमकण्टकम्॥ ४॥
‘भैया ! पिताजीने वरदान देकर मेरी माता को संतुष्ट कर दिया और माता ने यह राज्य मुझे दे दिया। अब मैं अपनी ओर से यह अकण्टक राज्य आपकी ही सेवा में समर्पित करता हूँ। आप इसका पालन एवं उपभोग कीजिये॥४॥
महतेवाम्बुवेगेन भिन्नः सेतुर्जलागमे।
दुरावरं त्वदन्येन राज्यखण्डमिदं महत्॥५॥
‘वर्षाकाल में जल के महान् वेग से टूटे हुए सेतु की भाँति इस विशाल राज्यखण्ड को सँभालना आपके सिवा दूसरे के लिये अत्यन्त कठिन है॥ ५॥
गतिं खर इवाश्वस्य तार्क्ष्यस्येव पतत्त्रिणः।
अनुगन्तुं न शक्तिर्मे गतिं तव महीपते॥६॥
‘पृथ्वीनाथ! जैसे गदहा घोड़े की और अन्य साधारण पक्षी गरुड़ की चाल नहीं चल सकते, उसी प्रकार मुझमें आपकी गतिका—आपकी पालनपद्धति का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है॥६॥
सुजीवं नित्यशस्तस्य यः परैरुपजीव्यते।
राम तेन तु दुर्जीवं यः परानुपजीवति॥७॥
‘श्रीराम ! जिसके पास आकर दूसरे लोग जीवननिर्वाह करते हैं, उसीका जीवन उत्तम है और जो दूसरों का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करता है, उसका जीवन दुःखमय है (अतः आपके लिये राज्य करना ही उचित है)॥७॥
यथा तु रोपितो वृक्षः पुरुषेण विवर्धितः।
ह्रस्वकेन दुरारोहो रूढस्कन्धो महाद्रुमः॥८॥
स यदा पुष्पितो भूत्वा फलानि न विदर्शयेत्।
स तां नानुभवेत् प्रीतिं यस्य हेतोः प्ररोपितः॥९॥
एषोपमा महाबाहो तदर्थं वेत्तुमर्हसि।
यत्र त्वमस्मान् वृषभो भर्ता भृत्यान् न शाधि हि॥ १०॥
‘जैसे फल की इच्छा रखने वाले किसी पुरुष ने एक वृक्ष लगाया, उसे पाल-पोसकर बड़ा किया; फिर उसके तने मोटे हो गये और वह ऐसा विशाल वृक्ष हो गया कि किसी नाटे कद के पुरुष के लिये उस पर चढ़ना अत्यन्त कठिन था। उस वृक्ष में जब फूल लग जायँ, उसके बाद भी यदि वह फल न दिखा सके तो जिसके लिये उस वृक्ष को लगाया गया था, वह उद्देश्य पूरा न हो सका। ऐसी स्थिति में उसे लगाने वाला पुरुष उस प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता, जो फल की प्राप्ति होने से सम्भावित थी। महाबाहो ! यह एक उपमा है, इसका अर्थ आप स्वयं समझ लें (अर्थात् पिताजी ने आप-जैसे सर्वसद्गुण सम्पन्न पुत्र को लोकरक्षा के लिये उत्पन्न किया था। यदि आपने राज्यपालन का भार अपने हाथ में नहीं लिया तो उनका वह उद्देश्य व्यर्थ हो जायगा)। इस राज्यपालन के अवसर पर आप श्रेष्ठ एवं भरण-पोषण में समर्थ होकर भी यदि हम भृत्यों का शासन नहीं करेंगे तो पूर्वोक्त उपमा ही आपके लिये लागू होगी॥ ८–१०॥
श्रेणयस्त्वां महाराज पश्यन्त्वय्याश्च सर्वशः।
प्रतपन्तमिवादित्यं राज्यस्थितमरिंदमम्॥११॥
‘महाराज! विभिन्न जातियों के सङ्घ और प्रधानप्रधान पुरुष आप शत्रुदमन नरेश को सब ओर तपते हुए सूर्य की भाँति राज्यसिंहासन पर विराजमान देखें। ११॥
तथानुयाने काकुत्स्थ मत्ता नर्दन्तु कुञ्जराः।
अन्तःपुरगता नार्यो नन्दन्तु सुसमाहिताः॥१२॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण! इस प्रकार आपके अयोध्या को लौटते समय मतवाले हाथी गर्जना करें और अन्तःपुर की स्त्रियाँ एकाग्रचित्त होकर प्रसन्नतापूर्वक आपका अभिनन्दन करें’॥ १२ ॥
तस्य साध्वनुमन्यन्त नागरा विविधा जनाः।
भरतस्य वचः श्रुत्वा रामं प्रत्यनुयाचतः॥१३॥
इस प्रकार श्रीराम से राज्य-ग्रहण के लिये प्रार्थना करते हुए भरतजी की बात सुनकर नगर के भिन्न-भिन्न मनुष्यों ने उसका भलीभाँति अनुमोदन किया॥१३॥
तमेवं दुःखितं प्रेक्ष्य विलपन्तं यशस्विनम्।
रामः कृतात्मा भरतं समाश्वासयदात्मवान्॥ १४॥
तब शिक्षित बुद्धिवाले अत्यन्त धीर भगवान् श्रीरामने यशस्वी भरत को इस तरह दुःखी हो विलाप करते देख उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ॥१४॥
नात्मनः कामकारो हि पुरुषोऽयमनीश्वरः।
इतश्चेतरतश्चैनं कृतान्तः परिकर्षति ॥ १५॥
‘भाई! यह जीव ईश्वर के समान स्वतन्त्र नहीं है, अतः कोई यहाँ अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकता। काल इस पुरुष को इधर-उधर खींचता रहता है॥१५॥
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्॥ १६॥
‘समस्त संग्रहों का अन्त विनाश है। लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है। संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है ॥ १६ ॥
यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद् भयम्।
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद् भयम्॥ १७॥
‘जैसे पके हुए फलों को पतन के सिवा और किसी से भय नहीं है, उसी प्रकार उत्पन्न हुए मनुष्यों को मृत्यु के सिवा और किसी से भय नहीं है। १७॥
यथाऽऽगारं दृढस्थूणं जीर्णं भूत्वोपसीदति।
तथावसीदन्ति नरा जरामृत्युवशंगताः॥१८॥
‘जैसे सुदृढ़ खम्भेवाला मकान भी पुराना होने पर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जरा और मृत्यु के वश में पड़कर नष्ट हो जाते हैं॥ १८ ॥
अत्येति रजनी या तु सा न प्रतिनिवर्तते।
यात्येव यमुना पूर्ण समुद्रमुदकार्णवम्॥१९॥
‘जो रात बीत जाती है, वह लौटकर फिर नहीं आती है। जैसे यमुना जल से भरे हुए समुद्र की ओर जाती ही है, उधर से लौटती नहीं॥ १९ ॥
अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषां प्राणिनामिह।
आयूंषि क्षपयन्त्याशु ग्रीष्मे जलमिवांशवः॥ २०॥
‘दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और इस संसार में सभी प्राणियों की आयुका तीव्र गति से नाश कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म-ऋतु में जल को शीघ्रतापूर्वक सोखती रहती हैं॥ २० ॥
आत्मानमनुशोच त्वं किमन्यमनुशोचसि।
आयुस्तु हीयते यस्य स्थितस्यास्य गतस्य च॥ २१॥
‘तुम अपने ही लिये चिन्ता करो, दूसरे के लिये क्यों बार-बार शोक करते हो। कोई इस लोक में स्थित हो या अन्यत्र गया हो, जिस किसीकी भी आयु तो निरन्तर क्षीण ही हो रही है॥ २१॥
सहैव मृत्युव्रजति सह मृत्युर्निषीदति।
गत्वा सुदीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते॥२२॥
‘मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और बहुत बड़े मार्ग की यात्रा में भी साथ ही जाकर वह मनुष्य के साथ ही लौटती है॥ २२॥
गात्रेषु वलयः प्राप्ताः श्वेताश्चैव शिरोरुहाः।
जरया पुरुषो जीर्णः किं हि कृत्वा प्रभावयेत्॥ २३॥
‘शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयीं, सिर के बाल सफेद हो गये। फिर जरावस्था से जीर्ण हुआ मनुष्य कौन-सा उपाय करके मृत्यु से बचने के लिये अपना प्रभाव प्रकट कर सकता है ? ॥ २३॥
नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमितेऽहनि।
आत्मनो नावबुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम्॥ २४॥
‘लोग सूर्योदय होने पर प्रसन्न होते हैं, सूर्यास्त होने पर भी खुश होते हैं; किंतु यह नहीं जानते कि प्रतिदिन अपने जीवन का नाश हो रहा है।॥ २४ ॥
हृष्यन्त्य॒तुमुखं दृष्ट्वा नवं नवमिवागतम्।
ऋतूनां परिवर्तेन प्राणिनां प्राणसंक्षयः॥२५॥
“किसी ऋतु का प्रारम्भ देखकर मानो वह नयी-नयी आयी हो (पहले कभी आयी ही न हो), ऐसा समझकर लोग हर्ष से खिल उठते हैं, परंतु यह नहीं जानते कि इन ऋतुओं के परिवर्तन से प्राणियों के प्राणों का (आयुका) क्रमशः क्षय हो रहा है।॥ २५ ॥
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे।।
समेत्य तु व्यपेयातां कालमासाद्य कंचन॥ २६॥
एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च।
समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवो ह्येषां विनाभवः॥२७॥
‘जैसे महासागर में बहते हुए दो काठ कभी एकदूसरे से मिल जाते हैं और कुछ काल के बाद अलग भी हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब और धन भी मिलकर बिछुड़ जाते हैं; क्योंकि इनका वियोग अवश्यम्भावी है॥ २६-२७॥
नात्र कश्चिद् यथाभावं प्राणी समतिवर्तते।
तेन तस्मिन् न सामर्थ्यं प्रेतस्यास्त्यनुशोचतः॥ २८॥
‘इस संसार में कोई भी प्राणी यथा समय प्राप्त होने वाले जन्म-मरण का उल्लङ्घन नहीं कर सकता। इसलिये जो किसी मरे हुए व्यक्ति के लिये बारंबार शोक करता है, उसमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी ही मृत्यु को टाल सके॥२८॥
यथा हि सार्थं गच्छन्तं ब्रूयात् कश्चित् पथि स्थितः।
अहमप्यागमिष्यामि पृष्ठतो भवतामिति ॥ २९॥
एवं पूर्वैर्गतो मार्गः पितृपैतामहैर्भुवः।
तमापन्नः कथं शोचेद् यस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥ ३०॥
‘जैसे आगे जाते हुए यात्रियों अथवा व्यापारियों के समुदाय से रास्ते में खड़ा हुआ पथिक यों कहे कि मैं भी आप लोगों के पीछे-पीछे आऊँगा और तदनुसार वह उनके पीछे-पीछे जाय, उसी प्रकार हमारे पूर्वज पिता-पितामह आदि जिस मार्गसे गये हैं, जिस पर जाना अनिवार्य है तथा जिससे बचने का कोई उपाय नहीं है, उसी मार्ग पर स्थित हुआ मनुष्य किसी और के लिये शोक कैसे करे? ॥ २९-३० ॥
वयसः पतमानस्य स्रोतसो वानिवर्तिनः।
आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजाः स्मृताः॥३१॥
‘जैसे नदियों का प्रवाह पीछे नहीं लौटता, उसी प्रकार दिन-दिन ढलती हुई अवस्था फिर नहीं लौटती है। उसका क्रमशः नाश हो रहा है, यह सोचकर आत्मा को कल्याण के साधनभूत धर्म में लगावे; क्योंकि सभी लोग अपना कल्याण चाहते हैं॥३१॥
धर्मात्मा सुशुभैः कृत्स्नैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः।
धूतपापो गतः स्वर्गं पिता नः पृथिवीपतिः॥३२॥
‘तात! हमारे पिता धर्मात्मा थे। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणाएँ देकर प्रायः सभी परम शुभकारक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उनके सारे पाप धुल गये थे। अतः वे महाराज स्वर्गलोक में गये हैं। ३२ ॥
भृत्यानां भरणात् सम्यक् प्रजानां परिपालनात्।
अर्थादानाच्च धर्मेण पिता नस्त्रिदिवं गतः॥३३॥
वे भरण-पोषण के योग्य परिजनों का भरण करते थे। प्रजाजनों का भलीभाँति पालन करते थे और प्रजाजनों से धर्म के अनुसार कर आदि के रूप में धन लेते थे—इन सब कारणों से हमारे पिता उत्तम स्वर्गलोक में पधारे हैं।॥ ३३॥
कर्मभिस्तु शुभैरिष्टैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः।
स्वर्गं दशरथः प्राप्तः पिता नः पृथिवीपतिः॥ ३४॥
‘सर्वप्रिय शुभ कर्मों तथा प्रचुर दक्षिणवाले यज्ञों के अनुष्ठानों से हमारे पिता पृथ्वीपति महाराज दशरथ स्वर्गलोक में गये हैं॥३४॥
इष्ट्व बहुविधैर्यज्ञैर्भोगांश्चावाप्य पुष्कलान्।
उत्तमं चायुरासाद्य स्वर्गतः पृथिवीपतिः॥ ३५॥
‘उन्होंने नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यज्ञपुरुष की आराधना की, प्रचुर भोग प्राप्त किये और उत्तम आयु पायी थी, इसके बाद वे महाराज यहाँ से स्वर्गलोक को पधारे हैं।
आयुरुत्तममासाद्य भोगानपि च राघवः।
न स शोच्यः पिता तात स्वर्गतः सत्कृतः सताम्॥ ३६॥
‘तात! अन्य राजाओं की अपेक्षा उत्तम आयु और श्रेष्ठ भोगों को पाकर हमारे पिता सदा सत्पुरुषों के द्वारा सम्मानित हुए हैं; अतः स्वर्गवासी हो जाने पर भी वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ३६॥
स जीर्णमानुषं देहं परित्यज्य पिता हि नः।
दैवीमृद्धिमनुप्राप्तो ब्रह्मलोकविहारिणीम्॥३७॥
‘हमारे पिता ने जराजीर्ण मानव-शरीर का परित्याग करके दैवी सम्पत्ति प्राप्त की है, जो ब्रह्मलोक में विहार कराने वाली है।॥ ३७॥
तं तु नैवंविधः कश्चित् प्राज्ञः शोचितुमर्हसि।
त्वद्विधो मद्विधश्चापि श्रुतवान् बुद्धिमत्तरः॥ ३८॥
‘कोई भी ऐसा विद्वान्, जो तुम्हारे और मेरे समान शास्त्र-ज्ञान-सम्पन्न एवं परम बुद्धिमान् है, पिताजी के लिये शोक नहीं कर सकता॥ ३८ ॥
एते बहुविधाः शोका विलापरुदिते तदा।
वर्जनीया हि धीरेण सर्वावस्थासु धीमता॥३९॥
‘धीर एवं प्रज्ञावान् पुरुष को सभी अवस्थाओं में ये नाना प्रकार के शोक, विलाप तथा रोदन त्याग देने चाहिये।
स स्वस्थो भव मा शोको यात्वा चावस तां पूरीम्।
तथा पित्रा नियुक्तोऽसि वशिना वदतां वर॥४०॥
‘इसलिये तुम स्वस्थ हो जाओ, तुम्हारे मन में शोक नहीं होना चाहिये। वक्ताओं मे श्रेष्ठ भरत! तुम यहाँ से जाकर अयोध्यापुरी में निवास करो; क्योंकि मन को वश में रखने वाले पूज्य पिताजी ने तुम्हारे लिये यही आदेश दिया है॥ ४०॥
यत्राहमपि तेनैव नियुक्तः पुण्यकर्मणा।
तत्रैवाहं करिष्यामि पितुरार्यस्य शासनम्॥४१॥
उन पुण्यकर्मा महाराज ने मुझे भी जहाँ रहने की आज्ञा दी है, वहीं रहकर मैं उन पूज्य पिता के आदेश का पालन करूँगा॥४१॥
न मया शासनं तस्य त्यक्तुं न्याय्यमरिंदम।
स त्वयापि सदा मान्यः स वै बन्धुः स नः पिता॥ ४२॥
‘शत्रुदमन भरत! पिताकी आज्ञा की अवहेलना करना मेरे लिये कदापि उचित नहीं है। वे तुम्हारे लिये भी सर्वदा सम्मान के योग्य हैं; क्योंकि वे ही हमलोगों के हितैषी बन्धु और जन्मदाता थे॥४२॥
तद् वचः पितुरेवाहं सम्मतं धर्मचारिणाम्।
कर्मणा पालयिष्यामि वनवासेन राघव॥४३॥
रघुनन्दन! मैं इस वनवासरूपी कर्म के द्वारा पिताजी के ही वचन का जो धर्मात्माओं को भी मान्य है, पालन करूँगा॥४३॥
धार्मिकेणानृशंसेन नरेण गुरुवर्तिना।
भवितव्यं नरव्याघ्र परलोकं जिगीषता॥४४॥
‘नरश्रेष्ठ! परलोकपर विजय पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को धार्मिक, क्रूरता से रहित और गुरुजनों का आज्ञापालक होना चाहिये॥४४॥
आत्मानमनुतिष्ठ त्वं स्वभावेन नरर्षभ।
निशाम्य तु शुभं वृत्तं पितुर्दशरथस्य नः॥४५॥
‘मनुष्योंमें श्रेष्ठ भरत! हमारे पूज्य पिता दशरथ के शुभ आचरणों पर दृष्टिपात करके तुम अपने धार्मिक स्वभाव के द्वारा आत्मा की उन्नति के लिये प्रयत्न करो’॥
इत्येवमुक्त्वा वचनं महात्मा पितुर्निदेशप्रतिपालनार्थम्।
यवीयसं भ्रातरमर्थवच्च प्रभुर्मुहूर्ताद् विरराम रामः॥४६॥
सर्वशक्तिमान् महात्मा श्रीराम एक मुहूर्त तक अपने छोटे भाई भरत से पिताकी आज्ञा का पालन कराने के उद्देश्य से ये अर्थयुक्त वचन कहकर चुप हो गये। ४६॥
सर्ग १०६
एवमुक्त्वा तु विरते रामे वचनमर्थवत्।
ततो मन्दाकिनीतीरे रामं प्रकृतिवत्सलम्॥१॥
उवाच भरतश्चित्रं धार्मिको धिार्मकं वचः।
को हि स्यादीदृशो लोके यादृशस्त्वमरिंदम॥२॥
ऐसा अर्थयुक्त वचन कहकर जब श्रीराम चुप हो गये, तब धर्मात्मा भरत ने मन्दाकिनी के तट पर प्रजावत्सल धर्मात्मा श्रीराम से यह विचित्र बात कही —’शत्रुदमन रघुवीर! इस जगत् में जैसे आप हैं, वैसा दूसरा कौन हो सकता है ? ॥ १-२॥
न त्वां प्रव्यथयेद दुःखं प्रीतिर्वा न प्रहर्षयेत्।
सम्मतश्चापि वृद्धानां तांश्च पृच्छसि संशयान्॥ ३॥
‘कोई भी दुःख आपको व्यथित नहीं कर सकता। कितनी ही प्रिय बात क्यों न हो, वह आपको हर्षोत्फुल्ल नहीं कर सकती। वृद्ध पुरुषों के सम्माननीय होकर भी आप उनसे संदेह की बातें पूछते हैं॥३॥
यथा मृतस्तथा जीवन् यथासति तथा सति।
यस्यैष बुद्धिलाभः स्यात् परितप्येत केन सः॥ ४॥
‘जैसे मरे हुए जीवका अपने शरीर आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, उसी प्रकार जीते-जी भी वह उनके सम्बन्धसे रहित है। जैसे वस्तु के अभाव में उसके प्रति राग-द्वेष नहीं होता, वैसे ही उसके रहने पर भी मनुष्य को राग-द्वेष से शुन्य होना चाहिये। जिसे ऐसी विवेकयुक्त बुद्धि प्राप्त हो गयी है, उसको संताप क्यों होगा? ॥ ४॥
परावरज्ञो यश्च स्याद् यथा त्वं मनुजाधिप।
स एव व्यसनं प्राप्य न विषीदितुमर्हति॥५॥
‘नरेश्वर! जिसे आपके समान आत्मा और अनात्माका ज्ञान है, वही संकट में पड़ने पर भी विषाद नहीं कर सकता॥५॥
अमरोपमसत्त्वस्त्वं महात्मा सत्यसंगरः।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च बुद्धिमांश्चासि राघव॥६॥
‘रघुनन्दन! आप देवताओं की भाँति सत्त्वगुण से सम्पन्न, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, सर्वज्ञ, सबके साक्षी और बुद्धिमान् हैं॥६॥
न त्वामेवंगुणैर्युक्तं प्रभवाभवकोविदम्।
अविषह्यतमं दुःखमासादयितुमर्हति॥७॥
‘ऐसे उत्तम गुणों से युक्त और जन्म-मरण के रहस्य को जानने वाले आपके पास असह्य दुःख नहीं आ सकता॥ ७॥
प्रोषिते मयि यत् पापं मात्रा मत्कारणात् कृतम्।
क्षुद्रया तदनिष्टं मे प्रसीदतु भवान् मम॥८॥
‘जब मैं परदेश में था, उस समय नीच विचार रखने वाली मेरी माता ने मेरे लिये जो पाप कर डाला, वह मुझे अभीष्ट नहीं है; अतः आप उसे क्षमा करके मुझ पर प्रसन्न हों॥८॥
धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि तेनेमां नेह मातरम्।
हन्मि तीव्रण दण्डेन दण्डाहाँ पापकारिणीम्॥
‘मैं धर्म के बन्धन में बँधा हूँ, इसलिये इस पाप करने वाली एवं दण्डनीय माता को मैं कठोर दण्ड देकर मार नहीं डालता॥९॥
कथं दशरथाज्जातः शुभाभिजनकर्मणः।
जानन् धर्ममधर्मं च कुर्यां कर्म जुगुप्सितम्॥ १०॥
‘जिनके कुल और कर्म दोनों ही शुभ थे, उन महाराज दशरथ से उत्पन्न होकर धर्म और अधर्म को जानता हुआ भी मैं मातृवधरूपी लोकनिन्दित कर्म कैसे करूँ? ॥ १०॥
गुरुः क्रियावान् वृद्धश्च राजा प्रेतः पितेति च।
तातं न परिगर्हेऽहं दैवतं चेति संसदि॥११॥
‘महाराज मेरे गुरु, श्रेष्ठ यज्ञकर्म करने वाले, बड़ेबूढ़े, राजा, पिता और देवता रहे हैं और इस समय परलोकवासी हो चुके हैं, इसीलिये इस भरी सभा में मैं उनकी निन्दा नहीं करता हूँ॥ ११ ॥
को हि धर्मार्थयो नमीदृशं कर्म किल्बिषम्।
स्त्रियः प्रियचिकीर्षुः सन् कुर्याद् धर्मज्ञ धर्मवित्॥ १२॥
‘धर्मज्ञ रघुनन्दन! कौन ऐसा मनुष्य है, जो धर्म को जानते हुए भी स्त्री का प्रिय करने की इच्छा से ऐसा धर्मऔर अर्थ से हीन कुत्सित कर्म कर सकता है ? ॥ १२॥
अन्तकाले हि भूतानि मुह्यन्तीति पुरा श्रुतिः।
राज्ञैवं कुर्वता लोके प्रत्यक्षा सा श्रुतिः कृता॥ १३॥
‘लोक में एक प्राचीन किंवदन्ती है कि अन्तकाल में सब प्राणी मोहित हो जाते हैं उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। राजा दशरथ ने ऐसा कठोर कर्म करके उस किंवदन्ती की सत्यता को प्रत्यक्ष कर दिखाया॥ १३ ॥
साध्वर्थमभिसंधाय क्रोधान्मोहाच्च साहसात्।
तातस्य यदतिक्रान्तं प्रत्याहरतु तद् भवान्॥१४॥
‘पिताजी ने क्रोध, मोह और साहस के कारण ठीक समझ कर जो धर्म का उल्लङ्घन किया है, उसे आप पलट दें—उसका संशोधन कर दें॥१४॥
पितुर्हि समतिक्रान्तं पुत्रो यः साधु मन्यते।
