वैद्यराज चरक

वैद्यराज चरक
चरक एक महान वैद्य थे जिन्हे विश्व का सबसे पहला वैद्य माना जाता है। यही नहीं, इन्हे आयुर्वेद का जनक भी माना जाता है। इनके जन्म को लेकर कुछ मतभेद है। कुछ लोग इनका जन्म ईसा से ३०० वर्ष पहले का मानते हैं जबकि अधिकतर लोग इनका जन्म महात्मा बुद्ध से भी पहले का मानते हैं। इसमें से दूसरा मत ही ज्यादा तर्कसंगत लगता है। कुछ लोग चरक और कनिष्क को एक मानते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। कनिष्क बौद्ध थे किन्तु चरक साहित्य में बौद्ध मतों का कठोरता से खंडन किया गया है।

इन्होने चिकित्सा विज्ञान पर एक एक महान ग्रन्थ की रचना की है जिसे "चरक संहिता" के नाम से जाना जाता है। ये ग्रन्थ आयुर्वेद के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में से एक माना जाता है। चरक संहिता में कई श्लोक पाली भाषा में लिखे गए जो ये सिद्ध करते हैं कि चरक महात्मा बुद्ध के समकालीन या उनसे भी पहले जन्मे थे। ये भी एक कारण है कि इन्हे कनिष्क के अलग मना जाता है है क्यूंकि कनिष्क बौद्ध से बाद जन्मे थे और चरक पहले।

चरक का जन्म नागवंश में हुआ था और कई पौराणिक ग्रंथों में इन्हे स्वयं शेषनाग का अवतार माना जाता है। कुछ लोग द्वापरयुग में जन्मे महर्षि अग्निवेश को ही चरक मानते हैं। किन्तु ये बात भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती क्यूंकि स्वयं चरक के अनुसार वे अग्निवेश से बड़े प्रभावित थे। यही नहीं, उनके ग्रन्थ चरक संहिता में भी कई बातें महर्षि अग्निवेश द्वारा रचित अग्निवेशतन्त्र से भी ली गयी हैं। पौराणिक ग्रंथों में उनका जन्मस्थान पंचनद जनपद में इरावती और चन्द्रभाग नदी के बीच स्थित "कपिस्थल" बताया गया है जो आज जालंधर के नाम से जाना जाता है। पंचनद को आज पंजाब और इरावती को रावी और चन्द्रभाग को चेनाब नदी के नाम से जाना जाता है। 

बाल्यकाल से ही इन्होने भीषण रोग की विभीषिका देखी जिसने इन्हे इस बात के लिए प्रेरित किया कि मानव के कल्याण के लिए कार्य करें। बहुत कम आयु में ही इन्होने बहुत स्थानों का भ्रमण किया और घूम-घूम कर लोगों की सेवा की। इसी कारण इनका नाम ही "चरक" पड़ गया जिसका अर्थ होता है चलना। बहुत ही कम आयु में चरक को शिक्षा के लिए तक्षशिला विश्वविद्यालय भेज दिया गया जहाँ ऋषि वैंशपायन इनके गुरु बने और उनकी सारी शिक्षा वहीँ से हुई।

जिस समय वे तक्षशिला में शिक्षा अध्यन कर रहे थे उसी समय से उन्होंने अपने ग्रन्थ पर कार्य करना आरम्भ कर दिया। उन दिनों ग्रन्थ या किसी उत्तम रचना को "शाखा" के नाम से जाना जाता था। सामान्य भाषा में कहें तो शाखाएं उन दोनों के विद्यालय कहे जा सकते हैं जहाँ कई विषयों का अध्ययन किया जाता था। चरक ने जो अपने ग्रन्थ "चरक संहिता" की रचना की कदाचित उसी कारण उसकी एक शाखा "चरक शाखा" के रूप में जानी जाती है।

इनके द्वारा रचित चरक संहिता को "सुश्रुत संहिता" के साथ आयुर्वेद की सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है। यहाँ तक कि आज भी आयुर्वेद के छात्रों को चरक संहिता का अध्ययन करवाया जाता है और आयुर्वेद में जो चिकित्सा पद्धति है वो भी इनके इसी ग्रन्थ से प्रेरित है। कुछ विद्वान संसार को कुछ ऐसा दे कर जाते हैं जिससे वे सदा के लिए इतिहास में अमर हो जाते हैं। जैसे महर्षि वाल्मीकि रामायण, वेदव्यास महाभारत और तुलसीदास रामचरितमानस के लिए जाने जाते हैं। उसी प्रकार वैद्यराज चरक ने एक ऐसे महान ग्रन्थ की रचना की जिससे वे इतिहास में अमर हो गए। वो ग्रन्थ है "चरक संहिता"।

आयुर्वेद में तीन सबसे प्रमुख नाम हैं - "चरक", "सुश्रुत" एवं "वाग्भट्ट" जिन्होंने क्रमशः "चरक संहिता", "सुश्रुत संहिता" और "अष्टांग संग्रह" नामक महान ग्रंथों की रचना की है। ये तीन ग्रन्थ आज भी आयुर्वेद के आधार माने जाते हैं। इन तीनों ग्रंथों में चरक संहिता और सुश्रुत संहिता समकालीन मानी जाती है पर अधिकतर स्थान पर चरक संहिता को सुश्रत संहिता से अधिक प्राचीन बताया गया है। अष्टांग संग्रह अपेक्षाकृत आधुनिक है। जो सूत्र चरक ने बताये थे वे सहस्त्रों वर्षों के पश्चात आज भी आयुर्वेद का आधार बने हुए हैं। 

हालाँकि चरक संहिता भी मूल ग्रन्थ नहीं है। सबसे पहले महर्षि अत्रि के पुत्र पुनर्वसु ने चिकित्साशास्त्र के ज्ञान अपनी वाणी से उच्चरित किया। पनर्वसुः के कई शिष्य थे किन्तु उनके सबसे प्रतिभावान शिष्य का नाम था ऋषि अग्निवेश। उन्होंने ही पुनर्वसु द्वारा दिए गए ज्ञान को लिपिबद्ध किया जिसे आज "अग्निवेशतन्त्र संहिता" के नाम से जाना जाता है। जैसे-जैसे समय बीता, कई विद्वानों को इस ग्रन्थ में समय के अनुकूल संशोधन की आवश्यकता पड़ी। तब चरक ने इसमें आवश्यक संशोधन किया और इसे ही चरक संहिता के नाम से जाना गया। 

इसमें चरक ने जो एक सूत्र की रचना की वो आज भी आयुर्वेद का आधार है। चरक ने बताया कि मनुष्य के शरीर में जितने भी रोग उत्पन्न होते हैं वो केवल शरीर के तीन पदार्थों के कारण होती है। ये हैं - वात, पित्त एवं कफ। यह दोष तब उत्पन्न होते है जब रक्त, मांस और मज्जा खाए हुए भोजन पर प्रतिक्रिया करती है। ये औषधिशास्त्र में एक क्रन्तिकारी अन्वेषण था जिसने आयुर्वेद की दिशा और दशा बदल दी। इन तीनों दोषों को संतुलित करने के लिए इन्होने कई औषधियां बनाई। आज आधुनिक काल में भी आयुर्वेद में वात, पित्त और कफ को ही सभी रोगों का मूल माना जाता है और औषधियां भी उसी प्रकार से बनाई जाती है।

चरक का ये भी मानना था कि रोगों को समझने से पहले वैद्य को मानव शरीर को समझना पड़ेगा। जो वैद्य ये नहीं जनता कि मानव का शरीर वास्तव में कार्य कैसे करता है, वो कभी भी रोगों का समूल निदान नहीं कर सकता। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन का बड़ा भाग मानव शरीर को समझने में लगाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने "हित-भुक", "मित-भुक" एवं "ऋत-भुक" की अवधारणा रखी। अर्थात जो व्यक्ति शरीर को पोषित करने वाला भोजन करे, भूख से कम भोजन करे और ऋतु के अनुसार फल और भोजन का सेवन करे तो वो कभी रोगी नहीं हो सकता। उनके इस विचार ने औषधि विज्ञान में क्रांति ला दी।

ऐसी असंख्य चीजों का समावेश उन्होंने चरक संहिता में किया है। चरक संहिता को ८ भागों, जिन्हे "स्थान" कहा गया है, में विभाजित किया और इसमें कुल १२० अध्याय और १२००० श्लोक हैं। ये स्थान हैं:
  1. सूत्रस्थानम्: इसमें ३० अध्याय हैं जिसे आज चिकित्सा विज्ञान में सामान्य नियम (General Principles) कहा जाता है। इसमें आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों का वर्णन है।
  2. निदानस्थानम्: इसमें ८ अध्याय हैं जिसे आज हम विकृति विज्ञान (Pathology) के नाम से जानते हैं। इसमें रोगों का निदान कैसे किया जाये उसका विस्तृत वर्णन है। इसमें रोगों के लिए "निदान पंचक" अर्थात पांच विषयों का विस्तृत वर्णन है।
  3. विमानस्थानम्: इसमें ८ अध्याय हैं जिसे चिकित्साशास्त्र में निश्चित निर्धारण (Specific determination) के नाम से जाना जाता है। इसमें शरीर के विभिन्न रसों और रोगों के स्रोत के बारे में विस्तार से जानकारी दी गयी है।
  4. शारीरस्थानम्: इसमें ८ अध्याय हैं जिसे आज हम शरीर रचना (Anatomy) के रूप में जानते हैं। जैसा कि चरक का मानना था कि बिना शरीर को समझे रोग का निदान नहीं हो सकता है, इसीलिए उन्होंने विशेषरूप से इस भाग की रचना की। इसमें शरीर के हर भाग और मानव शरीर कैसे काम करता है, इसकी जानकारी दी गयी है।
  5. इन्द्रियस्थानम्: इसमें १२ अध्याय हैं जिसे आज हम इंद्री संवेदन रोग निदान (Sensory organ based prognosis) के रूप में जाना जाता है। इसमें विस्तार पूर्वक शरीर की इन्द्रियों और अंगों के बारे में बताया गया है।
  6. चिकित्सास्थानम्: इसमें ३० अध्याय हैं जिसे आधुनिक काल में इसे हम मूल चिकित्सा शास्त्र (Therapeutics) कहते हैं। इसमें रसायन, गुप्तरोग एवं ज्वर चिकित्सा के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
  7. कल्पस्थानम्: इसमें १२ अध्याय हैं जिसे हम औषधि बनाने की विद्या (Pharmaceutics and toxicology) के नाम से जानते हैं। इसमें औषधि बनाने की विद्या और शल्य चिकित्सा के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
  8. सिद्धिस्थानम्: इसमें १२ अध्याय हैं जिसे उपचार सफलता (Success in treatment) के नाम से जाना जाता है जिसमें सभी विषयों का निचोड़ है।
इस प्रकार आप देख सकते हैं कि सहस्त्रों वर्षों पूर्व जो सूत्र चरक ने प्रदान किये थे वो आज आधुनिक काल में भी चिकित्सा शास्त्र के स्तम्भ हैं। कदाचित इसी कारण चरक और चरक संहिता का महत्त्व इतना अधिक है। इसके अतिरिक्त चरक संहिता में स्वप्न फल का भी विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है।

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