तिरुपति बालाजी

तिरुपति बालाजी
कदाचित ही कोई ऐसा हो जिसने तिरुपति बालाजी का नाम ना सुना हो। इसे दक्षिण भारत के सब बड़े और प्रसिद्ध मंदिर के रूप में मान्यता प्राप्त है। दक्षिण भारत के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी इस मंदिर की बहुत मान्यता है। यह एक ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान विष्णु मनुष्य रूप में विद्यमान हैं जिन्हे "वेंकटेश" कहा जाता है। इसी कारण इसे "वेंकटेश्वर बालाजी" भी कहते हैं। ये मंदिर विश्व का सबसे अमीर मंदिर है जहाँ की अनुमानित धनराशि ५०००० करोड़ से भी अधिक है। इसके पीछे का कारण बड़ा विचित्र है।

बात तब की है जब देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। उस मंथन से अनेक रत्न प्राप्त हुए और उनमे से सबसे दुर्लभ देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई। उनका सौंदर्य ऐसा था कि देव और दैत्य दोनों उन्हें प्राप्त करना चाहते थे। किन्तु माता लक्ष्मी ने स्वयं श्रीहरि विष्णु को अपना वर चुन लिया। स्वयं ब्रह्मदेव ने दोनों का विवाह करवाया। विवाह के पश्चात देवी लक्ष्मी ने पूछा कि उनका स्थान कहाँ होगा? तब नारायण ने कहा कि उनका स्थान उनके वक्षस्थल में होगा।

ये सुनकर देवी लक्ष्मी थोड़ा रुष्ट होते हुए बोली - "प्रभु! सभी पुरुष अपनी पत्नियों को अपने ह्रदय में स्थान देते हैं फिर क्या कारण है कि आपने मुझे अपने हृदय के स्थान पर अपने वक्षस्थल में स्थान दिया?" तब श्रीहरि हँसते हुए बोले - "देवी! जिस प्रकार भगवान शिव के ह्रदय में सदैव मेरा ही ध्यान रहता है, उसी प्रकार मेरे ह्रदय में भी महादेव का स्थाई निवास है। यही कारण है कि मैंने आपको अपने वक्षस्थल में स्थान दिया है।"

कुछ काल के बाद सप्तर्षियों द्वारा एक महान यज्ञ किया गया और उसका पुण्यफल सबसे पहले किसे दिया जाये इस विषय में शंका उत्पन्न हो गयी। तब सप्तर्षियों ने निर्णय लिया कि त्रिदेवों में जो त्रिगुणातीत, अर्थात सत, तम एवं राज गुण से परे हो, उन्हें ही सबसे पहले यज्ञ का भाव प्रदान किया जाये। लेकिन त्रिदेवों की परीक्षा कौन ले? 

तब महर्षि अंगिरा ने ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगु को मनाया। तब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा ली। उन्होंने  पहले ब्रह्मदेव और फिर महादेव की परीक्षा ली। अंत में भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने श्रीहरि के वक्ष पर पाद प्रहार किया। इसपर भगवान विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए और पूछा - "हे महर्षि! वज्र के सामान कठोर मेरे वक्ष पर प्रहार करने के कारण आपको चोट तो नहीं आयी?" तब उनकी इस विनम्रता से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें त्रिगुणातीत माना और उन्हें ही यज्ञ के पुण्य का प्रथम अधिकारी माना।

परीक्षा के बाद महर्षि भृगु तो चले गए किन्तु इससे देवी लक्ष्मी बड़ी रुष्ट हुई। प्रभु का वक्षस्थल तो माता लक्ष्मी का निवास स्थान था फिर भृगु ऋषि ने उसपर पाद प्रहार करने का कैसे साहस किया? किन्तु उससे भी अधिक उन्हें भगवान विष्णु पर क्रोध आया कि उन्होंने महर्षि भृगु को दंड देने के स्थान पर उनके चरण पकड़ लिए। उन्हें लगा कि भगवान विष्णु को उनसे प्रेम नहीं है और उसी क्रोध में वे उन्हें त्याग कर चली गयी। 

जब देवी लक्ष्मी श्रीहरि को छोड़ कर चली गयी तो भगवान विष्णु व्याकुल होकर उन्हें त्रिलोक में ढूंढने लगे। उधर देवी लक्ष्मी ने पद्मावती के नाम से पृथ्वीलोक में जन्म लिया। जब श्रीहरि को इस बात का पता चला तो उन्होंने भी पृथ्वी पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया। युवा होने पर एक बार श्रीनिवास घूमते हुए वेंकटचल पर्वत क्षेत्र में बकुलामाई के आश्रम में पहुचे। बकुलामाई ने उनकी बड़ी आवाभगत की और उन्हें आश्रम में ही रहने को कहा।