तदपत्यं मतं लोके विपरीतमतोऽन्यथा॥१५॥
‘जो पुत्र पिताकी की हुई भूल को ठीक कर देता है, वही लोक में उत्तम संतान माना गया है। जो इसके विपरीत बर्ताव करता है, वह पिताकी श्रेष्ठ संतति नहीं है॥ १५ ॥
तदपत्यं भवानस्तु मा भवान् दुष्कृतं पितुः।
अति यत् तत् कृतं कर्म लोके धीरविगर्हितम्॥
‘अतः आप पिताकी योग्य संतान ही बने रहें। उनके अनुचित कर्म का समर्थन न करें। उन्होंने इस समय जो कुछ किया है, वह धर्म की सीमा से बाहर है। संसार में धीर पुरुष उसकी निन्दा करते हैं॥ १६ ॥
कैकेयीं मां च तातं च सुहृदो बान्धवांश्च नः।
पौरजानपदान् सर्वांस्त्रातुं सर्वमिदं भवान्॥१७॥
‘कैकेयी, मैं, पिताजी, सुहृद्गुण, बन्धु-बान्धव, पुरवासी तथा राष्ट्र की प्रजा-इन सबकी रक्षा के लिये आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें॥ १७॥
क्व चारण्यं क्व च क्षात्रं क्व जटाः क्व च
पालनम्। ईदृशं व्याहतं कर्म न भवान् कर्तुमर्हति॥१८॥
‘कहाँ वनवास और कहाँ क्षात्रधर्म? कहाँ जटाधारण और कहाँ प्रजा का पालन? ऐसे परस्परविरोधी कर्म आपको नहीं करने चाहिये ॥ १८ ॥
एष हि प्रथमो धर्मः क्षत्रियस्याभिषेचनम्।
येन शक्यं महाप्राज्ञ प्रजानां परिपालनम्॥१९॥
‘महाप्राज्ञ! क्षत्रिय के लिये पहला धर्म यही है कि उसका राज्यपर अभिषेक हो, जिससे वह प्रजा का भलीभाँति पालन कर सके॥१९॥
कश्च प्रत्यक्षमुत्सृज्य संशयस्थमलक्षणम्।
आयतिस्थं चरेद् धर्मं क्षत्रबन्धुरनिश्चितम्॥ २०॥
‘भला कौन ऐसा क्षत्रिय होगा, जो प्रत्यक्ष सुख के साधनभूत प्रजापालन रूप धर्म का परित्याग करके संशय में स्थित, सुखके लक्षणसे रहित, भविष्य में फल देने वाले अनिश्चित धर्मका आचरण करेगा?॥ २०॥
अथ क्लेशजमेव त्वं धर्मं चरितुमिच्छसि।
धर्मेण चतुरो वर्णान् पालयन् क्लेशमाप्नुहि ॥ २१॥
‘यदि आप क्लेशसाध्य धर्म का ही आचरण करना चाहते हैं तो धर्मानुसार चारों वर्गों का पालन करते हुए ही कष्ट उठाइये॥ २१॥
चतुर्णामाश्रमाणां हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमुत्तमम्।
आहुर्धर्मज्ञ धर्मज्ञास्तं कथं त्यक्तुमिच्छसि ॥२२॥
“धर्मज्ञ रघुनन्दन! धर्म के ज्ञाता पुरुष चारों आश्रमों में गार्हस्थ्य को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं, फिर आप उसका परित्याग क्यों करना चाहते हैं? ॥ २२॥
श्रुतेन बालः स्थानेन जन्मना भवतो ह्यहम्।
स कथं पालयिष्यामि भूमिं भवति तिष्ठति॥ २३॥
‘मैं शास्त्रज्ञान और जन्मजात अवस्था दोनों ही दृष्टियों से आपकी अपेक्षा बालक हूँ, फिर आपके रहते हुए मैं वसुधा का पालन कैसे करूँगा? ॥ २३॥
हीनबुद्धिगुणो बालो हीनस्थानेन चाप्यहम्।
भवता च विनाभूतो न वर्तयितुमुत्सहे॥२४॥
‘मैं बुद्धि और गुण दोनों से हीन हूँ, बालक हूँ तथा मेरा स्थान आपसे बहुत छोटा है; अतः मैं आपके बिना जीवन-धारण भी नहीं कर सकता, राज्य का पालन तो दूरकी बात है॥२४॥
इदं निखिलमप्यग्रयं राज्यं पित्र्यमकण्टकम्।
अनुशाधि स्वधर्मेण धर्मज्ञ सह बान्धवैः॥ २५॥
‘धर्मज्ञ रघुनन्दन! पिताका यह सारा राज्य श्रेष्ठ और निष्कण्टक है, अतः आप बन्धु-बान्धवों के साथ स्वधर्मानुसार इसका पालन कीजिये॥ २५ ॥
इहैव त्वाभिषिञ्चन्तु सर्वाः प्रकृतयः सह।
ऋत्विजः सवसिष्ठाश्च मन्त्रविन्मन्त्रकोविदाः॥ २६॥
‘मन्त्रज्ञ रघुवीर! मन्त्रों के ज्ञाता महर्षि वसिष्ठ आदि सभी ऋत्विज् तथा मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि सारी प्रकृतियाँ यहाँ उपस्थित हैं। ये सब लोग यहीं आपका राज्याभिषेक करें॥ २६॥
अभिषिक्तस्त्वमस्माभिरयोध्यां पालने व्रज।
विजित्य तरसा लोकान् मरुद्भिरिव वासवः॥ २७॥
‘हमलोगों के द्वारा अभिषिक्त होकर आप मरुद्गणों से अभिषिक्त हुए इन्द्र की भाँति वेगपूर्वक सब लोकों को जीतकर प्रजा का पालन करने के लिये अयोध्या को चलें॥
ऋणानि त्रीण्यपाकुर्वन् दुहृदः साधु निर्दहन्।
सुहृदस्तर्पयन् कामैस्त्वमेवात्रानुशाधि माम्॥ २८॥
‘वहाँ देवता, ऋषि और पितरों का ऋण चुकायें, दुष्ट शत्रुओं का भलीभाँति दमन करें तथा मित्रों को उनके इच्छानुसार वस्तुओं द्वारा तृप्त करते हुए आप ही अयोध्या में मुझे धर्म की शिक्षा देते रहें॥२८॥
अद्यार्य मुदिताः सन्तु सुहृदस्तेऽभिषेचने।
अद्य भीताः पलायन्तु दुष्प्रदास्ते दिशो दश॥ २९॥
‘आर्य! आपका अभिषेक सम्पन्न होने पर सुहृद्गण प्रसन्न हों और दुःख देने वाले आपके शत्रु भयभीत होकर दसों दिशाओं में भाग जायें ॥ २९॥
आक्रोशं मम मातुश्च प्रमृज्य पुरुषर्षभ।
अद्य तत्रभवन्तं च पितरं रक्ष किल्बिषात्॥३०॥
‘पुरुषप्रवर! आज आप मेरी माता के कलङ्क को धो-पोंछकर पूज्य पिताजी को भी निन्दा से बचाइये। ३०॥
शिरसा त्वाभियाचेऽहं कुरुष्व करुणां मयि।
बान्धवेषु च सर्वेषु भूतेष्विव महेश्वरः॥३१॥
‘मैं आपके चरणों में माथा टेककर याचना करता हूँ। आप मुझपर दया कीजिये। जैसे महादेवजी सब प्राणियों पर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने बन्धु-बान्धवों पर कृपा कीजिये॥३१॥
अथवा पृष्ठतः कृत्वा वनमेव भवानितः।
गमिष्यति गमिष्यामि भवता सार्धमप्यहम्॥३२॥
‘अथवा यदि आप मेरी प्रार्थना को ठुकराकर यहाँ से वन को ही जायँगे तो मैं भी आपके साथ जाऊँगा’। ३२॥
तथाभिरामो भरतेन ताम्यता प्रसाद्यमानः शिरसा महीपतिः।
न चैव चक्रे गमनाय सत्त्ववान् मतिं पितुस्तद् वचने प्रतिष्ठितः॥३३॥
ग्लानि में पड़े हुए भरत ने मनोभिराम राजा श्रीराम को उनके चरणों में माथा टेककर प्रसन्न करने की चेष्टा की तथापि उन सत्त्वगुणसम्पन्न रघुनाथजी ने पिताकी आज्ञा में ही दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर अयोध्या जाने का विचार नहीं किया॥३३॥
तदद्भुतं स्थैर्यमवेक्ष्य राघवे समं जनो हर्षमवाप दुःखितः।
न यात्ययोध्यामिति दुःखितोऽभवत् स्थिरप्रतिज्ञत्वमवेक्ष्य हर्षितः॥३४॥
श्रीरामचन्द्रजी की वह अद्भुत दृढ़ता देखकर सबलोग एक ही साथ दुःखी भी हुए और हर्ष को भी प्राप्त हुए। ये अयोध्या नहीं जा रहे हैं—यह सोचकर वे दुःखी हुए और प्रतिज्ञा-पालन में उनकी दृढ़ता देखकर उन्हें हर्ष हुआ॥
तमृत्विजो नैगमयूथवल्लभास्तथा विसंज्ञाश्रुकलाश्च मातरः।
तथा ब्रुवाणं भरतं प्रतुष्टवुः प्रणम्य रामं च ययाचिरे सह ॥ ३५॥
उस समय ऋत्विज् पुरवासी, भिन्न-भिन्न समुदाय के नेता और माताएँ अचेत-सी होकर आँस बहाती हुई पूर्वोक्त बातें कहने वाली भरत की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी और सबने उनके साथ ही योग्यतानुसार श्रीरामजी के सामने विनीत होकर उनसे अयोध्या लौट चलने की याचना की॥ ३५ ॥
सर्ग १०७
पुनरेवं ब्रुवाणं तं भरतं लक्ष्मणाग्रजः।
प्रत्युवाच ततः श्रीमान् ज्ञातिमध्ये सुसत्कृतः॥
जब भरत पुनः इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, तब कुटुम्बीजनों के बीच में सत्कारपूर्वक बैठे हुए लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीमान् रामचन्द्रजी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥
उपपन्नमिदं वाक्यं यस्त्वमेवमभाषथाः।
जातः पुत्रो दशरथात् कैकेय्यां राजसत्तमात्॥ २॥
‘भाई! तुम नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ के द्वारा केकयराज कन्या माता कैकेयी के गर्भसे उत्पन्न हुए हो; अतःतुमने जो ऐसे उत्तम वचन कहे हैं, वे सर्वथा तुम्हारे योग्य हैं।
पुरा भ्रातः पिता नः स मातरं ते समुद्रहन्।
मातामहे समाश्रौषीद् राज्यशुल्कमनुत्तमम्॥३॥
‘भैया ! आज से बहुत पहले की बात है—पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था, तभी उन्होंने तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी॥३॥
देवासुरे च संग्रामे जनन्यै तव पार्थिवः।
सम्प्रहृष्टो ददौ राजा वरमाराधितः प्रभुः ॥४॥
‘इसके बाद देवासुर-संग्राम में तुम्हारी माता ने प्रभावशाली महाराज की बड़ी सेवा की; इससे संतुष्ट होकर राजा ने उन्हें वरदान दिया॥४॥
ततः सा सम्प्रतिश्राव्य तव माता यशस्विनी।
अयाचत नरश्रेष्ठं द्वौ वरौ वरवर्णिनी॥५॥
‘उसी की पूर्ति के लिये प्रतिज्ञा कराकर तुम्हारी श्रेष्ठ वर्णवाली यशस्विनी माता ने उन नरश्रेष्ठ पिताजी से दो वर माँगे॥५॥
तव राज्यं नरव्याघ्र मम प्रव्राजनं तथा।
तच्च राजा तथा तस्यै नियुक्तः प्रददौ वरम्॥६॥
‘पुरुषसिंह ! एक वर के द्वारा इन्होंने तुम्हारे लिये राज्य माँगा और दूसरे के द्वारा मेरा वनवास। इनसे इस प्रकार प्रेरित होकर राजा ने वे दोनों वर इन्हें दे दिये॥
तेन पित्राहमप्यत्र नियुक्तः पुरुषर्षभ।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वरदानिकम्॥७॥
‘पुरुषप्रवर! इस प्रकार उन पिताजी ने वरदान के रूप में मुझे चौदह वर्षों तक वनवास की आज्ञा दी है।
सोऽयं वनमिदं प्राप्तो निर्जनं लक्ष्मणान्वितः।
सीतया चाप्रतिद्वन्द्वः सत्यवादे स्थितः पितुः॥ ८॥
‘यही कारण है कि मैं सीता और लक्ष्मण के साथ इस निर्जन वन में चला आया हूँ। यहाँ मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। मैं यहाँ पिताजी के सत्य की रक्षा में स्थित रहूँगा॥
भवानपि तथेत्येव पितरं सत्यवादिनम्।
कर्तुमर्हसि राजेन्द्र क्षिप्रमेवाभिषिञ्चनात्॥९॥
‘राजेन्द्र ! तुम भी उनकी आज्ञा मानकर शीघ्र ही राज्य पद पर अपना अभिषेक करा लो और पिता को सत्यवादी बनाओ—यही तुम्हारे लिये उचित है॥९॥
ऋणान्मोचय राजानं मत्कृते भरत प्रभुम्।
पितरं त्राहि धर्मज्ञ मातरं चाभिनन्दय॥१०॥
‘धर्मज्ञ भरत! तुम मेरे लिये पूज्य पिता राजा दशरथ को कैकेयी के ऋण से मुक्त करो, उन्हें नरक में गिरने से बचाओ और माता का भी आनन्द बढ़ाओ॥ १०॥
श्रूयते धीमता तात श्रुतिर्गीता यशस्विना।
गयेन यजमानेन गयेष्वेव पितॄन् प्रति॥११॥
‘तात! सुना जाता है कि बुद्धिमान्, यशस्वी राजा गयने गय-देश में ही यज्ञ करते हुए पितरों के प्रति एक कहावत कही थी॥ ११॥
पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितॄन् यः पाति सर्वतः॥ १२॥
‘(वह इस प्रकार है-) बेटा पुत् नामक नरक से पिता का उद्धार करता है, इसलिये वह पुत्र कहा गया है। वही पुत्र है, जो पितरों की सब ओर से रक्षा करता है।
एष्टव्या बहवः पुत्रा गुणवन्तो बहुश्रुताः।
तेषां वै समवेतानामपि कश्चिद् गयां व्रजेत्॥ १३॥
‘बहुत-से गुणवान् और बहुश्रुत पुत्रों की इच्छा करनी चाहिये। सम्भव है कि प्राप्त हुए उन पुत्रों में से कोई एक भी गया की यात्रा करे ? ॥ १३॥
एवं राजर्षयः सर्वे प्रतीता रघुनन्दन।
तस्मात् त्राहि नरश्रेष्ठ पितरं नरकात् प्रभो॥१४॥
‘रघुनन्दन! नरश्रेष्ठ भरत! इस प्रकार सभी राजर्षियों ने पितरों के उद्धार का निश्चय किया है, अतः प्रभो! तुम भी अपने पिता का नरक से उद्धार करो॥ १४॥
अयोध्यां गच्छ भरत प्रकृतीरुपरञ्जय।
शत्रुघ्नसहितो वीर सह सर्वैर्द्विजातिभिः॥१५॥
‘वीर भरत! तुम शत्रुघ्न तथा समस्त ब्राह्मणों को साथ लेकर अयोध्या को लौट जाओ और प्रजा को सुख दो॥
प्रवेक्ष्ये दण्डकारण्यमहमप्यविलम्बयन्।
आभ्यां तु सहितो वीर वैदेह्या लक्ष्मणेन च॥
‘वीर! अब मैं भी लक्ष्मण और सीता के साथ शीघ्र ही दण्डकारण्य में प्रवेश करूँगा॥१६॥
त्वं राजा भरत भव स्वयं नराणां वन्यानामहमपि राजराण्मृगाणाम्।
गच्छ त्वं पुरवरमद्य सम्प्रहृष्टः संहृष्टस्त्वहमपि दण्डकान् प्रवेक्ष्ये॥१७॥
‘भरत! तुम स्वयं मनुष्यों के राजा बनो और मैं जंगली पशुओं का सम्राट बनूँगा। अब तुम अत्यन्त हर्षपूर्वक श्रेष्ठ नगर अयोध्या को जाओ और मैं भी प्रसन्नतापूर्वक दण्डक-वन में प्रवेश करूँगा॥ १७ ॥
छायां ते दिनकरभाः प्रबाधमानं वर्षत्रं भरत करोतु मूर्ध्नि शीताम्।
एतेषामहमपि काननद्रुमाणां छायां तामतिशयिनीं शनैः श्रयिष्ये॥१८॥
‘भरत ! सूर्य की प्रभा को तिरोहित कर देने वाला छत्र तुम्हारे मस्तक पर शीतल छाया करे। अब मैं भी धीरे-धीरे इन जंगली वृक्षों की घनी छाया का आश्रय लूँगा। १८॥
शत्रुघ्नस्त्वतुलमतिस्तु ते सहायः सौमित्रिर्मम विदितः प्रधानमित्रम्।
चत्वारस्तनयवरा वयं नरेन्द्र सत्यस्थं भरत चराम मा विषीद॥१९॥
‘भरत! अतुलित बुद्धिवाले शत्रुघ्न तुम्हारी सहायता में रहें और सुविख्यात सुमित्राकुमार लक्ष्मण मेरे प्रधान मित्र (सहायक) हैं; हम चारों पुत्र अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा करें। तुम विषाद मत करो’ ॥ १९॥
सर्ग १०८
आश्वासयन्तं भरतं जाबालिब्राह्मणोत्तमः।
उवाच रामं धर्मज्ञं धर्मापेतमिदं वचः॥१॥
जब धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी भरत को इस प्रकार समझा-बुझा रहे थे, उसी समय ब्राह्मणशिरोमणि जाबालि ने उनसे यह धर्मविरुद्ध वचन कहा— ॥१॥
साधु राघव मा भूत् ते बुद्धिरेवं निरर्थिका।
प्राकृतस्य नरस्येव ह्यार्यबुद्धेस्तपस्विनः॥२॥
‘रघुनन्दन! आपने ठीक कहा, परंतु आप श्रेष्ठ बुद्धिवाले और तपस्वी हैं; अतः आपको गँवार मनुष्य की तरह ऐसा निरर्थक विचार मन में नहीं लाना चाहिये॥२॥
कः कस्य पुरुषो बन्धुः किमाप्यं कस्य केनचित्।
एको हि जायते जन्तुरेक एव विनश्यति॥३॥
‘संसार में कौन पुरुष किसका बन्धु है और किससे किसको क्या पाना है? जीव अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही नष्ट हो जाता है॥३॥
तस्मान्माता पिता चेति राम सज्जेत यो नरः।
उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति कश्चिद्धि कस्यचित्॥ ४॥
‘अतः श्रीराम! जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल के समान समझना चाहिये; क्योंकि यहाँ कोई किसी का कुछ भी नहीं है॥ ४॥
यथा ग्रामान्तरं गच्छन् नरः कश्चिद् बहिर्वसेत्।
उत्सृज्य च तमावासं प्रतिष्ठेतापरेऽहनि॥५॥
एवमेव मनुष्याणां पिता माता गृहं वसु।
आवासमात्रं काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जनाः॥
‘जैसे कोई मनुष्य दूसरे गाँव को जाते समय बाहर किसी धर्मशाला में एक रात के लिये ठहर जाता हैऔर दूसरे दिन उस स्थान को छोड़कर आगे के लिये प्रस्थित हो जाता है, इसी प्रकार पिता, माता, घर और धन—ये मनुष्यों के आवास मात्र हैं। ककुत्स्थकुलभूषण ! इनमें सज्जन पुरुष आसक्त नहीं होते हैं॥६॥
पित्र्यं राज्यं समुत्सृज्य स नार्हसि नरोत्तम।
आस्थातुं कापथं दुःखं विषमं बहुकण्टकम्॥ ७॥
‘अतः नरश्रेष्ठ! आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुःखमय, नीचे-ऊँचे तथा बहुकण्टकाकीर्ण वन के कुत्सित मार्ग पर नहीं चलना चाहिये॥ ७॥
समृद्धायामयोध्यायामात्मानमभिषेचय।
एकवेणीधरा हि त्वा नगरी सम्प्रतीक्षते॥८॥
“आप समृद्धिशालिनी अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये। वह नगरी प्रोषितभर्तृ का नारी की भाँति एक वेणी धारण करके आपकी प्रतीक्षा करती है॥८॥
राजभोगाननुभवन् महार्हान् पार्थिवात्मज।
विहर त्वमयोध्यायां यथा शक्रस्त्रिविष्टपे॥९॥
‘राजकुमार ! जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में विहार करते हैं, उसी प्रकार आप बहुमूल्य राजभोगों का उपभोग करते हुए अयोध्या विहार कीजिये॥९॥
न ते कश्चिद् दशरथस्त्वं च तस्य च कश्चन।
अन्यो राजा त्वमन्यस्तु तस्मात् कुरु यदुच्यते॥ १०॥
‘राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। राजा दूसरे थे और आप भी दूसरे हैं; इसलिये मैं जो कहता हूँ, वही कीजिये॥१०॥
बीजमात्रं पिता जन्तोः शुक्रं शोणितमेव च।
संयुक्तमृतुमन्मात्रा पुरुषस्येह जन्म तत्॥११॥
‘पिता जीव के जन्म में निमित्त कारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमती माता के द्वारा गर्भ धारण किये हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही पुरुष का यहाँ जन्म होता है॥ ११॥
गतः स नृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वै।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां त्वं तु मिथ्या विहन्यसे ॥१२॥
‘राजा को जहाँ जाना था, वहाँ चले गये। यह प्राणियों के लिये स्वाभाविक स्थिति है। आप तो व्यर्थ ही मारे जाते (कष्ट उठाते) हैं।॥ १२ ॥
अर्थधर्मपरा ये ये तांस्तान् शोचामि नेतरान्।
ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य लेभिरे॥ १३॥
‘जो-जो मनुष्य प्राप्त हुए अर्थ का परित्याग करके धर्मपरायण हुए हैं, उन्हीं-उन्हीं के लिये मैं शोक करता हूँ, दूसरों के लिये नहीं। वे इस जगत् में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोगकर मृत्यु के पश्चात् नष्ट हो गये हैं।
अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति॥ १४॥
‘अष्ट का आदि जितने श्राद्ध हैं, उनके देवता पितर हैं श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है। यही सोचकर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं; किन्तु विचार करके देखिये तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा॥१४ ॥
यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति।
दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं न तत् पथ्यशनं भवेत्॥ १५॥
‘यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में चला जाता हो तो परदेश में जाने वालों के लिये श्राद्ध ही कर देना चाहिये; उनको रास्ते के लिये भोजन देना उचित नहीं है।॥ १५॥
दानसंवनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः।
यजस्व देहि दीक्षस्व तपस्तप्यस्व संत्यज॥१६॥
‘देवताओं के लिये यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर-द्वार छोड़कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान् मनुष्यों ने दान की ओर लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिये ही बनाये हैं॥ १६ ॥
स नास्ति परमित्येतत् कुरु बुद्धिं महामते।
प्रत्यक्षं यत् तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु॥१७॥
‘अतः महामते! आप अपने मन में यह निश्चय कीजिये कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है (अतः वहाँ फल भोगने के लिये धर्म आदि के पालन की आवश्यकता नहीं है)। जो प्रत्यक्ष राज्यलाभ है, उसका आश्रय लीजिये, परोक्ष (पारलौकिक लाभ) को पीछे ढकेल दीजिये॥१७॥
सतां बुद्धिं पुरस्कृत्य सर्वलोकनिदर्शिनीम्।
राज्यं स त्वं निगृह्णीष्व भरतेन प्रसादितः॥ १८॥
‘सत्पुरुषों की बुद्धि, जो सब लोगों के लिये राह दिखाने वाली होने के कारण प्रमाणभूत है, आगे करके भरत के अनुरोध से आप अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिये’ ॥ १८॥
