जब कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि क्यों है कर्ण महादानी

एक बार अर्जुन और कृष्ण बैठे वार्तालाप कर रहे थे तथा कृष्ण अर्जुन को दानवराज बलि की दानवीरता की कथा सुना रहे थे कि कैसे बलि ने भगवान वामन को तीन पग भूमि दान की थी। तभी अर्जुन ने पूछा कि क्या उनकी तरह दानवीर कोई और हुआ? इस पर कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आज पूरे विश्व में कर्ण सबसे महान दानी हैं जिन्होंने आज तक किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया।

कृष्ण के मुख से कर्ण की इस प्रकार बड़ाई सुनने पर अर्जुन को बड़ी ईर्ष्या हुई। उन्होंने कृष्ण से कहा कि "हे कृष्ण! भ्राता युधिष्ठिर ने भी आज तक किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। प्रतिदिन वे प्रत्येक याचक को अन्न एवं धन से परिपूर्ण करते हैं। यही नहीं, उनके पास इतना धन है कि वे जीवन भर भी दान देते रहें तो कभी समाप्त नहीं हो सकता। उनकी संपत्ति के आगे तो कर्ण की संपत्ति नगण्य है। फिर जब दानवीरता की बात आती है तो आप केवल कर्ण का नाम ही क्यों लेते हैं?"

कृष्ण मुस्कुराये और कहा कि चलो दोनों की परीक्षा ले लेते हैं। इससे तुम्हे पता चल जाएगा कि कौन वास्तव में महादानी है। उस समय सर्वत्र बड़ी तेज बारिश हो रही थी। कृष्ण और अर्जुन ने याचक का भेष बनाया और रात्रि के समय युधिष्ठिर के पास दान माँगने पहुँचे। सम्राट युधिष्ठिर उस समय सोने जा रहे थे किन्तु जैसे ही उन्हें पता चला कि दो ब्राम्हण दान की इच्छा से द्वार पर है तो वे तुरंत बाहर आये और ब्राम्हण रुपी कृष्ण और अर्जुन का अभिवादन किया।

उन्होंने पूछा कि उन्हें दान में क्या चाहिए? इसपर कृष्ण ने कहा कि उन्हें एक मन सूखी चन्दन की लकड़ियाँ चाहिए। युधिष्ठिर ने तुरंत अपने सेवकों से कहा कि यज्ञशाला से १० मन चन्दन की लकड़ी लायी जाये। इसपर कृष्ण ने कहा कि वे अशुद्ध लकड़ियाँ स्वीकार नहीं कर सकते क्यूँकि वे पहले ही यज्ञ के संकल्प हेतु काटी जा चुकी है। युधिष्ठिर  हैरान हुए और उन्होंने कहा कि इस समय तो सभी जगह बारिश हो रही है। इस समय तो एक सेर भी सूखी लकड़ी मिलना असम्भव है। अगर आप चाहें तो मैं आपको एक मन चन्दन की लकड़ी की जगह एक मन स्वर्ण मुद्राएँ दे सकता हूँ।

इसपर कृष्ण ने कहा कि उन्हें स्वर्ण मुद्राएँ नहीं बल्कि केवल एक मन चन्दन की सुखी लकड़ियाँ ही चाहिए। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़ कर कहा कि "हे ब्राम्हणदेव, अभी इस समय तो सूखी लकड़ी मिलना संभव नहीं है। आप कृपया आज रात आप मेरा आथित्य स्वीकार करें। कल सुबह वर्षा रुकते ही मैं आपको १० मन चन्दन की लकड़ी उपलब्ध करवा दूँगा।" इसपर कृष्ण ने कहा कि वे सनातन ब्राम्हण है  और किसी का आथित्य स्वीकार नहीं कर सकते। अब युधिष्ठिर बड़े धर्म संकट में पड़ गए। अब करें तो क्या करें? कोई और उपाय ना जानकर युधिष्ठिर ने उनके पाँव पकड़ लिए और क़तर स्वर में कहा कि इस स्थिति में वे उसे दान देने के में असमर्थ हैं अतः कृपया वे उन्हें क्षमा करें। कृष्ण ने युधिष्ठिर को व्यथित ना होने को कहा और आशीर्वाद देकर अर्जुन के साथ वहाँ से चले गए। 

