पुत्रदा एकादशी

पुत्रदा एकादशी
हिन्दू धर्म में एकादशी का बड़ा महत्त्व है। प्रत्येक मास दो बार एकादशी होती है और इस प्रकार वर्ष में कुल २४ एकादशी होती है। मलमास अथवा अधिकमास की अवस्था में दो एकादशी और बढ़ जाती है और कुल २६ एकादशी होती है। पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहते हैं और इसका सभी एकादशियों में विशेष स्थान है। इस वर्ष ६ जनवरी को पुत्रदा एकादशी पड़ रही है जिसका मुहूर्त प्रातः ३:०७ से लेकर अगले दिन ७ जनवरी प्रातः ४:०२ तक है।

जैसा कि इसके नाम से प्रतीत होता है, इस एकादशी के व्रत को करने से निःसंतान दम्पत्तियों को संतान की प्राप्ति होती है। आज का दिन भगवान विष्णु का माना जाता है। इस दिन प्रातः स्नान कर और निर्जल रह भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। फिर ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। दिन भर भगवत भजन कर रात्रि को भगवान की मूर्ति के समीप ही सोना चाहिए और अगले दिन स्नान कर भगवान के पूजन के बाद भोजन करना चाहिए।

इसकी कथा हमें महाभारत में मिलती है जब युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि पौष मास के शुल्कपक्ष की एकादशी का क्या नाम है और उसका क्या महत्त्व है? तब श्रीकृष्ण ने कहा - "भ्राताश्री! इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। मैं इस व्रत की कथा आपसे कहता हूँ आप ध्यान से सुनिए क्यूंकि इस कथा को सुनने मात्र से वायपेयी यज्ञ के बराबर का फल प्राप्त होता है।"

द्वापर युग के प्रारंभिक चरण में महिष्मति राज्य में महीजित नामक राजा राज्य करते थे जो बड़े न्यायप्रिय थे और प्रजा का सदैव ध्यान रखते थे। उनके पास संसार का समस्त सुख था किन्तु संतान ना होने के कारण वे बड़े दुखी रहते थे। उन्हें सदैव यही दुःख सताता रहता था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके राज्य को सँभालने वाला, उन्हें मुखाग्नि देने वाला और उनके पितरों को तर्पण देने वाला कौन होगा। 

इसी उधेड़बुन में वे एक बार वन की ओर निकल गए। उसी वन में घूमते-घूमते अपने दुर्भाग्य से दुखी राजा को अचानक आत्महत्या का विचार आया। वे उसके लिए उद्धत हो ही रहे थे कि अचानक उन्हें मंत्रोच्चार की ध्वनि सुनाई दी। इस घने वन में कौन मंत्रोच्चार कर रहा है, ये देखने के लिए वे उधर ही चल पड़े। थोड़ी देर चलने के बाद उन्हें सरोवर के तट पर ऋषियों का एक झुण्ड दिखाई दिया। उनका आशीर्वाद लेने के लिए राजा उनके पास पहुँचे।

ऋषियों के उस समूह का नेतृत्व भगवान शिव के महान भक्त महर्षि लोमश कर रहे थे। राजा ने जाकर उन्हें प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक खड़े हो गए। तब लोमश ऋषि ने उनसे पूछा कि वे इतने दुखी क्यों हैं? तब राजा ने उनसे कहा - "हे महर्षि! आप तो त्रिकालदर्शी हैं। मैंने कभी अधर्म नहीं किया, अपनी प्रजा का ध्यान अपने पुत्र की भांति रखता हूँ। मेरे राज्य में सब ओर सुख शांति है। मैंने कोई पाप किया हो, ऐसा मुझे ध्यान नहीं। फिर किस कारण मैं अभी तक संतान सुख से वंचित हूँ?"

ये सुनकर महर्षि लोमश ने कहा - "हे राजन! ये सब तुम्हारे पूर्व जन्म का फल है। पूर्व जन्म में तुम एक वैश्य थे जो व्यापर कर अपने परिवार का पेट पालते थे। एक दिन प्यास लगने पर तुम एक सरोवर पर पहुँचे जहाँ पहले से ही एक प्यासी गाय पानी पी रही थी। तुमने उसे वहाँ से हटा कर स्वयं पानी पी लिया और वो गाय प्यासी रह गयी। तुम्हारे उसी पाप के कारण इस जन्म में तुम्हे संतान की प्राप्ति नहीं हो रही है।"

तब राजा ने कहा - "हे महर्षि! मेरे पिछले जन्म पर मेरा किस प्रकार वश है? अब आप ही मुझे कोई उपाय बताएं ताकि मुझे संतान सुख की प्राप्ति हो सके।" इसपर लोमश ऋषि ने कहा - "हे राजन! तुम आज बड़े शुभ दिन पर आये हो। आज पुत्रदा एकादशी का दिन है और इस दिन जो कोई भी इस व्रत को रखकर भगवान विष्णु की पूजा करता है उसे अवश्य ही संतान की प्राप्ति होती है।" 

उनकी आज्ञानुसार राजा महीजित ने उसी सरोवर में स्नान कर उस पवित्र व्रत का संकल्प लिया और पूरे दिन निर्जल उपवास रख कर भगवान विष्णु की आराधना की। उस व्रत के प्रभाव से अगले ही वर्ष राजा को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। युधिष्ठिर को ये कथा सुनते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि - "हे भ्राताश्री! आप भी राजा महीजित की भांति इस व्रत को कीजिये क्यूंकि इसे करने पर स्वयं भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।" जय श्रीहरि।

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