ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र
महर्षि विश्वामित्र हिन्दू धर्म के सर्वाधिक प्रसिद्ध, प्रभावशाली और शक्तिशाली ऋषियों में से एक हैं। वो हमारे धर्म के उन गिने चुने ऋषियों में से एक हैं जिन्होंने ऋषियों के सर्वोच्च पद, अर्थात ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त किया था। सबसे कमाल की बात ये है कि ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त करने वाले विश्वामित्र वास्तव में ब्राह्मण वर्ण के थे ही नहीं। वे जन्म से एक क्षत्रिय थे और उन्होंने अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। वे इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं कि हमारा धर्म जन्म नहीं बल्कि कर्म प्रधान है।

महर्षि विश्वामित्र का मुख्य वर्णन हमें वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में मिलता है। बालकाण्ड के सर्ग १८ में हमें पहली बार महर्षि विश्वामित्र के बारे में पता चलता है जब वे अयोध्या महाराज दशरथ से श्रीराम को मांगने आये थे। उस समय महाराज दशरथ ने उनका बड़ा स्वागत किया और उन्हें वचन दिया कि उनकी जो भी इच्छा होगी वो उसे पूर्ण करेंगे। तब महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे हैं और उनका दमन करने के लिए उन्हें १० दिनों के लिए श्रीराम की आवश्यकता है।

उनकी बात सुनकर महाराज दशरथ घबरा गए। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना की कि अभी तक श्रीराम १६ वर्ष के भी नहीं हुए हैं इसीलिए वे उनमें मारीच और सुबाहु जैसे महाशक्तिशाली राक्षसों, जो सुन्द और उपसुन्द के पुत्र हैं, उनका सामना करने का सामर्थ्य नहीं देखते। वे कहते हैं कि मेरी आयु ६०००० वर्ष की है और इस आयु में मुझे पुत्र की प्राप्ति हुई है इसीलिए कृपया उसे ना ले जाएँ। उसके बदले मैं स्वयं अपनी पूरी सेना लेकर आपके यज्ञ की सुरक्षा के लिए चलता हूँ। ये सुनकर महर्षि विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आया और वे वापस जाने लगे।

तब महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें रोका। उन्होंने महाराज दशरथ को समझाया कि महर्षि विश्वामित्र स्वयं महाशक्तिशाली हैं और मारीच और सुबाहु के वध में समर्थ हैं किन्तु फिर भी वे उसका श्रेय श्रीराम को दे रहे हैं। पूर्व काल में प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों - जया और सुप्रभा का विवाह कृशाश्व प्रजापति से हुआ। उनसे जया और सुप्रभा ने ने ५०-५० दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को उत्पन्न किया। उन सभी दिव्यास्त्रों को प्रजापति कृशाश्व ने कुशिकनन्दन (विश्वामित्र) को प्रदान किये थे। उनके संरक्षण में श्रीराम पूर्णतः सुरक्षित रहेंगे। उनकी ये बात सुनकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र के साथ जाने को कहा। लक्ष्मण भी अपने भाई के साथ ही गए।

मार्ग में महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम को बला-अतिबला नामक सिद्धि प्रदान की। इसके बाद दोनों भाई उनके साथ एक भयंकर वन में पहुंचे जहाँ महर्षि ने उन्हें ताड़का के बारे में बताया। उनके आदेश पर दोनों भाइयों ने ताड़का से युद्ध किया और श्रीराम के हाथों वो मारी गयी। तब विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए और दोनों को योग्य जान कर उन्होंने उन्हें अनेकों दिव्यास्त्र प्रदान किये। महर्षि विश्वामित्र ने दोनों को कौन-कौन से दिव्यास्त्र दिए थे उसके बारे विस्तार से आप यहाँ जान सकते हैं।

इसके बाद महर्षि विश्वामित्र दोनों को लेकर अपने आश्रम जिसे सिद्धाश्रम कहा जाता था, वहां पहुंचे और फिर श्रीराम और लक्ष्मण को पहरे पर बिठा कर उन्होंने अपना यज्ञ आरम्भ किया। सदा की भांति मारीच और सुबाहु ने उनके यज्ञ को भंग करने का प्रयास किया लेकिन दोनों भाइयों ने सभी राक्षसों और सुबाहु का वध कर दिया। मारीच के प्राण श्रीराम ने नहीं लिए पर उन्होंने उसे बिना फल का ऐसा बाण मारा कि वो वहां से १०० योजन दूर जा गिरा।

