अतिकाय

अतिकाय
हम सबने रावण के ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद के विषय में जरूर पढ़ा होगा किन्तु रावण के दूसरे पुत्र अतिकाय के विषय में अधिक जानकारी नहीं दी गयी है। इस लेख में रावण के दूसरे पुत्र अतिकाय के विषय में बताया जाएगा। वो रावण के ७ पुत्रों में से एक था जो मंदोदरी से उत्पन्न हुआ था। हालाँकि कई ग्रंथों में रावण की दूसरी पत्नी धन्यमालिनी को अतिकाय की माता बताया जाता है। धन्यमालिनी मंदोदरी की छोटी बहन थी जो मय दानव और हेमा अप्सरा की पुत्री थी।

मेघनाद जैसे पराक्रमी पुत्र को प्राप्त करने के बाद रावण ने एक और महापराक्रमी पुत्र की कामना से भगवान रूद्र की आराधना की। उनकी कृपा से रावण को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जो जन्म लेते ही पर्वताकार आकार का हो गया। उसका इतना विशाल रूप देख कर रावण ने उसका नाम अतिकाय (विशाल काया वाला) रखा। कहा जाता है कि अतिकाय आकार में जांबवंत जी के समान और अपने चाचा कुम्भकर्ण से थोड़ा ही छोटा था।

जब उसका जन्म हुआ तो उसने भयंकर गर्जना की। उस गर्जना को सुनकर स्वर्ग में देवता तक भयभीत हो गए। सब देवता परमपिता ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि पहले से ही रावण और कुम्भकर्ण के अत्याचारों से हम आक्रांत हैं और अब इतना महाकाय राक्षस भी उन्ही के कुल में जन्मा है। इसके वध का क्या उपाय है? तब ब्रह्मदेव ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि समय आने पर भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के छोटे भाई के द्वारा इस राक्षस का वध होगा।

जब अतिकाय युवा हुआ और हर तरह की युद्धकला में प्रवीण हो गया तब उसने एक दिन अपने पिता को महारुद्र की पूजा करते हुए देखा। तब उसने रावण से पूछा - "हे पिताश्री! आप ये किसकी पूजा कर रहे है? आपने तो देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर सब पर विजय पायी है। आप तो स्वयं तीनों लोकों में अजेय हैं फिर आपको किसी की पूजा करने की क्या आवश्यकता?"

तब रावण ने कहा - "पुत्र! ये महारुद्र है जो कैलाश पर निवास करते हैं। इन्होने सर्वप्रथम मुझे खेल-खेल में ही परास्त कर दिया था। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं जो इनके पराक्रम का क्षण भर भी सामना कर सके। मुझे तो दिव्यास्त्र प्राप्त हुए है और उससे भी घातक मेरे पास जो चन्द्रहास खड्ग है वो भी इन्ही की कृपा से प्राप्त हुआ है। तुम्हारा बड़ा भाई मेघनाद जो आज तीनों लोकों में अविजित है वो भी केवल महारुद्र द्वारा प्रदान किये बल के कारण है। इसीलिए मैंने जीवन में केवल इन्ही की अधीनता स्वीकार की है।"

ये सुनकर अतिकाय ने कहा - "पिताश्री! आपके द्वारा महारुद्र का वर्णन सुनकर मुझे भी उनके दर्शन की लालसा हो रही है। मुझे बताइये कि किस प्रकार मैं उनकी कृपा प्राप्त कर सकता हूँ?" ये सुनकर रावण अत्यंत प्रसन्न हुआ और अतिकाय से बोला - "पुत्र! ये सुनकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम आज ही कैलाश प्रस्थान करो और महारुद्र के दर्शन प्राप्त करने का प्रयास करो। अगर उनकी कृपा तुम्हे प्राप्त हो गयी तो तुम भी अपने भाई की भांति अजेय हो जाओगे। किन्तु एक बात का ध्यान रखना कि उनके समक्ष किसी प्रकार का दुस्साहस ना करना और सदैव विनम्र रहना अन्यथा तुम्हारा नाश अवश्यम्भावी है।"

