महाराज सगर

महाराज सगर
राजा सगर भगवान श्रीराम के पूर्वज थे। इन्ही के पुत्रों की गलती के कारण माता गंगा को पृथ्वी पर आना पड़ा था। इनकी कथा हमें रामायण के बालकाण्ड के सर्ग ३८ में मिलती है जब महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को माता गंगा की उत्पत्ति की कथा सुना रहे होते हैं।

इस कथा के अनुसार सूर्यवंश में बाहुक नाम के राजा अपनी पत्नी यादवी के साथ हैहयों के आक्रमण से बचने के लिए इधर-उधर भटक रहे थे। यादवी जब ७ महीने की गर्भवती थी तब बाहुक की दूसरी पत्नी ने ईर्ष्या में आकर उन्हें जहर दे दिया जिससे ७ वर्षों तक उन्हें प्रसव नहीं हुआ। तब से दोनों इधर-उधर भटक रहे थे। 

भटकते हुए एक दिन वे दोनों महर्षि और्व के आश्रम में पहुंच जहाँ पर महाराज बाहुक की मृत्यु हो गयी। यादवी अपने पति के साथ सती होना चाहती थी किन्तु उनके गर्भवती होने के कारण ऋषि और्व ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। बाद में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। चूँकि वो बालक जहर अर्थात गरल के साथ पैदा हुआ था इस कारण महर्षि और्व ने उसका नाम 'सगर' रख दिया। 

राजा सगर बहुत प्रतापी नरेश बनें और हैहयवंशी राजा तालजंघ से युद्ध कर उन्होंने अपने राज्य को पुनः प्राप्त किया। किन्तु उनकी कोई संतान नहीं थी। इसीलिए वे सदैव पुत्र प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहा करते थे। उनकी दो पत्नियां थी - पहली विदर्भ देश की राजकुमारी केशिनी और दूसरी महर्षि कश्यप की पुत्री सुमति। पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर महाराज सगर अपनी दोनों पत्नियों के साथ हिमालय पर्वत के भृगुप्रश्वन नाम के शिखर पर तपस्या करने लगे।

१०० वर्षों की घोर तपस्या के बाद ब्रह्मा पुत्र महर्षि भृगु ने उन्हें दर्शन दिए और ये वर दिया कि तुम्हारी एक पत्नी को वंश को बढ़ाने वाला एक पुत्र होगा और दूसरी रानी को ६०००० पुत्र प्राप्त होंगे। अब बताओ तुम दोनों में से कौन १ और कौन ६०००० पुत्र चाहती हो। ये सुनकर महारानी केशिनी ने १ और सुमति ने ६०००० पुत्रों की माता होना स्वीकार किया।

समय आने पर केशिनी ने महाराज सगर के ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज को जन्म दिया। सुमति ने एक पिंड का प्रसव किया जिसे फोड़ने पर ६०००० बालक निकले। उन सभी को घी से भरे एक घड़े में रखकर सुमति उनका पालन करने लगी। समय आने पर वे सभी स्वस्थ और युवा हो गए।

महाराज सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज उद्दंड निकला। वो बालकों को बलपूर्वक सरयू नदी के जल में फेंक देता था और उनकी ओर देख कर हंसा करता था। जब उसकी उद्दंडता हद से अधिक बढ़ गयी तो महाराज सगर ने उसे नगर से बाहर निकाल दिया। उस समय तक असमञ्ज का विवाह हो गया था और उसका एक पुत्र था अंशुमान जो बहुत ही पराक्रमी और सच्चरित्र था। वो अपनी माता अम्बुजाक्षी के साथ महाराज सगर के पास ही रहा।

कुछ समय बाद महाराज सगर को एक महान यज्ञ करने की इच्छा हुई। तब उन्होंने हिमालय और विंध्य पर्वत के बीच अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसकी रक्षा का भार महाराज सगर के पोते अंशुमान को दिया गया। किन्तु जिस दिन यज्ञ शुरू हुआ उसी दिन देवराज इंद्र ने एक राक्षस का भेस बना कर यज्ञ के घोड़े को चुरा लिया। तब महाराज सगर ने अपने ६०००० पुत्रों को उस घोड़े की खोज में जाने को कहा। चूँकि वे यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे इसीलिए वे स्वयं उस घोड़े को खोजने नहीं जा सकते थे।

ये उनकर वे सभी ६०००० राजकुमारों ने सारी पृथ्वी को १-१ योजन में बाँट लिया और फिर उसे खोदने लगे। इस प्रकार उन्होंने ६०००० योजन की पूरी भूमि खोद डाली। इससे बहुत से जलचर और अन्य प्राणी मरने लगे। उन सबके इस प्रकार खोदे जाने पर पृथ्वी को बड़ा कष्ट हुआ। तब वे देवताओं को लेकर ब्रह्माजी के पास गयी और इस समस्या का समाधान करने को कहा। तब ब्रह्माजी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि भगवान श्रीहरि के अंशावतार कपिल मुनि इन सबको दंड देंगे।

उधर सारी पृथ्वी खोदने के बाद भी जब सगरपुत्रों को घोडा नहीं मिला तो वे वापस अपने पिता के पास आये और उन्हें ये बात बताई। इसपर महराज सगर ने क्रोधित होकर उन सबको फिर से घोड़े की खोज में वापस भेजा। तब वे सभी पूर्व दिशा की भूमि को पुनः खोदने लगे और रसातल तक पहुँच गए। वहां उन्होंने एक महान दिग्गज (हाथी) को देखा जिसका नाम था विरुपाक्ष। उन्होंने पूर्व दिशा की पूरी धरती को अपने मस्तक पर उठा रखा था। उन सभी ने विरुपाक्ष को प्रणाम किया और आगे बढे।

