रामायण का प्रथम श्लोक

रामायण का प्रथम श्लोक
रामायण के रचनाकार प्रचेता पुत्र महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि भी कहा जाता है। वो इस कारण कि काव्य का जैसा प्रस्फुटन रामायण में देखने को मिला, वैसा उससे पहले कभी देखने को नहीं मिला था। इसी कारण रामायण को पहला महाकाव्य कहा जाता है। रामायण के बाद महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत ही उस स्तर का महाकाव्य बना किन्तु फिर भी रामायण जितना भावनात्मक है, कदाचित महभारत में भी वैसा भाव देखने को नहीं मिलता।

आदि कवि वाल्मीकि के महाग्रंथ रामायण का जो महत्त्व है वैसा ही महत्त्व रामायण के पहले श्लोक का भी है, जिसे "आदि श्लोक" कहा जता है। ये श्लोक वास्तव में अद्भुत है क्यूंकि ना केवल इस श्लोक के कारण महर्षि वाल्किमी को रामायण लिखने की प्रेरणा मिली अपितु इस छंदबद्ध रचना को ही प्रथम बार शुद्ध श्लोक एवं "काव्य" की उपाधि दी गयी। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस महर्षि वालमीकि ने इस श्लोक की रचना नहीं की बल्कि ये अनायास ही उनके मुख से उच्चारित हुआ। इसके अतिरिक्त इस श्लोक के सृजित होने का कारण भी असाधारण था। ये सभी संयोग इस श्लोक को विशिष्ट बनाते हैं।

एक बार देवर्षि नारद महर्षि वाल्मीकि से मिलने आये। देवर्षि को आया देख कर महर्षि ने उनकी अभ्यर्थना की और उनका स्वागत कर उनके आने का आशय पूछा। तब देवर्षि ने बताया कि वे उनके पास परमपिता ब्रह्मा की आज्ञा से आये हैं ताकि वे उन्हें इस कल्प में जन्में श्रीहरि के ७वें अवतार श्रीराम की कथा सुना सकें। तब वही देवर्षि नारद ने महर्षि वाल्मीकि को सम्पूर्ण राम चरित्र के विषय में बताया।

देवर्षि के जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि स्नान हेतु तमसा नदी के तट पर गए। वहाँ उन्होंने क्रौंच (सारस) पक्षी के एक जोड़े को क्रीड़ा करते देखा जिसे देखकर वे मुग्ध हो गए। तभी एक निषाद (बहेलिया) ने नर क्रौंच पक्षी को अपने बाणों से बींध दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। तब मादा क्रौंच उसके विरह में अत्यंत करुण स्वर में क्रंदन करने लगी। ये देख कर महर्षि वाल्मीकि को अत्यंत क्रोध आया और सहसा उनके मुख से एक श्राप निकल पड़ा:

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

अर्थात: हे दुष्ट (निषाद), तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है इसीलिए जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा (शांति) प्राप्त नहीं होगी एवं तुझे भी इन्ही की भांति वियोग झेलना होगा।

महर्षि ने श्राप दे दिया किन्तु इससे वे अत्यंत व्यथित हुए। उन्होंने क्रोध को जीत लिया था किन्तु फिर भी उनके मुख से ऐसा भीषण श्राप कैसे निकला ये सोचते हुए वे वापस अपने आश्रम आ गए। तब वहाँ उनके शिष्य भारद्वाज ऋषि ने उनके विषाद का कारण पूछा। तब महर्षि वाल्मीकि ने उनसे सारी घटना बताई और कहा - "पुत्र! मैंने अपने जीवन में कभी क्रोध नहीं किया। जीव के कर्मों एवं उनकी परिणीति को भी मैं भली-भांति जानता हूँ। क्रौंच ने अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगा और निषाद भी अपने कर्म का फल भोगेगा। किन्तु फिर भी मेरे मुख से क्रोध पूर्वक को श्राप निकल गया उससे मैं अत्यंत दुखी हूँ।"

जब ऋषि भारद्वाज ने उनका श्राप सुना तो उन्हें वो आम छंदों से अलग लगा। तब महर्षि वाल्मीकि को भी अचानक अपने मुख से निकले उस वाक्य की विशिष्टता के विषय में पता चला। उन्होंने भारद्वाज से कहा - "हे वत्स! ये वास्तव में अद्भुद छंद है। ये ४ चरणों में बंटा हुआ है और प्रत्येक चरण समान रूप से ८-८ अक्षरों में बंटे हुए हैं। ये लयबद्द गाया भी जा सकता है। इसीलिए ३२ अक्षरों के इस समूह को मैं "श्लोक" की उपाधि देता हूँ और ये संसार का प्रथम काव्य माना जाएगा।"

उस श्लोक की रचना तो तो हो गयी किन्तु उसका श्राप रूपी अर्थ अभी भी महर्षि वाल्मीकि के मन को व्यथित कर रहा था। तब स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिए और उनसे कहा कि उन्ही के प्रेरणा से स्वयं माता स्वरस्वती ने उनके मुख से उस श्लोक को कहलवाया है। देवर्षि नारद ने जो राम चरित्र उन्हें सुनाया है उसे लिपिबद्ध करने का कार्य उन्ही के लिए निश्चित किया गया है। अतः वे अपने विषाद को त्याग दें।

इस पर महर्षि वाल्मीकि ने उनसे पूछा कि उन्होंने ऐसे दारुण श्लोक की रचना उनसे क्यों करवाई। तब ब्रह्मदेव ने कहा - "हे पुत्र! इस श्लोक में करुणा रस की अधिकता है और वो इस लिए क्यूंकि श्रीराम के जीवन का सबसे करुण भाग आरम्भ होने वाला है। किन्तु उनके उस श्लोक का केवल वही अर्थ नहीं है जो वे समझ रहे हैं।" ये कह कर परमपिता ने महर्षि वाल्मीकि को उनके ही श्लोक का दूसरा अर्थ समझाया -

"हे निर्दयी (रावण), चूंकि तुमने देवी सीता को श्रीराम से विलग किया है जो उनसे अथाह प्रेम करती थी, इसी कारण तुम विधि (ब्रह्मा) के वरदानों का लाभ नही उठा पाओगे।"

ये सुनकर महर्षि वाल्मीकि को बड़ा संतोष हुआ किन्तु उनका विषाद पूरी तरह नही मिटा। इस पर ब्रह्म देव ने उन्हें उसी श्लोक का एक और अर्थ बताया जो श्रीराम के दृष्टिकोण से था -

"हे श्रीराम! चूकि आपने काम में डूबे हुए निर्दयी (रावण) का वध किया है अतः आप अनन्त काल तक प्रतिष्ठा को प्राप्त करेगें।"

ये सुनकर महर्षि वाल्मीकि का विषाद पूर्णतः मिट गया और तब उन्होंने परमपिता ब्रह्मा की आज्ञा से २४००० श्लोकों वाले महाकाव्य रामायण की रचना की। यही नहीं, अपने वनवास के समय श्रीराम उनसे मिलने भी आये और उन्हें माता सीता की सेवा का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार उनके मुख से अनायास निकले इस "आदि श्लोक" के कारण संसार को रामायण जैसे पवित्र ग्रन्थ की प्राप्ति हुई।

जय श्रीराम।

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