१०९
जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः।
उवाच परया सूक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया॥१॥
जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्ति का आश्रय लेकर कहा- ॥१॥
भवान् मे प्रियकामार्थं वचनं यदिहोक्तवान्।
अकार्यं कार्यसंकाशमपथ्यं पथ्य संनिभम्॥२॥
‘विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यहाँ जो बात कही है, वह कर्तव्य-सी दिखायी देती है; किंतु वास्तव में करने योग्य नहीं है। वह पथ्य-सी दीखने पर भी वास्तव में अपथ्य है॥२॥
निर्मर्यादस्तु पुरुषः पापाचारसमन्वितः।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः॥३॥
‘जो पुरुष धर्म अथवा वेद की मर्यादा को त्याग देता है, वह पापकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं; इसलिये वह सत्पुरुषों में कभी सम्मान नहीं पाता है॥३॥
कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम्॥ ४॥
‘आचार ही यह बताता है कि कौन पुरुष उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है और कौन अधम कुल में, कौन वीर है और कौन व्यर्थ ही अपने को पुरुष मानता है तथा कौन पवित्र है और कौन अपवित्र?॥ ४॥
अनार्यस्त्वार्य संस्थानः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः।
लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशीलः शीलवानिव॥५॥
‘आपने जो आचार बताया है, उसे अपनाने वाला पुरुष श्रेष्ठ-सा दिखायी देने पर भी वास्तव में अनार्य होगा। बाहर से पवित्र दीखने पर भी भीतर से अपवित्र होगा। उत्तम लक्षणों से युक्त-सा प्रतीत होने पर भी वास्तव में उसके विपरीत होगा तथा शीलवान्-सा दीखने पर भी वस्तुतः वह दुःशील ही होगा॥ ५॥
अधर्मं धर्मवेषेण यद्यहं लोकसंकरम्।
अभिपत्स्ये शुभं हित्वा क्रियां विधिविवर्जिताम्॥ ६॥
कश्चेतयानः पुरुषः कार्याकार्यविचक्षणः।
बहु मन्येत मां लोके दुर्वृत्तं लोकदूषणम्॥७॥
‘आपका उपदेश चोला तो धर्म का पहने हुए है, किंतु वास्तव में अधर्म है। इससे संसार में वर्ण संकरता का प्रचार होगा। यदि मैं इसे स्वीकार करके वेदोक्त शुभकर्मों का अनुष्ठान छोड़ दूँ और विधिहीन कर्मों में लग जाऊँ तो कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान रखने वाला कौन समझदार मनुष्य मुझे श्रेष्ठ समझकर आदर देगा? उस दशा में तो मैं इस जगत् में दुराचारी तथा लोक को कलङ्कित करने वाला समझा जाऊँगा। ६-७॥
कस्य यास्याम्यहं वृत्तं केन वा स्वर्गमाप्नुयाम्।
अनया वर्तमानोऽहं वृत्त्या हीनप्रतिज्ञया॥८॥
‘जहाँ अपनी की हुई प्रतिज्ञा तोड़ दी जाती है, उस वृत्ति के अनुसार बर्ताव करने पर मैं किस साधन से स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा तथा आपने जिस आचार का उपदेश दिया है, वह किसका है, जिसका मुझे अनुसरण करना होगा; क्योंकि आपके कथनानुसार मैं पिता आदि में से किसी का कुछ भी नहीं हूँ॥८॥
कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुपवर्तते।
यद्धृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ॥९॥
‘आपके बताये हुए मार्ग से चलने पर पहले तो मैं स्वेच्छाचारी हूँगा। फिर यह सारा लोक स्वेच्छाचारी हो जायगा; क्योंकि राजाओं के जैसे आचरण होते हैं, प्रजा भी वैसा ही आचरण करने लगती है।॥९॥
सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः॥ १०॥
‘सत्य का पालन ही राजाओं का दयाप्रधान धर्म है – सनातन आचार है, अतः राज्य सत्यस्वरूप है। सत्य में ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है॥ १० ॥
ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन् परं गच्छति चाक्षयम्॥ ११॥
‘ऋषियों और देवताओं ने सदा सत्य का ही आदर किया है। इस लोक में सत्यवादी मनुष्य अक्षय परम धाम में जाता है॥ ११॥
उद्विजन्ते यथा सोन्नरादनृतवादिनः।
धर्मः सत्यपरो लोके मूलं सर्वस्य चोच्यते॥१२॥
‘झूठ बोलने वाले मनुष्य से सब लोग उसी तरह डरते हैं, जैसे साँप से संसार में सत्य ही धर्म की पराकाष्ठा है और वही सबका मूल कहा जाता है। १२॥
सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्॥ १३॥
‘जगत् में सत्य ही ईश्वर है। सदा सत्य के ही आधार पर धर्म की स्थिति रहती है। सत्य ही सबकी जड़ है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है॥ १३॥
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदाः सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत्॥ १४॥
‘दान, यज्ञ, होम, तपस्या और वेद-इन सबका आधार सत्य ही है; इसलिये सबको सत्यपरायण होना चाहिये॥१४॥
एकः पालयते लोकमेकः पालयते कुलम्।
मज्जत्येको हि निरय एकः स्वर्गे महीयते॥१५॥
‘एक मनुष्य सम्पूर्ण जगत् का पालन करता है, एक समूचे कुल का पालन करता है, एक नरक में डूबता है और एक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। १५॥
सोऽहं पितुर्निदेशं तु किमर्थं नानुपालये।
सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतम्॥१६॥
‘मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ और सत्य की शपथ खाकर पिता के सत्य का पालन स्वीकार कर चुका हूँ, ऐसी दशा में मैं पिता के आदेश का किसलिये पालन नहीं करूँ? ॥ १६॥
नैव लोभान्न मोहाद् वा न चाज्ञानात् तमोऽन्वितः।
सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः॥ १७॥
‘पहले सत्यपालन की प्रतिज्ञा करके अब लोभ, मोह अथवा अज्ञान से विवेकशून्य होकर मैं पिता के सत्य की मर्यादा भङ्ग नहीं करूँगा॥१७॥
असत्यसंधस्य सतश्चलस्यास्थिरचेतसः।
नैव देवा न पितरः प्रतीच्छन्तीति नः श्रुतम्॥ १८॥
‘हमने सुना है कि जो अपनी प्रतिज्ञा झूठी करने के कारण धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, उस चञ्चल चित्तवाले पुरुष के दिये हुए हव्य-कव्य को देवता और पितर नहीं स्वीकार करते हैं।॥ १८ ॥
प्रत्यगात्ममिमं धर्मं सत्यं पश्याम्यहं ध्रुवम्।
भारः सत्पुरुषैश्चीर्णस्तदर्थमभिनन्द्यते॥१९॥
‘मैं इस सत्यरूपी धर्म को समस्त प्राणियों के लिये हितकर और सब धर्मों में श्रेष्ठ समझता हूँ। सत्पुरुषों ने जटा-वल्कल आदि के धारणरूप तापस धर्म का पालन किया है, इसलिये मैं भी उसका अभिनन्दन करता हूँ॥
क्षात्रं धर्ममहं त्यक्ष्ये ह्यधर्मं धर्मसंहितम्।
क्षुद्रैर्नृशंसैलुब्धैश्च सेवितं पापकर्मभिः ॥२०॥
‘जो धर्मयुक्त प्रतीत हो रहा है, किंतु वास्तव में अधर्म रूप है, जिसका नीच, क्रूर, लोभी और पापाचारी पुरुषों ने सेवन किया है, ऐसे क्षात्र धर्म का (पिता की आज्ञा भङ्ग करके राज्य ग्रहण करने का) मैं अवश्य त्याग करूँगा (क्योंकि वह न्याययुक्त नहीं है) ॥२०॥
कायेन कुरुते पापं मनसा सम्प्रधार्य तत्।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम्॥ २१॥
‘मनुष्य अपने शरीरसे जो पाप करता है, उसे पहले मनके द्वारा कर्तव्यरूपसे निश्चित करता है। फिर जिह्वाकी सहायतासे उस अनृत कर्म (पाप) को वाणीद्वारा दूसरोंसे कहता है, तत्पश्चात् औरोंके सहयोगसे उसे शरीरद्वारा सम्पन्न करता है। इस तरह एक ही पातक कायिक, वाचिक और मानसिक भेदसे तीन प्रकारका होता है॥ २१॥
भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि।
सत्यं समनुवर्तन्ते सत्यमेव भजेत् ततः॥२२॥
‘पृथ्वी, कीर्ति, यश और लक्ष्मी—ये सब-की-सब सत्यवादी पुरुष को पाने की इच्छा रखती हैं और शिष्ट पुरुष सत्य का ही अनुसरण करते हैं, अतः मनुष्य को सदा सत्य का ही सेवन करना चाहिये॥ २२ ॥
श्रेष्ठं ह्यनार्यमेव स्याद् यद् भवानवधार्य माम्।
आह युक्तिकरैर्वाक्यैरिदं भद्रं कुरुष्व ह ॥ २३॥
‘आपने उचित सिद्ध करके तर्कपूर्ण वचनों के द्वारा मुझसे जो यह कहा है कि राज्य ग्रहण करने में ही कल्याण है; अतः इसे अवश्य स्वीकार करो। आपका यह आदेश श्रेष्ठ-सा प्रतीत होने पर भी सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण में लाने योग्य नहीं है (क्योंकि इसे स्वीकार करने से सत्य और न्याय का उल्लङ्घन होता है) ॥२३॥
कथं ह्यहं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरोः।
भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः॥२४॥
‘मैं पिताजी के सामने इस तरह वन में रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अब उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन करके मैं भरत की बात कैसे मान लूंगा॥ २४॥
स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुरुसंनिधौ।
प्रहृष्टमानसा देवी कैकेयी चाभवत् तदा॥ २५॥
‘गुरु के समीप की हुई मेरी वह प्रतिज्ञा अटल है। किसी तरह तोड़ी नहीं जा सकती। उस समय जबकि मैंने प्रतिज्ञा की थी, देवी कैकेयी का हृदय हर्ष से खिल उठा था॥ २५॥
वनवासं वसन्नेव शुचिनियतभोजनः।
मूलपुष्पफलैः पुण्यैः पितॄन् देवांश्च तर्पयन्॥ २६॥
‘मैं वन में ही रहकर बाहर-भीतर से पवित्र हो नियमित भोजन करूँगा और पवित्र फल, मूल एवं पुष्पों द्वारा देवताओं और पितरों को तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञा का पालन करूँगा॥ २६॥
संतुष्टपञ्चवर्गोऽहं लोकयात्रां प्रवाहये।
अकुहः श्रद्दधानः सन् कार्याकार्यविचक्षणः॥ २७॥
‘क्या करना चाहिये और क्या नहीं, इसका निश्चय मैं कर चुका हूँ। अतः फल-मूल आदि से पाँचों इन्द्रियों को संतुष्ट करके निश्छल, श्रद्धापूर्वक लोकयात्रा (पिता की आज्ञा के पालनरूप व्यवहार) का निर्वाह करूँगा॥ २७॥
कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम्।
अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः॥ २८॥
‘इस कर्मभूमि को पाकर जो शुभ कर्म हो, उसका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि अग्नि, वायु तथा सोम भी कर्मो के ही फल से उन-उन पदों के भागी हुए।
शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट् त्रिदिवं गतः।
तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं प्राप्ता महर्षयः॥ २९॥
‘देवराज इन्द्र सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं। महर्षियों ने भी उग्र तपस्या करके दिव्य लोकों में स्थान प्राप्त किया है’ ॥ २९॥
अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजा निशम्य तन्नास्तिकवाक्यहेतुम्।
अथाब्रवीत् तं नृपतेस्तनूजो विगर्हमाणो वचनानि तस्य॥३०॥
उग्र तेजस्वी राजकुमार श्रीराम परलोक की सत्ता का खण्डन करने वाले जाबालि के पूर्वोक्त वचनों को सुनकर उन्हें सहन न कर सकने के कारण उन वचनों की निन्दा करते हुए पुनः उनसे बोले- ॥३०॥
सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥ ३१॥
‘सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियों पर दया, सबसे प्रिय वचन बोलना तथा देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणों की पूजा करना—इन सबको साधु पुरुषों ने स्वर्गलोक का मार्ग बताया है॥३१॥
तेनैवमाज्ञाय यथावदर्थमेकोदयं सम्प्रतिपद्य विप्राः।
धर्मं चरन्तः सकलं यथावत् कांक्षन्ति लोकागममप्रमत्ताः॥ ३२॥
‘सत्पुरुषों के इस वचन के अनुसार धर्म का स्वरूप जानकर तथा अनुकूल तर्क से उसका यथार्थ निर्णय करके एक निश्चय पर पहुँचे हुए सावधान ब्राह्मण भलीभाँति धर्माचरण करते हुए उन-उन उत्तम लोकों को प्राप्त करना चाहते हैं॥ ३२॥
निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद् यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्॥३३॥
‘आपकी बुद्धि विषम-मार् गमें स्थित है—आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। ३३॥
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ ३४॥
जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्धिजीवी भी दण्डनीय है तथागत (यथा हि तथा हि सः बुद्धाः चोर) और नास्तिक (चार्वाक्) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिये(बुद्धः + तथागतः एवं इसके बाद शब्द आया है नास्तिकमत्र, जिसमें दो शब्द हैं नास्तिकम् + अत्र)। इसलिये प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये राजा द्वारा जिस नास्तिक को दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दण्ड दिलाया ही जाय; परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो-उससे वार्तालाप तक न करे॥ ३४॥
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥ ३५॥
‘आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत-से शुभकर्मो का अनुष्ठान किया है। अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि), कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का सम्पादन करते हैं। ३५॥
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेतास्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः॥३६॥
‘जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से सम्पन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो मलसंसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं’। ३६ ॥
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं रामं महात्मानमदीनसत्त्वम्।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः॥३७॥
महात्मा श्रीराम स्वभाव से ही दैन्यभाव से रहित थे। उन्होंने जब रोष पूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जाबालि ने विनयपूर्वक यह आस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा- ॥ ३७॥
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किंचन।
समीक्ष्य कालं पनरास्तिकोऽभवं भवेय काले पुनरेव नास्तिकः॥ ३८॥
‘रघुनन्दन! न तो मैं नास्तिक हूँ और न नास्तिकों की बात ही करता हूँ। परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ-नास्तिकों की-सी बातें कर सकता हूँ॥ ३८॥
स चापि कालोऽयमुपागतः शनैर्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात् प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम्॥३९॥
‘इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की-सी बातें कह डालीं। श्रीराम ! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटने के लिये तैयार कर लूँ’॥ ३९॥
सर्ग ११०
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्य गतागतिम्॥
श्रीरामचन्द्रजी को रुष्ट जानकर महर्षि वसिष्ठजी ने उनसे कहा—’रघुनन्दन ! महर्षि जाबालि भी यह जानते हैं कि इस लोक के प्राणियों का परलोक में जाना और आना होता रहता है (अतः ये नास्तिक नहीं हैं)॥१॥
निवर्तयितुकामस्तु त्वामेतद् वाक्यमब्रवीत्।
इमां लोकसमुत्पत्तिं लोकनाथ निबोध मे॥२॥
‘जगदीश्वर ! इस समय तुम्हें लौटाने की इच्छा से ही इन्होंने यह नास्तिकतापूर्ण बात कही थी। तुम मुझसे इस लोक की उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनो॥२॥
सर्वं सलिलमेवासीत् पृथिवी तत्र निर्मिता।
ततः समभवद् ब्रह्मा स्वयंभूर्दैवतैः सह ॥३॥
‘सृष्टि के प्रारम्भकाल में सब कुछ जलमय ही था। उस जल के भीतर ही पृथ्वी का निर्माण हुआ। तदनन्तर देवताओं के साथ स्वयंभू ब्रह्मा प्रकट हुए।
स वराहस्ततो भूत्वा प्रोज्जहार वसुंधराम्।
असृजच्च जगत् सर्वं सह पुत्रैः कृतात्मभिः॥४॥
‘इसके बाद उन भगवान् विष्णु स्वरूप ब्रह्मा ने ही वराह रूप से प्रकट होकर जल के भीतर से इस पृथ्वी को निकाला और अपने कृतात्मा पुत्रों के साथ इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि की॥४॥
आकाशप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः।
तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः॥५॥
‘आकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ है, जो नित्य, सनातन एवं अविनाशी हैं। उनसे मरीचि उत्पन्न हुए और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्वयम्।
स तु प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः॥६॥
‘कश्यप से विवस्वान् का जन्म हुआ। विवस्वान् के पुत्र साक्षात् वैवस्वत मनु हुए, जो पहले प्रजापति थे। मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए॥६॥
यस्येयं प्रथमं दत्ता समृद्धा मनुना मही।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम्॥
जिन्हें मनु ने सबसे पहले इस पृथ्वी का समृद्धिशाली राज्य सौंपा था, उन राजा इक्ष्वाकु को तुम अयोध्या का प्रथम राजा समझो॥७॥
इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः।
कुक्षेरथात्मजो वीरो विकुक्षिरुदपद्यत॥८॥
‘इक्ष्वाकु के पुत्र श्रीमान् कुक्षि के नाम से विख्यात हुए। कुक्षि के वीर पुत्र विकुक्षि हुए॥ ८॥
विकुक्षेस्तु महातेजाः बाणः पुत्रः प्रतापवान्।
बाणस्य च महाबाहुरनरण्यो महातपाः॥९॥
‘विकुक्षि के महातेजस्वी प्रतापी पुत्र बाण हुए। बाण के महाबाहु पुत्र अनरण्य हुए, जो बड़े भारी तपस्वी थे॥
नानावृष्टिर्बभूवास्मिन् न दुर्भिक्षः सतां वरे।
अनरण्ये महाराजे तस्करो वापि कश्चन॥१०॥
‘सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज अनरण्य के राज्य में कभी अनावृष्टि नहीं हुई, अकाल नहीं पड़ा और कोई चोर भी नहीं उत्पन्न हुआ॥१०॥
अनरण्यान्महाराज पृथू राजा बभूव ह।
तस्मात् पृथोर्महातेजास्त्रिशङ्करुदपद्यत॥११॥
‘महाराज! अनरण्यसे राजा पृथु हुए। उन पृथु से महातेजस्वी त्रिशंकु की उत्पत्ति हुई॥ ११ ॥
स सत्यवचनाद् वीरः सशरीरो दिवं गतः।
त्रिशङ्कोरभवत् सूनुधुन्धुमारो महायशाः॥१२॥
‘वे वीर त्रिशंकु विश्वामित्र के सत्य वचन के प्रभाव से सदेह स्वर्गलोक को चले गये थे। त्रिशंकु के महायशस्वी धुन्धुमार हुए॥ १२ ॥
धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो व्यजायत।
युवनाश्वसुतः श्रीमान् मान्धाता समपद्यत॥१३॥
‘धुन्धुमार से महातेजस्वी युवनाश्व का जन्म हुआ। युवनाश्व के पुत्र श्रीमान् मान्धाता हुए॥ १३ ॥
मान्धातुस्तु महातेजाः सुसंधिरुदपद्यत।
सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित्॥१४॥
‘मान्धाता के महान् तेजस्वी पुत्र सुसंधि हुए। सुसंधि के दो पुत्र हुए-ध्रुवसंधि और प्रसेनजित्॥ १४॥
यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो रिपुसूदनः।
भरतात् तु महाबाहोरसितो नाम जायत॥१५॥