अब वे सभी दक्षिण दिशा की भूमि को खोदने लगे। वहां उन्हें एक और दिग्गज दिखा जिसका नाम था महापद्म। उन्हें भी प्रणाम कर वे सभी पश्चिम दिशा की भूमि को खोदने लगे। उस दिशा में उन्हें सौमनस नाम के महान दिग्गज के दर्शन हुए। उनकी प्ररिक्रमा कर वे सभी उत्तर दिशा की भूमि को खोदने लगे जहाँ उन्हें श्वेतभद्र नाम के महान दिग्गज के दर्शन हुए। उनकी परिक्रमा कर अब सगर पुत्रों ने उत्तरपूर्वी भूमि को खोदना आरम्भ किया।

वहां उन्हें प्रजापति कर्दम के पुत्र भगवान कपिल के दर्शन हुए। उन्ही के बगल में सगर पुत्रों को यज्ञ का अश्व भी चरता हुआ दिखा। उसे देख कर सगरपुत्रों को बड़ा हर्ष हुआ और कपिल मुनि को ही उन्होंने अश्व को चुराने वाला समझ लिया। इसी अज्ञानता में उन सबने कपिल मुनि पर ही आक्रमण कर दिया। तब क्रोध में आकर कपिल मुनि ने अपनी एक ही दृष्टि से उन ६०००० राजकुमारों को भस्म कर दिया।

इसके बाद विलम्ब होता देख कर महाराज सगर ने अपने पोते अंशुमान को उन सभी की खोज करने को भेजा। अंशुमान ने अपने चाचाओं द्वारा बनाये मार्ग का ही अनुसरण किया और उन्होंने भी उन चार महान दिग्गजों के दर्शन किये। उन सभी ने अंशुमान को आशीर्वाद दिया और सही मार्ग बताया। उस मार्ग पर चल कर अंशुमान अंततः उसी स्थान पर पहुंचे जहाँ पर कपिल मुनि ने सभी राजकुमारों को भस्म किया था।

वहां पर उसने अपने चाचाओं के राख के ढेर देखा जिसे देख कर उसे बड़ा दुःख हुआ। वहीँ पर अंशुमान को वो अश्व भी दिखा। वो अपने मृत चाचाओं को जलांजलि देना चाहते थे किन्तु वहां कहीं भी उन्हें जल नहीं दिखा। ये देख कर मारे दुःख के वे रोने लगे। तब पक्षीराज गरुड़ वहां आये और उन्होंने कहा कि इनकी मुक्ति लौकिक जल से नहीं बल्कि अलौकिक जल से ही संभव है। इसीलिए गंगाजी को प्रसन्न करो। उन्ही के जल से इन सब की मुक्ति हो सकती है।

तब अंशुमान उस घोड़े को लेकर वापस आये और महाराज सगर को सारी बातें बताई। ये सुन कर महाराज सगर को अपार दुःख हुआ किन्तु फिर भी उन्होंने वो यज्ञ पूरा किया। फिर उन्होंने गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई प्रयास किये पर सफल नहीं हुए और ३०००० वर्षों तक शासन करने के बाद उनकी मृत्यु हुई।

उनके बाद अंशुमान राजा बनें और अपने चाचाओं की मुक्ति के लिए उन्होंने ३२००० वर्षों तक घोर तपस्या की और अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए। उसके बाद अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी अपने पितामहों के उद्धार के लिए ३०००० वर्षों तक तप किया और मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके बाद उनके पुत्र भगीरथ ने गोकर्ण में जाकर १००० वर्ष की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने का वर दिया।

लेकिन गंगा के प्रचंड वेग को रोकना केवल महादेव के लिए ही संभव था इसीलिए भगीरथ ने उनकी भी १ वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर तपस्या की। अंततः महादेव गंगा को धारण करने के लिए मान गए और महाराज सगर की तीन पीढ़ियों के बलिदान के बाद चौथी पीढ़ी के भगीरथ अंततः गंगाजी को पृथ्वी पर लाने में सफल रहे। महाराज के बड़े पुत्र असमञ्ज बारे में अधिक वर्णन नहीं मिलता है। 

जैन धर्म में भी महाराज सगर का वर्णन मिलता है जो थोड़ा अलग है। वहां उन्हें जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ का छोटा भाई बताया गया है। वहां उनके माता पिता का नाम जितशत्रु और वैजयंती बताया गया है। जैन धर्म के अनुसार सगर एक चक्रवर्ती थे और उनकी दो रानियां थी - सुमति और भद्रा। 

जैन ग्रन्थ के अनुसार भी उनके ६०००० पुत्रों का वर्णन मिलता है जिनमें से ज्येष्ठ थे जन्हु। जन्हु ने नाग साम्राज्य को गंगा में डुबा दिया जिससे क्रोधित होकर नाग सम्राट ने सगर के ६०००० पुत्रों को भस्म कर दिया। बाद में महाराज सगर ने अपने पोते भगीरथ को राज्य सौंपा और स्वयं अपनी पत्नियों सहित तपस्या को चले गए। 

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