इसके बाद महर्षि विश्वामित्र दोनों को लेकर मिथिला की ओर बढे। मार्ग में महर्षि ने श्रीराम को उनके पूर्वज राजा सगर, दिलीप, भगीरथ इत्यादि के बारे में बताया और गंगा अवतरण की कथा सुनाई। इसके बाद श्रीराम के हाथों महर्षि विश्वामित्र ने अहिल्या को श्राप मुक्त करवाया। तत्पश्चात तीनों मिथिला पहुंचे जहाँ श्रीराम ने महादेव का महान धनुष भंग करके देवी सीता को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त किया। अर्थात राम-सीता के मिलन में महर्षि विश्वामित्र की बड़ी भूमिका थी। उसी समय बालकाण्ड के सर्ग ५१ में महाराज जनक के कुलगुरु ऋषि शतानन्द ने श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र के पूरी कथा सुनाई। यहीं पर हमें उनके बारे में विस्तार से जानने को मिलता है।

प्राचीन काल में कुश नाम के एक राजा थे जो प्रजापति के पुत्र थे। कुश के पुत्र हुए कुशनाभ। कुशनाभ के अप्सरा घृताची से एक पुत्र हुए जिनका नाम था गाधि। ये बहुत प्रसिद्ध राजा हुए। उनका एक नाम कुशिक भी था। इन्ही महाराज गाधि के पुत्र हुए कौशिक जो आगे चल कर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता गाधि के वानप्रस्थ लेने के बाद कौशिक सिंहासन पर बैठे और बड़ी कुशलता से प्रजा और राज्य की सेवा करने लगे। उन्होंने हजारों वर्षों तक शासन किया।

एक बार महाराज कौशिक राज-काज से अवकाश लेकर अपनी एक अक्षौहिणी सेना के साथ भ्रमण पर निकले। घूमते हुए वे सेना सहित महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पर पहुंचे। वहां उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम किया और दोनों ने एक दूसरे की कुशल पूछी। महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि मैं आपकी सेना सहित आपका सत्कार करना चाहता हूँ। तब महाराज कौशिक ने सोचा कि महर्षि वशिष्ठ को शायद ये पता नहीं कि मेरे साथ एक अक्षौहिणी सेना है, इसीलिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने ये बात महर्षि वशिष्ठ को बताई तो उन्होंने हँसते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है। ये सुनकर कौशिक सोंच में पड़ गए कि आखिर कैसे एक ऋषि इतनी बड़ी सेना का सत्कार कर सकता है?

तब महर्षि वशिष्ठ ने अपनी गाय कामधेनु को बुलाया और कामधेनु ने देखते ही देखते महाराज की एक अक्षौहिणी सेना के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन, मिष्टान्न इत्यादि उपलब्ध करवा दिए। महाराज कौशिक ये देख कर दंग रह गए। जब सबने भोजन किया तो ऐसा लगा जैसे अमृत भी इसके आगे कुछ नहीं। भोजन कर लेने के पश्चात कौशिक ने प्रार्थना पूर्वक महर्षि वशिष्ठ से कहा कि आप मुझे ये गाय दे दीजिये ताकि इसकी सहायता से मैं प्रजा का पालन कर सकूँ। इसके बदले मैं आपको १००००० उत्तम गायें दूंगा।

तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि राजन! मेरा जीवन यापन इसी गाय पर निर्भर है और ये मुझे अत्यंत प्रिय है अतः मैं किसी भी स्थिति में इसे किसी और को नहीं दे सकता। मैं सौ करोड़ गाय के बदले भी इस गाय को आपको नहीं दे सकता। ये सुनकर महाराज कौशिक ने कहा - महामुनि! मैं आपको १४००० हाथी, जिनके रस्से, आभूषण, हौदे और अंकुश सोने के होंगे, वो भी देता हूँ। इसके अतिरिक्त १०८ सोने के रथ, जिनमें हर रथ में ४ उत्तम अश्व जुते होंगे और ११००० घोड़े भी देता हूँ। इसके ऊपर से मैं एक करोड़ गायें भी आपको अर्पित करता हूँ। बस आप मुझे ये गाय दे दीजिये।

