धर्मव्रता

धर्मव्रता
धर्मव्रता सप्तर्षियों में से प्रथम महर्षि मरीचि की धर्मपत्नी है। पुराणों में महर्षि मरीचि की तीन पत्नियों का वर्णन है। उनकी एक पत्नी प्रजापति दक्ष की कन्या सम्भूति थी। उनकी दूसरी पत्नी का नाम कला था और तीसरी पत्नी धर्मराज की कन्या ऊर्णा थी। ऊर्णा को ही धर्मव्रता कहा जाता है। इनकी माता का नाम विश्वरूप बताया गया है। जब धर्मव्रता बड़ी हुई तो उसके पिता धर्मराज ने उसके लिए योग्य वर ढूँढना चाहा किन्तु अपनी पुत्री के लिए उन्हें कोई योग्य वर नहीं मिला। तब धर्मराज ने अपनी पुत्री को वर प्राप्ति हेतु तपस्या करने को कहा।

अपने पिता की आज्ञा अनुसार धर्मव्रता वन में जाकर वर प्राप्ति हेतु तपस्या करने लगी। उसी समय भ्रमण करते हुए महर्षि मरीचि वहाँ आ पहुँचे। एक सुन्दर कन्या को इस प्रकार गहन वन में तपस्या करते देख उन्होंने उससे उसका परिचय पूछा। तब धर्मव्रता ने बताया कि वो धर्मराज की कन्या ऊर्णा है और वर प्राप्ति हेतु यहाँ इस जंगल में तपस्या कर रही है। तब महर्षि मरीचि ने कहा कि - "हे सुंदरी! मैं भी विवाह हेतु एक सर्वगुण संपन्न कन्या को ढूंढता फिर रहा हूँ किन्तु आज तक मुझे ऐसी कोई कन्या नहीं दिखी। किन्तु तुम्हे देख कर मुझे लगता है कि हम दोनों का संयोग अत्यंत ही शुभ होगा। अतः अगर तुम उचित समझो तो मुझसे विवाह कर लो।"

तब धर्मव्रता ने पूछा - "हे पुरुषश्रेष्ठ! तेज में स्वयं देवताओं को भी पीछे छोड़ने वाले आप कौन हैं? कृपया अपना परिचय दीजिये।" तब महर्षि मरीचि ने कहा - "भद्रे! मैं परमपिता ब्रह्मा का मानस पुत्र और सप्तर्षियों में से एक मरीचि हूँ। मेरा कुल और गोत्र सर्वथा तुम्हारे योग्य है। हम दोनों का संयोग निश्चय ही जगत को सुख देने वाला होगा। अतः तुम मुझसे विवाह कर लो।" तब धर्मव्रता ने उनसे कहा - "हे महर्षि! मैं आपसे विवाह कर अत्यंत प्रसन्न होउंगी किन्तु इस समय मैं अपने पिता के अधीन हूँ। इसीलिए आप कृपया मेरे पिता धर्मराज के पास जाइये और उनसे मेरा दान मांगिये। यदि उनकी सहमति मिल गयी तब ही मैं आपसे विवाह कर सकती हूँ।"

ये सुनकर महर्षि मरीचि उसे वही छोड़ कर तत्काल उसके पिता धर्मराज के पास पहुंचे। जब धर्मराज ने स्वयं ब्रह्मापुत्र महर्षि मरीचि को अपने यहाँ आया देखा तो तत्काल उनके स्वागत के लिए द्वार पर आये। उन्होंने अर्ध्य-पान से उनका स्वागत किया और उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब महर्षि मरीचि ने कहा - "हे धर्मराज! मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी पुत्री धर्मव्रता के लिए एक योग्य वर की खोज कर रहे हैं। मैं भी अभी आपकी पुत्री से ही मिल कर आ रहा हूँ जो वर प्राप्ति के लिए पृथ्वी पर घोर तपस्या कर रही है। मैं भी बहुत काल से एक योग्य पत्नी की तलाश में पूरी पृथ्वी का भ्रमण कर रहा हूँ किन्तु आज तक मुझे अपने योग्य कोई कन्या ना मिली। किन्तु आपकी कन्या कसे मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरी खोज पूर्ण हो गयी। अतः अगर आप उचित समझे तो अपनी कन्या का विवाह मुझसे कर दीजिये।"

