आखिर क्यों करना पड़ा था समुद्र मंथन?

महर्षि दुर्वासा महामुनि अत्रि एवं सती अनुसूया के कनिष्ठ पुत्र थे जो भगवान रूद्र के अंश से जन्मे थे। वे चन्द्र एवं दत्तात्रेय के भाई थे और पूरे विश्व में अपने क्रोध के कारण प्रसिद्ध थे। श्राप तो जैसे इनके जिह्वा के नोक पर रखा रहता था। पृथ्वी पर ना जाने कितने मनुष्य उनके क्रोध और श्राप का भाजन बनें किन्तु इन्होने स्वयं देवराज इंद्र को भी नहीं छोड़ा। 

एक बार ऋषि दुर्वासा वन में भ्रमण करने को निकले। अचानक उन्हें एक बहुत तेज व अनोखी सुगंध का अनुभव हुआ। वो सुगंध इतनी अच्छी थी कि दुर्वासा स्वयं को रोक नहीं पाए एवं सुगंध की दिशा में बढ़ने लगे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्होंने देखा कि एक बहुत रूपवती नारी वहीं सरोवर के तट पर बैठी हुई है। उसके गले में एक अद्भभुत पुष्प हार था जो प्रकाश की भांति जगमगा रहा था और ये मनभावन सुगंध उसी हार से निकल रही थी। एक अकेली नारी को इस प्रकार वन में बैठा देख उन्हें विस्मय हुआ और वे उसके पास पहुँचे। एक जटाजूट योगी को इस प्रकार अपने पास आते देख उस कन्या ने तत्काल उठ कर उन्हें प्रणाम किया।

दुर्वासा ने विस्मित स्वर में पूछा कि "हे देवी आप कौन है और इस घने वन में एकाकी क्या कर रही हैं?" इसपर उस कन्या ने उन्हें बताया कि उनका नाम विद्याधरी है और वे वायु की देवी हैं। दुर्वासा ने उनका अभिवादन किया और अपना परिचय देते हुए कहा कि "आपने ये जो पुष्पों की माला पहनी है वो अत्यंत दुर्लभ प्रतीत होती है। इतनी मनभावन सुगंध और इतना तेज प्रकाश तो पृथ्वी के किसी पुष्प में होना असंभव है। आपको ये पुष्पों की माला कहाँ से प्राप्त हुई?" 

उनके इस प्रश्न पर उस देवी ने कहा कि "आपका कथन सत्य है। ये साधारण पुष्प नहीं अपितु अति दुर्लभ पारिजात के पुष्पों की माला है जो केवल स्वर्ग लोक में ही मिलते हैं। मेरी सेवा से प्रसन्न होकर स्वयं पवनदेव ने मुझे ये अद्वितीय हार उपहार स्वरुप दिया है।" उस हार के बारे में जानने के पश्चात दुर्वासा ने उसे प्राप्त करने की इच्छा जताई जिसपर विद्याधरी सहर्ष उन्हें वो हार उपहार स्वरुप प्रदान कर अपने लोक लौट गयी। 

कुछ समय पश्चात दुर्वासा अपने पिता एवं सप्तर्षियों से मिलने स्वर्गलोक गए जहाँ उन्हें देवराज के दर्शन हुए। ये सोच कर कि पारिजात पुष्पों का वो हार पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है, दुर्वासा ने वो हार देवराज को उपहार स्वरुप दे दिया। उन्होंने सोचा कि इस अद्वितीय हार को पा कर इंद्रदेव प्रसन्न होंगे किन्तु देवराज ने उस उपहार का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया। 

उन्होंने कहा कि "हे महर्षि। आप पृथ्वी के वासी हैं इसी कारण कदाचित आपको ये हार अद्भभुत प्रतीत हो रहा है किन्तु ये तो स्वर्ग लोक है और इस प्रकार के असंख्य पुष्प हमारे पारिजात उपवन में हैं। इसका मैं क्या करूँगा? किन्तु अब आपने मुझे उपहार स्वरुप दे ही दिया है तो मैं ये पारिजात माला ऐरावत को ही भेंट कर देता हूँ।" ये कहकर इंद्र ने वो माला ऐरावत के मस्तक पर रख दी। इस प्रकार माला रखे जानें और उसकी तीव्र गंध से ऐरावत को बड़ी असुविधा हुई और उस मादक गंध के मद में आकर ऐरावत ने उस माला को क्षत-विक्षत कर दिया। 

अपने ही द्वारा दिए गए उपहार का स्वयं अपने ही सामने इस प्रकार अपमान होता देख कर दुर्वासा को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने क्रोधित स्वर में इंद्र से कहा "हे इंद्र! आपने अपनी सम्पदा और ऐश्वर्य के मद में मेरे द्वारा दिए गए उपहार का ऐसा अपमान किया। आप ये भी भूल गए कि उपहार का मूल्य नहीं देखा जाता और वो हमेशा अमूल्य ही होता है। मैं आपको श्राप देता हूँ कि जिस ऐश्वर्य के अभिमान में आपने मेरा इतना अपमान किया वो आपसे सदा के लिए छिन जाएगा और आपके द्वारा शासित तीनों लोक श्रीहीन हो जाएंगे।"

इस प्रकार के श्राप को पाकर इंद्र बड़े भयभीत हुए और उन्होंने बार बार दुर्वासा से क्षमा याचना की किन्तु क्रोधित दुर्वासा ने उन्हें क्षमा नहीं किया एवं स्वर्ग लोक से प्रस्थान कर गए। उनके जाते ही इंद्र एवं अन्य देवता अपनी सारी सम्पदा खो कर श्रीहीन हो गए। जैसे ही शुक्राचार्य को ये समाचार मिला, उन्होंने दैत्यों को स्वर्ग लोक पर आक्रमण करने को कहा। दैत्यराज बलि के नेतृत्व में उन्होंने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर देवराज इंद्र को उनके पद से च्युत कर दिया। विवश हो इंद्र को अन्य देवों के साथ प्राण बचाने के लिए छुपना पड़ा। 

स्वर्ग लोक से निकले जाने के पश्चात देवराज परमपिता ब्रह्मा के पास पहुँचे और उन्हें अपनी रक्षा करने को कहा। ब्रह्मदेव ने इंद्र से कहा कि तुमने स्वयं अपने अहंकार के कारण अपनी सम्पदा को खोया है अतः अब तुम्हे अपने सामर्थ्य से उसे पुनः प्राप्त करना होगा। इसपर इंद्र ने अपनी संपत्ति को पुनः प्राप्त करने का उपाय पूछा तब ब्रह्मदेव ने नारायण के साथ परामर्श कर देवों और दानवों को समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया जिससे उन्हें उनकी संपत्ति पुनः प्राप्त हो सके। 

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