बोनालु तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में मनाया जाने वाला एक त्यौहार है जो आषाढ़ महीने में माता काली के एक रूप जिसे स्थानीय भाषा में येल्लम्मा कहा जाता है, उनके सम्मान में मनाया जाता है। विशेषकर इसे हैदराबाद और सिकंदराबाद में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। तीन हफ़्तों तक हर रविवार चलने वाला ये त्यौहार मनुष्यों द्वारा माता की कृपाओं का आभार प्रकट करने के लिए मनाया जाता है।
बोनालु शब्द संस्कृत और तेलुगु के मिश्रित शब्द "बोलम" से बना होता है जिसका अर्थ होता है भोजन। इस पर्व में हम माता को भोजन ही अर्पण करते हैं। इस दिन महिलाएं रसिया (गुड़ से बनी खीर) बना कर माता को अर्पित करती है और फिर प्रसाद के रूप में उसे भक्तों को दिया जाता है।
मिट्टी के जिस पात्र में इस प्रसाद को बनाया जता है उसे पहले नीम के पत्तों, हल्दी और कुमकुम से सजाया जाता है और फिर महिलाएं माता का रूप सजा कर उन पत्रों को अपने सर के ऊपर रख कर मंदिर में नृत्य करती हैं, मंदिर की सात परिक्रमाएं करती हैं और फिर उस प्रसाद को माता को समर्पित किया जाता है।
ये बहुत प्राचीन पर्व है। ये कितना पुराना है इसके बारे में तो ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती पर ३०० वर्ष पूर्व, यानि अठारहवीं शताब्दी से इस पर्व को अनवरत मनाया जाता रहा है, इसके लिखित प्रमाण मिलते हैं। इस पर्व का महत्त्व स्थानीय सेना में बहुत अधिक है जिसके पीछे एक अद्भुत इतिहास हमें पढ़ने को मिलता है। कहा जाता है कि सन १८१३ के आरम्भ में तत्कालीन हैदराबाद की सेना उज्जैन के प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर की सुरक्षा में लगाई गयी थी। उसी वर्ष हैदराबाद और उसके आस पास के इलाके में प्लेग फ़ैल गया जिससे हजारों लोगों की जानें गयी।
जब उज्जैन स्थित उस सेना की टुकड़ी को अपनी मातृभूमि में प्लेग फैलने की सूचना मिली तो वे भयभीत हो गए। उस समय प्लेग को एक लाइलाज महामारी के रूप में जाना जाता था। सेना के जवानों को अपने परिवार की चिंता तो थी ही साथ ही ये भी चिंता थी कि जब वे वापस अपने घर जाएंगे तो ये प्लेग उनकी जान भी ले लेगा। इससे बचने के लिए उन्होंने उज्जैन स्थित महाकाली मंदिर में पूजा अर्चना की ताकि माता इस महामारी को समाप्त कर दे।
उन्होंने माता से प्रार्थना की कि यदि वे इस महामारी को समाप्त कर देंगी तो वापस लौट कर वे माता की मूर्ति स्थापित कर उनकी पूजा करेंगे। ऐसी मान्यता है कि उनकी पूजा से प्रसन्न होकर माता ने प्लेग की महामारी का अंत किया और फिर उन जवानों ने वापस लौट कर उज्जैन के महाकाली मंदिर की भांति ही सिकंदराबाद में उज्जैनी महाकाली मंदिर की स्थापना की। १८१५ में ये मंदिर बनकर तैयार हुआ और फिर बोनालु को भव्य रूप से उसी मंदिर में मनाया गया। तब से ये एक प्रथा बन गयी और आज लगभग पूरे तेलंगाना और आंध्रा में इसे मनाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इसी दिन माता येल्लम्मा अपने माता पिता के घर गयी थी जहाँ उन्हें स्वादिष्ट भोजन परोसा गया। उसी से प्रभावित होकर आज के दिन विवाहित महिलाएं अपने माता-पिता के घर जाती हैं जहाँ उनकी बड़ी आव-भगत की जाती है।
यदि केवल हैदराबाद और सिकंदराबाद की बात की जाये तो इस पर्व के पहले रविवार बोनालु का उत्सव गोलकोण्डा स्थित जगन्नाथ मंदिर में, दूसरे रविवार बलकमपेट स्थित येल्लम्मा मंदिर और सिकंदराबाद स्थित उज्जैनी महाकाली मंदिर में और अंतिम रविवार चिल्कलगुडा स्थित कट्टा येल्लम्मा मंदिर और हैदराबाद के माहेश्वरी मंदिर में मनाया जाता है। ये केवल प्रमुख मंदिर हैं किन्तु इसके अतिरिक्त भी गली-गली अनेकों मंदिरों में इस पर्व को मनाया जाता है।
कुछ विशेष महिलाएं ऐसी होती हैं जिनपर माता की कृपा होती है, जिसे आम भाषा में किसी महिला पर माता आना कहा जाता है। इस त्यौहार में ऐसी महिलाओं, जिन्हे माता का ही एक रूप माना जाता है, अर्ध निद्रित अवस्था में माता के समक्ष नृत्य करती हैं और लोग उनका आशीर्वाद लेते हैं। इस दिन लगभग हर मंदिर में आपको इनकी उपस्थिति देखने को मिल जाएगी। ऐसा माना जाता है कि बोनालु लिए इन महिलाओं के अंदर माता का वास होता है और लोग इनके चरणों में जल चढ़ा कर इनका आशीर्वाद लेते हैं। पुराने ज़माने में इस दिन भैंसे की बलि देने की प्रथा थी किन्तु समय के साथ-साथ ये बदली, किन्तु फिर भी आज कुछ स्थानों पर इस दिन देसी मुर्गे की बलि दी जाती है।
