वट सावित्री

वट सावित्री
आप सबों को वट सावित्री की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज का दिन विवाहिता स्त्री के लिए बड़े महत्त्व का दिन होता है। वट सावित्री का व्रत भारत के प्रमुख व्रतों में से एक है और ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को रखने पर ईश्वर स्त्रिओं के सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देते हैं और उनके पति और पुत्र पर किसी प्रकार की आपदा नहीं आती। ये व्रत पौराणिक काल की सतिओं में श्रेष्ठ "सावित्री" से जुड़ा है जिसने अपने पति सत्यवान को स्वयं मृत्यु के मुख से बचा लिया था।

देवी सावित्री के अतिरिक्त उस व्रत में वटवृक्ष (बरगद का पेड़) का भी अत्यंत महत्त्व है। महर्षि पराशर ने कहा है कि "वट मूल तपोवासा।" अर्थात वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तीनो देवों का वास होता है। वटवृक्ष अपनी विशालता के कारण हिन्दू धर्म के विशाल स्वरुप का भी प्रतिनिधित्व करता है। आज के दिन सुहागिनें वटवृक्ष की ३ अथवा ५ परिक्रमा कर उसपर सुहाग की निशानियां भेंट करती हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से उनके पतियों की आयु लम्बी और निरोगी होती है। इससे जुडी एक पौराणिक कथा भी है।

पुराने काल में भद्रदेश के राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। इसी कारण उन्होंने एक महान यज्ञ करने का निश्चय किया। ये यज्ञ निरंतर १८ वर्षों तक चला और प्रतिदिन उस यज्ञ में १००००० आहुतियां पड़ी तब देवी सावित्री जिन्हे ब्रह्मदेव की पत्नी भी माना जाता है, उन्होंने यज्ञ में प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि उन्हें एक कन्या की प्राप्ति होगी। समय आने पर महाराज अश्वपति को कन्यारत्न की प्राप्ति हुई। सावित्री देवी के वरदान से जन्मी इस कन्या का नाम भी उन्होंने सावित्री ही रखा। 

जब सावित्री युवा हुई तो महाराज अश्वपति ने उन्हें भ्रमण पर जाने और अपने वर का चुनाव करने का आदेश दिया। अपने वर की तलाश में वो भटकते हुए एक वन में पहुँची जहाँ उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को देखा और मन ही मन उन्हें अपना पति मान लिया। जब वे उनसे अपनी विवाह याचना करने जा रही थी तभी मार्ग में देवर्षि नारद उन्हें मिले। उन्होंने सावित्री से कहा "हे देवी! ये तुमने कैसा निर्णय ले लिया है? तुम तो एक विशाल साम्राज्य की राजकुमारी हो वही सत्यवान के पिता द्युमत्सेन अपने राज से च्युत हो वन-वन भटक रहे हैं। यही नहीं, परिस्थति वश उनदोनों पति-पत्नी के नेत्रों की ज्योति भी चली गयी है। तुम भला सत्यवान से विवाह कर कौन सा सुख प्राप्त कर सकोगी?"

तब सावित्री ने विनयपूर्वक कहा "हे देवर्षि! अब चाहे जो भी हो किन्तु मैं तो मन ही मन सत्यवान को अपना पति मान चुकी हूँ अतः अब और किसी से विवाह करना मेरे लिए संभव नहीं है।" तब देवर्षि ने फिर कहा "देवी! वैसे तो मैंने तुम्हारे भले की ही बात की थी किन्तु तुम्हारी इच्छा। हालाँकि मैं तुम्हे ये बता देना चाहता हूँ कि तुम्हे इस विवाह के लिए वास्तव में क्यों रोक रहा हूँ। कारण ये है कि जिस सत्यवान से तुम विवाह करने जा रही हो उसके जीवन के केवल एक वर्ष बांकी है। आज से ठीक एक वर्ष पश्चात वो मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।" 

इसपर सावित्री ने पुनः नम्रता से कहा "हे देवर्षि! अब तो मैं मन से उन्हें अपना पति मान ही चुकी हूँ। अब अगर ईश्वर ने हमारा केवल एक वर्ष का सानिध्य लिखा है तो वही सही।" ऐसा कहकर उसने देवर्षि को प्रणाम किया और सत्यवान के पास जाकर विवाह की प्रार्थना की। उनके माता-पिता की स्वीकृति के बाद दोनों का विवाह हो गया।

विवाह के पश्चात सावित्री ने अपने सारे अलंकारों का त्याग कर दिया और वल्कल वस्त्र पहन कर पूर्ण भाव से अपने सास-ससुर एवं पति की सेवा करने लगी। समय अपनी गति से चलता रहा और अंततः सत्यवान की मृत्यु का दिन भी आ गया। सत्यवान प्रतिदिन वन से लकड़ियां काट कर लाया करता था और उसे बाजार में बेच कर अपनी जीविका चलाता था। 