एक दिन जंगल में एक मदमस्त हाथी आ गया जिससे डर कर आश्रमवासी इधर-उधर भागने लगे। जब श्रीनिवास ने यह देखा तो उसने धनुष-बाण लेकर उसका पीछा किया। अपने शौर्य से उन्होंने हाथी को परास्त कर दिया और वह हाथी भागकर घने जंगल में अदृश्य हो गया। श्रीनिवास भी उसके पीछे जंगल में चले गए। बहुत देर तक उस हाथी को खोजने के बाद श्रीनिवास थक गए और एक सरोवर के किनारे लेट गए। थकावट के कारण उन्हें नींद आ गयी।

अचानक कुछ शोर से उनकी नींद खुली। उन्होंने देखा कि कई सुन्दर स्त्रियाँ उन्हें घेर कर खड़ी थी। श्रीनिवास ने उनसे पूछा कि ये कौन सा स्थान है? तब उन्होंने बताया कि ये उपवन उनकी राजकुमारी पद्मावती का है और यहाँ पुरुषों का आना वर्जित है। आप किस प्रकार यहाँ आ गए? तब श्रीनिवास ने उन्हें सारी घटनाएं बताई और कहा कि वे उनकी राजकुमारी से क्षमा प्रार्थना करना चाहते हैं। तब उन स्त्रियों ने अपनी राजकुमारी पद्मावती को इसकी सूचना दी और वे वहाँ आयी।

जब श्रीनिवास ने पद्मावती को देखा तो देखते ही रह गए। किन्तु उन्होंने अपने आप को संयत किया और राजकुमारी पद्मावती से क्षमा-याचना कर वापस आश्रम लौट आये। किन्तु वहाँ आने के बाद भी वे पद्मावती को भूल नहीं पाए और उनके विरह में उदास रहने लगे। जब बकुलामाई ने उनकी ये दशा देखी तो बड़े प्यार से उनकी उदासी के बारे में पूछा तब उन्होंने पद्मावती के बारे में सारी बात बताई। उन्होंने कहा कि लगता है कि उन्हें पद्मावती से प्रेम हो गया है और वे उसके बिना जीवित नहीं रह सकते।

तब बकुलामाई ने कहा कि उसे ऐसा दुस्साहस नहीं करना चाहिए। वो पद्मावती प्रतापी चोल नरेश आकाशराज की कन्या है और तुम आश्रम में पलने वाले एक कुल गोत्रहीन युवक। तुम दोनों के बीच पृथ्वी और आकाश का अंतर है। तब श्रीनिवास ने कहा - "माँ! अगर तुम मेरी सहायता करो तो हम दोनों का मिलन अवश्य हो सकता है। बकुलामाई, जो श्रीनिवास को अपना पुत्र मानती थी, वो उसका दुःख देख ना सकी और उन्होंने श्रीनिवास को उसकी सहायता का वचन दिया।

श्रीनिवास एक स्त्री का वेश बना कर पद्मावती के पिता राजा आकाश की राजधानी नारायणपुर पहुँचे। उन्होंने उन्हें बताया कि वो एक पहुँची हुई ज्योतिषी है। उन्होंने राजा के विषय में कुछ ऐसी बातें बताई जिससे वे बड़े आश्चर्यचकित हो गए। तब उन्होंने अपनी पुत्री पद्मावती को बुलाया और स्त्री वेश में श्रीनिवास को उसका भविष्य बताने की प्रार्थना की। श्रीनिवास वही चाहते थे। उन्होंने पद्मावती का हाथ देख कर कहा कि कुछ दिनों पहले जिस युवक तो तुमने जंगल में देखा था, उसी से तुम्हारा विवाह होगा। कुछ दिनों के बाद उस युवक की माता विवाह का प्रस्ताव लेकर आपके पास आएगी। ये कहकर श्रीनिवास वहाँ से चले गए।

