नंदी

प्राचीन काल में एक ऋषि थे "शिलाद"। उन्होंने ये निश्चय किया कि वे ब्रह्मचारी ही रहेंगे। जब उनके पित्तरों को ये पता कि शिलाद ने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया है तो वे दुखी हो गए क्यूँकि जबतक शिलाद को पुत्र प्राप्ति ना हो, उनकी मुक्ति नहीं हो सकती थी। उन्होंने शिलाद मुनि के स्वप्न में ये बात उन्हें बताई। शिलाद विवाह करना नहीं चाहते थे किन्तु अपने पित्तरों के उद्धार के लिए पुत्र प्राप्ति की कामना से उन्होंने देवराज इंद्र की तपस्या की।

इंद्र ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर कहा कि "हे ऋषि! मैं आपकी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ किन्तु आपके मन में जो इच्छा है उसे मैं पूरा नहीं कर सकता। इसी कारण आप महादेव को प्रसन्न करें।" इंद्र के सुझाव अनुसार शिलाद मुनि ने फिर भगवान शिव की कई वर्षों तक घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें अपने सामान ही एक पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया। 

उसके कुछ समय शिलाद ने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ किया और भूमि को जोतते समय उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसे देख कर उन्हें अत्यंत आनद हुआ और इसी कारण उन्होंने उसका नाम नंदी रखा। नंदी का अर्थ भी प्रसन्नता या आनंद है। वैसे तो शिलाद ने नंदी को अपने पित्तरों के उद्धार के लिए प्राप्त किया था किन्तु उसके जन्म के बाद वे पुत्र मोह में पड़ गए और अपने पुत्र से अत्यंत प्रेम करने लगे।

एक दिन "मित्र" एवं "वरुण" नामक दो ऋषि शिलाद मुनि के आश्रम में आये। वहाँ पर शिलाद और नंदी ने उनकी खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दोनों ने शिलाद को तो दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया किन्तु नंदी को बिना आशीर्वाद दिए वे जाने लगे। तब शिलाद मुनि ने दोनों से पुछा कि उन्होंने उनके पुत्र को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया। इसपर दोनों ने बताया कि नंदी अल्पायु है और १६ वर्ष पूर्ण करते ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। ये सुनकर शिलाद विलाप करने लगे किन्तु नंदी ने हँसते हुए कहा - "हे पिताश्री! आप व्यर्थ ही दुखी हो रहे हैं। मेरा जन्म महादेव के आशीर्वाद से हुआ है और अब वही मुझे मृत्यु से भी बचाएंगे।" ऐसा कहकर नंदी महादेव की तपस्या के लिए वन में चले गए।

उन्होंने महादेव की कठोर तपस्या की जिससे महारुद्र प्रसन्न हो उसे दर्शन देने आये। जब उन्होंने वरदान माँगने को कहा तो नंदी ने सदैव उन्हें उनके सानिध्य का वरदान माँगा। तब महादेव ने उसे अमरता का वर दिया और अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। नंदी वही से महादेव के साथ कैलाश को चले गए और उनकी सेवा में रम गए। जब शिलाद मुनि को ये पता चला कि भगवान शिव की कृपा से उनका पुत्र अजर-अमर हो गया है और उसे सदैव शिव सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ है तो वे अत्यंत प्रसन्न हुआ। 

भगवान शिव की सेवा करते हुए नंदी को बहुत दिन बीत गए और शिलाद अत्यंत वृद्ध हो गए। तब वे अपने पुत्र से मिलने कैलाश पहुँचे। नंदी अपने पिता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी खूब सेवा की। तब शिलाद ने उनसे साथ चलने को कहा किन्तु नंदी ने उनकी आज्ञा ये कह कर ठुकरा दी कि उनके जीवन का उद्देश्य केवल भगवान शिव की सेवा करना ही है। तब शिलाद मुनि से भगवान शिव से प्रार्थना की कि अब इस वृद्धावस्था में वे उनके पुत्र को उनके साथ भेज दें।