किन्तु जब इसके बाद भी महर्षि वशिष्ठ तैयार नहीं हुए तो महाराज कौशिक क्रोध में आकर बलपूर्वक उस गाय को घसीट कर ले जाने लगे। तब कामधेनु बहुत व्यथित हुई और राजा के सेवकों को अपनी एक फूंक से उड़ा कर महर्षि वशिष्ठ के पास पहुंची और उनसे रोते हुए कहा कि महर्षि! मुझसे क्या अपराध हुआ है कि आपने मुझे इस प्रकार त्याग दिया है। तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि मैं तुम्हे त्यागना नहीं चाहता किन्तु कौशिक हमारे राजा हैं और वे बलपूर्वक तुम्हे ले जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त हिंसा मेरा स्वाभाव नहीं है इसीलिए मैं अपने आपको विवश महसूस कर रहा हूँ।

तब कामधेनु ने कहा कि आपके ब्रह्मबल से मैं स्वयं ही समर्थ हूँ। मुझे आज्ञा दें की मैं स्वयं की रक्षा करूँ। महर्षि वशिष्ठ ने उसे ये आज्ञा दे दी। तब कामधेनु ने अपनी हुंकार से पह्लव, फुफकार से कम्बोज, योनि से यवन, गुदा से शक, थन से बर्बर और रोम से म्लेच्छ, हरीत और किरात जाति के असंख्य योद्धा पैदा कर दिए और वे महाराज कौशिक की सेना पर टूट पड़े। देखते ही देखते पूरी सेना का नाश हो गया। महाराज कौशिक ने छोटे-बड़े सारे अस्त्रों का प्रयोग कर लिया पर वे कुछ नहीं कर पाए।

जब महाराज के १०० पुत्रों ने अपने पिता की ऐसी दशा देखी तो वे क्रोध में भर कर महर्षि वशिष्ठ पर ही टूट पड़े। तब महर्षि वशिष्ठ ने केवल दृष्टि मात्र से उन सभी को भस्म कर दिया। अपनी सेना और पुत्रों का ऐसा नाश देख कर कौशिक निस्तेज और अपमानित होकर वापस चले गए। अब उनका केवल १ ही पुत्र बचा था जिसे उन्होंने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं हिमालय पर जाकर महादेव की घोर तपस्या में लग गए।

उनकी घोर तपस्या से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें वर मांगने को कहा। तब महर्षि विश्वामित्र ने उनसे कहा कि हे महादेव! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे धनुर्वेद के सारे रहस्य का ज्ञान दीजिये। देवताओं, दानवों, गंधर्वों, महर्षियों यक्षों और राक्षसों के पास जो-जो अस्त्र हों वो सभी मुझे प्रदान करें। महादेव ने उन्हें वो सारे अस्त्र प्रदान किये जिससे वे अभिमान में भर कर सीधे महर्षि वशिष्ठ के पास गए और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा।

महर्षि विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ पर अपने सारे अस्त्र-शस्त्रों से एक-एक कर आक्रमण करना आरम्भ किया जिसे उनका आश्रम नष्ट हो गया। इससे वशिष्ठ अत्यंत क्रोधित हुए और ब्रह्माण्ड अस्त्र द्वारा उनके सभी दिव्यास्त्रों को विफल कर दिया। अंत में विश्वामित्र ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया किन्तु वो भी ब्रह्माण्ड अस्त्र के समक्ष निष्फल हो गया। उस समय तक महर्षि वशिष्ठ के तेज से चारो दिशाएं जलने लगी। तब सभी ऋषि-मुनि वहां आये और उन्हें समझा-बुझा कर शांत किया।

इतने महान अस्त्रों को प्राप्त करने के बाद भी पराजित होने के बाद विश्वामित्र बड़े निराश हुए। उन्होंने सोचा कि अस्त्रों की शक्ति से कहीं अधिक ब्रह्मशक्ति है। इसीलिए उन्होंने निश्चय किया कि वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके रहेंगे। वे अपनी रानी के साथ एक घने वन में गए और वहां उनके चार पुत्र हुए - हविष्पन्द, मधुपुष्पंद, दृढ़नेत्र और महारथ।

