श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग
हैदराबाद से करीब २०० किलोमीटर दूर आंध्र के कुर्नूल जिले के श्रीशैलम पहाड़ियों की प्राकृतिक सौंदर्य के बीच महादेव का द्वितीय ज्योतिर्लिंग श्रीमल्लिकार्जुन स्थित है। वैसे तो भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों का अत्यधिक महत्त्व है पर उसपर भी ये ज्योतिर्लिंग अद्वितीय एवं विशेष है। इसका कारण ये है कि यहाँ महादेव के साथ-साथ माता पार्वती भी विराजती है तथा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ शक्तिपीठों में से भी एक है।

मल्लिकार्जुन दो शब्दों से मिलकर बना है - मल्लिका एवं अर्जुन। यहाँ मल्लिका का अर्थ देवी पार्वती एवं अर्जुन का अर्थ भगवान शंकर है। शक्तिपीठ के विषय में एक कथा है कि जब देवी सती ने आत्मदाह किया तब महादेव उनके मृत शरीर को लेकर शोक में इधर-उधर घूमने लगे। उनके इस प्रकार वैराग्य धारण करने पर सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया। तब ब्रह्मदेव की प्रेरणा से भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के ५१ भाग कर दिए। पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ देवी सती के ये भाग गिरे वो शक्तिपीठ कहलाया। मल्लिकार्जुन में देवी सती के होंठ गिरे थे जिससे ये महाशक्तिपीठों में से एक बना। यहाँ पर भ्रामरी देवी का एक मंदिर भी है जहाँ पर देवी पार्वती ने भ्रमर के रूप में भगवान शिव की पूजा की थी।  

इस ज्योतिलिंग के स्थापना के विषय में एक कथा ये है कि एक बार शिवपुत्र कार्तिकेय एवं गणेश में ये विवाद हो गया कि उनमे से श्रेष्ठ कौन है और किसका विवाह पहले किया जाये। तब देवी पार्वती ने कहा कि इसका निर्णय एक प्रतिस्पर्धा से किया जाये। तब ये निर्णय लिया गया कि जो कोई भी पृथ्वी की ७ परिक्रमाएँ पूर्ण कर पहले लौटेगा वही श्रेष्ठ माना जाएगा और उसका विवाह पहले होगा। 

ऐसा सुनकर कार्तिकेय अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेकर अपने वहां मोर पर बैठ कर तीव्र गति से पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल गए। ये देख कर गणेशजी सोच में पड़ गए। एक तो उनका स्थूल शरीर और ऊपर से उनका वाहन मूषक। तो वे किस प्रकार कार्तिकेय से विजित हो सकते थे? तभी उन्हें एक उपाय सूझा और उन्होंने वहाँ बैठे भगवान शिव एवं माता पार्वती की सात परिक्रमाएँ की और उनसे कहा कि उन्होंने संसार की सात परिक्रमाएँ पूर्ण कर ली है।

भगवान शिव मुस्कुराये और पुछा ऐसा क्यों? तब विनायक ने कहा - "हे पिताश्री! मेरे लिए तो आप दोनों ही समस्त संसार हैं। और इस अतिरिक्त ये समस्त ब्रह्माण्ड तो स्वयं आपमें समाहित है। इसीलिए मेरे द्वारा की गयी आप दोनों की परिक्रमा पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा के सामान है।" महादेव ये सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और नारायण एवं ब्रह्मदेव की सहमति के बाद उन्होंने श्रीगणेश को श्रेष्ठ एवं प्रथमपूज्य घोषित कर दिया। उसके बाद उनका विवाह "रिद्धि" एवं "सिद्धि" नामक दो कन्याओं से हुआ। 

थोड़े समय बाद जब कार्तिकेय पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर वापस लौटे तो उन्होंने गणेश को अपनी पत्निओं और पुत्रों "क्षेम" एवं "लाभ" के साथ देखा। वे आश्चर्य में पड़ गए और सब बात ज्ञात होने के बाद वे बड़े रुष्ट हुए। उन्होंने भगवान शिव से कहा - "हे पिताश्री! ऐसा नहीं है कि मुझे ये ज्ञात नहीं कि आपकी महत्ता क्या है। गणेश की तरह आप दोनों ही मेरे भी संसार हैं किन्तु ये प्रतियोगिता तर्क एवं बुद्धि की नहीं अपितु बाहुबल की थी अतः मैं इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ।" ये कहकर कार्तिकेय रूठकर क्रौञ्च पर्वत, जो आज का श्रीशैलम पर्वत है, पर चले गए।

अपने पुत्र को इस प्रकार रूठ कर जाता देख महादेव एवं देवी पार्वती बहुत दुखी हुए। उन्होंने सप्तर्षियों को कार्तिकेय को मना कर वापस लौटने को भेजा किन्तु वे नहीं आये। फिर उन्होंने देवर्षि नारद को उन्हें मानाने के लिए भेजा किन्तु वे भी कार्तिकेय को लौटाने में असफल रहे। तब महादेव और देवी पार्वती ने स्वयं क्रौञ्च पर्वत जाने का निर्णय किया। जब कार्तिकेय को पता चला कि उनके माता-पिता स्वयं उन्हें मानाने के लिए आ रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि वे उनकी आज्ञा टाल नहीं सकते और वे वापस भी नहीं जाना चाहते, इसी कारण कार्तिकेय वहाँ से ३ योजन दूर एक अन्य पर्वत पर चले गए। जब शिव-पार्वती वहाँ पहुँचे तो अपने पुत्र को वहाँ ना पाकर बड़े दुखी हुए और कार्तिकेय के स्नेह में वहीँ मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।

कहा जाता है कि आज भी हर पूर्णिमा को देवी पार्वती एवं अमावस्या को भगवान शिव कार्तिकेय को ढूँढने के लिए वहाँ आते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार राजा चन्द्रगुप्त की पुत्री चंद्रावती शैल पर्वत पर तपस्या कर रही थी। उसी समय उसने देखा कि आश्रम की कपिला गाय के स्तन से अविरल दुग्ध-धारा बह रही है। वे बड़े आश्चर्य में पड़ गयी और जब निकट जाकर देखा तो उन्होंने देखा कि कपिला वहाँ पड़े एक शिवलिंग का अपने दूध से अभिषेक कर रही है। तब चंद्रावती ने वहाँ एक मंदिर बना कर भगवान शिव की मल्लिका (बेली/चमेली) के पुष्पों से उनकी पूजा की जिससे उनका नाम मल्लिकार्जुन पड़ा। 

ये महान शिवलिंग सदैव देव-दानव-मानव द्वारा पूजित रहा है। सतयुग में दैत्यराज हिरण्यकशिपु और उसके बाद उसका पुत्र प्रह्लाद भी इसकी पूजा करते थे। रावण के वध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण एवं हनुमान के साथ इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन किये। द्वापर में श्रीकृष्ण ने पांडवों सहित इस ज्योतिर्लिंग की पूजा की थी। विजयनगर के सम्राट श्री कृष्णदेवराय ने इस मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था। बाद में मराठा सम्राट छत्रपति शिवजी ने इस मंदिर के गोपुरम का निर्माण करवाया और एक निःशुल्क भोजनगृह खोला। वे प्रतिवर्ष इस ज्योतिर्लिंग के दर्शनों को आते थे। अहिल्याबाई होल्कर ने पातालगंगा के तट पर ८५२ सीढ़ियों का एक स्नानघाट बनवाया। जो कोई भी इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन करता है उसे हमेशा पुत्र सुख मिलता है और श्रावण में यहाँ पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

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