ये सुनकर महादेव ने आज्ञा देते हुए कहा "हे पुत्र! तुम्हारे पिता अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं अतः ये तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनकी सेवा करो। अतः मेरी ये इच्छा है कि तुम हठ छोडो और अपने पिता के साथ वापस लौट जाओ।" नंदी महादेव की आज्ञा मानने को विवश थे इसी कारण भरे मन से वे शिलाद के साथ लौट तो गए किन्तु उनके प्राण कैलाश में ही रह गए। अपने आराध्य से दूर होने के कारण नंदी का स्वास्थ्य प्रतिदिन बिगड़ने लगा। तब शिलाद ने उसका विवाह मरुत कन्या सुयशा से करवा दिया ताकि गृहस्थ जीवन में वे रम जाएँ किन्तु इसका नंदी के स्वास्थ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे शीघ्र ही मरणासन्न अवस्था में पहुँच गया। 

जब शिलाद मुनि ने देखा कि उनके पुत्र के प्राण संकट में हैं तब उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। अपने भक्त को इस अवस्था में देख कर वे तुरंत आश्रम पहुँचे और नंदी को स्वस्थ कर दिया। तब शिलाद मुनि ने कहा "हे महादेव! आपमें ही इसके प्राण बसते हैं इसी कारण ये यहाँ नहीं रह पायेगा। कृपा कर आप इसे अपने साथ कैलाश ले जाएँ। तब उनकी और नंदी की प्रार्थना पर महादेव नंदी और सुयशा के साथ कैलाश लौट गए।

एक बार महादेव देवी पार्वती के साथ अन्तःपुर में थे और उन्होंने नंदी को द्वार की रक्षा करने को कहा। तभी वहाँ महर्षि भृगु महादेव के दर्शनों के लिए पधारे। उन्होंने नंदी से कहा कि वे महादेव को उनके आगमन की सूचना दें किन्तु नंदी ने उनसे कहा कि महादेव की आज्ञा अनुसार वे द्वार से नहीं हट सकते। इसपर महर्षि भृगु क्रुद्ध हो गए और उन्होंने नंदी को श्राप दिया कि "रे अभिमानी! जिस बल के अहंकार स्वरुप तू मुझे रोक रहा है उस अभिमान का नाश कोई जल्द ही तुझे परास्त कर करेगा।" भृगु मुनि के द्वारा श्राप पाने के बाद भी नंदी उसी अविचल भाव से द्वार की रक्षा करते रहे। जब भगवान बाहर आये तो नंदी की स्वामी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए और उसे समस्त शिवगणों का अधिपति बना दिया और "नंदीश्वर" की उपाधि दी।

कुछ काल के बाद राक्षसराज रावण कैलाश पहुँचा और नंदी ने उसे रोका। तब रावण और नंदी के बीच भयंकर युद्ध हुआ किन्तु भृगु के श्राप के कारण रावण ने नंदी को परास्त कर दिया। उसे परास्त करने के बाद रावण ने उसे "पशुमुख" कह उसका उपहास किया। तब नंदी ने रावण को श्राप दिया कि "रे अधम! जिस पशु से तू मेरी तुलना कर रहा है, शीघ्र ही एक पशुमुख के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।" नंदी के श्राप के कारण ही महादेव ने हनुमान के रूप में रुद्रावतार लिया और समस्त लंका को जला कर भस्म कर दिया। 

नंदी को स्वामिभक्ति के साथ-साथ बल और कर्मठता का प्रतीक भी माना गया है। श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के जब श्रीराम की सेना ने वीरमणि के राज्य पर आक्रमण किया तो शिवगणों के साथ उनका भयानक द्वन्द हुआ। उस युद्ध में नंदी ने स्वयं हनुमान को शिवास्त्र से बांध दिया था। इसके बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें। जब देवी सती ने दक्ष के यञकुंड में आत्मदाह कर लिया था तो वीरभद्र के आने से पहले नंदी ने अकेले ही दक्ष की सेना का संहार कर दिया था। यही नहीं कई जगह इस बात का भी वर्णन है कि श्रीगणेश और कार्तिकेय को अपनी पहली युद्ध शिक्षा नंदी से ही प्राप्त हुई थी। 

एक कथा के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव से वेदों का रहस्य जानने का अनुरोध किया। ये ज्ञान इतना गूढ़ था कि भगवान शिव देवी पार्वती को लेकर अमरनाथ की गुफा में गए ताकि देवता भी इस रहस्य को ना जान सकें। मार्ग में वे चंद्र, वासुकि इत्यादि सभी चीजों का त्याग करते गए। गुफा पर पहुँचकर वे नंदी को भी वही छोड़ते हुए कहते हैं कि "वत्स! मैं तुम्हे सबसे अंत में त्याग रहा हूँ क्यूंकि तुम मुझे सब प्रिय हो।" 