अपने ज्येष्ठ भ्राता को इतना व्यथित देखकर अर्जुन बड़े द्रवित हो गए। उन्होंने कृष्ण से कहा कि "क्या युधिष्ठिर को इतना अपमानित करना आवश्यक था?" कृष्ण ने कहा कि उन्होंने युधिष्ठिर को अपमानित नहीं किया बल्कि केवल उनसे दान माँगा था। इसपर अर्जुन ने कहा कि हे माधव, जब सभी ओर वर्षा हो रही हो तो कोई किस प्रकार सूखी लकड़ियों का दान दे सकता है? इसपर कृष्ण ने कहा कि चलो कर्ण के पास चलते हैं। लम्बी यात्रा के बाद वे अंगदेश पहुँचे। कृष्ण की माया से वहाँ भी घनघोर वर्षा होने लगी। उसी स्थिति में ब्राम्हण वेश में कृष्ण और अर्जुन कर्ण में महल पहुँचे।

जैसे ही कर्ण को पता चला कि दो ब्राम्हण दान की आशा से द्वार पर खड़े हैं, वे अविलम्ब उनसे मिलने बाहर आये। उन्होंने दोनों को प्रणाम कर कहा कि "हे ब्राम्हणदेव, ये मेरा सौभाग्य है कि इतने विषम मौसम में भी आपने मुझे दान देने के योग्य समझ कर मेरा सम्मान बढ़ा दिया। कृपया आज्ञा दीजिये कि आप किस चीज की इच्छा से यहाँ आये हैं? मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे धर्म के अतिरिक्त आप कुछ भी माँगे, अगर वो मेरे अधिकार में होगा तो मैं अविलम्ब उसे आपकी सेवा में प्रस्तुत करूँगा।" 

कर्ण के इस प्रकार कहने पर कृष्ण ने उससे भी वही दान माँगा जो युधिष्ठिर से माँगा था साथ ही साथ उन्होंने वही प्रतिबन्ध रखा कि वे यज्ञशाला की लकड़ी स्वीकार नहीं करेंगे। साथ ही उन्होंने कहा कि हे अंगराज, हमें ज्ञात है कि इतनी वर्षा में सूखी चन्दन की लकड़ी मिलना अत्यंत कठिन है इसीलिए अगर आप ये दान ना दे सके तो हम अन्यथा नहीं लेंगे और वापस लौट जाएँगे। इसपर कर्ण ने अपने कानों पर हाथ रखते हुए कहा कि "हे देव! ईश्वर की कृपा से आज तक मेरे द्वार से कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटा और अगर आप इस प्रकार दान लिए बिना लौट जाएंगे तो मुझे बड़ा कलंक लगेगा। अतः आप कृपया थोड़ी देर रुकें, मैं अभी आपको आपका अभीष्ट दान देता हूँ।"

ये कहकर कर्ण अपना धनुष लेने अपने भवन में वापस लौट गया। अर्जुन ये देख कर बड़े विस्मित थे कि कर्ण ऐसा कौन से दिव्यास्त्र का प्रयोग करेंगे जिससे गीली लकड़ी सूख जाये। अगर वे आग्नेयास्त्र का प्रयोग करते हैं तो लकड़ी पूरी तरह जल जाएगी। उन्होंने ये बात कृष्ण से भी कही पर उन्होंने उसे प्रतीक्षा करने को कहा। वे आतुरता से कर्ण के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे। वे देखना चाहते थे कि कर्ण के पास ऐसा कौन सा अस्त्र है जो उनके पास नहीं है। 

थोड़ी देर में ही कर्ण अपना धनुष लेकर वापस आये। उन्होंने बिना कोई प्रतीक्षा किये अपने तीक्ष्ण बाणों से अपने मुख्य द्वार को काट डाला जो चन्दन की लकड़ी से बना था। देखते ही देखते कृष्ण और अर्जुन के समक्ष चन्दन की लकड़ियों का ढेर लग गया। इस प्रकार का दान देखकर अर्जुन अवाक् रह गया। किन्तु कर्ण की परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुई थी। कृष्ण ने कहा कि हे अंगराज! अगर हम आपके द्वार की लकड़ी लेना अस्वीकार कर दें तो? कर्ण ने बिना हिचक अपनी शैय्या, जो चन्दन की लकड़ी की ही बनी थी, उसके टुकड़े कर कृष्ण के सामने लकड़ियों का दूसरा ढेर लगा दिया।