ये सुनकर धर्मराज की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उन्होंने प्रसन्न होते हुए कहा - "हे महर्षि! ये तो मेरी पुत्री का सौभाग्य है कि उसे पति के रूप में परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र प्राप्त होने वाले हैं। अपनी पुत्री के लिए आपसे योग्य वर मुझे तो कही नहीं दीखता। अतः मैं प्रसन्नतापूर्वक आपको अपनी पुत्री का दान देता हूँ। उसके बाद धर्मराज ने अपनी पुत्री को अपने पास बुलाया और शुभ मुहूर्त देख कर दोनों का विवाह कर दिया। समस्त देवता परमपिता ब्रह्मा सहित उस विवाह में सम्मलित हुए। फिर धर्मव्रता विदा होकर अपने पति के साथ मेरु पर्वत पर स्थित उनके आश्रम में चली आयी। जिस प्रकार भगवान विष्णु के संग देवी लक्ष्मी स्वछन्द विचरण करती हैं, उसी प्रकार धर्मव्रता सुख पूर्वक अपने पति के संग रहने लगी।

विवाह के पश्चात कुछ काल उन्होंने बड़े सुख से बिताया। कुछ दिन के पश्चात एक दिन महर्षि मरीचि कही बाहर से अपने आश्रम आये। वे बड़े श्रमित थे और उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। वे आते ही शैय्या पर लेट गए और धर्मव्रता से कहा - "प्रिये! आज मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है और मैं बहुत थका हुआ भी हूँ। मैं विश्राम करता हूँ और तुम कृपया मेरी पाद-सेवा करो। जब तक मैं सोकर ना उठूं, तुम उसी प्रकार मेरी पाद-सेवा करती रहना।" अपने पति को ऐसा कहता देख कर धर्मव्रता प्रसन्नतापूर्वक उनकी चरण-सेवा करने लगी और उनकी सेवा से संतुष्ट होकर महर्षि मरीचि गहरी नींद में सो गए। अभी कुछ ही समय हुआ था कि अकस्मात् परमपिता ब्रह्मा स्वयं अपने पुत्र से मिलने मेरु पर्वत पर पधारे। वे महर्षि मरीचि के आश्रम के द्वार पर ही खड़े होकर अपने पुत्र या पुत्रवधु की प्रतीक्षा करने लगे।

जब धर्मव्रता ने देखा कि उनके स्वसुर एवं जगत के स्वामी भगवान ब्रह्मा स्वयं उनके आश्रम पधारे हैं और द्वार पर खड़े हैं तो वे बड़े धर्मसंकट में पड़ गयी। अगर वे अपने पति को छोड़ कर अपने स्वसुर के स्वागत को जाती तो उनके पति के आदेश की अवहेलना होती। अगर वो ना जाती तो उनके स्वसुर का अपमान होता। वे कुछ समय तक ये सोचती रही कि वे क्या करे? थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि ब्रह्मदेव उनके पति के पिता है इसीलिए सम्मान पर उनका अधिकार अधिक है। इसके अतिरिक्त वे सृष्टिकर्ता हैं और तीनों लोकों के स्वामी भी। उस अधिकार से भी स्वागत और सम्मान पर ब्रह्मदेव का अधिकार उनके पति से अधिक है। साथ ही साथ वे इस समय अतिथि भी है और गृहस्थ धर्म के अनुसार उनकी सेवा करना उनका कर्तव्य है। 

ये सोच कर धर्मव्रता महर्षि मरीचि की पाद-सेवा छोड़ कर ब्रह्मदेव के स्वागत को आश्रम के द्वार तक आयी और उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात उन्होंने ब्रह्मदेव को आसान प्रदान किया और उनके जलपान की व्यवस्था करने लगी। ठीक उसी समय महर्षि मरीचि की निद्रा टूटी। अपनी पत्नी को वहाँ ना देख कर उन्हें बड़ा क्रोध आया और दैवयोग से उनके मन में संदेह भी उत्पन्न हो गया कि इस प्रकार उन्हें छोड़ कर उनकी पत्नी कहाँ और किसके साथ चली गयी। उसी संदेह और क्रोध में महर्षि मरीचि ने बिना सत्य को जाने ही धर्मव्रता को शिला में बदल जाने का श्राप दे दिया। जब धर्मव्रता ने ये सुना तो उनके शोक की सीमा ना रही। वे महर्षि मरीचि के पास गयी और उन्हें रोषपूर्ण स्वर में कहा - "स्वामी! मैंने सारा जीवन आपका अनुसरण किया और आपकी इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं किया किन्तु फिर भी आज आपने बिना सत्यता को जाने मुझे ऐसा भीषण श्राप दे दिया। आपने निश्चय ही मेरे साथ अन्याय किया है इसीलिए मैं भी आपको श्राप देती हूँ कि आपको स्वयं महादेव का श्राप झेलना होगा।"