वेदों का ज्ञान देने से पहले वे पार्वती से कहते हैं कि अगर उन्होंने ये ज्ञान पूरा ना सुना तो वे उनसे बिछड़ जाएँगी। देवी पार्वती के आश्वासन देने पर भगवान शिव कथा प्रारम्भ करते हैं किन्तु देवी बीच में ही सो जाती है। इस कारण वे शिव से दूर हो जाती है और अगले जन्म में एक मछुआरे के यहाँ जन्म लेती हैं। 

उनके पिता ये कहते हैं कि जो भी मछुआरा इस विश्व की सबसे बड़ी मछली को मरेगा वे उसी से उनका विवाह करेंगे। तब भगवान शिव एक मछुआरे के वेश में वहाँ आते हैं और नंदी एक बहुत बड़ी मछली के रूप में अवतार लेते हैं। तब मछुआरे रुपी शिव मछली रुपी नंदी का वध कर विवाह की शर्त पूरी करते हैं और देवी पार्वती को पुनः पाते हैं। पुराणों के अनुसार भगवान शिव सदैव समाधि में रमे रहते हैं इसी कारण उन्होंने नंदी को आज्ञा दी है कि वे उनके मंदिर के सामने बैठ कर उनके भक्तों की प्रार्थना सुने।

इसी कारण हरेक शिव मंदिर में नंदी की प्रतिमा होती है और भक्त अपनी प्रार्थना उनके कान में कहते हैं जो सीधे महादेव तक पहुँचती है। बिना नंदी की प्रतिमा के शिव मंदिर अधूरा माना जाता है। नासिक के पंचवटी में एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है जहाँ नंदी की प्रतिमा नहीं है। इसी कथा भी बड़ी रोचक है। 

कहते हैं कि ब्रह्मा के पाँच सिरों में से एक हमेशा शिव निंदा किया करता था जिससे क्रुद्ध हो महादेव ने उनका एक सर काट दिया। किन्तु ऐसा करने से उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लग गया। तब पंचवटी में गोदावरी के समीप उन्हें एक बछड़ा मिला जो नंदी था। उसने भगवान शिव को गोदावरी के रामकुंड में स्नान करने को कहा। ऐसा करने पर वे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गए और उन्होंने नंदी को उस स्थान पर अपना गुरु माना और अपने सामने बैठने से मना कर दिया। 

नंदी के विषय में एक कथा समुद्र मंथन की आती है। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तब महदेव ने उसे पी लिया जिससे उनका कंठ नीला हो गया। हलाहल पीते समय कुछ बूंदें धरती पर गिर गयी। जब नंदी ने महादेव का कंठ देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और उसने जमीन पर पड़ी हलाहल की बूंदों को अपनी जीभ से साफ कर दिया। इसे देख कर सभी हैरान रह गए और नंदी से इसका कारण पूछा। तब नंदी ने कहा कि जिस कष्ट को उनके स्वामी ने ग्रहण किया है वही कष्ट उसने भी ग्रहण किया। इसे देख कर देव एवं दैत्यों ने एक स्वर से नंदी की प्रशंसा की। 

शिवगणों में नंदी का स्थान सबसे ऊँचा है। सिद्धांतिक लेखों के अनुसार भगवान शिव की सेना के आठ प्रमुख सेनापति हैं।
  1. गणेश
  2. नंदी
  3. देवी 
  4. चण्ड 
  5. महाकाल 
  6. ऋषभ 
  7. भृंगी 
  8. मुरुगण
उसी प्रकार नंदी को नदिनाथ संप्रदाय का जनक माना जाता है। इस संप्रदाय में नंदी के आठ शिष्य माने गए हैं जो आठों दिशाओं में शैव धर्म के प्रचार हेतु गए। 
  1. सनक 
  2. सनातन 
  3. सनन्दन 
  4. सनत्कुमार (इन चारों को सनत्कुमार कहते हैं जो ब्रह्मा के पुत्र हैं।)
  5. तिरुमुलर 
  6. व्याघ्रपाद 
  7. पतञ्जलि 
  8. शिवयोग

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