अपने पिता से परामर्श प्राप्त कर अतिकाय कैलाश पहुँचा। वहां पर शिवगणों द्वारा रोके जाने पर उसने उत्पात मचाना प्रारम्भ कर दिया। वहाँ का कोलाहल सुनकर भगवान रूद्र क्रोध में वहाँ पहुंचे। जब अतिकाय ने उन्हें देखा तो उनके तेज को सामने उसे और कुछ नहीं सुझा। जब रूद्र ने एक राक्षस को ऐसा उत्पात मचाते देखा तो क्रोध में आकर उन्होंने उसपर अपने त्रिशूल से प्रहार किया। तब अतिकाय ने असाधारण वीरता का प्रदर्शन करते हुए उनके त्रिशूल को मार्ग में ही पकड़ लिया और तत्काल महारुद्र को प्रणाम करते हुए उनके समक्ष दंडवत लेट गया।

उसका ऐसा पराक्रम और नम्रता देख कर महारुद्र अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे उसका परिचय पूछा तब उसने बताया कि वो रावण का पुत्र है। तब भगवान रूद्र ने कहा - "अद्भुत! ऐसी वीरता केवल रावण के पुत्र में ही हो सकती है। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, वर मांगों।" तब अतिकाय ने उनसे शक्ति का वरदान माँगा। उसकी कामना सुनकर भगवान रूद्र ने उसे अतुल शक्ति प्रदान की और साथ ही विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्रों का भी उसे ज्ञान दिया।

चूँकि अतिकाय ने महारुद्र का त्रिशूल पकड़ा था इसीलिए भगवान रूद्र ने उसे अपने त्रिशूल के समान ही एक त्रिशूल प्रदान किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने उसे कई दुर्लभ अस्त्रों का ज्ञान दिया और उसे वरदान दिया कि उसका वध केवल ब्रह्मास्त्र द्वारा ही किया जा सकता है। इस प्रकार भगवान रूद्र से विभिन्न वरदान प्राप्त कर अजेय हो वो अपने पिता के पास लौटा जिससे रावण को बड़ा संतोष हुआ। 

अतिकाय के जन्म के विषय में एक कथा और आती है कि वो और उसका भाई त्रिशिरा, जो रावण और धन्यमालिनी का पुत्र था दोनों दैत्य मधु और कैटभ के अवतार थे। पिछले जन्म में भगवान विष्णु के द्वारा दोनों का वध किये जाने के बाद दोनों ने उनसे प्रतिशोध के लिए पुनः त्रेतायुग में रावण के पुत्र के रूप में जन्म लिया।

लंका के युद्ध में अतिकाय के अद्भुत पराक्रम का वर्णन मिलता है। जब युद्ध में रावण के बड़े-बड़े योद्धा मारे गए तब रावण ने अपने दो पुत्रों देवान्तक और नरान्तक को युद्ध के लिए भेजा। दोनों ने वानर सेना में त्राहि-त्राहि मचा दी। ये देख कर युवराज अंगद ने दोनों भाइयों को युद्ध के लिए ललकारा और बहुत देर तक भीषण युद्ध कर उन्होंने देवान्तक और नरान्तक का वध कर दिया। 

जब रावण को ये समाचार मिला तब उसने अपने दोनों पुत्रों त्रिशिरा और अतिकाय को युद्ध के लिए भेजा। दोनों का रूप देख कर वानर सेना तितर बितर हो गयी। अपनी सेना का ये हाल देख कर पवनपुत्र हनुमान त्रिशिरा के साथ भिड़ गए। त्रिशिरा बलशाली अवश्य था किन्तु हनुमान से पार ना पा सका और उनके हाथों युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। 