‘ध्रुवसंधि के यशस्वी पुत्र शत्रुसूदन भरत थे। महाबाहु भरत से असित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। १५॥
यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यन्त शत्रवः।
हैहयास्तालजङ्घाश्च शूराश्च शशबिन्दवः॥
‘जिसके शत्रुभूत प्रतिपक्षी राजा ये हैहय, तालजंघ और शूर शशबिन्दु उत्पन्न हुए थे॥ १६ ॥
तांस्तु सर्वान् प्रतिव्यूह्य युद्धे राजा प्रवासितः।
स च शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः॥१७॥
‘उन सबका सामना करने के लिये सेना का व्यूह बनाकर युद्ध के लिये डटे रहने पर भी शत्रुओं की संख्या अधिक होने के कारण राजा असित को हारकर परदेश की शरण लेनी पड़ी। वे रमणीय शैल-शिखर पर प्रसन्नतापूर्वक रहकर मुनिभाव से परमात्मा का मन नचिन्तन करने लगे।
ढे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः।
तत्र चैका महाभागा भार्गवं देववर्चसम्॥१८॥
ववन्दे पद्मपत्राक्षी कांक्षिणी पुत्रमुत्तमम्।
एका गर्भविनाशाय सपत्न्यै गरलं ददौ॥१९॥
“सुना जाता है कि असित की दो पत्नियाँ गर्भवती थीं। उनमें से एक महाभागा कमललोचना राजपत्नी नेउत्तम पुत्र पाने की अभिलाषा रखकर देवतुल्य तेजस्वी भृगुवंशीच्यवन मुनि के चरणों में वन्दना की और दूसरी रानी ने अपनी सौत के गर्भ का विनाश करने के लिये उसे जहर दे दिया।
भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवन्तमुपाश्रितः।
तमृषिं साभ्युपागम्य कालिन्दी त्वभ्यवादयत्॥ २०॥
‘उन दिनों भृगुवंशी च्यवन मुनि हिमालय पर रहते थे। राजा असित की कालिन्दी नामवाली पत्नी ने ऋषि के चरणों में पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया॥ २० ॥
स तामभ्यवदत् प्रीतो वरेप्सुं पुत्रजन्मनि।
पुत्रस्ते भविता देवि महात्मा लोकविश्रुतः॥ २१॥
धार्मिकश्च सुभीमश्च वंशकर्तारिसूदनः।
‘मुनि ने प्रसन्न होकर पुत्र की उत्पत्ति के लिये वरदान चाहने वाली रानी से इस प्रकार कहा—’देवि! तुम्हें एक महामनस्वी लोकविख्यात पुत्र प्राप्त होगा, जो धर्मात्मा, शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर, अपने वंश को चलाने वाला और शत्रुओं का संहारक होगा’। २१ १/२॥
श्रुत्वा प्रदक्षिणं कृत्वा मुनिं तमनुमान्य च॥२२॥
पद्मपत्रसमानाक्षं पद्मगर्भसमप्रभम्।
ततः सा गृहमागम्य पत्नी पुत्रमजायत ॥२३॥
‘यह सुनकर रानी ने मुनि की परिक्रमा की और उनसे विदा लेकर वहाँ से अपने घर आने पर उस रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसकी कान्ति कमल के भीतरी भाग के समान सुन्दर थी और नेत्र कमलदल के समान मनोहर थे॥ २२-२३॥
सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया।
गरेण सह तेनैव तस्मात् स सगरोऽभवत्॥२४॥
‘सौत ने उसके गर्भ को नष्ट करने के लिये जो गर (विष) दिया था, उस गर के साथ ही वह बालक प्रकट हुआ; इसलिये सगर नाम से प्रसिद्ध हुआ॥ २४॥
स राजा सगरो नाम यः समुद्रमखानयत्।
इष्ट्वा पर्वणि वेगेन त्रासयान इमाः प्रजाः॥२५॥
‘राजा सगर वे ही हैं, जिन्होंने पर्व के दिन यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करके खुदाई के वेग से इन समस्त प्रजाओं को भयभीत करते हुए अपने पुत्रों द्वारा समुद्र को खुदवाया था॥ २५ ॥
असमञ्जस्तु पुत्रोऽभूत् सगरस्येति नः श्रुतम्।
जीवन्नेव स पित्रा तु निरस्तः पापकर्मकृत्॥ २६॥
‘हमारे सुनने में आया है कि सगर के पुत्र असमञ्ज हुए, जिन्हें पापकर्म में प्रवृत्त होने के कारण पिताने जीते-जी ही राज्य से निकाल दिया था॥ २६ ॥
अंशुमानपि पुत्रोऽभूदसमञ्जस्य वीर्यवान्।
दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥ २७॥
‘असमञ्ज के पुत्र अंशुमान् हुए, जो बड़े पराक्रमी थे। अंशुमान् के दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए।॥ २७॥
भगीरथात् ककुत्स्थश्च काकुत्स्था येन तु स्मृताः।
ककुत्स्थस्य तु पुत्रोऽभूद् रघुर्येन तु राघवाः॥ २८॥
‘भगीरथ से ककुत्स्थ का जन्म हुआ, जिनसे उनके वंशवाले ‘काकुत्स्थ’ कहलाते हैं। ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, जिनसे उस वंश के लोग ‘राघव’ कहलाये। २८॥
रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः।
कल्माषपादः सौदास इत्येवं प्रथितो भवि॥२९॥
‘रघु के तेजस्वी पुत्र कल्माषपाद हुए, जो बड़े होने पर शापवश कुछ वर्षों के लिये नरभक्षी राक्षस हो गये थे। वे इस पृथ्वी पर सौदास नाम से विख्यात थे।
कल्माषपादपुत्रोऽभूच्छङ्खणस्त्विति नः श्रुतम्।
यस्तु तदीर्यमासाद्य सहसैन्यो व्यनीनशत्॥३०॥
‘कल्माषपाद के पुत्र शङ्खण हुए, यह हमारे सुनने में आया है, जो युद्ध में सुप्रसिद्ध पराक्रम प्राप्त करके भी सेनासहित नष्ट हो गये थे॥ ३०॥
शङ्खणस्य तु पुत्रोऽभूच्छूरः श्रीमान् सुदर्शनः।
सुदर्शनस्याग्निवर्ण अग्निवर्णस्य शीघ्रगः॥३१॥
‘शङ्खण के शूरवीर पुत्र श्रीमान् सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण और अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग थे।
शीघ्रगस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रशुश्रुवः।
प्रशुश्रुवस्य पुत्रोऽभूदम्बरीषो महामतिः॥३२॥
‘शीघ्रग के पुत्र मरु, मरु के पुत्र प्रशुश्रुव तथा प्रशुश्रुव के महाबुद्धिमान् पुत्र अम्बरीष हुए॥ ३२॥
अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषः सत्यविक्रमः।
नहुषस्य च नाभागः पुत्रः परमधार्मिकः॥३३॥
‘अम्बरीष के पुत्र सत्यपराक्रमी नहुष थे। नहुष के पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे॥३३॥
अजश्च सुव्रतश्चैव नाभागस्य सुतावुभौ।
अजस्य चैव धर्मात्मा राजा दशरथः सुतः॥३४॥
‘नाभाग के दो पुत्र हुए-अज और सुव्रत। अज के धर्मात्मा पुत्र राजा दशरथ थे॥ ३४ ॥
तस्य ज्येष्ठोऽसि दायादो राम इत्यभिविश्रुतः।
तद् गृहाण स्वकं राज्यमवेक्षस्व जगन्नृप॥ ३५॥
‘दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र तुम हो, जिसकी ‘श्रीराम’ के नाम से प्रसिद्धि है। नरेश्वर! यह अयोध्या का राज्य तुम्हारा है, इसे ग्रहण करो और इसकी देखभाल करते रहो॥ ३५॥
इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां राजा भवति पूर्वजः।
पूर्वजे नावरः पुत्रो ज्येष्ठो राजाभिषिच्यते॥३६॥
‘समस्त इक्ष्वाकुवंशियों के यहाँ ज्येष्ठ पुत्र ही राजा होता आया है। ज्येष्ठ के होते हुए छोटा पुत्र राजा नहीं होता है। ज्येष्ठ पुत्र का ही राजा के पद पर अभिषेक होता है॥ ३६॥
स राघवाणां कुलधर्ममात्मनः सनातनं नाद्य विहन्तुमर्हसि।
प्रभूतरत्नामनुशाधि मेदिनी प्रभूतराष्ट्रां पितृवन्महायशः॥३७॥
‘महायशस्वी श्रीराम! रघुवंशियों का जो अपना सनातन कुलधर्म है, उसको आज तुम नष्ट न करो। बहुत-से अवान्तर देशोंवाली तथा प्रचुर रत्नराशि से सम्पन्न इस वसुधा का पिता की भाँति पालन करो’। ३७॥
सर्ग १११
वसिष्ठः स तदा राममुक्त्वा राजपुरोहितः।
अब्रवीद् धर्मसंयुक्तं पुनरेवापरं वचः॥१॥
उस समय राजपुरोहित वसिष्ठ ने पूर्वोक्त बातें कहकर पुनः श्रीराम से दूसरी धर्मयुक्त बातें कहीं-॥ १॥
पुरुषस्येह जातस्य भवन्ति गुरवः सदा।
आचार्यश्चैव काकुत्स्थ पिता माता च राघव॥ २॥
‘रघुनन्दन! ककुत्स्थ कुलभूषण! इस संसार में उत्पन्न हुए पुरुष के सदा तीन गुरु होते हैं—आचार्य, पिता और माता॥२॥
पिता ह्येनं जनयति पुरुषं पुरुषर्षभ।
प्रज्ञां ददाति चाचार्यस्तस्मात् स गुरुरुच्यते॥३॥
‘पुरुषप्रवर! पिता पुरुष के शरीर को उत्पन्न करता है, इसलिये गुरु है और आचार्य उसे ज्ञान देता है, इसलिये गुरु कहलाता है॥३॥
स तेऽहं पितुराचार्यस्तव चैव परंतप।
मम त्वं वचनं कुर्वन् नातिवर्तेः सतां गतिम्॥४॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले रघुवीर! मैं तुम्हारे पिता का और तुम्हारा भी आचार्य हूँ; अतः मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम सत्पुरुषों के पथ का त्याग करने वाले नहीं समझे जाओगे॥ ४॥
इमा हि ते परिषदो ज्ञातयश्च नृपास्तथा।
एषु तात चरन् धर्मं नातिवर्तेः सतां गतिम्॥५॥
‘तात! ये तुम्हारे सभासद्, बन्धु-बान्धव तथा सामन्त राजा पधारे हुए हैं, इनके प्रति धर्मानुकूल बर्ताव करने से भी तुम्हारे द्वारा सन्मार्गका उल्लङ्घन नहीं होगा॥५॥
वृद्धाया धर्मशीलाया मातुर्नार्हस्यवर्तितुम्।
अस्या हि वचनं कुर्वन् नातिवर्तेः सतां गतिम्॥ ६॥
‘अपनी धर्मपरायणा बूढ़ी माता की बात तो तुम्हें कभी टालनी ही नहीं चाहिये। इनकी आज्ञा का पालन करके तुम श्रेष्ठ पुरुषों के आश्रयभूत धर्म का उल्लङ्घन करने वाले नहीं माने जाओगे॥६॥
भरतस्य वचः कुर्वन् याचमानस्य राघव।
आत्मानं नातिवर्तेस्त्वं सत्यधर्मपराक्रम॥७॥
‘सत्य, धर्म और पराक्रम से सम्पन्न रघुनन्दन ! भरत अपने आत्मस्वरूप तुमसे राज्य ग्रहण करने और अयोध्या लौटने की प्रार्थना कर रहे हैं, उनकी बात मान लेने से भी तुम धर्म का उल्लङ्घन करने वाले नहीं कहलाओगे’ ॥ ७॥
एवं मधुरमुक्तः स गुरुणा राघवः स्वयम्।
प्रत्युवाच समासीनं वसिष्ठं पुरुषर्षभः॥८॥
गुरु वसिष्ठ ने सुमधुर वचनों में जब इस प्रकार कहा, तब साक्षात् पुरुषोत्तम श्रीराघवेन्द्र ने वहाँ बैठे हुए वसिष्ठजी को यों उत्तर दिया॥८॥
यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा।
न सुप्रतिकरं तत् तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम्॥९॥
यथाशक्तिप्रदानेन स्वापनोच्छादनेन च।
नित्यं च प्रियवादेन तथा संवर्धनेन च ॥१०॥
‘माता और पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम खाद्य पदार्थ देने, अच्छे बिछौने पर सुलाने, उबटन आदि लगाने, सदा मीठी बातें बोलने तथा पालन-पोषण करने आदि के द्वारा माता और पिता ने जो उपकार किया है, उसका बदला सहज ही नहीं चुकाया जा सकता।
स हि राजा दशरथः पिता जनयिता मम।
आज्ञापयन्मां यत् तस्य न तन्मिथ्या भविष्यति॥ ११॥
‘अतः मेरे जन्मदाता पिता महाराज दशरथने मुझे जो आज्ञा दी है, वह मिथ्या नहीं होगी’ ॥ ११ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण भरतः प्रत्यनन्तरम्।
उवाच विपुलोरस्कः सूतं परमदुर्मनाः॥१२॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर चौड़ी छाती वाले भरतजी का मन बहुत उदास हो गया। वे पास ही बैठे हुए सूत सुमन्त्र से बोले- ॥ १२॥
इह तु स्थण्डिले शीघ्रं कुशानास्तर सारथे।
आर्य प्रत्युपवेक्ष्यामि यावन्मे सम्प्रसीदति॥१३॥
निराहारो निरालोको धनहीनो यथा द्विजः।
शये पुरस्ताच्छालायां यावन्मां प्रतियास्यति॥ १४॥
‘सारथे! आप इस वेदी पर शीघ्र ही बहुत-से कुश बिछा दीजिये। जबतक आर्य मुझ पर प्रसन्न नहीं होंगे,तब तक मैं यहीं इनके पास धरना दूंगा। जैसे साहूकार या महाजनके द्वारा निर्धन किया हुआ ब्राह्मण उसके घर के दरवाजे पर मुँह ढककर बिना खाये-पिये पड़ा रहता है, उसी प्रकार मैं भी उपवासपूर्वक मुख पर आवरण डालकर इस कुटिया के सामने लेट जाऊँगा। जब तक मेरी बात मानकर ये अयोध्या को नहीं लौटेंगे, तब तक मैं इसी तरह पड़ा रहूँगा’ ॥ १३-१४ ॥
स तु राममवेक्षन्तं सुमन्त्रं प्रेक्ष्य दुर्मनाः।
कुशोत्तरमुपस्थाप्य भूमावेवास्थितः स्वयम्॥ १५॥
यह सुनकर सुमन्त्र श्रीरामचन्द्रजी का मुँह ताकने लगे। उन्हें इस अवस्था में देख भरत के मन में बड़ादुःख हुआ और वे स्वयं ही कुश की चटाई बिछाकर जमीन पर बैठ गये॥ १५ ॥
तमुवाच महातेजा रामो राजर्षिसत्तमः।
किं मां भरत कुर्वाणं तात प्रत्युपवेक्ष्यसे ॥१६॥
तब महातेजस्वी राजर्षिशिरोमणि श्रीराम ने उनसे कहा- ‘तात भरत! मैं तुम्हारी क्या बुराई करता हूँ, जो मेरे आगे धरना दोगे? ॥ १६ ॥
ब्राह्मणो ह्येकपाइँन नरान् रोडुमिहार्हति।
न तु मूर्धाभिषिक्तानां विधिः प्रत्युपवेशने ॥१७॥
‘ब्राह्मण एक करवट से सोकर धरना देकर मनुष्यों को अन्याय से रोक सकता है, परंतु राजतिलक ग्रहण करने वाले क्षत्रियों के लिये इस प्रकार धरना देने का विधान नहीं है॥ १७ ॥
उत्तिष्ठ नरशार्दूल हित्वैतद् दारुणं व्रतम्।
पुरवर्यामितः क्षिप्रमयोध्यां याहि राघव॥१८॥
‘अतः नरश्रेष्ठ रघुनन्दन! इस कठोर व्रत का परित्याग करके उठो और यहाँ से शीघ्र ही अयोध्यापुरी को जाओ’॥
आसीनस्त्वेव भरतः पौरजानपदं जनम्।
उवाच सर्वतः प्रेक्ष्य किमार्यं नानुशासथ ॥१९॥
यह सुनकर भरत वहाँ बैठे-बैठे ही सब ओर दृष्टि डालकर नगर और जनपद के लोगों से बोले —’आपलोग भैया को क्यों नहीं समझाते हैं ?’॥ १९॥
ते तदोचुर्महात्मानं पौरजानपदा जनाः।
काकुत्स्थमभिजानीमः सम्यग् वदति राघवः॥ २०॥
तब नगर और जनपद के लोग महात्मा भरत से बोले —’हम जानते हैं, काकुत्स्थ श्रीरामचन्द्रजी के प्रति आप रघुकुल-तिलक भरत जी ठीक ही कहते हैं। २०॥
एषोऽपि हि महाभागः पितुर्वचसि तिष्ठति।
अत एव न शक्ताः स्मो व्यावर्तयितुमञ्जसा॥ २१॥
‘परंतु ये महाभाग श्रीरामचन्द्रजी भी पिता की आज्ञा के पालन में लगे हैं, इसलिये यह भी ठीक ही है। अतएव हम इन्हें सहसा उस ओर से लौटाने में असमर्थ हैं’ ॥ २१॥
तेषामाज्ञाय वचनं रामो वचनमब्रवीत्।
एवं निबोध वचनं सुहृदां धर्मचक्षुषाम्॥ २२॥
उन पुरवासियों के वचन का तात्पर्य समझकर श्रीराम ने भरत से कहा—’भरत! धर्मपर दृष्टि रखने वाले सुहृदों के इस कथन को सुनो और समझो॥ २२॥
एतच्चैवोभयं श्रुत्वा सम्यक् सम्पश्य राघव।
उत्तिष्ठ त्वं महाबाहो मां च स्पृश तथोदकम्॥ २३॥
‘रघुनन्दन! मेरी और इनकी दोनों बातों को सुनकर उन पर सम्यक् रूप से विचार करो। महाबाहो! अब शीघ्र उठो तथा मेरा और जल का स्पर्श करो’ ॥ २३॥
अथोत्थाय जलं स्पृष्ट्वा भरतो वाक्यमब्रवीत्।
शृण्वन्तु मे परिषदो मन्त्रिणः शृणुयुस्तथा॥ २४॥
न याचे पितरं राज्यं नानुशासामि मातरम्।
एवं परमधर्मज्ञं नानुजानामि राघवम्॥२५॥
यह सुनकर भरत उठकर खड़े हो गये और श्रीराम एवं जल का स्पर्श करके बोले—’मेरे सभासद् और मन्त्री सब लोग सुनें न तो मैंने पिताजी से राज्य माँगा था और न माता से ही कभी इसके लिये कुछ कहा था। साथ ही, परम धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी के वनवास में भी मेरी कोई सम्मति नहीं है॥ २४-२५॥
यदि त्ववश्यं वस्तव्यं कर्तव्यं च पितुर्वचः।
अहमेव निवत्स्यामि चतुर्दश वने समाः॥२६॥
‘फिर भी यदि इनके लिये पिताजी की आज्ञा का पालन करना और वन में रहना अनिवार्य है तो इनके बदले मैं ही चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा’॥ २६॥
धर्मात्मा तस्य सत्येन भ्रातुर्वाक्येन विस्मितः।
उवाच रामः सम्प्रेक्ष्य पौरजानपदं जनम्॥२७॥
भाई भरत की इस सत्य बात से धर्मात्मा श्रीराम को बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने पुरवासी तथा राज्यनिवासी लोगों की ओर देखकर कहा- ॥२७॥
विक्रीतमाहितं क्रीतं यत् पित्रा जीवता मम।
न तल्लोपयितुं शक्यं मया वा भरतेन वा॥२८॥
‘पिताजी ने अपने जीवनकाल में जो वस्तु बेंच दी है, या धरोहर रख दी है, अथवा खरीदी है, उसे मैं अथवा भरत कोई भी पलट नहीं सकता॥ २८ ॥
उपाधिन मया कार्यो वनवासे जुगुप्सितः।
युक्तमुक्तं च कैकेय्या पित्रा मे सुकृतं कृतम्॥ २९॥
‘मुझे वनवास के लिये किसी को प्रतिनिधि नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि सामर्थ्य रहते हुए प्रतिनिधि से काम लेना लोक में निन्दित है। कैकेयी ने उचित माँग ही प्रस्तुत की थी और मेरे पिताजी ने उसे देकर पुण्य कर्म ही किया था।
जानामि भरतं क्षान्तं गुरुसत्कारकारिणम्।
सर्वमेवात्र कल्याणं सत्यसंधे महात्मनि॥३०॥
‘मैं जानता हूँ, भरत बड़े क्षमाशील और गुरुजनों का सत्कार करने वाले हैं, इन सत्यप्रतिज्ञ महात्मा में सभी कल्याणकारी गुण मौजूद हैं॥ ३० ॥
अनेन धर्मशीलेन वनात् प्रत्यागतः पुनः।
भ्रात्रा सह भविष्यामि पृथिव्याः पतिरुत्तमः॥ ३१॥
‘चौदह वर्षों की अवधि पूरी करके जब मैं वन से लौटूंगा, तब अपने इन धर्मशील भाई के साथ इस भूमण्डल का श्रेष्ठ राजा होऊँगा॥३१॥
वृतो राजा हि कैकेय्या मया तद्वचनं कृतम्।
अनृतान्मोचयानेन पितरं तं महीपतिम्॥३२॥
‘कैकेयी ने राजा से वर माँगा और मैंने उसका पालन स्वीकार कर लिया, अतः भरत! अब तुम मेरा कहना मानकर उस वर के पालन द्वारा अपने पिता महाराज दशरथ को असत्य के बन्धन से मुक्त करो’। ३२॥
सर्ग ११२
तमप्रतिमतेजोभ्यां भ्रातृभ्यां रोमहर्षणम्।
विस्मिताः संगमं प्रेक्ष्य समुपेता महर्षयः॥१॥
उन अनुपम तेजस्वी भ्राताओं का वह रोमाञ्चकारी समागम देख वहाँ आये हुए महर्षियों को बड़ा विस्मय हुआ॥१॥
अन्तर्हिता मुनिगणाः स्थिताश्च परमर्षयः।
तौ भ्रातरौ महाभागौ काकुत्स्थौ प्रशशंसिरे ॥२॥
अन्तरिक्ष में अदृश्य भाव से खड़े हुए मुनि तथा वहाँ प्रत्यक्ष रूप में बैठे हुए महर्षि उन महान् भाग्यशाली ककुत्स्थवंशी बन्धुओं की इस प्रकार प्रशंसा करने लगे— ॥२॥
सदा? राजपुत्रौ द्वौ धर्मज्ञौ धर्मविक्रमौ।
श्रुत्वा वयं हि सम्भाषामुभयोः स्पृहयामहे ॥३॥
‘ये दोनों राजकुमार सदा श्रेष्ठ, धर्म के ज्ञाता और धर्म मार्ग पर ही चलने वाले हैं। इन दोनों की बातचीत सुनकर हमें उसे बारंबार सुनते रहने की ही इच्छा होती है ॥३॥
ततस्त्वृषिगणाः क्षिप्रं दशग्रीववधैषिणः।
भरतं राजशार्दूलमित्यूचुः संगता वचः॥४॥
तदनन्तर दशग्रीव रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले ऋषियों ने मिलकर राजसिंह भरत से तुरंत ही यह बात कही— ॥४॥
कुले जात महाप्राज्ञ महावृत्त महायशः।
ग्राह्यं रामस्य वाक्यं ते पितरं यद्यवेक्षसे॥५॥
‘महाप्राज्ञ! तुम उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारा आचरण बहुत उत्तम और यश महान् है। यदि तुम अपने पिता की ओर देखो उन्हें सुख पहुँचाना चाहो तो तुम्हें श्रीरामचन्द्रजी की बात मान लेनी चाहिये॥ ५॥
सदानृणमिमं रामं वयमिच्छामहे पितुः।
अनृणत्वाच्च कैकेय्याः स्वर्गं दशरथो गतः॥६॥
‘हमलोग इन श्रीराम को पिता के ऋण से सदा उऋण देखना चाहते हैं। कैकेयी का ऋण चुका देने के कारण ही राजा दशरथ स्वर्ग में पहुँचे हैं’ ॥ ६॥
एतावदुक्त्वा वचनं गन्धर्वाः समहर्षयः।
राजर्षयश्चैव तथा सर्वे स्वां स्वां गतिं गताः॥ ७॥
इतना कहकर वहाँ आये हुए गन्धर्व, महर्षि और राजर्षि सब अपने-अपने स्थान को चले गये॥७॥
हह्लादितस्तेन वाक्येन शुशुभे शुभदर्शनः।
रामः संहृष्टवदनस्तानृषीनभ्यपूजयत्॥८॥
जिनके दर्शन से जगत् का कल्याण हो जाता है, वे भगवान् श्रीराम महर्षियों के वचन से बहुत प्रसन्न हुए। उनका मुख हर्षोल्लास से खिल उठा, इससे उनकी बड़ी शोभा हुई और उन्होंने उन महर्षियों की सादर प्रशंसा की॥८॥