इसके बाद उन्होंने १००० वर्षों तक घोर तप किया जिससे परमपिता ब्रह्मा प्रसन्न हुए। ब्रह्मा ने उनसे कहा कि तुमने तो तपस्या की है उससे ये सिद्ध हो गया है कि तुम वास्तव में श्रेष्ठ राजर्षि हो। ये सुनकर विश्वामित्र लज्जा से गड गए कि इतनी भीषण तपस्या करके भी उन्हें केवल राजर्षि का पद प्राप्त हुआ ब्रह्मर्षि का नहीं। वे पुनः और भी उग्र तपस्या में लग गए।

उसी समय इक्ष्वाकु कुल में एक राजा थे त्रिशंकु जो सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने पहले महर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना की किन्तु उन्होंने कहा कि ऐसा संभव नहीं है। इसके बाद वे वशिष्ठ के १०० तेजस्वी पुत्रों के पास गए किन्तु उन्होंने भी ऐसा करने में अपनी असमर्थता जताई। अधिक जोर देने पर वशिष्ठ-पुत्रों ने उसे चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया। तब चांडाल होकर त्रिशंकु महर्षि विश्वामित्र को खोजते हुए उनके पास पहुंचे। सारी बात जानकर विश्वामित्र प्रसन्न हो गए क्यूंकि उन्हें अपने आपको महर्षि वशिष्ठ से श्रेष्ठ सिद्ध करने का एक अवसर मिल गया।

फिर विश्वामित्र ने अपने पुत्रों से कहा कि वे प्रमुख ऋषियों, जिनमें वशिष्ठ के पुत्र भी थे, उन्हें यज्ञ के लिए आमंत्रित करें। तब आमंत्रण के बाद सारे ऋषि उस यज्ञ के लिए पधारे। केवल महोदय नाम के एक ऋषि और वशिष्ठ पुत्रों ने उस यज्ञ में भाग नहीं लिया। इससे विश्वामित्र बड़े क्रोधित हुए और वहां आये सभी ऋषियों से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ करने को कहा। हालाँकि वे ऋषि ऐसा यज्ञ करना नहीं चाहते थे किन्तु विश्वामित्र के भय से उन्होंने यज्ञ की सहमति दे दी।

त्रिशंकु ने अपने पुत्र हरिश्चंद्र को गद्दी पर बिठाया और यज्ञ की दीक्षा ली। यज्ञ आरम्भ हुआ किन्तु जब देवताओं को हविष्य के लिए बुलाया गया तो कोई नहीं आया। इससे विश्वामित्र बड़े अपमानित हुए और कहा कि मैंने जो घोर तप करके पुण्य अर्जित किया है उसके प्रभाव से मैं त्रिशंकु को स्वर्ग भेजता हूँ। ऐसा कहते ही उनके तप के प्रभाव से त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग पहुँच गए।

जब देवराज इंद्र ने चाण्डालरूपी त्रिशंकु को स्वर्ग में देखा तो उन्होंने उससे कहा कि वो सशरीर यहाँ आने के योग्य नहीं है। इंद्र ने उसे स्वर्ग से गिरा दिया जिससे त्रिशंकु आतर स्वर में विश्वामित्र को पुकारने लगा। उसकी पुकार सुनकर विश्वामित्र ने उसे अपने तपोबल से बीच में ही रोक लिया जिससे त्रिशंकु आकाश में ही स्थित हो गए। इसके बाद विश्वामित्र ने क्रोध में आकर अपने तपोबल से पृथ्वी और स्वर्ग के बीच में एक और स्वर्ग का निर्माण कर दिया। इसके बाद वे उस स्वर्ग के लिए इंद्र और अन्य देवताओं के निर्माण करने लगे।

उन्हें ऐसा करते देख कर सभी देवता उनके पास आये और उन्हें ऐसा ना करने को कहा। तब महर्षि विश्वामित्र ने उनसे कहा कि मैं त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का वचन दे चुका हूँ। यदि आप नहीं चाहते कि मैं नए इंद्र और देवताओं का निर्माण करूँ तो अब तक जो मैंने स्वर्ग और नक्षत्र बनाये हैं उन्हें मान्यता प्रदान करें और त्रिशंकु को उस स्वर्ग के इंद्र के रूप में स्वीकार करें। तब इंद्र और देवताओं ने उनकी ये शर्त मान ली और त्रिशंकु महर्षि विश्वामित्र द्वारा बनाये गए उस नवीन स्वर्ग में इंद्र की भांति राज करने लगे। आगे चल कर महर्षि विश्वामित्र ने ही त्रिशंकु के पुत्र सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा ली थी और उनकी परीक्षा के कारण ही हरिश्चंद्र विश्वविख्यात हुए।

