महर्षि अंगिरस

महर्षि अंगिरस और रानी चोलादेवी
सप्तर्षियों एवं प्रजापतियों में से एक महर्षि अंगिरस की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा के मुख से हुई मानी जाती है। गुणों में ये अपने पिता ब्रह्मा की ही भांति माने जाते हैं। आधुनिक युग में इन्हे ही 'अंगिरा' के नाम से जाना जाता है। ये एक मात्र ऐसे सप्तर्षि हैं जिन्हे चार वेदज्ञों में स्थान मिला है। वेदज्ञ वे चार लोग कहलाते हैं जिन्हे स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने वेदों की शिक्षा दी। ये चार हैं - अंगिरस, अग्नि, वायु एवं आदित्य। इन्ही चारों ने चार वेदों का ज्ञान लिया और उसे आगे विश्व को प्रदान किया। 

इनके ज्ञान और उपदेशों को 'अंगिरा स्मृति' में समाहित किया गया है। सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरस एवं उनके वंशधरों (ब्राह्मण, देवता एवं शिष्य) के विषय में जितना विस्तृत उल्लेख है उतना और किसी भी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं है। इन्ही से सम्बंधित ऋषियों ने, जिन्हे 'अंगिरसा' कहा जाता है, ऋग्वेद के नवम मंडल की रचना की है। ये मंडल, जिसमें ११४ सूक्त हैं, 'पवमान मंडल' के नाम से विख्यात है जिसकी ऋचाएं पावमानी ऋचाएं कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमा की स्तुतियां हैं। इसके अतिरिक्त अंगिरस प्रथम, द्वितीय, तृतीय और अन्य अनेक मंडलों एवं सूक्तों के द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। 

इसके अतिरिक्त वेदों में से एक, 'अथर्ववेद' को कहीं-कहीं 'अथर्वअंगिरस' के नाम से जाना जाता है जो इस ग्रन्थ को महर्षि अथर्वण एवं महर्षि अंगिरा द्वारा लिखित रूप में करने के कारण जाना जाता है। कई जगह महर्षि अंगिरा को ही अथर्वण के रूप में जाना गया है। बौद्ध साहित्य 'दिघा निकाय' में ऐसा वर्णन है कि महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को १० प्राचीन ऋषियों के विषय में बताया था जिनमे से महर्षि अंगिरस प्रथम थे। इनके बारे में ये भी कहा जाता है कि पहले ये मनुष्य योनि में थे किन्तु बाद में अपनी महानता के कारण ये देवता भी कहलाये। 

महर्षि अंगिरस ने ही सर्वप्रथम अग्नि को उत्पन्न किया था। अग्नि का एक नाम 'अंगार' भी है और कदाचित उसी से इनका नाम अंगिरस या अंगिरा प्रसिद्ध हुआ। कहते हैं कि इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि से भी बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने महर्षि अंगिरस का तपोबल देखा तो वे दुखी हो कर उनके पास गए और कहा - 'हे महर्षि! आप ही प्रथम अग्नि हैं और मैं आपके तेज़ की तुलना में न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है अतः अब कोई मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।' तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा और साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। यही कारण है कि यज्ञ में अग्नि में आहुति देने पर ही देवताओं को हविष्य की प्राप्ति होती है।

मनुस्मृति में ऐसा वर्णन है कि महर्षि अंगिरा को बहुत छोटी आयु में ही बहुत ज्ञान प्राप्त हो गया था। इसी कारण आयु में उनसे कहीं बड़े लोग उनके पास आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। एक बार पाठ करते हुए अंगिरस ने वहाँ उपास्थि लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा -

पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्।

अर्थात बालक अंगिरा ने अपने से कहीं बड़ों को "हे पुत्रों" ऐसा कहकर सम्बोधित किया। ये सुनकर वहाँ बैठे वृद्धजन अत्यंत क्रोधित हुए कि ये बालक हमें पुत्र कहकर कैसे सम्बोधित कर सकता है? ये देख कर उन सभी ने देवताओं का आह्वान किया और जब देवता प्रकट हुए तो उन्होंने अंगिरस की शिकायत करते हुए उनसे उसे दंड देने की प्रार्थना की। तब देवताओं ने कहा - 'इस बालक ने जो कुछ भी कहा है वो बिलकुल सत्य है। क्यूंकि -

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।

अर्थात: 'सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता। देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरुण होने पर भी ज्ञानवान हो।' देवताओं द्वारा इस प्रकार अनुमोदन करने पर वहाँ उपस्थित सभी वृद्धजनों ने एक मत से उस बालक अंगिरस का शिष्य बनना स्वीकार किया।

महर्षि अंगिरस के कई संतानें हुई किन्तु उनमे से सर्वाधिक प्रसिद्ध देवगुरु बृहस्पति और महर्षि गौतम हैं। बृहस्पति उनके ज्येष्ठ पुत्र हैं जिन्हे आगे चल कर देवताओं के गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महर्षि गौतम, जिन्होंने अपनी पत्नी अहल्या को पाषाण में बदलने का श्राप दे दिया था, इन्होने भी आगे चल कर सप्तर्षि का पद ग्रहण किया। 

