गणगौर तीज

गुड़ी पाड़वा के अगले दिन गणगौर तीज का पर्व मनाया जाता है जो राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बहुत प्रसिद्द है। इस दिन कुंवारी कन्याएँ मनचाहे वर के लिए और विवाहित स्त्रियाँ अखंड सौभाग्य की कामना से गुड़ी पड़वा के अगले दिन किसी नदी, तालाब या शुद्ध स्वच्छ शीतल सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौर को जल पिलाती हैं। दूसरे दिन शाम को बिदा के सुंदर व मार्मिक लोकगीतों के साथ उनका विसर्जन होता है। इसकी पौराणिक कथा भी बड़ी चर्चित है।

एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे एक गांव में पहुँचे जहाँ उनके आगमन का समाचार सुनकर गांव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियां उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। इसी बीच साधारण कुल की स्त्रियां श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुंच गईं। 

पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया और वे अखंड सुहाग प्राप्त कर लौटीं। इसके बाद उच्च कुल की स्त्रियां सोने-चांदी से निर्मित थालियों में विभिन्न प्रकार के पकवान लेकर उनकी पूजा करने पहुंचीं। उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने देवी पार्वती से कहा कि "गौरी! तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इनके लिए क्या बचा है?" 

पार्वतीजी ने उत्तर दिया कि "हे प्रभु! उन स्त्रियों को मैंने बाहरी पदार्थों से बना रस दिया था किन्तु इन स्त्रियों को मैं अपने रक्त का सुहाग रस दूंगी।" जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त किया तब देवी पार्वती ने अपनी उंगली चीरकर उससे निकलने वाले रक्त को उनपर छिड़का। जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया।

इसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से माता पार्वती स्नान करने नदी तट पर चली गयी और उसके बाद उन्होंने भगवान शंकर का शिवलिंग बना कर उनका पूजन किया जिसमे उन्हें काफी समय लग गया। जब वे लौटीं तो महादेव ने उनसे देर से आने का कारण पूछा। उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि नदी तट पर मेरे मायके वाले मिल गए थे जिनसे बातें करने में देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि "जब तुम्हारे परिवार वाले इतने निकट हैं तो चलो उनसे मिल लेते हैं।" 

ऐसा कहते हुए भगवान शंकर नदी की ओर चल पड़े। ये देख कर देवी पार्वती बड़ी दुविधा में पड़ गयी कि अब उनका भेद खुल जाएगा। वे चुपचाप भगवान शिव के पीछे चल पड़ी। उनकी पत्नी को लज्जित ना होना पड़े इसीलिए महादेव ने अपनी माया से नदी के निकल एक भव्य पड़ाव बना दिया जिसमे माता पार्वती के समस्त सम्बन्धी उपस्थित हो गए। जब पार्वती जी ने वहाँ तट पर अपने सम्बन्धियों को देखा तो आश्चर्य में पड़ गयी। वे समझ गयी कि ये महादेव की ही लीला है। भगवान शंकर वहाँ २ दिनों तक रहे। वे वहाँ और रुकना चाहते थे किन्तु तीसरे दिन देवी पार्वती स्वयं वहां से चल दी जिस कारण भगवान शिव भी उनके साथ चल दिए। 

काफी दूर चलने के बाद देवी पार्वती को ध्यान आया कि वे अपना चूड़ामणि वही छोड़ आयी हैं। जब वे उसे लेने वापस जाने लगी तो भगवान शंकर ने उन्हें रोकते हुए देवर्षि नारद को आज्ञा दी कि वे उनका चूड़ामणि वहाँ से ले आएं। जब नारद जी वहाँ पहुँचे तो उन्हें कोई महल नजर न आया। वहाँ तो दूर-दूर तक जंगल ही जंगल था। नारद जी बड़ी देर तक इधर उधर भटकते रहे और सोचने लगे कि शायद वे गलत जगह आ गए हैं। वे वापस जाने ही वाले थे कि सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को माता की चूड़ामणि एक वृक्ष पर टंगी हुई दिखाई दी। उन्होंने वो चूड़ामणि उतार ली और शिवजी के पास पहुंचकर वहाँ का हाल बताया।

महादेव ने हँसते हुए कहा कि "हे नारद! ये सब तो जगतमाता की लीला है।" इसपर देवी पार्वती ने महादेव की लीला समझते हुए लज्जा से कहा कि "हे नाथ! मैं समझ गयी कि ये लीला आपने ही रची है अन्यथा मैं किस योग्य हूँ।" तब देवर्षि ने ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि "माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है कि संसार की स्त्रियां आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है? 

आपकी शक्ति और भक्ति देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है अतः मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूं कि जो स्त्रियां इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेव की कृपा से दीर्घायु पति का संसर्ग मिलेगा।" उसी दिन से गणगौर तीज की प्रथा शुरू हुई। 

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