उस दिन भी जब वो वन जाने को तैयार हुआ तो सावित्री ने भी साथ चलने की प्रार्थना की। सत्यवान चकित हुआ किन्तु सावित्री ने जिद पकड़ ली की आज वो उनके साथ ही जाएगी। अंततः सत्यवान को आज्ञा देनी पड़ी। अपने सास-ससुर से आज्ञा लेकर सावित्री सत्यवान के पीछे-पीछे वन चल पड़ी। वन पहुँचकर सत्यवान लकड़ियां काटने एक वटवृक्ष पर चढ़े लेकिन जल्द ही उन्हें मूर्छा आने लगी। वे पेड़ से उतरे और मूर्छित हो गए। सावित्री उनका सर अपने गोद में लेकर अपने आँचल से हवा करने लगी।

तभी एक महाकाय देवपुरुष वहाँ प्रकट हुए। उनके चेहरे से सूर्य का तेज चमक रहा था और उन्हें देखने से ही भय का आभास होता था। उस विकराल देवपुरुष को देख कर सावित्री भय से बोली "हे देव! आप कौन है जिन्हे देखने मात्र से पूरा शरीर भय से कम्पित हो रहा है।" इसपर उस देव ने कहा "हे देवी! मैं यम हूँ। मुझे ज्ञात है कि देवर्षि ने तुम्हे पहले ही सूचित कर दिया था कि आज तुम्हारे पति सत्यवान का अंतिम दिन है। इसी लिए विधि के अनुसार मैं तुम्हारे पति के प्राण हरने आया हूँ। तुम्हारे सतीत्व का मान रखने के लिए मैंने अपने किसी दूत को नहीं भेजा और स्वयं आया हूँ। अतः मोह छोडो और अपने पति को छोड़ कर उठ जाओ।" जब सावित्री ने ऐसा सुना तो पहले तो उसने यमदेव को सदर नमन किया और नम्रतापूर्वक उन्हें छोड़ने से मना कर दिया। 

तब यमराज ने अपने पाश से सत्यवान की आत्मा को बांध लिया और उसे खींचते हुए यमलोक चले। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी और उनके साथ यमपुरी के द्वार तक आ गयी। तब यमराज ने कहा "देवी! तुम हठ क्यों कर रही हो जबकि तुम अच्छी तरह से जानती हो कि मेरे पाश से अपने पति के प्राण छुड़ाना तुम्हारे लिए संभव नहीं है।" तब सावित्री ने हाथ जोड़ कर कहा "हे यमदेव! मेरा धर्म तो अपने पति का अनुसरण करना ही है। अगर आप मेरे पति के प्राण नहीं लौटा सकते तो मैं उनके पीछे ही यमलोक में प्रवेश करुँगी।" 

ऐसा सुनकर यमराज हँस कर बोले "हे देवी! ये भी संभव नहीं है। तुम यहाँ तक आ गयी यही बहुत है, अब लौट जाओ।" किन्तु सावित्री वही खडी रही। तब यमराज ने कहा "तुम्हारी पतिभक्ति और दृढ़ता देख कर मैं अति प्रसन्न हूँ इसीलिए तुम्हारी एक इच्छा पूर्ण कर सकता हूँ। अपने पति के प्राण को छोड़ कर और जो चाहो मांग लो।" यमराज की ये बात सुनकर सावित्री सोच में पड़ गयी। तब यमराज ने कहा "देवी! विलम्ब ना करो। सत्यवान को अब मैं लौटा नहीं सकता किन्तु अगर तुम चाहो तो अथाह धन-धान्य अथवा अपने सास-स्वसुर की दृष्टि और उनका खोया हुआ राज्य मांग लो। एक पुत्रवधु के लिए यही सर्वोत्तम कर्तव्य है।"

तब सावित्री ने हाँथ जोड़ कर कहा "हे देव! अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो ये वर दीजिये कि मेरे सास-ससुर अपने राज्य में मेरे पुत्रों को खेलते हुए देखें।" यमराज ने बिना सोचे समझे तथास्तु कह दिया। जब वे यमलोक के अंदर जाने लगे तब सावित्री पुनः उनके पीछे चल दी। तब यमराज ने उससे पूछ कि अब वो क्यों पीछे आ रही है? तब सावित्री ने कहा "हे यमराज! आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद तो दे दिया किन्तु बिना पति के ये कैसे संभव है?" 

अपने वरदान का मर्म जानकर यमराज हँस पड़े और कहा "हे देवी! तुम धन्य हो। तुमने एक ही वरदान में अपने पति के प्राण, पुत्र, अपने सास-स्वसुर के नेत्र और उनका राज्य मांग लिया। मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ इसीलिए सत्यवान के प्राण लौटता हूँ। साथ ही ये वर भी देता हूँ कि तुम्हारा पति दीर्घायु हों और तुम शतपुत्रवती बनो। आज के दिन जो कोई भी स्त्री इस व्रत को पूर्ण करेगी उनके पति को कभी भी अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा।" ऐसा कहते हुए उन्होंने सत्यवान के प्राण लौटा दिए। उन दोनों ने यमराज को प्रणाम किया और वापस लौट आये।

उसी दिन से वट सावित्री के व्रत का आरम्भ हुआ। उस वटवृक्ष के नीचे सत्यवान के प्राण जाने के कारण इस व्रत में वटवृक्ष का बड़ा महत्त्व है। आज के दिन जो भी स्त्री इस व्रत को रखती है उनके पति पर कभी कोई आपदा नहीं आती। धन्य है भारतवर्ष जहाँ सावित्री जैसी सतियों में श्रेष्ठ नारी ने जन्म लिया।

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