माद्री

माद्री
आज पंजाब में जिस स्थान पर रावी और चिनाब नदियों का मिलन होता है उसे ही पहले मद्रदेश कहा जाता था। वहाँ के एक राजा थे भगवान, जिन्होंने लम्बे समय तक मद्र पर शासन किया। मद्रदेश उस समय आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली राज्यों में से एक माना जाता था। उनकी दो संतानें थी, एक पुत्र और एक पुत्री। पुत्र का नाम शल्य और पुत्री का नाम माद्री था।

कहा जाता है कि माद्री उस समय आर्यावर्त की सबसे सुन्दर राजकुमारियों में से एक थी। उसके सौंदर्य की गाथा देश-विदेशों तक फैली हुई थी। महाराज भगवान के बाद शल्य ने शासन संभाला। माद्री के संग विवाह के लिए देश-विदेशों से कई राजाओं ने अनुरोध किया किन्तु शल्य ने ना उसका विवाह करवाया और ना ही उसके स्वयंवर का आयोजन किया। 

उसी समय दूसरी और हस्तिनापुर का प्रभाव पूरे आर्यावर्त में था। अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता के कारण पाण्डु राजा बने। उन्होंने कुन्तिभोज की कन्या कुंती से विवाह किया और राजा बनने के बाद वे अपने तात भीष्म की आज्ञा लेकर दिग्विजय के लिए निकले। वैसे ही पूरा आर्यावर्त भीष्म के पराक्रम से घबराता था। उसके ऊपर पाण्डु ने अपने शौर्य से अधिकतर राजाओं को अधीनता स्वीकार करने को विवश कर दिया। 

अपने दिग्विजय के दौरान पाण्डु मद्रदेश पहुँचे। वहाँ उन्होंने शल्य को अधीनता स्वीकार करने को कहा किन्तु उन्होंने युद्ध करना स्वीकार किया। शल्य महारथी थे किन्तु हस्तिनापुर की सेना का सामना अधिक देर तक नहीं कर सके और पराजित हुए। उन्हें पराजित करने के बाद भी पाण्डु ने उन्हें बड़े आदर के साथ मद्रदेश की सत्ता सँभालने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका ऐसा व्यहवार देख कर शल्य ने अपनी बहन माद्री का विवाह पाण्डु के साथ कर दिया। 

एक अन्य कथा के अनुसार माद्री के गुणों की चर्चा सुनकर स्वयं भीष्म पाण्डु के लिए माद्री को मांगने मद्रदेश पहुँचे। हस्तिनापुर की ओर से रिश्ता आने पर शल्य बड़े प्रसन्न हुए किन्तु उन्होंने भीष्म को अपने देश की एक प्रथा बताई। उन्होंने भीष्म से कहा - "हे महावीर! आप हस्तिनापुर नरेश के विवाह का प्रस्ताव लेकर मद्रदेश पधारे हैं ये हमारे लिए अत्यंत गौरव का विषय है किन्तु हमारी एक प्रथा है कि हम कन्या उसी राजा को देते हैं जो यथोचित उपहार के साथ आकर कन्या का हाथ हमसे माँगता है। चूँकि आपने ऐसा नहीं किया इसी कारण हम माद्री का विवाह पाण्डु से नहीं कर सकते।"

ऐसा सुनकर भीष्म तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। उसके उलट उन्होंने शल्य की स्पष्टवादिता की प्रशंसा की। उन्होंने तत्काल हस्तिनापुर से बहुत सारे मणि, माणिक्य, आभूषण, गज, अश्व इत्यादि मंगाए और तब फिर पाण्डु के लिए माद्री को शल्य से माँगा। ऐसा देख कर शल्य बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने माद्री को भीष्म के साथ हस्तिनापुर विदा किया। बाद में पाण्डु और माद्री का विवाह हुआ।