त्रस्तगात्रस्तु भरतः स वाचा सज्जमानया।
कृताञ्जलिरिदं वाक्यं राघवं पुनरब्रवीत्॥९॥
परंतु भरत का सारा शरीर थर्रा उठा। वे लड़खड़ाती हुई जबान से हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजी से बोले- ॥ ९॥
राम धर्ममिमं प्रेक्ष्य कुलधर्मानुसंततम्।
कर्तुमर्हसि काकुत्स्थ मम मातुश्च याचनाम्॥ १०॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! हमारे कुलधर्म से सम्बन्ध रखने वाला जो ज्येष्ठ पुत्र का राज्यग्रहण और प्रजापालन रूप धर्म है, उसकी ओर दृष्टि डालकर आप मेरी तथा माता की याचना सफल कीजिये॥ १०॥
रक्षितुं सुमहद् राज्यमहमेकस्तु नोत्सहे।
पौरजानपदांश्चापि रक्तान् रञ्जयितुं तदा ॥११॥
‘मैं अकेला ही इस विशाल राज्य की रक्षा नहीं कर सकता तथा आपके चरणों में अनुराग रखने वाले इन पुरवासी तथा जनपदवासी लोगों को भी आपके बिना प्रसन्न नहीं रख सकता ॥ ११॥
ज्ञातयश्चापि योधाश्च मित्राणि सुहृदश्च नः।
त्वामेव हि प्रतीक्षन्ते पर्जन्यमिव कर्षकाः॥१२॥
‘जैसे किसान मेघ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, उसी प्रकार हमारे बन्धु-बान्धव, योद्धा, मित्र और सुहृद् सब लोग आपकी ही बाट जोहते हैं ॥ १२ ॥
इदं राज्यं महाप्राज्ञ स्थापय प्रतिपद्य हि।
शक्तिमान् स हि काकुत्स्थ लोकस्य परिपालने॥
‘महाप्राज्ञ ! आप इस राज्य को स्वीकार करके दूसरे किसी को इसके पालन का भार सौंप दीजिये। वही पुरुष आपके प्रजावर्ग अथवा लोक का पालन करने में समर्थ हो सकता है’ ॥१३॥
एवमुक्त्वापतद् भ्रातुः पादयोर्भरतस्तदा।
भृशं सम्प्रार्थयामास राघवेऽतिप्रियं वदन्॥१४॥
ऐसा कहकर भरत अपने भाई के चरणों पर गिर पड़े। उस समय उन्होंने श्रीरघुनाथजी से अत्यन्त प्रिय वचन बोलकर उनसे राज्यग्रहण करने के लिये बड़ी प्रार्थना की॥
तमङ्के भ्रातरं कृत्वा रामो वचनमब्रवीत्।
श्यामं नलिनपत्राक्षं मत्तहंसस्वरः स्वयम्॥१५॥
तब श्रीरामचन्द्रजी ने श्यामवर्ण कमलनयन भाई भरत को उठाकर गोद में बिठा लिया और मदमत्तहंस के समान मधुर स्वर में स्वयं यह बात कही-॥ १५॥
आगता त्वामियं बुद्धिः स्वजा वैनयिकी च या।
भृशमुत्सहसे तात रक्षितुं पृथिवीमपि॥१६॥
‘तात! तुम्हें जो यह स्वाभाविक विनयशील बुद्धि प्राप्त हुई है इस बुद्धि के द्वारा तुम समस्त भूमण्डल की रक्षा करने में भी पूर्णरूप से समर्थ हो सकते हो॥ १६॥
अमात्यैश्च सुहृद्भिश्च बुद्धिमद्भिश्च मन्त्रिभिः।
सर्वकार्याणि सम्मन्त्र्य महान्त्यपि हि कारय॥ १७॥
‘इसके सिवा अमात्यों, सुहृदों और बुद्धिमान् मन्त्रियों से सलाह लेकर उनके द्वारा सब कार्य, वे कितने ही बड़े क्यों न हों, करा लिया करो॥ १७ ॥
लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद् वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत्।
अतीयात् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः॥१८॥
‘चन्द्रमा से उसकी प्रभा अलग हो जाय, हिमालय हिम का परित्याग कर दे, अथवा समुद्र अपनी सीमा को लाँघकर आगे बढ़ जाय, किंतु मैं पिताकी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता॥ १८ ॥
कामाद् वा तात लोभाद् वा मात्रा तुभ्यमिदं
कृतम्। न तन्मनसि कर्तव्यं वर्तितव्यं च मातृवत्॥१९॥
‘तात! माता कैकेयी ने कामना से अथवा लोभवश तुम्हारे लिये जो कुछ किया है, उसको मनमें न लाना और उसके प्रति सदा वैसा ही बर्ताव करना जैसा अपनी पूजनीया माता के प्रति करना उचित है’ ॥ १९॥
एवं ब्रुवाणं भरतः कौसल्यासुतमब्रवीत्।
तेजसाऽऽदित्यसंकाशं प्रतिपच्चन्द्रदर्शनम्॥२०॥
जो सूर्य के समान तेजस्वी हैं तथा जिनका दर्शन प्रतिपदा (द्वितीया) के चन्द्रमा की भाँति आह्लादजनक है, उन कौसल्यानन्दन श्रीराम के इस प्रकार कहने पर भरत उनसे यों बोले- ॥ २० ॥
अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यतः॥२१॥
‘आर्य! ये दो सुवर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन पर अपने चरण रखें। येही सम्पूर्ण जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी’। २१॥
सोऽधिरुह्य नरव्याघ्रः पादुके व्यवमुच्य च।
प्रायच्छत् सुमहातेजा भरताय महात्मने ॥२२॥
तब महातेजस्वी पुरुषसिंह श्रीराम ने उन पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें फिर अलग कर दिया और महात्मा भरत को सौंप दिया॥ २२॥
स पादुके सम्प्रणम्य रामं वचनमब्रवीत्।
चतुर्दश हि वर्षाणि जटाचीरधरो ह्यहम्॥२३॥
फलमूलाशनो वीर भवेयं रघुनन्दन।
तवागमनमाकांक्षन् वसन् वै नगराद् बहिः॥ २४॥
तव पादुकयोय॑स्य राज्यतन्त्रं परंतप।
उन पादुकाओं को प्रणाम करके भरत ने श्रीराम से कहा—’वीर रघुनन्दन! मैं भी चौदह वर्षों तक जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूँगा। परंतप! इतने दिनों तक राज्य का सारा भार आपकी इन चरण-पादुकाओं पर ही रखकर मैं आपकी बाट जोहता रहूँगा।
चतुर्दशे हि सम्पूर्णे वर्षेऽहनि रघूत्तम ॥२५॥
न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्।
‘रघुकुलशिरोमणे! यदि चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपका दर्शन नहीं मिलेगा तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा’।
तथेति च प्रतिज्ञाय तं परिष्वज्य सादरम्॥२६॥
शत्रुघ्नं च परिष्वज्य वचनं चेदमब्रवीत्॥
श्रीरामचन्द्रजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकृति दे दी और बड़े आदर के साथ भरत को हृदय से लगाया। तत्पश्चात् शत्रुघ्न को भी छाती से लगाकर यह बात कही।
मातरं रक्ष कैकेयीं मा रोषं कुरु तां प्रति॥ २७॥
मया च सीतया चैव शप्तोऽसि रघुनन्दन।
इत्युक्त्वाश्रुपरीताक्षो भ्रातरं विससर्ज ह॥२८॥
‘रघुनन्दन! मैं तुम्हें अपनी और सीता की शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम माता कैकेयी की रक्षा करना, उनके प्रति कभी क्रोध न करना’—इतना कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये। उन्होंने व्यथित हृदय से भाई शत्रुघ्न को विदा किया। २७-२८॥
स पादुके ते भरतः स्वलंकृते महोज्ज्वले सम्परिगृह्य धर्मवित् ।
प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं चकार चैवोत्तमनागमूर्धनि॥२९॥
धर्मज्ञ भरत ने भलीभाँति अलंकृत की हुई उन परम उज्ज्वल चरणपादुकाओं को लेकर श्रीरामचन्द्रजी की परिक्रमा की तथा उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले सर्वश्रेष्ठ गजराज के मस्तक पर स्थापित किया।
अथानुपूर्व्या प्रतिपूज्य तं जनं गुरूंश्च मन्त्री प्रकृतीस्तथानुजौ।
व्यसर्जयद् राघववंशवर्धनः स्थितः स्वधर्मे हिमवानिवाचलः॥३०॥
तदनन्तर अपने धर्म में हिमालय की भाँति अविचल भाव से स्थित रहने वाले रघुवंशवर्धन श्रीराम ने क्रमशः वहाँ आये हुए जनसमुदाय, गुरु, मन्त्री, प्रजा तथा दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार करके उन्हें विदा किया।
तं मातरो बाष्पगृहीतकण्ठ्यो दुःखेन नामन्त्रयितुं हि शेकुः।
स चैव मातृरभिवाद्य सर्वा रुदन् कुटीं स्वां प्रविवेश रामः॥३१॥
उस समय कौसल्या आदि सभी माताओं का गला आँसुओं से रुंध गया था। वे दुःख के कारण श्रीराम को सम्बोधित भी न कर सकीं। श्रीराम भी सब माताओं को प्रणाम करके रोते हुए अपनी कुटिया में चले गये॥ ३१॥
सर्ग ११३
ततः शिरसि कृत्वा तु पादुके भरतस्तदा।
आरुरोह रथं हृष्टः शत्रुघ्नसहितस्तदा ॥१॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी की दोनों चरणपादुकाओं को अपने मस्तक पर रखकर भरत शत्रुघ्न के साथ प्रसन्नता-पूर्वक रथ पर बैठे॥१॥
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिश्च दृढव्रतः।
अग्रतः प्रययुः सर्वे मन्त्रिणो मन्त्रपूजिताः॥२॥
वसिष्ठ, वामदेव तथा दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले जाबालि आदि सब मन्त्री, जो उत्तम मन्त्रणा देने के कारण सम्मानित थे, आगे-आगे चले॥ २॥
मन्दाकिनी नदी रम्यां प्राङ्मुखास्ते ययुस्तदा।
प्रदक्षिणं च कुर्वाणाश्चित्रकूटं महागिरिम्॥३॥
वे सब लोग चित्रकूट नामक महान् पर्वत की परिक्रमा करते हुए परम रमणीय मन्दाकिनी नदी को पार करके पूर्व दिशा की ओर प्रस्थित हुए॥३॥
पश्यन् धातुसहस्राणि रम्याणि विविधानि च।
प्रययौ तस्य पाइँन ससैन्यो भरतस्तदा॥४॥
उस समय भरत अपनी सेना के साथ सहस्रों प्रकार के रमणीय धातुओं को देखते हुए चित्रकूट के किनारे से होकर निकले॥ ४॥
अदूराच्चित्रकूटस्य ददर्श भरतस्तदा।
आश्रमं यत्र स मुनिर्भरद्वाजः कृतालयः॥५॥
चित्रकूट से थोड़ी ही दूर जाने पर भरत ने वह आश्रम देखा, जहाँ मुनिवर भरद्वाज जी निवास करते थे।
स तमाश्रममागम्य भरद्वाजस्य वीर्यवान्।
अवतीर्य रथात् पादौ ववन्दे कुलनन्दनः॥६॥
अपने कुल को आनन्दित करने वाले पराक्रमी भरत महर्षि भरद्वाज के उस आश्रमपर पहुँचकर रथ से उतर पड़े और उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया॥६॥
ततो हृष्टो भरद्वाजो भरतं वाक्यमब्रवीत्।
अपि कृत्यं कृतं तात रामेण च समागतम्॥७॥
उनके आने से महर्षि भरद्वाज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भरत से पूछा—’तात! क्या तुम्हारा कार्य सम्पन्न हुआ? क्या श्रीरामचन्द्रजी से भेंट हुई?’॥ ७॥
एवमुक्तः स तु ततो भरद्वाजेन धीमता।
प्रत्युवाच भरद्वाजं भरतो धर्मवत्सलः॥८॥
बुद्धिमान् भरद्वाजजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मवत्सल भरत ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-॥ ८॥
स याच्यमानो गुरुणा मया च दृढविक्रमः।
राघवः परमप्रीतो वसिष्ठं वाक्यमब्रवीत्॥९॥
‘मुने! भगवान् श्रीराम अपने पराक्रम पर दृढ़ रहने वाले हैं। मैंने उनसे बहुत प्रार्थना की। गुरुजी ने भी अनुरोध किया तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर गुरुदेव वसिष्ठजी से इस प्रकार कहा- ॥९॥
पितुः प्रतिज्ञां तामेव पालयिष्यामि तत्त्वतः।
चतुर्दश हि वर्षाणि या प्रतिज्ञा पितुर्मम॥१०॥
‘मैं चौदह वर्षों तक वन में रहूँ, इसके लिये मेरे पिताजी ने जो प्रतिज्ञा कर ली थी, उनकी उस प्रतिज्ञाका ही मैं यथार्थ रूप से पालन करूँगा’ ॥ १० ॥
एवमुक्तो महाप्राज्ञो वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं राघवं वचनं महत्॥११॥
‘उनके ऐसा कहने पर बात के मर्म को समझने वाले महाज्ञानी वसिष्ठजी ने बातचीत करने में कुशल श्रीरघुनाथजी से यह महत्त्वपूर्ण बात कही— ॥११॥
एते प्रयच्छ संहृष्टः पादुके हेमभूषिते।
अयोध्यायां महाप्राज्ञ योगक्षेमकरो भव॥१२॥
‘महाप्राज्ञ! तुम प्रसन्नतापूर्वक ये स्वर्णभूषित पादुकाएँ अपने प्रतिनिधि के रूप में भरत को दे दो और इन्हीं के द्वारा अयोध्या के योगक्षेम का निर्वाह करो’॥
एवमुक्तो वसिष्ठेन राघवः प्राङ्मुखः स्थितः।
पादुके हेमविकृते मम राज्याय ते ददौ ॥१३॥
‘गुरु वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर पूर्वाभिमुख खड़े हुए श्रीरघुनाथजी ने अयोध्या के राज्य का संचालन करने के लिये ये दोनों स्वर्णभूषित पादुकाएँ मुझे दे दीं॥ १३॥
निवृत्तोऽहमनुज्ञातो रामेण सुमहात्मना।
अयोध्यामेव गच्छामि गृहीत्वा पादुके शुभे॥ १४॥
‘तत्पश्चात् मैं महात्मा श्रीराम की आज्ञा पाकर लौट आया हूँ और उनकी इन मङ्गलमयी चरणपादुकाओं को लेकर अयोध्या को ही जा रहा हूँ’॥ १४॥
एतच्छ्रत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः।
भरद्वाजः शुभतरं मुनिर्वाक्यमुदाहरत्॥१५॥
महात्मा भरत का यह शुभ वचन सुनकर भरद्वाज मुनि ने यह परम मङ्गलमय बात कही— ॥ १५ ॥
नैतच्चित्रं नरव्याघ्र शीलवृत्तविदां वरे।
यदार्यं त्वयि तिष्ठेत्तु निम्नोत्सृष्टमिवोदकम्॥१६॥
‘भरत! तुम मनुष्यों में सिंह के समान वीर तथा शील और सदाचार के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ हो। जैसे जल नीची भूमि वाले जलाशय में सब ओर से बहकर चला आता है, उसी प्रकार तुममें सारे श्रेष्ठ गुण स्थित हों यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है॥ १६ ॥
अनृणः स महाबाहुः पिता दशरथस्तव।
यस्य त्वमीदृशः पुत्रो धर्मात्मा धर्मवत्सलः॥ १७॥
‘तुम्हारे पिता महाबाहु राजा दशरथ सब प्रकार से उऋण हो गये, जिनके तुम-जैसा धर्म प्रेमी एवं धर्मात्मा पुत्र है’ ॥ १७॥
तमृषि तु महाप्राज्ञमुक्तवाक्यं कृताञ्जलिः।
आमन्त्रयितुमारेभे चरणावुपगृह्य च॥१८॥
उन महाज्ञानी महर्षि के ऐसा कहने पर भरत ने हाथ जोड़कर उनके चरणों का स्पर्श किया; फिर वे उनसे जाने की आज्ञा लेने को उद्यत हुए॥ १८॥
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा भरद्वाजं पुनः पुनः।
भरतस्तु ययौ श्रीमानयोध्यां सह मन्त्रिभिः॥ १९॥
तदनन्तर श्रीमान् भरत बारंबार भरद्वाज मुनि की परिक्रमा करके मन्त्रियों सहित अयोध्या की ओर चल दिये॥ १९॥
यानैश्च शकटैश्चैव हयैर्नागैश्च सा चमूः।
पुनर्निवृत्ता विस्तीर्णा भरतस्यानुयायिनी॥२०॥
फिर वह विस्तृत सेना रथों, छकड़ों, घोड़ों और हाथियों के साथ भरत का अनुसरण करती हुई अयोध्या को लौटी॥२०॥
ततस्ते यमुनां दिव्यां नदीं तीोर्मिमालिनीम्।
ददृशुस्तां पुनः सर्वे गङ्गां शिवजलां नदीम्॥ २१॥
तत्पश्चात् आगे जाकर उन सब लोगों ने तरंगमालाओं से सुशोभित दिव्य नदी यमुना को पार करके पुनः शुभसलिला गङ्गाजी का दर्शन किया॥२१॥
तां रम्यजलसम्पूर्णां संतीर्य सहबान्धवः।
शृङ्गवेरपुरं रम्यं प्रविवेश ससैनिकः ॥ २२॥
फिर बन्धु-बान्धवों और सैनिकों के साथ मनोहर जल से भरी हुई गङ्गा के भी पार होकर वे परम रमणीय शृङ्गवेरपुर में जा पहुँचे॥ २२ ॥
शृङ्गवेरपुराद् भूय अयोध्यां संददर्श ह।
अयोध्यां तु तदा दृष्ट्वा पित्रा भ्रात्रा विवर्जिताम्॥ २३॥
भरतो दुःखसंतप्तः सारथिं चेदमब्रवीत्।
शृङ्गवेरपुर से प्रस्थान करने पर उन्हें पुनः अयोध्यापुरी का दर्शन हुआ, जो उस समय पिता और भाई दोनों से विहीन थी। उसे देखकर भरत ने दुःखसे संतप्त हो सारथि से इस प्रकार कहा- ॥ २३ १/२ ॥
सारथे पश्य विध्वस्ता अयोध्या न प्रकाशते॥ २४॥
निराकारा निरानन्दा दीना प्रतिहतस्वना॥ २५॥
‘सारथि सुमन्त्रजी! देखिये, अयोध्या की सारी शोभा नष्ट हो गयी है; अतः यह पहले की भाँति प्रकाशित नहीं होती है। इसका वह सुन्दर रूप, वह आनन्द जाता रहा। इस समय यह अत्यन्त दीन और नीरव हो रही है’ ॥ २४-२५॥
सर्ग ११४
स्निग्धगम्भीरघोषेण स्यन्दनेनोपयान् प्रभुः।
अयोध्यां भरतः क्षिप्रं प्रविवेश महायशाः॥१॥
इसके बाद प्रभावशाली महायशस्वी भरत ने स्निग्ध, गम्भीर घर्घर घोष से युक्त रथ के द्वारा यात्रा करके शीघ्र ही अयोध्या में प्रवेश किया॥१॥
बिडालोलूकचरितामालीननरवारणाम्।
तिमिराभ्याहतां कालीमप्रकाशां निशामिव॥२॥
उस समय वहाँ बिलाव और उल्लू विचर रहे थे। घरों के किवाड़ बंद थे। सारे नगर में अन्धकार छा रहा था। प्रकाश न होने के कारण वह पुरी कृष्णपक्ष की काली रात के समान जान पड़ती थी॥२॥
राहशत्रोः प्रियां पत्नीं श्रिया प्रज्वलितप्रभाम्।
ग्रहेणाभ्युदितेनैकां रोहिणीमिव पीडिताम्॥३॥
जैसे चन्द्रमा की प्रिय पत्नी और अपनी शोभा से प्रकाशित कान्ति वाली रोहिणी उदित हुए राहु नामक ग्रह के द्वारा अपने पति के ग्रस लिये जाने पर अकेली -असहाय हो जाती है, उसी प्रकार दिव्य ऐश्वर्य से प्रकाशित होने वाली अयोध्या राजा के कालकवलित हो जाने के कारण पीड़ित एवं असहाय हो रही थी॥ ३॥
अल्पोष्णक्षुब्धसलिलां घर्मतप्तविहंगमाम्।
लीनमीनझषग्राहां कृशां गिरिनदीमिव॥४॥
वह पुरी उस पर्वतीय नदी की भाँति कृशकाय दिखायी देती थी, जिसका जल सूर्य की किरणों से तपकर कुछ गरम और गँदला हो रहा हो, जिसके पक्षी धूप से संतप्त होकर भाग गये हों तथा जिसके मीन, मत्स्य और ग्राह गहरे जल में छिप गये हों॥ ४॥
विधूमामिव हेमाभां शिखामग्नेः समुत्थिताम्।
हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम्॥
जो अयोध्या पहले धूमरहित सुनहरी कान्तिवाली प्रज्वलित अग्निशिखा के समान प्रकाशित होती थी वही श्रीरामवनवास के बाद हवनीय दुग्ध से सींची गयी अग्नि की ज्वाला के समान बुझकर विलीन-सी हो गयी है॥ ५॥
विध्वस्तकवचां रुग्णगजवाजिरथध्वजाम्।
हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे॥६॥
उस समय अयोध्या महासमर में संकटग्रस्त हुई उस सेना के समान प्रतीत होती थी, जिसके कवच कटकर गिर गये हों, हाथी, घोड़े, रथ और ध्वजा छिन्न-भिन्न हो गये हों और मुख्य-मुख्य वीर मार डाले गये हों। ६॥
सफेनां सस्वनां भूत्वा सागरस्य समुत्थिताम्।
प्रशान्तमारुतोद्धतां जलोर्मिमिव निःस्वनाम्॥ ७॥
प्रबल वायु के वेग से फेन और गर्जना के साथ उठी हुई समुद्र की उत्ताल तरंग सहसा वायु के शान्त हो जाने पर जैसे शिथिल और नीरव हो जाती है, उसी प्रकार कोलाहलपूर्ण अयोध्या अब शब्दशून्य-सी जान पड़ती थी॥७॥
त्यक्तां यज्ञायुधैः सर्वैरभिरूपैश्च याजकैः।
सुत्याकाले सुनिर्वृत्ते वेदिं गतरवामिव॥८॥
यज्ञकाल समाप्त होने पर ‘स्फ्य’ आदि यज्ञसम्बन्धी आयुधों तथा श्रेष्ठ याजकों से सूनी हुई वेदी जैसे मन्त्रोच्चारण की ध्वनि से रहित हो जाती है, उसी प्रकार अयोध्या सुनसान दिखायी देती थी॥ ८॥
गोष्ठमध्ये स्थितामार्तामचरन्तीं नवं तृणम्।
गोवृषेण परित्यक्तां गवां पत्नीमिवोत्सुकाम्॥९॥
जैसे कोई गाय साँड़ के साथ समागम के लिये उत्सुक हो, उसी अवस्था में उसे साँड़ से अलग कर दिया गया हो और वह नूतन घास चरना छोड़कर आर्त भाव से गोष्ठ में बँधी हुई खड़ी हो, उसी तरह अयोध्यापुरी भी आन्तरिक वेदना से पीड़ित थी॥९॥
प्रभाकराद्यैः सुस्निग्धैः प्रज्वलद्भिरिवोत्तमैः।
वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव॥१०॥
श्रीराम आदि से रहित हुई अयोध्या मोतियों की उस नूतन माला के समान श्रीहीन हो गयी थी, जिसकी अत्यन्त चिकनी-चमकीली, उत्तम तथा अच्छी जातिकी पद्मराग आदि मणियाँ उससे निकालकर अलग कर दी गयी हों। १० ॥
सहसाचरितां स्थानान्महीं पुण्यक्षयाद् गताम्।
संहृतद्युतिविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम्॥११॥
जो पुण्य-क्षय होने के कारण सहसा अपने स्थान से भ्रष्ट हो पृथ्वी पर आ पहुँची हो, अतएव जिसकी विस्तृत प्रभा क्षीण हो गयी हो, आकाश से गिरी हुई उस तारिका की भाँति अयोध्या शोभाहीन हो गयी थी॥ ११॥
पुष्पनद्धां वसन्तान्ते मत्तभ्रमरशालिनीम्।