कुछ दिनों के बाद बकुलामाई नारायणपुर पहुँची और अपने पुत्र के विवाह का प्रस्ताव महाराज आकाश के सामने रखा। तब पद्मावती की माता धारणा देवी ने पूछा कि आपका पुत्र कौन है। तब बकुलामाई ने कहा - "हे महारानी! मेरे पुत्र का नाम श्रीनिवास है। वो चंद्रवंशी है और मुझे माता के सामान ही मानता है।" इसके बाद बकुलामाई ने श्रीनिवास की कुण्डली राजा को दी। तब महाराज आकाश ने उनसे कुछ दिन का समय माँगा। ये सुनकर बकुलामाई बाद में आने को कहकर वहाँ से चली गयी।

उनके जाने के बाद महाराज ने अपने राजपुरोहित को बुलाकर उन्हें श्रीनिवास की कुंडली दिखाई। उसे देखकर राजपुरोहित ने कहा कि - "हे महाराज! इस युवक के गुण तो स्वयं श्रीहरि विष्णु से मिलते हैं। लक्ष्मी के सामान आपकी पुत्री पद्मावती के लिए ये निश्चय ही सुयोग्य वर है।" ये सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बकुलामाई को अपनी सहमति भेज दी।

जब बकुलामाई ने ये सुना तो वो और श्रीनिवास बड़े प्रसन्न हुए। लेकिन वे तो बड़े निर्धन थे, अब राजा की बेटी से विवाह तो धूम-धाम से ही करना पड़ेगा। किन्तु उसके लिए धन कहाँ से आएगा। ये सोच कर बकुलामाई श्रीनिवास को लेकर वराहस्वामी के पास पहुँची और उनसे अपनी समस्या बताई। तब वराहस्वामी ने आठों दिक्पालों का आह्वान किया और श्रीनिवास से कहा कि उन्हें अपनी समस्या बताओ। तब श्रीनिवास ने कहा कि वो पद्मावती से विवाह करना चाहते हैं किन्तु उनके पास धन नहीं है।

तब देवराज इंद्र ने कुबेर से कहा कि वो श्रीनिवास को कुछ धन दे दें। तब कुबेर ने कहा कि "मैं धन दे तो दूँगा किन्तु श्रीनिवास उसे कब तक वापस कर पाएंगे?" इसपर श्रीनिवास ने कहा कि वे कलियुग के अंत तक उनका धन लौटा देंगे। तब कुबेर ने उन्हें बहुत धन दे दिया और सभी दिग्पालों के समक्ष उन्होंने श्रीनिवास से ऋण-पत्र लिखवा लिया। बाद में उस धन से श्रीनिवास ने धूम-धाम से पद्मावती से विवाह किया और दोनों सुख पूर्वक वेंकटाचलम् पर सुखपूर्वक रहने लगे।

उधर देवर्षि नारद ने देवी लक्ष्मी को इसकी सूचना दे दी कि श्रीनिवास रुपी भगवान विष्णु ने पद्मावती से विवाह कर लिया है। इससे रुष्ट होकर देवी लक्ष्मी वेंकटाचलम् पर्वत पहुँची और पद्मावती को बुरा-भला कहने लगी। अब दोनों में वाद-विवाद होना आरम्भ हो गया। इससे रुष्ट होकर श्रीनिवास ने स्वयं को पत्थर की मूर्ति के रूप में बदल लिया। अब दोनों देवियाँ बड़ा पछताई और अपने पति को पाषाण बना देख कर विलाप करने लगी।

तब उस शिला विग्रह से आवाज आई - "देवियों! आपलोग विलाप ना करें। मुझे तो इस पृथ्वी पर तब तक रहना है जबतक मैं कुबेर का ऋण ना चुका दूँ। इसीलिए कलियुग के अंत तक मैं अपने भक्तों के चढ़ाये गए चढ़ावे से उस कर्ज का ब्याज चुकता रहूँगा।" ये सुनकर दोनों वहाँ से चली गयी। देवी लक्ष्मी तो महाराष्ट्र के कोल्हापुर में महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी और पद्मावती तिरुनाचुर में शिला विग्रह के रूप में स्थित हो गयी।