जब महर्षि मरीचि को सत्यता का पता चला तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उधर ब्रह्मदेव भी दोनों का व्यहवार देख कर बड़े दुखी हुए। उन्होंने दुखी स्वर में मरीचि से कहा - "पुत्र! तुम तो स्वयं ज्ञानी हो फिर किस प्रकार तुमने बिना सत्य को जाने अपनी पत्नी को श्राप दे दिया? यदि तुम चाहते तो अपनी दिव्य दृष्टि से सत्य का पता लगा सकते थे।" फिर उन्होंने धर्मव्रता से कहा - "पुत्री! स्त्री तो सहनशीलता का प्रतीक होती है। ये सत्य है कि मेरे पुत्र ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है किन्तु तुमने भी बिना सोचे समझे उसे वापस श्राप दे दिया। यदि तुम मुझसे कहती तो मैं तुम्हे श्राप से मुक्ति दिलवा सकता था किन्तु अब तुम दोनों का प्रायश्चित यही है कि दोनों अपने भाग का श्राप भोगो।"

धर्मव्रता और महर्षि मरीचि दोनों श्राप पाने के बाद ब्रह्मदेव से पूछते हैं कि अब उन्हें क्या करना चाहिए। तब परमपिता उन्हें तप करने का आदेश देकर वहाँ से चले गए। उनके आदेशानुसार धर्मव्रता और महर्षि मरीचि घोर तप में लीन हो जाते हैं। महर्षि मरीचि भगवान शंकर की और धर्मव्रता भगवान विष्णु की तपस्या करने लगे। धर्मव्रता सती थी और निर्दोष होकर भी श्राप पाने के कारण अत्यंत व्यथित भी। उन्होंने ऐसा भीषण तप किया कि उसके ताप से समस्त विश्व जलने लगा। धर्मव्रता के तप की ऊष्मा बढ़ते हुए स्वर्गलोक तक जा पहुँची। उन्हें ऐसा भीषण तप करते देख देवराज इंद्र और समस्त देवता घबरा गए। उससे मुक्ति का उपाय जानने सभी देवता भगवान विष्णु के शरण में गए और उनसे सहायता की गुहार लगाई। 

तब श्रीहरि ने अंततः धर्मव्रत को दर्शन दिए। धर्मव्रता उन्हें देखकर आत्मविभोर हो गयी और उन्हें प्रणाम किया। तब श्रीहरि ने उनसे पूछा कि वो ऐसा कठिन तप क्यों कर रही है। इसपर धर्मव्रता ने कहा - "प्रभु! आप तो सब जानते ही है। मेरे पति ने मुझ निरपराध को शिला हो जाने का श्राप दे दिया। मेरी आपसे विनती है कि आप मुझे इस श्राप से मुक्ति दे दीजिये।" तब नारायण ने कहा - "हे देवी! तुम्हारे पति ब्रह्मापुत्र हैं और साथ ही सप्तर्षि भी अतः उनके श्राप का पूर्ण निराकरण कर देना उचित नहीं होगा। किन्तु मैं कुछ ऐसा कर सकता हूँ कि ये श्राप तुम्हारे लिए वरदान बन जाये। मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि तुम जिस शिला में परिणत होगी वो अत्यंत ही पवित्र होगी। समस्त देवता सहित स्वयं मैं, ब्रह्मदेव और महादेव उसपर आसीन होंगे। कालांतर में तुम गयासुर के सर पर रखी जाओगी।"

तब धर्मव्रता ने एक वरदान और माँगा कि जो कोई भी मेरा स्पर्श करे उसे स्वर्ग प्राप्त हो। श्रीहरि ने ये वरदान भी दे दिया और बैकुंठ पधारे। उनके आशीर्वाद से धर्मव्रता एक अत्यंत पवित्र शिला में परिणत हो गयी और जो कोई भी उसे स्पर्श करता वो सीधा स्वर्गलोक जाता था। धीरे-धीरे ये बात प्रसिद्ध हो गयी और सभी प्राणी शिला रुपी धर्मव्रता को स्पर्श कर स्वर्गलोक जाने लगे। ऐसा होने से सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया और यमपुरी खाली हो गयी। तब धर्मराज परमपिता ब्रह्मा के पास गए और उनसे इस समस्या का हल पूछा। इसपर ब्रह्मदेव ने कहा - "हे धर्मराज! धर्मव्रता स्वयं तुम्हारी पुत्री है और नारायण के दिए वरदान के कारण ही ऐसा हो रहा है। अब नारायण का वरदान तो व्यर्थ नहीं जा सकता किन्तु हम प्राणियों को उससे वंचित अवश्य कर सकते हैं। तुम उसके पिता हो अतः तुम्ही उसे अपने पास यमपुरी में रख लो।"

ब्रह्मदेव की आज्ञा से धर्मराज ने शिलरूपी अपनी पुत्री को अपने पास धर्मपुरी में रख लिया जिससे सृष्टि का संतुलन पुनः स्थापित हुआ। कालांतर में यही महान पवित्र शिला गयासुर को स्थिर करने हेतु उसके सर पर रखी गयी। आज बिहार में स्थित तो अति पवित्र गया नामक स्थान है वो भी गयासुर के नाम पर ही पड़ा है और ये शिला वहाँ आज भी देखी जा सकती है।

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