एक बार राजा अम्बरीष एक यज्ञ करने लगे तो इंद्र ने उनके यज्ञ के पशु को चुरा लिया। तब उनके पुरोहित ने ये सुझाव दिया कि किसी मनुष्य को पशु बनने के लिए तैयार किया जाये। इसके लिए अम्बरीष महर्षि ऋचीक के पास गए और उनसे स्वर्ण मुद्राओं के ढेर और १००००० गौओं के बदले एक पुत्र की याचना की। महर्षि ऋचीक की पत्नी सत्यवती महर्षि विश्वामित्र की बहन थी। ऋचीक ने अपने ज्येष्ठ और सत्यवती ने अपने कनिष्ठ पुत्र को देने से मना कर दिया। इस भेदभाव से दुखी होकर उनका मंझला पुत्र सुनःशेप अपने आप ही महाराज अम्बरीष के साथ चला गया।

मार्ग में पुष्कर तीर्थ में सुनःशेप अपने मामा विश्वामित्र से मिला। उसकी ऐसी दशा देख कर उन्होंने अपने पुत्रों से उसके बदले अम्बरीष के यज्ञ में चले जाने को कहा किन्तु उनके पुत्रों ने ऐसा करने से मना कर दिया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने पुत्रों को चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया और सुनःशेप से कहा कि जब तुम यञशाला में जाओ तो मेरा नाम लेकर अग्नि और इंद्र को पुकारना। सुनःशेप ने ऐसा ही किया जिससे प्रसन्न होकर इंद्र ने अम्बरीष के पशु को लौटा दिया और सुनःशेप को दीर्घायु होने का वरदान दिया।

इसके बाद महर्षि विश्वामित्र ने पुष्कर तीर्थ में पुनः १००० वर्षों तक घोर तपस्या की। तब ब्रह्मा जी ने फिर से प्रकट होकर उन्हें श्रेष्ठ ऋषि की उपाधि दी। वे इससे संतुष्ट नहीं हुए और पुनः घोर तप पर बैठ गए। इससे घबरा कर देवराज इंद्र ने मेनका को उनकी तपस्या भंग करने को भेजा। विश्वामित्र मेनका के सौंदर्य में अपनी तपस्या भूल गए और दोनों १० वर्षों तक सुख पूर्वक रहे।

उनकी एक पुत्री भी हुई किन्तु जल्द ही विश्वामित्र को मेनका का आशय पता चल गया। इससे रुष्ट होकर उन्होंने मेनका और अपनी पुत्री का त्याग कर दिया और पुनः घोर तप में जुट गए। मेनका भी उस नवजात कन्या को छोड़कर स्वर्ग चली गयी और बाद में उसे महर्षि कण्व ने पाला। वही कन्या आगे चल कर शकुंतला के नाम से विख्यात हुई जिसका विवाह चंद्रवंशी सम्राट दुष्यंत से हुआ।

उधर विश्वामित्र ने पुनः १००० वर्षों तक तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें पुनः दर्शन दिए और उन्हें महर्षि की उपाधि दी। तब विश्वामित्र ने उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि दें। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि तुम अभी जितेन्द्रिय नहीं हुए हो इसीलिए ब्रह्मर्षि के पद के योग्य नहीं। अतः और प्रयास करो। तब परमपिता की आज्ञा मान कर विश्वामित्र ने पुनः १००० वर्षों तक और भी कठिन तप किया।

इससे घबरा कर इस बार इंद्र ने रम्भा को विश्वामित्र का तप भंग करने भेजा पर रम्भा उन्हें तपस्या से डिगा ना सकी और विश्वामित्र ने रम्भा को १०००० वर्षों तक पाषाण हो जाने का श्राप दे दिया। उसकी क्षमा याचना पर उन्होंने कहा कि समय आने पर वशिष्ठ तेरा उद्धार करेंगे। उनके इस श्राप से रम्भा पत्थर की तो बन गयी पर इससे उनकी तपस्या का पुण्य क्षय हो गया।