पुराणों में मुख्यतः महर्षि अंगिरस की चार पत्नियों का वर्णन है। उनकी पहली पत्नी सुरूपा महर्षि मरीचि की पुत्री थी। दूसरी पत्नी स्वराट कर्दम ऋषि की पुत्री, तीसरी मनु पुत्री पथ्या एवं चौथी पत्नी स्मृति (श्रद्धा), दक्ष प्रजापति की पुत्री थी। इनसे इनके वंश का अनंत विस्तार हुआ जिसका संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जा रहा है।
  • सुरूपा: इनसे इन्हे देवगुरु बृहस्पति की प्राप्ति हुई। बृहस्पति के पुत्र कच एवं भारद्वाज हुए। कच ने ही दैत्यगुरु शुक्राचार्य से मृतसञ्जीविनी विद्या प्राप्त की थी किन्तु शुक्र की पुत्री देवयानी के श्राप के कारण वो विद्या उनके किसी काम ना आयी। भारद्वाज के भवमन्यु तथा भवमन्यु के महावीर्य, नर और गर्भ - ये तीन पुत्र हुए। महावीर्य के उरुक्षय और उरुक्षय के कवि आदि अनेक पुत्र हुए। नर की संकृति और संकृति के गुरु, वीति और रन्तिदेव आदि पुत्र हुए। गर्भ के सिनि, सिनि के सैन्य, सैन्य के महर्षि गर्ग हुए। गर्ग के पुत्र शिनि, शिनि के शैन्य तथा इनसे अनेक पुत्र पैदा हुए। इसके अतिरिक्त सुरूपा से महर्षि अंगिरस की एक पुत्री भुवना का भी वर्णन आता है। उस काल में भुवना एक मात्र ऐसी स्त्री थी जिसे ब्रह्मविद्या का ज्ञान था। भुवना का विवाह आठवें वसु प्रभास के साथ हुआ जिससे उन्हें पुत्र के रूप में महान विश्वकर्मा की प्राप्ति हुई जो आगे चल कर देव शिल्पी बनें। प्रभास ने ही महर्षि वशिष्ठ की प्रसिद्ध गाय 'नंदनी' का हरण किया था जिसके कारण उसे श्राप मिला और वो महारथी भीष्म के रूप में गंगा के गर्भ से जन्मा।
  • स्वराट: इनसे महर्षि गौतम का जन्म हुआ। गौतम एवं अहल्या के पुत्र शतानन्द हुए। शतानन्द के पुत्र सत्यधृति हुए।
  • पथ्या: इनसे अबन्ध्य, वामदेव, उशिज,अतथ्य तथा धिष्णु - ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। वामदेव के पुत्र वृहदुत्थ, उशिज के दीर्घतमा तथा धिष्णु के पुत्र सुधन्वा हुए। सुधन्वा के ऋषभ और ऋषभ के रथकार एवं संझक हुए। इसके अतिरिक्त इनके आत्मा, आयु, ऋतु, गविष्ठ, दक्ष, दमन, प्राण, सद, सत्य तथा हविष्मान्‌ नामक पुत्र भी हुए जिन्हे देवगण कहा जाता था।
  • स्मृति: इनके गर्भ से सिनीबाली, कुहू, राका, अनुमति, भानुमति, हविष्मति एवं महिष्मति नामक ७ पुत्रियाँ एवं दो पुत्र - भरताग्नि एवं कीर्तिमन्त हुए। भरतग्नि की पत्ती संहति से पर्जन्य हुए। पर्जन्य से कीर्तिमान और कीर्तिमान की पत्नी धेनुका से वरिष्ठ और छतिमन्त हुए।
श्रीकृष्ण ने एक बार व्याघ्रपाद ऋषि के आश्रम पर महर्षि अंगिरस से पाशुपतयोग की प्राप्ति के लिए बड़ी दुष्कर तपस्या की थी। इसके अतिरिक्त भागवत में स्यमंतक मणि की चोरी के प्रसंग में इनके श्री कृष्ण से मिलने का भी उल्लेख आया है। महाभारत युद्ध के समय ये शरशैय्या पर पड़े भीष्म पितामह से भी उनके अंतिम समय मिलने गए थे। महर्षि शौनक को महर्षि अंगिरस ने ही विद्या के दो रूपों - परा तथा अपरा से परिचित कराया था।

महर्षि अंगिरस के एक प्रिय शिष्य थे उदयन। उदयन को अपनी विद्या का घमंड हो गया तब महर्षि अंगिरस ने उसे चूल्हे से एक अंगार लाने को कहा। जब उदयन अंगार लेकर आया तो थोड़े ही देर में कोयला ठंडा होकर अपनी ऊष्मा खो बैठा। तब महर्षि अंगिरस ने उदयन को शिक्षा दी कि इसी प्रकार किसी को भी अपनी विद्या पर अभिमान नहीं करना चाहिए अन्यथा वो भी समाज से अलग होकर अपनी इसी कोयले की भांति अपनी श्रेष्ठता खो देता है।

महर्षि अंगिरस ने ही रानी चोलादेवी, जिसे देवी लक्ष्मी ने शूकरी मुख हो जाने का श्राप दिया था (इसी सन्दर्भ में इस लेख का चित्र डाला गया है), उसे महालक्ष्मी व्रत की दीक्षा दी थी जिससे चोलादेवी के श्राप का निवारण हो सका। इसके विषय में विस्तार में एक लेख बाद में प्रकाशित किया जाएगा।

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