यही कारण है कि आज तक भक्त तिरुपति में जाकर धन का दान करते हैं ताकि श्री वेंकटेश्वर बालाजी कुबेर के धन का ब्याज चुका सकें। आज ये मंदिर विश्व का सबसे अमीर मंदिर है जहाँ की संपत्ति ५००००००००००० (५० हजार करोड़) से भी अधिक है।
अब आइये हम तिरुपति बालाजी मंदिर के विषय में और कुछ रोचक तथ्य जानते हैं।
  • जहाँ ये मंदिर बना है उस नगर का नाम भी तिरुपति ही है। जिस पहाड़ी पर ये मंदिर बना है उसे तिरुमला के नाम से जाना जाता है।
  • भगवान वेंकटेश्वर के नाम से तिरुमला को वेंकटपर्वत भी कहा जाता है। ये पहाड़ी सर्पाकार है और उसकी सात चोटियां है। ये आकृति शेषनाग से बहुत मिलती है इसी कारण इसे शेषांचलम के नाम से भी जाना जाता है। इस पहाड़ी की सात चोटियों के नाम हैं - शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुडाद्रि, अंजनाद्रि, ऋषभाद्रि, नारायणाद्रि एवं वेंकटाद्रि हैं।
  • मंदिर के मुख्यद्वार के दाई तरफ और बालाजी के सर पर अनंताळवारजी के प्रहार के चिह्न हैं। बालरूप में बालाजी की ठोड़ी से रक्त बह निकला था और तभी से उनकी ठोड़ी पर चन्दन लगाने की प्रथा आरम्भ हुई।
  • बालाजी की प्रतिमा मंदिर के गर्भगृह के मध्य भाग में स्थित है किन्तु अगर आप मंदिर के बाहर से देखें तो आपको बालाजी दाईं कोने में खड़ी दिखती है।
  • गर्भगृह में चढ़ाई गयी किसी भी वास्तु को बाहर नहीं लाया जाता है। उसे बालाजी के पीछे स्थित एक जलकुंड में विसर्जित कर दिया जाता है। जो कुछ भी हम बालाजी के जलकुंड में विसर्जित करते हैं वो वहाँ से २० कोलीमीटर दूर वेरपेडु नामक स्थान पर बाहर निकलती है।
  • बालाजी की मूर्ति को प्रतिदिन ऊपर साड़ी और नीचे धोती से सजाया जाता है।
  • बालाजी के सर पर आज भी रेशमी बाल है और वो हमेशा ताजा रहते है और उसमे कभी भी उलझन नहीं आती।
  • मंदिर से करीब २३ किलोमीटर दूर एक गांव है जहाँ बहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। वही से लाये गए फूल और अन्य वस्तुओं को बालाजी पर चढ़ाया जाता है। इस गांव में महिलाएं साड़ी के नीचे कोई अंगवस्त्र नहीं पहनती हैं।
  • बालाजी के पृष्ठभाग को जितनी बार भी साफ़ करो, वहाँ गीलापन रहता ही है। अगर आप वहाँ कान लगाएंगे तो आपको समुद्र का घोष सुनाई देगा।
  • जैसा कि आपको पता है कि बालाजी के वक्ष में देवी लक्ष्मी का निवास है। प्रत्येक गुरुवार को बालाजी के वक्ष पर चन्दन की सजावट की जाती है। जब उसे निकाला जाता है तो आश्चर्यजनक रूप से उसपर देवी लक्ष्मी की आकृति उभर जाती है। बाद में उसे ऊँची कीमत पर बेचा जाता है।
  • गर्भगृह में जलने वाले दीपक कभी बुझते नहीं है। किसी को ये ज्ञात नहीं कि वो कितने सहत्र वर्षों से अनवरत जल रहे है।
  • किवदंती है कि १८०० ईस्वी में एक राजा ने १२ लोगों को मार कर इस मंदिर से लटका दिया था। उस समय श्रीवेंकटेश्वर वहाँ प्रकट हुए थे और उसके बाद मंदिर को १२ वर्षों के लिए बंद कर दिया गया था।
  • इस मंदिर में प्रसाद के रूप में मिलने वाले लड्डू विश्व भर में प्रसिद्ध है। ऐसा स्वाद आपको विश्व में कही और नहीं मिल सकता। इस लड्डू का वितरण यहाँ ३०० वर्षों से भी अधिक समय से किया जा रहा है। पहली बार २ अगस्त १७१५ में इसे प्रसाद के रूप में बाँटना आरम्भ किया गया। इसे बनाने में आंटा, चीनी, घी, इलाइची और मेवे का इस्तेमाल किया जाता है। इस विशेष प्रसाद को बनाने के लिए भी एक विशेष स्थान नियत है जहाँ हर कोई नहीं जा सकता है। इसे केवल खास रसोइये ही बनाते हैं। भगवान बालाजी को प्रतिदिन ताजे लड्डू का ही भोग लगता है और यहाँ प्रतिदिन ३००००० से अधिक लड्डू तैयार किये जाते हैं।
  • तिरुपति बालाजी के मंदिर में प्रतिदिन औसतन १००००००० (एक करोड़) रूपये से भी अधिक का दान होता है।

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