इससे विश्वामित्र बड़े दुखी हुए। उन्होंने सोचा कि ब्रह्मदेव सही कहते थे कि मैंने अपनी इन्द्रियों को अब तक नहीं जीता। उन्होंने निश्चय किया कि वे आज के बाद ना तो क्रोध करेंगे और ना ही कभी कुछ बोलूंगा। ऐसा निश्चय करके उन्होंने श्वास रोक कर पुनः १००० वर्षों तक तपस्या की। इतने घोर तप से उनके मस्तक से धुंआ उठने लगा जिसने तीनों लोकों को घेर लिया। तब ब्रह्माजी ने उन्हें पुनः दर्शन दिए और अंततः उन्हें ब्राह्मणत्व प्रदान किया और ब्रह्मर्षि की उपाधि प्रदान की।

तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मदेव से कहा कि प्रभु! आपने मुझे ये पद प्रदान किया उससे मैं धन्य हो गया। किन्तु यदि आपके पुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ स्वयं आकर मुझसे ये कहें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। तब सभी देवताओं ने महर्षि वशिष्ठ को इसकी सूचना दी और तब वशिष्ठ वहां आये और उन्होंने विश्वामित्र को ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण और फिर सर्वोच्च ब्रह्मर्षि के पद पर आसीन हुए। अपने लक्ष्य को पाने के लिए इतना श्राप ना इससे पहले किसी ने किया था और ना ही इसके बाद किसी ने किया।

जब श्रीराम ने धनुष भंग किया और माता सीता के साथ उनका विवाह निश्चित हो गया तब महर्षि विश्वामित्र ने ही राजा जनक और महाराज दशरथ को जनक की दूसरी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ और जनक के छोटे भाई कुशध्वज की कन्याएं - मांडवी और श्रुतकीर्ति का विवाह क्रमशः भरत और शत्रुघ्न के साथ करने का सुझाव दिया था। जनक और दशरथ ने उनकी इस आज्ञा को शिरोधार्य किया और फिर चारो भाइयों का विवाह हुआ। उनके विवाह के पश्चात महर्षि विश्वामित्र भी अपने आश्रम लौट गए। इसके बाद उनका वर्णन हमें रामायण में नहीं मिलता।

महाभारत में भी महर्षि विश्वामित्र का वर्णन मिलता है जहाँ उनकी वही कथा बताई गयी है जो हमने अभी सुनी। महाभारत के आदिपर्व में दुष्यंत और शकुंतला की कथा के सन्दर्भ में महर्षि विश्वामित्र और महर्षि वशिष्ठ के साथ उनकी प्रतिद्वंदिता के बारे में विस्तार से बताया गया है। वनपर्व में मेनका के सन्दर्भ में विश्वामित्र के संयम का वर्णन आया है। भीष्म पर्व में पितामह भीष्म जब युधिष्ठिर को धर्म ज्ञान देते हैं तो उस समय वे भी महर्षि विश्वामित्र की दृढ इच्छाशक्ति के बारे में बताते हैं। अनुशासन पर्व में उनका वर्णन इतिहास के महान ऋषियों में किया गया है।

इसके अतिरिक्त भी उनका वर्णन कई और ग्रंथों में मिलता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण वर्णन हमें ऋग्वेद के तीसरे मंडल (3.६२.१०) में मिलता है जहाँ पर बताया गया है कि सर्वश्रेष्ठ गायत्री मन्त्र के जनक भी विश्वामित्र ही थे। ऋग्वेद में विश्वामित्र की गिनती इतिहास के सर्वाधिक प्रभावशाली ऋषियों में की गयी है। ऐतरेय, जाबाल और संन्यास उपनिषदों में भी उनका वर्णन मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण तथा मनुस्मृति में भी उनका वर्णन हमें मिलता है।

इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण और हरिवंश पुराण में भी हमें महर्षि विश्वामित्र का सन्दर्भ मिलता है। आधुनिक ग्रंथों में कालिदास के महान ग्रन्थ रघुवंशम एवं योगवशिष्ठ में भी उनका वर्णन दिया गया है। हमारे हिन्दू धर्म में एक से बढ़कर एक ऋषि हुए हैं किन्तु उनमें से केवल कुछ ही हैं जिन्होंने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया है और उनका प्रभाव इतना अधिक हो। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र निःसन्देह हिन्दू धर्म के सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रभावशाली ऋषियों में अग्रणी हैं।

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