द्रुतदावाग्निविप्लुष्टां क्लान्तां वनलतामिव॥ १२॥
जो ग्रीष्म ऋतु में पहले फूलों से लदी हुई होने के कारण मतवाले भ्रमरों से सुशोभित होती रही हो और फिर सहसा दावानल के लपेट में आकर मुरझा गयी हो, वन की उस लता के समान पहले की उल्लासपूर्ण अयोध्या अब उदास हो गयी थी॥ १२ ॥
सम्मढनिगमां सर्वां संक्षिप्तविपणापणाम्।
प्रच्छन्नशशिनक्षत्रां द्यामिवाम्बुधरैर्युताम्॥१३॥
वहाँके व्यापारी वणिक् शोक से व्याकुल होने के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे, बाजार-हाट और दूकानें बहुत कम खुली थीं। उस समय सारी पुरी उस आकाश की भाँति शोभाहीन हो गयी थी, जहाँ बादलों की घटाएँ घिर आयी हों और तारे तथा चन्द्रमा ढक गये हों ॥ १३॥
क्षीणपानोत्तमैर्भग्नैः शरावैरभिसंवृताम्।
हतशौण्डामिव ध्वस्तां पानभूमिमसंस्कृताम्॥ १४॥
(उन दिनों अयोध्यापुरी की सड़कें झाड़ी-बुहारी नहीं गयी थीं, इसलिये यत्र-तत्र कूड़े-करकट के ढेर पड़े थे। उस अवस्थामें) वह नगरी उस उजड़ी हुई पानभूमि (मधुशाला) के समान श्रीहीन दिखायी देती थी, जिसकी सफाई न की गयी हो, जहाँ मधु से खाली टूटी-फूटी प्यालियाँ पड़ी हों और जहाँ के पीने वाले भी नष्ट हो गये हों॥ १४ ॥
वृक्णभूमितलां निम्नां वृक्णपात्रैः समावृताम्।
उपयुक्तोदकां भग्नां प्रपां निपतितामिव॥१५॥
उस पुरी की दशा उस पौंसले की-सी हो रही थी, जो खम्भों के टूट जाने से ढह गया हो, जिसका चबूतरा छिन्न-भिन्न हो गया हो, भूमि नीची हो गयी हो, पानी चुक गया हो और जलपात्र टूट-फूटकर इधर-उधर सब ओर बिखरे पड़े हों॥ १५॥
विपुलां विततां चैव युक्तपाशां तरस्विनाम्।
भूमौ बाणैर्विनिष्कृत्तां पतितां ज्यामिवायुधात्॥ १६॥
जो विशाल और सम्पूर्ण धनुष में फैली हुई हो, उसकी दोनों कोटियों (किनारों) में बाँधने के लिये जिसमें रस्सी जुड़ी हुई हो, किंतु वेगशाली वीरों के बाणों से कटकर धनुष से पृथ्वी पर गिर पड़ी हो, उस प्रत्यञ्चा के समान ही अयोध्यापुरी भी स्थानभ्रष्ट हुई सी दिखायी देती थी॥ १६॥
सहसा युद्धशौण्डेन हयारोहेण वाहिताम्।
निहतां प्रतिसैन्येन वडवामिव पातिताम्॥१७॥
जिसपर युद्धकुशल घुड़सवार ने सवारी की हो और जिसे शत्रुपक्ष की सेना ने सहसा मार गिराया हो, युद्धभूमि में पड़ी हुई उस घोड़ी की जो दशा होती है, वही उस समय अयोध्यापुरी की भी थी (कैकेयी के कुचक्र से उसके संचालक नरेश का स्वर्गवास और युवराज का वनवास हो गया था) ॥ १७॥
भरतस्तु रथस्थः सन् श्रीमान् दशरथात्मजः।
वाहयन्तं रथश्रेष्ठं सारथिं वाक्यमब्रवीत्॥ १८॥
रथ पर बैठे हुए श्रीमान् दशरथनन्दन भरत ने उस समय श्रेष्ठ रथ का संचालन करने वाले सारथि सुमन्त्र से इस प्रकार कहा- ॥ १८॥
किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्च्छितो न निशाम्यते।
यथापुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिःस्वनः॥१९॥
‘अब अयोध्या में पहले की भाँति सब ओर फैला हुआ गाने-बजाने का गम्भीर नाद नहीं सुनायी पड़ता; यह कितने कष्ट की बात है!॥ १९॥
वारुणीमदगन्धश्च माल्यगन्धश्च मूर्च्छितः।
चन्दनागुरुगन्धश्च न प्रवाति समन्ततः॥२०॥
‘अब चारों ओर वारुणी (मधु) की मादक गन्ध, व्याप्त हुई फूलों की सुगन्ध तथा चन्दन और अगुरु की पवित्र गन्ध नहीं फैल रही है॥ २०॥
यानप्रवरघोषश्च सुस्निग्धहयनिःस्वनः।
प्रमत्तगजनादश्च महांश्च रथनिःस्वनः॥२१॥
‘अच्छी-अच्छी सवारियों की आवाज, घोड़ों के हींसने का सुस्निग्ध शब्द, मतवाले हाथियों का चिग्घाड़ना तथा रथों की घर्घराहट का महान् शब्दये सब नहीं सुनायी दे रहे हैं ॥ २१॥
नेदानीं श्रूयते पुर्यामस्यां रामे विवासिते।
चन्दनागुरुगन्धांश्च महार्हाश्च वनस्रजः॥२२॥
गते रामे हि तरुणाः संतप्ता नोपभुञ्जते।
बहिर्यात्रां न गच्छन्ति चित्रमाल्यधरा नराः॥ २३॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के निर्वासित होने के कारण ही इस पुरी में इस समय इन सब प्रकार के शब्दों का श्रवण नहीं हो रहा है। श्रीराम के चले जाने से यहाँ के तरुण बहुत ही संतप्त हैं। वे चन्दन और अगुरु की सुगन्ध का सेवन नहीं करते तथा बहुमूल्य वनमालाएँ भी नहीं धारण करते। अब इस पुरी के लोग विचित्र फूलों के हार पहनकर बाहर घूमने के लिये नहीं निकलते हैं।। २२-२३॥
नोत्सवाः सम्प्रवर्तन्ते रामशोकार्दिते पुरे।
सा हि नूनं मम भ्रात्रा पुरस्यास्य द्युतिर्गता॥२४॥
‘श्रीराम के शोक से पीड़ित हुए इस नगर में अब नाना प्रकार के उत्सव नहीं हो रहे हैं। निश्चय ही इस पुरी की वह सारी शोभा मेरे भाई के साथ ही चली गयी।
नहि राजत्ययोध्येयं सासारेवार्जुनी क्षपा।
कदा नु खलु मे भ्राता महोत्सव इवागतः ॥ २५॥
जनयिष्यत्ययोध्यायां हर्षं ग्रीष्म इवाम्बुदः।
‘जैसे वेगयुक्त वर्षा के कारण शुक्लपक्ष की चाँदनी रात भी शोभा नहीं पाती है, उसी प्रकार नेत्रों से आँसू बहाती हुई यह अयोध्या भी शोभित नहीं हो रही है। अब कब मेरे भाई महोत्सव की भाँति अयोध्या में पधारेंगे और ग्रीष्म-ऋतु में प्रकट हुए मेघ की भाँति सबके हृदय में हर्ष का संचार करेंगे। २५ १/२ ॥
तरुणैश्चारुवेषैश्च नरैरुन्नतगामिभिः॥२६॥
सम्पतद्भिरयोध्यायां नाभिभान्ति महापथाः।
‘अब अयोध्या की बड़ी-बड़ी सड़कें हर्ष से उछलकर चलते हुए मनोहर वेषधारी तरुणों के शुभागमन से शोभा नहीं पा रही हैं’॥ २६ १/२॥
इति ब्रुवन् सारथिना दुःखितो भरतस्तदा ॥२७॥
अयोध्यां सम्प्रविश्यैव विवेश वसतिं पितुः।
तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव॥२८॥
इस प्रकार सारथि के साथ बातचीत करते हुए दुःखी भरत उस समय सिंह से रहित गुफा की भाँति राजा दशरथ से हीन पिता के निवास स्थान राजमहल में गये॥
तदा तदन्तःपुरमुज्झितप्रभं सुरैरिवोत्कृष्टमभास्करं दिनम्।
निरीक्ष्य सर्वत्र विभक्तमात्मवान् मुमोच बाष्पं भरतः सुदुःखितः॥२९॥
जैसे सूर्य के छिप जाने से दिन की शोभा नष्ट हो जाती है और देवता शोक करने लगते हैं, उसी प्रकार उस समय वह अन्तःपुर शोभाहीन हो गया था और वहाँ के लोग शोकमग्न थे। उसे सब ओर से स्वच्छता और सजावट से हीन देख भरत धैर्यवान् होने पर भी अत्यन्त दुःखी हो आँसू बहाने लगे॥ २९ ॥
सर्ग ११५
ततो निक्षिप्य मातृस्ता अयोध्यायां दृढव्रतः।
भरतः शोकसंतप्तो गुरूनिदमथाब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर सब माताओं को अयोध्या में रखकर दृढप्रतिज्ञ भरत ने शोक से संतप्त हो गुरुजनों से इस प्रकार कहा-
नन्दिग्रामं गमिष्यामि सर्वानामन्त्रयेऽत्र वः।
तत्र दुःखमिदं सर्वं सहिष्ये राघवं विना॥२॥
‘अब मैं नन्दिग्राम को जाऊँगा, इसके लिये आप सब लोगों की आज्ञा चाहता हूँ। वहाँ श्रीराम के बिना प्राप्त होने वाले इस सारे दुःख को सहन करूँगा॥ २॥
गतश्चाहो दिवं राजा वनस्थः स गुरुर्मम।
रामं प्रतीक्षे राज्याय स हि राजा महायशाः॥३॥
‘अहो! महाराज (पूज्य पिताजी) तो स्वर्ग को सिधारे और वे मेरे गुरु (पूजनीय भ्राता) श्रीरामचन्द्रजी वन में विराज रहे हैं। मैं इस राज्य के लिये वहाँ श्रीराम की प्रतीक्षा करता रहूँगा; क्योंकि वे महायशस्वी श्रीराम ही हमारे राजा हैं ॥३॥
एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः।
अब्रुवन् मन्त्रिणः सर्वे वसिष्ठश्च पुरोहितः॥४॥
महात्मा भरत का यह शुभ वचन सुनकर सब मन्त्री और पुरोहित वसिष्ठ जी बोले- ॥ ४॥
सुभृशं श्लाघनीयं च यदुक्तं भरत त्वया।
वचनं भ्रातृवात्सल्यादनुरूपं तवैव तत्॥५॥
‘भरत! भ्रातृभक्ति से प्रेरित होकर तुमने जो बात कही है, वह बहुत ही प्रशंसनीय है वास्तव में वह तुम्हारे ही योग्य है॥५॥
नित्यं ते बन्धुलुब्धस्य तिष्ठतो भ्रातृसौहृदे।
मार्गमार्यं प्रपन्नस्य नानुमन्येत कः पुमान्॥६॥
‘तुम अपने भाई के दर्शन के लिये सदा लालायित रहते हो और भाई के ही सौहार्द (हितसाधन) में संलग्न हो। साथ ही श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित हो, अतः कौन पुरुष तुम्हारे विचार का अनुमोदन नहीं करेगा’।
मन्त्रिणां वचनं श्रुत्वा यथाभिलषितं प्रियम्।
अब्रवीत् सारथिं वाक्यं रथो मे युज्यतामिति॥ ७॥
मन्त्रियों का अपनी रुचि के अनुरूप प्रिय वचन सुनकर भरत ने सारथि से कहा—’मेरा रथ जोतकर तैयार किया जाय’ ॥ ७॥
प्रहृष्टवदनः सर्वा मातृः समभिभाष्य च।
आरुरोह रथं श्रीमान्शत्रुघ्नेन समन्वितः॥८॥
फिर उन्होंने प्रसन्नवदन होकर सब माताओं से बातचीत करके जाने की आज्ञा ली। इसके बाद शत्रुघ्न के सहित श्रीमान् भरत रथ पर सवार हुए॥८॥
आरुह्य तु रथं क्षिप्रं शत्रुघ्नभरतावुभौ।
ययतुः परमप्रीतौ वृतौ मन्त्रिपुरोहितैः॥९॥
रथ पर आरूढ़ होकर परम प्रसन्न हुए भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई मन्त्रियों तथा पुरोहितों से घिरकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से प्रस्थित हुए॥९॥
अग्रतो गुरवः सर्वे वसिष्ठप्रमुखा द्विजाः।
प्रययुः प्राङ्मुखाः सर्वे नन्दिग्रामो यतो भवेत्॥ १०॥
आगे-आगे वसिष्ठ आदि सभी गुरुजन एवं ब्राह्मणचल रहे थे। उन सब लोगों ने अयोध्या से पूर्वाभिमुख होकर यात्रा की और उस मार्ग को पकड़ा, जो नन्दिग्राम की ओर जाता था॥ १० ॥
बलं च तदनाहूतं गजाश्वरथसंकुलम्।
प्रययौ भरते याते सर्वे च पुरवासिनः॥११॥
भरत के प्रस्थित होने पर हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई सारी सेना भी बिना बुलाये ही उनके पीछे पीछे चल दी और समस्त पुरवासी भी उनके साथ हो लिये॥ ११॥
रथस्थः स तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः।
नन्दिग्रामं ययौ तूर्णं शिरस्यादाय पादुके॥१२॥
धर्मात्मा भ्रातृवत्सल भरत अपने मस्तक पर भगवान् श्रीराम की चरणपादु का लिये रथ पर बैठकर बड़ी शीघ्रता से नन्दिग्राम की ओर चले ॥ १२ ॥
भरतस्तु ततः क्षिप्रं नन्दिग्रामं प्रविश्य सः।
अवतीर्य रथात् तूर्णं गुरूनिदमभाषत॥१३॥
नन्दिग्राम में शीघ्र पहुँचकर भरत तुरंत ही रथ से उतर पड़े और गुरुजनों से इस प्रकार बोले- ॥ १३॥
एतद राज्यं मम भ्रात्रा दत्तं संन्यासमुत्तमम्।
योगक्षेमवहे चेमे पादुके हेमभूषिते॥१४॥
‘मेरे भाई ने यह उत्तम राज्य मुझे धरोहर के रूपमें दिया है, उनकी ये सुवर्णविभूषित चरणपादुकाएँ ही सबके योगक्षेम का निर्वाह करनेवाली हैं’॥ १४ ॥
भरतः शिरसा कृत्वा संन्यासं पादुके ततः।
अब्रवीद् दुःखसंतप्तः सर्वं प्रकृतिमण्डलम्॥ १५॥
तत्पश्चात् भरत ने मस्तक झुकाकर उन चरणपादुकाओं के प्रति उस धरोहर रूप राज्य को समर्पित करके दुःख से संतप्त हो समस्त प्रकृतिमण्डल (मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि) से कहा-॥ १५॥
छत्रं धारयत क्षिप्रमार्यपादाविमौ मतौ।
आभ्यां राज्ये स्थितो धर्मः पादुकाभ्यां गुरोर्मम॥ १६॥
‘आप सब लोग इन चरणपादुकाओं के ऊपर छत्र धारण करें। मैं इन्हें आर्य रामचन्द्रजी के साक्षात् चरण मानता हूँ। मेरे गुरु की इन चरणपादुकाओं से ही इस राज्य में धर्म की स्थापना होगी॥१६॥
भ्रात्रा तु मयि संन्यासो निक्षिप्तः सौहृदादयम्।
तमिमं पालयिष्यामि राघवागमनं प्रति॥१७॥
‘मेरे भाई ने प्रेम के कारण ही यह धरोहर मुझे सौंपी है, अतः मैं उनके लौटने तक इसकी भलीभाँति रक्षा करूँगा॥१७॥
क्षिप्रं संयोजयित्वा तु राघवस्य पुनः स्वयम्।
चरणौ तौ तु रामस्य द्रक्ष्यामि सहपादुकौ ॥१८॥
‘इसके बाद मैं स्वयं इन पादुकाओं को पुनः शीघ्र ही श्रीरघुनाथजी के चरणों से संयुक्त करके इन पादुकाओं से सुशोभित श्रीराम के उन युगल चरणों का दर्शन करूँगा॥
ततो निक्षिप्तभारोऽहं राघवेण समागतः।
निवेद्य गुरवे राज्यं भजिष्ये गुरुवर्तिताम्॥१९॥
‘श्रीरघुनाथजी के आने पर उनसे मिलते ही मैं अपने उन गुरुदेव को यह राज्य समर्पित करके उनकी आज्ञा के अधीन हो उन्हीं की सेवा में लग जाऊँगा। राज्य का यह भार उन पर डालकर मैं हलका हो जाऊँगा॥ १९॥
राघवाय च संन्यासं दत्त्वेमे वरपादुके।
राज्यं चेदमयोध्यां च धूतपापो भवाम्यहम्॥ २०॥
‘मेरे पास धरोहर रूप में रखे हुए इस राज्य को, अयोध्या को तथा इन श्रेष्ठ पादुकाओं को श्रीरघुनाथजी की सेवा में समर्पित करके मैं सब प्रकार के पापताप से मुक्त हो जाऊँगा॥२०॥
अभिषिक्ते तु काकुत्स्थे प्रहृष्टमुदिते जने।
प्रीतिर्मम यशश्चैव भवेद् राज्याच्चतुर्गुणम्॥ २१॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम का अयोध्या के राज्य पर अभिषेक हो जाने पर जब सब लोग हर्ष और आनन्द में निमग्न हो जायेंगे, तब मुझे राज्य पाने की अपेक्षा चौगुनी प्रसन्नता और चौगुने यश की प्राप्ति होगी’ ॥ २१॥
एवं तु विलपन् दीनो भरतः स महायशाः।
नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं दुःखितो मन्त्रिभिः सह॥ २२॥
इस प्रकार दीनभाव से विलाप करते हुए दुःखमग्न महायशस्वी भरत मन्त्रियों के साथ नन्दिग्राम में रहकर राज्य का शासन करने लगे॥ २२ ॥
स वल्कलजटाधारी मुनिवेषधरः प्रभुः।
नन्दिग्रामेऽवसद् धीरः ससैन्यो भरतस्तदा ॥२३॥
सेनासहित प्रभावशाली धीर-वीर भरत ने उस समय वल्कल और जटा धारण करके मुनिवेषधारी हो नन्दिग्राम में निवास किया॥ २३॥
रामागमनमाकांक्षन् भरतो भ्रातृवत्सलः।
भ्रातुर्वचनकारी च प्रतिज्ञापारगस्तदा।
पादके त्वभिषिच्याथ नन्दिग्रामेऽवसत् तदा॥ २४॥
भाई की आज्ञा का पालन और प्रतिज्ञा के पार जाने की इच्छा करने वाले भ्रातृवत्सल भरत श्रीरामचन्द्रजी के आगमन की आकांक्षा रखते हुए उनकी चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन दिनों नन्दिग्राम में रहने लगे।
सवालव्यजनं छत्रं धारयामास स स्वयम्।
भरतः शासनं सर्वं पादुकाभ्यां निवेदयन्॥२५॥
भरतजी राज्य-शासनका समस्त कार्य भगवान् श्रीराम की चरणपादुकाओं को निवेदन करके करते थे तथा स्वयं ही उनके ऊपर छत्र लगाते और चँवर डुलाते थे॥ २५॥
ततस्तु भरतः श्रीमानभिषिच्यार्यपादुके।
तदधीनस्तदा राज्यं कारयामास सर्वदा॥ २६॥
श्रीमान् भरत बड़े भाई की उन पादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके सदा उनके अधीन रहकर उन दिनों राज्य का सब कार्य मन्त्री आदि से कराते थे॥ २६॥
तदा हि यत् कार्यमुपैति किंचि दुपायनं चोपहृतं महार्हम्।
स पादुकाभ्यां प्रथमं निवेद्य चकार पश्चाद् भरतो यथावत्॥२७॥
उस समय जो कोई भी कार्य उपस्थित होता, जो भी बहुमूल्य भेंट आती, वह सब पहले उन पादुकाओं को निवेदन करके पीछे भरत जी उसका यथावत् प्रबन्ध करते थे॥ २७॥
सर्ग ११६
प्रतियाते तु भरते वसन् रामस्तदा वने।
लक्षयामास सोढेगमथौत्सुक्यं तपस्विनाम्॥१॥
भरत के लौट जाने पर श्रीरामचन्द्रजी उन दिनों जब वन में निवास करने लगे, तब उन्होंने देखा कि वहाँ के तपस्वी उद्विग्न हो वहाँ से अन्यत्र चले जाने के लिये उत्सुक हैं॥१॥
ये तत्र चित्रकूटस्य पुरस्तात् तापसाश्रमे।
राममाश्रित्य निरतास्तानलक्षयदुत्सुकान्॥२॥
पहले चित्रकूट के उस आश्रम में जो तपस्वी श्रीराम का आश्रय लेकर सदा आनन्दमग्न रहते थे, उन्हीं को श्रीराम ने उत्कण्ठित देखा (मानो वे कहीं जाने के विषय में कुछ कहना चाहते हों) ॥ २॥
नयनैर्भुकुटीभिश्च रामं निर्दिश्य शङ्किताः।
अन्योन्यमुपजल्पन्तः शनैश्चक्रुर्मिथः कथाः॥
नेत्रों से, भौहें टेढ़ी करके, श्रीराम की ओर संकेत करके मन-ही-मन शङ्कित हो आपस में कुछ सलाह करते हुए वे तपस्वी मुनि धीरे-धीरे परस्पर वार्तालाप कर रहे थे॥३॥
तेषामौत्सुक्यमालक्ष्य रामस्त्वात्मनि शङ्कितः।
कृताञ्जलिरुवाचेदमृषिं कुलपतिं ततः॥४॥
उनकी उत्कण्ठा देख श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह शङ्का हुई कि मुझसे कोई अपराध तो नहीं बन गया। तब वे हाथ जोड़कर वहाँ के कुलपति महर्षि से इस प्रकार बोले- ॥४॥
न कश्चिद् भगवन् किंचित् पूर्ववृत्तमिदं मयि।
दृश्यते विकृतं येन विक्रियन्ते तपस्विनः॥५॥
‘भगवन् ! क्या मुझमें पूर्ववर्ती राजाओं का-सा कोई बर्ताव नहीं दिखायी देता अथवा मुझमें कोई विकृत भाव दृष्टिगोचर होता है, जिससे यहाँ के तपस्वी मुनि विकार को प्राप्त हो रहे हैं॥ ५॥
प्रमादाच्चरितं किंचित् कच्चिन्नावरजस्य मे।
लक्ष्मणस्यर्षिभिदृष्टं नानुरूपं महात्मनः॥६॥
‘क्या मेरे छोटे भाई महात्मा लक्ष्मण का प्रमादवश किया हुआ कोई ऐसा आचरण ऋषियों ने देखा है, जो उसके योग्य नहीं है॥६॥
कच्चिच्छुश्रूषमाणा वः शुश्रूषणपरा मयि।
प्रमदाभ्युचितां वृत्तिं सीता युक्तां न वर्तते॥७॥
‘अथवा क्या जो अर्घ्य-पाद्य आदि के द्वारा सदा आपलोगों की सेवा करती रही है, वह सीता इस समय मेरी सेवा में लग जाने के कारण एक गृहस्थ की सती नारी के अनुरूप ऋषियों की समुचित सेवा नहीं कर पाती है?’ ॥ ७॥
अथर्षिर्जरया वृद्धस्तपसा च जरां गतः।
वेपमान इवोवाच रामं भूतदयापरम्॥८॥
श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर एक महर्षि जो जरावस्था के कारण तो वृद्ध थे ही, तपस्या द्वारा भी वृद्ध हो गये थे, समस्त प्राणियों पर दया करने वाले श्रीराम से काँपते हुए-से बोले- ॥८॥
कुतः कल्याणसत्त्वायाः कल्याणाभिरतेः सदा।
चलनं तात वैदेह्यास्तपस्विष विशेषतः॥९॥
‘तात! जो स्वभाव से ही कल्याणमयी है और सदा सबके कल्याण में ही रत रहती है, वह विदेहनन्दिनी सीता विशेषतः तपस्वीजनों के प्रति बर्ताव करते समय अपने कल्याणमय स्वभाव से विचलित हो जाय, यह कैसे सम्भव है? ॥९॥
त्वन्निमित्तमिदं तावत् तापसान् प्रति वर्तते।
रक्षोभ्यस्तेन संविग्नाः कथयन्ति मिथः कथाः॥ १०॥
‘आपके ही कारण तापसों पर यह राक्षसों की ओर से भय उपस्थित होने वाला है, उससे उद्विग्न हुए ऋषि आपस में कुछ बातें (कानाफूसी) कर रहे हैं॥ १० ॥
रावणावरजः कश्चित् खरो नामेह राक्षसः।
उत्पाट्य तापसान् सर्वाञ्जनस्थाननिवासिनः॥ ११॥
धृष्टश्च जितकाशी च नृशंसः पुरुषादकः।
अवलिप्तश्च पापश्च त्वां च तात न मृष्यते॥ १२॥
‘तात! यहाँ वनप्रान्त में रावण का छोटा भाई खर नामक राक्षस है, जिसने जनस्थान में रहने वाले समस्त तापसों को उखाड़ फेंका है। वह बड़ा ही ढीठ, विजयोन्मत्त, क्रूर, नरभक्षी और घमंडी है। वह आपको भी सहन नहीं कर पाता है॥ ११-१२ ॥
त्वं यदाप्रभृति ह्यस्मिन्नाश्रमे तात वर्तसे।
तदाप्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान्॥१३॥
‘तात! जब से आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तबसे सब राक्षस तापसों को विशेष रूप से सताने लगे हैं।
दर्शयन्ति हि बीभत्सैः क्रूरैर्भीषणकैरपि।
नानारूपैर्विरूपैश्च रूपैरसुखदर्शनैः॥१४॥