जिस समय पाण्डु का विवाह माद्री के साथ हुआ उस समय तक पाण्डु अपनी पहली पत्नी कुंती के साथ अपने गृहस्थ जीवन का आरम्भ भी नहीं कर पाए थे। यही कारण है कि कई ग्रंथों में कुंती और माद्री के बीच वैमनस्व होने की बात बताई जाती है। हालाँकि अधिकतर ग्रंथों में दोनों के बीच आदर्श सामंजस्य होने के बारे में कहा जाता है। ये भी कहा जाता है कि माद्री कुंती का बहुत आदर करती थी और उनके परामर्श अनुसार ही वे अपनी गृहस्थी संभालती थी।

अपने दिग्विजय से लौट कर पाण्डु ने अपनी नवविवाहिता पत्नियों के साथ एकांतवास में जाने का निर्णय लिया। भीष्म ने भी उनके इस निर्णय का अनुमोदन किया। तब धृतराष्ट्र को कार्यकारी राजा बना कर पाण्डु कुंती और माद्री के साथ वन में एकांतवास को चले गए। जब ऋषियों को ये पता चला कि महाराज पाण्डु अपनी पत्नियों सहित वन पधारे हैं तो उन्होंने उनका बड़ा स्वागत किया। वहाँ पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ किंदम ऋषि के आश्रम में रुके। वहीँ पर एक ऐसी घटना घटी जिसने उनके जीवन को झकझोर कर रख दिया।

वहाँ तीनों कुछ दिन प्रसन्नतापूर्वक बिताते हैं। एक दिन महाराज पाण्डु आखेट के लिए वन जाते हैं। वहाँ उन्हें मृगों का एक जोड़ा दिखता है और वे उसके पीछे जाते हैं। काफी देर पीछा करने के बाद आखिर वे मृग उन्हें दिख जाते हैं और वे अपने तीक्ष्ण बाणों से दोनों को भेद देते हैं। किन्तु उनका बाण लगते ही वे दोनों मृग मनुष्य के स्वर में विलाप करते हैं। ये देख कर पाण्डु बड़े आश्चर्यचकित होते हैं और उनके निकट जाते हैं। 

जब वे वहाँ पहुंचे उन्होंने देखा कि किंदम ऋषि और उनकी पत्नी उनके बाणों से हताहत हैं और उनके प्राण छूटने ही वाले हैं। वे दोनों ही मृगों के रूप में समागम कर रहे थे। ये देख कर पाण्डु उनसे क्षमा मांगते हैं किन्तु किंदम ऋषि उनकी भर्त्स्यना करते हुए कहते हैं - "हे राजन! हमने आपको आश्रय दिया और आपने हमें ही क्षति पहुंचाई। इसीलिए मृत्यु की इस वेला में मैं आपको श्राप देता हूँ कि इस क्षण से आप किसी स्त्री के साथ संसर्ग नहीं कर सकेंगे। अगर आपने ऐसा किया तो उसी क्षण आपकी मृत्यु हो जाएगी।"

युवावस्था में ही ऐसा श्राप मिलने के बाद पाण्डु कुंती और माद्री के साथ हस्तिनापुर लौट गए। वहाँ उन्होंने भीष्म और धृतराष्ट्र को ये बात बताई और सदा के लिए सन्यास ग्रहण करने की घोषणा कर दी। फिर उन्होंने धृतराष्ट्र का राज्याभिषेक कर वन की ओर प्रस्थान किया। तब कुंती और माद्री ने भी उनका अनुसरण किया। उन्होंने दोनों को बड़ा समझाना चाहा किन्तु देवी सीता की भांति ही दोनों अपने पति के साथ वन गयी जहाँ वे तीनों ऋषियों के संसर्ग में सन्यास आश्रम का अनुसरण करने लगे। 