उन्होंने कहा कि "हे ब्राह्मणदेव! मेरी शय्या मेरे दिव्य कवच और कुण्डलों के कारण कभी अपवित्र नहीं होती अतः ये सर्वथा आपके यज्ञ के योग्य है।" कृष्ण गदगद हो गए किन्तु फिर भी उन्होंने पूछा कि अगर हम इस लकड़ी को भी दान में लेने से मना कर दे तो? कर्ण ने हाथ जोड़ कर कहा कि "उस स्थिति ने वो देवताओं से अपने पूरे जीवन के पुण्य के बदले आपके लिए दान की याचना करेंगे।" कृष्ण ने आगे कहा कि अगर देवता मना कर दें तो? इसपर कर्ण ने कहा कि "फिर मैं वासुदेव कृष्ण से यही याचना करता। मुझे विश्वास है कि वे मेरी प्रार्थना कभी नहीं टालते।"

इसपर कृष्ण ने कहा कि "हे अंगराज! मैं वासुदेव को जनता हूँ।  उन्हें आपके पुण्य में कोई रूचि नहीं है। वे निश्चय ही आपसे आपके सारे दिव्यास्त्र और सामर्थ्य माँग लेते ताकि आप अर्जुन का कोई अहित ना कर सकें।" इसपर कर्ण ने कहा कि "हे देव! अर्जुन की मृत्यु उनके लिए दान से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है और अगर वासुदेव मेरा पूरा सामर्थ्य भी माँगते तो भी मैं सहर्ष उन्हें दे देता। मैं जानता हूँ कि बिना सामर्थ्य के अर्जुन से युद्ध करने पर मेरी मृत्यु निश्चित है किन्तु अगर मैं आज आपको दान नहीं दे सकता तो वैसे भी अपने प्राण त्याग देता।"

कृष्ण ने प्रसन्न होकर कर्ण को गले से लगा लिया। उन्होंने उस ढेर में से एक मन लकड़ी का दान लिया और अर्जुन के साथ वापस चल पड़े। अर्जुन बिलकुल निःशब्द थे। उन्हें इस प्रकार चुप देख कर कृष्ण ने कहा कि "हे अर्जुन, इसी कारण मैं कर्ण को महादानी कहता हूँ। सम्राट युधिष्ठिर के द्वार एवं शैय्या भी चन्दन की लकड़ियों से बने हैं किन्तु उन्हें इसका ध्यान नहीं आया। युधिष्ठिर के दानवीर होने में मुझे कोई संदेह नहीं है किन्तु कर्ण स्वाभाव से ही उदार है और दानवीरता उसके रक्त में बहती है।

जिस कर्ण के जीवन का एक मात्र लक्ष्य तुम्हारा वध करना है, वो बिना किसी संकोच उसे भी दान में देने के लिए तैयार है।" अर्जुन ने रुँधे स्वर में कहा कि "हे कृष्ण! आज मैं भी ये स्वीकार करता हूँ कि कर्ण जैसा दानी आज पूरे विश्व में कोई नहीं है।" फिर अर्जुन ने पूछा कि इस एक मन लकड़ी का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए? इसपर कृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन! इतने महान दान का उपयोग किसी महान यज्ञ में ही होना चाहिए। अतः हमें इस दान की लकड़ियों से ही सम्राट युधिष्ठिर के राजसू-यज्ञ का आरम्भ करना चाहिए। कहा जाता है कि कर्ण के द्वारा दान की गयी उन्ही लकड़ियों से युधिष्ठिर के राजसू-यज्ञ का पहला हविष्य डाला गया था।

इसके अतिरिक्त एक कथा और आती है जब कर्ण ने अपने अंतिम समय में भी कृष्ण और अर्जुन को दान दिया था। उसे आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।