अप्रशस्तैरशुचिभिः सम्प्रयुज्य च तापसान्।
प्रतिजन्त्यपरान् क्षिप्रमनार्याः पुरतः स्थितान्॥ १५॥
‘वे अनार्य राक्षस बीभत्स (घृणित), क्रूर और भीषण, नाना प्रकार के विकृत एवं देखने में दुःखदायक रूप धारण करके सामने आते हैं और पापजनक अपवित्र पदार्थों से तपस्वियों का स्पर्श कराकर अपने सामने खड़े हुए अन्य ऋषियों को भी पीड़ा देते हैं॥ १४-१५॥
तेषु तेष्वाश्रमस्थानेष्वबुद्धमवलीय च।
रमन्ते तापसांस्तत्र नाशयन्तोऽल्पचेतसः॥१६॥
“वे उन-उन आश्रमों में अज्ञात रूप से आकर छिप जाते हैं और अल्पज्ञ अथवा असावधान तापसों का विनाश करते हुए वहाँ सानन्द विचरते रहते हैं। १६ ॥
अवक्षिपन्ति स्रुग्भाण्डानग्नीन् सिञ्चन्ति वारिणा।
कलशांश्च प्रमर्दन्ति हवने समुपस्थिते॥१७॥
‘होमकर्म आरम्भ होनेपर वे सुक्-सुवा आदि यज्ञसामग्रियों को इधर-उधर फेंक देते हैं। प्रज्वलित अग्नि में पानी डाल देते हैं और कलशों को फोड़ डालते हैं॥
तैर्दुरात्मभिराविष्टानाश्रमान् प्रजिहासवः।
गमनायान्यदेशस्य चोदयन्त्य॒षयोऽद्य माम्॥ १८॥
‘उन दुरात्मा राक्षसों से आविष्ट हुए आश्रमों को त्याग देने की इच्छा रखकर ये ऋषिलोग आज मुझे यहाँ से अन्य स्थान में चलने के लिये प्रेरित कर रहे हैं। १८॥
तत् पुरा राम शारीरीमुपहिंसां तपस्विषु।
दर्शयन्ति हि दुष्टास्ते त्यक्ष्याम इममाश्रमम्॥ १९॥
‘श्रीराम! वे दुष्ट राक्षस तपस्वियों की शारीरिक हिंसा का प्रदर्शन करें, इसके पहले ही हम इस आश्रम को त्याग देंगे॥ १९॥
बहुमूलफलं चित्रमविदूरादितो वनम्।
अश्वस्याश्रममेवाहं श्रयिष्ये सगणः पुनः॥२०॥
‘यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक विचित्र वन है, जहाँ फल-मूलकी अधिकता है। वहीं अश्वमुनिका आश्रम है, अतः ऋषियोंके समूहको साथ लेकर मैं पुनः उसी आश्रमका आश्रय लूँगा॥ २० ॥
खरस्त्वय्यपि चायुक्तं पुरा राम प्रवर्तते।
सहास्माभिरितो गच्छ यदि बुद्धिः प्रवर्तते॥२१॥
‘श्रीराम! खर आपके प्रति भी कोई अनुचित बर्ताव करे, उसके पहले ही यदि आपका विचार हो तो हमारे साथ ही यहाँ से चल दीजिये॥ २१॥
सकलत्रस्य संदेहो नित्यं युक्तस्य राघव।
समर्थस्यापि हि सतो वासो दुःखमिहाद्य ते॥
‘रघुनन्दन! यद्यपि आप सदा सावधान रहने वाले तथा राक्षसों के दमन में समर्थ हैं, तथापि पत्नी के साथ आजकल उस आश्रम में आपका रहना संदेहजनक एवं दुःखदायक है’ ॥ २२॥
इत्युक्तवन्तं रामस्तं राजपुत्रस्तपस्विनम्।
न शशाकोत्तरैर्वाक्यैरवबढुं समुत्सुकम्॥२३॥
ऐसी बात कहकर अन्यत्र जाने के लिये उत्कण्ठित हुए उन तपस्वी मुनि को राजकुमार श्रीराम सान्त्वनाजनक उत्तरवाक्यों द्वारा वहाँ रोक नहीं सके। २३॥
अभिनन्द्य समापृच्छ्य समाधाय च राघवम्।
स जगामाश्रमं त्यक्त्वा कुलैः कुलपतिः सह। २४॥
तत्पश्चात् वे कुलपति महर्षि श्रीरामचन्द्रजी का अभिनन्दन करके उनसे पूछकर और उन्हें सान्त्वना देकर इस आश्रम को छोड़ वहाँ से अपने दल के ऋषियों के साथ चले गये॥ २४॥
रामः संसाध्य ऋषिगणमनुगमनाद् देशात् तस्मात् कुलपतिमभिवाद्य ऋषिम्।
सम्यक्प्रीतैस्तैरनुमत उपदिष्टार्थः पुण्यं वासाय स्वनिलयमुपसम्पेदे॥२५॥
श्रीरामचन्द्रजी वहाँ से जाने वाले ऋषियों के पीछे पीछे जाकर उन्हें विदा दे कुलपति ऋषि को प्रणाम करके परम प्रसन्न हुए उन ऋषियों की अनुमति ले उनके दिये हुए कर्तव्यविषयक उपदेश को सुनकर लौटे और निवास करने के लिये अपने पवित्र आश्रम में आये॥ २५॥
आश्रममृषिविरहितं प्रभुः क्षणमपि न जहौ स राघवः।
राघवं हि सततमनुगतास्तापसाश्चार्षचरिते धृतगुणाः॥ २६॥
उन ऋषियों से रहित हुए आश्रम को भगवान् श्रीराम ने एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ा। जिनका ऋषियों के समान ही चरित्र था, उन श्रीरामचन्द्रजी में निश्चय ही ऋषियों की रक्षा की शक्तिरूप गुण विद्यमान है। ऐसा विश्वास रखने वाले कुछ तपस्वीजनों ने सदा श्रीराम का ही अनुसरण किया। वे दूसरे किसी आश्रम में नहीं गये॥ २६ ॥
सर्ग ११७
राघवस्त्वपयातेषु सर्वेष्वनुविचिन्तयन्।
न तत्रारोचयद् वासं कारणैर्बहुभिस्तदा ॥१॥
उन सब ऋषियों के चले जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने जब बारंबार विचार किया, तब उन्हें बहुत-से ऐसे कारण ज्ञात हुए, जिनसे उन्होंने स्वयं भी वहाँ रहना उचित न समझा॥१॥
इह मे भरतो दृष्टो मातरश्च सनागराः।
सा च मे स्मृतिरन्वेति तान् नित्यमनुशोचतः॥२॥
उन्होंने मन-ही-मन सोचा, ‘इस आश्रम में मैं भरत से, माताओं से तथा पुरवासी मनुष्यों से मिल चुका हूँ। वह स्मृति मुझे बराबर बनी रहती है और मैं प्रतिदिन उन सब लोगों का चिन्तन करके शोकमग्न हो जाता हूँ॥
स्कन्धावारनिवेशेन तेन तस्य महात्मनः।
हयहस्तिकरीषैश्च उपमर्दः कृतो भृशम्॥३॥
‘महात्मा भरत की सेना का पड़ाव पड़ने के कारण हाथी और घोड़ों की लीदों से यहाँ की भूमि अधिक अपवित्र कर दी गयी है॥३॥
तस्मादन्यत्र गच्छाम इति संचिन्त्य राघवः।
प्रातिष्ठत स वैदेह्या लक्ष्मणेन च संगतः॥४॥
‘अतः हमलोग भी अन्यत्र चले जायँ’ ऐसा सोचकर श्रीरघुनाथ जी सीता और लक्ष्मण के साथ वहाँ से चल दिये।
सोऽत्रेराश्रममासाद्य तं ववन्दे महायशाः।
तं चापि भगवानत्रिः पुत्रवत् प्रत्यपद्यत॥५॥
वहाँ से अत्रि के आश्रम पर पहुँचकर महायशस्वी श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया तथा भगवान् अत्रि ने भी उन्हें अपने पुत्र की भाँति स्नेहपूर्वक अपनाया॥५॥
स्वयमातिथ्यमादिश्य सर्वमस्य सुसत्कृतम्।
सौमित्रिं च महाभागं सीतां च समसान्त्वयत्॥
उन्होंने स्वयं ही श्रीराम का सम्पूर्ण आतिथ्य-सत्कार करके महाभाग लक्ष्मण और सीता को भी सत्कारपूर्वक संतुष्ट किया॥६॥
पत्नीं च तामनुप्राप्तां वृद्धामामन्त्र्य सत्कृताम्।
सान्त्वयामास धर्मज्ञः सर्वभूतहिते रतः॥७॥
अनसूयां महाभागां तापसी धर्मचारिणीम्।
प्रतिगृह्णीष्व वैदेहीमब्रवीदृषिसत्तमः॥८॥
सम्पूर्ण प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले धर्मज्ञ मुनिश्रेष्ठ अत्रि ने अपने समीप आयी हुई सबके द्वारा सम्मानित तापसी एवं धर्मपरायणा बूढ़ी पत्नी महाभागा अनसूया को सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा संतुष्ट किया और कहा—’देवि! विदेहराजनन्दिनी सीता को सत्कारपूर्वक हृदय से लगाओ’ ॥ ७-८॥
रामाय चाचचक्षे तां तापसी धर्मचारिणीम्।
दश वर्षाण्यनावृष्टया दग्धे लोके निरन्तरम्॥९॥
यया मूलफले सृष्टे जाह्नवी च प्रवर्तिता।
उग्रेण तपसा युक्ता नियमैश्चाप्यलंकृता॥१०॥
दश वर्षसहस्राणि यया तप्तं महत् तपः।
अनसूयाव्रतैस्तात प्रत्यूहाश्च निबर्हिताः॥११॥
तत्पश्चात् उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को धर्मपरायणा तपस्विनी अनसूया का परिचय देते हुए कहा—’एक समय दसवर्षों तक वृष्टि नहीं हुई, उस समय जब सारा जगत् निरन्तर दग्ध होने लगा, तब जिन्होंने उग्र तपस्या से युक्त तथा कठोर नियमों से अलंकृत होकर अपने तपके प्रभाव से यहाँ फल-मूल उत्पन्न कियेऔर मन्दाकिनीकी पवित्र धारा बहायी तथा तात! जिन्होंने दस हजार वर्षांतक बड़ी भारी तपस्या करके अपने उत्तम व्रतों के प्रभाव से ऋषियों के समस्त विघ्नों का निवारण किया था, वे ही यह अनसूया देवी हैं।
देवकार्यनिमित्तं च यया संत्वरमाणया।
दशरात्रं कृता रात्रिः सेयं मातेव तेऽनघ॥१२॥
‘निष्पाप श्रीराम! इन्होंने देवताओं के कार्य के लिये अत्यन्त उतावली होकर दस रात के बराबर एक ही रात बनायी थी; वे ही ये अनसूया देवी तुम्हारे लिये माता की भाँति पूजनीया हैं॥ १२॥
तामिमां सर्वभूतानां नमस्कार्यां तपस्विनीम्।
अभिगच्छतु वैदेही वृद्धामक्रोधनां सदा॥१३॥
‘ये सम्पूर्ण प्राणियों के लिये वन्दनीया तपस्विनी हैं। क्रोध तो इन्हें कभी छू भी नहीं सका है। विदेहनन्दिनी सीता इन वृद्धा अनसूया देवी के पास जायँ’ ॥ १३॥
एवं ब्रुवाणं तमृषि तथेत्युक्त्वा स राघवः।
सीतामालोक्य धर्मज्ञामिदं वचनमब्रवीत्॥१४॥
ऐसी बात कहते हुए अत्रि मुनि से ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने धर्मज्ञा सीता की ओर देखकर यह बात कही— ॥१४॥
राजपुत्रि श्रुतं त्वेतन्मुनेरस्य समीरितम्।
श्रेयोऽर्थमात्मनः शीघ्रमभिगच्छ तपस्विनीम्॥ १५॥
‘राजकुमारी! महर्षि अत्रि के वचन तो तुमने सुन ही लिये; अब अपने कल्याण के लिये तुम शीघ्र ही इन तपस्विनी देवी के पास जाओ॥ १५ ॥
अनसूयेति या लोके कर्मभिः ख्यातिमागता।
तां शीघ्रमभिगच्छ त्वमभिगम्यां तपस्विनीम्॥ १६॥
‘जो अपने सत्कर्मों से संसार में अनसूया के नाम से विख्यात हुई हैं, वे तपस्विनी देवी तुम्हारे आश्रय लेने योग्य हैं; तुम शीघ्र उनके पास जाओ’ ॥ १६ ॥
सीता त्वेतद् वचः श्रुत्वा राघवस्य यशस्विनी।
तामत्रिपत्नी धर्मज्ञामभिचक्राम मैथिली॥१७॥
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर यशस्विनी मिथिलेश-कुमारी सीता धर्म को जानने वाली अत्रिपत्नी अनसूया के पास गयीं ॥ १७॥
शिथिलां वलितां वृद्धां जरापाण्डुरमूर्धजाम्।
सततं वेपमानाङ्गी प्रवाते कदलीमिव ॥१८॥
अनसूया वृद्धावस्था के कारण शिथिल हो गयी थीं; उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयीं थीं तथा सिर के बाल सफेद हो गये थे। अधिक हवा चलने पर हिलते हुए कदली-वृक्ष के समान उनके सारे अङ्ग निरन्तर काँप रहे थे॥१८॥
तां तु सीता महाभागामनसूयां पतिव्रताम्।
अभ्यवादयदव्यग्रा स्वं नाम समुदाहरत्॥१९॥
सीता ने निकट जाकर शान्तभाव से अपना नाम बताया और उन महाभागा पतिव्रता अनसूया को प्रणाम किया॥ १९॥
अभिवाद्य च वैदेही तापसी तां दमान्विताम्।
बद्धाञ्जलिपुटा हृष्टा पर्यपृच्छदनामयम्॥२०॥
उन संयमशीला तपस्विनी को प्रणाम करके हर्ष से भरी हुई सीता ने दोनों हाथ जोड़कर उनका कुशलसमाचार पूछा ॥ २०॥
ततः सीतां महाभागां दृष्ट्वा तां धर्मचारिणीम्।
सान्त्वयन्त्यब्रवीद् वृद्धा दिष्ट्या धर्ममवेक्षसे॥ २१॥
धर्म का आचरण करने वाली महाभागा सीता को देखकर बूढ़ी अनसूया देवी उन्हें सान्त्वना देती हुई बोलीं—’सीते! सौभाग्य की बात है कि तुम धर्म पर ही दृष्टि रखती हो॥ २१॥
त्यक्त्वा ज्ञातिजनं सीते मानवृद्धिं च मानिनि।
अवरुद्धं वने रामं दिष्ट्या त्वमनुगच्छसि ॥२२॥
‘मानिनी सीते! बन्धु-बान्धवों को छोड़कर और उनसे प्राप्त होने वाली मान-प्रतिष्ठा का परित्याग करके तुम वन में भेजे हुए श्रीराम का अनुसरण कर रही हो —यह बड़े सौभाग्य की बात है।॥ २२॥
नगरस्थो वनस्थो वा शुभो वा यदि वाशुभः।
यासां स्त्रीणां प्रियो भर्ता तासां लोका महोदयाः॥२३॥
‘अपने स्वामी नगर में रहें या वन में, भले हों या बुरे, जिन स्त्रियों को वे प्रिय होते हैं, उन्हें महान् अभ्युदयशाली लोकों की प्राप्ति होती है।॥ २३॥
दुःशीलः कामवृत्तो वा धनैर्वा परिवर्जितः।
स्त्रीणामार्यस्वभावानां परमं दैवतं पतिः॥२४॥
‘पति बुरे स्वभाव का, मनमाना बर्ताव करने वाला अथवा धनहीन ही क्यों न हो, वह उत्तम स्वभाववाली नारियों के लिये श्रेष्ठ देवता के समान है। २४॥
नातो विशिष्टं पश्यामि बान्धवं विमृशन्त्यहम्।
सर्वत्र योग्यं वैदेहि तपःकृतमिवाव्ययम्॥२५॥
‘विदेहराजनन्दिनि! मैं बहुत विचार करने पर भी पति से बढ़कर कोई हितकारी बन्धु नहीं देखती। अपनी की हुई तपस्या के अविनाशी फल की भाँति वह इस लोक में और परलोक में सर्वत्र सुख पहुँचाने में समर्थ होता है॥२५॥
न त्वेवमनुगच्छन्ति गुणदोषमसत्स्त्रियः।
कामवक्तव्यहृदया भर्तृनाथाश्चरन्ति याः॥२६॥
‘जो अपने पति पर भी शासन करती हैं, वे काम के अधीन चित्तवाली असाध्वी स्त्रियाँ इस प्रकार पति का अनुसरण नहीं करतीं। उन्हें गुण-दोषों का ज्ञान नहीं होता; अतः वे इच्छानुसार इधर-उधर विचरती रहती हैं।॥ २६॥
प्राप्नुवन्त्ययशश्चैव धर्मभ्रंशं च मैथिलि।
अकार्यवशमापन्नाः स्त्रियो याः खलु तद्विधाः॥ २७॥
‘मिथिलेशकुमारी! ऐसी नारियाँ अवश्य ही अनुचित कर्म में फँसकर धर्म से भ्रष्ट हो जाती हैं और संसार में उन्हें अपयश की प्राप्ति होती है॥ २७॥
त्वद्विधास्तु गुणैर्युक्ता दृष्टलोकपरावराः।
स्त्रियः स्वर्गे चरिष्यन्ति यथा पुण्यकृतस्तथा॥ २८॥
‘किंतु जो तुम्हारे समान लोक-परलोक को जानने वाली साध्वी स्त्रियाँ हैं, वे उत्तम गुणों से युक्त होकर पुण्यकर्मों में संलग्न रहती हैं; अतः वे दूसरे पुण्यात्माओं की भाँति स्वर्गलोक में विचरण करेंगी।२८॥
तदेवमेतं त्वमनुव्रता सती पतिप्रधाना समयानुवर्तिनी।
भव स्वभर्तुः सहधर्मचारिणी यशश्च धर्मं च ततः समाप्स्यसि ॥२९॥
‘अतः तुम इसी प्रकार अपने इन पतिदेव श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में लगी रहो—सतीधर्म का पालन करो, पति को प्रधान देवता समझो और प्रत्येक समय उनका अनुसरण करती हुई अपने स्वामी की सहधर्मिणी बनो, इससे तुम्हें सुयश और धर्म दोनों की प्राप्ति होगी’ ॥ २९॥
सर्ग ११८
सा त्वेवमुक्ता वैदेही त्वनसूयानसूयया।
प्रतिपूज्य वचो मन्दं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥१॥
तपस्विनी अनसूया के इस प्रकार उपदेश देने पर किसी के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाली विदेहराजकुमारी सीता ने उनके वचनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करके धीरे-धीरे इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥१॥
नैतदाश्चर्यमार्यायां यन्मां त्वमनुभाषसे।
विदितं तु ममाप्येतद् यथा नार्याः पतिर्गुरुः॥२॥
‘देवि! आप संसार की स्त्रियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। आपके मुँह से ऐसी बातों का सुनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। नारी का गुरु पति ही है, इस विषय में जैसा आपने उपदेश किया है, यह बात मुझे भी पहले से ही विदित है॥२॥
यद्यप्येष भवेद् भर्ता अनार्यो वृत्तिवर्जितः।
अद्वैधमत्र वर्तव्यं यथाप्येष मया भवेत्॥३॥
‘मेरे पतिदेव यदि अनार्य (चरित्रहीन) तथा जीविका के साधनों से रहित (निर्धन) होते तो भी मैं बिना किसी दुविधा के इनकी सेवा में लगी रहती॥३॥
किं पुनर्यो गुणश्लाघ्यः सानुक्रोशो जितेन्द्रियः।
स्थिरानुरागो धर्मात्मा मातृवत्पितृवत्प्रियः॥४॥
‘फिर जब कि ये अपने गणों के कारण ही सबकी प्रशंसा के पात्र हैं, तब तो इनकी सेवा के लिये कहना ही क्या है। ये श्रीरघुनाथजी परम दयालु, जितेन्द्रिय, दृढ़ अनुराग रखने वाले, धर्मात्मा तथा माता-पिता के समान प्रिय हैं।॥ ४॥
यां वृत्तिं वर्तते रामः कौसल्यायां महाबलः।
तामेव नृपनारीणामन्यासामपि वर्तते॥५॥
‘महाबली श्रीराम अपनी माता कौसल्या के प्रति जैसा बर्ताव करते हैं वैसा ही महाराज दशरथ की दूसरी रानियों के साथ भी करते हैं॥५॥
सकृद् दृष्टास्वपि स्त्रीषु नृपेण नृपवत्सलः।
मातृवद् वर्तते वीरो मानमुत्सृज्य धर्मवित्॥६॥
‘महाराज दशरथ ने एक बार भी जिन स्त्रियों को प्रेमदृष्टि से देख लिया है, उनके प्रति भी ये पितृवत्सल धर्मज्ञ वीर श्रीराम मान छोड़कर माता के समान ही बर्ताव करते हैं॥६॥
आगच्छन्त्याश्च विजनं वनमेवं भयावहम्।
समाहितं हि मे श्वश्र्वा हृदये यत् स्थिरं मम॥ ७॥
‘जब मैं पति के साथ निर्जन वन में आने लगी, उस समय मेरी सास कौसल्या ने मुझे जो कर्तव्य का उपदेश दिया था, वह मेरे हृदय में ज्यों-का-त्यों स्थिरभाव से अङ्कित है॥७॥
पाणिप्रदानकाले च यत् पुरा त्वग्निसंनिधौ।
अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्॥८॥
‘पहले मेरे विवाह-काल में अग्नि के समीप माता ने मुझे जो शिक्षा दी थी, वह भी मुझे अच्छी तरह याद है॥८॥
न विस्मृतं तु मे सर्वं वाक्यैः स्वैर्धर्मचारिणि।
पतिशुश्रूषणान्नार्यास्तपो नान्यद् विधीयते॥९॥
‘धर्मचारिणि! इसके सिवा मेरे अन्य स्वजनों ने अपने वचनों द्वारा जो-जो उपदेश किया है, वह भी मुझे भूला नहीं है। स्त्री के लिये पति की सेवा के अतिरिक्त दूसरे किसी तप का विधान नहीं है॥९॥
सावित्री पतिशुश्रूषां कृत्वा स्वर्गे महीयते।
तथावृत्तिश्च याता त्वं पतिशुश्रूषया दिवम्॥१०॥
‘सत्यवान की पत्नी सावित्री पति की सेवा करके ही स्वर्गलोक में पूजित हो रही हैं। उन्हीं के समान बर्ताव करने वाली आप (अनसूया देवी) ने भी पति की सेवा के ही प्रभाव से स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त कर लिया है॥१०॥
वरिष्ठा सर्वनारीणामेषा च दिवि देवता।
रोहिणी न विना चन्द्रं मुहूर्तमपि दृश्यते॥११॥
‘सम्पूर्ण स्त्रियों में श्रेष्ठ यह स्वर्ग की देवी रोहिणी पतिसेवा के प्रभाव से ही एक मुहूर्त के लिये भी चन्द्रमा से बिलग होती नहीं देखी जाती॥ ११ ॥
एवंविधाश्च प्रवराः स्त्रियो भर्तृदृढव्रताः।
देवलोके महीयन्ते पुण्येन स्वेन कर्मणा ॥१२॥
‘इस प्रकार दृढ़तापूर्वक पातिव्रत्य-धर्म का पालन करने वाली बहुत-सी साध्वी स्त्रियाँ अपने पुण्यकर्म के बल से देवलोक में आदर पा रही हैं ॥१२॥
ततोऽनसूया संहृष्टा श्रुत्वोक्तं सीतया वचः।
शिरसाऽऽघ्राय चोवाच मैथिली हर्षयन्त्युत॥ १३॥
तदनन्तर सीता के कहे हुए वचन सुनकर अनसूया को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने उनका मस्तक सूंघा और फिर उन मिथिलेशकुमारी का हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा-
नियमैर्विविधैराप्तं तपो हि महदस्ति मे।
तत् संश्रित्य बलं सीते छन्दये त्वां शुचिव्रते॥ १४॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाली सीते! मैंने अनेक प्रकार के नियमों का पालन करके बहुत बड़ी तपस्या संचित की है। उस तपोबल का ही आश्रय लेकर मैं तुमसे इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहती हूँ॥१४॥
उपपन्नं च युक्तं च वचनं तव मैथिलि।
प्रीता चासम्युचितां सीते करवाणि प्रियं च किम्॥ १५॥
‘मिथिलेशकुमारी सीते! तुमने बहुत ही युक्तियुक्त और उत्तम वचन कहा है। उसे सुनकर मुझे बड़ा संतोष हुआ है, अतः बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा विस्मिता मन्दविस्मया।
कृतमित्यब्रवीत् सीता तपोबलसमन्विताम्॥ १६॥
उनका यह कथन सुनकर सीता को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे तपोबलसम्पन्न अनसूया से मन्द-मन्द मुसकराती हुई बोलीं-‘आपने अपने वचनों द्वारा ही मेरा सारा प्रिय कार्य कर दिया, अब और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है’।
सा त्वेवमुक्ता धर्मज्ञा तया प्रीततराभवत्।
सफलं च प्रहर्षं ते हन्त सीते करोम्यहम्॥१७॥
