महर्षि अत्रि

महर्षि अत्रि
ऋषियों में श्रेष्ठ अत्रि मुनि अन्य सप्तर्षियो की भांति परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र थे जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के नेत्र से हुई बताई जाती है। इन्होने ने ही इंद्र, अग्नि, वरुण और अन्य वैदिक देवताओं के लिए ऋचाओं की रचना की थी। महर्षि अत्रि के विषय में सर्वाधिक वर्णन ऋग्वेद में किया गया है जहाँ ऋग्वेद के ५वें मंडल को महर्षि अत्रि के सम्मान स्वरुप 'अत्रि मंडल' के नाम से जाना जाता है। इस मंडल में महर्षि अत्रि से सम्बंधित ८७ सूक्त वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त महर्षि अत्रि पुराणों, रामायण और महाभारत में भी वर्णित हैं। 

महर्षि मरीचि

महर्षि मरीचि
महर्षि मरीचि परमपिता ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्रों में से एक हैं जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से हुई मानी जाती है, जिसके कारण उनका नाम 'मरिचि' पड़ा। प्रथम मनु स्वयंभू के मन्वन्तर में जो ७ ऋषि (मरीचि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, अत्रि एवं वशिष्ठ) सप्तर्षि कहलाये वो सभी ब्रह्मपुत्र थे। ब्रह्मदेव के पुत्र होने के कारण उन्हें 'समब्रह्म' अर्थात ब्रह्मा के सामान कहा जाता है किन्तु मरीचि को उनकी महानता के कारण साक्षात् द्वितीय ब्रह्मा भी कहा जाता है।

सप्तर्षि

सप्तर्षि
हिन्दू धर्म में सप्तर्षि वो सात सर्वोच्च ऋषि हैं जो परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र कहलाते हैं। कथाओं के अनुसार जब परमपिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की तब उन्होंने विश्व में ज्ञान के प्रसार के लिए अपने शरीर से ७ ऋषियों को प्रकट किया और उन्हें वेदों का ज्ञान देकर उस ज्ञान का प्रसार करने को कहा। ये ७ ऋषि ही समस्त ऋषिओं में श्रेष्ठ एवं अग्रगणी, 'सप्तर्षि' कहे जाते हैं। ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे मनु, प्रजापति इत्यादि का महत्त्व हो हैं ही किन्तु ब्राह्मणों के प्रणेता होने के कारण सप्तर्षिओं का महत्त्व सबसे अधिक माना जाता है।

रुक्मी

रुक्मी महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र है जो विदर्भ के राजा महाराज भीष्मक का सबसे बड़ा पुत्र था। महाराज भीष्मक के पांच पुत्र थे - रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मकेतु, रुक्मबाहु एवं रुक्मनेत्र। इसके अतिरिक्त रुक्मिणी नाम की उनकी एक कन्या भी थी। रुक्मी युवराज था और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर में अपने पिता की क्षत्रछाया में राज-काज संभालता था। बचपन से ही रुक्मी बहुत बलशाली और युद्ध विद्या में पारंगत था। किंपुरुष द्रुम उसके गुरु थे और उन्होंने रुक्मी को सभी प्रकार की युद्धकला में पारंगत किया था। इसके अतिरिक्त उसने भगवान परशुराम की कृपा से कई दिव्य अस्त्र भी प्राप्त किये थे। महाभारत में उसकी गिनती मुख्य रथियों में की जाती है।

कालयवन

कालयवन
कालयवन महाभारत काल का एक योद्धा था जो यवनों का राजा था। नहुष के पुत्र ययाति के ५ पुत्र हुए और उन्ही से समस्त राजवंश चले। किन्तु पुरु को छोड़ कर ययाति ने किसी को भी एकछत्र सम्राट बनने का अधिकार नहीं दिया। उन्ही के एक पुत्र और पुरु के बड़े भाई 'द्रुहु' से म्लेच्छों का राजवंश चला। 

लंका काली कैसे पड़ी?

लंका काली कैसे पड़ी?
रामायण का 'लंका दहन' प्रसंग उसके सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रसंगों में से एक है। आम धारणा है कि जब रावण ने महाबली हनुमान को बंदी बना कर उनकी पूछ में आग लगा दी तब उसी जलती हुई पूछ से हनुमान ने पूरी लंका में आग लगा दी। इससे पूरी लंका खण्डहर हो गयी जिसे बाद में रावण ने पुनः अपने स्वर्ण भंडार से पहले जैसा बसाया। हालाँकि इसके विषय में एक कथा हमें वाल्मीकि रामायण के साथ-साथ अन्य भाषाओँ की रामायण में भी मिलती है। इसके बारे में जो कथा प्रचलित है वो बजरंगबली और शनिदेव के संबंधों को भी दर्शाती है।

पुराणों में वर्णित पवन के प्रकार

पुराणों में वर्णित पवन के प्रकार
पुराणों में पवनदेव की महत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इंद्र, अग्नि, वरुण इत्यादि देवताओं के साथ पवनदेव भी मुख्य एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध देताओं में से एक हैं। पवन को बल का भी प्रतीक माना जाता है क्यूंकि इसकी शक्ति के सामने बड़े-बड़े पर्वत भी नहीं टिक पाते। उल्लेखनीय है कि रुद्रावतार महावीर हनुमान और पाण्डवपुत्र महाबली भीमसेन भी पवन के ही अंशावतार थे।

पुरुरवा और उर्वशी

पुरुरवा और उर्वशी
ब्रह्मा पुत्र मनु के एक पुत्र हुए जिनका नाम था इला। इला को पुरुष तथा स्त्री दोनों माना जाता है। अपने स्त्री रूप में इला ने चन्द्रमा और तारा (बृहस्पति की पत्नी) के अवैध पुत्र बुध से विवाह किया। इन्ही दोनों के पुत्र पुरुरवा हुए जिन्हे पुरुवंश का जनक माना जाता है। इन्ही के पुत्र आयु हुए, आयु के पुत्र नहुष और नहुष के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट ययाति हुए जिनके पुत्रों से ही आगे समस्त कुल चले। पुरुरवा ने देवराज की सर्वश्रेठ अप्सरा उर्वशी से विवाह किया। इस तरह से उर्वशी पुरुवंश की राजमाता बनी। कुरुवंश के बारे में विस्तार से एक लेख धर्म संसार पर पहले ही प्रकाशित हो चुका है। 

नवरत्न

नवरत्न
ज्योतिष शास्त्र में नवरत्नों का बड़ा महत्त्व है। इन नवरत्नों को नवग्रहों से जोड़ कर देखा जाता है। अलग-अलग ग्रहों से प्रभावित व्यक्तियों को अलग-अलग रत्नों को धारण करने की सलाह दी जाती है। हर रत्न के लिए एक विशेष मन्त्र भी है। कई बार रत्न काफी महंगे होते हैं इसी कारण इसके स्थान पर उपरत्नों को भी धारण किया जा सके ताकि निर्धन व्यक्ति भी इसका लाभ उठा सके। टूटा-फूटा, चिटका, दाग-धब्बेदार, रक्त या ताम्रवर्णीय मोती धारण करना हानिकारक होता है। तो आइये नवरत्नों के विषय में कुछ जानते हैं: