जब कर्ण ने स्वर्ण पर्वत का दान दिया

वैसे तो विश्व में अनेकानेक दानवीर हुए हैं किन्तु कर्ण जैसा शायद ही कोई हो। इस लेख में हम दानवीर कर्ण से जुडी एक और कथा के बारे जानेंगे। एक बार कृष्ण पांडवों के साथ भ्रमण पर निकले। चलते-चलते वे चम्पानगरी की सीमा पर पहुँच गए जो कर्ण के अंगदेश की राजधानी थी। तब श्रीकृष्ण ने कहा "आज का दिन वास्तव में शुभ है कि हम महादानी कर्ण के राज्य के समीप आ पहुंचे हैं।" उनके ऐसा कहने पर भीम ने कहा - "हे माधव! कर्ण दानी है इसमें कोई संदेह नहीं किन्तु आप हर बार उसे महादानी क्यों कहते फिरते हैं? वो ऐसा क्या दान कर सकता है जो सम्राट युधिष्ठिर नहीं कर सकते?" 

भीम के ऐसा कहने पर कृष्ण ने अपनी माया से वहाँ उपस्थित एक पर्वत को सोने में बदल दिया और मुस्कुराते हुए कहा "इस गाँव के लोग अत्यंत दरिद्र हैं। आप लोग इस स्वर्ण को उनकी आवश्यकता के अनुसार उनमे बाँट दीजिये।" कृष्ण के ऐसा कहने पर नकुल ने सभी गाँव वालों को एकत्र किया। उन्होंने सोचा कि कृष्ण ने इन्हे आवश्यकता अनुसार स्वर्ण बाँटने को कहा है। इतना धन ये क्या करेंगे? इन्हे जितना स्वर्ण मिल रहा है वो आवश्यकता से अधिक ही है। बचा हुआ स्वर्ण हम इंद्रप्रस्थ ले जाकर प्रजा के कल्याण में लगा सकते हैं। 

ये सोच कर पांडवों ने अपने शस्त्रों से से स्वर्ण काट-काट कर गाँव वालों में बाँटना शुरू किया। उतने बड़े पर्वत को काटना और बाँटना बड़े श्रम का कार्य था। जल्द ही वे श्रमित हो थोड़ा विश्राम करने बैठ गए। तब कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा - "अगर कर्ण होता तो इतना समय नहीं लगता।" इसपर भीम को बड़ा बुरा लगा। उसने सोचा कि कर्ण की भी परीक्षा भी ले ही जाये यही सोच कर उन्होंने एक दूत कर्ण के पास भेजा। 

जब कर्ण को ज्ञात हुआ कि वासुदेव सहित पाँडव उनकी राज्य की सीमा पर आये हैं तो वो तुरंत उनका स्वागत करने वहाँ पहुँचा। उसने सभी का स्वागत किया और उनके जलपान की व्यवस्था करवाई। जब सब थोड़े स्थिर हुए तो उन्होंने उनसे कहा - "आप लोगों ने मेरे राज्य में आकर मेरा सम्मान बढ़ा दिया। कृपया कर कुछ दिन हमारा आथित्य ग्रहण कर हमें कृतार्थ करें।" तब कृष्ण ने कहा - "हे महारथी! आथित्य तो इस समय ग्रहण नहीं कर पाएँगे किन्तु एक समस्या पड़ी है और हम आपसे उसका समाधान चाहते हैं। ये स्वर्ण पर्वत हमें गाँव वालों में आवश्यकता अनुसार बाँटना है। हमें समझ नहीं आ रहा कि इसका दान किस प्रकार करें। आप तो महादानी हैं अतः आप ही इसे उचित रूप से दान कर दें।"

तब कर्ण ने कहा - "माधव! ये संपत्ति मेरी नहीं है इसीलिए इसका दान मैं किस प्रकार कर सकता हूँ।" इस पर कृष्ण ने कहा "कर्ण ये संपत्ति मेरी है और मैं इसे आपको प्रदान करता हूँ ताकि आप इसे उचित रूप से दान कर सकें।" 

ऐसा सुनते ही कर्ण ने आस-पास के गाँवों से सभी दरिद्र एवं निर्धनों को बुलाया और एक क्षण ना सोचते हुए भी उन्होंने सबसे कहा "हे नगरवासियों! श्रीकृष्ण ने इस स्वर्ण पर्वत को दान करने का दायित्व मुझे प्रदान किया है। इसे दान कर मैं केवल कर्तव्य का निर्वहन कर रहा हूँ एवं इस दान का सम्पूर्ण फल श्रीकृष्ण को ही प्राप्त होगा। मैं इसी क्षण इस पूरे स्वर्ण पर्वत को आप सभी को दान करता हूँ। आप लोग ईमानदारी से पर्याप्त स्वर्ण आपस में बाँट लें। अगर कुछ स्वर्ण बच जाये तो उसे अन्य निर्धनों को दान कर दें।"

कर्ण को इस प्रकार पूरा पर्वत अविलम्ब दान करते देख पाँडव आश्चर्यचकित रह गए। तब कृष्ण कर्ण से आज्ञा ले वापस अपने नगर की ओर लौट गए। मार्ग में उन्होंने पाण्डवों को बताया कि - "आप लोगों को अब समझ आ गया होगा कि मैं कर्ण की इतनी प्रशंसा क्यों करता हूँ। अन्य दानवीरों और कर्ण में यही अंतर है। कर्ण स्वभाव से ही दानी है और सोच विचार कर दान नहीं करता। सामान्य मनुष्य संपत्ति रहने पर ये सोच कर दान करता है कि इसके बाद उसके पास क्या बचेगा किन्तु कर्ण की दान प्रवित्ति इतनी तीव्र है कि वो दान के अतिरिक्त और कुछ नहीं सोचता। यही कारण है कि मैं कारण को दानी नहीं अपितु महादानी कहता हूँ।" कृष्ण के ऐसा कहने पांचों पाँडवों ने इनकी बात का अनुमोदन किया और कर्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

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