बोनालु में जिन येल्लम्मा माता की पूजा की जाती है वो और कोई नहीं भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम की माता रेणुका है। अलग-अलग स्थानों पर इनके और भी कई नाम हैं, जैसे मैसम्मा, पोचम्मा, पेदाम्मा, ड़ोक्कालम्मा, अनकालम्मा, पोलेरम्मा, नुकलम्मा इत्यादि। इन रूपों में इनकी दक्षिण भारत में बड़ी मान्यता है।
इस पर्व में इनकी गिनती सात देवियों के एक समूह में की जाती है जिन्हे सप्त्कन्या कहा जाता है। ये सदैव कुंवारी ही रहती हैं। ये सात कन्याएं हैं - पोलेरम्मा, अनकम्मा, मुटयालम्मा, पोचम्मा, बंगाराम्मा, मरम्मा एवं येल्लम्मा। इनमें से पोचम्मा सबसे बड़ी बहन मानी जाती है।
इसके पीछे एक पौराणिक कथा मिलती है कि एक बार माता लक्ष्मी श्रीराम के रूप पर मोहित हो गयी। वे माता सीता का रूप बना कर उनके पास गयी और वन में क्रीड़ा करने का अनुरोध किया। तब श्रीराम उन्हें पहचान गए और ऐसा करने से मना कर दिया। तब माता लक्ष्मी ने श्रीराम को श्राप दिया कि अगले जन्म में वे एक मानव के रूप में जन्मेंगे जो विदूषकों से घिरे रहेंगे। तब श्रीराम ने भी उन्हें श्राप दिया कि अगले जन्म में वो भी एक स्त्री के रूप में जन्मेगी और उनका नाम सुनकर सदैव मुस्कुराती रहेंगी। अगले जन्म में वे उन्हें पति के रूप में प्राप्त कर पाएंगी।
उन दोनो का विवाद बढ़ता देख कर भगवान शंकर ने माता लक्ष्मी की शक्तियों से एक पोखर का निर्माण किया। फिर उनकी सहमति से माता पार्वती ने उसी पोखर में सात डुबकियां लगाई। इन्ही सात डुबकियों से इन सप्त-कन्याओं का जन्म हुआ। फिर उसी पोखर से महादेव ने एक देव को भी उत्पन्न किया और उन्हें सदैव उन सात बहनों की रक्षा करने को कहा।
वही देव पोथराजू कहलाये जिनकी इस त्यौहार में बड़ी महत्ता है। ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी के श्राप के कारण श्रीराम ने ही पोथराजू के रूप में जन्म लिया। बाद में उसी पोखर से परमपिता ब्रह्मा ने भी तीन देवियों का सृजन किया और उन्ही में से एक देवी, जिनका नाम कामवल्ली था, उन्ही के रूप में श्रीराम के श्राप के कारण माता लक्ष्मी जन्मी। बाद में पोथराजू ने कामवल्ली को अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया।
पोथराजू कुछ-कुछ वैसे ही देव हैं जैसे कांतारा फिल्म में पंजुरली और गुलिगा देव देखने को मिले थे। इसके बारे में विस्तार से यहाँ देखें। पोथराजू को इन सप्त-माताओं का भाई माना जाता है जो उनकी रक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं। नंगे बदन, लाल धोती, घुटनों और कमर में बंधी घंटियाँ, गले में नीबुओं की माला, चेहरे पर लगी हल्दी और मस्तक पर लगा लाल कुमकुम इनके रूप को विचित्र और भयानक बनाता है।
जैसे कुछ महिलाओं पर माता आती हैं, उसी प्रकार पोथराजू पर देवता का प्रभाव होता है, ऐसा माना जाता है। ये भी वहाँ माता के साथ अर्ध निद्रा में नृत्य करते हैं। माना जाता है कि यही बोनालु पर्व का आरम्भ करते हैं और उसमें भाग लेने वालों के ये रक्षक माने जाते हैं। कई स्थानों पर इन्हे ग्रामदेवता और भगवान विष्णु/श्रीराम का ही एक अंश भी माना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि जब श्रीराम ने माता लक्ष्मी को श्राप दिया तो उन्ही बड़ी ग्लानि हुई। उसी कारण वे अपने इस जन्म में स्वयं को कष्ट देते हैं। पोथराजू भी एक कोड़े की सहायता से स्वयं पर प्रहार करते दिखते हैं। ये भी कहा जाता है कि पोथराजू की आत्म-पीड़ा से भक्तों के दुःख दूर हो जाते हैं। वैसे तो वे पुरुष ही रहते हैं किन्तु जुलुस में वे एक स्त्री का रूप भी बनाते हैं। माता के जुलुस में ये सबसे आगे रहते हैं। ये माता के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाता है। इस पूरे जुलुस में एक महिला उनकी पत्नी कामवल्ली के रूप में उनके साथ रहती है।
वैसे तो बोनालु पर्व बहुत ही पुराना है और आँध्रप्रदेश और तेलंगाना से जुड़ा है, किन्तु २०१४ में जब तेलंगाना अलग राज्य बना तब इस पर्व को तेलंगाना का राजकीय पर्व बना दिया गया। इसी से इस पर्व की महत्ता पता चलती है।
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