श्री त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग

श्री त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग
महाराष्ट्र के नाशिक शहर से करीब ३० किलोमीटर दूर भगवान शिव का अति पावन त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग को विशेष इस कारण माना जाता है क्यूंकि यही एक ऐसा ज्योतिर्लिंग है जहाँ भगवान शिव के साथ-साथ भगवान विष्णु एवं परमपिता ब्रह्मा भी विराजमान है। विशेषकर भगवान ब्रह्मदेव की गिने चुने अवतरणों में से एक ये भी है। इस ज्योतिर्लिंग के तीन मुख हैं जो त्रिदेवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही साथ इनके प्रतीकात्मक तीन पिंड भी हैं जिनमे से एक ब्रह्मा, एक विष्णु एवं एक त्रयंबकेश्वर रुपी भगवान महारुद्र हैं।

केदारनाथ की ही भांति ये मंदिर भी बहुत भव्य यही और काले पत्थरों द्वारा बनवाया गया है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार सन १७५५ में पेशवा बाजीराव भल्लाल एवं काशीबाई के पुत्र और अगले पेशवा नाना साहेब पेशवा ने आरभ किया था। उसके ३१ साल बाद सन १७८६ में इसका कार्य पूर्ण हुआ और उसमे लगभग १६ लाख रूपये का खर्च आया था जो उस समय बहुत ही बड़ी रकम थी। शिवलिंग तो सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है किन्तु ब्रह्मलिंग एवं विष्णुलिंग का उदाहरण इस स्थान के अतिरिक्त और कही नहीं मिलता। 

ये मंदिर ब्रह्मगिरि पहाड़ी की तलहटी में स्थित है जिसे शिव का साक्षात् रूप माना जाता है। पहाड़ी तक जाने के लिए ७०० सीढ़ियां बनी हुई है जिनके बाद रामकुंड एवं लक्ष्मणकुण्ड के दर्शन होते हैं। ऊपर पहुँचने पर गोमुख से परम पावन गोदावरी नदी के दर्शन होते हैं। यहाँ का वार्षिक उत्सव भी बड़ा प्रसिद्ध है जहाँ त्रयंबकेश्वर महाराज के पञ्चमुखी स्वर्णमुकुट को पालकी में घुमाया जाता है ताकि भक्त उनके दर्शन कर सकें। ये भगवान शिव का राज्याभिषेक माना जाता है।

इस शिवलिंग के विषय में एक पौराणिक कथा महर्षि गौतम की है जो इस स्थान पर अपनी पत्नी अहिल्या के साथ रहते थे। एक बार उस स्थान पर देवराज इंद्र के प्रकोप से १०० वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। तब गौतम ऋषि ने छः माह की घोर तपस्या कर वरुणदेव को प्रसन्न कर लिया। वर के रूप में उन्होंने माँगा कि उस स्थान पर सूखा ख़त्म हो जाये और वर्षा हो। तब वरुणदेव ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि वे देवराज इंद्र एवं अन्य देवताओं का विरोध कर उनकी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकते। किन्तु उनकी तपस्या का फल तो उन्हें देना ही था। 

तब उन्होंने कहा कि वे वर्षा तो नहीं करवा सकते किन्तु जल के देवता होने के कारण वे जल प्रदान अवश्य कर सकते हैं। तब वरुणदेव के निर्देश पर महर्षि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जिसे वरुणदेव ने अपने दिव्य जल से भर दिया और कहा "हे महामुने! मुझे खेद है कि मैं आपकी इच्छा पूर्ण ना कर सका किन्तु मैं आपको वरदान देता हूँ कि इस कुण्ड का जल अक्षय रहेगा और कभी समाप्त नहीं होगा"। इसी कारण अपनी अवज्ञा होती देख तब इंद्र ने गौतम ऋषि से प्रतिशोध लेने की ठानी और आगे चलकर अहिल्या का सतीत्व भंग किया।

महर्षि गौतम ने वरुणदेव का धन्यवाद किया और उस अक्षय कुण्ड को जन साधारण के लिए खोल दिया। उस अक्षय जल से महर्षि गौतम ने उस स्थान को फिर से हरा-भरा कर दिया और दूर-दूर से अन्य ऋषि-मुनि वहाँ आकर महर्षि गौतम के नेतृत्व में बस गए। एक बार वहाँ के अन्य ब्राह्मणों की पत्नियों का अहिल्या से मनमुटाव हो गया। उन्होंने आकर ये बात अपने पतियों को बताई तो उन सभी ब्राह्मणों ने यज्ञ कर के श्रीगणेश को प्रसन्न कर लिया। जब विनायक ने वर मांगने को कहा तो उन्होंने माँगा कि किसी भी तरह महर्षि गौतम को यहाँ से निर्वासित कर दें। 