पाण्डु को सदा इस बात की चिंता सताती थी कि उनका वंश चलाने वाला कोई और नहीं है और अब हो भी नहीं सकता है। उन्हें इस प्रकार दुखी देख कर कुंती ने उन्हें महर्षि दुर्वासा के द्वारा प्राप्त वरदान के बारे में बताया जिसके प्रभाव से वे किसी भी देवता को बुला कर उनसे संतान प्राप्त कर सकती थी। ये सुनकर पाण्डु की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उन्होंने कुंती से उस वरदान का उपयोग करने को कहा और धर्मराज से युधिष्ठिर, वायुदेव से भीम और इंद्रदेव से अर्जुन नामक तीन पुत्र प्राप्त किये। 

ये देख कर माद्री को प्रसन्नता तो हुई किन्तु दुःख भी बहुत हुआ कि वो मातृत्व सुख कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगी। उन्होंने अपनी व्यथा पाण्डु और कुंती को बताई। उन्होंने कहा कि - "स्वामी! आप पर जो बीती है वो मैं जानती हूँ। किन्तु उसके बाद भी दीदी ने वरदान के कारण पुत्रवती होने का सौभाग्य प्राप्त किया है। ये तीनों बालक मुझे अपने पुत्रों के समान ही प्रिय हैं किन्तु ये भी सत्य है कि मुझे कभी मातृत्व सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। मुझे सदैव वन्ध्या का लांछन लेकर ही जीवित रहना पड़ेगा।"

ये सुनकर कुंती ने माद्री को भी उस मन्त्र की विद्या प्रदान की जिससे माद्री ने अश्विनीकुमारों से नकुल एवं सहदेव नामक जुड़वें पुत्र प्राप्त किये। पाण्डु के पुत्र होने के कारण पांचों पांडव कहलाये। अब तो तीनों अपने पांचों पुत्रों पुत्रों के साथ सुख पूर्वक रहने लगे। पांचों पुत्रों पर कुंती का प्रभाव अधिक था इसीलिए वे उनसे ही अधिक हिल-मिल कर रहते थे। माद्री संयमपूर्वक पाण्डु की सेवा में लगी रहती थी।

जब युधिष्ठिर १२ वर्ष के हुए तब एक दिन माद्री स्नान करने नदी तट को गयी। दैववश पाण्डु भी वही आ पहुंचे। माद्री का अप्रतिम सौंदर्य देख कर उस दिन उनका संयम टूट गया। काम का वेग कुछ ऐसा था कि माद्री भी स्वयं को रोक ना सकी। जैसे ही पाण्डु ने कामभाव से माद्री को स्पर्श किया, किंदम ऋषि का श्राप फलीभूत हो गया और वो तक्षण मृत्यु को प्राप्त हो गए।

जब माद्री ने ऐसा देखा तो वही बैठी विलाप करती रही। जब कुंती को इस बात का पता चला तो वो अपने पुत्रों के साथ वहाँ पहुँची। वहाँ के ऋषि-मुनियों ने ही पाण्डु के अंतिम संस्कार का प्रबंध किया। जब उन्हें मुखाग्नि देने का समय आया तो माद्री ने उनके साथ सती होने का निर्णय किया। कुंती और ऋषियों ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु वे स्वयं को पाण्डु की मृत्यु का उत्तरदायी समझती थी। उस अपराधबोध के साथ जीवित रहना उन्हें असंभव लगा और उन्होंने अपना निर्णय नहीं बदला। 

उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को कुंती को सौंपा और पाण्डु के साथ ही सती हो गयी। जब शल्य को अपनी बहन की मृत्यु का समाचार मिला तो वे बड़े दुखी हुए। उन्होंने आजीवन कुंती और अपने भांजों की सहायता की। हालाँकि जब उन्हें शल्य की सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता थी तब वे दुर्योधन के छल के कारण उनकी सहायता नहीं कर पाए। महाभारत में ये किसी स्त्री की सती होने की एकमात्र घटना है। यही कारण है कि माद्री के सतीत्व का महत्त्व बहुत अधिक है।

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