सीता के ऐसा कहने पर धर्मज्ञ अनसूया को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोलीं-‘सीते! तुम्हारी निर्लोभता से जो मुझे विशेष हर्ष हुआ है (अथवा तुम में जो लोभहीनता के कारण सदा आनन्दोत्सव भरा रहता है), उसे मैं अवश्य सफल करूँगी॥१७॥
इदं दिव्यं वरं माल्यं वस्त्रमाभरणानि च।
अङ्गरागं च वैदेहि महार्हमनुलेपनम्॥१८॥
मया दत्तमिदं सीते तव गात्राणि शोभयेत्।
अनुरूपमसंक्लिष्टं नित्यमेव भविष्यति॥१९॥
‘यह सुन्दर दिव्य हार, यह वस्त्र, ये आभूषण, यह अङ्गराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें देती हूँ। विदेह-नन्दिनि सीते! मेरी दी हुई ये वस्तुएँ तुम्हारे अङ्गों की शोभा बढ़ायेंगी। ये सब तुम्हारे ही योग्य हैं और सदा उपयोग में लायी जानेपर निर्दोष एवं निर्विकार रहेंगी।
अङ्गरागेण दिव्येन लिप्ताङ्गी जनकात्मजे।
शोभयिष्यसि भर्तारं यथा श्रीविष्णुमव्ययम्॥ २०॥
‘जनककिशोरी! इस दिव्य अङ्गराग को अङ्गों में लगाकर तुम अपने पति को उसी प्रकार सुशोभित करोगी, जैसे लक्ष्मी अविनाशी भगवान् विष्णु की शोभा बढ़ाती है’।
सा वस्त्रमङ्गरागं च भूषणानि स्रजस्तथा।
मैथिली प्रतिजग्राह प्रीतिदानमनुत्तमम्॥२१॥
प्रतिगृह्य च तत् सीता प्रीतिदानं यशस्विनी।
श्लिष्टाञ्जलिपुटा धीरा समुपास्त तपोधनाम्॥ २२॥
अनसूया की आज्ञा से धीर स्वभाव वाली यशस्विनी मिथिलेशकुमारी सीता ने उस वस्त्र, अङ्गराग, आभूषण और हार को उनकी प्रसन्नता का परम उत्तम उपहार समझकर ले लिया। उस प्रेमोपहार को ग्रहण करके वे दोनों हाथ जोड़कर उन तपोधना अनसूया की सेवामें बैठी रहीं।
तथा सीतामुपासीनामनसूया दृढव्रता।
वचनं प्रष्टमारेभे कथां कांचिदनुप्रियाम्॥२३॥
तदनन्तर इस प्रकार अपने निकट बैठी हुई सीता से दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली अनसूया ने कोई परम प्रिय कथा सुनाने के लिये इस प्रकार पूछना आरम्भ किया— ॥ २३ ॥
स्वयंवरे किल प्राप्ता त्वमनेन यशस्विना।
राघवेणेति मे सीते कथा श्रतिमुपागता॥२४॥
‘सीते! इन यशस्वी राघवेन्द्र ने तुम्हें स्वयंवर में प्राप्त किया था, यह बात मेरे सुनने में आयी है॥ २४ ॥
तां कथां श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण च मैथिलि।
यथाभूतं च कात्स्येन तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि॥ २५॥
‘मिथिलेशनन्दिनि! मैं उस वृत्तान्त को विस्तार के साथ सुनना चाहती हूँ। अतः जो कुछ जिस प्रकार हुआ, वह सब पूर्ण रूप से मुझे बताओ’ ॥ २५ ॥
एवमुक्ता तु सा सीता तापसी धर्मचारिणीम्।
श्रूयतामिति चोक्त्वा वै कथयामास तां कथाम्॥ २६॥
उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर सीता ने उन धर्मचारिणी तापसी अनसूया से कहा—’माताजी ! सुनिये।’ ऐसा कहकर उन्होंने उस कथा को इस प्रकार कहना आरम्भ किया-
मिथिलाधिपतिर्वीरो जनको नाम धर्मवित्।
क्षत्रकर्मण्यभिरतो न्यायतः शास्ति मेदिनीम्॥ २७॥
‘मिथिला जनपद के वीर राजा ‘जनक’ नाम से प्रसिद्ध हैं। वे धर्म के ज्ञाता हैं, अतः क्षत्रियोचित कर्म में तत्पर रहकर न्यायपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हैं ॥ २७॥
तस्य लाङ्गलहस्तस्य कृषतः क्षेत्रमण्डलम्।
अहं किलोत्थिता भित्त्वा जगतीं नृपतेः सुता॥ २८॥
‘एक समय की बात है, वे यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ में हल लेकर जोत रहे थे; इसी समय मैं पृथ्वी को फाड़कर प्रकट हुई। इतने मात्र से ही मैं राजा जनक की पुत्री हुई।
स मां दृष्ट्वा नरपतिर्मुष्टिविक्षेपतत्परः।
पांसुगुण्ठितसर्वाङ्गीं विस्मितो जनकोऽभवत्॥ २९॥
‘वे राजा उस क्षेत्र में ओषधियों को मुट्ठी में लेकर बो रहे थे। इतने ही में उनकी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। मेरे सारे अङ्गों में धूल लिपटी हुई थी। उस अवस्था में मुझे देखकर राजा जनक को बड़ा विस्मय हुआ॥ २९ ॥
अनपत्येन च स्नेहादङ्कमारोप्य च स्वयम्।
ममेयं तनयेत्युक्त्वा स्नेहो मयि निपातितः॥३०॥
‘उन दिनों उनके कोई दूसरी संतान नहीं थी, इसलिये स्नेहवश उन्होंने स्वयं मुझे गोद में ले लिया और ‘यह मेरी बेटी है’ ऐसा कहकर मुझ पर अपने हृदय का सारा स्नेह उड़ेल दिया॥ ३० ॥
अन्तरिक्षे च वागुक्ता प्रतिमामानुषी किल।
एवमेतन्नरपते धर्मेण तनया तव॥३१॥
‘इसी समय आकाशवाणी हुई, जो स्वरूपतःमानवी भाषा में कही गयी थी (अथवा मेरे विषय में प्रकट हुई वह वाणी अमानुषी दिव्य थी)। उसने कहा —’नरेश्वर! तुम्हारा कथन ठीक है, यह कन्या धर्मतः तुम्हारी ही पुत्री है’।
ततः प्रहृष्टो धर्मात्मा पिता मे मिथिलाधिपः।
अवाप्तो विपुलामृद्धिं मामवाप्य नराधिपः॥ ३२॥
‘यह आकाशवाणी सुनकर मेरे धर्मात्मा पिता मिथिला नरेश बड़े प्रसन्न हुए। मुझे पाकर उन नरेश ने मानो कोई बड़ी समृद्धि पा ली थी॥ ३२ ॥
दत्ता चास्मीष्टवद्देव्यै ज्येष्ठायै पुण्यकर्मणे।
तया सम्भाविता चास्मि स्निग्धया मातृसौहृदात्॥
‘उन्होंने पुण्यकर्मपरायणा बड़ी रानी को, जो उन्हें अधिक प्रिय थीं, मुझे दे दिया। उन स्नेहमयी महारानी ने मातृसमुचित सौहार्द से मेरा लालन-पालन किया॥ ३३॥
पतिसंयोगसुलभं वयो दृष्ट्वा तु मे पिता।
चिन्तामभ्यगमद् दीनो वित्तनाशादिवाधनः॥ ३४॥
‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गयी, तब इसके लिये वे बड़ी चिन्ता में पड़े। जैसे कमाये हुए धन का नाश हो जाने से निर्धन मनुष्य को बड़ा दुःख होता है, उसी प्रकार वे मेरे विवाह की चिन्ता से बहुत दुःखी हो गये॥ ३४॥
सदृशाच्चापकृष्टाच्च लोके कन्यापिता जनात्।
प्रधर्षणमवाप्नोति शक्रेणापि समो भुवि॥३५॥
‘संसार में कन्या के पिता को, वह भूतल पर इन्द्र के ही तुल्य क्यों न हो, वर पक्ष के लोगों से, वे अपने समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों, प्रायः अपमान उठाना पड़ता है॥ ३५ ॥
तां धर्षणामदूरस्थां संदृश्यात्मनि पार्थिवः।
चिन्तार्णवगतः पारं नाससादाप्लवो यथा॥३६॥
‘वह अपमान सहन करने की घड़ी अपने लिये बहुत समीप आ गयी है, यह देखकर राजा चिन्ता के समुद्र में डूब गये। जैसे नौकारहित मनुष्य पार नहीं पहुँच पाता, उसी प्रकार मेरे पिता भी चिन्ता का पार नहीं पा रहे थे।
अयोनिजां हि मां ज्ञात्वा नाध्यगच्छत् स चिन्तयन्।
सदृशं चाभिरूपं च महीपालः पतिं मम॥३७॥
‘मुझे अयोनिजा कन्या समझकर वे भूपाल मेरे लिये योग्य और परम सुन्दर पति का विचार करने लगे; किंतु किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके॥३७॥
तस्य बुद्धिरियं जाता चिन्तयानस्य संततम्।
स्वयंवरं तनूजायाः करिष्यामीति धर्मतः॥३८॥
‘सदा मेरे विवाह की चिन्ता में पड़े रहने वाले उन महाराज के मन में एक दिन यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं धर्मतः अपनी पुत्री का स्वयं वर करूँगा॥ ३८ ॥
महायज्ञे तदा तस्य वरुणेन महात्मना।
दत्तं धनुर्वरं प्रीत्या तूणी चाक्षय्यसायकौ॥ ३९॥
‘उन्हीं दिनों उनके एक महान् यज्ञ में प्रसन्न होकर महात्मा वरुण ने उन्हें एक श्रेष्ठ दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस दिये॥ ३९ ॥
असंचाल्यं मनुष्यैश्च यत्नेनापि च गौरवात्।
तन्न शक्ता नमयितुं स्वप्नेष्वपि नराधिपाः॥४०॥
‘वह धनुष इतना भारी था कि मनुष्य पूरा प्रयत्न करने पर भी उसे हिला भी नहीं पाते थे। भूमण्डल के नरेश स्वप्न में भी उस धनुष को झुकाने में असमर्थ थे। ४०॥
तद्धनुः प्राप्य मे पित्रा व्याहृतं सत्यवादिना।
समवाये नरेन्द्राणां पूर्वमामन्त्र्य पार्थिवान्॥४१॥
‘उस धनुष को पाकर मेरे सत्यवादी पिता ने पहले भूमण्डल के राजाओं को आमन्त्रित करके उन नरेशों के समूहमें यह बात कही— ॥४१॥
इदं च धनुरुद्यम्य सज्यं यः कुरुते नरः।
तस्य मे दुहिता भार्या भविष्यति न संशयः॥ ४२॥
‘जो मनुष्य इस धनुष को उठाकर इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा, मेरी पुत्री सीता उसी की पत्नी होगी; इसमें संशय नहीं है॥४२॥
तच्च दृष्ट्वा धनुःश्रेष्ठं गौरवाद् गिरिसंनिभम्।
अभिवाद्य नृपा जग्मुरशक्तास्तस्य तोलने॥४३॥
‘अपने भारीपन के कारण पहाड़-जैसे प्रतीत होने वाले उस श्रेष्ठ धनुष को देखकर वहाँ आये हुए राजा जब उसे उठाने में समर्थ न हो सके, तब उसे प्रणाम करके चले गये।
सुदीर्घस्य तु कालस्य राघवोऽयं महाद्युतिः।
विश्वामित्रेण सहितो यज्ञं द्रष्टुं समागतः॥४४॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा रामः सत्यपराक्रमः।
विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा मम पित्रा सुपूजितः॥ ४५॥
‘तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् ये महातेजस्वी रघुकुल-नन्दन सत्यपराक्रमी श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को साथ ले विश्वामित्रजी के साथ मेरे पिताका यज्ञ देखने के लिये मिथिला में पधारे। उस समय मेरे पिताने धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि का बड़ा आदरसत्कार किया॥ ४४-४५॥
प्रोवाच पितरं तत्र राघवौ रामलक्ष्मणौ।
सुतौ दशरथस्येमौ धनुर्दर्शनकांक्षिणौ।
धनुर्दर्शय रामाय राजपुत्राय दैविकम्॥४६॥
‘तब वहाँ विश्वामित्रजी मेरे पिता से बोले —’राजन्! ये दोनों रघुकुलभूषण श्रीराम और लक्ष्मण महाराज दशरथ के पुत्र हैं और आपके उस दिव्य धनुष का दर्शन करना चाहते हैं। आप अपना वह देवप्रदत्त धनुष राजकुमार श्रीराम को दिखाइये’। ४६॥
इत्युक्तस्तेन विप्रेण तद् धनुः समुपानयत्।
तद् धनुर्दर्शयामास राजपुत्राय दैविकम्॥४७॥
‘विप्रवर विश्वामित्र के ऐसा कहने पर पिताजी ने उस दिव्य धनुष को मँगवाया और राजकुमार श्रीराम को उसे दिखाया॥४७॥
निमेषान्तरमात्रेण तदानम्य महाबलः।
ज्यां समारोप्य झटिति पूरयामास वीर्यवान्॥ ४८॥
‘महाबली और परम पराक्रमी श्रीराम ने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और उसे तुरंत कान तक खींचा॥ ४८॥
तेनापूरयता वेगान्मध्ये भग्नं द्विधा धनुः।
तस्य शब्दोऽभवद् भीमः पतितस्याशनेर्यथा॥ ४९॥
“उनके वेगपूर्वक खींचते समय वह धनुष बीच से ही टूट गया और उसके दो टुकड़े हो गये। उसके टूटते समय ऐसा भयंकर शब्द हुआ मानो वहाँ वज्र टूट पड़ा हो॥ ४९॥
ततोऽहं तत्र रामाय पित्रा सत्याभिसंधिना।
उद्यता दातुमुद्यम्य जलभाजनमुत्तमम्॥५०॥
‘तब मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिताने जल का उत्तम पात्र लेकर श्रीराम के हाथ में मुझे दे देने का उद्योग किया। ५०॥
दीयमानां न तु तदा प्रतिजग्राह राघवः।
अविज्ञाय पितुश्छन्दमयोध्याधिपतेः प्रभोः॥ ५१॥
‘उस समय अपने पिता अयोध्यानरेश महाराज दशरथ के अभिप्राय को जाने बिना श्रीराम ने राजा जनक के देने पर भी मुझे नहीं ग्रहण किया॥५१॥
ततः श्वशुरमामन्त्र्य वृद्धं दशरथं नृपम्।
मम पित्रा त्वहं दत्तां रामाय विदितात्मने॥५२॥
‘तदनन्तर मेरे बूढ़े श्वशुर राजा दशरथ की अनुमति लेकर पिताजी ने आत्मज्ञानी श्रीराम को मेरा दान कर दिया॥५२॥
मम चैवानुजा साध्वी ऊर्मिला शुभदर्शना।
भार्यार्थे लक्ष्मणस्यापि दत्ता पित्रा मम स्वयम्॥ ५३॥
‘तत्पश्चात् पिताजी ने स्वयं ही मेरी छोटी बहिन सती साध्वी परम सुन्दरी ऊर्मिला को लक्ष्मण की पत्नी रूप से उनके हाथ में दे दिया॥५३॥
एवं दत्तास्मि रामाय तथा तस्मिन् स्वयंवरे।
अनुरक्तास्मि धर्मेण पतिं वीर्यवतां वरम्॥५४॥
‘इस प्रकार उस स्वयंवर में पिताजी ने श्रीराम के हाथ में मुझको सौंपा था। मैं धर्म के अनुसार अपने पति बलवानों में श्रेष्ठ श्रीराम में सदा अनुरक्त रहती हूँ’॥ ५४॥
सर्ग ११९
अनसूया तु धर्मज्ञा श्रुत्वा तां महतीं कथाम्।
पर्यष्वजत बाहुभ्यां शिरस्याघ्राय मैथिलीम्॥१॥
धर्म को जानने वाली अनसूया ने उस लंबी कथा को सुनकर मिथिलेशकुमारी सीता को अपनी दोनों भुजाओं से अङ्क में भर लिया और उनका मस्तक सूंघकर कहा-
व्यक्ताक्षरपदं चित्रं भाषितं मधुरं त्वया।
यथा स्वयंवरं वृत्तं तत् सर्वं च श्रुतं मया॥२॥
‘बेटी! तुमने सुस्पष्ट अक्षर वाले शब्दों में यह विचित्र एवं मधुर प्रसङ्ग सुनाया। तुम्हारा स्वयंवर जिस प्रकार हुआ था, वह सब मैंने सुन लिया॥२॥
रमेयं कथया ते तु दृढं मधुरभाषिणि।
रविरस्तं गतः श्रीमानुपोह्य रजनीं शुभाम्॥३॥
दिवसं परिकीर्णानामाहारार्थं पतत्त्रिणाम्।
संध्याकाले निलीनानां निद्रार्थं श्रूयते ध्वनिः॥ ४॥
‘मधुरभाषिणी सीते! तुम्हारी इस कथा में मेरा मन बहुत लग रहा है; तथापि तेजस्वी सूर्यदेव रजनी की शुभ वेला को निकट पहुँचाकर अस्त हो गये। जो दिन में चारा चुगने के लिये चारों ओर छिटके हुए थे, वे पक्षी अब संध्याकाल में नींद लेने के लिये अपने घोंसलों में आकर छिप गये हैं; उनकी यह ध्वनि सुनायी दे रही है।
एते चाप्यभिषेकार्द्रा मुनयः कलशोद्यताः।
सहिता उपवर्तन्ते सलिलाप्लुतवल्कलाः॥५॥
‘ये जल से भीगे हुए वल्कल धारण करने वाले मुनि, जिनके शरीर स्नान के कारण आर्द्र दिखायी देते हैं, जलसे भरे कलश उठाये एक साथ आश्रम की ओर लौट रहे हैं।॥ ५ ॥
अग्निहोत्रे च ऋषिणा हुते च विधिपूर्वकम्।
कपोताङ्गारुणो धूमो दृश्यते पवनोद्धतः॥६॥
‘महर्षि (अत्रि) ने विधिपूर्वक अग्निहोत्र-सम्बन्धी होमकर्म सम्पन्न कर लिया है, अतः वायु के वेग से ऊपर को उठा हुआ यह कबूतर के कण्ठ की भाँति श्यामवर्ण का धूम दिखायी दे रहा है॥६॥
अल्पवर्णा हि तरवो घनीभूताः समन्ततः।
विप्रकृष्टेन्द्रिये देशे न प्रकाशन्ति वै दिशः॥७॥
‘अपनी इन्द्रियों से दूर देश में चारों ओर जो वृक्ष दिखायी देते हैं, वे थोड़े पत्तेवाले होने पर भी अन्धकार से व्याप्त हो घनीभूत हो गये हैं; अतएव दिशाओं का भान नहीं हो रहा है ॥७॥
रजनीचरसत्त्वानि प्रचरन्ति समन्ततः।
तपोवनमृगा ह्येते वेदितीर्थेषु शेरते॥८॥
‘रात को विचरने वाले प्राणी (उल्लू आदि) सब ओर विचरण कर रहे हैं तथा ये तपोवन के मृग पुण्यक्षेत्र स्वरूप आश्रम के वेदी आदि विभिन्न प्रदेशों में सो रहे हैं।॥ ८॥
सम्प्रवृत्ता निशा सीते नक्षत्रसमलंकृता।
ज्योत्स्नाप्रावरणश्चन्द्रो दृश्यतेऽभ्युदितोऽम्बरे॥
‘सीते! अब रात हो गयी, वह नक्षत्रों से सज गयी है। आकाश में चन्द्रदेव चाँदनी की चादर ओढ़े उदित दिखायी देते हैं॥९॥
गम्यतामनुजानामि रामस्यानुचरी भव।
कथयन्त्या हि मधुरं त्वयाहमपि तोषिता॥१०॥
‘अतः अब जाओ, मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूँ। जाकर श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में लग जाओ। तुमने अपनी मीठी-मीठी बातों से मुझे भी बहुत संतुष्ट किया है॥१०॥
अलंकुरु च तावत् त्वं प्रत्यक्षं मम मैथिलि।
प्रीतिं जनय मे वत्से दिव्यालंकारशोभिनी॥११॥
‘बेटी! मिथिलेशकुमारी! पहले मेरी आँखों के सामने अपने-आपको अलंकृत करो। इन दिव्य वस्त्र और आभूषणों को धारण करके इनसे सुशोभित हो मुझे प्रसन्न करो’।
सा तदा समलंकृत्य सीता सुरसुतोपमा।
प्रणम्य शिरसा पादौ रामं त्वभिमुखी ययौ॥ १२॥
यह सुनकर देवकन्या के समान सुन्दरी सीता ने उस समय उन वस्त्राभूषणों से अपना शृङ्गार किया और अनसूया के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करने के अनन्तर वे श्रीराम के सम्मुख गयीं॥ १२ ॥
तथा तु भूषितां सीतां ददर्श वदतां वरः।
राघवः प्रीतिदानेन तपस्विन्या जहर्ष च॥१३॥
श्रीराम ने जब इस प्रकार सीता को वस्त्र और आभूषणों से विभूषित देखा, तब तपस्विनी अनसूया के उस प्रेमोपहार के दर्शन से वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजी को बड़ी प्रसन्नता हुई॥ १३॥
न्यवेदयत् ततः सर्वं सीता रामाय मैथिली।
प्रीतिदानं तपस्विन्या वसनाभरणस्रजाम्॥१४॥
उस समय मिथिलेशकुमारी सीता ने तपस्विनी अनसूया के हाथ से जिस प्रकार वस्त्र, आभूषण और हार आदि का प्रेमोपहार प्राप्त हुआ था, वह सब श्रीरामचन्द्रजी से कह सुनाया।॥ १४ ॥
प्रहृष्टस्त्वभवद् रामो लक्ष्मणश्च महारथः।
मैथिल्याः सत्क्रियां दृष्ट्वा मानुषेषु सुदुर्लभाम्॥
भगवान् श्रीराम और महारथी लक्ष्मण सीता का वह सत्कार, जो मनुष्यों के लिये सर्वथा दुर्लभ है, देखकर बहुत प्रसन्न हुए॥ १५ ॥
ततः स शर्वरीं प्रीतः पुण्यां शशिनिभाननाम्।
अर्चितस्तापसैः सर्वैरुवास रघुनन्दनः॥१६॥
तदनन्तर समस्त तपस्विजनों से सम्मानित हुए रघुकुलनन्दन श्रीराम ने अनसूया के दिये हुए पवित्र अलंकार आदि से अलंकृत चन्द्रमुखी सीता को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ रात्रिभर निवास किया॥१६॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामभिषिच्य हुताग्निकान्।
आपृच्छेतां नरव्याघ्रौ तापसान् वनगोचरान्॥ १७॥
वह रात बीतने पर जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण ने उनसे जाने के लिये आज्ञा माँगी॥ १७॥
तावूचुस्ते वनचरास्तापसा धर्मचारिणः।
वनस्य तस्य संचारं राक्षसैः समभिप्लुतम्॥१८॥
रक्षांसि पुरुषादानि नानारूपाणि राघव।
वसन्त्यस्मिन् महारण्ये व्यालाश्च रुधिराशनाः॥ १९॥
तब वे धर्मपरायण वनवासी तपस्वी उन दोनों भाइयों से इस प्रकार बोले—’रघुनन्दन! इस वन का मार्ग राक्षसों से आक्रान्त है—यहाँ उनका उपद्रव होता रहता है। इस विशाल वन में नानारूपधारी नरभक्षी राक्षस तथा रक्तभोजी हिंसक पशु निवास करते हैं। १८-१९॥
उच्छिष्टं वा प्रमत्तं वा तापसं ब्रह्मचारिणम्।
अदन्त्यस्मिन् महारण्ये तान् निवारय राघव॥ २०॥
‘राघवेन्द्र ! जो तपस्वी और ब्रह्मचारी यहाँ अपवित्र अथवा असावधान अवस्था में मिल जाता है, उसे वे राक्षस और हिंसक जन्तु इस महान् वन में खा जाते हैं; अतः आप उन्हें रोकिये—यहाँ से मार भगाइये।२०॥
एष पन्था महर्षीणां फलान्याहरतां वने।
अनेन तु वनं दुर्गं गन्तुं राघव ते क्षमम्॥२१॥
‘रघुकुलभूषण! यही वह मार्ग है, जिससे महर्षि लोग वन के भीतर फल-मूल लेने के लिये जाते हैं। आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिये’॥ २१॥
इतीरितः प्राञ्जलिभिस्तपस्विभिर्द्विजैः कृतस्वस्त्ययनः परंतपः।
वनं सभार्यः प्रविवेश राघवः सलक्ष्मणः सूर्य इवाभ्रमण्डलम्॥२२॥
तपस्वी ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर जब ऐसी बातें कहीं और उनकी मङ्गलयात्रा के लिये स्वस्तिवाचन किया, तब शत्रुओं को संताप देने वाले भगवान् श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ उस वन में प्रवेश किया, मानो सूर्यदेव मेघों की घटा के भीतर घुस गये हों॥ २२॥
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