तब श्रीगणेश ने कहा - "हे ब्राह्मणों! आज अगर ये भूमि हरी-भरी है तो वो महर्षि गौतम का ही प्रभाव है। उन्होंने ही कठिन तप करके अक्षय जल के इस कुण्ड को प्राप्त किया। उन्ही के कारण आप लोग सूखे प्रदेशों से आकर यहाँ सुख पूर्वक निवास कर रहे हैं। अब इस प्रकार महर्षि गौतम को ही निष्काषित करना धर्म नहीं है अतः आप लोग कोई और वर माँग लें। गणेशजी द्वारा इतना समझाने पर भी सभी ब्राह्मण अपने हठ पर अड़े रहे और अंततः श्रीगणेश ने होनी को मानकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। 

अगले दिन प्रातः श्रीगणेश एक जीर्ण गाय का रूप धर कर महर्षि गौतम के खेत में चले गए। फसल को नुकसान होता देख कर गौतम ऋषि ने एक घास हाथ में लेकर उस गाय को हाँकने का प्रयत्न किया किन्तु गाय रुपी गणेश उस तृण के एक प्रहार से मर गए। चारो ओर हाहाकार मच गया। गौतम ऋषि को गोहत्या का पाप लग गया। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक छोटे से तृण के प्रहार से गाय के प्राण निकल जाएंगे। उन्होंने सभी को समझाने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु सभी ब्राह्मणों ने मिलकर उन्हें उनके ही आश्रम से निकाल दिया। वहाँ से निष्काषित होने के बाद ऋषि गौतम अपनी पत्नी के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे किन्तु इसपर भी ब्राह्मणों को चैन नहीं मिला और उन्होंने वहाँ आकर भी गौतम ऋषि को वहाँ निकाल दिया। जाते-जाते उन्होंने पूछा कि इस पाप का प्रायश्चित कैसे किया जाये?

तब ब्राह्मणों ने कहा - "हे गोहत्या के दोषी! इस पाप का प्रायश्चित सरल नहीं है। पहले आप पूरी पृथ्वी की तीन परिक्रमा करें। फिर यहाँ लौट कर एक महीने तक निर्जल व्रत करो। इसके पश्चात ब्रह्मगिरी की १०१ परिक्रमा करने के बाद यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके १००००००० पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की ११ बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से आपका उद्धार होगा। आत्मग्लानि से भरे महर्षि गौतम ने उनके कहे अनुसार उस कठिन व्रत को पूर्ण किया।

इतने कठिन तप से महादेव ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिए और वरदान माँगने को कहा। तब महर्षि गौतम ने कहा - "हे महादेव! आप कृपया मुझे गोहत्या के पाप से मुक्त कर दें।" इस पर महारुद्र ने कहा - "पुत्र! तुम सर्वथा निर्दोष हो। जब तुम्हे गोहत्या का पाप लगा ही नहीं तो उससे निदान कैसा? ये सब इन ब्राह्मणों द्वारा किया गया छल है जिस कारण तुम्हे इतना कष्ट उठाना पड़ा। मैं अभी इन सभी को भस्म कर देता हूँ।" महादेव का ये क्रोध देख कर गौतम ऋषि ने कहा - "हे महादेव! आप कृपया उन्हें क्षमा कर दें। मैं तो उनका आभारी हूँ कि उनके इस  छल के कारण ही मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।" 

तब उन्होंने वरदान स्वरुप शिवजी से लोक हित के लिए गंगा को माना। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर महादेव ने अपनी जटा से उस गंगा को प्रकट किया जो उन्हें ब्रह्मदेव से उनके विवाह के अवसर पर उपहार स्वरुप प्राप्त हुई थी। वो गंगा वहाँ गौतमी (गोदावरी) नदी के रूप में बहने लगी। किन्तु जैसे ही महादेव वापस जाने लगे, उस महान नदी का भी लोप होने लगा। तब गौतमी ने कहा - "हे महर्षि! मैं यहाँ केवल एक शर्त पर रुक सकती हूँ कि अगर मेरे स्वामी भगवान शिव भी यहाँ रहें। तब गौतम ऋषि और गौतमी की प्रार्थना पर भगवान शिव "त्रयंबकेश्वर" के रूप में वहीँ स्थापित हो गए और उन्हें आशीर्वाद दिया कि गौतमी वैवस्तव मनु के शासन के २८वें कलियुग तक वही पर निरंतर बहती रहेगी। 

हर हर महादेव!

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