तभी श्रीराम ने देखा कि एक विशालकाय राक्षस वानर सेना को यूँ काट रहा है जैसे कृषक खेतों से खर-पतवार काटता है। उन्होंने विभीषण से पूछा - "हे लंकेश! ये महान वीर कौन है जिसका आकार आकाश को छू रहा है? कही यही तो प्रसिद्ध कुम्भकर्ण नहीं है?" तब विभीषण ने कहा - "प्रभु! ये कुम्भकर्ण नहीं बल्कि रावण का पुत्र अतिकाय है। किन्तु आप इसे कुम्भकर्ण से कम समझने की भूल ना करें। ये वो वीर है जिसने स्वयं रूद्र का त्रिशूल बीच मार्ग में पकड़ लिया था। यही नहीं इसने धनुर्विद्या का ज्ञान भी महारुद्र से ही लिया है। अगर इसे ना रोका गया तो ये पूरी सेना का नाश कर देगा। अतः इसका अंत तत्काल कर देना चाहिए।"

तब श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान के साथ अतिकाय के समक्ष पहुंचे। उन्हें अपने सामने आया देख कर अतिकाय ने साधारण वानरों को मारना छोड़ दिया और उनके समक्ष आकर बोला - "तो तुम राम हो? लंका के कुछ वीरों का अंत कर ये ना समझना कि लंका वीरों से रिक्त हो गयी है। पिताश्री बिना कारण ही तुम जैसे तुच्छ मनुष्य के कारण पीड़ित हो रहे हैं। आज मैं तुम्हे तुम्हारे भाई और कुटुंब सहित यमलोक भेज दूंगा।"

इस प्रकार उसने श्रीराम को और भी कई अपशब्द बोले। उसकी बातें श्रीराम तो शांति से सुनते रहे किन्तु लक्ष्मण उनका अपमान सहन नहीं कर सके और श्रीराम से उसके वध की आज्ञा मांगी। तब श्रीराम ने उन्हें आश्रीवाद देकर युद्ध करने भेजा। स्वयं लक्ष्मण को युध्क्षेत्र में आया देख कर वानर सेना हर्ष के मारे सिंहनाद करने लगी। अब अतिकाय और लक्ष्मण में भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ।

अतिकाय के द्वारा किये गए सारे वार लक्ष्मण ने बात ही बात में काट दिए किन्तु उनका एक भी वार अतिकाय को रोकने में सफल नहीं हुआ। ये देख कर लक्ष्मण और अतिकाय ने एक दूसरे पर दिव्यास्त्रों से प्रहार करना आरम्भ किया किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। जब अतिकाय ने देखा कि लक्ष्मण पर विजय दिव्यास्त्रों से भी संभव नहीं है तो उसने रूद्र द्वारा प्रदान किया गया त्रिशूल उनपर छोड़ा। ये देख कर महाबली हनुमान ने अतिकाय की ही भांति उस त्रिशूल को मार्ग में भी पकड़ कर तोड़ डाला। 

अब लक्ष्मण आश्चर्य में पड़ गए कि क्यों अतिकाय पर उनके प्रहारों का प्रभाव नहीं पड़ रहा है। ये देख कर देवराज इंद्र ने वायुदेव को लक्ष्मण के पास भेजा। वायुदेव ने लक्ष्मण के पास पहुँच कर उनसे कहा - "हे शेषावतार! इस राक्षस को ये वरदान प्राप्त है कि इसका वध केवल ब्रह्मास्त्र द्वारा ही संभव है। अतः बिना समय गवाए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करें।"

तब पवनदेव का परामर्श मान कर लक्ष्मण ने सबसे घातक महास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान किया और अंततः अतिकाय का वध कर दिया। अतिकाय के मरते ही राक्षस सेना रोते बिलखते युध्क्षेत्र से भाग खड़ी हुई। जब रावण को अपने वीर पुत्र के मृत्यु का समाचार मिला तो वो मारे शोक के शक्तिहीन हो अपने सिंहासन पर गिर पड़ा। तब श्रीराम ने अतिकाय के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसके शव को अंतिम क्रिया के लिए उसके पिता के पास भिजवा दिया।

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